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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ५२ ब्रः विद्याधर का मित्रों को अन्तरंग उद्बोधन भरा पत्र

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    १९-०२-२०१६

    नरवाली (बासवाड़ा राजः)

    प्राणी मात्र के हितैषी, दयालु गुरुवर के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु-नमोस्तु नमोस्तु...

    हे गुरुवर! आज मैं आपसे आपके आध्यात्मिक शिष्य बालब्रह्मचारी विद्याधर के द्वारा लिखे गए अपने दूसरे पत्र का जिक्र कर रहा हूँ। जिससे तत्कालीन समाज को ज्ञात हो जाएगा कि भविष्य के आध्यात्मिक महापुरुष को पहचान न पाने का कितना बड़ा अपराध उन्होंने किया था। ये तो आपके ज्ञान चक्षुओं की विशेषता रही कि उस महापुरुषत्व को गर्भ में ही पहचान लिया और समाज की परवाह किए बिना ही जन्म दे दिया। आत्मीय मित्र मारुति भरमा मडिवाल को लिखा अन्तर्देशीय पत्र जो ३१-१०-१९६७ को सदलगा, (तालुका-चिक्कौड़ी) पहुँचा। जिसे वे सम्हालकर रखे हुए थे, उस कन्नड़ पत्र का हिन्दी अनुवाद विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता ने किया और मुझको उपलब्ध कराया है, वह आप तक प्रेषित कर रहा हूँ

     

    ब्रः विद्याधर का मित्रों को अन्तरंग उद्बोधन भरा पत्र

    श्री

    वीतरागाय नमः

    किशनगढ़ मदनगंज

    दिन बीत गया, मोती टूट गया तो काम का नहीं इसी प्रकार तुम लोग समय बिताने में लगे हो, दिनदिन आपकी आयु कम होती जा रही है, तुम लोग ध्यान नहीं दे रहे हो। देखो-विचार करो! इस मनुष्य जन्म की तिथी निश्चित नहीं है। इसलिए आप जल्दी से संसार से मोह को त्यागकर इस ओर आ जाओ। नीति

    अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।

    गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्।।

    बुद्धिमान् मनुष्य खुद को अजर-अमर समझकर ज्ञान और धन का संग्रह करता है। इस प्रकार मृत्यु सामने खड़ी है ऐसा सोचकर धर्म में अपना जीवन बिताता है। ये बुद्धिमान का कार्य है। इसी वाक्य से आप दोनों भी जल्दी संसार से मोह का त्याग करके आत्मोन्नति के अनुसार वैराग्य को धारण करने के लिए आ जाओ-रहने दो अब, आगे किसी को पता न चले ऐसा जिनगोंड़ा को बताना और दोनों आ जाना क्योंकि ऐसा मैंने वचन दिया था, आते समय मैं ऐसा वचन देकर आया था कि पहुँचकर पत्र लिखूँगा और तुम दोनों आ जाना, मैंने आते ही पत्र लिखा लेकिन उसका जवाब ऐसा आया, जो मुझे पसंद नहीं है। इसलिए अब हम दूसरा पत्र नहीं लिख रहे हैं। अब किसी को पता न चले और आप जिनगोंड़ा को समझा देना और आप दोनों आ जाना। जिनगोंड़ा ने कहा था-तुम पहले जाना, मैं बाद में आऊँगा इसलिए मुझे बहुत दुःख हो रहा है, हम और वे दोनों मिलकर दिगम्बर भेष धारण करेंगे ऐसा संकल्प किया था, उसको सहयोग देना तुम्हारा काम है, इसलिए उसके कारण इस बार मैंने अपनी दीक्षा रोकी है। मैंने महाराज से कहा है कि मेरा मित्र आने वाला है, मैं और वे मिलकर ही दीक्षा लेंगे ऐसा संकल्प लिया था, उसके आने के बाद ही दीक्षा देना ऐसा महाराज को कह दिया और एकांत में ढाई घण्टे में केशलोंच किया जिसे देखकर महाराज को बहुत खुशी हुई, पत्र का उत्तर जल्दी देना।

     

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    -विद्याधर ब्रह्मचारी

     

    इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने वात्सल्यपूर्ण नीतिपरक पत्र लिखकर आत्मीय मित्रों को झकझोरा और प्राणों सी प्रिय सर्वकल्याणी दुर्लभ अपनी जिनदीक्षा को रुकवाया । यह मित्र स्नेह का और मित्रों के प्रति समर्पण का सबसे बड़ा उदाहरण है, और है विद्याधर के  सम्यग्दर्शन के वात्सल्य अंग का प्रतीक। नीतिकारों ने कहा है- मित्र वही है जो अपने मित्र को सच्ची राह दिखाये। ऐसे सम्यग्दर्शन से युक्त गुरु चरणों की त्रिकाल वन्दना करता हुआ...

     

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    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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