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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ५५ बच्चा महाराज, स्वाभिमानी ब्रह्मचारी विद्याधर,सरस्वती को समर्पित विद्याधर एवं सिर की चोटी बाँधकर अध्ययन करते विद्याधर

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    २५-०२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राजः)

    गर्भकल्याणक महोत्सव

     

    निरन्तर तप श्रम से श्रांत देह से परमत्व में विश्रांत करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपोपूत चरणकमलों की वंदना करता हूँ...

    हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने आपके संक्षिप्त प्रश्न का बहुत बड़ा उत्तर दिया या यूँ कहूँ कि आपकी छोटी सी परीक्षा में शत-प्रतिशत उत्तीर्ण होकर विद्याधर जी आपके कृपापात्र बने। तब ब्रह्मचारी विद्याधर की सुन्दर देहयष्टी देखकर लोग आकर्षित होने लगे और उनकी हर क्रिया को बड़े ही रुचि से देखने लगे। उस समय के लोगों ने मुझे अपनी-अपनी अनुभूतियाँ लिखकर भेजीं। वो मैं आपको बता रहा हूँ। मदनगंज-किशनगढ़ के प्राणेशकुमार बज जी ने लिखा-

     

    बच्चा महाराज

    ‘‘सन् १९६७ में मुनि ज्ञानसागर जी महाराज हमारे मदनगंज-किशनगढ़ में ग्रीष्मकाल के प्रवास में थे। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी सदलगा ग्राम जिला-बेलगाँव (कर्नाटक) से गुरुजी के पास आये थे। तब वो दिनभर पढ़ा करते थे। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने उनके लिए विद्वान् लगवा रखे थे। उस समय हमारी उम्र १७-१८ वर्ष की थी। हम अपने मित्रों के साथ ब्रह्मचारी जी को देखने जाया करते थे। वे गोरे-चिट्ट-वदन एवं काले धुंघराले बालों से आकर्षक सुन्दर होने के कारण हम युवा उन्हें बच्चा महाराज कहकर बुलाते थे। तो वह हँस देते थे किन्तु कहते कुछ भी नहीं थे।" इसी प्रकार रमेशचन्द्र गंगवाल जी मदनगंज-किशनगढ़ ने ब्रह्मचारी जी की दिनचर्या के बारे में बतलाया

     

    स्वाभिमानी ब्रह्मचारी विद्याधर

    “जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास आये थे तब हम उस समय १२-१३ वर्ष के थे। ज्ञानसागर जी महाराज का संघ श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मंदिर मदनगंज में ठहरा हुआ था। उनके साथ में क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी भी थे। तब हमने देखा ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी विद्याधर जी को धर्मग्रन्थ पढ़ाते रहते थे और डॉ. फैयाज अली किशनगढ़ के विद्याधर जी को अंग्रेजी शिक्षा देते थे। विद्याधर जी सुबह अभिषेक-पूजा करते थे, उसके बाद ज्ञानसागर जी महाराज से पढ़ते थे और फिर ज्ञानसागर जी महाराज को आहार कराने जाते थे। फिर स्वयं आहार करने जाते थे, किन्तु बिना बुलाये किसी के भी घर भोजन करने नहीं जाते थे। भोजन के पश्चात् सामायिक करते थे और फिर सामायिक के बाद में पढ़ा करते थे। शाम को भी सामायिक करते थे। फिर रात्रि में गुरु जी की वैयावृत्य करते थे। वो किसी से भी सांसारिक चर्चा नहीं करते थे। एकान्त में रहकर सदा पढ़ते रहते थे। जब कभी भी हम बच्चे उनको देखते और वो हमको देखते तो वो मुस्कुरा देते थे। हमने उनको एक दिन केशलोंच करते देखा। बड़े-बड़े धुंघराले बाल वो जोर-जोर से खींच रहे थे खून बह रहा था। केशलोंच के बाद उनको देखकर हमें बहुत रोना आया। बड़े सुन्दर बाल उखाड़कर अलग कर दिए थे।" इसी प्रसंग में दीपचंद छाबड़ा जी (नांदसी वाले) जयपुर ने बताया-

     

    सरस्वती को समर्पित विद्याधर

    “मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ब्रह्मचारी विद्याधर जी पं. श्री महेन्द्र कुमार जी पाटनी शास्त्री जी से संस्कृत एवं हिन्दी भाषा का ज्ञानार्जन करते थे। पण्डित जी से उन्होंने 'कातंत्ररूपमाला (संस्कृत व्याकरण), धनञ्जय नाममाला (शब्द कोश) एवं श्रुतबोध (छंद रचना)' इन तीन संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ा था। जितना वो पढ़ते थे उतना वो याद कर लेते थे और पण्डित जी को सुनाते थे।" इसी प्रकार मदनगंज-किशनगढ़ के शान्तिलाल गोधा जी (आवड़ा वाले) ने लिखा-

     

    सिर की चोटी बाँधकर अध्ययन करते विद्याधर

    "१९६७ मदनगंज-किशनगढ़ के दिगम्बर जैन चन्द्रप्रभु मंदिर में ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास चल रहा था। तब कई बार मुनि ज्ञानसागर जी महाराज अजमेर के कजोड़ीमल जी अजमेरा से पूछते थे कि ब्रह्मचारी विद्याधर पढ़ाई भी करता है या नहीं, तब कजोड़ीमल जी उनकी परीक्षा करते थे। रात्रि में कई बार कजोड़ीमल जी छिप-छिप करके उनको देखा करते थे। ८ बजे से ११-१२ बजे तक वो पढ़ते रहते थे। एक दिन विद्याधर अपनी सिर की चोटी को एक रस्सी से बाँधकर छत के कड़े से रस्सी को बाँधे हुए थे। दूसरे दिन हम लोगों ने उनसे पूछा-भैयाजी आपने ऐसा क्यों किया था? तो वो बोले नींद से बचने के लिए। तब हम लोगों ने कहा कि आप दिन में पढ़ लिया करो ना... तो बोले-गुरुजी ने जो पढ़ाया उसे अगले दिन उन्हें सुनाना पढ़ता है इसलिए पूरा याद करके ही विश्राम करता हूँ।"

     

    इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूर्णतः ज्ञान पुरुषार्थ में निरत हो गए। एक सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी की तरह उनकी दिनचर्या समयबद्ध चलने लगी थी, क्योंकि लौकिक ज्ञान लेने वालों को वर्ष में दो बार ही परीक्षा देना होती है, किन्तु पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए हर रोज परीक्षा देना होती थी। जिसके लिए विद्याधर जी सदा सतर्क और जागरुक रहे। गुरु-शिष्य के समान जाग्रति प्राप्त करने के लिए नमोस्तु करता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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