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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ५३ ब्रः विद्याधर जी का वैराग्य जनक पत्र

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    २००२-२०१६

    खमेरा (बासवाड़ा-राजः)

    लोक में श्रेष्ठ साधु शरण गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों की अप्रत्यक्ष शरण को ग्रहण कर त्रिकाल नमोस्तु करता हूँ...।

    हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अगला पत्र ०५-११-१९६७ को मदनगंज-किशनगढ़ से लिखा जो आत्मीय मित्र मारुति भरमा मडीवाल को सदलगा में १५-११-१९६७ को एक लिफाफे में रखा मिला। इस पत्र को पढ़कर किसी भी भव्य मुमुक्षु को वैराग्य उत्पन्न हो सकता है और वह सच्ची राह पकड़ सकता है। यह पत्र भी कन्नड़ भाषा में लिखा हुआ आज भी मित्र के पास एक अमानत के रूप में विद्यमान है, जिसकी नकल (फोटोकॉपी) विद्याधर के अग्रज भाई ने प्राप्तकर हिन्दी अनुवाद सहित भिजवाई है वह आपको भेजकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि मेरे गुरु की कोमल, पवित्र, वात्सल्यमयी, करुण, वीतराग, कर्तव्य भावना से ओत-प्रोत वैराग्यपूर्ण चिन्तन को पढ़कर आपका हृदय आनन्द विभोर हो उठेगा

     

    ब्रः विद्याधर जी का वैराग्य जनक पत्र

    श्री वीतरागाय नमः।

    प्रिय मित्र मारुति भरमा मडीवाल को यहाँ से १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज जी का आशीर्वाद... और हमारा अकुलतापूर्वक वंदन(आपके संयोग की इच्छा)।

    सम्बरं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुये मृगाय।

    समापन्न विपत्ति कालेधियोऽपि पंसा मलिना भवन्ति।।

    इस संसार में तद्भव मोक्षगामी को भी संसार में मलिनता का करने वाला कारणभूत यह संसार ही है। क्योंकि इसमें दूसरा और कोई गुण ही नहीं है। वही एक अज्ञानता है। देखो! ज्ञानी-चरमशरीरी-योगी के समान लक्षण को धारण करने वाले राम, सीता के लिए सोने का मृग समझकर उसके पीछे वन में कष्ट उठाया, यह भी एक मोह है। इसी प्रकार इस संसार में बहुत समस्यायें आती हैं। प्रतिसमय यह जीव भ्रमण कर रहा है यह आश्चर्य की बात है।(धिक्कार है इस संसार को, पंचेन्द्रिय भोगों को)

    अङ्गारसदृशी नारी नवनीत समा नराः।

    तत्तत्सान्निध्य मात्रेण द्रवेत पुंसां हि मानसम्॥

    स्त्री अंगारे के समान है और अंगारे के सामने पुरुष नवनीत के समान है, वह उसके सामने कितनी देर ठहर सकता है अर्थात् वह जल्दी ही पिघल जाता है। उसी प्रकार संसार के प्रपञ्च में पड़ने वाले नवनीत जैसा पिघल जाता है यानि मोहित हो जाता है। इसलिए हमारी आपसे नम्र विनंती है कि आप शीघ्रता से, वैराग्य से युक्त होकरघर छोड़कर सत्संग का रास्ता पकड़ना क्योंकि अनादिकाल से पुण्य संग्रह किए हो इसलिए मनुष्य जन्म मिला है, उस मनुष्य जन्म के समय को बिना कारण मत खोना, मैं तुमको क्या बताऊँ कि मेरे वैराग्य का कारण तुम हो और अभी तक तुम घर में हो... बहुत दुःख की बात है। शादी की बात मत करना क्योंकि और बंधन में पड़ जाओगे।

     

    कोई बात नहीं, जिनगोंड़ा को बताया कि नहीं, उनको बताना इस तरफ सब अच्छा रहेगा, शीघ्रता से आना। मैंने महाराज जी को तुम दोनों के बारे में सब बताया उसको सुनकर महाराज बहुत खुश हुए। इसलिए मेरी दीक्षा को भी आगे बढ़ा दिया और तुम दोनों का रास्ता देख रहा हूँ। महाराज जी जिनगोड़ा को भी दीक्षा देगें मैंने कहा था। एक और विषय है जिनगोंड़ा और मैंने मिलकर दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा ली हैं इसलिए दोनों मिलकर शीघ्रता से आना। धर्म की प्रभावना में आगे होना चाहिए उससे ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण दूर होता है। चकवा पक्षी की तरह आप दोनों का संयोग पत्र पहुँचते ही होना चाहिए।

     

    धर्म की रक्षा के लिए प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। अब मैंने डेढ़ महिने से नमक और शक्कर का त्याग किया है। मेरी संस्कृत की पढ़ाई अच्छी चल रही है और स्वास्थ्य भी अच्छा है। महावीर को भी बता देना। जब तक वैराग्य का रास्ता नहीं दिखता तब तक मोक्षमार्ग बहुत दूर है। मनुष्य जन्म का कल्याण वैराग्यमय ही है। कितना बताऊँ मुझे संतोष नहीं क्योंकि आप लोग अभी घर में ही हो । यही मुझे दिन-रात याद आती है और कुछ याद नहीं आता है। पत्र लिखकर बहुत दिन हुए, इस कारण पत्र का उत्तर जल्दी देना, उसके साथ दोनों आना |जिनगोंडा का पत्र आ चुका लेकिन उसको समझा देना मैंने उसको पत्र नहीं लिखा क्योंकि मेरा पत्र उसके पास नहीं पहुँचा, इसलिए मैंने उसको दूसरा पत्र नहीं लिखा तुम ही उसको समझा देना। उसने पत्र में ऐसा लिखा है कि मैं उससे नाराज हूँ लेकिन मैं उससे नाराज नहीं हूँ। उससे पूछकर, उसके कहने के बाद ही मैं यहाँ आया हूँ, बाद में आप आना ऐसा कहा था। मैंने उसको दूसरा पत्र नहीं लिखा क्योंकि पत्र मिलता नहीं है उसके साथ झगड़ा भी हो सकता है इसलिए तुम ही उसको समझा देना।

     

    Antaryatri mahapurush pdf01_Page_152.jpg

    –विद्याधर ब्रह्मचारी

    किशनगढ़ (मदनगंज)

    अजमेर (राजः)

     

    इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने वैराग्य से भरा पत्र अपने मित्रों को भेजा जिसमें विशेषता यह है कि अपने मित्रों के कल्याण के खातिर अपनी दीक्षा आगे बढवा दी। धन्य हैं, ऐसा अलौकिक अनुपम अद्वितीय मित्र। आज हम शिष्यगण धन्य हो गए ऐसे हितंकर गुरु मित्र को पाकर...। उनके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करते हुए आप का धन्यवाद करता हूँ कि ऐसा गुरु दिया...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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