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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. रयणमंजूषा (४ अप्रैल, १९८१) ‘रयण-मञ्जूषा' आचार्य समन्तभद्र कृत रत्नकरण्डक-श्रावकाचार का हिन्दी पद्यानुवाद है, जिसे आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने अतिशय क्षेत्र कुण्डलगिरि (कोनीजी) जिला जबलपुर (म० प्र०) में वीर निर्वाण संवत् २५०७, चैत्र कृष्ण अमावस्या, शनिवार, ४ अप्रैल, १९८१ में पूर्ण किया। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में रत्नस्वरूप श्रावक के आचारों का निरूपण है, अतः इसके अनुवाद का नाम भी आपने रयण-मञ्जूषा अर्थात् रत्न-मञ्जूषा रखा। इसमें एक सौ पचास श्लोक हैं। हम उनमें से भिन्न-भिन्न आचार सम्बन्धी कतिपय वृत्तों का ही अनुवाद उदाहरणतः प्रस्तुत करेंगे, जिससे अनुवाद के मूल्य को आँक सकें। यह अनुवाद 'ज्ञानोदय छन्द' में हुआ है। श्रावक के आचारों में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को धारण करना है। इसके लिए परमार्थमय आप्त, आगम और तपोधारक मुनियों में श्रद्धा रखनी एवं सम्यग्दर्शन के अष्टांगों का पालन, त्रय मूढ़ता और अष्ट मदों का त्याग अनिवार्य है।
  2. अनित्यानुप्रेक्षा सर्वोत्तमा भवन वाहन यान सारे, ये आसनादि शयनादिक प्राण प्यारे। माता पिता स्वजन सेवक दास दासी, राजा प्रजाजन सुरेश विनाश राशी ॥३॥ लावण्य-लाभ बल यौवन रूप प्यारा, सौभाग्य इन्द्रिय सतेज अनूप सारा। आरोग्य संग सबमें पल आयु वाले, हो नष्ट ज्यों सुरधनु बुध यों पुकारें ॥४॥ होके मिटे कि बलदेव नरेन्द्र का भी, नागेन्द्र का सुपद त्यों न सुरेन्द्र का भी। ये मेघ दृश्य सम या जल के बबूले, विद्-युत् सुरेश धनु से नसते समूले ॥५॥ लो! क्षीर नीर सम, मिश्रित, काय यों ही, जो जीव से दृढ़ बंधा नश जाय मोही ! भोगोपभोग अघकारण द्रव्य सारे, कैसे भले ध्रुव रहें व्यय शील-वाले ॥६॥ है वस्तुतः नर सुरासुर वैभवों से, आत्मा रहा पृथक भिन्न भवों-भवों से। ऐसा करो सतत चिंतन, जी रहा है, आत्मा वही अमर शाश्वत ही रहा है ॥७॥ अशरणानुप्रेक्षा घोड़े बड़े, रथ खड़े, मणि मंत्र हाथी, विद्या दवा सकल रक्षक संग साथी। पै मृत्यु के समय में जग में हमारे, होंगे नहीं शरण ये बुध यों विचारे ॥८॥ है स्वर्ग-दुर्ग सुरवर्ग सुभृत्य होता, है वज्र शस्त्र जिसका वह इन्द्र होता। ऐरावता गज गजेन्द्र सवार होता, ना! ना! उसे शरण अंतिम बार होता ॥९॥ अश्वादि पूर्ण बल है चतुरंग सेना, दो सात रत्न निधियाँ नव रंग लेना। चक्रेश को शरण ये नहिं अन्त में हो, खा जाय काल लखते लखते इन्हें वो ॥१०॥ लो रोग से जनन-मृत्यु-जरादिकों से, रक्षा निजात्म निज की करता अघों से। त्रैलोक में इसलिए निज आतमा ही, है वस्तुत; शरण लो अघ खातमा ही ॥११॥ ये पाँच इष्ट अरहंत सुसिद्ध प्यारे, आचार्यवर्य उवझाय सुसाधु सारे। आत्मा निजात्ममय ही करता इन्हें है, आत्मा अतः शरण ही नमता मुझे है॥१२॥ सद्ज्ञान और समदर्शन भी लखे हैं, सच्चा चरित्र तप भी जिसमें बसे हैं। आत्मा वही नियम से समझो कहाता, आत्मा अतः शरण हो मम प्राण त्राता ॥१३॥ एकत्वानुप्रेक्षा आत्मा यही विविध कर्म करे अकेला, संसार में भटकता चिर से अकेला। है एक ही जनमता मरता अकेला, है भोगता करम का फल भी अकेला ॥१४॥ है एक ही विषय की मदिरा सदा पी, औ तीव्र लोभवश हो, कर पाप पापी। तिर्यञ्च की नरक की दुख योनियों में, भोगे स्व-कर्म फल एक भवों भवों में ॥१५॥ दे पात्र दान उस धर्म निमित्त आत्मा, है एक ही करत पुण्य अये महात्मा। होता मनुष्य फलतः दिवि देव होता, पै एक ही फल लखे स्वयमेव ढोता ॥१६॥ उत्कृष्ट पात्र वह साधु अहो रहा है, सम्यक्त्व से सहित शोभित हो रहा है। सम्यक्त्व धार इक देशव्रती सुहाता, है पात्र मध्यम सुश्रावक ही कहाता ॥१७॥ सम्यक्त्व पा अविरती रहता सरागी, होता जघन्य वह पात्र न पाप-त्यागी। सम्यक्त्व से रहित मात्र अपात्र जानो, भाई अपात्र अरु पात्र सही पिछानो ॥१८॥ वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं। चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित ले सिजेंगे, पे भ्रष्ट दर्शनतया नहिं वे सिजेंगे ॥१९॥ मैं हूँ विशुद्धतम निर्मम हूँ अकेला, विज्ञान दर्शन सुलक्षण मात्र मेरा। एकत्व का सतत चिंतन साधु ऐसा, आदेय मान करते रहते हमेशा ॥२०॥ अन्यत्वानप्रेक्षा माता पिता सुत सुता वनिता व भ्राता, हैं जीव से पृथक हैं रखते न नाता। ये बाह्य में सहचरी दिख भी रहे हैं, मोहाभिभूत मदिरा नित पी रहे हैं ॥२१॥ स्वामी मरा मम, रहा मम प्राण प्यारा, यों शोक नित्य करता जड़ ही विचारा। पै डूबता भव पयोनिधि में निजी की, चिंता कभी न करता गलती यही की ॥२२॥ मैं शुद्ध चेतन, अचेतन से निराला, ऐसा सदैव कहता समदृष्टिवाला। रे देह नेह करना अति दुःख पाना, छोड़ो उसे तुम यही गुरु का बताना ॥२३॥ संसारानुप्रेक्षा संसार पंच विध है दुख से भरा है, है रोग शोक मृति जन्म जहाँ जरा हैं। जो मूढ़ गूढ़ निज को न निहारता है, संसार में भटकता चिर हारता है॥२४॥ संसार में विषय पुद्गल में अनेकों, भोगे तजे बहुत बार नितान्त देखो। संसार द्रव्य परिवर्तन वो रहा है, अध्यात्म के विषय में जग सो रहा है ॥२५॥ ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, तूने गहा न तन को क्रमशः जहाँ हो। छोटे बड़े धर सभी अवगाहनों को, संसार क्षेत्र' पलटे बहुशः अनेकों ॥२६॥ उत्सर्पिणीव अवसर्पिण की अनेकों, कालावली वरतती अयि भव्य देखो। यों जन्म मृत्यु उनमें बहु बार पाये, हो मूढ़ काल परिवर्तन भी कराये ॥२७॥ तूने जघन्य नरकायु लिए बिताये, ग्रैवेयकांत तक अंतिम आयु पाये। मिथ्यात्व धार भव के परिवर्तनों को, पूरे किये बहु व्यतीत युगों युगों को ॥२८॥ लो सर्व कर्म स्थिति यों अनुभाग बंधों, बाँधे प्रदेश विधि के अयि भव्यबंधो! मिथ्यात्व के वश हुए भव में भ्रमाये, ऐसे अनंत भव भावमयी बिताये ॥२९॥ स्त्री पुत्र मोह वश ही धन है कमाता, पापी बना विषम जीवन है चलाता। तो दान धर्म तजता निज भूल जाता, संसार में भटकता प्रतिकूल जाता ॥३०॥ स्त्री पुत्र धान्य धन ये मम कोष प्यारे, यों तीव्र लोभ-मद पी सब होश टारे। सद्धर्म से बहुत ही बस ऊब जाते, मोही अगाध भव सागर डूब जाते ॥३१॥ मिथ्यात्व के उदय से जिन धर्म निंदा, पापी सदैव करता नहिं आत्म निंदा। जाता कुतीर्थ, व कुलिंग कुधर्म माने, संसार में भटकता, सुन तू सयाने ॥३२॥ हो क्रूर जीव वध भी कर मांस खाता, पीता सुरा मधु-चखे तन दास भाता। पापी पराय धन स्त्री हरता सदा है, संसार में गिर, सहे दुख आपदा है॥३३॥ संसार में विषय के वश जो रहेगा, सो यत्न रात-दिन भी अघ का करेगा। मोहांधकार युत जीवन जी रहा है, संसार में भटकता ‘लघुधी रहा है॥३४॥ दोनों निगोद चउ थावर सप्त सप्त, हैं लक्ष हो विकल इन्द्रिय है षडत्र। हैं वृक्ष लक्ष दश चौदह लक्ष मर्त्य, चौरासि-लक्ष सब योनि सुजान मर्त्य ॥३५॥ मानापमान मिल जाय अलाभ होता, होता कभी सुख कभी दुख लाभ होता। होता वियोग विनियोग सुयोग होता, संसार को निरख तू उपयोग जोता ॥३६॥ हैं कर्म के उदय से जग जीव सारे, दिग् मूढ़ घोर भव कानन में विचारे। संसार-तत्त्व नहिं निश्चय से तथापि, हैं जीव मुक्त विधि से चिर से अपापी ॥३७॥ होता अतीत भव से पढ़ आत्म गाथा, आदेय-ध्येय वह जीव सदा सुहाता। संसार दुःख सहता दिन-रैन रोता, ऐसा विचार वह केवल हेय होता ॥३८॥ लोकानुप्रेक्षा जीवादि द्रव्य-दल शोभित हो रहा है, है लोक स्वीकृत सुनो तुम वो रहा है। पाताल-मध्य पुनि ऊर्ध्व प्रभेद द्वारा, सो लोक भी त्रिविध है दुख का पिटारा ॥३९॥ नीचे जहाँ नरक, नारक नित्य रोते, हैं मध्य में जलधि द्वीप असंख्य होते। हैं ऊर्ध्व में स्वरग त्रेसठ भेदवाले, लोकान्त में परम मोक्ष मुनीश पाले ॥४०॥ हैं एकतीस पुनि सात व चार दो हैं, है एक एक छह यों क्रमवार जो हैं। औ तीन बार त्रय हैं इक एक सारे, ऋज्वादि ये पटल त्रेसठ है उजाले ॥४१॥ स्वर्गीय मर्त्य सुख हो शुभ से सुनो रे! शुद्धोपयोग बल से शिव हो गुणो रे। पाताल हो अशुभ से पशु या विचारो, यों लोक चिंतन करो अघ को विसारो ॥४२॥ अशुच्यानुप्रेक्षा पूरी ढकी चरम से बहु अस्थियों से, काया बंधी व लिपटी पल पेशियों से। कीड़े जहाँ बिलबिला करते सदा हैं, मैली घृणास्पद यही तन संपदा है ॥४३॥ बीभत्स है तन अचेतन है विनाशी, दुर्गन्ध मांस पल का घर रूपराशी। धारा स्वभाव सड़ना गलना सदा ही, ऐसा सुचिंतन करो शिव राह राही ॥४४॥ मज्जा व मांस रस रक्त व मेद वाला, है मूत्र पीव कृमिधाम शरीर कारा। दुर्गन्ध है अशुचि चर्ममयी विनाशी, जानो अचेतन अनित्य अरे विलासी ॥४५॥ है कर्म से रहित है तन से निराला, होता अनन्त सुखधाम सदा निहाला। आत्मा सचेतन निकेतन है अनोखा, भा भावना सतत तू इस भाँति चोखा ॥४६॥ आस्रवानुप्रेक्षा मिथ्यात्व औ अविरती व कषाय चारों, औ योग आस्रव रहें इनको विसारो। ये पाँच पाँच क्रमशः चउ तीन भाते, सत् शास्त्र शुद्ध इनका शुचि गीत गाते ॥४७॥ एकान्त औ विनय औ विपरीत चौथा, अज्ञान संशय करे निजरीत खोता। मिथ्यात्व यों नियम से वह पंचधा है, हिंसादि से अविरती वह पंचधा है॥४८॥ माया प्रलोभ पुनि मान व क्रोध चारों, होते कषाय दुख दे इनको विसारो। वाक्काय और मन ये त्रय योग होते, वे सिद्ध योग बिन हो उपयोग ढोते ॥४९॥ होता द्विधा वह शुभाशुभ भेद द्वारा, प्रत्येक योग समझो गुरु ने पुकारा। आहार आदिक रही यह चार संज्ञा, होता वही अशुभ है ‘मन’ मान अज्ञा ॥५०॥ लेश्या सभी अशुभ जो प्रतिकूल बाना, धिक्कार इन्द्रिय सुखों नित झूल जाना। ईर्षा विषाद, इनको जिनशास्त्र गाता, ये ही रहे अशुभ सो मन, दुःखदाता ॥५१॥ नौ नोकषायमय जो परिणाम होना, संमोह रोष रति को अविराम ढोना। हो स्थूल सूक्ष्म कुछ भी जिन का बताना, वे ही रहे अशुभ सो मन दु:ख बाना ॥५२॥ स्त्री राज चोर अरु भोजन की कथायें, माना बुरा वचन योग, करें व्यथा ये। औ छेदनादि वधनादि बुरी क्रियायें, सो काय का अशुभ योग, यती बतायें ॥५३॥ पूर्वोक्त जो अशुभ भाव उन्हें विसारे, छोड़े तथा अशुभ द्रव्य अशेष सारे। हो संयमी समिति शील व्रतों निभाना, जानो उसे शुभ रहा मन योग बाना ॥५४॥ बोलो वही वचन जो भव दु:खहारी, सो योग है वचन का शुभ सौख्यकारी। सद्देव शास्त्र गुरु पूजन लीन काया, सो काय योग शुभ है जिन ईश गाया ॥५५॥ जो दुःखरूप जल जंगम से भरा है, ले दोषरूप लहरें लहरा रहा है। खाता, भवार्णव जहाँ यह जीव गोता, है कर्म-आस्रव सहेतु सदीव होता ॥५६॥ ज्यों ही कुधी करम-आस्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता। सज्ञान मंडित क्रिया कर तू जरा से, है मोक्ष का वह निमित्त परंपरा से ॥५७॥ ज्यों ही कुधी करम-आस्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता। जो आस्रवा वह क्रिया शिव का न हेतु, ऐसा विचार कर नित्य नितान्त रे तू ॥५८॥ हो सास्रवी वह क्रिया न परंपरा से, निर्वाण हेतु तुम तो समझो जरा से। संसार के गमन का वह हेतु होता, है निंद्य आस्रव हमें भव में डुबोता ॥५९॥ पूर्वोक्त आस्रव विभेद निरे निरे हैं, आत्मा विशुद्ध नय से उनसे परे है। आत्मा रहा उभय आस्रव मुक्त ऐसा, चिंते सभी तज प्रमाद सुधी हमेशा ॥६०॥ संवरानुप्रेक्षा सम्यक्त्व का दृढ़ कपाट विराट प्यारा, जो शून्य है चलमलादि अगाढ़ द्वारा। मिथ्यात्वरूप उस आस्रव द्वार को है, जो रोकता जिन कहे जग सार सो है ॥६१॥ पाले मुनीश-मन पंच महाव्रतों को, रोके सही अविरतीमय आस्रवों को। जो निष्कषायमय पावन भाव-धारे, रोके कषायमय आस्रव द्वार सारे ॥६२॥ औचित्य है कि शुभ योग विकास पाता, सद्यः स्वतः अशुभ योग विनाश पाता। शुद्धोपयोग शुभयोगन को नशाता, ऐसा वसंततिलका यह छन्द गाता ॥६३॥ शुद्धोपयोग बल वो मिलता जिसे है, तो धर्म शुक्लमय ध्यान मिले उसे है। है ध्यान हेतु विधि संवर का इसी से, ऐसा करो सतत चिंतन भी रुची से ॥६४॥ जीवात्म में न वर संवर भाव होता, वो तो विशुद्ध नय से शुचि भाव ढोता। आत्मा विमुक्त वर संवर भाव से रे! ऐसा सुचिंतन सदा कर चाव से रे॥६५॥ निर्जरानुप्रेक्षा जो भी बंधा पृथक हो विधि आतमा से, सो निर्जरा जिन कहे निज की प्रभा से। हो संवरा जिस निजी परिणाम द्वारा, हो निर्जरा वह उसी परिणाम द्वारा ॥६६॥ सो निर्जरा द्विविध, एक असंयमी में, होती सभी गतिन में इक संयमी में। आद्या स्वकाल विधि का झरना कहाती, दूजी तपश्चरण का फल रूप भाती ॥६७॥ धर्मानुप्रेक्षा है धर्म ग्यारह तथा दश भेदवाला, सम्यक्त्व से सहित है निज वेद शाला। सागार और अनगार जिसे निभाते, पा श्रेष्ठ सौख्य जिन यों हमको बताते ॥६८॥ सद्दर्शना सुव्रत सामयिकी सुभक्ति, औ प्रौषधी सचित त्याग दिवाभिभुक्ति। है ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक नाम पाता, आरंभ संग अनुमोदन त्याग साता। उद्दिष्टत्याग व्रत ग्यारह ये कहाते, हैं एकदेश व्रत श्रावक के सुहाते ॥६९॥ प्यारी क्षमा मृदुलता ऋजुता सचाई, औ शौच संयम धरो तप धार भाई। त्यागो परिग्रह अकिंचन गीत गा लो, तो! ब्रह्मचर्य सर में डुबकी लगा लो ॥७०॥ साक्षातकार यदि हो उससे, खड़ा है, जो क्रोध का जनक बाहर में अड़ा है। पै क्रोध-लेश तक भी मन में न लाते, पाते क्षमा धरम वे मुनि हैं कहाते ॥७१॥ हूँ श्रेष्ठ जाति कुल में श्रुत में यशस्वी, ज्ञानी सुशील अतिसुन्दर हूँ तपस्वी। ऐसा नहीं श्रमण हो मन मान लाते, औचित्य! वे “परम मार्दव धर्म' पाते ॥७२॥ कौटिल्य-छोड़ मुनि चारित पालता है, हीराभ सा विमल मानस धारता है। सो तीसरा परम आर्जव धर्म पाता, है अन्त में नियम से शिवशर्म पाता ॥७३॥ मिश्री मिले वचन ये रुचते सभी को, संताप हो श्रवण से न कभी किसी को। कल्याण हो स्वपर का मुनि बोलता है, सो सत्य धर्म उसका दृग खोलता है॥७४॥ भोगाभिलाष जिसने मन से हटाया, वैराग्य भाव दृढ़ से निज में जगाया। ऐसा महा मुनिपना मुनि ही निभाता, सो, शौच धर्ममय जीवन है बिताता ॥७५॥ जो पालता समिति इन्द्रिय जीतता है, है योग-रोध करता, व्रत धारता है। ऐसा महाश्रमण जीवन जी रहा है, सद्धर्म संयम-सुधा वह पी रहा है॥७६॥ फोड़ा कषाय घट को, मन को मरोड़ा, लो साधु ने विषय को विष मान छोड़ा। स्वाध्याय ध्यान बल से निज को निहारा, पाया नितान्त उसने तप धर्म प्यारा ॥७७॥ वैराग्य धार भव भोग स्वदेह से वो, देखा स्व को यदि सुदूर विमोह से हो। तो त्याग धर्म समझा उसने लिया है, संदेश यों जगत को प्रभु ने दिया है॥७८॥ जो अंतरंग-बहिरंग निसंग नंगा, होता दुखी नहिं सुखी बस नित्य चंगा। निर्द्वन्द्व हो विचरता अनगार होता, भाई वही वर अकिंचन धर्म ढोता ॥७९॥ सर्वांग देखकर भी वनिता जनों के, होते न मुग्ध उनमें मुनि हैं अनोखे। तो ब्रह्मचर्य व्रत धारक वे रहे हैं, कन्दर्प-दर्प-अपहारक वे रहे हैं ॥८०॥ सागार-धर्म तज के अनगार होते, शास्त्रानुसार यति के व्रतसार जोते। रीते रहे न शिव से अनिवार्य पाते, यों धर्म चिंतन करो अयि! आर्य तातें ॥८१॥ सागार-धर्म यति-धर्म निरे-निरे हैं, आत्मा विशुद्ध नय से उनसे परे है। मध्यस्थ भाव उनमें रखना इसी से, शुद्धात्मचिंतन सदा करना रुची से ॥८२॥ सद्दज्ञान होय जिस भाँति उपाय द्वारा, चिंता करें उस उपायन की सुचारा। चिंता वही परम बोधि अहो कहाती, सो बोधि दुर्लभ अतीव मुझे सुहाती ॥८३॥ जो भी क्षयोपशम ज्ञानन की छटायें, हैं हेय कर्मवश लो उपजी दशायें। आदेय मात्र निज आतमद्रव्य होता, सद्ज्ञान सो यह सुनिश्चय भव्य होता ॥८४॥ होते असंख्यतम लोक प्रमाण सारे, मूलोत्तरादि विधि ये परद्रव्य न्यारे। आत्मा विशुद्धनय से निज द्रव्य भाता, ऐसा जिनागम निरंतर नित्य गाता ॥८५॥ ऐसा सुचिंतन जभी दिन-रात होता, आदेय हेय वह क्या वह ज्ञात होता। आदेय हेय नहिं निश्चय में सयाने, चिंता सुबोध मुनि सो भवकूल-पाने ॥८६॥ है वस्तुतः सकल-बारह भावनायें, आलोचना सुखद शुद्ध समाधियाँ ये। ये ही प्रतिक्रमण है बस प्रत्यखाना, भा भावना नित अतः इनकी सयाना ॥८७॥ आलोचना सुसमता व समाधि पाले, सच्चा प्रतिक्रमण का शुचिभाव भा ले। औ प्रत्यखान कर रे दिन-रात भाई, है चाँदनी क्षणिक तो फिर रात आई ॥८८॥ भा बार-बार बस बारह भावनायें, वे भूत में शिव गये जिनभाव पाये। मैं बार-बार उनको प्रणमूँ त्रिसंध्या, मेरा प्रयोजन यही तजदूँ अविद्या ॥८९॥ जो भी हुए विगत में शिव और आगे, होंगे नितान्त पुरुषोत्तम और आगे। माहात्म्य मात्र वह द्वादश भावना का, क्या अर्थ है अब सुदीर्घ प्ररूपणा का ॥९०॥ जो कुन्दकुन्द मुनि नायक ने निभाया, है निश्चयादि व्यवहार हमें सुनाया। भाता विशुद्ध मन से इसको वही है, निर्वाण प्राप्त करता शिव की मही है॥९१॥
  3. मंगलाचरण सन्मति को मम नमन हो मम मति सन्मति होय। सुर नर पशु गति सब मिटे गति पंचम गति होय ॥१॥ चन्दन चन्दर चान्दनी से जिन-धुनि अति शीत! उसका सेवन मैं करूँ मन-वच-तन कर नीत ॥२॥ सुर, सुर-गुरु तक गुरु-चरण-रज सर पर सुचढ़ाय। यह मुनि-मन गुरु-भजन में निशि-दिन क्यों न लगाय॥३॥ कुन्द-कुन्द को नित नमूँ हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगंधित महक में जीवन मम घुल जाय ॥४॥ गुण-गण-निधि गुणभद्र-गुरु महके अगुरु सुगन्ध। अर्पित जिनपद में रहें गंधहीन मम छन्द ॥५॥ तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥६॥ आतम अनुशासन का पद्यमयी अनुवाद। करूँ, प्रयोजन बस यही मोह मिटे परमाद ॥६॥
  4. गुणोदय (२६ अक्टूबर, १९८०) श्री गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित 'आत्मानुशासन' नामक अध्यात्म काव्य का 'गुणोदय' पद्यानुवाद है। आचार्य गुणभद्र श्री जिनसेनाचार्य के सुशिप्य थे। इन्होंने ही अपने गुरु द्वारा प्रारब्ध महापुराण की रचना अपूर्ण रहने पर उसे पूर्ण किया था। आचार्य जिनसेन ने केवल ४२ सर्ग और ७ श्लोक ही लिखे थे, शेष भाग एवं उत्तरपुराण की रचना आचार्य गुणभद्र ने ही की। विद्वानों ने इनका समय शक संवत् की आठवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना है। आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज गुणोदय की प्रस्तावना रूप ‘अमिताक्षर' में इसके सम्बन्ध में लिखते हैं- “यह कृति जो आधुनिक शब्द विन्यासों, विविध भावाभिव्यञ्जनाओं एवं छन्दबन्ध-मुक्त-उन्मुक्त लयधाराओं से आकृत है। व्यक्तित्व की सत्ता को नहीं छूती हुई, सहज स्वतंत्र महासत्ता से आलिंगित परम पदार्थ की प्ररूपिका है; परम शान्त अध्यात्मरस से आद्योपान्त आपूरित।'' आगे इसकी प्रेरणा, रचना-स्थल एवं उद्देश्य के सम्बन्ध में वे कहते हैं कि-"इस कृति के सामयिक सत्प्रेरक तीर्थंकर' पत्रिका के सम्पादक डॉ० नेमिचन्द जी हैं। फलस्वरूप जहाँ की हरित-भरित पर्वतीय प्रकृति ने मानो कोटिशः आत्माओं की प्रकृति को विषय-कषायों से पूर्णरूपेण बचाकर मुक्ति दी है, उस परम पावन मुक्तिप्रदा मुक्तागिरि पर भीतरी घटना का घटक, आत्मतत्त्व से भावों, भावों से शब्दों एवं शब्दों से भाषा को रूप मिलकर इसका सम्पादन हुआ है। धन्य! पूर्ण विश्वास है कि इसका सदुपयोग होगा, उपलब्ध उपयोग होगा।'' इसमें आत्मानुशासन के आद्योपान्त समस्त २६९ श्लोकों का पद्यानुवाद हुआ है। इसके अतिरिक्त मूल ग्रन्थ के पूर्व सात दोहों में मंगलाचरण है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य गुणभद्र एवं गुरु आचार्य ज्ञानसागर के प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित किये गये हैं तथा अन्त में पद्यानुवाद का प्रयोजन बतलाया गया है-आत्मानुशासन के पद्यमयी अनुवाद में मेरा प्रयोजन केवल यही है कि मेरा मोह और प्रमाद नष्ट हो जाये। श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (म० प्र०) पर वर्षावास किया और परम आत्मानन्द प्राप्त किया। वहीं पर इस वर्षाकाल में वी० नि० सं० २५०६ के कार्तिक मास की कृष्णा तृतीया, रविवार, २६ अक्टूबर, १९८० के दिन इस ग्रन्थ को समाप्त किया, जो संसार के भोगों से मुक्ति का कारण है। आत्मानुशासन में आत्मा को अनुशासित करने के लिए उपाय बतलाये गये हैं-अनुशासक-वक्ता कैसा हो?, श्रोता भी कैसा हो?, पाप-पुण्य के फल, सम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं भेद, धर्म की महत्ता, मृगया-पिशुनतादि पाप कर्मों की अनुपादेयता, पुण्य कर्मों की उपादेयता, विषयान्धता की सदोषता, परिग्रह, त्याग तृष्णा निग्रह, न्यायपूर्वक धनोपार्जन, रागद्वेष से हानि, आभ्यन्तर शान्ति, विषयभोगों की अस्थिरता, तृष्णा की प्रबलता, स्त्री-पुत्र-धनादि दुःखकर हैं, संसार में सभी दु:खी हैं, सुखी तो तपस्वी हैं, जन्म-मरण के ताप, दैव, मनुष्य पर्याय-अवस्थाएँ, मिथ्यात्व, यम-दमादि, तपश्चरण, वैराग्य, मुक्तिपथ और मोक्षादि विषयों पर बड़े विस्तार से प्रकाश डाला गया है और इस प्रकार संसार के अज्ञजनों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया गया है।
  5. द्वादशानुप्रेक्षा (वसंततिलका छन्द) मंगलाचरण प्रतिज्ञा वाक्य उत्कृष्ट ध्यान बल से भव बंध तोड़ा, दे सिद्ध ढोक उनको द्वय हाथ जोड़ा। चौबीस तीर्थंकर की कर वंदना मैं, पश्चात् कहूँ सुखद द्वादश भावनाएँ ॥१॥ संसार, लोक, वृष, आस्रव, निर्जरा है, अन्यत्व औ अशुचि, अध्रुव, संवरा है। एकत्व औ अशरणा अवबोधना ये, भावें सुधी सतत द्वादश भावनायें ॥२॥
  6. आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा प्राकृत भाषा में लिखे गए ग्रन्थ का यह पद्यानुवादात्मक भाषान्तरण है। द्वादश भावनाएँ ही द्वादश अनुप्रेक्षाएँ हैं- अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ तथा धर्म-इन अनुप्रेक्षाओं का मार्मिक विवरण दिया गया है। ये भावनाएँ वैराग्यरूपी उपवन में शांति सुखामृत का रसास्वादन कराने वाली हैं। इन भावनाओं को यदि माता का रूप दिया जाये तो कल्याण की भावना से मोक्षमार्ग पर तत्पर मुमुक्षुरूपी बालक की ये सदा रक्षा/सहायता करती हैं। इन भावनाओं का माहात्म्य प्रकट करते हुए भगवत् कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि-भूत, वर्तमान अथवा भविष्य में हुए, हो रहे अथवा होंगे उन सभी ने इन भावनाओं का ही सहारा लिया था। वसंततिलका छंद के ९१ पद्यों में यह कृति अनुदित हुई है। मात्र ६९ वीं गाथा ऐसी है। जिसका अनुवाद वसंततिलका के ४ पदों के स्थान पर ६ पंक्तियों में हुआ है। ग्रन्थ का समापन श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूबौनजी, जिला-गुना (म० प्र०) में ईस्वी सन् १९७९ के वर्षायोग के दौरान हुआ था।
  7. कर्ता सुतीर्थ वृष के सुख पूर्ण शाला, है घाति कर्म-मल धोकर पूर्ण डाला। वे वर्धमान उनको प्रणमूँ करों से, जो हैं नमस्कृत सुरों असुरों नरों से ॥१॥ सिद्धों समेत अवशेष जिनेश्वरों को, तीर्थंकरों शुचितरों गुण-धारियों को। सद्ज्ञान-वीर्य-तप-दर्शन-वृत्त वालों, वन्दूं लिए श्रमणता श्रमणों निहालों ॥२॥ जो भी यहाँ मनुज क्षेत्रन में सुहाते, हैं पूज्य तीर्थकर हैं अरहन्त नाते। मैं भिन्न-भिन्न अथवा इक साथ ध्याऊँ, पूजें उन्हें विनय से नत माथ भाऊँ॥३॥ सिद्धों पुनीत अरहन्तन को जिनों को, पूज्यों वरों गणधरों मुनिनायकों को। आचार्यवर्य-उवझाय सुसाधुओं को, मैं वन्दना कर सभी परमेष्ठियों को ॥४॥ है मुख्य ज्ञान-दृग आश्रम जो उन्हीं का, पूरा प्रयास कर आश्रय ले उसी का। सम्यक्तया श्रमण हो समता भजूँ मैं, निर्वाण प्राप्त फलतः ममता तजूँ मैं ॥५॥ सम्यक्त्व ज्ञान समवेत प्रधान होता, चारित्र को जब सुजीव सुजान ढोता। पाता सुरासुर-नरेन्द्र-सुसम्पदा को, निर्वाण का पद पुनः गहता सदा वो ॥६॥ चारित्र ही परम-धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं। मोहादि से रहित आतम भाव-प्यारा, माना गया समय में शम साम्य सारा ॥७॥ जो द्रव्य ज्यों परिणमें जिस रूप ढोता, तत्काल तन्मय बना उस रूप होता। सद्धर्म रूप ढलता जब आतमा ही, औचित्य, धर्ममय हो शिवराहराही ॥८॥ आत्मा रहा शुभ जभी शुभ में ढलेगा, होता तभी अशुभ तत्पन में ढलेगा। शुद्धत्व से परिणमें जब शुद्ध होता, सद्भाव शुद्धपन का तब सिद्ध होता ॥९॥ भाई ! न अर्थ परिणाम बिना कभी हो, औ अर्थ के बिन नहीं परिणाम भी हो। पर्याय-द्रव्य गुण में स्थित अर्थ होता, अस्तित्व रूप गुण मण्डित अर्थ होता ॥१०॥ शुद्धोपयोग पथ पे मुनि हो खड़ा हो, चारित्र रूप निजधर्मन में ढला हो। पाता विमोक्ष सुख, पै दिवि योग पाता, जो धर्म रूप शुभ ही उपयोग पाता ॥११॥ आत्मा मनो अशुभ ही उपयोग ढोता, तिर्यंच नारक कुमानव होय रोता। लाखों प्रकार दुख से फलतः घिरेगा, होता दुखी सुचिर औ भव में फिरेगा ॥१२॥ शुद्धोपयोग वश साधु सुसिद्ध होते, स्वात्मोत्थ सातिशय शाश्वत सौख्य जोते। जाती कही न जिसकी महिमा कभी भी, ऐसा अपूर्व सुख भूपर ना कहीं भी ॥१३॥ शास्त्रज्ञ हो, श्रमण हो, समधी, तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी। जो दुःख में व सुख में समता रखेगा, शुद्धोपयोग वह ही निज में लखेगा ॥१४॥ शुद्धोपयोग-बल पूर्ण स्वयं जगाया, मोहादि घाति रज को खुद ही मिटाया। आत्मा स्वयं निखिल-विज्ञ स्वको बनाया, यों ज्ञेय का सहज से उस पार पाया ॥१५॥ शुद्धोपयोग बल से निज भाव पाता, सर्वज्ञ हो जगत पूज्य स्व को बनाता। आत्मा इसी तरह ही बनता स्वयंभू, ऐसा कहें जिन, बने खुद ईश शंभू ॥१६॥ उत्पाद, नाश बिन है शिव में सुहाता, उत्पाद के बिन, विनाश स्वयं दिखाता। उत्पाद-ध्रौव्य व्यय रूप परम्परा भी, हो सिद्ध में विरमती न स्वयं जरा भी ॥१७॥ पर्याय के वश किसी बस जन्म पाता, पर्याय के वश किसी वह अन्त पाता। पर्याय के वश किसी ध्रुव कूप होता, ऐसा पदार्थदल है त्रय रूप ढोता ॥१८॥ संसार में प्रवर हैं अरहन्त होते, देवाधिदेव जिनके पद नित्य धोते। श्रद्धान यूँ कर रहे सुख में पलेंगे, सारे अनिष्ट उनके मिटते मिटेंगे ॥१९॥ शुद्धोपयोगवश घाति चतुष्क भागे, जागे अनन्त बल औ अति तेज जागे। आत्मा अतीन्द्रिय हुआ, जड़ता नहीं है, विज्ञान में स्वसुख में ढलता वही है ॥२०॥ धारे अनन्त वर केवलज्ञान प्यारे, होते न कायिक उन्हें सुख-दुःख खारे! वे चूंकि शाश्वत अतीन्द्रिय हो चुके हैं, सर्वज्ञ तो सकल इन्द्रिय खो चुके हैं ॥२१॥ प्रत्यक्ष-ज्ञान धरते जिन भव्य होते, प्रत्यक्ष पर्यय उन्हें सब द्रव्य होते। ईहादि पूर्वक क्रिया कर ना कदापि, वे जानते गत विकल्प सदा अपापी ॥२२॥ आत्मीय सर्व गुण आकर हो तना है, पूरा अतीन्द्रिय हुआ निज में सना है। प्रत्यक्ष ज्ञान जिसमें प्रकटा सही है, होता परोक्ष कुछ भी उसको नहीं है ॥२३॥ आत्मा तथापि वह ज्ञान प्रमाण भाता, है ज्ञान भी सकल ज्ञेय-प्रमाण साता। है ज्ञेय तो अमित लोक-अलोक सारा, भाई अत: निखिल व्यापक ज्ञान प्यारा॥२४॥ आत्मा कदापि नहिं ज्ञान प्रमाण होता, ऐसा त्वदीय मन में अनुमान ढोता। तो ज्ञान से वह बढ़ा लघु या रहा है, होता सुनिश्चय यही भ्रम जा रहा है ॥२५॥ है ज्ञान से वह बड़ा यदि आतमा है, तो ज्ञान के बिन कथं वह जानता है। मानो रहा लघु, अचेतन ज्ञान होगा, तो ज्ञान, चेतन बिना, अनजान होगा ॥२६॥ है विश्व को विषय है अपना बनाता, कैवल्यज्ञान, जिसको जिन धार पाता। तद्ज्ञान में झलकते जग द्रव्य सारे, सर्वत्र व्यापक अतः जिनदेव प्यारे ॥२७॥ विज्ञान आत्म बिन जो रहता नहीं है, सो ज्ञान आत्मभर स्वीकृत है सही है। होता अतः नियम से वह ज्ञान आत्मा, आत्मा न ज्ञानभर पै कुछ और आत्मा ॥२८॥ ज्ञानी स्वभावमय ज्ञान यथार्थ धारें, हो ज्ञेय मात्र उनके कि, पदार्थ सारे। ज्यों नेत्र में न घुसते पर रूप सारे, औ रूप में न घुसते मम नेत्र प्यारे ॥२९॥ ज्यों रूप में नयन, ज्ञेयन मध्य ज्ञानी, होते प्रविष्ट न प्रविष्ट सदा अमानी। जाने सही सकल को जग को निहारे, होते अतीन्द्रिय अतः मम हो सहारे ॥३०॥ ज्यों दूध को स्व द्युति से कर पूर्ण नीला, हो दूध में विलसती मणि इन्द्रनीला। त्यों ज्ञान शोभित सदैव यथार्थ में हो, है दीखता सकल विश्व पदार्थ में हो ॥३१॥ विज्ञान में न उतरे, यदि द्रव्य सारे, क्यों ज्ञान सर्वगत हो तब, भव्य प्यारे। हो ज्ञान सर्वगत भी यदि, अर्थ सारे, कैसे न ज्ञान-थित हो, बुध यों विचारें ॥३२॥ ना त्यागते न गहते पर को अपापी, वे केवली न ढलते पर में कदापि। पै सर्वथा सकल को बस जानते हैं, हैं देखते, हम उन्हें प्रभु मानते हैं ॥३३॥ सिद्धान्त के मनन से जिसने निहारा, शुद्धात्म को सहज-ज्ञायक भाव धारा। है पूर्ण भावश्रुत-केवलि सो निहाला, ऐसे कहें ऋषि करें जग में उजाला ॥३४॥ ये शब्द पुद्गल रहे जिनसे दिया है, संदेश सूत्र जिसको जिन ने कहा है। सद्ज्ञान में वह निमित्त रहा उसी से, है सूत्रज्ञान वह, सो सुन लो रूपी से ॥३५॥ जो जानता सतत, ज्ञान अहो रहा है, आत्मा न ज्ञानवश ज्ञायक हो रहा है। विज्ञान ही परिणमें खुद वो जभी है, हो ज्ञान में स्थित पदार्थ सभी तभी है ॥३६॥ है ज्ञेयभूत सब द्रव्य त्रिधा कहाते, उत्पाद ध्रौव्य व्यय भाव सुधार पाते। है जीव ज्ञान फलतः परिणाम धारे, आत्मा व शेष पुनि द्रव्य सुनाम पाले ॥३७॥ देखो! गतागत अनागत की दशायें, जो भिन्न-भिन्न सब द्रव्यन की घटायें। वे वर्तमान सम ही इक साथ सारी, विज्ञान में झलकती दिन-रात भाई ॥३८॥ उत्पन्न हो विगत में कुछ अन्त पाई, पर्याय जो न अब लौ कुछ जन्म पाई। सारी अभावमय वे जिन केवली के, प्रत्यक्ष हैं विगतराग हुए बली के ॥३९॥ उत्पन्न हो विगत में कुछ अन्त पाई, पर्याय जो न अब लौं कुछ जन्म पाई। प्रत्यक्ष हो न यदि वे जिन केवली के, क्या दिव्यज्ञान धरते फिर क्या बली वे ॥४०॥ जो अर्थ हैं सकल इन्द्रियगम्य भाते, ईहादि पूर्वक जिन्हें जन जान पाते। वे ना लखें गत अनागत की दशाएँ, होती परोक्ष उनको गुरु यों बतायें ॥४१॥ पर्याय हो गत अनागत मूर्त या हो, हो काल, कायमय द्रव्य अमूर्त या हो। जाने इन्हें वह अतीन्द्रिय ज्ञान वाले, ऐसा कहें जिन ऋषीश प्रमाण धारे ॥४२॥ जो ज्ञान उद्यत हुआ पर ज्ञेय पाने, सो ज्ञान क्षायिक नहीं सुन रे सयाने!। कर्मानुभूति करता तब आतमा है, ऐसा जिनेश कहते परमातमा हैं ॥४३॥ संसारि में, जिनवरादिक आर्य गाते, कर्माश के उदय तो अनिवार्य आते। संमोह शेष रति जो उनमें करेगा, सो कर्मबन्ध करके भव में फिरेगा ॥४४॥ धर्मोपदेश, सुख आसन बैठ जाना, आकाश में विचरना स्थिति और पाना। अर्हन्त-काल जब उक्त क्रिया तथा हो, माया स्वभाव महिलाजन का यथा हो ॥४५॥ लो! पुण्य-पाक अरहन्त दशा जिया है, औचित्य औदयिक ही उनकी क्रिया है। मोहादि से रहित हो रहती अतः हैं, मानी गई परम क्षायिक वे यतः हैं ॥४६॥ आत्मा स्वयं, निज स्वभाव विभाव द्वारा, मानो नहीं यदि शुभाशुभ भाव धारा। संसार का फिर पता चल ना सकेगा, कोई दुखी फिर यहाँ मिल ना सकेगा ॥४७॥ स्थाई त्रिकाल रहते जड़ चेतनादि, नाना स्वरूप धरते रहते अनादि। जो एक साथ इनको परिपूर्ण जाने, विज्ञान क्षायिक वही बुध सर्व माने ॥४८॥ त्रैलोक्य में स्थित त्रिकाल पदार्थ सारे, होते अनन्तगुण पर्यय के पिटारे। जो एक साथ इनको नहिं जानता हो, सो एक द्रव्य तक भी नहिं जानता वो ॥४९॥ लो! एक द्रव्य, गुण धर्म अनन्त धारे, ऐसे त्रिलोकगत द्रव्य अनन्त सारे। जो एक द्रव्य तक भी नहिं जान पाता, क्या एक साथ फिर वो सब जान पाता ॥५०॥ ले ज्ञेयभूत परद्रव्यन का सहारा, उत्पन्न ज्ञान यदि हो क्रमशः विचारा। सो ज्ञान क्षायिक नहीं नहिं नित्य होता, होता न सर्वगत भी नहिं सत्य होता ॥५१॥ ये द्रव्य कालत्रय-लोकन में सुहाते, सर्वत्र हैं विविध रूप सुधार पाते। जो एक साथ इनको बस जानता हो, माहात्म्य मात्र जिन केवलज्ञान का वो ॥५२॥ ना ज्ञेय में उपजते ढलते न पाते, ज्ञेयाभिभूत पर को बस जान जाते। होते अबन्धक अतः जिन केवली हैं, मेरा उन्हें नमन हो प्रभु वे बली हैं ॥५३॥ सारे सुरासुर नरेश विनीत होके, सर्वज्ञ को विनमते सब गर्व खोके। सो भक्त है तदनुसार त्रिलोक सारा, मैं भी वहीं नत खड़ा सब को बिसारा ॥५४॥ आत्मोत्थ इन्द्रियज मूर्त अमूर्त द्वारा, यों ज्ञान सौख्य द्विविधा गुरु ने उचारा। जो भी रहा उचित हो इनमें विचारो, स्वीकार लो बस उसे पर को बिसारो ॥५५॥ धर्मादि द्रव्य चउ नित्य अमूर्त होते, हैं मूर्त में अणु अतीन्द्रिय मूर्त होते। जाने इन्हें निज समेत जिनेश होते, प्रत्यक्ष ज्ञान धरते जड़ शेष रोते ॥५६॥ आत्मा विभाववश मूर्त अहा बना है, पै वस्तुतः वह अमूर्त स्वयं तना है । हो मूर्त, मूर्तपन मूर्तिक ज्ञान द्वारा, अत्यल्प जान सकता जग को न सारा ॥५७॥ ये स्पर्श गन्ध रस वर्ण सशब्द सारे, पंचेन्द्रि के विषय पुद्गल के पिटारे। पै एक साथ इनको नहिं जानती हैं, वे इन्द्रियां बल अनन्त न धारती हैं ॥५८॥ ये इन्द्रियाँ न निज आत्म स्वभाव प्यारी, मानी गई पर अशुद्ध विभाव खारी। तो ज्ञात अर्थ इनसे किस भाँति होगा, प्रत्यक्ष, किन्तु निज आतम को न होगा ॥५९॥ होती अपेक्ष पर की जिस ज्ञान में हैं, सो है परोक्ष कहते जिन ज्ञान में हैं। हो जाय ज्ञान यदि केवल आतमा से, प्रत्यक्ष वो जब दिखे अघ खातमा से ॥६०॥ पूरा अनन्त जग को चखता निराला, सम्पूर्ण है उदित आप स्वयं निहाला। ईहादि-ज्ञान बिन केवलज्ञान होता, होता वही सुख-सही गतमान होता ॥६१॥ कैवल्यज्ञान भर सौख्य ललाम होता, जाने सभी पर निजी परिणाम ढोता। होता न खेद उसमें कहते ऋषी ये, है घाति का क्षय किया जिसने इसी से ॥६२॥ जो ज्ञान, ज्ञेय गिरि की इति टोंक पे है, औ व्याप्त दर्शन त्रिलोक अलोक में है। जो था अनिष्ट झट नष्ट किया उसे है, था श्रेष्ठ इष्ट घट प्राप्त किया उसे है॥६३॥ है घाति कर्म-दल को जिनने मिटाया, है श्रेष्ठ सौख्य सुख में उनका सुहाया। श्रद्धान किन्तु उसपे न अभव्य लाते, शंका परन्तु उसमें नहिं भव्य लाते ॥६४॥ संत्रस्त हैं सहज प्राप्त स्व इन्द्रियों से, इन्द्रादि मानव सुरासुर वे युगों से। दुस्सह्य दुःख सह, ना सकते सभी हैं, मायामयी विषय में रमते तभी हैं ॥६५॥ पंचेन्द्रि के विषय में जिनकी रती है, होता उन्हें दुख स्वतः कहते यती हैं। मानो उन्हें यदि नहीं दुख हो रहा है, व्यापार क्यों विषय में फिर हो रहा है? ॥६६॥ स्पर्शादि पंच विध इन्द्रिय ज्ञान द्वारा, जो इष्ट है विषय का जब ले सहारा। आत्मा करे परिणती सुख मात्र सो ही, पै देह तो सुख नहीं सुन शास्त्र मोही ॥६७॥ स्वर्गीय क्यों न तन से तनधारियों को, देता कभी न सुख है दिवि में सुरों को। ज्यों भोगते विषय को सुख-दु:ख होते, वे आत्म के नियम से परिणाम होते ॥६८॥ लो! प्राप्त दृष्टि जब है तमहारिणी है, क्या दीप जोति तब कारज कारिणी है। आत्मा स्वयं विलसता सुखधाम प्यारे, तू ही बता विषय ये किस काम सारे ॥६९॥ आकाश में अरुण लौकिक देव भाता, तेजोमयी प्रखर ज्यों स्वयमेव धाता। त्यों सिद्ध भी शुचि स्वयं सुख ज्ञान धारे, सद्देव हैं शरण ये जग में हमारे ॥७०॥ ईशत्व पा सकल दर्शन बोध वाले, शोभे समोशरण में निज सौख्य पाले। संसार के प्रमुख देव सदैव भाते, सो सार्वभौम पद ले अरहन्त तातें ॥७१॥ संसार में फिर कभी नहिं लौट आते, पूरे जहाँ गुण खिले नहिं खोट पाते। पूरे परे नर सुराधिप के पने से, वन्दूं सुसिद्ध गण को मन से घने से ॥७२॥ सद्देव शास्त्र गुरु पूजन लीन होता, दानादि कार्यरत और सुशील होता। आत्मा रहा वह अवश्य शुभोपयोगी, ऐसा जिनेश कहते तज भोग भोगी! ॥७३॥ जो भी यहाँ शुभमयी उपयोग पाते, तिर्यंच या मनुज या सुर लोक पाते। औ काल का न जब लौं वह अन्त आता, पाते अनेक विध इन्द्रिय सौख्य साता ॥७४॥ है निर्विकार सुख आतम में सुहाता, सो है अलभ्य सुर को यह शास्त्र गाता। होते दुखी अमर कायिक वेदना से, डूबे तभी विषय में च्युत चेतना से ॥७५॥ तिर्यंच देव नर नारक आदि सारे, हैं भोगते यदि स्वकायिक दुःख खारे। तो भेद वो नहिं शुभाशुभ में मिलेगा, देखो विशुद्धनय से इक ही दिखेगा ॥७६॥ चक्री सुरेश शुभ के उपयोग द्वारा, पाते अतः विषयभोग नियोग खारा। हो भोग लीन तन आदिक पोषते हैं, हो जोंक से सुखित, आतम शोषते हैं ॥७७॥ वे पुण्य हों विविध हों अभिराम से हों, उत्पन्न जो शुभमयी परिणाम से हों। भोगाभिलाष भर को मन में जगाते, स्वर्गीय देव तक को फिर भी सताते ॥७८॥ तीव्राभिलाषवश पीड़ित देहधारी, तृष्णाभिभूत बनते बनते विकारी। दुःखाग्नि तप्त, भरते दिन-रैन आहे, आमृत्यु वैषयिक सौख्य चखे व चाहें ॥७९॥ बाधा समेत पर आश्रित है विनाशी, है बन्ध हेतु विषमाति सुनो विलासी!। सो सौख्य ऐन्द्रियज है भव बीच होता, है वस्तुतः दुख रहा दुखबीज बोता ॥८०॥ ना भेद, पुण्य-अघ में कुछ है दिखाता, ऐसा जिसे न रुचता वह भूल जाता। घोरातिघोर भव कानन में भ्रमेगा, मोहाभिभूत बन के पर में रमेगा ॥८१॥ यों पुण्य-पाप सम जान स्वयं किसी से, ना राग-द्वेष करता समता सभी से। शुद्धोपयोग जल से निज को धुलाता, सो देह-जन्य दुख वेदन को मिटाता ॥८२॥ जो पाँच पाप तज, पावन पुण्य पाता, हो दूर भी अशुभ से शुभ को जुटाता। मोहादि भाव फिर भी यदि ना तजेगा, शुद्धात्म को न मुनि होकर भी भजेगा ॥८३॥ रीते क्षुधादिक अठारह दोष से हैं, होते प्रसिद्ध तप संयम कोष से हैं। पूजे सुदेव दल से शिर को नमाता, लोकाग्र जा निवसते द्वय सौख्य धाता ॥८४॥ ये देव देवगण के जिनदेव होते, त्रैलोक्य के गुरु रहे यतिदेव होते। श्रद्धा लिए मनुज जो नमते इन्हें हैं, मानो, अनन्त सुख भी मिलता उन्हें है ॥८५॥ अर्हन्त स्वीय गृह को द्रुत जा रहे हैं, वे शुद्ध द्रव्य गुण पर्यय पा रहे हैं। यों जानता यदि उन्हें, निज जानता है, संमोहकर्म उसका झट भागता है ॥८६॥ आत्मा बना यदपि मोहविहीन, भाता, पाया अशंक बन के निज तत्त्व साता। रागादि को तदपि वो जब त्यागता है, शुद्धात्म प्राप्त करता जब जागता है ॥८७॥ यों जान साधु, अरहन्त स्वरूप सारे, हैं कर्म काट बनते अरहन्त प्यारे। देते वही सदुपदेश पुनः पधारें, वे मोक्ष, वन्दन उन्हें शतशः हमारे ॥८८॥ चारित्र पूर्ण धर संयम मात्र होते, सत्कार दर्श पद पूजन पात्र होते। सम्यक्त्व की रुचि लिए दृढ़बोध धारे, वे साधु हैं हम उन्हें रुचि से निहारें ॥८९॥ पर्याय-द्रव्य-गुण में यदि मूढ़ता से, सो मोह भाववश आतम गूढ़ता हो। तो राग-रोष करके वह भूल जाता, है क्षोभ भाव करता प्रतिकूल जाता ॥९०॥ जो मोह भाव धरता निज भाव त्यागी, या द्वेष भाव करता बनता सरागी। पाता वही नियम से विधि बंध नाना, मोहादि को इसलिये जड़ से मिटाना ॥९१॥ स्वीकारना, कि अयथार्थ पदार्थ बाना, तिर्यंच में मनुज में करुणा न लाना। औ गृद्धता विषयलम्पटता, कहाते, ये मोह चिह्न त्रय हैं गुरु हैं बताते ॥९२॥ प्रत्यक्ष आदि अनुमान प्रमाण द्वारा, जाने पदार्थ जिन आगम भान द्वारा। तो नाश मोह उसका अनिवार्य होता, सशास्त्र का मनन तू कर आर्य श्रोता ॥९३॥ पर्याय द्रव्य गुण का दल जो कहाता, अन्वर्थ नाम उसका वह अर्थ भाता। पर्याय और गुण का वह द्रव्य स्वामी, धर्मोपदेश गुरु का यह भव्य नामी ॥९४॥ धर्मोपदेश जिनका निज को पिलाता, संमोह रोष रति को जड़ से मिटाता। निर्वाण प्राप्त करता अविलम्बता से, होता विमुक्त भव से दुख आपदा से ॥९५॥ ज्ञानाभिभूत निज को निज रूप से ही, कालादि द्रव्य पर को पर रूप से ही। ऐसा सुनिश्चय सुधी यदि जानता है, सो मोह का क्षय करें वह जागता है ॥९६॥ कालादि द्रव्य गण को उसके गुणों से, शुद्धात्म द्रव्यपन को अपने गुणों से। सत् शास्त्र के मनन से बस जानना है, निर्मोह भाव कब हो यदि कामना है ॥९७॥ धारे पदार्थ सविशेष समान सत्ता, जो जानता न इनको बिन बुद्धिमत्ता। श्रामण्य ऊपर भले वह धार पाता, होता नहीं श्रमण, धर्म न पाल पाता ॥९८॥ संमोह का हनन भी जिसने किया है, सत्शास्त्र का मनन भी रुचि से किया है। औ वीतराग व्रत पालक हो तना है, सो धर्म है श्रमण सत्य महामना है ॥९९॥ जो उक्त साधुजन को जब देख लेते, होके प्रसन्न उन स्वागत नेक देते। सत्कार दे नमन, आसन पे बिठाते, धर्माभिभूत बन धर्मयशः बढ़ाते ॥१००॥ सद्धर्म से मनुज या पशु शीघ्र से ही, हो देव और मनुजोत्तम वीर देही। ऐश्वर्य वैभव अपार उन्हें मिलेगा, पूरे मनोरथ हुये, शिव ना टलेगा ॥१०१॥ ऐसा विचार मुनि को नमता हुआ मैं, श्रद्धा समेत उसमें रमता हुआ मैं। संक्षेप से परम आगमसार दूंगा, श्रामण्य को प्रकट भी फलतः करूँगा ॥१०२॥ हैं अर्थ द्रव्यमय निश्चय से रहे हैं, औ द्रव्य भी गुणगणात्मक वे रहे हैं। पर्याय, द्रव्य गुण में उगती, कुधी है, पर्याय-मुग्ध, परया समया वही है ॥१०३॥ पर्याय में निरत हैं नित झूलते हैं, वे हैं पराय समया निज भूलते हैं। आत्मीयभाव रत हो दृग खोलते हैं, वे हैं स्वकीय स्वमया गुरुबोलते हैं ॥१०४॥ जो छोड़ता निज स्वभाव नहीं कदापि, उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय शील धरे तथापि। पर्यायवान, गुणवान सदा सुहाता, गाता जिनागम, यही बस द्रव्य गाथा ॥१०५॥ नाना प्रकार अपने गुण पर्ययों से, उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय रूप प्रवर्तनों से। सद्भाव द्रव्य गुण का रहता हमेशा, सो ही स्वभाव उसका कहते जिनेशा ॥१०६॥ ये सर्व द्रव्य जग में निज लक्षणों से, हैं भिन्न-भिन्न अवभाषित हैं युगों से। पै एक सर्वगत लक्षण सत् सुधारे, यों धर्मनायक कहें जिननाथ प्यारे॥१०७॥ हैं सत् स्वभाववश द्रव्य रहा जिया है, यों वस्तुतः कथन भी जिनने किया है। सो ही जिनागम कहे, जिसको न माने, वे ही पराय समया, सुन तू सयाने! ॥१०८॥ पर्याय और गुण में ध्रुव ध्वंस जन्मा, धारा प्रवाह बहता परिणाम नामा। सो द्रव्य का निजस्वभाव कहें विमोही, औ सत्स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही॥१०९॥ उत्पाद के बिन विनाश कभी न भाता, उत्पाद भी नहिं विनाश बिना सुहाता। औ ध्रौव्य रूप उस अर्थ बिना कदापि, उत्पाद नाश दिखते न कहें अपापी ॥११०॥ ये एक साथ ध्रुवता व्ययता प्रसूती, पर्याय में विलसती रहती विभूती। पर्याय द्रव्य भर में रहती स्वतः है, सो द्रव्य निश्चित त्रयात्मक ही अतः है॥१११॥ उत्पाद ध्रौव्य व्यय शील त्रिलक्षणों से, हो युक्त द्रव्य यह निश्चित है युगों से। औ एक ही समय में उन रूप होता, भाई अत: वह त्रयात्मक द्रव्य होता ॥११२॥ पर्याय एक उगती दिखती यदा है, तो दूसरी मरण भी करती तदा है। पै द्रव्य द्रव्य भर हो लसता सदा है , उत्पन्न हो न मिटता ध्रुव संपदा है ॥११३॥ तादात्म्य रूप गुण से गुण अन्य पाता, सो आप ही परिणमें वह द्रव्य भाता। भाई अतः स्वगुण पर्यय रूप स्वामी है द्रव्य शाश्वत कहें जग-भूप नामी ॥११४॥ होता न द्रव्य यदि सत् मत हो तुम्हारा, कैसा बने ध्रुव असत् वह द्रव्य प्यारा। या सत्त्व से यदि निरा वह द्रव्य होवे, सत्ता स्वयं इसलिए फिर क्यों न होवे ॥११५॥ होते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस्तु में, न बिखरे बिखरे पड़े हैं। पर्याय-द्रव्य-गुण लक्षण से निरे हैं, पै वस्तु में, जिन कहे जग से परे हैं ॥११६॥ पर्याय द्रव्य गुण ये सब सत् सुधारे, विस्तार सत् समय का गुरु यों पुकारे। सत्तादि का रहत आपस में अभाव, सो ही रहा समझ मिश्र अतत् स्वभाव ॥११७॥ जो द्रव्य है वह कभी गुण हो न पाता, है वस्तुतः गुण नहीं बन द्रव्य पाता। सो ही रहा अतद्भाव सही कथा है, होता कथंचित् अभाव न सर्वथा है ॥११८॥ द्रव्यत्व का स्व परिणाम सदा सुहाता, अस्तित्वधाम गुण सो जिन शास्त्र गाता। सत्ता स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही, है सत् रहा कि इस भाँति कहें विमोही॥११९॥ पर्याय का जनन भी कब कौन होई ? लो द्रव्य के बिन नहीं गुण होय कोई। द्रव्यत्व ही तब रहा ध्रुव जन्मनाशी, सत्ता स्वरूप खुद द्रव्य अत: विभासी ॥१२०॥ एवं अनेकविध स्वीय स्वभाव वाला, होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला। पर्याय द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता, भाई अभावमय भावमयी सुहाता ॥१२१॥ जीवत्व जीव धरता नर देव होता, तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता। पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा, कैसा भला परपना फिर वो भजेगा ॥१२२॥ हो देव मानव न या नर देव ना हो, किं वा मनुष्य शिव भी स्वयमेव ना हो। ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता, कैसे अनन्यपन को वह धार पाता ॥१२३॥ द्रव्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता, पर्याय अर्थिवश पर्यय रूप पाता। ऐसा कथंचित् अनन्य व अन्य होता, तत्काल क्योंकि वह तन्मय द्रव्य होता ॥१२४॥ पर्याय के वश किसी वह द्रव्य भी है, है, है न, है उभय, शब्द अतीत भी है। औ शेष भंग मय भी वह है कहाता, ऐसा कथंचित् वही सबमें सुहाता ॥१२५॥ पर्याय नाश बिन रहती कहाँ क्या ? वैभाविकी परिणती भि नहीं तथा क्या ? उत्कृष्ट धर्म यदि निष्फल हो सुहाता, संसार का सुवर्तन किस भाँति भाता ॥१२६॥ जो नामकर्म अपने बल ले सुहाता, शुद्धात्म की उस निजी शुचिता मिटाता। औ जीव को वह कभी नर भी बनाता, तिर्यंच नारक कभी सुर या बनाता ॥१२७॥ या कर्म आप अपने-अपने बसों से, पाये स्वभाव बिन ही अब लौं युगों से। हैं नामकर्म वश हो भव बीच रोते, तिर्यंच देव नर नारक जीव होते ॥१२८॥ संसार तो क्षणिक है यह तो सही है, कोई यहाँ जनमता मरता नहीं है। उत्पाद सो विलय निश्चय गा रहा है, है जन्म नाश विविधा व्यवहार, हा! है॥१२९॥ शुद्धात्म सा शुचि अत: कुछ ना सही है, कोई स्वभाव स्थित ही जग में नहीं है। संसारि की वह क्रिया रति राग माया, संसार है भटकता न हि जाग पाया ॥१३०॥ आत्मा लिपा करम के मल से अनादि, सो ही कुकर्म करता रति राग आदि। लो कर्म कीच फँसता फिर से तत: है, रागादि ये करम चूंकि सभी अतः हैं ॥१३१॥ आत्मा स्वयं हि परिणाम रहा सही है, आत्माभिभूत परिणाम क्रिया वही है। है भावकर्म रति आदि क्रिया स्वत: है, कर्ता न जीव जड़बंधन का अत: है ॥१३२॥ आत्मा सचेतनमयी परिणाम ढोता, छोड़े कभी न उसको अभिराम होता। सो चेतना त्रिविध है, प्रभु ने कही है, है कर्म, कर्मफल, ज्ञानवती रही है ॥१३३॥ ज्ञेयानुकार वह ज्ञान सचेतना है, औ सौख्य दुःख विधि का फल चेतना है। आत्मा शुभाशुभ शुची उपयोग ढोता, सो कर्मचेतन वही भवयोग होता ॥१३४॥ आत्मा नितान्त परिणाममयी दिखाता, सो ज्ञान कर्मफल हो परिणाम भाता। आत्मा रहा नियम से फलतः स्वतः है, जो कर्म कर्मफल ज्ञानमयी अत: है ॥१३५॥ कर्ता तथा करण भी फल कर्म सारा, आत्मा रहा श्रमण ने यदि यों निहारा। रागादिरूप फिर वो ढलता नहीं है, शुद्धात्म को नियम से गहता सही है ॥१३६॥ ये द्रव्य हैं अमिट जीव अजीव सारे, चैतन्यरूप उपयोग सुजीव धारे। पै शेष द्रव्य सब पुद्गल आदि न्यारे, होते अचेतन अजीव सुधी विचारें ॥१३७॥ जीवादि द्रव्य छह ये मिलते जहाँ हैं, माना गया अमित लोक यही यहाँ है। आकाश केवल अलोक सदा सुहाता, ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ॥१३८॥ ये जीव पुद्गल परस्पर में कभी हैं, लो दीखते बिछुड़ते मिलते कभी हैं। उत्पाद, ध्रौव्य व्यय रूप कई दशायें, होती नितान्त जिनसे त्रय में समाये ॥१३९॥ आत्मीय चिह्नवश जीव अजीव सारे, जो ज्ञात हैं जगत में अयि! जीव प्यारे!। वे सर्वचिह्न गुण मूर्त अमूर्त भाते, जो द्रव्य आश्रित विशेष स्वभाव तातें ॥१४०॥ ये इन्द्रियां पकड़ती गुण मूर्त तातें, होते अनन्य जड़ पुद्गल के कहाते। होते अमूर्त गुण द्रव्य अमूर्त होते, स्वीकारते न इसको शठ धूर्त होते ॥१४१॥ ये वर्ण स्पर्श रस गन्ध जहाँ बसे हैं, वे द्रव्य पुद्गल अनन्त यहाँ लसे हैं। गुर्वी धरा तक वही अणु से, खिले हैं, औ शब्द रूप विविधा जड़ ही ढले हैं ॥१४२॥ आकाश का गुण रहा अवकाश देना, धर्मास्तिकाय गुण है गति दान देना। होता अधर्म गुण है स्थिति नाम वाला, विश्वास भव्य करता मतिज्ञान वाला ॥१४३॥ लो काल का गुण रहा परिवर्तना है, औ जीव का समुपयोग रहा तना है। संक्षेप में गुण रहे गुण ये कहाते, भाई अमूर्त उन द्रव्यन के सुहाते ॥१४४॥ आकाश जीव जड़ धर्म अधर्म सारे, धारे असंख्य परदेश सुधी विचारें। पै काल काय न कदापि असंख्य देशी, ऐसा जिनागम कहे सुन तू हितैषी ॥१४५॥ ये पाँच द्रव्य बिन काल यहाँ दिखाते, हैं अस्तिकाय गुरु यों हमको बताते। सो काय का सरल सार्थक अर्थ माना, मानो अनेक परदेश समूह बाना ॥१४६॥ आकाश व्याप्त त्रय लोक अलोक में है, है व्याप्त धर्म व अधर्म त्रिलोक में है। औ जीव पुद्गलन को लख ज्ञान होता, है काल लोकत्रय में परमाण होता ॥१४७॥ आकाश-देश परमाणु प्रमाण द्वारा, हैं ज्ञात शेष सब द्रव्य प्रदेश भारा। उद्भूत देश सब ये अणु से अतः हैं, है एक देश अणु में अणु वो स्वत: है ॥१४८॥ अत्यन्त मन्द गति से परमाणु जाता, ज्यों पूर्व देश तजता पर देश पाता। कालाणु का समय हेतुक अप्रदेशी, आकाश का इक प्रदेश घिरा, हितैषी! ॥१४९॥ पूर्वोक्त सा अणु चला तब जो लगा है, सो काल ही समय है सुन तू जगा है। जो था पुरा अब रहा वह अर्थ होता, है काल औ समय तो व्यय जन्म ढोता ॥१५०॥ आकाश व्याप्त जितना अणु से रहा है, माना गया नभ प्रदेश वही रहा है। चाहे सभी अणु वहीं रहना, चलेगा, सो ही प्रदेश, उनको श्रय दे सकेगा ॥१५१॥ यों एक दो बहु असंख्य अनन्त आदि, ये सर्व द्रव्य परदेश धरें अनादि। पै काल का समय ही परदेश होता, श्री वीर का तुम सुनो उपदेश श्रोता! ॥१५२॥ कालाणु में सतत दो परिणाम होते, जो एक ही समय में व्यय जन्म होते। सो ही स्वभाव स्थित हो चिर से रहा है, कालाणु जो समय है गुरुने कहा है ॥१५३॥ लो एक ही समय, काल पदार्थ में हो, उत्पाद ध्रौव्य व्यय भाव यथार्थ में वो। त्रैरूप्य भाव यह जो लसता यदा है, सद्भावकाल अणुका फलतः सदा है॥१५४॥ मानो, अनेक परदेश न धारता है, किं वा प्रदेश तक भी नहिं धारता है। सो शून्य अर्थ सुन शास्त्र सुना रहा है, अत्यन्त भिन्न उस सत्पन से रहा है ॥१५५॥ जो भी पदार्थ दल है परदेश धारा, सम्पूर्ण लोक जिससे कि भरा सुचारा। सो लोक ज्ञेय भर है चिर नित्य भाता, पै चार प्राणधर जीव जिसे जनाता ॥१५६॥ उच्छ्वास आयु बल इन्द्रिय आदि सारे, ये चार प्राण जिनको जग जीव धारे। ऐसा यहाँ कह रहा यह शास्त्र साता, विश्वास भव्य जिस पे दृढ़ है जमाता ॥१५७॥ स्पर्शादि पाँच मिलती सब इन्द्रियाँ हैं, कायादि तीन मिलते बल भी यहाँ हैं। उच्छ्वास श्वास फिर आयु सभी मिला लो, हो प्राण ये दश दया इनपे दिखा ओ॥१५८॥ सो जीव है विगत में चिर जी चुका है, औ चार प्राण धर के अब जी रहा है। आगे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छवास आयु बल इन्द्रिय पा लसेगा ॥१५९॥ मोहादि कर्मदल से चिर से घिरा है, तो चार प्राण फलतः जिसने धरा है। आत्मा स्वकर्मफल को जब भोगता है, है और कर्म बंधता नहिं रोकता है ॥१६०॥ संमोह द्वेष उर में यदि धारता है, मानो कभी स्वपर प्राण विदारता है। दुष्टाष्ट कर्ममय कर्दम में फंसेगा, संसार में दुखित हो चिर औ बसेगा ॥१६१॥ पंचेन्द्रि के विषय तो विष ही रहे हैं, जो छोड़ते न इनको नित पी रहे हैं। कर्माभिभूत बन धर्म बिगाड़ते हैं, तो बार-बार तन प्राण सु-धारते हैं ॥१६२॥ योगी जितेन्द्रिय बने गतमान भाते, शुद्धोपयोगमय आतम ध्यान ध्याते। तो कर्म रेणु उन पे न कभी लगेंगे, क्यों बार-बार फिर प्राण उन्हें मिलेंगे? ॥१६३॥ संस्थान संहनन आदिक भेद वाली, पर्याय जो उपजती त्रयवेद वाली। अस्तित्त्व में नियत आतम की नहीं है, कर्माभिभूत जड़ पुद्गल की रही है ॥१६४॥ तिर्यंच देव नर नारक आदि सारी, ये भिन्न-भिन्न सब पर्यय की प्रणाली। है नामकर्म जनिता भवधारियों में, होती परन्तु नहिं है शिवधारियों में ॥१६५॥ सद्भाव-रूप यह द्रव्य स्वभाव होता, पर्याय द्रव्य गुण हो त्रय भाव ढोता। जो जानता यति उसे निज ज्ञान द्वारा, होता न मुग्ध पर में मतिमान प्यारा ॥१६६॥ आत्मा सदैव उपयोगमयी सुहाता, औ ज्ञान-दर्शनमयी उपयोग भाता। सो ही शुभाशुभ कभी उपयोग होता, मोहादि का स्वयम में जब योग होता ॥१६७॥ ज्यों जीव में शुभमयी उपयोग होता, तो पुण्य का विपुल संचय योग होता। मानों कभी अशुभ हो तब पाप आता, दोनों मिटे तब न आस्रव आप आता ॥१६८॥ जो सिद्ध में विनय से जिन साधुओं में, श्रद्धान पूर्ण रखता परमेष्ठियों में। पूरी दया रख चराचर में सुहाता, सो ही रहा शुभमयी उपयोग साता ॥१६९॥ मोहादि में विषय में रत नित्य अंगी, कामादि शास्त्र पढ़ दुर्मन हो कुसंगी। हो क्रूर हो कुपथ रूढ़ अशान्त प्राणी, ढोता सदा अशुभ ही उपयोग मानी ॥१७०॥ रीता रहूँ अशुभ के उपयोग से मैं, जोड़ें न चित्त शुभ के उपयोग से मैं। ज्ञानाभिभूत निज आतम लीन होऊँ, माध्यस्थ धार पर में विधि हीन होऊ ॥१७१॥ हुँ ज्ञानवान, मन ना तन ना न वाणी, होऊ न कारण कभी उनका, न मानी। कर्ता न कारक न हूँ अनुमोद दाता, धाता स्वकीय गुण का परसे न नाता ॥१७२॥ ये काय भी वचन भी मन आदि सारे, माने गये जड़ज पुद्गल के पिटारे। जो पिंड हो अमित पुद्गल के तने हैं, भाई अनन्त अणु द्रव्यन से बने हैं ॥१७३॥ मैं पुद्गलात्मक नहीं मम ये नहीं हैं, मेरे न कार्य जड़ पुद्गल हैं सही हैं। तो काय में पर न काय बना सदी से, कर्ता कदापि तन का नहिं हूँ इसी से ॥१७४॥ पा योग अन्य अणु का अणु स्कन्ध होता, है स्निग्ध रूक्ष गुणधारक चूंकि होता। ना शब्द रूप अणु है, इक-देश-धारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता अणु निर्विकारी ॥१७५॥ जो स्निग्ध रूक्ष गुण हैं अणु में सुहाते, होते स्वभाव वश बाहर से न आते। वे एक एक करके परिणाम द्वारा, पाते अनन्तपन को सुन तू सुचारा ॥१७६॥ ये स्निग्ध रूक्ष सम वैषम से चलेगा, दो दो रहे अधिक बंध तभी बनेगा। भाई जघन्य गुण से नहिं बंध होता, ऐसा सदा समझ तू जड़ अन्ध श्रोता ॥१७७॥ हो स्निग्ध चार गुण या गुण दो चलेगा, औचित्य बंध इन आपस में बनेगा। हो रूक्ष पाँच गुण या त्रय भी चलेगा, सम्बन्ध क्यों न इन आपस में बनेगा ॥१७८॥ ये सूक्ष्म स्थूल द्वयणुकादिक स्कन्ध बाना, संस्थान धारण किये जब मध्य नाना। भू नीर अग्नि पवनादिक रूप सारे, हो आप आप अपने परिणाम धारे ॥१७९॥ सूक्ष्मादि स्कन्ध दल से त्रय लोक सारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहारा। हैं योग्य स्कन्ध उनमें विधि-रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं सुन तू सयाने ॥१८०॥ ज्यों जीव के विकृत भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती। आत्मा उन्हें न विधि-रूप हठात् बनाता, होता स्वभाववश कार्य सदा दिखाता॥१८१॥ प्राचीन कर्मवश देह नवीन पाते, संसारि जीव पुनि कर्म नये कमाते। यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्मबन्ध तज सिद्ध सुखी हुए हैं ॥१८२॥ औदारिकादि बस! पाँच शरीर सारे, निर्जीव मात्र जड़ पुद्गल के पिटारे। आत्मा सचेतन निकेतन है निराला, भूला गया कि हमसे चिर से विचारा ॥१८३॥ आत्मा सचेतन अरूप अगन्ध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा। आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से विकल है सुख का पिटारा ॥१८४॥ स्निग्धादि स्पर्शवश आपस में मिले हैं, रूपादि भाव जड़ बंधन में ढले हैं। आत्मा अमूर्त जब है विधि बंध कैसा, है पूछता अब तुम्हें यह छन्द ऐसा ॥१८५॥ आत्मा अमूर्त बस मात्र पिछानता है, रूपादि द्रव्य गुण को बस जानता है। मानो विकार मन में तब भूल लाता, जानो वही करम बंध अत: कहाता ॥१८६॥ पंचेन्द्रि के विषय संगम चूँकि पाता, आत्मा स्वकीय उपयोगन को दुखाता। संमोह रोष रति से निज को रंगाता, सो भावबंध जिन आगम में कहाता ॥१८७॥ मोही मिले विषय को रति भाव द्वारा, हो जानता निरखता निज को बिसारा। रंजायमान पुनि हो पुनि कर्म पाता, है गा रहा समय यों नहिं धर्म पाता ॥१८८॥ स्पर्शादि भाव वश पुद्गल बंध पाता, रागादि भाव वश आतम बंध पाता। ये जीव पुद्गल परस्पर मेल पाते, हो एक क्षेत्र अवगाहक खेल पाते ॥१८९॥ हैं आत्म में बहु असंख्य प्रदेश भाते, आके यहाँ जड़निकाय प्रवेश पाते। संश्लिष्ट हो उचित आश्रय और पाते, हैं पूर्ण आयु कर बाहर ओर जाते ॥१९०॥ जो राग से सहित है वसु कर्म पाता, होता विराग भव-मुक्त अनन्त ज्ञाता। संसारि जीव भर की विधि बंध गाथा, संक्षेप में समझ क्यों रति गीत गाता ॥१९१॥ है बन्ध तत्त्व लसता परिणाम द्वारा, संमोह रोष रति ये परिणाम भारा। संमोह रोष अशुभाश्रित ही अहा है, पै राग तो वह शुभाशुभ भी रहा है ॥१९२॥ है पाप जो अशुभ भाव वही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभ भाव सभी विकारा। है निर्विकार निज भाव नितान्त प्यारा, हो दुःख नष्ट जिससे सुखशान्तिधारा ॥१९३॥ ये जीव काय त्रस स्थावर आदि सारे, माने गये परम आगम में विचारे। हैं शुद्ध जीवपन से रहते निराले, औ शुद्ध जीव उनसे अति भिन्न प्यारे॥१९४॥ लेता स्वभाव भर का नहिं जो सहारा, शुद्धात्म तत्त्व जिसने यदि ना निहारा। संमोह से भ्रमित अध्यवसान ऐसा, मैं हूँ मदीय तन यों करता हमेशा ॥१९५॥ आत्मा स्वभाव करता रहता यदा है, कर्ता स्वकीय उस भावन का तदा है। कर्ता परन्तु पर पुद्गल का नहीं है, हो एक साथ इक कार्य यही सही है ॥१९६॥ आत्मा सदा यदपि पुद्गल मध्य जीता, हो निर्विकार, न कभी विधि मद्य पीता। स्वीकारता न तजता कुछ भी कदापि, कर्त्ता नहीं करम का बनता अपापी ॥१९७॥ आत्मा विकार निज में जब भूल लाता, कर्ता अवश्य उसका बन दु:ख पाता। तो कर्म के ग्रहण से घट फूट जाता, प्राचीन कर्मफल दे कुछ छूट जाता ॥१९८॥ जो राग-रोष युत होकर के चलेगा, आत्मा तभी अशुभ में शुभ में ढलेगा। दुष्टाष्ट कर्म मल आ उसमें घुसेगा, सो देह गेह भर में चिर औ बसेगा ॥१९९॥ संक्लेश तो अशुभ में अनुभाग डाले, डाले विशुद्धि शुभ में करमों सम्भाले। ये तीव्र मन्द जब हो जिनशास्त्र गाते, उत्कृष्ट औ अधम ही रस डाल पाते ॥२००॥ संमोह रोष रति आकर क्लेश शाला, होता कषायवश जीव प्रदेश वाला। तो कर्म कर्दम फंसा फंसा और जाता, सो बन्ध है समय है इस भाँति गाता ॥२०१॥ संसारि जीव-भर की यह बन्ध गाथा, भाई विशुद्ध नय है इस भाँति गाता। पै द्रव्य बंध वह तो व्यवहार से है, ऐसा जिनेश कहते अनगार से है ॥२०२॥ मैं हूँ मदीय तन यों रटता सदा है, ना त्यागता अहमता ममता मुधा है। श्रामण्य को श्रमण हो तजता स्वतः है, उन्मार्ग पे विचरता सहसा अत: है ॥२०३॥ मेरे नहीं पर यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवलज्ञान मैं हूँ। यों ध्यान में सतत चिन्तन जो करेगा, ध्याता स्व का बन सुमुक्ति-रमा वरेगा ॥२०४॥ है ज्ञान-दर्शन-मयी शुचि शुद्ध शाला, होता अतीन्द्रिय अनर्थ्य अबद्ध प्यारा। स्वाधीन है अचल है ध्रुव भी रहा है, मानें सदैव निज तत्त्व यही रहा है ॥२०५॥ ये देह गेह वनिता धन सम्पदा ये, वैरी सहोदर तथा सुख आपदायें। हैं जीव के नहिं रहें ध्रुव भी नहीं है, आत्मा अनन्त उपयोगमयी सही है ॥२०६॥ यों जान मान शुचि आतम जो बने हैं, आत्मीय ध्यान धर में रत हैं सने हैं। साकार या कि अनकार सुचित्त वाले, हैं मोहग्रन्थि जड़ से झट काट डालें ॥२०७॥ जो मोह नष्ट करके तन से उदासी, होता अतः श्रमण है रति रोष नाशी। औ साम्य दुःख-सुख में जब धारता है, पाता अनन्त सुख है जग तारता है ॥२०८॥ जो पूर्णतः विषय सौख्य विसारता है, धो मोह रूप मल को मन मारता है। भाई स्वभाव भर में स्थिर हो सुहाता, आत्मीय ध्यान करता वह साधु ध्याता॥२०९॥ लो! घाति कर्म दल को मुनि ने विदारा, प्रत्यक्ष ज्ञान धर के सबको निहारा। ज्ञातव्य था सकल ज्ञात हुआ बली हैं, क्या ध्यान से फिर प्रयोजन केवली हैं? ॥२१०॥ जैसे अतीन्द्रिय अनक्ष बने बली हैं, बाधा जिन्हें कुछ नहीं जिन केवली हैं। आत्मोत्थ पूर्ण सुख ज्ञान नितान्त पाते, उत्कृष्ट सौख्य भर को दिन-रात ध्याते॥२११॥ एवं जिनेश जिन औ श्रमणादि सारे, सन्मार्ग पाकर बने शुचि सिद्ध प्यारे। पूजूँ उन्हें विनय से तज ग्रन्थ को मैं, वन्दूँ तथैव उनके शिवपंथ को मैं ॥२१२॥ आत्मा स्वभाव वश ज्ञायक शुद्ध मेरा, ऐसा अतः समझ के नित मैं अकेरा। सम्पूर्णतः विषमता ममता विसारूँ, आसीन, निर्मम बनूँ निज में निहारूँ ॥२१३॥ निर्दोष दर्शन लिये मति शोध डाले, शंकादि दोष बिन सार्थक बोध पाले। वन्दूँ उन्हें विनय से मुनिपुंगवों को, बाधा बिना निरत नित्य निरंजनों को ॥२१४॥ सिद्धों पुनः नमन हो श्रमणों जिनों को, श्रामण्य क्या कुछ कहूँ सुख-वांछकों को। तू चाहता यदि भवोदधि पार जाना, आमण्य से श्रमण हो उर धार बाना ॥२१५॥ माता पिता सुत सुता वनिताजनों को, है छोड़ता प्रथम पूछ स्व बांधवों को। पश्चात् वहाँ पहुँच नम्र बना पुजारी, जो ज्ञान वीर्य तप दर्शन वृत्त-धारी ॥२१६॥ हैं योग्य रूप कुल में वय में गणी हैं, हैं साधु पूज्य श्रमणेश वशी गुणी हैं। स्वामी! कृतार्थ कर दो नत माथ बोले, आचार्य दीक्षित करें शिव पाथ खोले ॥२१७॥ मेरे नहीं पर यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक, हूँ विमल, केवलज्ञान मैं हूँ। यों सत्य को समझ अम्बर रूप टारा, साधू जितेन्द्रिय दिगम्बर रूप धारा ॥२१८॥ दाड़ी व मूंछ शिर केश उखाड़ना हो, हो पूर्ण नग्न सब वस्त्र उतारना हो। औ पाँच पाप तजना बिन संग होना, होना निरीह तन से शुचि लिंग लो ना! ॥२१९॥ आरम्भ मोह-मद से अति दूर होता, योगोपयोग शुचि से भरपूर होता। होता पराश्रित न, स्वाश्रित मात्र होता, सो जैन लिंग शिवकारण पात्र होता ॥२२०॥ यों बार-बार गुरु को शिर भी झुकाता, है भव्य, श्रेष्ठ गुरु से मुनि लिंग पाता। जो भी रही व्रत क्रिया सुन पूर्ण लेता, हो स्वस्थ हो श्रमण वो सुख पूर्ण लेता ॥२२१॥ हैं पाँच ही समितियाँ व्रत पंच सारे, पंचेन्द्रि का जयन लोच अचेल प्यारे। अस्नान भूशयन औ स्थिति भोज भुक्ति, ना दन्तधावन अवश्यक एक भुक्ति॥२२२॥ ये मूल में श्रमण के गुण हैं कहाते, हैं बीस आठ, हमको जिन हैं बताते। साधू प्रमाद करता गुण हैं निभाता, छेदोप-थापक तभी फलत: कहाता ॥२२३॥ दीक्षा प्रदान करते गुरु वे कहाते, आचार्य आदिक जिनागम यों बताते। जो छेद को पुनि सुचारु सुधार पाते, निर्यापका श्रमण शेष सुधी कहाते ॥२२४॥ शास्त्रादि को यतन से रखता उठाता, संभाव्य है श्रमण को कुछ दोष आता। आलोचना कर प्रतिक्रमणादि द्वारा, निर्दोष संयम बने फिर से सुचारा ॥२२५॥ दोषी बना श्रमण तो गुरु पास जाता, शास्त्रज्ञ जो श्रमण दण्डविधान ज्ञाता। आलोचना कर वहाँ मन पाप खोले, औ प्राप्त दण्ड व्रत से मन साफ धोले ॥२२६॥ भोगोपभोगमय भावन को निवारे, होते ससंघ अथवा बिन संघ प्यारे। श्रामण्य में नहिं कलंक कभी लगाते, निर्भीक हो श्रमण जीवन को बिताते ॥२२७॥ स्वाधीन हो श्रमण हैं करते विहारा, विज्ञान दर्शनमयी गुण में सुचारा। होके सतर्क निज मूलगुणादि पालें, वे पूर्णतः श्रमण संस्कृति रूप धारें ॥२२८॥ आहार के ग्रहण में उपवास में भी, आवास पर्यटन में वनवास में भी। शास्त्रादि में उपधि में विकथादिकों में, होता न मुग्ध मुनि हैं, मुनि साधुओं में॥२२९॥ पाले बिना समितियाँ उठ बैठ जाता, आता तथा शयन आसन भी लगाता। होगा भले श्रमण, ना पलती अहिंसा, वो तो प्रमाद करता दिन-रैन हिंसा ॥२३०॥ जी जाय जीव अथवा मर जाय हंसा, पालो नहीं समितियाँ बन जाय हिंसा। होती रहे वह भले कुछ बाह्य हिंसा, तू पालता समितियाँ पलती अहिंसा ॥२३१॥ आता यती समिति से उठ बैठ जाता, भाई तदा यदि मनो मर जीव जाता। साधू तथापि नहिं है अघकर्म पाता, दोषी न हिंसक अहिंसक ही कहाता ॥२३२॥ संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानो, हिंसा प्रमाद भर को सहसा पिछानो। अध्यात्म आगम अहो इस भाँति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता॥२३३॥ जो यत्न से श्रमण हो चलता नहीं है, षट्काय का वधक बंधक भी वही है। हो अप्रमत्त यदि वो चलता सुहाता, निर्लिप्त है जलज ज्यों जल में नहाता ॥२३४॥ साधू चले तबहि जीव मनों मरेगा, हो जाय बंध अथवा नहिं हो चलेगा। पै संग के ग्रहण से ध्रुव बंध होता, निस्संग ही श्रमण थे, तज संग स्रोता ॥२३५॥ जो संग को श्रमण हो करके रखेगा, क्या चित्त में विमलता रख वो सकेगा ? लो, चित्त ही न जिसका यदि शुद्ध होवे, तो कर्म का क्षयभला किस भाँति होवे? ॥२३६॥ स्वीकारता श्रमण हो यदि वस्त्र को है, हो मान्य भाण्ड रखना जिनशास्त्र को है। स्वाधीन जीवन भला कब जी सकेगा, आरम्भ से रहित क्या फिर भी रहेगा? ॥२३७॥ जो वस्त्र खण्ड अथवा पयपात्र धारे, या अन्य वस्तु मुनि होकर के सम्भारे। तो प्राणघात समझो फिर ना टलेगा, औचित्य !चित्त तल व्याकुल हो जलेगा ॥२३८॥ जो वस्त्रखण्ड पय भाजन माँग लाता, धो धूल शुद्ध कर धूपन में सुखाता। कोई न ले इसलिए डरता, डराता, रक्षार्थ यत्न करता बहुकाल जाता ॥२३९॥ क्यों हो न मोह उसमें जब संग ढोता, आरम्भ भी वह असंयम क्यों न होता। मोही निरन्तर भला पर को चखेगा, कैसा स्वकीय परमातम को लखेगा ॥२४०॥ यों क्षेत्र काल अनुसार करे विचारा, लेवें उसी उपधि का मुनि ये सहारा। चारित्र दूषित न हो, जिससे भलाई, श्रामण्य में श्रमण के बनता सहाई ॥२४१॥ जो मांगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों से। ऐसे परिग्रह रखे उपयुक्त होवे, पै अल्प भी अनुपयुक्त न साधु ढोवे ॥२४२॥ दुर्गन्ध अंग तक संग जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित से दिखाया। क्षेत्रादि बाह्य सब संग अतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥२४३॥ लोकेषणा न सुरलोकन की अपेक्षा, मोक्षार्थ धर्मपथ है सबकी उपेक्षा। तो शास्त्र में कथित क्यों पद आर्यिका का, सो पूछना यह रहा इस कारिका का ॥२४४॥ ना मोक्ष हो नियम से गृहवासियों को, वैसा उसी जनम से श्रमणीजनों को। औचित्य सावरण लिंग कहा इसी से, सत् शास्त्र में रुचि सभी धर लो सु-धी से॥२४५॥ नारी रची प्रकृति से परमाद से है, सो कोष में कि प्रमदा अनुवाद से है। है निर्विवाद जब वो प्रमदा सदी से, मानी प्रमाद बहुला समझो इसी से ॥२४६॥ है मोह भीति मन में, वचनों, तनों में, माया विचित्र पलती, प्रमदाजनों में। कुत्सा जिन्हें नियम से कब छोड़ पाती, निर्वाण-धाम तक ये नहिं दौड़पाती ॥२४७॥ एकाध, दोष तक भी नहिं टाल पाते, पूर्वोक्त दोष सब ही इनमें दिखाते। निर्वस्त्र हो विचरना न इन्हें सुहाता, सो योग्य वस्त्र पहने जिनशास्त्र गाता ॥२४८॥ उद्रेक काम रिपु का जिनको सताता, शैथिल्य भाव जिन को दिन-रैन खाता। होती तथा ऋतुमती प्रतिमास में है, हो सूक्ष्म मर्त्य जिनके तनु-वास में हैं ॥२४९॥ जो नाभि कक्ष कटि में प्रमदा स्तनों में, गुह्यांग में जनमते मरते क्षणों में। ऐसी दशा जब रही,यह नारि जाति, कैसी भली सकल संयम धार पाती ॥२५०॥ सम्यक्त्व से सहित होकर आर्यिका ये, एकादशांग श्रुत को यदि पार पाये। अत्यन्त घोर तपती सहती ततूरी, पै, निर्जरा करम की इनकी अधूरी ॥२५१॥ होती अतः कुलवती रूप-वाली, आरोग्य, योग्य वय ले, तन को सम्भाली। आर्या, सवस्त्र रह आचरणा सुधारें, ऐसा कहें जिन करे जग में उजारे ॥२५२॥ हैं तीन वर्ण जिनमें इक वर्ण वाला, आरोग्य से सहित हो, मुख सौम्य धारा। सामर्थ्यवान तप में दृढ़ अंग वाला, ना बालवृद्ध पर हो मुनिलिंग वाला ॥२५३॥ सम्यक्त्व बोध व्रत भंग हि भंग होता, ऐसा कहे जिन सुनो मन दंग होता। निर्ग्रन्थ साधु फिर वो नहिं हो सकेगा, हो अंग भंग जिसका मन रो सकेगा ॥२५४॥ सत्शास्त्र का मनन औ गुरु -देशना ये, श्रद्धा समेत गुरुदेव उपासना ये। औ जात रूप दिग-अम्बर लिंग प्यारे, सन्मार्ग में सब निमित्त गये पुकारे ॥२५५॥ ना ख्याति लाभ निज पूजन की अपेक्षा, ना स्वर्ग चाह रखता सबकी उपेक्षा। शास्त्रानुसार, मित भोजन आदि लेता, होता वही श्रमण पूज्य,कषाय-जेता॥२५६॥ वे चार चार मिलती विकथा कषायें, पंचाक्ष के विषय पाँच यहाँ दिखायें। निद्रा तथा प्रणय पंद्रह हैं इन्हीं से, होते प्रमत्त मुनि हैं गिरते गिरी से ॥२५७॥ आहार से नहिं अपेक्षित हो कदापि, साधू उपेक्षित रहा तप से तथापि। रे अन्य भोजन अनेषण ही कहाता, भाई अतः अनशनी मुनि है सुहाता ॥२५८॥ लो संग तो श्रमण का तन ही अकेला, ऐसा कभी न कहता तन चूंकि मेरा। शास्त्रानुसार तन को तप में लगाता, औचित्य है, न तन के बल को छिपाता ॥२५९॥ सागार दे अशन पै नहिं मांग लेना, लेना अपूर्ण भरपेट कभी न लेना। जो भी मिला दिवस में इक बार लेना, हो मुक्त मांस मधु से रस टार लेना ॥२६०॥ जो मांस में बिन पके पकते पकाये, होते निगोद गुरु ने जग को बताये। वे भी स्वजाति रस गन्ध स्ववर्ण वाले, जन्में निरन्तर अनन्त, अनन्त सारे॥२६१॥ जो जानबूझ कर भी यदि मांस खाता, छूता तथापि कर से वह भूल जाता। सो मारता बहुत जीवन को करोड़ों, पालो दया जिन कहें, मन को मरोड़ो ॥२६२॥ आहार शुद्ध कर-भाजन में मिला है, देना उसे उचित ना पर को कहा है। देके उसे फिर न भोज करे करेगा, तो दण्ड पात्र उसको बनना पड़ेगा ॥२६३॥ लो, बाल भी श्रमण जो वय में रहे हों, या रोगग्रस्त श्रम से थक भी गये हों। या वृद्ध हो व्रत स्वयोग्य सदा निभाले, हो मूल छेद जिससे न, स्वयं विचारे ॥२६४॥ जो देह देश श्रम काल बलानुसार, आहार ले यदि व्रती करता विहार। तो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भवमुक्त होता ॥२६५॥ एकाग्रचित्त जिसका मुनि चूँकि होता, तत्त्वार्थ निश्चय करे स्थिर चित्त होता। कर्तव्य शास्त्र पढ़ना नित चाव से हो, यों शास्त्र पान वर है नित चाव से हो ॥२६६॥ सत्शास्त्र को श्रमण हो नहिं जान पाता, सो आत्म को व पर को न पिछान पाता। जो जानकार निज या पर का न होगा, तो कर्मका क्षय भला किसभाँति होगा? ॥२६७॥ है चर्म चक्षु जगजंगम जन्तुओं की, है चक्षु तो अवधिज्ञान सुरासुरों की। सर्वात्म ही नयन सिद्धन की कही है, पै साधु चक्षु जिन आगम ही सही है ॥२६८॥ नाना प्रकार गुण पर्यय से भरे हैं, सिद्धान्त में कथित अर्थ निरे-निरे हैं। सिद्धान्त में श्रमण जो अवगाह पाता, है जानता सब पदार्थ यथार्थ गाथा ॥२६९॥ शास्त्रानुसार सम-दर्शन जो न धारा, सो दूर है श्रमण संयम से विचारा। सिद्धान्त यों कह रहा कहते यती हैं, कैसा भला श्रमण हो कि असंयती है ॥२७०॥ श्रद्धान ही यदि पदार्थन में न होगा, तो शास्त्र ज्ञान भर से नहिं मोक्ष होगा। श्रद्धान हो दृढ़ तथापि असंयमी है, निर्वाण हो न उसको कहते यमी हैं ॥२७१॥ है कर्म नष्ट करता जितना वनों में, जा अज्ञ धार तप कोटि भवों-भवों में। ज्ञानी निमेष भर में त्रय गुप्ति द्वारा, है कर्म नष्ट करता उतना सुचारा ॥२७२॥ देहादि के विषय को न विसारता है, संमोह राग कण भी यदि धारता है। भाई कभी न उसको मुक्ती मिलेगी, होगा विशारद जिनागम में भले ही ॥२७३॥ आरम्भ से रहित हो बिन संग होना, पंचाक्ष के विषय का नहिं रंग होना। जेता कषाय रिपु का शिवपंथ माना, आदर्श संयम यहाँ जयवन्त बाना ॥२७४॥ हो तीन गुप्तियुत औ मन अक्ष जेता, पाँचों सही समितियाँ नित पाल लेता। सम्यक्त्वज्ञान युत हो यदि है सुहाता, जानो वही श्रमण संयत है कहाता ॥२७५॥ हो कांच कंचन जिन्हें इक सार सारे, जो एक से मरण जीवन को निहारे। निंदा प्रशंस स्तुति में रिपु बान्धवों में, धारे समा श्रमण वे दुख में सुखों में ॥२७६॥ वैराग्य पा श्रमण शोभित हो रहा हो, सम्यक्त्व ज्ञान व्रत में रत हो रहा हो। एकत्व धारक जिनागम में कहाता, श्रामण्य को बस वही परिपूर्ण पाता ॥२७७॥ ना मोह रोष रति भी करते किसी से, जीते सदा श्रमण हो शुचि हैं शशी से। वे ही अनेक विध कर्म विनाश डालें, स्थाई सही परम पूर्ण प्रकाश वाले ॥२७८॥ लेके कभी पर पदार्थन का सहारा, संमोह रोष करता यदि राग खारा। अज्ञान से श्रमण भूषित हो वहीं से, नाना कुकर्मवश दूषित हो इसी से ॥२७९॥ धारें विशुद्ध शुभ या उपयोग प्यारे, माने गये श्रमण आगम में उजाले। शुद्धोपयोग युत साधु निरास्रवी हों, पै शेष वे सुकृत साधक सास्रवी हों ॥२८०॥ आचार्यवर्य उवझाय सुसाधुओं में, वात्सल्य, भक्ति रखना जिननायकों में। होता वही शुभमयी उपयोग साता, श्रामण्य में श्रमण को सहयोग दाता ॥२८१॥ ज्ञानी बड़े श्रमण हो उनकी सदैवा, पूजा सुभक्ति नमनादर और सेवा। ऐसी सराग यम संयम में चलेगी, चर्या, निषेध नहिं है, मति तो गलेगी ॥२८२॥ सम्यक्त्व ज्ञान व्रत का उपदेश देना, है शिष्य को शरण पोषण भेष देना। धर्मोपदेश जिनपूजन आदि सारी, चर्या सराग मुनि की शुभ भाव वाली ॥२८३॥ साधू चतुर्विध सुसंघन की सुसेवा, है भक्ति-भाव वश हो करता सदैवा। पीड़ा न हो यदि तदा त्रसस्थावरों को, सो श्रेष्ठ उत्तम सराग व्रती जनों को ॥२८४॥ सेवार्थ जो श्रमण उद्यत हो रहा हो, षट्काय का वध तदा यदि हो रहा हो। ना वो रहा श्रमण, श्रावक ही कहाता, सो धर्म चूंकि उस श्रावक का रहा था ॥२८५॥ वैराग्य से सकल या व्रत देश धारा, सेवा करो सदय हो उसकी सुचारा। हो अल्प बंध उसमें वह क्षम्य होता, लोकेषणावश करो नहिं क्षम्य होता ॥२८६॥ रोगी हुआ तृषित त्रासित भी हुआ हो, संत्रस्त भी क्षुधित श्रामित भी हुआ हो। ऐसा मनो श्रमण है जब है दिखाता, साधू यथा बल सुखी उसको बनाता ॥२८७॥ बाधा नहीं तब असंयत श्रावकों से, संसर्ग हो सकल लौकिक सज्जनों से। लो बाल वृद्ध मुनि की शुभभाव द्वारा, सेवा करो, जब बुरे अघभाव टारा ॥२८८॥ चर्या प्रशस्ततम हो मुनि साधुओं की, उत्कृष्ट या उन असंयत श्रावकों की। पाते उसी शुभ सराग चरित्र द्वारा, सागार स्वर्ग, क्रमशः शिव सौख्य सारा ॥२८९॥ भाई प्रशस्ततम राग वही कहाता, पात्रानुसार फल पाक सदा दिलाता। ज्यों भिन्न-भिन्न धरती पर बीज बोवो, नाना प्रकार फल को जब सींच लो वो॥२९०॥ अल्पज्ञ के कथन को उर धारता है, औ ध्यान दान व्रत आदिक पालता है। पाता कभी न उससे शिव सौख्य प्यारा, पाता पुनः सुकृत ही सुर-सौख्य न्यारा ॥२९१॥ जो झूलते विषय में कुकषाय धारे, शुद्धात्म तत्त्व जिनने न कभी निहारे। दानादि देकर उन्हें उनकी सुसेवा, जो भी करे कुनर हो बनते कुदेवा ॥२९२॥ ये पाप ही विषय और कषाय सारे, ऐसा सदा जबकि आगम ये पुकारे। तूही बता फिर भला विषयी कषायी, हो जाय क्यों?‘तरणतारण'आततायी ॥२९३॥ जो पाँच पाप तजते बनते अपापी, धारे सुसाम्य सबमें समता सुधा पी। वैराग्य से भरित हैं गुणगात्र होते, सन्मार्ग के श्रमण वे शुचि पात्र होते ॥२९४॥ उन्मुक्त जो अशुभ के उपयोग से हैं, संयुक्त शुद्ध शुभ या उपयोग से हैं। निर्भ्रांत वे श्रमण ही जग तार पाते, पूजें उन्हें अमर हो भव पार पाते ॥२९५॥ निर्ग्रन्थ हो श्रमण जो दिख जाय ज्यों ही, साधु क्रिया झट करे नमनादि त्यों ही। औ पूछताछ करना फिर बाद भाई! शास्त्रानुसार निज आतम बात भाई ॥२९६॥ प्रत्यक्ष सम्मुख सुधी गुरु सन्त आते, होना खड़े कर जुड़े शिर को झुकाते। दे आसनादि करना गुण वृद्ध सेवा, पाना सुशीघ्र जिससे गुणवृन्द मेवा ॥२९७॥ साधू विशारद जिनागम में तपस्वी, जो ज्ञान संयम तपादिक में यशस्वी। वे ध्येय सेव्य भजनीय प्रणम्य सारे, पूजें उन्हें श्रमण क्षुल्लक भाव धारे ॥२९८॥ भाई भले नियम संयम पालता हो, औ शास्त्र ज्ञान भरपूर सु-धारता हो। श्रद्धान के बिन जिनोक्त पदार्थ में है, हो जी रहा श्रमण सो न यथार्थ में है ॥२९९॥ ईर्षाभिभूत धरता अभिमानता है, निर्ग्रन्थ को श्रमण को नहिं मानता है। दोषी उसे कह तथा जग को बताता, चारित्र को श्रमण हो करके मिटाता ॥३००॥ होता गुणाधिक नहीं यदि साधुओं से, है चाहता विनय मान गुणाधिकों से। मैं भी बना श्रमण यों मद ढो रहा है, संसार दीर्घ उसका अति हो रहा है ॥३०१॥ साधू गुणाधिक स्वयं गुणहीनकों की, है वन्दनादि करता यदि साधुओं की। मिथ्यात्व से वह सुशोभित हो रहा है, चारित्र से स्खलित मोहित हो रहा है ॥३०२॥ शुद्धात्म के कथक आगम को सुजाना, जीता कषाय दल को तप धार नाना। पै छोड़ता न यदि लौकिक संगती है, ये तो असंयत रहा नहिं संयती है ॥३०३॥ जो भूख प्यास वश पीड़ित को निहारा, सो आप भी व्यथित दुःखित हो विचारा। लेता लगा निज भले उसको कृपा पा, मानी वही कि उसकी सुखदानुकम्पा ॥३०४॥ निर्ग्रन्थ हो निरत ना निज कार्य में है, धिक्कार किन्तु रत लौकिक कार्य में है। सो वस्तुतः श्रमणलौकिक ही कहाता, लो! बाह्य में नियम संयम भी निभाता॥३०५॥ जो हैं समान गुणधारक हो वशी हैं, या हो गुणाधिक सुधी सबसे ऋणी हैं। संसार में उचित है उन संग पाना, हो चाहते यदि भला भव पार जाना ॥३०६॥ जो मूढ़ तत्त्व भर को उलटे पिछाने, जो भी पढ़ा वह सही इस भाँति माने। औचित्य है भव-भवान्तर में भ्रमेंगे, मोहाभिभूत बन के पर में रमेंगे ॥३०७॥ तत्त्वार्थ निश्चय किया जिसने सही है, छोड़ा दुराचरण शान्त बना वशी है। पा पूर्णतः श्रमणता अघ से सुरीता, संसार में अब नहीं चिर काल जीता ॥३०८॥ जो अन्तरंग बहिरंग निसंग होते, जाने यथार्थ परमार्थ निशंक होते। आसक्त ना विषय में मुनि वे कहाते, शुद्धोपयोग बल से भव पार जाते ॥३०९॥ शुद्धोपयोग मुनि हो उर में जगाता, पाता वही श्रमणता दृग ज्ञान पाता। निर्वाण सिद्ध शिव लाभ वही उठाता, मैं बार-बार उसको शिर हूँ नवाता ॥३१०॥ सागार या कि अनगार चरित्र वाले, हो जानते यदि इसे जिनशास्त्र प्यारे। वे शीघ्र से प्रवचनात्मक सार पाते, भाई अपार भवसागर पार जाते ॥३११॥
  8. आचार्य कुन्दकुन्द के मान्य ग्रन्थों में प्रवचनसार भी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें तीन अधिकार हैं-ज्ञानतत्त्व प्रतिपादक महाधिकार, सम्यग्दर्शन या ज्ञेयाधिकार और चारित्राधिकार। महाधिकार में ज्ञानाधिकार, सुखाधिकार एवं शुभ परिणामाधिकार सम्मिलित हैं। ज्ञेयाधिकार में द्रव्य एवं द्रव्य के भेदों का लक्षण एवं उनका विवेचन है। तथा चरणानुयोग चूलिका अधिकार में मुनिधर्म, आगम-महत्त्व, मोक्षमार्ग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का वर्णन है। आचार्यश्री ने इस अविकल ग्रन्थ का पद्यानुवाद वसन्ततिलका छन्द में किया है। यह पद्यानुवाद श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूबौन जी, गुना (म.प्र.) में सन् १९७९ के चातुर्मास-वर्षायोग काल में हुआ था।
  9. भूल क्षम्य हो लेखक कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ शोध पढ़ें धीमान ॥१॥ स्थान एवं समय परिचय रहा तपोवन नियम से रम्य क्षेत्र थूबौन, जहाँ ध्यान में उतरता मुनि का मन हो मौन ॥२॥ शांतिनाथ जिननाथ है दर्शन से अति हर्ष। धारा वर्षायोग उन चरणन में इस वर्ष ॥३॥ गात्र गगन गति गंध की भाद्र पदी सित तीज। पूर्ण हुआ यह ग्रन्थ है भुक्ति मुक्ति का बीज ॥४॥ मंगल कामना विस्मृत मम हो विगत सब विगलित हो मद मान। ध्यान निजातम का करूं करूं निजी गुणगान ॥१॥ सादर शाश्वत सारमय समयसार को जान। गट गट झट पट चाव से करूँ निजामृत पान ॥२॥ रम रम शम दम में सदा मत रम पर में भूल। रख साहस फलत: मिले भव का पल में कूल ॥३॥ चिदानन्द का धाम है ललाम आतमराम। तन मन से न्यारा दिखे मन पे लगे लगाम ॥४॥ निरा निरामय नव्य मैं नियत निरंजन नित्य। यह केवल नियमित जपूँ तजूँ विषय अनित्य ॥५॥ मन वच तन में सौम्यता धारो बन नवनीत। सार्थक तब जप तप बने प्रथम बनो भवभीत ॥६॥ रति रतिपति से मति बने गति पंचम गति होय। कारण सादृश कार्य हो समाधान मति होय ॥७॥ सार यही जिनशास्त्र का सादर समता धार। रहा बंध पर राग है विराग भवदधि पार ॥८॥
  10. सच्चे अनन्त दृग ज्ञान स्वभाव धाता, वे वीर हैं जिन जिन्हें शिर मैं नवाता। भाई तुम्हें नियमसार सुनो सुनाता, जो केवली व श्रुतकेवलि ने कहा था ॥१॥ वैराग्य से विमल केवल बोध पाया, सन्मार्ग-मार्ग-फल को जिनने बताया। सन्मार्ग तो परम-मोक्ष-उपाय प्यारा, निर्वाण ही फल रहा जिसका निराला ॥२॥ जो भी रहा नियम से करतव्य सत्ता, सोही रहा नियम दर्शन ज्ञान वृत्ता। मिथ्यात्व आदि विपरीतन को मिटाने, संयुक्त ‘सार' पद है सुन तू सयाने ॥३॥ हैं मोक्ष का नियम सत्य उपाय साता, निर्वाण ही फल रहा इसका सुहाता। प्रत्येक का यह जिनागम-गीत गाता, ज्ञानादि रत्नत्रय रूप हमें दिखाता ॥४॥ लो! आप्त-आगम- सुतत्त्वन में जमाना, श्रद्धा, नितान्त समदर्शन लाभ पाना। हो दोष-रोष-मन से अति दूर सारे, निर्दोष, कोष-गुण के वह आप्त प्यारे॥५॥ ये स्वेद खेद मद मृत्यु विमोह खारे, उद्वेग नींद भय विस्मय जन्म सारे। औ रोग रोष रति राग जरा क्षुधा रे, चिन्ता तृषादिक सदोष, जिनेश टारे ॥६॥ निश्शेष दोष बिन शोभित हो रहे हैं, कैवल्यज्ञान दृग वैभव ढो रहे है। सिद्धान्त में परम आतम वे कहाते, दोषी कदापि परमात्मपना न पाते ॥७॥ पूर्वापरा सकल दोष विहीन प्यारा, जो पूज्य आप्त मुख से निकला निहाला। सोही जिनागम रहा गुरुदेव गाते, तत्त्वार्थ वे कथित आगम में सुहाते ॥८॥ नाना निजीय गुण पर्यय-माल धार, थे जीव पुद्गल-ख धर्म अधर्म काल। जो शोभिते जगत में स्वयमेव सारे, ‘तत्त्वार्थ वे कहत हैं जिनदेव प्यारे॥९॥ है जीव लक्षण रहा उपयोग भाता, है ज्ञान-दर्शनमयी द्विविधा कहाता। ‘ज्ञानोपयोग' वह भी द्विविधा निराला, भाई स्वभावमय और विभाव शाला ॥१०॥ होता अतीन्द्रिय स्वभावज ज्ञान प्यारा, जो नित्य ‘केवल' न ले पर का सहारा। सत् ज्ञान औ वितथ ज्ञान विभाव बाना, दोनों मिटे मिलत कैवल का ठिकाना ॥११॥ सत् ज्ञान भी मति श्रुतावधि तीन, चौथा, सिद्धान्त मान्य मनपर्यय ज्ञान होता। अज्ञान भी त्रिविध है जिन हैं बताते, जो मत्यज्ञान कुश्रुतावधि ना सुहाते ॥१२॥ हे मित्र! दर्शनमयी उपयोग होता, द्वेधा स्वभावपन और विभाव ढोता। होता अतीन्द्रिय स्वभावज एक प्यारा, कैवल्य दर्शन न लें पर का सहारा ॥१३॥ होता विभावमय दर्शन भी त्रिधा है, चक्षु अचक्षु अवधी सुन तू मुधा है। पर्याय दो रहित कर्म उपाधि से हैं, वे हैं स्वभावमय, युक्त सुखादि से हैं ॥१४॥ तिर्यञ्च नारक नरामररूप सारी, पर्याय ये बस विभावमयी हमारी। पर्याय जो रहित कर्म उपाधि से हैं, वे हैं स्वभावमय, युक्त सुखादि से है ॥१५॥ ये कर्म-भोगमय भूमिज भेद से हैं, होते मनुष्य द्विविधा युत खेद से हैं। हैं सप्त ही नरक की मिलती मही हैं, तो सप्तधा, समझ नारक भी वहीं हैं ॥१६॥ होते चतुर्दश विधा पशु नित्य रोते, भाई चतुर्विध सुरासुर सर्व होते। विस्तार चूँकि इनका यदि जानना है, तो ‘लोक भाग' जिन आगम बांचना है ॥१७॥ भोक्ता निजातम रहा चिरकाल से है, कर्त्ता कुकर्म-जड़ का व्यवहार से है। भाई अशुद्धनय से भवराह राही, रागादि को करत भोगत आतमा ही ॥१८॥ है द्रव्य दृष्टिवश आतम भिन्न न्यारा, पूर्वोक्त भाव-दल का नहिं ले सहारा। पर्याय दृष्टिवश तो स्वपरावलम्बी, किंवा नितान्त निरपेक्ष निजावलम्बी ॥१९॥ दो भेद ‘स्कंध' ‘अणु' पुद्गल के पिछानो, हैं स्कंध भेद छह दो अणु के सु जानो। है कार्य-रूप अणु कारण-रूप दूजा, पै चर्म चक्षु अणु की करती न पूजा ॥२०॥ है स्थूल-स्थूल फिर स्थूल व स्थूल-सूक्ष्म, औ सूक्ष्म-स्थूल पुनि सुसूक्ष्म सूक्ष्म । भू नीर आतप हवा विधि-वर्गणायें, ये हैं उदाहरण स्कन्धन के गिनाये ॥२१॥ भू-शैल-काष्ठ तन आदिक जो दिखाते, ये स्थूल-स्थूलमय स्कन्ध सभी कहाते। घी दूध तेल जल पुद्गल की दशायें, ये हैं उदाहरण स्थूलन के सुनाये ॥२२॥ उद्योत छाँव रवि आतप आदि सारे, ये स्थूल-सूक्ष्ममय स्कंधन के पिटारे। नासादि के विषय जो बिन रूप प्यारे, है सूक्ष्म- स्थूलमय स्कन्ध गये पुकारे ॥२३॥ जो भी बने, बन सके विधिवर्गणाएँ, वे सूक्ष्म स्कन्ध सब हैं गुरुदेव गाये। जो शेष स्कन्ध इनसे विपरीत सारे, वे सूक्ष्म-सूक्ष्म इस सार्थक नाम धारे ॥२४॥ भू आदि धातु इनका जब हेतु होता, सो मित्र कारणमयी परमाणु होता। पै कार्यरूप परमाणु रहा वही है, जो स्कन्ध के क्षरण से उगता सही है ॥२५॥ जो द्रव्य होकर न इन्द्रियगम्य होता, आद्यन्त मध्य खुद ही त्रय रूप होता। हो खण्ड खण्ड न कभी अविभाज्य भाता, ऐसा कहें जिन यही परमाणु गाथा ॥२६॥ दो स्पर्श एक रस गन्ध सवर्ण ढोता, धारी स्वभाव गुण का परमाणु होता। स्पर्शादि नैक गुण का जग स्पष्ट होता, धारी विभाव गुण का अणु स्कन्ध होता ॥२७॥ पर्याय एक रखती पर की अपेक्षा, स्वापेक्ष एक रहती पर की उपेक्षा। स्कंधात्मिका परिणती जु विभावशाली, द्रव्यात्मिका परिणती स्व स्वभाववाली ॥२८॥ है ‘द्रव्य' निश्चय तथा परमाणु भाता, पै स्कन्ध द्रव्य व्यवहार तथा कहाता। सो स्कन्ध नैक अणु से बनता इसी से, है द्रव्य रूप व्यपदेश धरे सदी से ॥२९॥ जीवादि द्रव्य भरके अवकाश दाता, आकाश-द्रव्य वह सार्थक नाम पाता। औ जीव पुद्गल की स्थिति वा गती में, होते अधर्म पुनि धर्म निमित्त ही में ॥३०॥ होता द्विधा समय आवलिहार द्वारा, है काल, या त्रिविध है व्यवहारवाला। संख्यात आवलि व सिद्ध प्रमाणवाला, है भूतकाल सुन सांप्रत भाविवाला ॥३१॥ लो जीव से व जड़ से वह काल भावी, होता अनन्त गुण सांप्रत काल भाई। त्रैलोक्य के प्रति प्रदेशन पे सुहाते, एकैक काल अणु ‘निश्चय' वीर गाते ॥३२॥ रे काल का वह अनुग्रह तो रहे हैं, जीवादि द्रव्य परिवर्तित हो रहे हैं। जो जीव पुद्गल बिना अवशेष सारे, धारे स्वभावमय पर्यय द्रव्य प्यारे ॥३३॥ जीवादि द्रव्य दल जो बिन काल सारा, है अस्तिकाय इस सार्थक नाम वाला। है काय का सरल अर्थ बहु प्रदेशी, है जैन शासन कहे सुन तू हितैषी ॥३४॥ होता मितामित अनन्त प्रदेश वाला, सो मूर्त पुद्गल इसी व्यपदेश वाला। आत्मा अधर्म फिर धर्म असंख्य देशी, विश्वास धार इनमें दृढ़ तू हितैषी ॥३५॥ होता उसी तरह लोक असंख्य देशी, हो सर्व में गुरु अलोक अनन्त देशी। पै काल कायपन को धरता नहीं है, वो एक देश धरता अणु सा सही है॥३६॥ ये पाँच द्रव्य नभ धर्म अधर्म काल, औ जीव शाश्वत अमूर्तिक है निहाल। है मूर्त पुद्गल सदा सुन भव्य प्यारे, है जीव चेतन, अचेतन शेष सारे ॥३७॥ कर्मादि के उदय या क्षय से मिले हैं, पर्याय और गुण वे मुझसे निरे हैं। प्राप्तव्य ध्येय निज आतम मात्र प्यारा, जीवादि बाह्य सब हेय अपात्र न्यारा ॥३८॥ ये हर्षभाव नय निश्चय से नहीं हैं, जीवात्म में नहिं विषाद अहर्ष ही है। मानापमानमय भाव विभाव से हैं, हैं दूर जीव निज स्थान स्वभाव से हैं ॥३९॥ ना जीव में वह रहा स्थिति बन्ध स्थाना, ना जीव में यह रहा अनुभाग स्थाना। लो बन्ध ही जबकि निश्चय में नहीं है, तो जीव में उदय स्थान कहाँ? नहीं है ॥४०॥ ना हो क्षयोपशम भाव स्वभाव स्थाना, होते न औपशमिकादि स्वभाव स्थाना। होते न औदयिक क्षायिक भाव स्थाना, ये जीव के सुन सुनिश्चय से न बाना ॥४१॥ संसार संक्रमण ना कुल योनियाँ हैं, ना रोग शोक गति जाति विजातियाँ हैं। ना मार्गणा न गुणथानन की दशायें, शुद्धात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ॥४२॥ आत्मा मदीय गत दोष अयोग योग, निश्चित है निडर है निखिलोपयोग। निर्मोह एक नित है सब संग त्यागी, है देह से रहित निर्मम वीतरागी ॥४३॥ तोष कोष गत शेष अदोष ज्ञानी, नि:शल्य शाश्वत दिगम्बर हैं अमानी। नीराग निर्मद नितान्त प्रशान्त नामी, आत्मा मदीय नय निश्चय से अकामी ॥४४॥ संस्थान संहनन ना कुछ ना कलाई, ना वर्ण स्पर्श रस गंध विकार भाई। ना तीन वेद नहिं भेद अभेद भाता, शुद्धात्म में कुछ विशेष नहीं दिखाता ॥४५॥ आत्मा सचेतन अरूप अगंध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा। आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से रहित है सुख का पिटारा ॥४६॥ वे मुक्त हैं जनन मृत्यु तथा जरा से, सामान्य आठ गुण से लसते सदा से। जैसे विशुद्ध सब सिद्ध प्रशान्त प्यारे, वैसे विशुद्ध नय से भवधारि सारे ॥४७॥ शुद्धात्म सिद्ध अविनश्वर है विदेही, लोकाग्र पे स्थित अतीन्द्रिय जान देही । ये सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्ध नय से मद को हटा रे ॥४८॥ पर्याय ये विकृतियाँ व्यवहार से हैं, जो भी यहाँ दिख रहे जग में तुझे हैं। पै सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्धनय से मद को हटा रे! ॥४९॥ लो! पूर्व में कथितभाव विभाव सारे, है हेय द्रव्य परकीय स्वभाव टारे। आत्मीय द्रव्य वह अन्तर तत्त्व प्यारा, आदेय है शुचि निरंतर साधु-शाला ॥५०॥ श्रद्धान हो वितथ आशय हीन प्यारा, सम्यक्त्व है वह जिनागम में पुकारा। संमोह विभ्रम ससंशय हीन सारा, सज्ज्ञान है सुखसुधारस पूर्ण प्याला ॥५१॥ श्रद्धान जो चलमलादि अगाढ़ता से, हो शून्य, दर्शन धरो अविलम्बता से। आदेय हेय वह क्या? यह बोध होना, सज्ज्ञान है उर धरो बनलो सलोना ॥५२॥ सम्यक्त्व का वह जिनागम मात्र साता, होता निमित्त, अथवा जिन शास्त्र ज्ञाता। पै अंतरंग वह हेतु सुनो सदा ही, होता क्षयादिक कुदर्शनमोह का ही ॥५३॥ सम्यक्त्व ज्ञान भर से शिव पंथ होता, ऐसा नहीं चरित भी अनिवार्य होता। होता सुनिश्चयमयी व्यवहारशाला, चारित्र भी द्विविध है सुन लो सुचारा ॥५४॥ होते सुनिश्चय नयाश्रित वे अनूप, चारित्र और तप निश्चय सौख्य कूप। पै व्यावहार नय आश्रित ना स्वरूप, चारित्र और तप वे व्यवहार रूप ॥५५॥ जो जीव स्थान कुल मार्गण-योनियों में, पा जीव बोध, करुणा रखता सबों में। आरम्भत्याग उनकी करता न हिंसा, वो साधु-भाव व्रत आदिम है अहिंसा ॥५६॥ संमोह रोष रति से नहिं बोलता है, भाषा असत्य मन से बस छोड़ता है। होता द्वितीय व्रत सत्य महा उसी का, साधू वही स्तवन मैं करता उसी का ॥५७॥ लो! ग्राम में नगर में वन में विहार, साधू करें पर न ले पर द्रव्य भार। वे स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, अस्तेय है व्रत यही जिन यों बताते ॥५८॥ स्त्री रूप देखकर भी मन में न लाता, संभोग भाव उनसे मन को हटाता। है ब्रह्मचर्य व्रत, मैथुन भाव रीता, किंवा रहा कि जिससे मुनिलिंग जीता ॥५९॥ जो अंतरंग बहिरंग निसंग होता, भोगाभिलाष बिन चारित सार जोता ॥ है पाँचवाँ व्रत परिग्रह त्याग पाता, पाता स्वकीय सुख तू दुख क्यों उठाता ॥६०॥ हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो। ले स्वीय कार्य कुछ, पै दिन में चलोगे, ईर्यामयी समिति को तब पा सकोगे ॥६१॥ साधू करे न परनिंदन आत्म शंसा, बोले न हास्य-कटु कर्कश पूर्ण भाषा। स्वामी करे न विकथा मितमिष्ट बोले, भाषामयी समिति में नित ले हिलोरे ॥६२॥ जो दोष मुक्त कृत कारित सम्मती से, हो शुद्ध, प्रासुक यथागम-पद्धती से। सागार अन्न दिन में यदि दान देता, ले साम्य धार, मुनि एषण पाल लेता ॥६३॥ जो देख भाल, कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रखना गहना दया से। आदान निक्षिपण है समिती कहाती, पाले उसे सतत साधु, सुखी बनाती ॥६४॥ एकान्त हो विजन विस्तृत, ना विरोध, सम्यक् जहाँ बन सके त्रस जीव शोध। ऐसा अचित्त थल पे मल मूत्र त्यागे, व्युत्सर्ग रूप-समिति गह साधु जागे ॥६५॥ रागादि का अशुभ भाव प्रणालियों का, जो त्याग कालुषमयी दुखनालियों का। श्री वीर के समय में व्यवहारवाली, मानी गई कि मन गुप्ति यही शिवाली ॥६६॥ स्त्री राज की अशन चोरन की कथायें, जो पाप तापमय है जिनसे व्यथाएँ। है पूर्ण त्याग इनका वच गुप्ति भाति, या पापरूप वच त्याग सुखी बनाती ॥६७॥ जो देह की छिदन भेदन की क्रियाएँ, किंवा सभी हलन चालन की क्रियाएँ। पाती विराम मुनि साधक की दशा में, सो काय गुप्ति, धरते मिटती निशायें ॥६८॥ रागादि का शमन जो मन से कराना, गुप्ति रही मनस की प्रभु का बताना। हिंसामयी वचन त्याग, व मौन बाना, गुप्ती वही वचन की सुन तू निभाना ॥६९॥ हिंसादि की विरति हो तन गुप्ति होती, वाणी कहे जिनप की मन मैल धोती। पावे विराम सब ही तन की क्रियायें, कायोतसर्ग अथवा तन गुप्ति पायें ॥७०॥ है घाति कर्म दल को जिनने नशाया, पाये विशुद्ध गुण केवलज्ञान पाया। चौंतीस सातिशय मंडित हैं सुहाते, वे ही विशिष्ट अरिहन्त' सुधी बताते ॥७१॥ सामान्य आठ गुण पाकर जो लसे हैं, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसे हैं। दुष्टाष्ट कर्ममय बन्धन को मिटाया, वे सिद्ध, सिद्ध-पद में शिर मैं नवाया ॥७२॥ आचार पंच परिपूर्ण सदा निभाते, पंचेन्द्रिय रूप गज के मद को मिटाते। गंभीर नीरनिधि से गुणधीर भाते, आचार्य वे समय में युग वीर गाते ॥७३॥ नि:स्वार्थ भाव धरते कुछ भी न लेते, शास्त्रानुसार वह भी उपदेश देते। सारे परीषह सहे बलवान होते, धारी स्वरत्नत्रय के उवझाय होते ॥७४॥ आराधना स्वयम की करते सदा हैं, व्यापार लौकिक तजे जड़ संपदा हैं। निर्ग्रन्थ, ग्रन्थ बिन शोभत वीतमोही, वे साधु, पूज उनको भवभीत मोही ॥७५॥ ऐसी निरन्तर रहे शुभभावनायें, तो भेदरूप वह चारित्र हाथ आये। चारित्र निश्चय नयाश्रित जो कहाता, आगे यही तुम सुनो उसको सुनाता ॥७६॥ तिर्यञ्च भाव नहीं नारक भाव मैं हूँ, ना देव भाव नहीं मानव भाव मैं हूँ। मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥७७॥ मैं जीव थान नहीं हैं गुण थान ना हूँ, भाई सुनो विविध मार्गण थान ना हूँ। मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे न उनका अनुमोद दाता ॥७८॥ मैं हूँ नहीं युवक बालक भी नहीं हूँ, हूँ वृद्ध भी न उन कारण भी नहीं हूँ। मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥७९॥ मैं रोष कोष नहिं राग कभी नहीं हूँ, मोही नहीं व उन कारण भी नहीं हूँ। मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥८०॥ मैं क्रोध रूप नहिं हूँ मद मान ना हूँ, माया न लोभ उन कारणवान ना हूँ। मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥८१॥ यों भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण। ऐसे चरित्र गुण में पुनि पुष्टि लाने, होते प्रतिक्रमण आदिक ये सयाने ॥८२॥ रागादि भाव मल को मन से हटाता, हो निर्विकल्प मुनि जो निज ध्यान ध्याता। सारी क्रिया वचन की तजता सुहाता, सच्चा प्रतिक्रमण-लाभ वही उठाता ॥८३॥ आराधनामय सुधारस नित्य पीते, छोड़े विराधन, सभी अघ से सुरीते। वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु यों बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८४॥ साधू अनाचरण पूरण छोड़ते हैं, स्वाचार में स्वयम को दृढ़ जोड़ते हैं। वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि रह जीवन हैं बिताते ॥८५॥ उन्मार्ग में विचरते मन को हटाते, सन्मार्ग में स्वयम को थिर हैं लगाते। वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि रह जीवन हैं बिताते ॥८६॥ जो शल्य भाव तजते वह साधु होते, निःशल्य भाव भजते अघ आशु खोते। वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८७॥ भाई अगुप्तिमय भाव स्वयं विसारे, औ तीन गुप्तिमय भाव अहो सुधारे। साधू ‘प्रतिक्रमण' वे गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८८॥ जो आर्त रौद्रमय ध्यान सदा विसारे, पै धर्म-शुक्लमय ध्यान सदा सुधारे। वे ही प्रतिक्रमण साधु प्रशान्त प्यारे, तल्लीन क्योंकि रह जीवन को सुधारे॥८९॥ जीवात्म ने अमित बार अरे सदी से, मिथ्यात्व आदि सब भाव किये रुची से। सम्यक्त्व आदि समभाव किये नहीं है, शुद्धात्म दर्शन अवश्य किये नहीं है ॥९०॥ मिथ्यात्व-ज्ञान-व्रत की जड़ काटता है, संस्कार भी न उनका रख डालता है। सम्यक्त्व ज्ञान व्रत को उर में बिठाता, सोही प्रतिक्रमण लाभ अहो उठाता ॥९१॥ है सर्वश्रेष्ठ निज आत्म पदार्थ साता, हो आत्म में स्थित यती विधि को नशाता। सच्चा प्रतिक्रमण आतम ध्यान होता, तू आत्म ध्यान कर, केवल ज्ञान होता ॥९२॥ सद्ध्यान-रूप सर में अवगाह पाता, साधू-स्वदोष मल को पल में धुलाता। सद्ध्यान ही विषमकल्मष पातकों का, सच्चा प्रतिक्रमण है घर-सद्गुणों का ॥९३॥ जो भी प्रतिक्रमण नामक शास्त्र बोले, भाई प्रतिक्रमण की विधि नेत्र खोले। जानो यथाविधि उसे उस भावना को, भाना प्रतिक्रमण है तज वासना को ॥९४॥ हो निर्विकल्प तज जल्प विकल्प सारे, साधू अनागत शुभाशुभ भाव टारे। शुद्धात्म-ध्यान सर में डुबकी लगाते, ये प्रत्यखान गुण-धारक है कहाते ॥९५॥ मेरा स्वभाव वर केवलज्ञानवाला, कैवल्य दर्शन मदीय स्वभाव-शाला। कैवल्य शक्ति मम मात्र स्वभाव ऐसा, ज्ञानी करे सुखद चिंतन को हमेशा ॥९६॥ लो आतमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है। द्रष्टा बना निखिल का परिपूर्ण लाता, मैं ही रहा वह, सुधी इस भाँति गाता ॥९७॥ स्थित्यादि भेदवश बंध चतुर्विधा है, आत्मा परन्तु उससे लसता जुदा है। ‘सो मैं' निरंतर विचार करे उसी में, ज्ञानी निवास कर नित्य रहे निजी में ॥९८॥ मैं तो मदीय ममता द्रुत त्यागता हूँ, निर्मोह भाव गहता नित जागता हूँ। आत्मा मदीय अवलोकन एक मेरा, छोड़ें सभी पर, रहूँ बन में अकेला ॥९९॥ विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यखान गुण में लसता गुरो! मैं। शुद्धात्म की परम पावन भावना का, है पाक मात्र सुख है, दुख वासना का ॥१००॥ है जीव एक मरता जग में मुधा है, है एक ही जनमता रहता सदा है। हो एक का मरण भी जब अन्त वेला, हो मुक्त, कर्मरज से तब भी अकेला ॥१०१॥ पूरा भरा दृग विबोधमयी सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से। संयोग जन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे॥१०२॥ जो भी दुराचरण है मुझमें दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता। नीराग सामयिक को त्रिविधा करूँ मैं, तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ॥१०३॥ ना वैरभाव मम हो जग में किसी से, हो साम्य-भाव उस स्थावर से सभी से। आशा सभी तरह की तजना कहाती, सच्ची समाधि अनुपाधि मुझे सुहाती ॥१०४॥ साधू कषाय तज इंद्रिय जीत होता, संसार के दुखन से भयभीत होता। सारे परीषह सहे नित अप्रमादी, हो प्रत्यखान उसका गुरु ने बतादी ॥१०५॥ यों जीव भेद, विधि भेदन का सुचारा, अभ्यास है कर रहा जग को विसारा, सो संयती नियम से बस धार पाता, है प्रत्यखान पद को भव पार जाता ॥१०६॥ नो-कर्म-कर्म बिन शाश्वत है सुहाता, होता विभावगुण पर्यय हीन साता। ऐसी निजात्म छवि का यदि ध्यान ध्याता,आलोचना श्रमण वो उरधार पाता ॥१०७॥ आलोचना अविकृती करुणा निराली, आलुचना विमलभाव विशुद्धि प्यारी। आलोचना चउविधा जिन शास्त्र गाता, जो भी धरे परम पावन पात्र पाता ॥१०८॥ आत्मीय सर्व परिणाम विराम पावे, वे साम्य के सदन में सहसा सुहावे। डूबो लखो बहुत भीतर चेतना में, आलोचना बस यही जिन-देशना में ॥१०९॥ ऐसा अपूर्व बल को वह धारता है, आमूल कर्ममय वृक्ष उखाड़ता है। स्वाधीन साम्य-मय भाव स्वकीय होता, आलुचना वह रहा भजनीय होता ॥ ११०॥ आत्मा स्वकर्म दल से अति भिन्न न्यारा, हीराभ शुभ्र गुणधाम अखिन्न प्यारा। माध्यस्थभाव धर यों मुनि भा रहा हो, सिद्धान्त में अविकृती-करुणी रहा वो ॥१११॥ मायाभिमान-मद-मोह-विहीन होना, है भाव शुद्धि जिससे शिव सिद्धि लोना। आलोक से सकल-लोक अलोक देखा, सर्वज्ञ ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥११२॥ जो भाव है समिति शीलव्रतों यमों का, प्रायश्चिता वह सही दम इन्द्रियों का। ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि खो विधाता ॥११३॥ क्रोधादि भाव, जिनका क्षय होय कैसा, साधू विचार करता दिन-रैन ऐसा। आत्मीय शुद्धात्म चिंतन लीन होता, प्रायश्चिता वह सही अघ हीन होता ॥११४॥ माया हरो परम आर्जव भाव द्वारा, औ मान मर्दन सुमार्दव भाव द्वारा। मेटो प्रलोभ धर तोष, क्षमा सुधा से, क्रोधाग्नि शान्त कर दो अविलम्बता से ॥११५॥ शुद्धात्म के सतत चिंतन में लगा है, शुद्धात्म ज्ञान करता निज में जगा है। शुद्धात्म बोध कर जीवन है बिताता, प्रायश्चिता नियम से उसका कहाता ॥११६॥ भारी तपश्चरण साधु महर्षियों का, प्रायश्चिता वह सभी गुणधारियों का। क्या क्या कहूँ बहुत भी कहना वृथा है, है सर्व कर्म-क्षय हेतु यही कथा है॥११७॥ जो भी शुभाशुभ कुकर्म युगों-युगों में, बाँधा हुवा विगत में कि भवों-भवों में। सम्यक् तपश्चरण से मिट पूर्ण जाता, प्रायश्चिता इसलिए तप ही कहाता ॥११८॥ आत्मा विनष्ट करता पर भाव सारा, लेके स्वकीय गुण का रुचि से सहारा। सर्वस्व है इसलिए निजध्यान प्यारा, लेऊँ अतः शरण मैं निज की सुचारा ॥११९॥ छोड़ी विभावमय राग प्रणालि की भी, चेष्टा शुभाशुभ सभी वचनावली की। पश्चात् स्वकीय शुचि ध्यान लगा रहा है, वो साधु का 'नियम' मित्र सगा रहा है॥१२०॥ जो ध्यान आत्म गुण का करता निहाला, हो निर्विकल्प तज जल्प विकल्प-माला। देहादि से बन निरीह स्व में बसा है, कायोतसर्ग मुनि का वह है लसा है ॥१२१॥ वाक् योग-रोक जिसने मन-मौन धारा, औ वीतराग बन आतम को निहारा। होती समाधि परमोत्तम हो उसी की, पूजें उसे शरण और नहीं किसी की ॥१२२॥ हो संयमी नियम औ तप धारता है, औ धर्म-शुक्लमय ध्यान निहारता है। होती समाधि परमोत्तम हो उसी की, पूजें उसे शरण और नहीं किसी की ॥१२३॥ मासोपवास करना वनवास जाना, आतापनादि तपना तन को सुखाना। सिद्धान्त का मनन मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥१२४॥ आरम्भ दम्भ तज के त्रय गुप्ति पाले, हैं पंचइन्द्रियजयी समदृष्टि वाले। स्थायी सुसामयिक है उनमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२५॥ जो साधुराज जड़ जंगम जंतुओं में, सौभाग्यमान धरता समता सबों में। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२६॥ हो संयमी नियम में यम में बिठाता, जो आत्म को पतन से अघ से उठाता। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२७॥ ये राग-द्वेष मुनि में रहते तथापि, उत्पन्न वे न करते विकृती कदापि। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२८॥ लो आर्त-रौद्रमय ध्यान नहीं लगाता, पै साधु नित्य उनको मन से हटाता। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२९॥ लो पाप-पुण्यमय भाव कभी न लाता, पै साधु नित्य उनको मन से हटाता। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३०॥ जो शोक को अरति को रति-हास्य त्यागे, हो नित्य दूर उनसे मुनि नित्य जागे। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३१॥ ग्लानी त्रिवेद भय को मुनि त्यागता है, हो दूर नित्य उनसे नित जागता है। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३२॥ जो धर्म-शुक्लमय ध्यान सदा लगाता, होना न दूर उनसे यह साधु गाथा। स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३३॥ सम्यक्त्व-ज्ञान-व्रत की मुनि श्रावकों से, जो भक्ति हो नियम-संयमधारियों से। निर्वाण-भक्ति उनकी वह है कहाती, वाणी जिनेन्द्र कथिता इस भाँति गाती ॥१३४॥ सन्मार्ग पे विचरते मुनि साधुओं के, भेदोपभेद गुण जान यतीश्वरों के। होना विलीन उनकी शुचि भक्ति में है, निर्वाण-भक्ति वह भी व्यवहार में है॥१३५॥ जो साधु मोक्ष पथ पे निज को चलाता, निर्वाण-भक्ति-भर में मन को लगाता। स्वाधीनपूर्ण-गुण-युक्त निजी दशा को, पाता नितान्त, कर नष्ट निरी निशा को ॥१३६॥ रागादि मोह परिणामन को मिटाने, जो साधु उद्यत निरंतर हैं सयाने। वे योग-भक्ति सर में डुबकी लगाते, पै अन्य साधु किस भाँति सुयोग पाते ॥१३७॥ संकल्प जल्प सविकल्पन से छुड़ाता, हो निर्विकल्प निज को निज में सुलाता। सो योग-भक्ति सर में डुबकी लगाता, पै अन्य साधु किस भाँति सुयोग पाता? ॥१३८॥ मिथ्यात्व भाव परिणाम विभाव त्यागे, हो जैन तत्त्व भर में रत आप जागे। सो योग, भाव निज का अभिराम साता, ऐसा वसन्ततिलका अविराम गाता ॥१३९॥ तीर्थंकरों वृषभ-सन्मति आदिकों ने, की योग-भक्ति यम-संयम-धारकों ने। पश्चात् बने शिव बने शिवधामवासी, धारो अतः तुम सुयोग बनो उदासी ॥१४०॥ जो इन्द्रियों व मन के वश में न आता, आवश्यका वह रहा मुनि कार्य साता। जो योग है करम नाशक है कहाता, निर्वाण मार्ग वह आगम यों बताता ॥१४१॥ हो अन्य के वश नहीं अवशी कहाता, आवश्यका, अवश का वह कार्य भाता। है युक्ति का उचित अर्थ उपाय होता, ऐसा अवश्यक सयुक्तिक सिद्ध होता ॥१४२॥ वैभाविकी अशुभ आशय बो रहा है, जो अन्य के, श्रमण हो, वश हो रहा है। आवश्यका न उसका वह कार्य होता, अध्यात्म के विषय में अनिवार्य सोता ॥१४३॥ जो साधु, भाव शुभ में रत हो रहा है, भाई नितान्त पर के वश हो रहा है। आवश्यका, न उसका वह कार्य होता, अध्यात्म के विषय में अनिवार्य सोता ॥१४४॥ पर्याय द्रव्य-गुण में मन है लगाता, वो भी यती वश रहा पर के कहाता। मोहान्धकार परिपूर्ण भगा रहे हैं, ऐसा कहे श्रमण जो कि जगा रहे हैं ॥१४५॥ सध्यान में श्रमण अन्तरधान हो के, रागादि भाव पर है पर भाव रोके। वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते अवश्यक कहें उन कार्य सारे ॥१४६॥ भाई तुझे यदि अवश्यक पालना है, होके समाहित स्व में मन मारना है। हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती, सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥१४७॥ जो साधु ना हि षडवश्यक पालता है, चारित्र से पतित हो सहता व्यथा है। आत्मानुभूति कब हो यह कामना है, आलस्य त्याग षडवश्यक पालना है॥१४८॥ जो साधु सादर अवश्यक धारता है, सो अंतरातम रहा मन मारता है। पै साधु हो नहिं अवश्यक पालता है, सो है अवश्य बहिरातम, बालता है॥१४९॥ जो अंतरंग बहिरंग-प्रजल्पधारी, होता नितांत बहिरातम है विकारी। सम्पूर्ण जल्प भर से अति दूर होता, सो अंतरातम रहा सुख पूर होता ॥१५०॥ सद्धर्म-शुक्लमय ध्यान-सुधा सुपीता, सो अंतरात्म सुख जीवन नित्य जीता। पै साधु हो तदपि ध्यान नहीं लगाता, होता नितांत बहिरात्म वही कहाता ॥१५१॥ सामायिकादि षडवश्यक नित्य पाले, जो साधु निश्चय सुचारित भव्य धारे। तो वीतराग शुचि चारित में यमी वो, शीघ्रातिशीघ्र फलतः नित उद्यमी हो ॥१५२॥ आलोचना, नियम आदिक मूर्तमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यखान। स्वाध्याय से सफल है गुरु हैं बताते, होते विकल्पमय भेद चरित्र तातें ॥१५३॥ संवेग-धारक यथोचित शक्ति वाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले। ऐसा नहीं यदि बने उर धार लेना, श्रद्धान तो दृढ़ रखो अघ मार देना ॥१५४॥ सामायिकादि विधि की कर लो परीक्षा, सो जैन शास्त्र कहता बन के निरीच्छा। योगी बने इसलिये मन मौन धारो, साधो स्वकार्य नित पै अघ को न धारो ॥१५५॥ संसार में विविध कर्म प्रणालियाँ हैं, ये जीव भी विविध औ उपलब्धियाँ है। भाई अतः मत विवाद करो किसी से, साधर्मि से अनुज से पर से अरी से ॥१५६॥ ज्यों वित्त को खरचता निज पोषणों में, भोगी सुभोग करता दिन-रात्रियों में, पा नित्यज्ञान निधि, नित्य नितांत ज्ञानी, त्यों भोगता न रमता पर में अमानी ॥१५७॥ जो भी पुराण पुरुषोत्तम रे! हुए हैं, सामायिकादि षडवश्यक वे किये हैं। सप्तादि पूर्ण गुणथान पुनः चढ़े हैं, हैं केवली बने फिर हमसे बड़े हैं ॥१५८॥ ये केवली प्रभु सदा व्यवहार नाते, हैं जानते सकल विश्व निहार पाते, पै केवली नियम से निज को अमानी, हैं जानते निरखते पर को न ज्ञानी ॥१५९॥ ये ज्ञान दर्शन स्वयं जिन के, बली के, हो एक साथ सुन मित्र सु केवली के। होते प्रभाकर प्रकाश प्रताप जैसे, देते सभी सदुपदेश अपाप ऐसे ॥१६०॥ होता सदैव वह ज्ञान परप्रकाशी, होता नितांत वह दर्शन स्वप्रकाशी। आत्मा तथा स्वपर का रहता प्रकाशी, ऐसा कहो यदि अरे! विषयाभिलाषी ॥१६१॥ तू ज्ञान को परप्रकाशक ही कहेगा, तो ज्ञान से पृथक दर्शन हो रहेगा। औ अन्य-द्रव्यगत दर्शन भी नहीं है, यों पूर्व के कथन में मिलता सही है॥१६२॥ आत्मा मनो पर प्रकाशक ही रहा हो, तो आत्म से पृथक दर्शन हो रहा वो। औ अन्य-द्रव्य गत दर्शन भी नहीं है, यों पूर्व के कथन में मिलता सही है॥१६३॥ ज्यों ज्ञान, मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों अन्य का यह सुदर्शन भी प्रकाशी। ज्यों आत्म मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों अन्य का वह सुदर्शन भी प्रकाशी ॥१६४॥ ज्यों ज्ञान, मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों हो सुदर्शन अतः निज का प्रकाशी। ज्यों आत्म निश्चयतया निज का प्रकाशी, त्यों से सुदर्शन अतः निज का प्रकाशी ॥१६५॥ ये केवली नियम से निज को निहारे, ना देखते सकल लोक अलोक सारे। कोई मनो यदि कहे इस भाँति भाई, क्या दोष दूषण रहा इसमें बुराई ॥१६६॥ संसार के अमित मूर्त अमूर्त सारे, ये द्रव्य चेतन अचेतन आदि प्यारे। जो जानता निज समेत इन्हें सुचारा, प्रत्यक्ष है वह अतीन्द्रिय ज्ञान सारा ॥१६७॥ पूर्वोक्त द्रव्य दल जो दिखता अपारा, नाना गुणों विविध-पर्यय का पिटारा। जाने सही न उसको युगपत् कदापि, होता परोक्ष वह ज्ञान कहें अपापी ॥१६८॥ हैं देखते सकल लोक अलोक सारे, ये केवली पर नहीं निज को निहारें। कोई मनो यदि कहें इस भाँति भाई, क्या दोष दूषण रहा इसमें बुराई ॥१६९॥ है ज्ञान आतम सरूप सदा सुहाता, आत्मा अतः बस निजातम जान पाता। माना न ज्ञान निज आतम को जनाता, तो आत्म से पृथक ज्ञान बना, न पाता ॥१७०॥ तू आत्म को समझ ज्ञान अनूप प्याला, औ ज्ञान को समझ आतम रूपवाला। ये ज्ञान दर्शन अतः स्वपर-प्रकाशी, संदेह के बिन, कहे मुनि सत्यभाषी ॥१७१॥ इच्छा किये बिन सुकेवल ज्ञानधारी, हैं जानते निरखते सब को अधारी। होते अतः सब अबंधक निर्विकारी, रोते यहाँ सतत बंधक ये विकारी ॥१७२॥ संकल्पपूर्वक कभी कुछ बोलना है, सो बंध हेतु, पय में विष घोलना है। संकल्प-मुक्त कुछ बोलत साधु ज्ञानी, होता न बंध उनको सुन भव्यप्राणी! ॥१७३॥ इच्छा समेत कुछ भी वह बोलना है, लो बंध हेतु, पय में विष घोलना है। इच्छा विमुक्त कुछ बोलत साधु ज्ञानी, होता न बंध उनको सुन भव्य! प्राणी ॥१७४॥ इच्छा बिना सहज से उठ बैठ जाते, है केवली इसलिये नहीं बंध पाते। मोही बना जगत ही विधि बन्ध पाता, ऐसा वसन्ततिलका वह छन्द गाता ॥१७५॥ है आयु का प्रथम तो अवसान होता, निश्शेष कर्म दल का फिर नाश होता। पश्चात् सुशीघ्र शिव दे पल में लसेंगे, लोकाग्र पे स्थित शिवालय में बसेंगे ॥१७६॥ दुष्टाष्ट कर्म तजते सकलावभासी, होते अछेद्य परमोत्तम ना विनाशी। ज्ञानादि अक्षय चतुष्टय रूप धारे, वार्धक्य जन्म-मृति-मुक्त सुसिद्ध सारे ॥१७७॥ आकाश से निरवलम्ब अबाध प्यारे, वे सिद्ध हैं अचल नित्य अनूप सारे। होते अतीन्द्रिय पुनः भव में न आते, हैं पुण्य-पाप-विधि-मुक्त मुझे सुहाते ॥१७८॥ बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, आती न गन्ध दुख की सुख की न क्रीड़ा। ना जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, निर्वाण जान वह है गुरु यों बताते ॥१७९॥ निद्रा न मोहतम विस्मय भी नहीं है, ये इन्द्रियाँ जड़मयी जिसमें नहीं हैं। होते कभी न उपसर्ग तृषा क्षुधा हैं, निर्वाण में सुखद बोधमयी सुधा है॥१८०॥ चिंता नहीं उपजती चिति में जरा-सी, नो कर्म भी नहिं नहीं वसु कर्म राशी। होते जहाँ नहिं शुभाशुभ ध्यान चारों, निर्वाण है वह, सुधी तुम यों विचारो ॥१८१॥ कैवल्य - बोध - सुख - दर्शन - वीर्यवाला, आत्मा प्रदेशमय मात्र अमूर्त शाला। निर्वाण में निवसता निज नीति धारी, अस्तित्त्व से विलसता जग आर्तहारी ॥१८२॥ निर्वाण ही परम सिद्ध रहा सुहाता, या सिद्ध शुद्ध निर्वाण सदा कहाता। जो कर्म-मुक्त बनते अविराम जाते, लोकाग्र लौं फिर सुसिद्ध विराम पाते ॥१८३॥ यों प्राणि पुद्गल, जहाँ तक धर्म होता, जाते वहाँ नहिं जहाँ नहिं धर्म होता। यों जीव की व जड़ की गति में सहाई, धर्मास्तिकाय बनता सुन भव्य भाई ॥१८४॥ हो शास्त्र भक्तिवश शास्त्र सही बनाया, मैंने यहाँ 'नियम' के फल को दिखाया। पूर्वापरा यदि विरोध यहाँ दिखावें, शास्त्रज्ञ दूर कर नित्य पढ़े पढ़ावें ॥१८५॥ ईर्ष्या जन सुंदर पंथ की भी, निंदा करे शरण ले अघ ग्रन्थ की भी। भाई कभी न उनसे अनुकूल होना, आस्था जिनेश पथ की मत भूल खोना ॥१८६॥ पूर्वापरा-सकल दोष-विहीन प्यारा, होता जिनागम अपार अगाध न्यारा। मैंने स्वकीय-शुचिभाव-निमित्त भाया, जाना उसे 'नियमसार' पुनः रचाया ॥१८७॥ इति शुभं भूयात् |
  11. ? *जय जिनेन्द्र बन्धुओं? * आचार्य श्री 108* *विद्यासागर सागर जी मुनिराज के मुख्य सामाजिक एवं प्राकृतिक दायित्व निर्वहन * कार्यक्रम के अन्तर्गत एवं * उनके आशीर्वाद एवं प्रेरणा से एक वृहत वृक्षारोपण के कार्यक्रम का आयोजन आगामी शनिवार दिनांक 14-07-2018 को प्रातः 06-30 बजे से, बोन्टा गेट नंबर 05 ( कमला नेहरू रिज) सिविल लाइंस दिल्ली मे अति उत्साह से मनाया जाऐगा। इस कार्यक्रम मे लगभग 1000 की संख्या मे वृक्ष पोध का रोपण किया जाऐगा। हम इस सामाजिक एवं प्राकृतिक कर्तव्य निर्वहण कार्यक्रम मे आपको सपरिवार सादर आमन्त्रित करते हैं। कृप्या सम्मिलित हो कर उत्साह बढाऐं ।* धन्यवाद।* *प्रेषक एवं विनित सकल दिगम्बर जैन समाज, राजपुर रोड दिल्ली*
  12. सन्मति को मम नमन हो मम मति सन्मति होय। सुर-नर-पशु-गति सब मिटे गति पंचमगति होय ॥१॥ कुन्दकुन्द को नित नमूं हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में जीवन मम घुल जाय ॥२॥ तरणि ज्ञानसागर गुरो तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥३॥ चन्दन, चन्दर चान्दनी से जिन धुनि अतिशीत। उसका सेवन मैं करूँ मन वच तन कर नीत ॥४॥ नियमसार, का मैं करूं पद्यमयी अनुवाद। मात्र प्रयोजन यह रहा मोह मिटे परमाद ॥५॥
  13. आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज, आचार्य कुन्दकुन्द के परम भक्त हैं, वास्तव में कुन्दकुन्द आचार्य ने समयसार आदि ग्रन्थों की रचना कर भगवान् महावीर की तात्त्विक गिरा को भव्यजनों के लिए सुबोध बना दिया है। यही कारण है कि इन्होंने भी आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का पद्यानुवाद अधिक किया है। जैन गीता में भी समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि की गाथाएँ अधिक हैं, जिनका हिन्दी पद्यानुवाद सर्वप्रथम इन्होंने किया। इसके पश्चात् ‘समयसार कलश', प्रवचनसार, नियमसार आदि का पद्यानुवाद किया। मोह और प्रमाद के निवारणार्थ यह पद्यमय अनुवाद किया गया है। केवली या श्रुतकेवली आचार्यों ने जिस नियमसार को कहा है, वही यहाँ विद्यमान है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति तो प्राणिमात्र के लक्षण हैं, पर मोक्षाधिकारी मानव को स्वैराचार वर्जित है। उसे यदि स्वभाव से प्रतिष्ठित होना है तो नियम-संयमपूर्वक जिजीविषा की चरितार्थता के लिए चर्या बनानी पड़ेगी। थूबौन नाम का रम्यक्षेत्र मध्यप्रदेश के गुना जिले में स्थित है तथा नियमों की दृष्टि से तपोवन ही है, जहाँ वास करते हुए मुनि का मन मौनी बनकर ध्यान में उतर जाता है, वहाँ भगवान् शान्तिनाथ के दर्शन से परमाह्लाद प्राप्त होता है। इस वर्ष उन्हीं के चरणों में वर्षावास का योग लगा। वर्ष था वीर निर्वाण संवत् २५०५, शनिवार, २५ अगस्त, १९७९ तथा तिथि भाद्रपद शुक्ल तृतीया थी, जब सांसारिक भोगों से मुक्ति का बीजरूप यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ।
  14. भूल क्षम्य हो लेखक कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़े धीमान् ॥१॥ गुरु-स्तुति तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो, कर से दो आशीष ॥२॥ कुन्दकुन्द को नित नमूँ, हृदय-कुन्द खिल जाय। परम सुगंधित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥३॥ समय-समय पर समय में, सविनय समता धार। सकल संग संबंध तज, रम जा, सुख पा सार ॥४॥ भव, भव भववन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता काल। बीता अनन्त वीर्य, बिन, बिनसुख बिन वृषसार ॥५॥ पर पद, निज पद जान, तज पर पद, भज निजकाम। परम पदारथ फल मिले, पल-पल जप निज नाम ॥६॥ मोक्ष-मार्ग पर तुम चलो, दुख मिट, सुख मिल जाय। परम सुगंधित ज्ञान की, मृदुल कली खिल जाय ॥७॥ तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश। रवि शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश ॥८॥ विषय-विषम विष है सुनो! विष सेवन से मौत। विषय कषाय विसार दो, स्वानुभूति सुख स्रोत ॥९॥ स्थान एवं समय-परिचय नयन मनोरम क्षेत्र है, नैनागिरि अभिराम। जहाँ विचरते सुर सदा, ऋषि मन ले विश्राम ॥१॥ वर्ण गगन गति गंध का, दीपमालिका योग। पूर्ण हुआ अनुवाद है, ध्येय मिटे भव रोग ॥२॥
  15. उत्फुल्ल लाल पद पद्म भले निराले, हैं वीर के विमल नेत्र विशाल प्यारे। मैं वन्दना कर उन्हें त्रय योग द्वारा, हूँ शील प्राभृत सुनो! कहता सुचारा ॥१॥ ये ज्ञान शील नहिं आपस में विरोधी, ऐसा कहें जिन सुधारक पूर्ण-बोधि। जो शील से रहित जीवन हैं बिताते, जो ज्ञान को विषय सेवन से मिटाते ॥२॥ श्रद्धा समेत निज पावन ज्ञान पाना, सद्भावना स्वयम की अविराम भाना। पंचाक्ष के विषय से मन को छुड़ाना, दुर्लभ्यपूर्ण क्रमशः सब ये सुजाना ॥३॥ हा! वासना विषय की जब लौं रखेगा, विज्ञान को न नर वो तब लौं लखेगा। पंचाक्ष के विषय में यदि लीन होता, ना पूर्व बद्ध विधि को मति हीन खोता ॥४॥ जो मूढ़, ज्ञान बिन चारित ढो रहा है, निर्ग्रन्थ साधु, दृग के बिन हो रहा है। आतापनादि तप संयम ना निभाता, सो सर्व ही तप निरर्थक ही कहाता ॥५॥ सम्यक्त्व शुद्ध धर शोभित हो रहा है, विज्ञान संग दृढ़ चारित ढो रहा है। निर्ग्रन्थ संयम समेत, तपे, सुहाता, हो अल्प भी तप महाफल है दिलाता ॥६॥ कोई सुजान कर ज्ञानन को तथापि, संभोग लीन नर है मतिमन्द पापी। हैं झूलते विषय में अति फूलते हैं, वे मूढ़ चार गति में चिर घूमते हैं ॥७॥ विज्ञान जान निज भाव समेत सारे, योगी विरक्त विषयादिक को विसारे। मूलोत्तरादि गुण ले तपते सुहाते, शंका न चार गति तोड़ स्वधाम जाते ॥८॥ जैसा सुहाग-लवणोदक लेप द्वारा, होता विशुद्धतम भासुर स्वर्ण प्यारा। वैसा हि ज्ञान जल से यह आतमा है, होता विशुद्धतम है परमातमा है ॥९॥ ज्ञानी भला बन गया मद धारता है, वो मूढ़ कापुरुष हा! न विचारता है। देखो अतः विषय में रम मान होता, दोषी वही, न उसका वह ज्ञान होता ॥१०॥ सम्यक्त्व दर्शन लिये तपते तपस्वी, विज्ञान आचरण में रमते यशस्वी। चारित्र शुद्ध बनता उनका स्वतः है, निर्वाण लाभ मिलता उनको अतः है ॥११॥ पा शुद्ध दर्शन सुरक्षित शील वाले, चारित्र को सुदृढ़ से, नहिं ढील पाले। भोगादि से बहुत दूर विरक्त होते, निर्वाण पा नियम से भव मुक्त होते ॥१२॥ रागी गृही तदपि वो पथ पा सकेगा, सम्यक्त्व-प्राप्त जिसको शिव जा सकेगा। उन्मार्ग का पथिक ना सुख इष्ट पाता, निस्सार ज्ञान उसका अति कष्ट पाता ॥१३॥ सद्ज्ञान शीलव्रत को यदि न निभाता, दुशास्त्र का कुमत का यदि गीत गाता। होगा अनेक विध आगम ज्ञानवाला, आराधना-रहित दूषित ज्ञानशाला ॥१४॥ शोभे युवा सुभग भासुर-देह-धारी, सत्-शील से रहित हैं यदि हैं विकारी। है गर्व रूप-धन का करता तथापि, निस्सार व्यर्थ उसका यह जन्म पापी ॥१५॥ वैशेषिकादि व्यवहार सुमानता है, औ न्याय के विशद शास्त्र सुजानता है। होता विशारद जिनागम में तथापि, सत्शील उत्तम रहा सबमें अपापी ! ॥१६॥ जो भव्य शील गुण-मण्डितनाथ होते, हैं पूजते सुर उन्हें नत माथ होते। वे प्रेम पात्र तक भी श्रुत पारगामी, होते नहीं जगत में गत-शील, कामी ॥१७॥ हो वृद्ध हो स्वतन से कुबड़े भले हों, हो जाँत पाँत कुलहीन निरे गले हो। सत्शील-गीत जिनका मन गा रहा है, मानुष्य जीवित अभी उनका रहा है ॥१८॥ अस्तेय, सत्य, दम, जीवदया, सुप्यारी, औ ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह दुःखहारी। सम्यक्त्व, ज्ञान, तप, भव्य सुनो सयाने, हैं शील के सकल ये परिवार माने ॥१९॥ है शील ही विमल सत् पथ ही सही है, है ज्ञान शुद्ध शुचि दर्शन भी वही है। पंचाक्ष के विषय का रिपु शील ही है, सोपान, मोक्ष घर का,सुख झील भी है ॥२०॥ सर्पादिकों विषधरों उस स्थावरों को भी मारते विषय, ये विष ना सबों को। हैं वस्तुतः विषय दारुण दुःख हाला, है छोड़ता विबुध ही इसको निहाला ॥२१॥ जो एक बार विष सेवन हा! करेगा, तो एक बार वह जीवन में मरेगा। धिक्कार है विषय सेवन जो करेगा, सो बार-बार भव कानन में मरेगा ॥२२॥ पंचाक्ष के विषय में मन जो लगाना, हो नारकी नरक में अति दुःख पाना। तिर्यञ्च हो मनुज हो दुख ही उठाना, हो हीन देव दिवि में अपमान पाना ॥२३॥ जैसा कि शुष्क तृण को यदि हो उड़ाना, हे भव्य! द्रव्य तब क्या पड़ता लगाना ? त्यों विज्ञ, शील तप से मन पूर्ण जोड़े, हाला लखे विषय को खल भाँति छोड़े॥२४॥ लो अर्ध गोल समगोल सुडोल प्यारे, ज्यों अंग देह भर में लसते निराले। हो प्राप्त ईदृश सुदेह, तथापि भाई! शोभे तभी कि जब शील धरे सुहाई ॥२५॥ दुःशास्त्र को पढ़ कुधी कुमतानुगामी, पंचाक्ष के विषय में रत मूढ कामी। संसार में भटकते पर को भ्रमाते, जैसे कि नित्य भ्रमते घटि यंत्र भाते ॥२६॥ रागी हुए विषय के विषयी बने थे, बाँधे कुकर्म दल को पर में सने थे। काटे कृतार्थ मुनि ये उनको गुणों से, शीलों सुसंयम तपों मुनि के व्रतों से ॥२७॥ पूरा भरा रतन से जलधी तथापि, ज्यों शोभता सलिल से सुन मूढ़ पापी। दानादि रत्न विनयादि तपादि ढोता, पै शील से विलसता मुनि मुक्ति जोता ॥२८॥ गो श्वान गर्दभ तथा पशु आदिकों को, होता विमोक्ष नहिं है महिला जनों को। देखो जरा तुम सुनो! अयि भव्य श्रोता, धारें करें पुरुष ही पुरुषार्थ चौथा ॥२९॥ ज्ञानी बना विषय लोलुपपूर्ण पापी, मानो! विमोक्ष मिलता उसको तथापि। क्यों ? वो भला नरक सात्यकि पुत्र जाता, तू ही बता जबकि था दस पूर्व ज्ञाता ॥३०॥ आत्मा सुशील बिन, केवलज्ञान द्वारा, होता विशुद्ध, यदि यों बुध ने पुकारा। तो क्यों नहीं विमल शुद्ध हुआ प्रमाता, वो रुद्र भी यदपि था दश पूर्व ज्ञाता ॥३१॥ जो नारकीय दुख वेदन झेलते हैं, आसक्त हो विषय में नहिं झूलते हैं। आ! श्वभ्र से पद गहें अरहन्त का है, है वर्धमान मत यों मत सन्त का है ॥३२॥ हो शील, मोक्ष पद की मिलती सुधा है, भाई, अतीन्द्रिय अनश्वर सम्पदा है। प्रत्यक्ष ज्ञान दृग पा जिन यों बताया, सर्वज्ञ हो विविध बोध हमें सुनाया ॥३३॥ सम्यक्त्व वीर्य तप चारित ज्ञान प्यारे, आचार पंच निज आतम के पुकारे। ये पूर्व बद्ध विधि को क्षण में जलाते, ज्यों वायु औ अनल कानन को जलाते ॥३४॥ हो दूर भी विषय से मुनि दक्ष सारे, ध्यानाग्नि से विधि जला मन-अक्ष-मारे। सत् शील से विनय से तप से लसे हैं, वे सिद्ध सिद्धगति में बस जा बसे हैं ॥३५॥ लावण्य पूर्ण तन है मन शीलवाला, है शोभता श्रमण जीवन वृक्ष प्यारा। सो शीलमंडित, शुभाश्रय हो इसी का, फैले वितान गुण का जग में उसी का ॥३६॥ सद्ध्यान दर्शन तथा शुचि ज्ञान प्यारा, औ वीर्य के बिन नहीं यह योग सारा। सम्यक्त्व दर्शन बिना नहिं बोध होता, है जैनशासन यही सुन भव्य श्रोता ॥३७॥ साराभिभूत, जिनके मत को गहे हैं, भोगादि भी तज तपोधन भी हुए हैं। हैं शील के सलिल से मन को धुलाते, वे मोक्षधाम सुख को अनिवार्य पाते ॥३८॥ मुलोत्तरादि गुण से विधि को घटाया, पा साम्य, दु:ख सुख में मन को धुलाया। लो चार घाति रज को फलतः उड़ाया, आराधना, बन जिनेन्द्र हमें दिखाया ॥३९॥ निर्ग्रन्थरूप शुचि दर्शन युक्त होना, सम्यक्त्व है जिनप में, शुभ भक्ति होना। सो शील है विषय के प्रति राग ना हो, वो ज्ञान कौन कब है इनके बिना हो ? ॥४०॥ (दोहा) मणियों में वर नील ज्यों, मुनिगण गण में शील। शील बिना ना शिव धरो, शील करो मत ढील ॥१॥ शील बिना ना ज्ञान हो, ज्ञान बिना ना शील। ज्ञान निहित है शील में, निहित ज्ञान में शील ॥२॥
  16. मैं वन्दना कर उन्हें परमेष्ठियों को, सिद्धों तथा जिनवरों जिन आर्हतों को। सत् प्राभृती श्रमण लिंग सुखी बनाता, संक्षेप से तुम सुनो! तुमको सुनाता ॥१॥ सद्धर्म से सहित हो वह लिंग सारा, पावे न धर्म-धन, केवल-लिंग द्वारा। तू जान भावमय धर्म अरे ! रुची से, है मात्र लिंग वह व्यर्थ रहा इसी से ॥२॥ निर्ग्रन्थ लिंग जिसने मुनि हो सुधारा, पै पाप पंक मल से मन को बिगारा। वो “भाव लिंग' जिसकी करता हँसी है, सो अन्य साधु-मुख में लगती मषी है ॥३॥ निर्ग्रन्थ-रूप धर वाद्य मनो बजाता, है नित्य नृत्य करता रति गीत गाता। है पाप पंक मल से मन पे लिपाता, होता नहीं श्रमण वो पशु ही कहाता ॥४॥ जो संग का ग्रहण रक्षण में लगे हैं, हैं आर्त ध्यान करते मुनि हो डिगे हैं। हैं पाप पंक मल से मन को लिपाते, होते नहीं श्रमण वे पशु ही कहाते ॥५॥ खेलो जुवा कलहवाद वृथा करे हैं, मानी प्रमत्त बन के मद से भरे हैं। निर्ग्रन्थ बाह्य मुनि यद्यपि हैं तथापि, पाताल में उतरते कर पाप पापी ॥६॥ निर्ग्रन्थ हो सहित मैथुन कार्य से हैं, पापी बने उदय पूर्ण अनार्य से हैं। हैं पापरूप मल से मन औ लिपाते, संसार के विपिन में भ्रम दुःख पाते ॥७॥ सम्यक्त्व ज्ञान व्रत ये शिव हेतु प्यारे, मोही बने मुनि परन्तु इन्हें न धारें। हैं आर्त ध्यान भर में मन को लगाते, संसार को अमित और अतः बनाते ॥८॥ मोही, विवाह अविवाहित का कराते, वाणिज्य जीव वध औ कृषि भी कराते। निर्ग्रन्थ नग्न मुनि यद्यपि हैं तथापि, पाताल में उतरते कर पाप पापी ॥९॥ चोरों नृपों यदि परस्पर में लड़ाता, है पाप कार्य करता पर से कराता। तासादि खेल मुनि होकर खेलता है, सो आत्म को नरक में हि ढकेलता है ॥१०॥ सम्यक्त्व ज्ञान चरणों व्रत पालनों में, आवश्यक नियम संयम सत् तपों में। निर्ग्रन्थ हो यदि मनो दुख मानता है, जाता अतः नरक सो अनजानता है॥११॥ हो लोलुपी सरस भोजन का बना है, कामादि पाप भर में फलतः सना है। होता नहीं श्रमण वो व्यभिचारकर्ता, मायाभिभूत पशु है मद-मार-धर्ता ॥१२॥ लो भोजनार्थ सहसा बस भाग जाते, साधर्मि से कलह भी कर भात खाते। विद्वेषपूर्ण रखते मुनि सन्त से हैं, वे दूर ही श्रमण हो शिवपंथ से हैं ॥१३॥ निन्दा परोक्ष पर की करता बनाता, दोषी, प्रदत्त बिन दान स्वयं गहाता। निर्ग्रन्थ लिंग जिसने बस बाह्य धारा, सो चोर सा श्रमण है नहिं साम्य धारा ॥१४॥ हैं खोदते अवनि को चलते दिखाते, हैं दौड़ते उछलते गिर भाग जाते। ईर्यामयी समिति धारक, ना कहाते, होते नहीं श्रमण वे पशु ही कहाते ॥१५॥ हिंसादि जन्य विधि बंध, नहीं गिनाता, खोदे धरा तरु लता दल को गिराता। है छेदता श्रमण हो तरु के गणों को, हा! साम्य हीन, धरता पशु के गुणों को ॥१६॥ दोषावरोप करता मुनि सज्जनों में, आसक्त रात-दिन है महिला जनों में। सम्यक्त्व ज्ञान गुण से अति दूर होता, होता नहीं श्रमण वो पशु मूढ़ होता ॥१७॥ है धारते परम स्नेह असंयतों में, किंवा विमुग्ध निज शिष्य सुसंयतों में। आचार से विनय से च्युत हो रहे हैं, होते नहीं श्रमण वे पशु तो रहे हैं ॥१८॥ पूर्वोक्त दुर्गुण लिये मुनि संयतों में, सत् संघ में रह रहा गुणधारियों में। होता विशारद जिनागम में तथापि, होता नहीं श्रमण भावविहीन पापी ॥१९॥ विश्वास नारिजन में रखता, दिलाता, सम्यक्त्व ज्ञान व्रत भी उनको सिखाता। पार्श्वस्थ से अधिक निंद्य रहा तथापि, होता नहीं श्रमण वंद्य रहा कुपापी ॥२०॥ आहार लेत व्यभिचारिणि के यहाँ हैं, शंसा करें स्तुति करें उसकी अहा है। वे बाल अज्ञ निज भाव-विहीन पापी, होते नहीं श्रमण, लिंग धरें तथापि ॥२१॥ यों लिंग प्राभृत रहा मुनिलिंग प्यारा, सर्वज्ञ ने यह कहा हमको सुचारा। जो भी इसे यतन से यदि पाल पाता, औचित्य ! स्वीय परमोत्तम धाम जाता ॥२२॥ (दोहा) नग्न मात्र बाहर बना, भीतर भरी कषाय। शिव सुख पाता वह नहीं, बसता नहीं अकाय ॥१॥ बाहर भीतर एक-सा, यथाजात जिन लिंग। दर्पण सम शुचि यदि बना, वह नर बने अलिंग ॥२॥
  17. देवाधिदेव जिनदेव बने हुए हैं, आत्मीय-ज्ञान-धन पाय तने हुए हैं। सर्वस्व-त्याग पर का विधि को मिटाते, वन्दें उन्हें विनय से शिर को झुकाते ॥१॥ मैं वन्दना कर इन्हें, जिनदेव प्यारे, सच्चे अनन्त दृग बोध स्वयं सुधारें। उत्कृष्ट योगिजन को रुचि से सुनाता, जो श्रेष्ठ रूप परमातम, का सुहाता ॥२॥ जो पूर्व, जान परमातम, योग ढोते, योगी सुयोग रत ही अविराम होते। निर्वाण प्राप्त करते सुख कूप साता, निर्बाध शाश्वत अनन्त अनूप भाता ॥३॥ बाह्यात्म और परमातम अन्तरात्मा, आत्मा त्रिधा सब, तजो तुम बाह्य आत्मा। है अन्तरातम उपाय उसे सुधारो, ध्याओ सदैव परमातम को निहारो ॥४॥ मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म मुक्त परमातम देव साता। चैतन्यधाम मुझसे तन है निराला, यों अन्तरात्म कहता समदृष्टि वाला ॥५॥ होते अनीन्द्रिय अनिंद्य अकाय प्यारे, शुद्धात्म मात्र, विधि-पंक-विमुक्त सारे। शोभे सदा शिव शिवंकर सिद्ध स्थाई, माने गये परम-इष्ट-जिनेश, भाई! ॥६॥ वाक्काय से मनस से तज बाह्य-आत्मा, सौभाग्य है! तुम बनो शुचि अन्तरात्मा। ध्यावो उसे परम-आतम जो सुहाया, प्राप्तव्य मात्र वह है, जिन ने बताया ॥७॥ वो मूढ़दृष्टि, मन-इन्द्रिय-दास मोही, 'आत्मा' स्वयं समझता निज देह को ही। आत्मीय बोध-च्युत है फलतः भ्रमा है, बाह्यार्थ में, रच पचा पर में रमा है॥८॥ है अन्य का स्वतन सा तन देख सोही, सेवा सदैव करता उसकी विमोही। वो वस्तुतः तन अचेतन ही रहा है, भूला उसे तदपि चेतन ही गहा है॥९॥ यों देह में स्वपर भान लिए दिखाते, आत्मा जिन्हें विदित है न यथार्थ पाते। माता पिता सुत सुता निज बाँधवों में, हैं मोह और करते वनितादिकों में ॥१०॥ ना-ना कुबोध भर में रममान होता, मिथ्या-विभाव वश मानव मान ढोता। संमोह के उदय से यह लोक में भी, माने अभीष्ट तन को परलोक में भी ॥११॥ आरम्भ से रहित निर्भय है विरागी, निर्द्वन्द्व, राग रखते तन में न त्यागी। योगी नितान्त निज में रममान होता, हो मोक्ष-ओर फलतः गममान होता ॥१२॥ जो राग से सहित है, विधि बंध-पाता, होता विराग, विधि-मुक्त अनन्त ज्ञाता। हैं मुक्ति की यह तथा विधि-बंध गाथा, संक्षेप से यह जिनागम यों बताता ॥१३॥ तल्लीन जो श्रमण स्वीय पदार्थ में है, साधू नितान्त समदृष्टि यथार्थ में हैं। सम्यक्त्व मंडित हुआ निज में सुहाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को क्षण में मिटाता ॥१४॥ तल्लीन साधु परकीय पदार्थ में हो, मिथ्यात्व-दृष्टि वह क्यों न यथार्थ में हो। मिथ्यात्व मंडित, नहीं निज धर्म पाता, है बार-बार फलतः वसु-कर्म पाता ॥१५॥ लेना निजाश्रय सुनिश्चित मोक्षदाता, होता पराश्रय दुरन्त अशांति-धाता। शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में, अरुचि ही शिव सौख्यकारी ॥१६॥ जो भी सचेतन अचेतन मिश्र सारे, शुद्धात्म के धरम से अति भिन्न न्यारे। ऐसा हमें सदुपदेश अहो! सुनाया, सन्मार्ग को निखिल-दर्शक ने दिखाया ॥१७॥ है वस्तुतः अतुल-निर्मल-शील वाला, दुष्टाष्ट-कर्म बिन ज्ञान-शरीर-धारा। अत्यन्त शुद्ध निज आतम द्रव्य भाता, ऐसा जिनेश कहते, निज-द्रव्य-धाता ॥१८॥ संलग्न पूर्ण जिन के पथ में हुए हैं, औ पूर्णतः विमुख भी पर से हुए हैं। सद्ध्यान, आत्म भर का करते सदा हैं, पाते विमोक्ष धरते व्रत सम्पदा हैं ॥१९॥ योगी जिनेश-मत के अनुसार ध्याता, शुद्धात्म-ध्यान मन में यदि धार पाता। निर्वाण लाभ उसको मिलता यदा है, आश्चर्य क्या न मिलती सुरसम्पदा है? ॥२०॥ सौ कोश एक दिन में चलता मजे से, ले के स्वकीय शिर पे गुरु भार वैसे। क्या अर्ध कोस उसको न निभा सकेगा? शंका नहीं, वह नितान्त निभा सकेगा ॥२१॥ दुर्जेय कोटि-भट है रण में खड़ा है, जीता न जाय भट कोटिन से अड़ा है। क्या एक मल्ल भट जीत उसे सकेगा, कैसा असम्भव सुसम्भव हो सकेगा? ॥२२॥ घोरातिघोर तप से तन को तपाते, प्रायः सभी अमर हो मुनि स्वर्ग पाते। सद्ध्यान से सुर बने यदि स्वर्ग जाते, आगे नितान्त शिव शाश्वत सौख्य पाते ॥२३॥ अग्न्यादि का यदि सुयोग्य सुयोग पाता, पाषाण हेम-मय, हेम बने सुहाता। कालादि योग्य जब साधन-प्राप्त होता, आत्मा अवश्य परमातम आप्त होता ॥२४॥ अच्छा, व्रतादिक-तया, सुर-सौख्य पाना, स्वच्छन्दता अति बुरी, फिर श्वभ्र जाना। अत्यन्त-अन्तर व्रताव्रत में रहा है, छाया-सुधूप-द्वय में जितना रहा है॥२५॥ चाहो भयंकर भवार्णव तैर जाना! चाहो यहाँ अब नहीं भव दुःख नाना। ध्याओ उसे शुचि निजातम है सुहाता, जो शीघ्र कर्म-मय ईंधन को जलाता ॥२६॥ साधू कषाय-घट को झट फोड़ते हैं, संमोहराग मद गारव छोड़ते हैं। वे त्याग लोक व्यवहार सदा सुहाते, हैं ध्येयभूत निज ध्यान अतः लगाते ॥२७॥ अज्ञान से विमुख हो दिन-रात जागें, मिथ्यात्व पाप सब पुण्य विभाव त्यागें। सानन्द मौनव्रत गुप्ति तथा निभावें, योगी सुयोग-रत आतम को दिपावें ॥२८॥ जो भी मुझे दिख रहा जग रूप न्यारा, सो जानता न कुछ भी जड़-कूप सारा। मैं तो अमूर्त नित ज्ञायक शीलवाला, कैसे करूँ कि, किससे कुछ बोल चाला ॥२९॥ वह कर्म के सतत आस्रव रोक पाते, है पूर्व संचित तभी विधि को खपाते। योगी सुयोगरत हो, जिन यों बताते, योगी बनो तुम धरो दृढ़ योग तातें ॥३०॥ होता सुजागृत वही निज कार्य में है, सोता हुआ सतत लौकिक कार्य में है। जो जागता सतत लौकिक कार्य में है, सोता वही सतत आत्मिक कार्य में है ॥३१॥ योगी सदैव इस भाँति विचारता है, सारा असार व्यवहार विसारता है। जो भी जिनोक्त परमात्मपना उसी में, होता विलीन रत, भूल न औ किसी में ॥३२॥ ये पंच पाप तज पंच-महाव्रतों को, पालो सदा समिति पंच त्रिगुप्तियों को। ज्ञानादि रत्नत्रय में मन को लगाओ, स्वाध्याय ध्यानमय जीवन ही बिताओ ॥३३॥ आराधना वह रही निज के गुणों की, आराधना कर रहा दृग-आदिकों की। माना गया विमल केवल ज्ञान दाता, आराधना-मय-विधान मुझे सुहाता ॥३४॥ है शुद्ध, सिद्ध निज आतम विश्वदर्शी, सर्वज्ञ है, पर नहीं पर द्रव्य स्पर्शी। जानो उसे सदन केवल ज्ञान का है, ऐसा कहें जिन, निधान प्रमाण का है॥३५॥ योगी जिनेश-मत के अनुसार भाता, ज्ञानादि रत्न-त्रय सो उरधार पाता। शुद्धात्म-ध्यान सर में डुबकी लगाता, निर्धान्त शीघ्र मन के मल को मिटाता ॥३६॥ जो जानता स्वपर को वह ज्ञान भाता, जो देखता सहज दर्शन नाम पाता। जो पाप पुण्य पर को जड़ से मिटाता, सिद्धान्त में विमल चारित वो कहाता ॥३७॥ सम्यक्त्व, तत्त्व भर में रुचि नाम पाता, तत्त्वार्थ का ग्रहण ज्ञान सही कहाता। चारित्र शुद्ध, पर का-परिहार साता, ऐसा जिनेश मत है हमको बताता ॥३८॥ वो शुद्ध, शुद्ध यदि दर्शन धारता है, निर्वाण प्राप्त करता मन मारता है। अन्धा बना रहित दर्शन से विचारा, पाता अभीष्ट फल को नहिं मोक्ष प्यारा ॥३९॥ धर्मोपदेश जिनका सुख का पिटारा, है जन्म मृत्यु हरता यह विश्व सारा। स्वीकारता हृदय से इसको सुहाता, सम्यक्त्व सो श्रमण श्रावक धार पाता ॥४०॥ क्या भेद चेतन अचेतन में रहा है, योगी उसे समझ जीवन में रहा है। सद्-ज्ञान है नियम से उसका, बताया, सत्यार्थ को निखिल-दर्शक ने दिखाया ॥४१॥ योगी सुरत्नत्रय लक्षण जान लेता, सो पुण्य पाप झट छोड़ नितान्त देता। है निर्विकल्पमय चारित धार लेता, ऐसा कहें जिन सुनो विधि मार जेता ॥४२॥ हो संयमी स्वबल को न कभी छुपाते, रत्नत्रयी बन तपे तप साधु तातें। शुद्धात्म-ध्यान धरते रुचि से सुचारा, पाते पुनः परम है पद पूर्ण प्यारा ॥४३॥ मायादि शल्य त्रय त्याग त्रिरत्न पाले, धारें त्रियोग त्रय योग सदा सँभाले। औ राग-दोष द्वय को जड़ से मिटाते, योगी तभी नियम से परमात्म ध्याते ॥४४॥ माया व क्रोध भय को मन में न लाना, हो लोभ से रहित-जीवन ही चलाना। है शोभता विमल भाव-स्वभाव द्वारा, पाता अनन्त गुण उत्तम विश्व सारा ॥४५॥ शुद्धात्म-भाव-च्युत हैं विषयी कषायी, हैं रौद्र-भाव धरते भव दुःखदाई। पाते न सिद्धि सुख हैं विधि से कसे हैं, वे क्योंकि हा! न जिन-लिंगन से लसे हैं ॥४६॥ निर्ग्रन्थ रूप जिन-लिंग वही सुहाया, उत्कृष्ट मोक्ष-सुख है, जिन-देव गाया। सो स्वप्न में तक जिन्हें रुचता नहीं है, रोते फिरें अबुध वे भव में यहीं हैं ॥४७॥ सद्-ध्यान में उतरता परमातमा है, होता प्रलोभ मलदायक खातमा है। योगी नवीन विधि आस्रव रोधता है, प्यारी जिनेन्द्र प्रभु की यह बोधता है॥४८॥ सम्यक्त्व संग दृढ़ चारित पालता है, वैराग्य से नियम से मन मारता है। योगी निजात्म भर का शुचि ध्यान ध्याता, पाता अतः परम है पद को सुहाता ॥४९॥ चारित्र ही धरम निश्चय से सुहाता, सो धर्म भी सहज साम्य स्वभाव धाता। है राग रोष रति से वह अन्य होता, जीवात्म का हि परिणाम अनन्य होता ॥५०॥ वो स्वच्छ ही स्फटिक आप स्वभाव से हो, भाई! वही विकृत अन्य प्रभाव से हो। जीवात्म भी विमल आप स्वभाव से हो, रागादि से मलिन-मैल-विभाव से हो ॥५१॥ साधर्मि-साधु जन, में अनुराग ढोता, सद्भक्त देव गुरु का, अनगार होता, सम्यक्त्व-ध्यान रत हो वह मात्र योगी, माना गया समय में सुन शास्त्र भोगी ॥५२॥ मोही अनेक भव में जितना खपाता, उग्राति उग्रतप से विधि को मिटाता। ज्ञानी त्रिगुप्ति बल से उतना खपाता, अन्तर्मुहूर्त भर में, यह ‘साधु-गाथा' ॥५३॥ जो पुण्य के उदय में निज को भुलाता, होता विमुग्ध पर में शुभ वस्तु पाता। है अज्ञ ही इसलिए वह साधु होता, ज्ञानी विराग उससे विपरीत होता ॥५४॥ भोगानुराग अघ आस्रव हेतु जैसा, मोक्षानुराग शुभ आस्रव हेतु वैसा। है मोक्ष चाह रखता बस अज्ञ होता, शुद्धात्म से इसलिए अनभिज्ञ, होता ॥५५॥ पा कर्म जन्य कुछ इन्द्रिय ज्ञान को है, ना मानता सहज केवलज्ञान को है। अज्ञान-धाम फलतः वह है कहाता, धिक्कार दोष जिन-शासन में लगाता ॥५६॥ जो मूढ़ ज्ञान बिन-चारित ढो रहा है, सम्यक्त्व से रहित तापस हो रहा है। संवेग आदि गुण में रुचि भी न लाता, वो मात्र नग्नपन क्या सुख को दिलाता? ॥५७॥ माने सचेतन अचेतन को वही है, है अज्ञ ही चतुर विज्ञ अहो नहीं है। भाई! सचेतन सचेतन को बताता, ज्ञानी वही नियम से जग में कहाता ॥५८॥ विज्ञान के बिन नहीं तप कार्यकारी, विज्ञान भी तप बिना नहिं कार्यकारी। भाई! अतः तप तपो तुम ज्ञान द्वारा, निर्वाण प्राप्त करलो सुख खान प्यारा ॥५९॥ निर्वाण का नियम से जब पात्र होते, निर्भ्रान्त तीर्थकर वे चहुँ ज्ञान ढोते। भाई! तथापि तपते तप भी रुची से, यों जान, ज्ञान समवेत तपो इसी से ॥६०॥ लो मात्र नग्न मुनि है तज वस्त्र सारा, है भाव-लिंग बिन बाहर लिंग धारा। निर्भ्रांत भ्रष्ट निज चारित से रहा है, धिक्कार! मोक्ष पथ नाशक सो रहा है॥६१॥ जो तत्त्व-बोध सुखपूर्वक हाथ आता, आते हि दुःख झट से वह भाग जाता। वे कायक्लेश-समवेत अतः सुयोगी, तत्त्वानुचिन्तन करें, तज भोग भोगी ॥६२॥ निद्रा तथा अशन आसन जीत लेना, भाई! जिनेन्द्र-मत में रुचि नित्य लेना। पाके प्रसाद गुरु का उपदेश द्वारा, शुद्धात्म ध्यान करना मन से सुचारा ॥६३॥ चारित्रवान निज आतम ही रहा है, सम्यक्त्व बोध गुण-मंडित भी रहा है। ध्यातव्य सो सतत है मन से सुचारा, पाके प्रसाद गुरु का उपदेश द्वारा ॥६४॥ श्रद्धा समेत निज आतम जान पाना, सद्भावना स्वयम की अविराम भाना। पंचाक्ष के विषय से मन को छुड़ाना, दुर्लभ्य पूर्ण क्रमशः सब ये सुजाना! ॥६५॥ जो वासना विषय की जबलौं रखेगा, शुद्धात्म को न नर वो तब लौं लखेगा। योगी जभी विषय से अति दूर होता, शुद्धात्म को निरखता सुन मूढ़! श्रोता ॥६६॥ कोई सुजान कर आतम को तथापि, सद्भाव से स्खलित हो मतिमंद पापी। हैं झूलते विषय में अति फूलते हैं, वे मूढ़ चार गति में चिर घूमते हैं॥६७॥ शुद्धात्म जान जिन भाव समेत सारे, योगी विरक्त विषयादिक को विसारें। मूलोत्तरादि गुण ले तपते सुहाते, वे छोड़ चार गतियाँ निजधाम जाते ॥६८॥ तू राग को तनिक भी तन में रखेगा, मोहाभिभूत बन के पर को लखेगा। होगा स्व से स्खलित हो विपरीत जाता, मूढात्म हा ! न फलतः भव जीत पाता ॥६९॥ सम्यक्त्व शुद्ध धर शोभित हो रहा है, उत्साह से सुदृढ़ चारित हो रहा है। शुद्धात्म ध्यानरत निर्विषयी विरागी, निर्वाण प्राप्त करते तज राग-रागी ॥७०॥ जो मोह राग पर में करना कराना, संसार कारण रहा गुरु का बताना। योगी अतः नित करे निज भावनाएँ, वाक्काय से मनस से तज वासनाएँ ॥७१॥ निन्दा मिले स्तुति मिले न विभाव होना, बन्धू रहो रिपु रहो समभाव होना। जो साम्य ही विपद में सुख सम्पदा में, माना गया चरित है धरता सदा मैं ॥७२॥ चारित्र मोह विधि से सहसा घिरे हैं, स्वच्छन्द हैं समिति संयम से निरे हैं। वैराग्य हीन, जड़ यों बकते यहाँ हैं, सद्ध्यान योग्य यह काल नहीं अहा है! ॥७३॥ सम्यक्त्व ज्ञान बिन जीवन जी रहे हैं, भोगोपभोग रस सादर पी रहे हैं। जो ध्यान योग्य यह काल नहीं बताते, वे ही अभव्य, नहिं, मोक्ष कदापि जाते ॥७४॥ पाले न पंच व्रत पालन की न इच्छा, धारे न गुप्ति समिती धरते न दीक्षा। चारित्र बोध बिन यों जड़ ही पुकारे, है ध्यान योग्य यह काल नहीं विचारे ॥७५॥ लो धर्म ध्यानरत, भारत देश में भी, साधू मिले दुखद पंचम काल में भी। ऐसे निजात्म रत साधु जिन्हें न माने, वे अज्ञ मूढ़ कहलाय, सुनो सयाने ॥७६॥ ज्ञानादि रत्नत्रय से शुचि हो सुहाते, लो आज भी मुनि निजातम ध्यान ध्याते। लौकांतिका सुरप या फलरूप होते, आ स्वर्ग से मुनि बने शिव को सँजोते ॥७७॥ हो पाप पंक मल से मन को बिगारा, हा! साधु ने यदपि है जिन लिंग धारा। पै पाप मात्र करता दिन-रैन पापी, पाता न मोक्ष पथ को तजता तथापि ॥७८॥ जो पंचधा वसन को रखते सदा हैं, हैं मूढ़ याचक, रखें धन सम्पदा हैं। हा! पाप कार्य भर में रस ले रहे हैं, सन्मार्ग को बस जलांजलि दे रहे हैं ॥७९॥ सारे परीषह सहें अनिवार्य भाते, हैं हेय मान तजते अघ कार्य तातें। निर्ग्रन्थ हैं विगत मोह कषाय जेता, वे मोक्षमार्ग भजते दृग के समेता ॥८०॥ हा! तीन लोक भर में कुछ है न मेरा, होगा, न था, न अब है, बस मैं अकेला। योगी निरन्तर अहो इस भाँति गाता, जाता स्वधाम ध्रुव शाश्वत शान्ति साता ॥८१॥ जो भक्त देव गुरु के मन से बने हैं, निर्वेग रूप रस में सहसा सने हैं। शुद्धात्म ध्यानरत निश्चल भी रहे हैं, वे ही विमोक्ष पथ से चल भी रहे हैं ॥८२॥ आत्मार्थ, आतम निजातम में समाता, सच्चा सुनिश्चित चरित्र वही कहाता। हे भव्य! पावन पवित्र चरित्र पालो, पालो अपूर्व पद को, निज को दिपालो ॥८३॥ आकार से पुरुष आतम शैल योगी, सम्यक्त्व ज्ञानमय है विमलोपयोगी। योगी सदैव करता निज ध्यान प्यारा, निर्द्वन्द्व आप बनता हर पाप सारा ॥ ८४॥ धर्मोपदेश इस भाँति हमें सुनाया, श्रामण्य क्या श्रमण का जिन ने बताया। सागार-धर्म सुनलो भव को मिटाता, उत्कृष्ट कारण रहा, शिव का सुहाता ॥८५॥ सम्यक्त्व का प्रथम श्रावक! लो सहारा, जो है अकम्प, गिरि सा शुचि शांत धारा। सम्यक्त्व पे हि तुम ध्यान अहो जमा लो, हो दुःख का क्षय यही कि प्रयोजना हो ॥८६॥ सम्यक्त्व ध्यान करता यदि है सुचारा, भाई सुनो वह रहा समदृष्टि वाला। सम्यक्त्व से सहित जो लसता सुहाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को वह ही मिटाता ॥८७॥ जो भी हुए विगत में शिव सिद्ध प्यारे, होंगे भविष्य भर में कटिबद्ध सारे। ज्यादा कहाँ तक कहें महिमा निराली, सम्यक्त्व ही वह रही, सुखदा शिवाली ॥८८॥ है धन्य शूर नर श्रेष्ठ कृतार्थ सारे, वे ही प्रकाण्ड बुध पंडित पूज्य प्यारे। लो स्वप्न में तक कलंकित न किया है, सम्यक्त्व को विमल धारण ही किया है॥८९॥ निर्ग्रन्थ मोक्षपथ हो गुरु ग्रन्थ त्यागी, वे देव अष्टदश दोष बिना विरागी। हिंसा बिना धरम हो सबको सुहाता, श्रद्धान होय इनमें ‘दृग' नाम पाता ॥९०॥ जो सर्व संग बिन संयत हो रहा हो, है जातरूप शिशु सा मुनि हो रहा हो। सग्रन्थ लिंग मुनि का नहिं ध्यान देना, सम्यक्त्व प्राप्त करना पहचान लेना ॥९१॥ जो देव शास्त्र गुरु कुत्सित शीलवाले, हिंसादि में निरत निर्दय शीलवाले, मिथ्यात्व मंडित इन्हें नमते विचारे, लज्जाभिभूत भय गारव भाव धारे॥९२॥ भोगार्थ-राज भय से बन साधु मोही, है पूजता यदि कुदेव कुसाधु को ही। मिथ्यात्व धारक सुनिश्चित ही रहा है, सम्यक्त्व का न वह धारक ही रहा है॥९३॥ निर्दिष्ट धर्म जिनसे सुख पूर्ण प्याला, सो धर्म श्रावक करे समदृष्टि-वाला। मिथ्यात्व धारक रहा वह भूल जाता, सद्धर्म से सतत जो प्रतिकूल जाता ॥९४॥ मिथ्यात्व धारक यहाँ सुख को न पाता, भाई! अनेक कटु दुस्सह दुःख पाता। है बार-बार मृति-जन्म-जरा गहाता, संसार में सुचिर जीवन है बिताता ॥९५॥ मिथ्यात्व कौन समदर्शन कौन जानो, क्या दोष क्या गुण रहें इनके पिछानो। धारो उसे अब तुम्हें रुचता सुहाता, क्या लाभ है अधिक वाचन है न साता ॥९६॥ लो बाह्य संग तज नग्न भले बने हैं, मिथ्यात्व रूप मल में फिर भी सने हैं। क्या लाभ हो तप तपे स्थित मौन से क्या? जाने न साम्य निज का निज गौण से क्या? ॥९७॥ है दोष मूल गुण में मुनि हो लगाता, पै बाह्य उत्तर गुणादिक को निभाता। पाता न सिद्धि सुख को बिन संग का है, होता विराधक निरा जिन लिंग का है॥९८॥ मासोपवास करले कर क्या करेगा, आतापनादि तप ले तप क्या करेगा। तू बाह्य कर्म कर केवल क्या करेगा, जाता विलोम निज से सुख क्या मिलेगा? ॥ पालो अनेक विधि चारित को बढ़ाओ, भाई! भले सकल शास्त्र पढ़ो, पढ़ाओ। वे सर्व बाल श्रुत चारित ही कहाते, शुद्धात्म से यदि अरे विपरीत जाते ॥१००॥ साधू सदा विमुख अन्य पदार्थ से है, वैराग्य लीन निज लीन यथार्थ से है। आत्मीय शुद्ध सुख में अनुरक्त होते, भोगादि से बहुत दूर विरक्त होते ॥१०१॥ मूलोत्तरादि गुण से तन को सजाया, स्वाध्याय ध्यान भर में मन को लगाया। आदेय हेय जिनको सब ज्ञान होते, साधू गहे स्वपद वे जिन आप्त होते ॥१०२॥ आत्मा निजी नमन योग्य नमस्कृतों से, आत्मा निजी परम स्तुत्य सुसंस्तुतों से। ध्यातव्य भी बस वही सब ध्यानियों से, देहस्थ को निरख लो तुम ज्ञानियों से ॥१०३॥ अर्हन्त सिद्ध शिव ये परमेष्ठि प्यारे, आचार्य वर्य उवझाय सुसाधु सारे। ये आत्म से निरख लो दिखते सुचारा, आत्मा अतः शरण हो मम हो सहारा ॥१०४॥ सम्यक्त्व ज्ञान तप चारित सत्य प्यारे, चारों निजात्म गुण हैं गुरु यों पुकारे। देखें इन्हें स्वयम में दिखते सुचारा, आत्मा अतः शरण हो मम हो सहारा ॥१०५॥ यों मोक्ष के प्रथम पाहुड को बताया, धर्मोपदेश, जिन ने हमको सुनाया। जो भी पढ़े सुन इसे अविराम भावें, श्रद्धा समेत स्थिर शाश्वत धाम पावें ॥१०६॥ (दोहा) रत्नत्रय से द्विविध है, निश्चय औ व्यवहार। प्रथम साध्य साधक द्वितिय रत्नत्रय उर धार॥ नग्न दिगम्बर बिन बने, रत्नत्रय नहिं होय। रत्नत्रय के बिन कभी, निज सुख मोक्ष न होय ॥
  18. आचार्य श्री का संयम स्वर्ण महोत्सव 5 तारीख को भट्टारक जी की नसिया में पूरे जयपुर की महिलाओं का मनाया गया
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