सन्मति को मम नमन हो मम मति सन्मति होय।
सुर-नर-पशु-गति सब मिटे गति पंचमगति होय ॥१॥
कुन्दकुन्द को नित नमूं हृदय कुन्द खिल जाय।
परम सुगन्धित महक में जीवन मम घुल जाय ॥२॥
तरणि ज्ञानसागर गुरो तारो मुझे ऋषीश।
करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥३॥
चन्दन, चन्दर चान्दनी से जिन धुनि अतिशीत।
उसका सेवन मैं करूँ मन वच तन कर नीत ॥४॥
नियमसार, का मैं करूं पद्यमयी अनुवाद।
मात्र प्रयोजन यह रहा मोह मिटे परमाद ॥५॥