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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शीलपाहुड

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    उत्फुल्ल लाल पद पद्म भले निराले, हैं वीर के विमल नेत्र विशाल प्यारे।

    मैं वन्दना कर उन्हें त्रय योग द्वारा, हूँ शील प्राभृत सुनो! कहता सुचारा ॥१॥

     

    ये ज्ञान शील नहिं आपस में विरोधी, ऐसा कहें जिन सुधारक पूर्ण-बोधि।

    जो शील से रहित जीवन हैं बिताते, जो ज्ञान को विषय सेवन से मिटाते ॥२॥

     

    श्रद्धा समेत निज पावन ज्ञान पाना, सद्भावना स्वयम की अविराम भाना।

    पंचाक्ष के विषय से मन को छुड़ाना, दुर्लभ्यपूर्ण क्रमशः सब ये सुजाना ॥३॥

     

    हा! वासना विषय की जब लौं रखेगा, विज्ञान को न नर वो तब लौं लखेगा।

    पंचाक्ष के विषय में यदि लीन होता, ना पूर्व बद्ध विधि को मति हीन खोता ॥४॥

     

    जो मूढ़, ज्ञान बिन चारित ढो रहा है, निर्ग्रन्थ साधु, दृग के बिन हो रहा है।

    आतापनादि तप संयम ना निभाता, सो सर्व ही तप निरर्थक ही कहाता ॥५॥

     

    सम्यक्त्व शुद्ध धर शोभित हो रहा है, विज्ञान संग दृढ़ चारित ढो रहा है।

    निर्ग्रन्थ संयम समेत, तपे, सुहाता, हो अल्प भी तप महाफल है दिलाता ॥६॥

     

    कोई सुजान कर ज्ञानन को तथापि, संभोग लीन नर है मतिमन्द पापी।

    हैं झूलते विषय में अति फूलते हैं, वे मूढ़ चार गति में चिर घूमते हैं ॥७॥

     

    विज्ञान जान निज भाव समेत सारे, योगी विरक्त विषयादिक को विसारे।

    मूलोत्तरादि गुण ले तपते सुहाते, शंका न चार गति तोड़ स्वधाम जाते ॥८॥

     

    जैसा सुहाग-लवणोदक लेप द्वारा, होता विशुद्धतम भासुर स्वर्ण प्यारा।

    वैसा हि ज्ञान जल से यह आतमा है, होता विशुद्धतम है परमातमा है ॥९॥

     

    ज्ञानी भला बन गया मद धारता है, वो मूढ़ कापुरुष हा! न विचारता है।

    देखो अतः विषय में रम मान होता, दोषी वही, न उसका वह ज्ञान होता ॥१०॥

     

    सम्यक्त्व दर्शन लिये तपते तपस्वी, विज्ञान आचरण में रमते यशस्वी।

    चारित्र शुद्ध बनता उनका स्वतः है, निर्वाण लाभ मिलता उनको अतः है ॥११॥

     

    पा शुद्ध दर्शन सुरक्षित शील वाले, चारित्र को सुदृढ़ से, नहिं ढील पाले।

    भोगादि से बहुत दूर विरक्त होते, निर्वाण पा नियम से भव मुक्त होते ॥१२॥

     

    रागी गृही तदपि वो पथ पा सकेगा, सम्यक्त्व-प्राप्त जिसको शिव जा सकेगा।

    उन्मार्ग का पथिक ना सुख इष्ट पाता, निस्सार ज्ञान उसका अति कष्ट पाता ॥१३॥

     

    सद्ज्ञान शीलव्रत को यदि न निभाता, दुशास्त्र का कुमत का यदि गीत गाता।

    होगा अनेक विध आगम ज्ञानवाला, आराधना-रहित दूषित ज्ञानशाला ॥१४॥

     

    शोभे युवा सुभग भासुर-देह-धारी, सत्-शील से रहित हैं यदि हैं विकारी।

    है गर्व रूप-धन का करता तथापि, निस्सार व्यर्थ उसका यह जन्म पापी ॥१५॥

     

    वैशेषिकादि व्यवहार सुमानता है, औ न्याय के विशद शास्त्र सुजानता है।

    होता विशारद जिनागम में तथापि, सत्शील उत्तम रहा सबमें अपापी ! ॥१६॥

     

    जो भव्य शील गुण-मण्डितनाथ होते, हैं पूजते सुर उन्हें नत माथ होते।

    वे प्रेम पात्र तक भी श्रुत पारगामी, होते नहीं जगत में गत-शील, कामी ॥१७॥

     

    हो वृद्ध हो स्वतन से कुबड़े भले हों, हो जाँत पाँत कुलहीन निरे गले हो।

    सत्शील-गीत जिनका मन गा रहा है, मानुष्य जीवित अभी उनका रहा है ॥१८॥

     

    अस्तेय, सत्य, दम, जीवदया, सुप्यारी, औ ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह दुःखहारी।

    सम्यक्त्व, ज्ञान, तप, भव्य सुनो सयाने, हैं शील के सकल ये परिवार माने ॥१९॥

     

    है शील ही विमल सत् पथ ही सही है, है ज्ञान शुद्ध शुचि दर्शन भी वही है।

    पंचाक्ष के विषय का रिपु शील ही है, सोपान, मोक्ष घर का,सुख झील भी है ॥२०॥

     

    सर्पादिकों विषधरों उस स्थावरों को भी मारते विषय, ये विष ना सबों को।

    हैं वस्तुतः विषय दारुण दुःख हाला, है छोड़ता विबुध ही इसको निहाला ॥२१॥

     

    जो एक बार विष सेवन हा! करेगा, तो एक बार वह जीवन में मरेगा।

    धिक्कार है विषय सेवन जो करेगा, सो बार-बार भव कानन में मरेगा ॥२२॥

     

    पंचाक्ष के विषय में मन जो लगाना, हो नारकी नरक में अति दुःख पाना।

    तिर्यञ्च हो मनुज हो दुख ही उठाना, हो हीन देव दिवि में अपमान पाना ॥२३॥

     

    जैसा कि शुष्क तृण को यदि हो उड़ाना, हे भव्य! द्रव्य तब क्या पड़ता लगाना ?

    त्यों विज्ञ, शील तप से मन पूर्ण जोड़े, हाला लखे विषय को खल भाँति छोड़े॥२४॥

     

    लो अर्ध गोल समगोल सुडोल प्यारे, ज्यों अंग देह भर में लसते निराले।

    हो प्राप्त ईदृश सुदेह, तथापि भाई! शोभे तभी कि जब शील धरे सुहाई ॥२५॥

     

    दुःशास्त्र को पढ़ कुधी कुमतानुगामी, पंचाक्ष के विषय में रत मूढ कामी।

    संसार में भटकते पर को भ्रमाते, जैसे कि नित्य भ्रमते घटि यंत्र भाते ॥२६॥

     

    रागी हुए विषय के विषयी बने थे, बाँधे कुकर्म दल को पर में सने थे।

    काटे कृतार्थ मुनि ये उनको गुणों से, शीलों सुसंयम तपों मुनि के व्रतों से ॥२७॥

     

    पूरा भरा रतन से जलधी तथापि, ज्यों शोभता सलिल से सुन मूढ़ पापी।

    दानादि रत्न विनयादि तपादि ढोता, पै शील से विलसता मुनि मुक्ति जोता ॥२८॥

     

    गो श्वान गर्दभ तथा पशु आदिकों को, होता विमोक्ष नहिं है महिला जनों को।

    देखो जरा तुम सुनो! अयि भव्य श्रोता, धारें करें पुरुष ही पुरुषार्थ चौथा ॥२९॥

     

    ज्ञानी बना विषय लोलुपपूर्ण पापी, मानो! विमोक्ष मिलता उसको तथापि।

    क्यों ? वो भला नरक सात्यकि पुत्र जाता, तू ही बता जबकि था दस पूर्व ज्ञाता ॥३०॥

     

    आत्मा सुशील बिन, केवलज्ञान द्वारा, होता विशुद्ध, यदि यों बुध ने पुकारा।

    तो क्यों नहीं विमल शुद्ध हुआ प्रमाता, वो रुद्र भी यदपि था दश पूर्व ज्ञाता ॥३१॥

     

    जो नारकीय दुख वेदन झेलते हैं, आसक्त हो विषय में नहिं झूलते हैं।

    आ! श्वभ्र से पद गहें अरहन्त का है, है वर्धमान मत यों मत सन्त का है ॥३२॥

     

    हो शील, मोक्ष पद की मिलती सुधा है, भाई, अतीन्द्रिय अनश्वर सम्पदा है।

    प्रत्यक्ष ज्ञान दृग पा जिन यों बताया, सर्वज्ञ हो विविध बोध हमें सुनाया ॥३३॥

     

    सम्यक्त्व वीर्य तप चारित ज्ञान प्यारे, आचार पंच निज आतम के पुकारे।

    ये पूर्व बद्ध विधि को क्षण में जलाते, ज्यों वायु औ अनल कानन को जलाते ॥३४॥

     

    हो दूर भी विषय से मुनि दक्ष सारे, ध्यानाग्नि से विधि जला मन-अक्ष-मारे।

    सत् शील से विनय से तप से लसे हैं, वे सिद्ध सिद्धगति में बस जा बसे हैं ॥३५॥

     

    लावण्य पूर्ण तन है मन शीलवाला, है शोभता श्रमण जीवन वृक्ष प्यारा।

    सो शीलमंडित, शुभाश्रय हो इसी का, फैले वितान गुण का जग में उसी का ॥३६॥

     

    सद्ध्यान दर्शन तथा शुचि ज्ञान प्यारा, औ वीर्य के बिन नहीं यह योग सारा।

    सम्यक्त्व दर्शन बिना नहिं बोध होता, है जैनशासन यही सुन भव्य श्रोता ॥३७॥

     

    साराभिभूत, जिनके मत को गहे हैं, भोगादि भी तज तपोधन भी हुए हैं।

    हैं शील के सलिल से मन को धुलाते, वे मोक्षधाम सुख को अनिवार्य पाते ॥३८॥

     

    मुलोत्तरादि गुण से विधि को घटाया, पा साम्य, दु:ख सुख में मन को धुलाया।

    लो चार घाति रज को फलतः उड़ाया, आराधना, बन जिनेन्द्र हमें दिखाया ॥३९॥

     

    निर्ग्रन्थरूप शुचि दर्शन युक्त होना, सम्यक्त्व है जिनप में, शुभ भक्ति होना।

    सो शील है विषय के प्रति राग ना हो, वो ज्ञान कौन कब है इनके बिना हो ? ॥४०॥

     

    (दोहा)

     

    मणियों में वर नील ज्यों, मुनिगण गण में शील।

    शील बिना ना शिव धरो, शील करो मत ढील ॥१॥

    शील बिना ना ज्ञान हो, ज्ञान बिना ना शील।

    ज्ञान निहित है शील में, निहित ज्ञान में शील ॥२॥


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