रयणमंजूषा
(४ अप्रैल, १९८१)
‘रयण-मञ्जूषा' आचार्य समन्तभद्र कृत रत्नकरण्डक-श्रावकाचार का हिन्दी पद्यानुवाद है, जिसे आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने अतिशय क्षेत्र कुण्डलगिरि (कोनीजी) जिला जबलपुर (म० प्र०) में वीर निर्वाण संवत् २५०७, चैत्र कृष्ण अमावस्या, शनिवार, ४ अप्रैल, १९८१ में पूर्ण किया।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार में रत्नस्वरूप श्रावक के आचारों का निरूपण है, अतः इसके अनुवाद का नाम भी आपने रयण-मञ्जूषा अर्थात् रत्न-मञ्जूषा रखा। इसमें एक सौ पचास श्लोक हैं। हम उनमें से भिन्न-भिन्न आचार सम्बन्धी कतिपय वृत्तों का ही अनुवाद उदाहरणतः प्रस्तुत करेंगे, जिससे अनुवाद के मूल्य को आँक सकें। यह अनुवाद 'ज्ञानोदय छन्द' में हुआ है।
श्रावक के आचारों में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को धारण करना है। इसके लिए परमार्थमय आप्त, आगम और तपोधारक मुनियों में श्रद्धा रखनी एवं सम्यग्दर्शन के अष्टांगों का पालन, त्रय मूढ़ता और अष्ट मदों का त्याग अनिवार्य है।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव