सच्चे अनन्त दृग ज्ञान स्वभाव धाता, वे वीर हैं जिन जिन्हें शिर मैं नवाता।
भाई तुम्हें नियमसार सुनो सुनाता, जो केवली व श्रुतकेवलि ने कहा था ॥१॥
वैराग्य से विमल केवल बोध पाया, सन्मार्ग-मार्ग-फल को जिनने बताया।
सन्मार्ग तो परम-मोक्ष-उपाय प्यारा, निर्वाण ही फल रहा जिसका निराला ॥२॥
जो भी रहा नियम से करतव्य सत्ता, सोही रहा नियम दर्शन ज्ञान वृत्ता।
मिथ्यात्व आदि विपरीतन को मिटाने, संयुक्त ‘सार' पद है सुन तू सयाने ॥३॥
हैं मोक्ष का नियम सत्य उपाय साता, निर्वाण ही फल रहा इसका सुहाता।
प्रत्येक का यह जिनागम-गीत गाता, ज्ञानादि रत्नत्रय रूप हमें दिखाता ॥४॥
लो! आप्त-आगम- सुतत्त्वन में जमाना, श्रद्धा, नितान्त समदर्शन लाभ पाना।
हो दोष-रोष-मन से अति दूर सारे, निर्दोष, कोष-गुण के वह आप्त प्यारे॥५॥
ये स्वेद खेद मद मृत्यु विमोह खारे, उद्वेग नींद भय विस्मय जन्म सारे।
औ रोग रोष रति राग जरा क्षुधा रे, चिन्ता तृषादिक सदोष, जिनेश टारे ॥६॥
निश्शेष दोष बिन शोभित हो रहे हैं, कैवल्यज्ञान दृग वैभव ढो रहे है।
सिद्धान्त में परम आतम वे कहाते, दोषी कदापि परमात्मपना न पाते ॥७॥
पूर्वापरा सकल दोष विहीन प्यारा, जो पूज्य आप्त मुख से निकला निहाला।
सोही जिनागम रहा गुरुदेव गाते, तत्त्वार्थ वे कथित आगम में सुहाते ॥८॥
नाना निजीय गुण पर्यय-माल धार, थे जीव पुद्गल-ख धर्म अधर्म काल।
जो शोभिते जगत में स्वयमेव सारे, ‘तत्त्वार्थ वे कहत हैं जिनदेव प्यारे॥९॥
है जीव लक्षण रहा उपयोग भाता, है ज्ञान-दर्शनमयी द्विविधा कहाता।
‘ज्ञानोपयोग' वह भी द्विविधा निराला, भाई स्वभावमय और विभाव शाला ॥१०॥
होता अतीन्द्रिय स्वभावज ज्ञान प्यारा, जो नित्य ‘केवल' न ले पर का सहारा।
सत् ज्ञान औ वितथ ज्ञान विभाव बाना, दोनों मिटे मिलत कैवल का ठिकाना ॥११॥
सत् ज्ञान भी मति श्रुतावधि तीन, चौथा, सिद्धान्त मान्य मनपर्यय ज्ञान होता।
अज्ञान भी त्रिविध है जिन हैं बताते, जो मत्यज्ञान कुश्रुतावधि ना सुहाते ॥१२॥
हे मित्र! दर्शनमयी उपयोग होता, द्वेधा स्वभावपन और विभाव ढोता।
होता अतीन्द्रिय स्वभावज एक प्यारा, कैवल्य दर्शन न लें पर का सहारा ॥१३॥
होता विभावमय दर्शन भी त्रिधा है, चक्षु अचक्षु अवधी सुन तू मुधा है।
पर्याय दो रहित कर्म उपाधि से हैं, वे हैं स्वभावमय, युक्त सुखादि से हैं ॥१४॥
तिर्यञ्च नारक नरामररूप सारी, पर्याय ये बस विभावमयी हमारी।
पर्याय जो रहित कर्म उपाधि से हैं, वे हैं स्वभावमय, युक्त सुखादि से है ॥१५॥
ये कर्म-भोगमय भूमिज भेद से हैं, होते मनुष्य द्विविधा युत खेद से हैं।
हैं सप्त ही नरक की मिलती मही हैं, तो सप्तधा, समझ नारक भी वहीं हैं ॥१६॥
होते चतुर्दश विधा पशु नित्य रोते, भाई चतुर्विध सुरासुर सर्व होते।
विस्तार चूँकि इनका यदि जानना है, तो ‘लोक भाग' जिन आगम बांचना है ॥१७॥
भोक्ता निजातम रहा चिरकाल से है, कर्त्ता कुकर्म-जड़ का व्यवहार से है।
भाई अशुद्धनय से भवराह राही, रागादि को करत भोगत आतमा ही ॥१८॥
है द्रव्य दृष्टिवश आतम भिन्न न्यारा, पूर्वोक्त भाव-दल का नहिं ले सहारा।
पर्याय दृष्टिवश तो स्वपरावलम्बी, किंवा नितान्त निरपेक्ष निजावलम्बी ॥१९॥
दो भेद ‘स्कंध' ‘अणु' पुद्गल के पिछानो, हैं स्कंध भेद छह दो अणु के सु जानो।
है कार्य-रूप अणु कारण-रूप दूजा, पै चर्म चक्षु अणु की करती न पूजा ॥२०॥
है स्थूल-स्थूल फिर स्थूल व स्थूल-सूक्ष्म, औ सूक्ष्म-स्थूल पुनि सुसूक्ष्म सूक्ष्म ।
भू नीर आतप हवा विधि-वर्गणायें, ये हैं उदाहरण स्कन्धन के गिनाये ॥२१॥
भू-शैल-काष्ठ तन आदिक जो दिखाते, ये स्थूल-स्थूलमय स्कन्ध सभी कहाते।
घी दूध तेल जल पुद्गल की दशायें, ये हैं उदाहरण स्थूलन के सुनाये ॥२२॥
उद्योत छाँव रवि आतप आदि सारे, ये स्थूल-सूक्ष्ममय स्कंधन के पिटारे।
नासादि के विषय जो बिन रूप प्यारे, है सूक्ष्म- स्थूलमय स्कन्ध गये पुकारे ॥२३॥
जो भी बने, बन सके विधिवर्गणाएँ, वे सूक्ष्म स्कन्ध सब हैं गुरुदेव गाये।
जो शेष स्कन्ध इनसे विपरीत सारे, वे सूक्ष्म-सूक्ष्म इस सार्थक नाम धारे ॥२४॥
भू आदि धातु इनका जब हेतु होता, सो मित्र कारणमयी परमाणु होता।
पै कार्यरूप परमाणु रहा वही है, जो स्कन्ध के क्षरण से उगता सही है ॥२५॥
जो द्रव्य होकर न इन्द्रियगम्य होता, आद्यन्त मध्य खुद ही त्रय रूप होता।
हो खण्ड खण्ड न कभी अविभाज्य भाता, ऐसा कहें जिन यही परमाणु गाथा ॥२६॥
दो स्पर्श एक रस गन्ध सवर्ण ढोता, धारी स्वभाव गुण का परमाणु होता।
स्पर्शादि नैक गुण का जग स्पष्ट होता, धारी विभाव गुण का अणु स्कन्ध होता ॥२७॥
पर्याय एक रखती पर की अपेक्षा, स्वापेक्ष एक रहती पर की उपेक्षा।
स्कंधात्मिका परिणती जु विभावशाली, द्रव्यात्मिका परिणती स्व स्वभाववाली ॥२८॥
है ‘द्रव्य' निश्चय तथा परमाणु भाता, पै स्कन्ध द्रव्य व्यवहार तथा कहाता।
सो स्कन्ध नैक अणु से बनता इसी से, है द्रव्य रूप व्यपदेश धरे सदी से ॥२९॥
जीवादि द्रव्य भरके अवकाश दाता, आकाश-द्रव्य वह सार्थक नाम पाता।
औ जीव पुद्गल की स्थिति वा गती में, होते अधर्म पुनि धर्म निमित्त ही में ॥३०॥
होता द्विधा समय आवलिहार द्वारा, है काल, या त्रिविध है व्यवहारवाला।
संख्यात आवलि व सिद्ध प्रमाणवाला, है भूतकाल सुन सांप्रत भाविवाला ॥३१॥
लो जीव से व जड़ से वह काल भावी, होता अनन्त गुण सांप्रत काल भाई।
त्रैलोक्य के प्रति प्रदेशन पे सुहाते, एकैक काल अणु ‘निश्चय' वीर गाते ॥३२॥
रे काल का वह अनुग्रह तो रहे हैं, जीवादि द्रव्य परिवर्तित हो रहे हैं।
जो जीव पुद्गल बिना अवशेष सारे, धारे स्वभावमय पर्यय द्रव्य प्यारे ॥३३॥
जीवादि द्रव्य दल जो बिन काल सारा, है अस्तिकाय इस सार्थक नाम वाला।
है काय का सरल अर्थ बहु प्रदेशी, है जैन शासन कहे सुन तू हितैषी ॥३४॥
होता मितामित अनन्त प्रदेश वाला, सो मूर्त पुद्गल इसी व्यपदेश वाला।
आत्मा अधर्म फिर धर्म असंख्य देशी, विश्वास धार इनमें दृढ़ तू हितैषी ॥३५॥
होता उसी तरह लोक असंख्य देशी, हो सर्व में गुरु अलोक अनन्त देशी।
पै काल कायपन को धरता नहीं है, वो एक देश धरता अणु सा सही है॥३६॥
ये पाँच द्रव्य नभ धर्म अधर्म काल, औ जीव शाश्वत अमूर्तिक है निहाल।
है मूर्त पुद्गल सदा सुन भव्य प्यारे, है जीव चेतन, अचेतन शेष सारे ॥३७॥
कर्मादि के उदय या क्षय से मिले हैं, पर्याय और गुण वे मुझसे निरे हैं।
प्राप्तव्य ध्येय निज आतम मात्र प्यारा, जीवादि बाह्य सब हेय अपात्र न्यारा ॥३८॥
ये हर्षभाव नय निश्चय से नहीं हैं, जीवात्म में नहिं विषाद अहर्ष ही है।
मानापमानमय भाव विभाव से हैं, हैं दूर जीव निज स्थान स्वभाव से हैं ॥३९॥
ना जीव में वह रहा स्थिति बन्ध स्थाना, ना जीव में यह रहा अनुभाग स्थाना।
लो बन्ध ही जबकि निश्चय में नहीं है, तो जीव में उदय स्थान कहाँ? नहीं है ॥४०॥
ना हो क्षयोपशम भाव स्वभाव स्थाना, होते न औपशमिकादि स्वभाव स्थाना।
होते न औदयिक क्षायिक भाव स्थाना, ये जीव के सुन सुनिश्चय से न बाना ॥४१॥
संसार संक्रमण ना कुल योनियाँ हैं, ना रोग शोक गति जाति विजातियाँ हैं।
ना मार्गणा न गुणथानन की दशायें, शुद्धात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ॥४२॥
आत्मा मदीय गत दोष अयोग योग, निश्चित है निडर है निखिलोपयोग।
निर्मोह एक नित है सब संग त्यागी, है देह से रहित निर्मम वीतरागी ॥४३॥
तोष कोष गत शेष अदोष ज्ञानी, नि:शल्य शाश्वत दिगम्बर हैं अमानी।
नीराग निर्मद नितान्त प्रशान्त नामी, आत्मा मदीय नय निश्चय से अकामी ॥४४॥
संस्थान संहनन ना कुछ ना कलाई, ना वर्ण स्पर्श रस गंध विकार भाई।
ना तीन वेद नहिं भेद अभेद भाता, शुद्धात्म में कुछ विशेष नहीं दिखाता ॥४५॥
आत्मा सचेतन अरूप अगंध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा।
आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से रहित है सुख का पिटारा ॥४६॥
वे मुक्त हैं जनन मृत्यु तथा जरा से, सामान्य आठ गुण से लसते सदा से।
जैसे विशुद्ध सब सिद्ध प्रशान्त प्यारे, वैसे विशुद्ध नय से भवधारि सारे ॥४७॥
शुद्धात्म सिद्ध अविनश्वर है विदेही, लोकाग्र पे स्थित अतीन्द्रिय जान देही ।
ये सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्ध नय से मद को हटा रे ॥४८॥
पर्याय ये विकृतियाँ व्यवहार से हैं, जो भी यहाँ दिख रहे जग में तुझे हैं।
पै सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्धनय से मद को हटा रे! ॥४९॥
लो! पूर्व में कथितभाव विभाव सारे, है हेय द्रव्य परकीय स्वभाव टारे।
आत्मीय द्रव्य वह अन्तर तत्त्व प्यारा, आदेय है शुचि निरंतर साधु-शाला ॥५०॥
श्रद्धान हो वितथ आशय हीन प्यारा, सम्यक्त्व है वह जिनागम में पुकारा।
संमोह विभ्रम ससंशय हीन सारा, सज्ज्ञान है सुखसुधारस पूर्ण प्याला ॥५१॥
श्रद्धान जो चलमलादि अगाढ़ता से, हो शून्य, दर्शन धरो अविलम्बता से।
आदेय हेय वह क्या? यह बोध होना, सज्ज्ञान है उर धरो बनलो सलोना ॥५२॥
सम्यक्त्व का वह जिनागम मात्र साता, होता निमित्त, अथवा जिन शास्त्र ज्ञाता।
पै अंतरंग वह हेतु सुनो सदा ही, होता क्षयादिक कुदर्शनमोह का ही ॥५३॥
सम्यक्त्व ज्ञान भर से शिव पंथ होता, ऐसा नहीं चरित भी अनिवार्य होता।
होता सुनिश्चयमयी व्यवहारशाला, चारित्र भी द्विविध है सुन लो सुचारा ॥५४॥
होते सुनिश्चय नयाश्रित वे अनूप, चारित्र और तप निश्चय सौख्य कूप।
पै व्यावहार नय आश्रित ना स्वरूप, चारित्र और तप वे व्यवहार रूप ॥५५॥
जो जीव स्थान कुल मार्गण-योनियों में, पा जीव बोध, करुणा रखता सबों में।
आरम्भत्याग उनकी करता न हिंसा, वो साधु-भाव व्रत आदिम है अहिंसा ॥५६॥
संमोह रोष रति से नहिं बोलता है, भाषा असत्य मन से बस छोड़ता है।
होता द्वितीय व्रत सत्य महा उसी का, साधू वही स्तवन मैं करता उसी का ॥५७॥
लो! ग्राम में नगर में वन में विहार, साधू करें पर न ले पर द्रव्य भार।
वे स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, अस्तेय है व्रत यही जिन यों बताते ॥५८॥
स्त्री रूप देखकर भी मन में न लाता, संभोग भाव उनसे मन को हटाता।
है ब्रह्मचर्य व्रत, मैथुन भाव रीता, किंवा रहा कि जिससे मुनिलिंग जीता ॥५९॥
जो अंतरंग बहिरंग निसंग होता, भोगाभिलाष बिन चारित सार जोता ॥
है पाँचवाँ व्रत परिग्रह त्याग पाता, पाता स्वकीय सुख तू दुख क्यों उठाता ॥६०॥
हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो।
ले स्वीय कार्य कुछ, पै दिन में चलोगे, ईर्यामयी समिति को तब पा सकोगे ॥६१॥
साधू करे न परनिंदन आत्म शंसा, बोले न हास्य-कटु कर्कश पूर्ण भाषा।
स्वामी करे न विकथा मितमिष्ट बोले, भाषामयी समिति में नित ले हिलोरे ॥६२॥
जो दोष मुक्त कृत कारित सम्मती से, हो शुद्ध, प्रासुक यथागम-पद्धती से।
सागार अन्न दिन में यदि दान देता, ले साम्य धार, मुनि एषण पाल लेता ॥६३॥
जो देख भाल, कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रखना गहना दया से।
आदान निक्षिपण है समिती कहाती, पाले उसे सतत साधु, सुखी बनाती ॥६४॥
एकान्त हो विजन विस्तृत, ना विरोध, सम्यक् जहाँ बन सके त्रस जीव शोध।
ऐसा अचित्त थल पे मल मूत्र त्यागे, व्युत्सर्ग रूप-समिति गह साधु जागे ॥६५॥
रागादि का अशुभ भाव प्रणालियों का, जो त्याग कालुषमयी दुखनालियों का।
श्री वीर के समय में व्यवहारवाली, मानी गई कि मन गुप्ति यही शिवाली ॥६६॥
स्त्री राज की अशन चोरन की कथायें, जो पाप तापमय है जिनसे व्यथाएँ।
है पूर्ण त्याग इनका वच गुप्ति भाति, या पापरूप वच त्याग सुखी बनाती ॥६७॥
जो देह की छिदन भेदन की क्रियाएँ, किंवा सभी हलन चालन की क्रियाएँ।
पाती विराम मुनि साधक की दशा में, सो काय गुप्ति, धरते मिटती निशायें ॥६८॥
रागादि का शमन जो मन से कराना, गुप्ति रही मनस की प्रभु का बताना।
हिंसामयी वचन त्याग, व मौन बाना, गुप्ती वही वचन की सुन तू निभाना ॥६९॥
हिंसादि की विरति हो तन गुप्ति होती, वाणी कहे जिनप की मन मैल धोती।
पावे विराम सब ही तन की क्रियायें, कायोतसर्ग अथवा तन गुप्ति पायें ॥७०॥
है घाति कर्म दल को जिनने नशाया, पाये विशुद्ध गुण केवलज्ञान पाया।
चौंतीस सातिशय मंडित हैं सुहाते, वे ही विशिष्ट अरिहन्त' सुधी बताते ॥७१॥
सामान्य आठ गुण पाकर जो लसे हैं, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसे हैं।
दुष्टाष्ट कर्ममय बन्धन को मिटाया, वे सिद्ध, सिद्ध-पद में शिर मैं नवाया ॥७२॥
आचार पंच परिपूर्ण सदा निभाते, पंचेन्द्रिय रूप गज के मद को मिटाते।
गंभीर नीरनिधि से गुणधीर भाते, आचार्य वे समय में युग वीर गाते ॥७३॥
नि:स्वार्थ भाव धरते कुछ भी न लेते, शास्त्रानुसार वह भी उपदेश देते।
सारे परीषह सहे बलवान होते, धारी स्वरत्नत्रय के उवझाय होते ॥७४॥
आराधना स्वयम की करते सदा हैं, व्यापार लौकिक तजे जड़ संपदा हैं।
निर्ग्रन्थ, ग्रन्थ बिन शोभत वीतमोही, वे साधु, पूज उनको भवभीत मोही ॥७५॥
ऐसी निरन्तर रहे शुभभावनायें, तो भेदरूप वह चारित्र हाथ आये।
चारित्र निश्चय नयाश्रित जो कहाता, आगे यही तुम सुनो उसको सुनाता ॥७६॥
तिर्यञ्च भाव नहीं नारक भाव मैं हूँ, ना देव भाव नहीं मानव भाव मैं हूँ।
मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥७७॥
मैं जीव थान नहीं हैं गुण थान ना हूँ, भाई सुनो विविध मार्गण थान ना हूँ।
मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे न उनका अनुमोद दाता ॥७८॥
मैं हूँ नहीं युवक बालक भी नहीं हूँ, हूँ वृद्ध भी न उन कारण भी नहीं हूँ।
मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥७९॥
मैं रोष कोष नहिं राग कभी नहीं हूँ, मोही नहीं व उन कारण भी नहीं हूँ। मैं
वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥८०॥
मैं क्रोध रूप नहिं हूँ मद मान ना हूँ, माया न लोभ उन कारणवान ना हूँ।
मैं वस्तुतः न इनको करता कराता, कोई करे, न उनका अनुमोद दाता ॥८१॥
यों भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण।
ऐसे चरित्र गुण में पुनि पुष्टि लाने, होते प्रतिक्रमण आदिक ये सयाने ॥८२॥
रागादि भाव मल को मन से हटाता, हो निर्विकल्प मुनि जो निज ध्यान ध्याता।
सारी क्रिया वचन की तजता सुहाता, सच्चा प्रतिक्रमण-लाभ वही उठाता ॥८३॥
आराधनामय सुधारस नित्य पीते, छोड़े विराधन, सभी अघ से सुरीते।
वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु यों बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८४॥
साधू अनाचरण पूरण छोड़ते हैं, स्वाचार में स्वयम को दृढ़ जोड़ते हैं।
वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि रह जीवन हैं बिताते ॥८५॥
उन्मार्ग में विचरते मन को हटाते, सन्मार्ग में स्वयम को थिर हैं लगाते।
वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि रह जीवन हैं बिताते ॥८६॥
जो शल्य भाव तजते वह साधु होते, निःशल्य भाव भजते अघ आशु खोते।
वे ही प्रतिक्रमण हैं गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८७॥
भाई अगुप्तिमय भाव स्वयं विसारे, औ तीन गुप्तिमय भाव अहो सुधारे।
साधू ‘प्रतिक्रमण' वे गुरु हैं बताते, तल्लीन क्योंकि बन जीवन हैं बिताते ॥८८॥
जो आर्त रौद्रमय ध्यान सदा विसारे, पै धर्म-शुक्लमय ध्यान सदा सुधारे।
वे ही प्रतिक्रमण साधु प्रशान्त प्यारे, तल्लीन क्योंकि रह जीवन को सुधारे॥८९॥
जीवात्म ने अमित बार अरे सदी से, मिथ्यात्व आदि सब भाव किये रुची से।
सम्यक्त्व आदि समभाव किये नहीं है, शुद्धात्म दर्शन अवश्य किये नहीं है ॥९०॥
मिथ्यात्व-ज्ञान-व्रत की जड़ काटता है, संस्कार भी न उनका रख डालता है।
सम्यक्त्व ज्ञान व्रत को उर में बिठाता, सोही प्रतिक्रमण लाभ अहो उठाता ॥९१॥
है सर्वश्रेष्ठ निज आत्म पदार्थ साता, हो आत्म में स्थित यती विधि को नशाता।
सच्चा प्रतिक्रमण आतम ध्यान होता, तू आत्म ध्यान कर, केवल ज्ञान होता ॥९२॥
सद्ध्यान-रूप सर में अवगाह पाता, साधू-स्वदोष मल को पल में धुलाता।
सद्ध्यान ही विषमकल्मष पातकों का, सच्चा प्रतिक्रमण है घर-सद्गुणों का ॥९३॥
जो भी प्रतिक्रमण नामक शास्त्र बोले, भाई प्रतिक्रमण की विधि नेत्र खोले।
जानो यथाविधि उसे उस भावना को, भाना प्रतिक्रमण है तज वासना को ॥९४॥
हो निर्विकल्प तज जल्प विकल्प सारे, साधू अनागत शुभाशुभ भाव टारे।
शुद्धात्म-ध्यान सर में डुबकी लगाते, ये प्रत्यखान गुण-धारक है कहाते ॥९५॥
मेरा स्वभाव वर केवलज्ञानवाला, कैवल्य दर्शन मदीय स्वभाव-शाला।
कैवल्य शक्ति मम मात्र स्वभाव ऐसा, ज्ञानी करे सुखद चिंतन को हमेशा ॥९६॥
लो आतमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है।
द्रष्टा बना निखिल का परिपूर्ण लाता, मैं ही रहा वह, सुधी इस भाँति गाता ॥९७॥
स्थित्यादि भेदवश बंध चतुर्विधा है, आत्मा परन्तु उससे लसता जुदा है।
‘सो मैं' निरंतर विचार करे उसी में, ज्ञानी निवास कर नित्य रहे निजी में ॥९८॥
मैं तो मदीय ममता द्रुत त्यागता हूँ, निर्मोह भाव गहता नित जागता हूँ।
आत्मा मदीय अवलोकन एक मेरा, छोड़ें सभी पर, रहूँ बन में अकेला ॥९९॥
विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यखान गुण में लसता गुरो! मैं।
शुद्धात्म की परम पावन भावना का, है पाक मात्र सुख है, दुख वासना का ॥१००॥
है जीव एक मरता जग में मुधा है, है एक ही जनमता रहता सदा है।
हो एक का मरण भी जब अन्त वेला, हो मुक्त, कर्मरज से तब भी अकेला ॥१०१॥
पूरा भरा दृग विबोधमयी सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से।
संयोग जन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे॥१०२॥
जो भी दुराचरण है मुझमें दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता।
नीराग सामयिक को त्रिविधा करूँ मैं, तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ॥१०३॥
ना वैरभाव मम हो जग में किसी से, हो साम्य-भाव उस स्थावर से सभी से।
आशा सभी तरह की तजना कहाती, सच्ची समाधि अनुपाधि मुझे सुहाती ॥१०४॥
साधू कषाय तज इंद्रिय जीत होता, संसार के दुखन से भयभीत होता।
सारे परीषह सहे नित अप्रमादी, हो प्रत्यखान उसका गुरु ने बतादी ॥१०५॥
यों जीव भेद, विधि भेदन का सुचारा, अभ्यास है कर रहा जग को विसारा,
सो संयती नियम से बस धार पाता, है प्रत्यखान पद को भव पार जाता ॥१०६॥
नो-कर्म-कर्म बिन शाश्वत है सुहाता, होता विभावगुण पर्यय हीन साता।
ऐसी निजात्म छवि का यदि ध्यान ध्याता,आलोचना श्रमण वो उरधार पाता ॥१०७॥
आलोचना अविकृती करुणा निराली, आलुचना विमलभाव विशुद्धि प्यारी।
आलोचना चउविधा जिन शास्त्र गाता, जो भी धरे परम पावन पात्र पाता ॥१०८॥
आत्मीय सर्व परिणाम विराम पावे, वे साम्य के सदन में सहसा सुहावे।
डूबो लखो बहुत भीतर चेतना में, आलोचना बस यही जिन-देशना में ॥१०९॥
ऐसा अपूर्व बल को वह धारता है, आमूल कर्ममय वृक्ष उखाड़ता है।
स्वाधीन साम्य-मय भाव स्वकीय होता, आलुचना वह रहा भजनीय होता ॥ ११०॥
आत्मा स्वकर्म दल से अति भिन्न न्यारा, हीराभ शुभ्र गुणधाम अखिन्न प्यारा।
माध्यस्थभाव धर यों मुनि भा रहा हो, सिद्धान्त में अविकृती-करुणी रहा वो ॥१११॥
मायाभिमान-मद-मोह-विहीन होना, है भाव शुद्धि जिससे शिव सिद्धि लोना।
आलोक से सकल-लोक अलोक देखा, सर्वज्ञ ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥११२॥
जो भाव है समिति शीलव्रतों यमों का, प्रायश्चिता वह सही दम इन्द्रियों का।
ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि खो विधाता ॥११३॥
क्रोधादि भाव, जिनका क्षय होय कैसा, साधू विचार करता दिन-रैन ऐसा।
आत्मीय शुद्धात्म चिंतन लीन होता, प्रायश्चिता वह सही अघ हीन होता ॥११४॥
माया हरो परम आर्जव भाव द्वारा, औ मान मर्दन सुमार्दव भाव द्वारा।
मेटो प्रलोभ धर तोष, क्षमा सुधा से, क्रोधाग्नि शान्त कर दो अविलम्बता से ॥११५॥
शुद्धात्म के सतत चिंतन में लगा है, शुद्धात्म ज्ञान करता निज में जगा है।
शुद्धात्म बोध कर जीवन है बिताता, प्रायश्चिता नियम से उसका कहाता ॥११६॥
भारी तपश्चरण साधु महर्षियों का, प्रायश्चिता वह सभी गुणधारियों का।
क्या क्या कहूँ बहुत भी कहना वृथा है, है सर्व कर्म-क्षय हेतु यही कथा है॥११७॥
जो भी शुभाशुभ कुकर्म युगों-युगों में, बाँधा हुवा विगत में कि भवों-भवों में।
सम्यक् तपश्चरण से मिट पूर्ण जाता, प्रायश्चिता इसलिए तप ही कहाता ॥११८॥
आत्मा विनष्ट करता पर भाव सारा, लेके स्वकीय गुण का रुचि से सहारा।
सर्वस्व है इसलिए निजध्यान प्यारा, लेऊँ अतः शरण मैं निज की सुचारा ॥११९॥
छोड़ी विभावमय राग प्रणालि की भी, चेष्टा शुभाशुभ सभी वचनावली की।
पश्चात् स्वकीय शुचि ध्यान लगा रहा है, वो साधु का 'नियम' मित्र सगा रहा है॥१२०॥
जो ध्यान आत्म गुण का करता निहाला, हो निर्विकल्प तज जल्प विकल्प-माला।
देहादि से बन निरीह स्व में बसा है, कायोतसर्ग मुनि का वह है लसा है ॥१२१॥
वाक् योग-रोक जिसने मन-मौन धारा, औ वीतराग बन आतम को निहारा।
होती समाधि परमोत्तम हो उसी की, पूजें उसे शरण और नहीं किसी की ॥१२२॥
हो संयमी नियम औ तप धारता है, औ धर्म-शुक्लमय ध्यान निहारता है।
होती समाधि परमोत्तम हो उसी की, पूजें उसे शरण और नहीं किसी की ॥१२३॥
मासोपवास करना वनवास जाना, आतापनादि तपना तन को सुखाना।
सिद्धान्त का मनन मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥१२४॥
आरम्भ दम्भ तज के त्रय गुप्ति पाले, हैं पंचइन्द्रियजयी समदृष्टि वाले।
स्थायी सुसामयिक है उनमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२५॥
जो साधुराज जड़ जंगम जंतुओं में, सौभाग्यमान धरता समता सबों में।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२६॥
हो संयमी नियम में यम में बिठाता, जो आत्म को पतन से अघ से उठाता।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२७॥
ये राग-द्वेष मुनि में रहते तथापि, उत्पन्न वे न करते विकृती कदापि।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२८॥
लो आर्त-रौद्रमय ध्यान नहीं लगाता, पै साधु नित्य उनको मन से हटाता।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥१२९॥
लो पाप-पुण्यमय भाव कभी न लाता, पै साधु नित्य उनको मन से हटाता।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३०॥
जो शोक को अरति को रति-हास्य त्यागे, हो नित्य दूर उनसे मुनि नित्य जागे।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३१॥
ग्लानी त्रिवेद भय को मुनि त्यागता है, हो दूर नित्य उनसे नित जागता है।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३२॥
जो धर्म-शुक्लमय ध्यान सदा लगाता, होना न दूर उनसे यह साधु गाथा।
स्थायी सुसामयिक है उसमें दिखाता, यों केवली-परम शासन गीत गाता ॥१३३॥
सम्यक्त्व-ज्ञान-व्रत की मुनि श्रावकों से, जो भक्ति हो नियम-संयमधारियों से।
निर्वाण-भक्ति उनकी वह है कहाती, वाणी जिनेन्द्र कथिता इस भाँति गाती ॥१३४॥
सन्मार्ग पे विचरते मुनि साधुओं के, भेदोपभेद गुण जान यतीश्वरों के।
होना विलीन उनकी शुचि भक्ति में है, निर्वाण-भक्ति वह भी व्यवहार में है॥१३५॥
जो साधु मोक्ष पथ पे निज को चलाता, निर्वाण-भक्ति-भर में मन को लगाता।
स्वाधीनपूर्ण-गुण-युक्त निजी दशा को, पाता नितान्त, कर नष्ट निरी निशा को ॥१३६॥
रागादि मोह परिणामन को मिटाने, जो साधु उद्यत निरंतर हैं सयाने।
वे योग-भक्ति सर में डुबकी लगाते, पै अन्य साधु किस भाँति सुयोग पाते ॥१३७॥
संकल्प जल्प सविकल्पन से छुड़ाता, हो निर्विकल्प निज को निज में सुलाता।
सो योग-भक्ति सर में डुबकी लगाता, पै अन्य साधु किस भाँति सुयोग पाता? ॥१३८॥
मिथ्यात्व भाव परिणाम विभाव त्यागे, हो जैन तत्त्व भर में रत आप जागे।
सो योग, भाव निज का अभिराम साता, ऐसा वसन्ततिलका अविराम गाता ॥१३९॥
तीर्थंकरों वृषभ-सन्मति आदिकों ने, की योग-भक्ति यम-संयम-धारकों ने।
पश्चात् बने शिव बने शिवधामवासी, धारो अतः तुम सुयोग बनो उदासी ॥१४०॥
जो इन्द्रियों व मन के वश में न आता, आवश्यका वह रहा मुनि कार्य साता।
जो योग है करम नाशक है कहाता, निर्वाण मार्ग वह आगम यों बताता ॥१४१॥
हो अन्य के वश नहीं अवशी कहाता, आवश्यका, अवश का वह कार्य भाता।
है युक्ति का उचित अर्थ उपाय होता, ऐसा अवश्यक सयुक्तिक सिद्ध होता ॥१४२॥
वैभाविकी अशुभ आशय बो रहा है, जो अन्य के, श्रमण हो, वश हो रहा है।
आवश्यका न उसका वह कार्य होता, अध्यात्म के विषय में अनिवार्य सोता ॥१४३॥
जो साधु, भाव शुभ में रत हो रहा है, भाई नितान्त पर के वश हो रहा है।
आवश्यका, न उसका वह कार्य होता, अध्यात्म के विषय में अनिवार्य सोता ॥१४४॥
पर्याय द्रव्य-गुण में मन है लगाता, वो भी यती वश रहा पर के कहाता।
मोहान्धकार परिपूर्ण भगा रहे हैं, ऐसा कहे श्रमण जो कि जगा रहे हैं ॥१४५॥
सध्यान में श्रमण अन्तरधान हो के, रागादि भाव पर है पर भाव रोके।
वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते अवश्यक कहें उन कार्य सारे ॥१४६॥
भाई तुझे यदि अवश्यक पालना है, होके समाहित स्व में मन मारना है।
हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती, सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥१४७॥
जो साधु ना हि षडवश्यक पालता है, चारित्र से पतित हो सहता व्यथा है।
आत्मानुभूति कब हो यह कामना है, आलस्य त्याग षडवश्यक पालना है॥१४८॥
जो साधु सादर अवश्यक धारता है, सो अंतरातम रहा मन मारता है।
पै साधु हो नहिं अवश्यक पालता है, सो है अवश्य बहिरातम, बालता है॥१४९॥
जो अंतरंग बहिरंग-प्रजल्पधारी, होता नितांत बहिरातम है विकारी।
सम्पूर्ण जल्प भर से अति दूर होता, सो अंतरातम रहा सुख पूर होता ॥१५०॥
सद्धर्म-शुक्लमय ध्यान-सुधा सुपीता, सो अंतरात्म सुख जीवन नित्य जीता।
पै साधु हो तदपि ध्यान नहीं लगाता, होता नितांत बहिरात्म वही कहाता ॥१५१॥
सामायिकादि षडवश्यक नित्य पाले, जो साधु निश्चय सुचारित भव्य धारे।
तो वीतराग शुचि चारित में यमी वो, शीघ्रातिशीघ्र फलतः नित उद्यमी हो ॥१५२॥
आलोचना, नियम आदिक मूर्तमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यखान।
स्वाध्याय से सफल है गुरु हैं बताते, होते विकल्पमय भेद चरित्र तातें ॥१५३॥
संवेग-धारक यथोचित शक्ति वाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले।
ऐसा नहीं यदि बने उर धार लेना, श्रद्धान तो दृढ़ रखो अघ मार देना ॥१५४॥
सामायिकादि विधि की कर लो परीक्षा, सो जैन शास्त्र कहता बन के निरीच्छा।
योगी बने इसलिये मन मौन धारो, साधो स्वकार्य नित पै अघ को न धारो ॥१५५॥
संसार में विविध कर्म प्रणालियाँ हैं, ये जीव भी विविध औ उपलब्धियाँ है।
भाई अतः मत विवाद करो किसी से, साधर्मि से अनुज से पर से अरी से ॥१५६॥
ज्यों वित्त को खरचता निज पोषणों में, भोगी सुभोग करता दिन-रात्रियों में,
पा नित्यज्ञान निधि, नित्य नितांत ज्ञानी, त्यों भोगता न रमता पर में अमानी ॥१५७॥
जो भी पुराण पुरुषोत्तम रे! हुए हैं, सामायिकादि षडवश्यक वे किये हैं।
सप्तादि पूर्ण गुणथान पुनः चढ़े हैं, हैं केवली बने फिर हमसे बड़े हैं ॥१५८॥
ये केवली प्रभु सदा व्यवहार नाते, हैं जानते सकल विश्व निहार पाते,
पै केवली नियम से निज को अमानी, हैं जानते निरखते पर को न ज्ञानी ॥१५९॥
ये ज्ञान दर्शन स्वयं जिन के, बली के, हो एक साथ सुन मित्र सु केवली के।
होते प्रभाकर प्रकाश प्रताप जैसे, देते सभी सदुपदेश अपाप ऐसे ॥१६०॥
होता सदैव वह ज्ञान परप्रकाशी, होता नितांत वह दर्शन स्वप्रकाशी।
आत्मा तथा स्वपर का रहता प्रकाशी, ऐसा कहो यदि अरे! विषयाभिलाषी ॥१६१॥
तू ज्ञान को परप्रकाशक ही कहेगा, तो ज्ञान से पृथक दर्शन हो रहेगा।
औ अन्य-द्रव्यगत दर्शन भी नहीं है, यों पूर्व के कथन में मिलता सही है॥१६२॥
आत्मा मनो पर प्रकाशक ही रहा हो, तो आत्म से पृथक दर्शन हो रहा वो।
औ अन्य-द्रव्य गत दर्शन भी नहीं है, यों पूर्व के कथन में मिलता सही है॥१६३॥
ज्यों ज्ञान, मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों अन्य का यह सुदर्शन भी प्रकाशी।
ज्यों आत्म मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों अन्य का वह सुदर्शन भी प्रकाशी ॥१६४॥
ज्यों ज्ञान, मात्र व्यवहारतया प्रकाशी, त्यों हो सुदर्शन अतः निज का प्रकाशी।
ज्यों आत्म निश्चयतया निज का प्रकाशी, त्यों से सुदर्शन अतः निज का प्रकाशी ॥१६५॥
ये केवली नियम से निज को निहारे, ना देखते सकल लोक अलोक सारे।
कोई मनो यदि कहे इस भाँति भाई, क्या दोष दूषण रहा इसमें बुराई ॥१६६॥
संसार के अमित मूर्त अमूर्त सारे, ये द्रव्य चेतन अचेतन आदि प्यारे।
जो जानता निज समेत इन्हें सुचारा, प्रत्यक्ष है वह अतीन्द्रिय ज्ञान सारा ॥१६७॥
पूर्वोक्त द्रव्य दल जो दिखता अपारा, नाना गुणों विविध-पर्यय का पिटारा।
जाने सही न उसको युगपत् कदापि, होता परोक्ष वह ज्ञान कहें अपापी ॥१६८॥
हैं देखते सकल लोक अलोक सारे, ये केवली पर नहीं निज को निहारें।
कोई मनो यदि कहें इस भाँति भाई, क्या दोष दूषण रहा इसमें बुराई ॥१६९॥
है ज्ञान आतम सरूप सदा सुहाता, आत्मा अतः बस निजातम जान पाता।
माना न ज्ञान निज आतम को जनाता, तो आत्म से पृथक ज्ञान बना, न पाता ॥१७०॥
तू आत्म को समझ ज्ञान अनूप प्याला, औ ज्ञान को समझ आतम रूपवाला।
ये ज्ञान दर्शन अतः स्वपर-प्रकाशी, संदेह के बिन, कहे मुनि सत्यभाषी ॥१७१॥
इच्छा किये बिन सुकेवल ज्ञानधारी, हैं जानते निरखते सब को अधारी।
होते अतः सब अबंधक निर्विकारी, रोते यहाँ सतत बंधक ये विकारी ॥१७२॥
संकल्पपूर्वक कभी कुछ बोलना है, सो बंध हेतु, पय में विष घोलना है।
संकल्प-मुक्त कुछ बोलत साधु ज्ञानी, होता न बंध उनको सुन भव्यप्राणी! ॥१७३॥
इच्छा समेत कुछ भी वह बोलना है, लो बंध हेतु, पय में विष घोलना है।
इच्छा विमुक्त कुछ बोलत साधु ज्ञानी, होता न बंध उनको सुन भव्य! प्राणी ॥१७४॥
इच्छा बिना सहज से उठ बैठ जाते, है केवली इसलिये नहीं बंध पाते।
मोही बना जगत ही विधि बन्ध पाता, ऐसा वसन्ततिलका वह छन्द गाता ॥१७५॥
है आयु का प्रथम तो अवसान होता, निश्शेष कर्म दल का फिर नाश होता।
पश्चात् सुशीघ्र शिव दे पल में लसेंगे, लोकाग्र पे स्थित शिवालय में बसेंगे ॥१७६॥
दुष्टाष्ट कर्म तजते सकलावभासी, होते अछेद्य परमोत्तम ना विनाशी।
ज्ञानादि अक्षय चतुष्टय रूप धारे, वार्धक्य जन्म-मृति-मुक्त सुसिद्ध सारे ॥१७७॥
आकाश से निरवलम्ब अबाध प्यारे, वे सिद्ध हैं अचल नित्य अनूप सारे।
होते अतीन्द्रिय पुनः भव में न आते, हैं पुण्य-पाप-विधि-मुक्त मुझे सुहाते ॥१७८॥
बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, आती न गन्ध दुख की सुख की न क्रीड़ा।
ना जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, निर्वाण जान वह है गुरु यों बताते ॥१७९॥
निद्रा न मोहतम विस्मय भी नहीं है, ये इन्द्रियाँ जड़मयी जिसमें नहीं हैं।
होते कभी न उपसर्ग तृषा क्षुधा हैं, निर्वाण में सुखद बोधमयी सुधा है॥१८०॥
चिंता नहीं उपजती चिति में जरा-सी, नो कर्म भी नहिं नहीं वसु कर्म राशी।
होते जहाँ नहिं शुभाशुभ ध्यान चारों, निर्वाण है वह, सुधी तुम यों विचारो ॥१८१॥
कैवल्य - बोध - सुख - दर्शन - वीर्यवाला, आत्मा प्रदेशमय मात्र अमूर्त शाला।
निर्वाण में निवसता निज नीति धारी, अस्तित्त्व से विलसता जग आर्तहारी ॥१८२॥
निर्वाण ही परम सिद्ध रहा सुहाता, या सिद्ध शुद्ध निर्वाण सदा कहाता।
जो कर्म-मुक्त बनते अविराम जाते, लोकाग्र लौं फिर सुसिद्ध विराम पाते ॥१८३॥
यों प्राणि पुद्गल, जहाँ तक धर्म होता, जाते वहाँ नहिं जहाँ नहिं धर्म होता।
यों जीव की व जड़ की गति में सहाई, धर्मास्तिकाय बनता सुन भव्य भाई ॥१८४॥
हो शास्त्र भक्तिवश शास्त्र सही बनाया, मैंने यहाँ 'नियम' के फल को दिखाया।
पूर्वापरा यदि विरोध यहाँ दिखावें, शास्त्रज्ञ दूर कर नित्य पढ़े पढ़ावें ॥१८५॥
ईर्ष्या जन सुंदर पंथ की भी, निंदा करे शरण ले अघ ग्रन्थ की भी।
भाई कभी न उनसे अनुकूल होना, आस्था जिनेश पथ की मत भूल खोना ॥१८६॥
पूर्वापरा-सकल दोष-विहीन प्यारा, होता जिनागम अपार अगाध न्यारा।
मैंने स्वकीय-शुचिभाव-निमित्त भाया, जाना उसे 'नियमसार' पुनः रचाया ॥१८७॥
इति शुभं भूयात् |