कर्ता सुतीर्थ वृष के सुख पूर्ण शाला, है घाति कर्म-मल धोकर पूर्ण डाला।
वे वर्धमान उनको प्रणमूँ करों से, जो हैं नमस्कृत सुरों असुरों नरों से ॥१॥
सिद्धों समेत अवशेष जिनेश्वरों को, तीर्थंकरों शुचितरों गुण-धारियों को।
सद्ज्ञान-वीर्य-तप-दर्शन-वृत्त वालों, वन्दूं लिए श्रमणता श्रमणों निहालों ॥२॥
जो भी यहाँ मनुज क्षेत्रन में सुहाते, हैं पूज्य तीर्थकर हैं अरहन्त नाते।
मैं भिन्न-भिन्न अथवा इक साथ ध्याऊँ, पूजें उन्हें विनय से नत माथ भाऊँ॥३॥
सिद्धों पुनीत अरहन्तन को जिनों को, पूज्यों वरों गणधरों मुनिनायकों को।
आचार्यवर्य-उवझाय सुसाधुओं को, मैं वन्दना कर सभी परमेष्ठियों को ॥४॥
है मुख्य ज्ञान-दृग आश्रम जो उन्हीं का, पूरा प्रयास कर आश्रय ले उसी का।
सम्यक्तया श्रमण हो समता भजूँ मैं, निर्वाण प्राप्त फलतः ममता तजूँ मैं ॥५॥
सम्यक्त्व ज्ञान समवेत प्रधान होता, चारित्र को जब सुजीव सुजान ढोता।
पाता सुरासुर-नरेन्द्र-सुसम्पदा को, निर्वाण का पद पुनः गहता सदा वो ॥६॥
चारित्र ही परम-धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं।
मोहादि से रहित आतम भाव-प्यारा, माना गया समय में शम साम्य सारा ॥७॥
जो द्रव्य ज्यों परिणमें जिस रूप ढोता, तत्काल तन्मय बना उस रूप होता।
सद्धर्म रूप ढलता जब आतमा ही, औचित्य, धर्ममय हो शिवराहराही ॥८॥
आत्मा रहा शुभ जभी शुभ में ढलेगा, होता तभी अशुभ तत्पन में ढलेगा।
शुद्धत्व से परिणमें जब शुद्ध होता, सद्भाव शुद्धपन का तब सिद्ध होता ॥९॥
भाई ! न अर्थ परिणाम बिना कभी हो, औ अर्थ के बिन नहीं परिणाम भी हो।
पर्याय-द्रव्य गुण में स्थित अर्थ होता, अस्तित्व रूप गुण मण्डित अर्थ होता ॥१०॥
शुद्धोपयोग पथ पे मुनि हो खड़ा हो, चारित्र रूप निजधर्मन में ढला हो।
पाता विमोक्ष सुख, पै दिवि योग पाता, जो धर्म रूप शुभ ही उपयोग पाता ॥११॥
आत्मा मनो अशुभ ही उपयोग ढोता, तिर्यंच नारक कुमानव होय रोता।
लाखों प्रकार दुख से फलतः घिरेगा, होता दुखी सुचिर औ भव में फिरेगा ॥१२॥
शुद्धोपयोग वश साधु सुसिद्ध होते, स्वात्मोत्थ सातिशय शाश्वत सौख्य जोते।
जाती कही न जिसकी महिमा कभी भी, ऐसा अपूर्व सुख भूपर ना कहीं भी ॥१३॥
शास्त्रज्ञ हो, श्रमण हो, समधी, तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी।
जो दुःख में व सुख में समता रखेगा, शुद्धोपयोग वह ही निज में लखेगा ॥१४॥
शुद्धोपयोग-बल पूर्ण स्वयं जगाया, मोहादि घाति रज को खुद ही मिटाया।
आत्मा स्वयं निखिल-विज्ञ स्वको बनाया, यों ज्ञेय का सहज से उस पार पाया ॥१५॥
शुद्धोपयोग बल से निज भाव पाता, सर्वज्ञ हो जगत पूज्य स्व को बनाता।
आत्मा इसी तरह ही बनता स्वयंभू, ऐसा कहें जिन, बने खुद ईश शंभू ॥१६॥
उत्पाद, नाश बिन है शिव में सुहाता, उत्पाद के बिन, विनाश स्वयं दिखाता।
उत्पाद-ध्रौव्य व्यय रूप परम्परा भी, हो सिद्ध में विरमती न स्वयं जरा भी ॥१७॥
पर्याय के वश किसी बस जन्म पाता, पर्याय के वश किसी वह अन्त पाता।
पर्याय के वश किसी ध्रुव कूप होता, ऐसा पदार्थदल है त्रय रूप ढोता ॥१८॥
संसार में प्रवर हैं अरहन्त होते, देवाधिदेव जिनके पद नित्य धोते।
श्रद्धान यूँ कर रहे सुख में पलेंगे, सारे अनिष्ट उनके मिटते मिटेंगे ॥१९॥
शुद्धोपयोगवश घाति चतुष्क भागे, जागे अनन्त बल औ अति तेज जागे।
आत्मा अतीन्द्रिय हुआ, जड़ता नहीं है, विज्ञान में स्वसुख में ढलता वही है ॥२०॥
धारे अनन्त वर केवलज्ञान प्यारे, होते न कायिक उन्हें सुख-दुःख खारे!
वे चूंकि शाश्वत अतीन्द्रिय हो चुके हैं, सर्वज्ञ तो सकल इन्द्रिय खो चुके हैं ॥२१॥
प्रत्यक्ष-ज्ञान धरते जिन भव्य होते, प्रत्यक्ष पर्यय उन्हें सब द्रव्य होते।
ईहादि पूर्वक क्रिया कर ना कदापि, वे जानते गत विकल्प सदा अपापी ॥२२॥
आत्मीय सर्व गुण आकर हो तना है, पूरा अतीन्द्रिय हुआ निज में सना है।
प्रत्यक्ष ज्ञान जिसमें प्रकटा सही है, होता परोक्ष कुछ भी उसको नहीं है ॥२३॥
आत्मा तथापि वह ज्ञान प्रमाण भाता, है ज्ञान भी सकल ज्ञेय-प्रमाण साता।
है ज्ञेय तो अमित लोक-अलोक सारा, भाई अत: निखिल व्यापक ज्ञान प्यारा॥२४॥
आत्मा कदापि नहिं ज्ञान प्रमाण होता, ऐसा त्वदीय मन में अनुमान ढोता।
तो ज्ञान से वह बढ़ा लघु या रहा है, होता सुनिश्चय यही भ्रम जा रहा है ॥२५॥
है ज्ञान से वह बड़ा यदि आतमा है, तो ज्ञान के बिन कथं वह जानता है।
मानो रहा लघु, अचेतन ज्ञान होगा, तो ज्ञान, चेतन बिना, अनजान होगा ॥२६॥
है विश्व को विषय है अपना बनाता, कैवल्यज्ञान, जिसको जिन धार पाता।
तद्ज्ञान में झलकते जग द्रव्य सारे, सर्वत्र व्यापक अतः जिनदेव प्यारे ॥२७॥
विज्ञान आत्म बिन जो रहता नहीं है, सो ज्ञान आत्मभर स्वीकृत है सही है।
होता अतः नियम से वह ज्ञान आत्मा, आत्मा न ज्ञानभर पै कुछ और आत्मा ॥२८॥
ज्ञानी स्वभावमय ज्ञान यथार्थ धारें, हो ज्ञेय मात्र उनके कि, पदार्थ सारे।
ज्यों नेत्र में न घुसते पर रूप सारे, औ रूप में न घुसते मम नेत्र प्यारे ॥२९॥
ज्यों रूप में नयन, ज्ञेयन मध्य ज्ञानी, होते प्रविष्ट न प्रविष्ट सदा अमानी।
जाने सही सकल को जग को निहारे, होते अतीन्द्रिय अतः मम हो सहारे ॥३०॥
ज्यों दूध को स्व द्युति से कर पूर्ण नीला, हो दूध में विलसती मणि इन्द्रनीला।
त्यों ज्ञान शोभित सदैव यथार्थ में हो, है दीखता सकल विश्व पदार्थ में हो ॥३१॥
विज्ञान में न उतरे, यदि द्रव्य सारे, क्यों ज्ञान सर्वगत हो तब, भव्य प्यारे।
हो ज्ञान सर्वगत भी यदि, अर्थ सारे, कैसे न ज्ञान-थित हो, बुध यों विचारें ॥३२॥
ना त्यागते न गहते पर को अपापी, वे केवली न ढलते पर में कदापि।
पै सर्वथा सकल को बस जानते हैं, हैं देखते, हम उन्हें प्रभु मानते हैं ॥३३॥
सिद्धान्त के मनन से जिसने निहारा, शुद्धात्म को सहज-ज्ञायक भाव धारा।
है पूर्ण भावश्रुत-केवलि सो निहाला, ऐसे कहें ऋषि करें जग में उजाला ॥३४॥
ये शब्द पुद्गल रहे जिनसे दिया है, संदेश सूत्र जिसको जिन ने कहा है।
सद्ज्ञान में वह निमित्त रहा उसी से, है सूत्रज्ञान वह, सो सुन लो रूपी से ॥३५॥
जो जानता सतत, ज्ञान अहो रहा है, आत्मा न ज्ञानवश ज्ञायक हो रहा है।
विज्ञान ही परिणमें खुद वो जभी है, हो ज्ञान में स्थित पदार्थ सभी तभी है ॥३६॥
है ज्ञेयभूत सब द्रव्य त्रिधा कहाते, उत्पाद ध्रौव्य व्यय भाव सुधार पाते।
है जीव ज्ञान फलतः परिणाम धारे, आत्मा व शेष पुनि द्रव्य सुनाम पाले ॥३७॥
देखो! गतागत अनागत की दशायें, जो भिन्न-भिन्न सब द्रव्यन की घटायें।
वे वर्तमान सम ही इक साथ सारी, विज्ञान में झलकती दिन-रात भाई ॥३८॥
उत्पन्न हो विगत में कुछ अन्त पाई, पर्याय जो न अब लौ कुछ जन्म पाई।
सारी अभावमय वे जिन केवली के, प्रत्यक्ष हैं विगतराग हुए बली के ॥३९॥
उत्पन्न हो विगत में कुछ अन्त पाई, पर्याय जो न अब लौं कुछ जन्म पाई।
प्रत्यक्ष हो न यदि वे जिन केवली के, क्या दिव्यज्ञान धरते फिर क्या बली वे ॥४०॥
जो अर्थ हैं सकल इन्द्रियगम्य भाते, ईहादि पूर्वक जिन्हें जन जान पाते।
वे ना लखें गत अनागत की दशाएँ, होती परोक्ष उनको गुरु यों बतायें ॥४१॥
पर्याय हो गत अनागत मूर्त या हो, हो काल, कायमय द्रव्य अमूर्त या हो।
जाने इन्हें वह अतीन्द्रिय ज्ञान वाले, ऐसा कहें जिन ऋषीश प्रमाण धारे ॥४२॥
जो ज्ञान उद्यत हुआ पर ज्ञेय पाने, सो ज्ञान क्षायिक नहीं सुन रे सयाने!।
कर्मानुभूति करता तब आतमा है, ऐसा जिनेश कहते परमातमा हैं ॥४३॥
संसारि में, जिनवरादिक आर्य गाते, कर्माश के उदय तो अनिवार्य आते।
संमोह शेष रति जो उनमें करेगा, सो कर्मबन्ध करके भव में फिरेगा ॥४४॥
धर्मोपदेश, सुख आसन बैठ जाना, आकाश में विचरना स्थिति और पाना।
अर्हन्त-काल जब उक्त क्रिया तथा हो, माया स्वभाव महिलाजन का यथा हो ॥४५॥
लो! पुण्य-पाक अरहन्त दशा जिया है, औचित्य औदयिक ही उनकी क्रिया है।
मोहादि से रहित हो रहती अतः हैं, मानी गई परम क्षायिक वे यतः हैं ॥४६॥
आत्मा स्वयं, निज स्वभाव विभाव द्वारा, मानो नहीं यदि शुभाशुभ भाव धारा।
संसार का फिर पता चल ना सकेगा, कोई दुखी फिर यहाँ मिल ना सकेगा ॥४७॥
स्थाई त्रिकाल रहते जड़ चेतनादि, नाना स्वरूप धरते रहते अनादि।
जो एक साथ इनको परिपूर्ण जाने, विज्ञान क्षायिक वही बुध सर्व माने ॥४८॥
त्रैलोक्य में स्थित त्रिकाल पदार्थ सारे, होते अनन्तगुण पर्यय के पिटारे।
जो एक साथ इनको नहिं जानता हो, सो एक द्रव्य तक भी नहिं जानता वो ॥४९॥
लो! एक द्रव्य, गुण धर्म अनन्त धारे, ऐसे त्रिलोकगत द्रव्य अनन्त सारे।
जो एक द्रव्य तक भी नहिं जान पाता, क्या एक साथ फिर वो सब जान पाता ॥५०॥
ले ज्ञेयभूत परद्रव्यन का सहारा, उत्पन्न ज्ञान यदि हो क्रमशः विचारा।
सो ज्ञान क्षायिक नहीं नहिं नित्य होता, होता न सर्वगत भी नहिं सत्य होता ॥५१॥
ये द्रव्य कालत्रय-लोकन में सुहाते, सर्वत्र हैं विविध रूप सुधार पाते।
जो एक साथ इनको बस जानता हो, माहात्म्य मात्र जिन केवलज्ञान का वो ॥५२॥
ना ज्ञेय में उपजते ढलते न पाते, ज्ञेयाभिभूत पर को बस जान जाते।
होते अबन्धक अतः जिन केवली हैं, मेरा उन्हें नमन हो प्रभु वे बली हैं ॥५३॥
सारे सुरासुर नरेश विनीत होके, सर्वज्ञ को विनमते सब गर्व खोके।
सो भक्त है तदनुसार त्रिलोक सारा, मैं भी वहीं नत खड़ा सब को बिसारा ॥५४॥
आत्मोत्थ इन्द्रियज मूर्त अमूर्त द्वारा, यों ज्ञान सौख्य द्विविधा गुरु ने उचारा।
जो भी रहा उचित हो इनमें विचारो, स्वीकार लो बस उसे पर को बिसारो ॥५५॥
धर्मादि द्रव्य चउ नित्य अमूर्त होते, हैं मूर्त में अणु अतीन्द्रिय मूर्त होते।
जाने इन्हें निज समेत जिनेश होते, प्रत्यक्ष ज्ञान धरते जड़ शेष रोते ॥५६॥
आत्मा विभाववश मूर्त अहा बना है, पै वस्तुतः वह अमूर्त स्वयं तना है ।
हो मूर्त, मूर्तपन मूर्तिक ज्ञान द्वारा, अत्यल्प जान सकता जग को न सारा ॥५७॥
ये स्पर्श गन्ध रस वर्ण सशब्द सारे, पंचेन्द्रि के विषय पुद्गल के पिटारे।
पै एक साथ इनको नहिं जानती हैं, वे इन्द्रियां बल अनन्त न धारती हैं ॥५८॥
ये इन्द्रियाँ न निज आत्म स्वभाव प्यारी, मानी गई पर अशुद्ध विभाव खारी।
तो ज्ञात अर्थ इनसे किस भाँति होगा, प्रत्यक्ष, किन्तु निज आतम को न होगा ॥५९॥
होती अपेक्ष पर की जिस ज्ञान में हैं, सो है परोक्ष कहते जिन ज्ञान में हैं।
हो जाय ज्ञान यदि केवल आतमा से, प्रत्यक्ष वो जब दिखे अघ खातमा से ॥६०॥
पूरा अनन्त जग को चखता निराला, सम्पूर्ण है उदित आप स्वयं निहाला।
ईहादि-ज्ञान बिन केवलज्ञान होता, होता वही सुख-सही गतमान होता ॥६१॥
कैवल्यज्ञान भर सौख्य ललाम होता, जाने सभी पर निजी परिणाम ढोता।
होता न खेद उसमें कहते ऋषी ये, है घाति का क्षय किया जिसने इसी से ॥६२॥
जो ज्ञान, ज्ञेय गिरि की इति टोंक पे है, औ व्याप्त दर्शन त्रिलोक अलोक में है।
जो था अनिष्ट झट नष्ट किया उसे है, था श्रेष्ठ इष्ट घट प्राप्त किया उसे है॥६३॥
है घाति कर्म-दल को जिनने मिटाया, है श्रेष्ठ सौख्य सुख में उनका सुहाया।
श्रद्धान किन्तु उसपे न अभव्य लाते, शंका परन्तु उसमें नहिं भव्य लाते ॥६४॥
संत्रस्त हैं सहज प्राप्त स्व इन्द्रियों से, इन्द्रादि मानव सुरासुर वे युगों से।
दुस्सह्य दुःख सह, ना सकते सभी हैं, मायामयी विषय में रमते तभी हैं ॥६५॥
पंचेन्द्रि के विषय में जिनकी रती है, होता उन्हें दुख स्वतः कहते यती हैं।
मानो उन्हें यदि नहीं दुख हो रहा है, व्यापार क्यों विषय में फिर हो रहा है? ॥६६॥
स्पर्शादि पंच विध इन्द्रिय ज्ञान द्वारा, जो इष्ट है विषय का जब ले सहारा।
आत्मा करे परिणती सुख मात्र सो ही, पै देह तो सुख नहीं सुन शास्त्र मोही ॥६७॥
स्वर्गीय क्यों न तन से तनधारियों को, देता कभी न सुख है दिवि में सुरों को।
ज्यों भोगते विषय को सुख-दु:ख होते, वे आत्म के नियम से परिणाम होते ॥६८॥
लो! प्राप्त दृष्टि जब है तमहारिणी है, क्या दीप जोति तब कारज कारिणी है।
आत्मा स्वयं विलसता सुखधाम प्यारे, तू ही बता विषय ये किस काम सारे ॥६९॥
आकाश में अरुण लौकिक देव भाता, तेजोमयी प्रखर ज्यों स्वयमेव धाता।
त्यों सिद्ध भी शुचि स्वयं सुख ज्ञान धारे, सद्देव हैं शरण ये जग में हमारे ॥७०॥
ईशत्व पा सकल दर्शन बोध वाले, शोभे समोशरण में निज सौख्य पाले।
संसार के प्रमुख देव सदैव भाते, सो सार्वभौम पद ले अरहन्त तातें ॥७१॥
संसार में फिर कभी नहिं लौट आते, पूरे जहाँ गुण खिले नहिं खोट पाते।
पूरे परे नर सुराधिप के पने से, वन्दूं सुसिद्ध गण को मन से घने से ॥७२॥
सद्देव शास्त्र गुरु पूजन लीन होता, दानादि कार्यरत और सुशील होता।
आत्मा रहा वह अवश्य शुभोपयोगी, ऐसा जिनेश कहते तज भोग भोगी! ॥७३॥
जो भी यहाँ शुभमयी उपयोग पाते, तिर्यंच या मनुज या सुर लोक पाते।
औ काल का न जब लौं वह अन्त आता, पाते अनेक विध इन्द्रिय सौख्य साता ॥७४॥
है निर्विकार सुख आतम में सुहाता, सो है अलभ्य सुर को यह शास्त्र गाता।
होते दुखी अमर कायिक वेदना से, डूबे तभी विषय में च्युत चेतना से ॥७५॥
तिर्यंच देव नर नारक आदि सारे, हैं भोगते यदि स्वकायिक दुःख खारे।
तो भेद वो नहिं शुभाशुभ में मिलेगा, देखो विशुद्धनय से इक ही दिखेगा ॥७६॥
चक्री सुरेश शुभ के उपयोग द्वारा, पाते अतः विषयभोग नियोग खारा।
हो भोग लीन तन आदिक पोषते हैं, हो जोंक से सुखित, आतम शोषते हैं ॥७७॥
वे पुण्य हों विविध हों अभिराम से हों, उत्पन्न जो शुभमयी परिणाम से हों।
भोगाभिलाष भर को मन में जगाते, स्वर्गीय देव तक को फिर भी सताते ॥७८॥
तीव्राभिलाषवश पीड़ित देहधारी, तृष्णाभिभूत बनते बनते विकारी।
दुःखाग्नि तप्त, भरते दिन-रैन आहे, आमृत्यु वैषयिक सौख्य चखे व चाहें ॥७९॥
बाधा समेत पर आश्रित है विनाशी, है बन्ध हेतु विषमाति सुनो विलासी!।
सो सौख्य ऐन्द्रियज है भव बीच होता, है वस्तुतः दुख रहा दुखबीज बोता ॥८०॥
ना भेद, पुण्य-अघ में कुछ है दिखाता, ऐसा जिसे न रुचता वह भूल जाता।
घोरातिघोर भव कानन में भ्रमेगा, मोहाभिभूत बन के पर में रमेगा ॥८१॥
यों पुण्य-पाप सम जान स्वयं किसी से, ना राग-द्वेष करता समता सभी से।
शुद्धोपयोग जल से निज को धुलाता, सो देह-जन्य दुख वेदन को मिटाता ॥८२॥
जो पाँच पाप तज, पावन पुण्य पाता, हो दूर भी अशुभ से शुभ को जुटाता।
मोहादि भाव फिर भी यदि ना तजेगा, शुद्धात्म को न मुनि होकर भी भजेगा ॥८३॥
रीते क्षुधादिक अठारह दोष से हैं, होते प्रसिद्ध तप संयम कोष से हैं।
पूजे सुदेव दल से शिर को नमाता, लोकाग्र जा निवसते द्वय सौख्य धाता ॥८४॥
ये देव देवगण के जिनदेव होते, त्रैलोक्य के गुरु रहे यतिदेव होते।
श्रद्धा लिए मनुज जो नमते इन्हें हैं, मानो, अनन्त सुख भी मिलता उन्हें है ॥८५॥
अर्हन्त स्वीय गृह को द्रुत जा रहे हैं, वे शुद्ध द्रव्य गुण पर्यय पा रहे हैं।
यों जानता यदि उन्हें, निज जानता है, संमोहकर्म उसका झट भागता है ॥८६॥
आत्मा बना यदपि मोहविहीन, भाता, पाया अशंक बन के निज तत्त्व साता।
रागादि को तदपि वो जब त्यागता है, शुद्धात्म प्राप्त करता जब जागता है ॥८७॥
यों जान साधु, अरहन्त स्वरूप सारे, हैं कर्म काट बनते अरहन्त प्यारे।
देते वही सदुपदेश पुनः पधारें, वे मोक्ष, वन्दन उन्हें शतशः हमारे ॥८८॥
चारित्र पूर्ण धर संयम मात्र होते, सत्कार दर्श पद पूजन पात्र होते।
सम्यक्त्व की रुचि लिए दृढ़बोध धारे, वे साधु हैं हम उन्हें रुचि से निहारें ॥८९॥
पर्याय-द्रव्य-गुण में यदि मूढ़ता से, सो मोह भाववश आतम गूढ़ता हो।
तो राग-रोष करके वह भूल जाता, है क्षोभ भाव करता प्रतिकूल जाता ॥९०॥
जो मोह भाव धरता निज भाव त्यागी, या द्वेष भाव करता बनता सरागी।
पाता वही नियम से विधि बंध नाना, मोहादि को इसलिये जड़ से मिटाना ॥९१॥
स्वीकारना, कि अयथार्थ पदार्थ बाना, तिर्यंच में मनुज में करुणा न लाना।
औ गृद्धता विषयलम्पटता, कहाते, ये मोह चिह्न त्रय हैं गुरु हैं बताते ॥९२॥
प्रत्यक्ष आदि अनुमान प्रमाण द्वारा, जाने पदार्थ जिन आगम भान द्वारा।
तो नाश मोह उसका अनिवार्य होता, सशास्त्र का मनन तू कर आर्य श्रोता ॥९३॥
पर्याय द्रव्य गुण का दल जो कहाता, अन्वर्थ नाम उसका वह अर्थ भाता।
पर्याय और गुण का वह द्रव्य स्वामी, धर्मोपदेश गुरु का यह भव्य नामी ॥९४॥
धर्मोपदेश जिनका निज को पिलाता, संमोह रोष रति को जड़ से मिटाता।
निर्वाण प्राप्त करता अविलम्बता से, होता विमुक्त भव से दुख आपदा से ॥९५॥
ज्ञानाभिभूत निज को निज रूप से ही, कालादि द्रव्य पर को पर रूप से ही।
ऐसा सुनिश्चय सुधी यदि जानता है, सो मोह का क्षय करें वह जागता है ॥९६॥
कालादि द्रव्य गण को उसके गुणों से, शुद्धात्म द्रव्यपन को अपने गुणों से।
सत् शास्त्र के मनन से बस जानना है, निर्मोह भाव कब हो यदि कामना है ॥९७॥
धारे पदार्थ सविशेष समान सत्ता, जो जानता न इनको बिन बुद्धिमत्ता।
श्रामण्य ऊपर भले वह धार पाता, होता नहीं श्रमण, धर्म न पाल पाता ॥९८॥
संमोह का हनन भी जिसने किया है, सत्शास्त्र का मनन भी रुचि से किया है।
औ वीतराग व्रत पालक हो तना है, सो धर्म है श्रमण सत्य महामना है ॥९९॥
जो उक्त साधुजन को जब देख लेते, होके प्रसन्न उन स्वागत नेक देते।
सत्कार दे नमन, आसन पे बिठाते, धर्माभिभूत बन धर्मयशः बढ़ाते ॥१००॥
सद्धर्म से मनुज या पशु शीघ्र से ही, हो देव और मनुजोत्तम वीर देही।
ऐश्वर्य वैभव अपार उन्हें मिलेगा, पूरे मनोरथ हुये, शिव ना टलेगा ॥१०१॥
ऐसा विचार मुनि को नमता हुआ मैं, श्रद्धा समेत उसमें रमता हुआ मैं।
संक्षेप से परम आगमसार दूंगा, श्रामण्य को प्रकट भी फलतः करूँगा ॥१०२॥
हैं अर्थ द्रव्यमय निश्चय से रहे हैं, औ द्रव्य भी गुणगणात्मक वे रहे हैं।
पर्याय, द्रव्य गुण में उगती, कुधी है, पर्याय-मुग्ध, परया समया वही है ॥१०३॥
पर्याय में निरत हैं नित झूलते हैं, वे हैं पराय समया निज भूलते हैं।
आत्मीयभाव रत हो दृग खोलते हैं, वे हैं स्वकीय स्वमया गुरुबोलते हैं ॥१०४॥
जो छोड़ता निज स्वभाव नहीं कदापि, उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय शील धरे तथापि।
पर्यायवान, गुणवान सदा सुहाता, गाता जिनागम, यही बस द्रव्य गाथा ॥१०५॥
नाना प्रकार अपने गुण पर्ययों से, उत्पाद, ध्रौव्य, व्यय रूप प्रवर्तनों से।
सद्भाव द्रव्य गुण का रहता हमेशा, सो ही स्वभाव उसका कहते जिनेशा ॥१०६॥
ये सर्व द्रव्य जग में निज लक्षणों से, हैं भिन्न-भिन्न अवभाषित हैं युगों से।
पै एक सर्वगत लक्षण सत् सुधारे, यों धर्मनायक कहें जिननाथ प्यारे॥१०७॥
हैं सत् स्वभाववश द्रव्य रहा जिया है, यों वस्तुतः कथन भी जिनने किया है।
सो ही जिनागम कहे, जिसको न माने, वे ही पराय समया, सुन तू सयाने! ॥१०८॥
पर्याय और गुण में ध्रुव ध्वंस जन्मा, धारा प्रवाह बहता परिणाम नामा।
सो द्रव्य का निजस्वभाव कहें विमोही, औ सत्स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही॥१०९॥
उत्पाद के बिन विनाश कभी न भाता, उत्पाद भी नहिं विनाश बिना सुहाता।
औ ध्रौव्य रूप उस अर्थ बिना कदापि, उत्पाद नाश दिखते न कहें अपापी ॥११०॥
ये एक साथ ध्रुवता व्ययता प्रसूती, पर्याय में विलसती रहती विभूती।
पर्याय द्रव्य भर में रहती स्वतः है, सो द्रव्य निश्चित त्रयात्मक ही अतः है॥१११॥
उत्पाद ध्रौव्य व्यय शील त्रिलक्षणों से, हो युक्त द्रव्य यह निश्चित है युगों से।
औ एक ही समय में उन रूप होता, भाई अत: वह त्रयात्मक द्रव्य होता ॥११२॥
पर्याय एक उगती दिखती यदा है, तो दूसरी मरण भी करती तदा है।
पै द्रव्य द्रव्य भर हो लसता सदा है , उत्पन्न हो न मिटता ध्रुव संपदा है ॥११३॥
तादात्म्य रूप गुण से गुण अन्य पाता, सो आप ही परिणमें वह द्रव्य भाता।
भाई अतः स्वगुण पर्यय रूप स्वामी है द्रव्य शाश्वत कहें जग-भूप नामी ॥११४॥
होता न द्रव्य यदि सत् मत हो तुम्हारा, कैसा बने ध्रुव असत् वह द्रव्य प्यारा।
या सत्त्व से यदि निरा वह द्रव्य होवे, सत्ता स्वयं इसलिए फिर क्यों न होवे ॥११५॥
होते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस्तु में, न बिखरे बिखरे पड़े हैं।
पर्याय-द्रव्य-गुण लक्षण से निरे हैं, पै वस्तु में, जिन कहे जग से परे हैं ॥११६॥
पर्याय द्रव्य गुण ये सब सत् सुधारे, विस्तार सत् समय का गुरु यों पुकारे।
सत्तादि का रहत आपस में अभाव, सो ही रहा समझ मिश्र अतत् स्वभाव ॥११७॥
जो द्रव्य है वह कभी गुण हो न पाता, है वस्तुतः गुण नहीं बन द्रव्य पाता।
सो ही रहा अतद्भाव सही कथा है, होता कथंचित् अभाव न सर्वथा है ॥११८॥
द्रव्यत्व का स्व परिणाम सदा सुहाता, अस्तित्वधाम गुण सो जिन शास्त्र गाता।
सत्ता स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही, है सत् रहा कि इस भाँति कहें विमोही॥११९॥
पर्याय का जनन भी कब कौन होई ? लो द्रव्य के बिन नहीं गुण होय कोई।
द्रव्यत्व ही तब रहा ध्रुव जन्मनाशी, सत्ता स्वरूप खुद द्रव्य अत: विभासी ॥१२०॥
एवं अनेकविध स्वीय स्वभाव वाला, होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला।
पर्याय द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता, भाई अभावमय भावमयी सुहाता ॥१२१॥
जीवत्व जीव धरता नर देव होता, तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा, कैसा भला परपना फिर वो भजेगा ॥१२२॥
हो देव मानव न या नर देव ना हो, किं वा मनुष्य शिव भी स्वयमेव ना हो।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता, कैसे अनन्यपन को वह धार पाता ॥१२३॥
द्रव्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता, पर्याय अर्थिवश पर्यय रूप पाता।
ऐसा कथंचित् अनन्य व अन्य होता, तत्काल क्योंकि वह तन्मय द्रव्य होता ॥१२४॥
पर्याय के वश किसी वह द्रव्य भी है, है, है न, है उभय, शब्द अतीत भी है।
औ शेष भंग मय भी वह है कहाता, ऐसा कथंचित् वही सबमें सुहाता ॥१२५॥
पर्याय नाश बिन रहती कहाँ क्या ? वैभाविकी परिणती भि नहीं तथा क्या ?
उत्कृष्ट धर्म यदि निष्फल हो सुहाता, संसार का सुवर्तन किस भाँति भाता ॥१२६॥
जो नामकर्म अपने बल ले सुहाता, शुद्धात्म की उस निजी शुचिता मिटाता।
औ जीव को वह कभी नर भी बनाता, तिर्यंच नारक कभी सुर या बनाता ॥१२७॥
या कर्म आप अपने-अपने बसों से, पाये स्वभाव बिन ही अब लौं युगों से।
हैं नामकर्म वश हो भव बीच रोते, तिर्यंच देव नर नारक जीव होते ॥१२८॥
संसार तो क्षणिक है यह तो सही है, कोई यहाँ जनमता मरता नहीं है।
उत्पाद सो विलय निश्चय गा रहा है, है जन्म नाश विविधा व्यवहार, हा! है॥१२९॥
शुद्धात्म सा शुचि अत: कुछ ना सही है, कोई स्वभाव स्थित ही जग में नहीं है।
संसारि की वह क्रिया रति राग माया, संसार है भटकता न हि जाग पाया ॥१३०॥
आत्मा लिपा करम के मल से अनादि, सो ही कुकर्म करता रति राग आदि।
लो कर्म कीच फँसता फिर से तत: है, रागादि ये करम चूंकि सभी अतः हैं ॥१३१॥
आत्मा स्वयं हि परिणाम रहा सही है, आत्माभिभूत परिणाम क्रिया वही है।
है भावकर्म रति आदि क्रिया स्वत: है, कर्ता न जीव जड़बंधन का अत: है ॥१३२॥
आत्मा सचेतनमयी परिणाम ढोता, छोड़े कभी न उसको अभिराम होता।
सो चेतना त्रिविध है, प्रभु ने कही है, है कर्म, कर्मफल, ज्ञानवती रही है ॥१३३॥
ज्ञेयानुकार वह ज्ञान सचेतना है, औ सौख्य दुःख विधि का फल चेतना है।
आत्मा शुभाशुभ शुची उपयोग ढोता, सो कर्मचेतन वही भवयोग होता ॥१३४॥
आत्मा नितान्त परिणाममयी दिखाता, सो ज्ञान कर्मफल हो परिणाम भाता।
आत्मा रहा नियम से फलतः स्वतः है, जो कर्म कर्मफल ज्ञानमयी अत: है ॥१३५॥
कर्ता तथा करण भी फल कर्म सारा, आत्मा रहा श्रमण ने यदि यों निहारा।
रागादिरूप फिर वो ढलता नहीं है, शुद्धात्म को नियम से गहता सही है ॥१३६॥
ये द्रव्य हैं अमिट जीव अजीव सारे, चैतन्यरूप उपयोग सुजीव धारे।
पै शेष द्रव्य सब पुद्गल आदि न्यारे, होते अचेतन अजीव सुधी विचारें ॥१३७॥
जीवादि द्रव्य छह ये मिलते जहाँ हैं, माना गया अमित लोक यही यहाँ है।
आकाश केवल अलोक सदा सुहाता, ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ॥१३८॥
ये जीव पुद्गल परस्पर में कभी हैं, लो दीखते बिछुड़ते मिलते कभी हैं।
उत्पाद, ध्रौव्य व्यय रूप कई दशायें, होती नितान्त जिनसे त्रय में समाये ॥१३९॥
आत्मीय चिह्नवश जीव अजीव सारे, जो ज्ञात हैं जगत में अयि! जीव प्यारे!।
वे सर्वचिह्न गुण मूर्त अमूर्त भाते, जो द्रव्य आश्रित विशेष स्वभाव तातें ॥१४०॥
ये इन्द्रियां पकड़ती गुण मूर्त तातें, होते अनन्य जड़ पुद्गल के कहाते।
होते अमूर्त गुण द्रव्य अमूर्त होते, स्वीकारते न इसको शठ धूर्त होते ॥१४१॥
ये वर्ण स्पर्श रस गन्ध जहाँ बसे हैं, वे द्रव्य पुद्गल अनन्त यहाँ लसे हैं।
गुर्वी धरा तक वही अणु से, खिले हैं, औ शब्द रूप विविधा जड़ ही ढले हैं ॥१४२॥
आकाश का गुण रहा अवकाश देना, धर्मास्तिकाय गुण है गति दान देना।
होता अधर्म गुण है स्थिति नाम वाला, विश्वास भव्य करता मतिज्ञान वाला ॥१४३॥
लो काल का गुण रहा परिवर्तना है, औ जीव का समुपयोग रहा तना है।
संक्षेप में गुण रहे गुण ये कहाते, भाई अमूर्त उन द्रव्यन के सुहाते ॥१४४॥
आकाश जीव जड़ धर्म अधर्म सारे, धारे असंख्य परदेश सुधी विचारें।
पै काल काय न कदापि असंख्य देशी, ऐसा जिनागम कहे सुन तू हितैषी ॥१४५॥
ये पाँच द्रव्य बिन काल यहाँ दिखाते, हैं अस्तिकाय गुरु यों हमको बताते।
सो काय का सरल सार्थक अर्थ माना, मानो अनेक परदेश समूह बाना ॥१४६॥
आकाश व्याप्त त्रय लोक अलोक में है, है व्याप्त धर्म व अधर्म त्रिलोक में है।
औ जीव पुद्गलन को लख ज्ञान होता, है काल लोकत्रय में परमाण होता ॥१४७॥
आकाश-देश परमाणु प्रमाण द्वारा, हैं ज्ञात शेष सब द्रव्य प्रदेश भारा।
उद्भूत देश सब ये अणु से अतः हैं, है एक देश अणु में अणु वो स्वत: है ॥१४८॥
अत्यन्त मन्द गति से परमाणु जाता, ज्यों पूर्व देश तजता पर देश पाता।
कालाणु का समय हेतुक अप्रदेशी, आकाश का इक प्रदेश घिरा, हितैषी! ॥१४९॥
पूर्वोक्त सा अणु चला तब जो लगा है, सो काल ही समय है सुन तू जगा है।
जो था पुरा अब रहा वह अर्थ होता, है काल औ समय तो व्यय जन्म ढोता ॥१५०॥
आकाश व्याप्त जितना अणु से रहा है, माना गया नभ प्रदेश वही रहा है।
चाहे सभी अणु वहीं रहना, चलेगा, सो ही प्रदेश, उनको श्रय दे सकेगा ॥१५१॥
यों एक दो बहु असंख्य अनन्त आदि, ये सर्व द्रव्य परदेश धरें अनादि।
पै काल का समय ही परदेश होता, श्री वीर का तुम सुनो उपदेश श्रोता! ॥१५२॥
कालाणु में सतत दो परिणाम होते, जो एक ही समय में व्यय जन्म होते।
सो ही स्वभाव स्थित हो चिर से रहा है, कालाणु जो समय है गुरुने कहा है ॥१५३॥
लो एक ही समय, काल पदार्थ में हो, उत्पाद ध्रौव्य व्यय भाव यथार्थ में वो।
त्रैरूप्य भाव यह जो लसता यदा है, सद्भावकाल अणुका फलतः सदा है॥१५४॥
मानो, अनेक परदेश न धारता है, किं वा प्रदेश तक भी नहिं धारता है।
सो शून्य अर्थ सुन शास्त्र सुना रहा है, अत्यन्त भिन्न उस सत्पन से रहा है ॥१५५॥
जो भी पदार्थ दल है परदेश धारा, सम्पूर्ण लोक जिससे कि भरा सुचारा।
सो लोक ज्ञेय भर है चिर नित्य भाता, पै चार प्राणधर जीव जिसे जनाता ॥१५६॥
उच्छ्वास आयु बल इन्द्रिय आदि सारे, ये चार प्राण जिनको जग जीव धारे।
ऐसा यहाँ कह रहा यह शास्त्र साता, विश्वास भव्य जिस पे दृढ़ है जमाता ॥१५७॥
स्पर्शादि पाँच मिलती सब इन्द्रियाँ हैं, कायादि तीन मिलते बल भी यहाँ हैं।
उच्छ्वास श्वास फिर आयु सभी मिला लो, हो प्राण ये दश दया इनपे दिखा ओ॥१५८॥
सो जीव है विगत में चिर जी चुका है, औ चार प्राण धर के अब जी रहा है।
आगे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छवास आयु बल इन्द्रिय पा लसेगा ॥१५९॥
मोहादि कर्मदल से चिर से घिरा है, तो चार प्राण फलतः जिसने धरा है।
आत्मा स्वकर्मफल को जब भोगता है, है और कर्म बंधता नहिं रोकता है ॥१६०॥
संमोह द्वेष उर में यदि धारता है, मानो कभी स्वपर प्राण विदारता है।
दुष्टाष्ट कर्ममय कर्दम में फंसेगा, संसार में दुखित हो चिर औ बसेगा ॥१६१॥
पंचेन्द्रि के विषय तो विष ही रहे हैं, जो छोड़ते न इनको नित पी रहे हैं।
कर्माभिभूत बन धर्म बिगाड़ते हैं, तो बार-बार तन प्राण सु-धारते हैं ॥१६२॥
योगी जितेन्द्रिय बने गतमान भाते, शुद्धोपयोगमय आतम ध्यान ध्याते।
तो कर्म रेणु उन पे न कभी लगेंगे, क्यों बार-बार फिर प्राण उन्हें मिलेंगे? ॥१६३॥
संस्थान संहनन आदिक भेद वाली, पर्याय जो उपजती त्रयवेद वाली।
अस्तित्त्व में नियत आतम की नहीं है, कर्माभिभूत जड़ पुद्गल की रही है ॥१६४॥
तिर्यंच देव नर नारक आदि सारी, ये भिन्न-भिन्न सब पर्यय की प्रणाली। है
नामकर्म जनिता भवधारियों में, होती परन्तु नहिं है शिवधारियों में ॥१६५॥
सद्भाव-रूप यह द्रव्य स्वभाव होता, पर्याय द्रव्य गुण हो त्रय भाव ढोता।
जो जानता यति उसे निज ज्ञान द्वारा, होता न मुग्ध पर में मतिमान प्यारा ॥१६६॥
आत्मा सदैव उपयोगमयी सुहाता, औ ज्ञान-दर्शनमयी उपयोग भाता।
सो ही शुभाशुभ कभी उपयोग होता, मोहादि का स्वयम में जब योग होता ॥१६७॥
ज्यों जीव में शुभमयी उपयोग होता, तो पुण्य का विपुल संचय योग होता।
मानों कभी अशुभ हो तब पाप आता, दोनों मिटे तब न आस्रव आप आता ॥१६८॥
जो सिद्ध में विनय से जिन साधुओं में, श्रद्धान पूर्ण रखता परमेष्ठियों में।
पूरी दया रख चराचर में सुहाता, सो ही रहा शुभमयी उपयोग साता ॥१६९॥
मोहादि में विषय में रत नित्य अंगी, कामादि शास्त्र पढ़ दुर्मन हो कुसंगी।
हो क्रूर हो कुपथ रूढ़ अशान्त प्राणी, ढोता सदा अशुभ ही उपयोग मानी ॥१७०॥
रीता रहूँ अशुभ के उपयोग से मैं, जोड़ें न चित्त शुभ के उपयोग से मैं।
ज्ञानाभिभूत निज आतम लीन होऊँ, माध्यस्थ धार पर में विधि हीन होऊ ॥१७१॥
हुँ ज्ञानवान, मन ना तन ना न वाणी, होऊ न कारण कभी उनका, न मानी।
कर्ता न कारक न हूँ अनुमोद दाता, धाता स्वकीय गुण का परसे न नाता ॥१७२॥
ये काय भी वचन भी मन आदि सारे, माने गये जड़ज पुद्गल के पिटारे।
जो पिंड हो अमित पुद्गल के तने हैं, भाई अनन्त अणु द्रव्यन से बने हैं ॥१७३॥
मैं पुद्गलात्मक नहीं मम ये नहीं हैं, मेरे न कार्य जड़ पुद्गल हैं सही हैं।
तो काय में पर न काय बना सदी से, कर्ता कदापि तन का नहिं हूँ इसी से ॥१७४॥
पा योग अन्य अणु का अणु स्कन्ध होता, है स्निग्ध रूक्ष गुणधारक चूंकि होता।
ना शब्द रूप अणु है, इक-देश-धारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता अणु निर्विकारी ॥१७५॥
जो स्निग्ध रूक्ष गुण हैं अणु में सुहाते, होते स्वभाव वश बाहर से न आते।
वे एक एक करके परिणाम द्वारा, पाते अनन्तपन को सुन तू सुचारा ॥१७६॥
ये स्निग्ध रूक्ष सम वैषम से चलेगा, दो दो रहे अधिक बंध तभी बनेगा।
भाई जघन्य गुण से नहिं बंध होता, ऐसा सदा समझ तू जड़ अन्ध श्रोता ॥१७७॥
हो स्निग्ध चार गुण या गुण दो चलेगा, औचित्य बंध इन आपस में बनेगा।
हो रूक्ष पाँच गुण या त्रय भी चलेगा, सम्बन्ध क्यों न इन आपस में बनेगा ॥१७८॥
ये सूक्ष्म स्थूल द्वयणुकादिक स्कन्ध बाना, संस्थान धारण किये जब मध्य नाना।
भू नीर अग्नि पवनादिक रूप सारे, हो आप आप अपने परिणाम धारे ॥१७९॥
सूक्ष्मादि स्कन्ध दल से त्रय लोक सारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहारा।
हैं योग्य स्कन्ध उनमें विधि-रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं सुन तू सयाने ॥१८०॥
ज्यों जीव के विकृत भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती।
आत्मा उन्हें न विधि-रूप हठात् बनाता, होता स्वभाववश कार्य सदा दिखाता॥१८१॥
प्राचीन कर्मवश देह नवीन पाते, संसारि जीव पुनि कर्म नये कमाते।
यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्मबन्ध तज सिद्ध सुखी हुए हैं ॥१८२॥
औदारिकादि बस! पाँच शरीर सारे, निर्जीव मात्र जड़ पुद्गल के पिटारे।
आत्मा सचेतन निकेतन है निराला, भूला गया कि हमसे चिर से विचारा ॥१८३॥
आत्मा सचेतन अरूप अगन्ध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा।
आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से विकल है सुख का पिटारा ॥१८४॥
स्निग्धादि स्पर्शवश आपस में मिले हैं, रूपादि भाव जड़ बंधन में ढले हैं।
आत्मा अमूर्त जब है विधि बंध कैसा, है पूछता अब तुम्हें यह छन्द ऐसा ॥१८५॥
आत्मा अमूर्त बस मात्र पिछानता है, रूपादि द्रव्य गुण को बस जानता है।
मानो विकार मन में तब भूल लाता, जानो वही करम बंध अत: कहाता ॥१८६॥
पंचेन्द्रि के विषय संगम चूँकि पाता, आत्मा स्वकीय उपयोगन को दुखाता।
संमोह रोष रति से निज को रंगाता, सो भावबंध जिन आगम में कहाता ॥१८७॥
मोही मिले विषय को रति भाव द्वारा, हो जानता निरखता निज को बिसारा।
रंजायमान पुनि हो पुनि कर्म पाता, है गा रहा समय यों नहिं धर्म पाता ॥१८८॥
स्पर्शादि भाव वश पुद्गल बंध पाता, रागादि भाव वश आतम बंध पाता।
ये जीव पुद्गल परस्पर मेल पाते, हो एक क्षेत्र अवगाहक खेल पाते ॥१८९॥
हैं आत्म में बहु असंख्य प्रदेश भाते, आके यहाँ जड़निकाय प्रवेश पाते।
संश्लिष्ट हो उचित आश्रय और पाते, हैं पूर्ण आयु कर बाहर ओर जाते ॥१९०॥
जो राग से सहित है वसु कर्म पाता, होता विराग भव-मुक्त अनन्त ज्ञाता।
संसारि जीव भर की विधि बंध गाथा, संक्षेप में समझ क्यों रति गीत गाता ॥१९१॥
है बन्ध तत्त्व लसता परिणाम द्वारा, संमोह रोष रति ये परिणाम भारा।
संमोह रोष अशुभाश्रित ही अहा है, पै राग तो वह शुभाशुभ भी रहा है ॥१९२॥
है पाप जो अशुभ भाव वही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभ भाव सभी विकारा।
है निर्विकार निज भाव नितान्त प्यारा, हो दुःख नष्ट जिससे सुखशान्तिधारा ॥१९३॥
ये जीव काय त्रस स्थावर आदि सारे, माने गये परम आगम में विचारे।
हैं शुद्ध जीवपन से रहते निराले, औ शुद्ध जीव उनसे अति भिन्न प्यारे॥१९४॥
लेता स्वभाव भर का नहिं जो सहारा, शुद्धात्म तत्त्व जिसने यदि ना निहारा।
संमोह से भ्रमित अध्यवसान ऐसा, मैं हूँ मदीय तन यों करता हमेशा ॥१९५॥
आत्मा स्वभाव करता रहता यदा है, कर्ता स्वकीय उस भावन का तदा है।
कर्ता परन्तु पर पुद्गल का नहीं है, हो एक साथ इक कार्य यही सही है ॥१९६॥
आत्मा सदा यदपि पुद्गल मध्य जीता, हो निर्विकार, न कभी विधि मद्य पीता।
स्वीकारता न तजता कुछ भी कदापि, कर्त्ता नहीं करम का बनता अपापी ॥१९७॥
आत्मा विकार निज में जब भूल लाता, कर्ता अवश्य उसका बन दु:ख पाता।
तो कर्म के ग्रहण से घट फूट जाता, प्राचीन कर्मफल दे कुछ छूट जाता ॥१९८॥
जो राग-रोष युत होकर के चलेगा, आत्मा तभी अशुभ में शुभ में ढलेगा।
दुष्टाष्ट कर्म मल आ उसमें घुसेगा, सो देह गेह भर में चिर औ बसेगा ॥१९९॥
संक्लेश तो अशुभ में अनुभाग डाले, डाले विशुद्धि शुभ में करमों सम्भाले।
ये तीव्र मन्द जब हो जिनशास्त्र गाते, उत्कृष्ट औ अधम ही रस डाल पाते ॥२००॥
संमोह रोष रति आकर क्लेश शाला, होता कषायवश जीव प्रदेश वाला।
तो कर्म कर्दम फंसा फंसा और जाता, सो बन्ध है समय है इस भाँति गाता ॥२०१॥
संसारि जीव-भर की यह बन्ध गाथा, भाई विशुद्ध नय है इस भाँति गाता।
पै द्रव्य बंध वह तो व्यवहार से है, ऐसा जिनेश कहते अनगार से है ॥२०२॥
मैं हूँ मदीय तन यों रटता सदा है, ना त्यागता अहमता ममता मुधा है।
श्रामण्य को श्रमण हो तजता स्वतः है, उन्मार्ग पे विचरता सहसा अत: है ॥२०३॥
मेरे नहीं पर यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवलज्ञान मैं हूँ।
यों ध्यान में सतत चिन्तन जो करेगा, ध्याता स्व का बन सुमुक्ति-रमा वरेगा ॥२०४॥
है ज्ञान-दर्शन-मयी शुचि शुद्ध शाला, होता अतीन्द्रिय अनर्थ्य अबद्ध प्यारा।
स्वाधीन है अचल है ध्रुव भी रहा है, मानें सदैव निज तत्त्व यही रहा है ॥२०५॥
ये देह गेह वनिता धन सम्पदा ये, वैरी सहोदर तथा सुख आपदायें।
हैं जीव के नहिं रहें ध्रुव भी नहीं है, आत्मा अनन्त उपयोगमयी सही है ॥२०६॥
यों जान मान शुचि आतम जो बने हैं, आत्मीय ध्यान धर में रत हैं सने हैं।
साकार या कि अनकार सुचित्त वाले, हैं मोहग्रन्थि जड़ से झट काट डालें ॥२०७॥
जो मोह नष्ट करके तन से उदासी, होता अतः श्रमण है रति रोष नाशी।
औ साम्य दुःख-सुख में जब धारता है, पाता अनन्त सुख है जग तारता है ॥२०८॥
जो पूर्णतः विषय सौख्य विसारता है, धो मोह रूप मल को मन मारता है।
भाई स्वभाव भर में स्थिर हो सुहाता, आत्मीय ध्यान करता वह साधु ध्याता॥२०९॥
लो! घाति कर्म दल को मुनि ने विदारा, प्रत्यक्ष ज्ञान धर के सबको निहारा।
ज्ञातव्य था सकल ज्ञात हुआ बली हैं, क्या ध्यान से फिर प्रयोजन केवली हैं? ॥२१०॥
जैसे अतीन्द्रिय अनक्ष बने बली हैं, बाधा जिन्हें कुछ नहीं जिन केवली हैं।
आत्मोत्थ पूर्ण सुख ज्ञान नितान्त पाते, उत्कृष्ट सौख्य भर को दिन-रात ध्याते॥२११॥
एवं जिनेश जिन औ श्रमणादि सारे, सन्मार्ग पाकर बने शुचि सिद्ध प्यारे।
पूजूँ उन्हें विनय से तज ग्रन्थ को मैं, वन्दूँ तथैव उनके शिवपंथ को मैं ॥२१२॥
आत्मा स्वभाव वश ज्ञायक शुद्ध मेरा, ऐसा अतः समझ के नित मैं अकेरा।
सम्पूर्णतः विषमता ममता विसारूँ, आसीन, निर्मम बनूँ निज में निहारूँ ॥२१३॥
निर्दोष दर्शन लिये मति शोध डाले, शंकादि दोष बिन सार्थक बोध पाले।
वन्दूँ उन्हें विनय से मुनिपुंगवों को, बाधा बिना निरत नित्य निरंजनों को ॥२१४॥
सिद्धों पुनः नमन हो श्रमणों जिनों को, श्रामण्य क्या कुछ कहूँ सुख-वांछकों को।
तू चाहता यदि भवोदधि पार जाना, आमण्य से श्रमण हो उर धार बाना ॥२१५॥
माता पिता सुत सुता वनिताजनों को, है छोड़ता प्रथम पूछ स्व बांधवों को।
पश्चात् वहाँ पहुँच नम्र बना पुजारी, जो ज्ञान वीर्य तप दर्शन वृत्त-धारी ॥२१६॥
हैं योग्य रूप कुल में वय में गणी हैं, हैं साधु पूज्य श्रमणेश वशी गुणी हैं।
स्वामी! कृतार्थ कर दो नत माथ बोले, आचार्य दीक्षित करें शिव पाथ खोले ॥२१७॥
मेरे नहीं पर यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक, हूँ विमल, केवलज्ञान मैं हूँ।
यों सत्य को समझ अम्बर रूप टारा, साधू जितेन्द्रिय दिगम्बर रूप धारा ॥२१८॥
दाड़ी व मूंछ शिर केश उखाड़ना हो, हो पूर्ण नग्न सब वस्त्र उतारना हो।
औ पाँच पाप तजना बिन संग होना, होना निरीह तन से शुचि लिंग लो ना! ॥२१९॥
आरम्भ मोह-मद से अति दूर होता, योगोपयोग शुचि से भरपूर होता।
होता पराश्रित न, स्वाश्रित मात्र होता, सो जैन लिंग शिवकारण पात्र होता ॥२२०॥
यों बार-बार गुरु को शिर भी झुकाता, है भव्य, श्रेष्ठ गुरु से मुनि लिंग पाता।
जो भी रही व्रत क्रिया सुन पूर्ण लेता, हो स्वस्थ हो श्रमण वो सुख पूर्ण लेता ॥२२१॥
हैं पाँच ही समितियाँ व्रत पंच सारे, पंचेन्द्रि का जयन लोच अचेल प्यारे।
अस्नान भूशयन औ स्थिति भोज भुक्ति, ना दन्तधावन अवश्यक एक भुक्ति॥२२२॥
ये मूल में श्रमण के गुण हैं कहाते, हैं बीस आठ, हमको जिन हैं बताते।
साधू प्रमाद करता गुण हैं निभाता, छेदोप-थापक तभी फलत: कहाता ॥२२३॥
दीक्षा प्रदान करते गुरु वे कहाते, आचार्य आदिक जिनागम यों बताते।
जो छेद को पुनि सुचारु सुधार पाते, निर्यापका श्रमण शेष सुधी कहाते ॥२२४॥
शास्त्रादि को यतन से रखता उठाता, संभाव्य है श्रमण को कुछ दोष आता।
आलोचना कर प्रतिक्रमणादि द्वारा, निर्दोष संयम बने फिर से सुचारा ॥२२५॥
दोषी बना श्रमण तो गुरु पास जाता, शास्त्रज्ञ जो श्रमण दण्डविधान ज्ञाता।
आलोचना कर वहाँ मन पाप खोले, औ प्राप्त दण्ड व्रत से मन साफ धोले ॥२२६॥
भोगोपभोगमय भावन को निवारे, होते ससंघ अथवा बिन संघ प्यारे।
श्रामण्य में नहिं कलंक कभी लगाते, निर्भीक हो श्रमण जीवन को बिताते ॥२२७॥
स्वाधीन हो श्रमण हैं करते विहारा, विज्ञान दर्शनमयी गुण में सुचारा।
होके सतर्क निज मूलगुणादि पालें, वे पूर्णतः श्रमण संस्कृति रूप धारें ॥२२८॥
आहार के ग्रहण में उपवास में भी, आवास पर्यटन में वनवास में भी।
शास्त्रादि में उपधि में विकथादिकों में, होता न मुग्ध मुनि हैं, मुनि साधुओं में॥२२९॥
पाले बिना समितियाँ उठ बैठ जाता, आता तथा शयन आसन भी लगाता।
होगा भले श्रमण, ना पलती अहिंसा, वो तो प्रमाद करता दिन-रैन हिंसा ॥२३०॥
जी जाय जीव अथवा मर जाय हंसा, पालो नहीं समितियाँ बन जाय हिंसा।
होती रहे वह भले कुछ बाह्य हिंसा, तू पालता समितियाँ पलती अहिंसा ॥२३१॥
आता यती समिति से उठ बैठ जाता, भाई तदा यदि मनो मर जीव जाता।
साधू तथापि नहिं है अघकर्म पाता, दोषी न हिंसक अहिंसक ही कहाता ॥२३२॥
संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानो, हिंसा प्रमाद भर को सहसा पिछानो।
अध्यात्म आगम अहो इस भाँति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता॥२३३॥
जो यत्न से श्रमण हो चलता नहीं है, षट्काय का वधक बंधक भी वही है।
हो अप्रमत्त यदि वो चलता सुहाता, निर्लिप्त है जलज ज्यों जल में नहाता ॥२३४॥
साधू चले तबहि जीव मनों मरेगा, हो जाय बंध अथवा नहिं हो चलेगा।
पै संग के ग्रहण से ध्रुव बंध होता, निस्संग ही श्रमण थे, तज संग स्रोता ॥२३५॥
जो संग को श्रमण हो करके रखेगा, क्या चित्त में विमलता रख वो सकेगा ?
लो, चित्त ही न जिसका यदि शुद्ध होवे, तो कर्म का क्षयभला किस भाँति होवे? ॥२३६॥
स्वीकारता श्रमण हो यदि वस्त्र को है, हो मान्य भाण्ड रखना जिनशास्त्र को है।
स्वाधीन जीवन भला कब जी सकेगा, आरम्भ से रहित क्या फिर भी रहेगा? ॥२३७॥
जो वस्त्र खण्ड अथवा पयपात्र धारे, या अन्य वस्तु मुनि होकर के सम्भारे।
तो प्राणघात समझो फिर ना टलेगा, औचित्य !चित्त तल व्याकुल हो जलेगा ॥२३८॥
जो वस्त्रखण्ड पय भाजन माँग लाता, धो धूल शुद्ध कर धूपन में सुखाता।
कोई न ले इसलिए डरता, डराता, रक्षार्थ यत्न करता बहुकाल जाता ॥२३९॥
क्यों हो न मोह उसमें जब संग ढोता, आरम्भ भी वह असंयम क्यों न होता।
मोही निरन्तर भला पर को चखेगा, कैसा स्वकीय परमातम को लखेगा ॥२४०॥
यों क्षेत्र काल अनुसार करे विचारा, लेवें उसी उपधि का मुनि ये सहारा।
चारित्र दूषित न हो, जिससे भलाई, श्रामण्य में श्रमण के बनता सहाई ॥२४१॥
जो मांगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों से।
ऐसे परिग्रह रखे उपयुक्त होवे, पै अल्प भी अनुपयुक्त न साधु ढोवे ॥२४२॥
दुर्गन्ध अंग तक संग जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित से दिखाया।
क्षेत्रादि बाह्य सब संग अतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥२४३॥
लोकेषणा न सुरलोकन की अपेक्षा, मोक्षार्थ धर्मपथ है सबकी उपेक्षा।
तो शास्त्र में कथित क्यों पद आर्यिका का, सो पूछना यह रहा इस कारिका का ॥२४४॥
ना मोक्ष हो नियम से गृहवासियों को, वैसा उसी जनम से श्रमणीजनों को।
औचित्य सावरण लिंग कहा इसी से, सत् शास्त्र में रुचि सभी धर लो सु-धी से॥२४५॥
नारी रची प्रकृति से परमाद से है, सो कोष में कि प्रमदा अनुवाद से है।
है निर्विवाद जब वो प्रमदा सदी से, मानी प्रमाद बहुला समझो इसी से ॥२४६॥
है मोह भीति मन में, वचनों, तनों में, माया विचित्र पलती, प्रमदाजनों में।
कुत्सा जिन्हें नियम से कब छोड़ पाती, निर्वाण-धाम तक ये नहिं दौड़पाती ॥२४७॥
एकाध, दोष तक भी नहिं टाल पाते, पूर्वोक्त दोष सब ही इनमें दिखाते।
निर्वस्त्र हो विचरना न इन्हें सुहाता, सो योग्य वस्त्र पहने जिनशास्त्र गाता ॥२४८॥
उद्रेक काम रिपु का जिनको सताता, शैथिल्य भाव जिन को दिन-रैन खाता।
होती तथा ऋतुमती प्रतिमास में है, हो सूक्ष्म मर्त्य जिनके तनु-वास में हैं ॥२४९॥
जो नाभि कक्ष कटि में प्रमदा स्तनों में, गुह्यांग में जनमते मरते क्षणों में।
ऐसी दशा जब रही,यह नारि जाति, कैसी भली सकल संयम धार पाती ॥२५०॥
सम्यक्त्व से सहित होकर आर्यिका ये, एकादशांग श्रुत को यदि पार पाये।
अत्यन्त घोर तपती सहती ततूरी, पै, निर्जरा करम की इनकी अधूरी ॥२५१॥
होती अतः कुलवती रूप-वाली, आरोग्य, योग्य वय ले, तन को सम्भाली।
आर्या, सवस्त्र रह आचरणा सुधारें, ऐसा कहें जिन करे जग में उजारे ॥२५२॥
हैं तीन वर्ण जिनमें इक वर्ण वाला, आरोग्य से सहित हो, मुख सौम्य धारा।
सामर्थ्यवान तप में दृढ़ अंग वाला, ना बालवृद्ध पर हो मुनिलिंग वाला ॥२५३॥
सम्यक्त्व बोध व्रत भंग हि भंग होता, ऐसा कहे जिन सुनो मन दंग होता।
निर्ग्रन्थ साधु फिर वो नहिं हो सकेगा, हो अंग भंग जिसका मन रो सकेगा ॥२५४॥
सत्शास्त्र का मनन औ गुरु -देशना ये, श्रद्धा समेत गुरुदेव उपासना ये।
औ जात रूप दिग-अम्बर लिंग प्यारे, सन्मार्ग में सब निमित्त गये पुकारे ॥२५५॥
ना ख्याति लाभ निज पूजन की अपेक्षा, ना स्वर्ग चाह रखता सबकी उपेक्षा।
शास्त्रानुसार, मित भोजन आदि लेता, होता वही श्रमण पूज्य,कषाय-जेता॥२५६॥
वे चार चार मिलती विकथा कषायें, पंचाक्ष के विषय पाँच यहाँ दिखायें।
निद्रा तथा प्रणय पंद्रह हैं इन्हीं से, होते प्रमत्त मुनि हैं गिरते गिरी से ॥२५७॥
आहार से नहिं अपेक्षित हो कदापि, साधू उपेक्षित रहा तप से तथापि।
रे अन्य भोजन अनेषण ही कहाता, भाई अतः अनशनी मुनि है सुहाता ॥२५८॥
लो संग तो श्रमण का तन ही अकेला, ऐसा कभी न कहता तन चूंकि मेरा।
शास्त्रानुसार तन को तप में लगाता, औचित्य है, न तन के बल को छिपाता ॥२५९॥
सागार दे अशन पै नहिं मांग लेना, लेना अपूर्ण भरपेट कभी न लेना।
जो भी मिला दिवस में इक बार लेना, हो मुक्त मांस मधु से रस टार लेना ॥२६०॥
जो मांस में बिन पके पकते पकाये, होते निगोद गुरु ने जग को बताये।
वे भी स्वजाति रस गन्ध स्ववर्ण वाले, जन्में निरन्तर अनन्त, अनन्त सारे॥२६१॥
जो जानबूझ कर भी यदि मांस खाता, छूता तथापि कर से वह भूल जाता।
सो मारता बहुत जीवन को करोड़ों, पालो दया जिन कहें, मन को मरोड़ो ॥२६२॥
आहार शुद्ध कर-भाजन में मिला है, देना उसे उचित ना पर को कहा है।
देके उसे फिर न भोज करे करेगा, तो दण्ड पात्र उसको बनना पड़ेगा ॥२६३॥
लो, बाल भी श्रमण जो वय में रहे हों, या रोगग्रस्त श्रम से थक भी गये हों।
या वृद्ध हो व्रत स्वयोग्य सदा निभाले, हो मूल छेद जिससे न, स्वयं विचारे ॥२६४॥
जो देह देश श्रम काल बलानुसार, आहार ले यदि व्रती करता विहार।
तो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भवमुक्त होता ॥२६५॥
एकाग्रचित्त जिसका मुनि चूँकि होता, तत्त्वार्थ निश्चय करे स्थिर चित्त होता।
कर्तव्य शास्त्र पढ़ना नित चाव से हो, यों शास्त्र पान वर है नित चाव से हो ॥२६६॥
सत्शास्त्र को श्रमण हो नहिं जान पाता, सो आत्म को व पर को न पिछान पाता।
जो जानकार निज या पर का न होगा, तो कर्मका क्षय भला किसभाँति होगा? ॥२६७॥
है चर्म चक्षु जगजंगम जन्तुओं की, है चक्षु तो अवधिज्ञान सुरासुरों की।
सर्वात्म ही नयन सिद्धन की कही है, पै साधु चक्षु जिन आगम ही सही है ॥२६८॥
नाना प्रकार गुण पर्यय से भरे हैं, सिद्धान्त में कथित अर्थ निरे-निरे हैं।
सिद्धान्त में श्रमण जो अवगाह पाता, है जानता सब पदार्थ यथार्थ गाथा ॥२६९॥
शास्त्रानुसार सम-दर्शन जो न धारा, सो दूर है श्रमण संयम से विचारा।
सिद्धान्त यों कह रहा कहते यती हैं, कैसा भला श्रमण हो कि असंयती है ॥२७०॥
श्रद्धान ही यदि पदार्थन में न होगा, तो शास्त्र ज्ञान भर से नहिं मोक्ष होगा।
श्रद्धान हो दृढ़ तथापि असंयमी है, निर्वाण हो न उसको कहते यमी हैं ॥२७१॥
है कर्म नष्ट करता जितना वनों में, जा अज्ञ धार तप कोटि भवों-भवों में।
ज्ञानी निमेष भर में त्रय गुप्ति द्वारा, है कर्म नष्ट करता उतना सुचारा ॥२७२॥
देहादि के विषय को न विसारता है, संमोह राग कण भी यदि धारता है।
भाई कभी न उसको मुक्ती मिलेगी, होगा विशारद जिनागम में भले ही ॥२७३॥
आरम्भ से रहित हो बिन संग होना, पंचाक्ष के विषय का नहिं रंग होना।
जेता कषाय रिपु का शिवपंथ माना, आदर्श संयम यहाँ जयवन्त बाना ॥२७४॥
हो तीन गुप्तियुत औ मन अक्ष जेता, पाँचों सही समितियाँ नित पाल लेता।
सम्यक्त्वज्ञान युत हो यदि है सुहाता, जानो वही श्रमण संयत है कहाता ॥२७५॥
हो कांच कंचन जिन्हें इक सार सारे, जो एक से मरण जीवन को निहारे।
निंदा प्रशंस स्तुति में रिपु बान्धवों में, धारे समा श्रमण वे दुख में सुखों में ॥२७६॥
वैराग्य पा श्रमण शोभित हो रहा हो, सम्यक्त्व ज्ञान व्रत में रत हो रहा हो।
एकत्व धारक जिनागम में कहाता, श्रामण्य को बस वही परिपूर्ण पाता ॥२७७॥
ना मोह रोष रति भी करते किसी से, जीते सदा श्रमण हो शुचि हैं शशी से।
वे ही अनेक विध कर्म विनाश डालें, स्थाई सही परम पूर्ण प्रकाश वाले ॥२७८॥
लेके कभी पर पदार्थन का सहारा, संमोह रोष करता यदि राग खारा।
अज्ञान से श्रमण भूषित हो वहीं से, नाना कुकर्मवश दूषित हो इसी से ॥२७९॥
धारें विशुद्ध शुभ या उपयोग प्यारे, माने गये श्रमण आगम में उजाले।
शुद्धोपयोग युत साधु निरास्रवी हों, पै शेष वे सुकृत साधक सास्रवी हों ॥२८०॥
आचार्यवर्य उवझाय सुसाधुओं में, वात्सल्य, भक्ति रखना जिननायकों में।
होता वही शुभमयी उपयोग साता, श्रामण्य में श्रमण को सहयोग दाता ॥२८१॥
ज्ञानी बड़े श्रमण हो उनकी सदैवा, पूजा सुभक्ति नमनादर और सेवा।
ऐसी सराग यम संयम में चलेगी, चर्या, निषेध नहिं है, मति तो गलेगी ॥२८२॥
सम्यक्त्व ज्ञान व्रत का उपदेश देना, है शिष्य को शरण पोषण भेष देना।
धर्मोपदेश जिनपूजन आदि सारी, चर्या सराग मुनि की शुभ भाव वाली ॥२८३॥
साधू चतुर्विध सुसंघन की सुसेवा, है भक्ति-भाव वश हो करता सदैवा।
पीड़ा न हो यदि तदा त्रसस्थावरों को, सो श्रेष्ठ उत्तम सराग व्रती जनों को ॥२८४॥
सेवार्थ जो श्रमण उद्यत हो रहा हो, षट्काय का वध तदा यदि हो रहा हो।
ना वो रहा श्रमण, श्रावक ही कहाता, सो धर्म चूंकि उस श्रावक का रहा था ॥२८५॥
वैराग्य से सकल या व्रत देश धारा, सेवा करो सदय हो उसकी सुचारा।
हो अल्प बंध उसमें वह क्षम्य होता, लोकेषणावश करो नहिं क्षम्य होता ॥२८६॥
रोगी हुआ तृषित त्रासित भी हुआ हो, संत्रस्त भी क्षुधित श्रामित भी हुआ हो।
ऐसा मनो श्रमण है जब है दिखाता, साधू यथा बल सुखी उसको बनाता ॥२८७॥
बाधा नहीं तब असंयत श्रावकों से, संसर्ग हो सकल लौकिक सज्जनों से।
लो बाल वृद्ध मुनि की शुभभाव द्वारा, सेवा करो, जब बुरे अघभाव टारा ॥२८८॥
चर्या प्रशस्ततम हो मुनि साधुओं की, उत्कृष्ट या उन असंयत श्रावकों की।
पाते उसी शुभ सराग चरित्र द्वारा, सागार स्वर्ग, क्रमशः शिव सौख्य सारा ॥२८९॥
भाई प्रशस्ततम राग वही कहाता, पात्रानुसार फल पाक सदा दिलाता।
ज्यों भिन्न-भिन्न धरती पर बीज बोवो, नाना प्रकार फल को जब सींच लो वो॥२९०॥
अल्पज्ञ के कथन को उर धारता है, औ ध्यान दान व्रत आदिक पालता है।
पाता कभी न उससे शिव सौख्य प्यारा, पाता पुनः सुकृत ही सुर-सौख्य न्यारा ॥२९१॥
जो झूलते विषय में कुकषाय धारे, शुद्धात्म तत्त्व जिनने न कभी निहारे।
दानादि देकर उन्हें उनकी सुसेवा, जो भी करे कुनर हो बनते कुदेवा ॥२९२॥
ये पाप ही विषय और कषाय सारे, ऐसा सदा जबकि आगम ये पुकारे।
तूही बता फिर भला विषयी कषायी, हो जाय क्यों?‘तरणतारण'आततायी ॥२९३॥
जो पाँच पाप तजते बनते अपापी, धारे सुसाम्य सबमें समता सुधा पी।
वैराग्य से भरित हैं गुणगात्र होते, सन्मार्ग के श्रमण वे शुचि पात्र होते ॥२९४॥
उन्मुक्त जो अशुभ के उपयोग से हैं, संयुक्त शुद्ध शुभ या उपयोग से हैं।
निर्भ्रांत वे श्रमण ही जग तार पाते, पूजें उन्हें अमर हो भव पार पाते ॥२९५॥
निर्ग्रन्थ हो श्रमण जो दिख जाय ज्यों ही, साधु क्रिया झट करे नमनादि त्यों ही।
औ पूछताछ करना फिर बाद भाई! शास्त्रानुसार निज आतम बात भाई ॥२९६॥
प्रत्यक्ष सम्मुख सुधी गुरु सन्त आते, होना खड़े कर जुड़े शिर को झुकाते।
दे आसनादि करना गुण वृद्ध सेवा, पाना सुशीघ्र जिससे गुणवृन्द मेवा ॥२९७॥
साधू विशारद जिनागम में तपस्वी, जो ज्ञान संयम तपादिक में यशस्वी।
वे ध्येय सेव्य भजनीय प्रणम्य सारे, पूजें उन्हें श्रमण क्षुल्लक भाव धारे ॥२९८॥
भाई भले नियम संयम पालता हो, औ शास्त्र ज्ञान भरपूर सु-धारता हो।
श्रद्धान के बिन जिनोक्त पदार्थ में है, हो जी रहा श्रमण सो न यथार्थ में है ॥२९९॥
ईर्षाभिभूत धरता अभिमानता है, निर्ग्रन्थ को श्रमण को नहिं मानता है।
दोषी उसे कह तथा जग को बताता, चारित्र को श्रमण हो करके मिटाता ॥३००॥
होता गुणाधिक नहीं यदि साधुओं से, है चाहता विनय मान गुणाधिकों से।
मैं भी बना श्रमण यों मद ढो रहा है, संसार दीर्घ उसका अति हो रहा है ॥३०१॥
साधू गुणाधिक स्वयं गुणहीनकों की, है वन्दनादि करता यदि साधुओं की।
मिथ्यात्व से वह सुशोभित हो रहा है, चारित्र से स्खलित मोहित हो रहा है ॥३०२॥
शुद्धात्म के कथक आगम को सुजाना, जीता कषाय दल को तप धार नाना।
पै छोड़ता न यदि लौकिक संगती है, ये तो असंयत रहा नहिं संयती है ॥३०३॥
जो भूख प्यास वश पीड़ित को निहारा, सो आप भी व्यथित दुःखित हो विचारा।
लेता लगा निज भले उसको कृपा पा, मानी वही कि उसकी सुखदानुकम्पा ॥३०४॥
निर्ग्रन्थ हो निरत ना निज कार्य में है, धिक्कार किन्तु रत लौकिक कार्य में है।
सो वस्तुतः श्रमणलौकिक ही कहाता, लो! बाह्य में नियम संयम भी निभाता॥३०५॥
जो हैं समान गुणधारक हो वशी हैं, या हो गुणाधिक सुधी सबसे ऋणी हैं।
संसार में उचित है उन संग पाना, हो चाहते यदि भला भव पार जाना ॥३०६॥
जो मूढ़ तत्त्व भर को उलटे पिछाने, जो भी पढ़ा वह सही इस भाँति माने।
औचित्य है भव-भवान्तर में भ्रमेंगे, मोहाभिभूत बन के पर में रमेंगे ॥३०७॥
तत्त्वार्थ निश्चय किया जिसने सही है, छोड़ा दुराचरण शान्त बना वशी है।
पा पूर्णतः श्रमणता अघ से सुरीता, संसार में अब नहीं चिर काल जीता ॥३०८॥
जो अन्तरंग बहिरंग निसंग होते, जाने यथार्थ परमार्थ निशंक होते।
आसक्त ना विषय में मुनि वे कहाते, शुद्धोपयोग बल से भव पार जाते ॥३०९॥
शुद्धोपयोग मुनि हो उर में जगाता, पाता वही श्रमणता दृग ज्ञान पाता।
निर्वाण सिद्ध शिव लाभ वही उठाता, मैं बार-बार उसको शिर हूँ नवाता ॥३१०॥
सागार या कि अनगार चरित्र वाले, हो जानते यदि इसे जिनशास्त्र प्यारे।
वे शीघ्र से प्रवचनात्मक सार पाते, भाई अपार भवसागर पार जाते ॥३११॥