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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वीतराग-मय धर्मतीर्थ को किया प्रसारित त्रिभुवन में। धर्म नाम तव सार्थक कहते गणधर गुरु जो मुनिगण में ॥ सघन कर्म के वन को तपमय तेज अनल से जला दिया। शंकर बन कर सुखकर शिव-सुख पाकर जग को जगा दिया ॥१॥ भद्र भव्य सुर-नरपति गण नत तुम पद में अति मोहित हैं। मुनिगण-नायक गणधर से प्रभु आप घिरे हैं शोभित हैं॥ जैसा नभ में पूर्ण कला ले शान्त चन्द्रमा निखरा हो। जिसके चारों ओर विहसता तारक-दल भी बिखरा हो ॥२॥ छत्रादिक से सजा हुआ जिस समवसरण में निवस रहे। विरत किन्तु निज तन से भी हो निरीह सब से विलस रहे ॥ नर, सुर, किन्नर भव्य-जनों को शिव-पथ दर्शित करा रहे। प्रति-फल की कुछ वांछा नहिं पर हमको हर्षित करा रहे ॥३॥ तन की मन की और वचन की चेष्टाएँ तव होती हैं। किन्तु बिना इच्छा के केवल सहज भाव से होती हैं। थोथी यद्वा-तद्वा भी नहिं सही ज्ञान से सहित सभी। धीर! नीर-निधि-समतव परिणति, अचिंत्य लख बुध चकित सभी ॥४॥ मानवता से ऊपर उठ कर ऊपर उन्नत चढ़े हुए। सुर, सुर-पालक देवों में भी पूज्य हुए हो बड़े हुए ॥ इसीलिए देवाधिदेव हो परम इष्ट जिन! नाथ हुए। हम पर करुणा कर दो शिव-सुख, तुम पद में नत-माथ हुए ॥५॥ (दोहा) दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म। अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म ॥१॥ धर्मनाथ को नित नमू, सधे शीघ्र शिव-शर्म। धर्म-मर्म को लख सकें, मिटे मलिन मम कर्म ॥२॥
  2. चिर से जीवित तुम उर में था मोह-भूत जो पाप-मयी। अमित-दोष का कोष रहा था जिसका तन परिताप-मयी ॥ उसे जीत कर बने विजेता आत्म तत्त्व के रसिक हुए। अतः नाम तव अनन्त सार्थक, तव सेवक हम भविक हुए ॥१॥ समाधि-मय गुणकारी औषध, का तुमने अनुपान किया। दुर्निवार संतापक दाहक काम रोग का प्राण लिया ॥ रिपु-सम दु:खद कषाय-दल का और पूर्णतः नाश किया। पूर्णज्ञान पा परमज्योति से त्रिभुवन को परकाश दिया ॥२॥ भरी लबालब श्रम के जल से भय-मय लहरें उपजाती। विषय-वासना सरिता तुममें चिर से बहती थी आती ॥ उसे सुखा दी अपरिग्रहमय तरुण अरुण की किरणों से। मुक्ति-वधू वह हुई प्रभावित इसीलिए तव चरणों से ॥३॥ भक्त बना तव निरत भक्ति में भुक्ति-मुक्ति-सुख वह पाता। तुम से जो चिढ़ता वह निश्चित प्रत्यय-सम मिट दुख पाता ॥ फिर भी निन्दक वंदक तुमको सम हैं समता-धाम बने। तव परिणति प्रभु विचित्र कितनी निज रस में अविराम सने ॥४॥ तुम ऐसे हो तुम वैसे हो मम-लघु धी का कुछ कहना। केवल प्रलाप-भर है मुनिवर! भक्ति - भाव में बस बहना ॥ तव महिमा का पार नहीं पर अल्प मात्र भी तारण है। अमृत-सिन्धु का स्पर्श तुल्य बस शान्ति सौख्य का कारण है ॥५॥ (दोहा) अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्त भव का अन्त। अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवन्त ॥१॥ अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त। अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरूं स्मरें सब सन्त ॥२॥
  3. तत्त्व नित्य या क्षणिक सर्वथा इत्यादिक जो नय गाते। कलह परस्पर करते मरते सभी परस्पर भय खाते ॥ विमलनाथ प्रभु अनेकान्तमय तुम-मत के जो नय मिलते। बने परस्पर पूरक, हिल-मिल सभी कथंचित् पथ चलते ॥१॥ निजी सहायक शेष कारकों को आपेक्षित करते हैं। एक-एक कर जिस विध कारक कार्य सिद्ध सब करते हैं। समानता को विशेषता को लखते हैं क्रमबार भले। उस विध तव नय गौण मुख्य हो वक्ता के अनुसार चले ॥२॥ ज्ञानमयी हो स्व-पर प्रकाशक प्रमाण जिस विध निश्चित है। जैनागम में निराबाध वह स्वीकृत है, औ समुचित है॥ अभेद-मय औ भेद-ज्ञान में सदा मित्रता शुद्ध रही। समानता औ विशेषता की समष्टि जिन से सिद्ध रही ॥३॥ किसी वस्तु की विशेषता का, कथक विशेषण होता है। विशेषता जिसकी की जाती, विशेष्य बस वह होता है ॥ किन्तु विशेषण विशेष्य इनमें नित्य निहित सामान्य रहा। स्यात् पद-वश प्रासंगिक होता मुख्य-गौण तब अन्य रहा ॥४॥ स्यात् पद भूषित तव नय बनते सुर-सुख शिव-सुख-दाता हैं। जिस विध पारस योग प्राप्त कर लोह स्वर्ण बन भाता है ॥ अतः हितैषी सविनय होते तव पद में प्रणिपात रहें। परम पुण्य का फलतः बुधजन लाभ लुटा दिन-रात रहें ॥५॥ (दोहा) कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल। मार दिया तुमने उसे, फाड़ा उसका गाल ॥१॥ मोह-अमल वश समल बन, निर्बल मैं भयवान। विमलनाथ तुम अमल हो, संबल दो भगवान ॥२॥
  4. मंगल-कारक गर्भ जन्ममय कल्याणों में पूज्य हुए। वासुपूज्य प्रभु शत इन्द्रों से तुम पद-पंकज पूज्य हुए। हे मुनि-नायक लघु धी मैं हूँ मेरे भी अब पूज्य बनें। पूजा क्या नहिं दीपक से हो रवि की जो द्युति-पुंज तनें ॥१॥ वीतराग जिन बने तुम्हें अब पूजन से क्या अर्थ रहा। वैरी कोई रहे न तब फिर निंदक भी अब व्यर्थ रहा ॥ फिर भी तव गुण-गण-स्मृति से प्रभु परम लाभ है वह मिलता। निर्मलतम जीवन है बनता मम मन-मल सब यह धुलता ॥२॥ पूजन पूजक पूज्य प्रभो! जिन तव जब करता भव्य यहाँ। अल्प पाप तब पाता फिर भी पाता पावन मुख्य महा॥ किन्तु पाप वह ताप नहीं है घटना-भर अनिवार्य रही। सुधा-सिन्धु में विष-कण करता बाधक का कब कार्य कहीं? ॥३॥ उपादानमय मूल हेतु का बाह्य द्रव्य ले सहकारी। श्रावक जब तव पूजन करता पाप-पुण्य का अधिकारी ॥ किन्तु साधु जब पूजन करते संग-रहित ही जो रहते। पुण्य-पाप में भावं शुभाशुभ केवल कारण जिन कहते ॥४॥ बाह्याभ्यन्तर हेतु परस्पर यथायोग्य ये मिले सही। तभी कार्य सब जग के बनते द्रव्य धर्म बस दिखे यही ॥ मोक्ष कार्य में यही व्यवस्था पर इससे विपरीत नहीं। अतः वन्द्य तुम बुध जन से ऋषि-पति हो, कहता गीत सही ॥५॥ (दोहा) औ न दया बिन धर्म ना, कर्म कटे बिन धर्म। धर्म मर्म तुम समझकर, कर लो अपना कर्म ॥१॥ वासुपूज्य जिनदेव ने, देकर यूं उपदेश। सबको उपकृत कर दिया, शिव में किया प्रवेश ॥२॥
  5. दोष रहित, शुभ वचन सुधारो श्रेयन् ! जिन! अघ गला दिया। हित पथ दर्शित कर हित पथ पर हितैषियों को चला दिया। एक अकेले विलसित हो तुम त्रिभुवन में ज्यों उदित हुआ। मेघ-रहित इस विशाल नभ में रवि लसता, जग मुदित हुआ ॥१॥ अस्तिपना जो नास्तिपनामय प्रमाण का वह विषय बना। अस्ति-नास्तिपन में इक होता गौण एक तो प्रमुख बना ॥ प्रमुख बना या जिसको उसके नियमन का नय हेतु रहा। दृष्टान्तन का रहा समर्थक जिन दर्शन का केतु रहा ॥२॥ प्रासंगिक जो मुख्य कहाता तव मत कहता पुण्य मही। प्रासंगिक जो नहीं रहा सो गौण भले पर शून्य नहीं ॥ मित्र कथंचित् शत्रु मित्र हो किसी अपेक्षा अनुभय हो। सगुण गुणी में अस्तिनास्ति वश वस्तु कार्य में सक्रिय हो ॥३॥ समुचित है दृष्टान्त जभी से लोक सिद्ध वह मिल जाता। वादी-प्रतिवादी का झगड़ा स्वयं शीघ्र तब मिट जाता ॥ मतैकान्त का पोषक तव मत में मिलता दृष्टान्त नहीं। साध्य-हेतु दृष्टान्तन में मत चूंकि श्रेष्ठ नैकान्त सही ॥४॥ स्याद्-वादमय रामबाण से रग-रग जिसको छेद दिया। एकान्ती मत का मस्तक प्रभु पूर्ण रूप से भेद दिया ॥ लाभ लिया कैवल्य विभव का मोह-शत्रु का नाश किया। अतः बने अरहन्त तभी मम मन तुम पद में वास किया ॥५॥ (दोहा) अनेकान्त की कान्ति से हटा तिमिर एकान्त। नितान्त हर्षित कर दिया क्लान्त विश्व को शान्त ॥१॥ निःश्रेयस सुख-धाम हो हे जिनवर श्रेयांस। तव थुति अविरल मैं करूँ जब लौं घट में श्वाँस ॥२॥
  6. ना तो मलयाचल चंदन औ चन्द्र चान्दनी शीतल है। शीतल गंगा का भी जल नहिं मणिमय माला शीतल है ॥ हे मुनिवर! तव वचन-किरण में प्रशम भाव-मय नीर भरा। शीतलतम है, बुधजन जिसका सेवन करते पीर हरा ॥१॥ विषय-सौख्य की चाह-दाह से क्लान्त किया था तप्त किया। निज के मन को ज्ञान-नीर से शान्त किया तुम तृप्त किया। वैद्य-राज ज्यों मंत्र-शक्ति से जहर शक्ति को हरता है। जहर-दाह से मूर्छित निज के तन को सुशान्त करता है ॥२॥ जीवन की औ काम सौख्य की तृष्णा के जो नौकर हैं। जड़-जन दिन-भर श्रम कर थक कर रात बिताते सोकर हैं॥ शुचितम निज आतम में तुम तो निशि-दिन निश्चल जाग रहे। यही आर्य! अनिवार्य कार्य तव, प्रमाद रिपु-सम त्याग रहे ॥३॥ सुर-सुख की, सुत-धन की, धन की तृष्णा जिनके मन में है। ऐसे ही कुछ जड़ जन, तापस, बन तप तपते वन में हैं। किन्तु, जनन-मृति-जरा मिटाने, समधी बन यम धार लिया। मन वच तन की क्रिया मिटा दी, तुमने भव-दधि पार किया ॥४॥ धवलित केवलज्ञान-ज्योति हो जन्म रहित दुख सर्व हरें। आप कहाँ ये अन्य कहाँ जड़ अल्प ज्ञान ले गर्व करें। शिव-सुख के अभिलाषी बुधजन अतः सदा तव गुण गाते। शीतल प्रभु मुझ शीतल कर दो तुम्हें भजे मम मन तातें ॥५॥ (दोहा) शीतल चन्दन है नहीं शीतल हिम ना नीर। शीतल जिन! तव मत रहा, शीतल हरता पीर ॥१॥ सुचिर काल से मैं रहा, मोह-नींद में सुप्त। मुझे जगा कर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त ॥२॥
  7. विरोध एकान्ती का करता तर्कादिक से सिद्ध सही। तदतत्-स्वभाव-धारक यानी मुख्य-गौण हो कहीं कहीं ॥ सुविधिनाथ प्रभु आत्मज्योति से तत्त्व प्ररूपित सही किया। तुम मत से विपरीत मतों ने जिसका स्वाद न कभी लिया ॥१॥ स्वभाव-वश औ अन्यभाव-वश तत्त्व रहा वह नहीं रहा। क्योंकि कथंचित् उसी तरह ही प्रतीत होता सही रहा ॥ निषेध-विधि में कभी सर्वथा अनन्यपन या अन्यपना। होते नहिं हैं जिन-मत गाता तत्त्व अन्यथा शून्य बना ॥२॥ वही रहा यह प्रतीत इस विध तत्त्व अतः यह नित्य रहा। अन्यरूप ही झलक रहा है इसीलिए नहिं नित्य रहा ॥ बाहर-भीतर के कारण औ कार्य-योग वश, तत्त्व वही। नित्यानित्यात्मक संगत है तव मत का यह सत्त्व सही ॥३॥ एक द्रव्य वश अनेक गुण वश वाच्य रहा वह वाचक का। वन है तरु है'' इस विध कहते भाव विदित ज्यों गायक का ॥ सर्व धर्म के कथन चाहते गौणपक्ष पर नहिं माने। एकान्ती मत कहते उनको स्याद्-पद दुखकर, बुध जाने ॥४॥ गौण-मुख्यमय अर्थ-युक्त तव दिव्य वाक्य है सुख-कारी। यदपि तदपि तुम मत से चिढ़ते उनको निश्चित दुखकारी ॥ साधु-राज हे चरण-कमल तव सुर-नर-पति से वंदित हैं। अतः मुझे भी वन्दनीय हैं सुरभित-सौम्य-सुगंधित हैं ॥५॥ (दोहा) सुविध! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर। मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर ॥१॥ बाल मात्र भी ज्ञान ना मुझमें मैं मुनि बाल। बवाल भव का मम मिटे तुम पद में मम भाल ॥२॥
  8. अपर चन्द्र हो अनुपम जग में जगमग जगमग दमक रहे। चन्द्र-प्रभा सम नयन-मनोहर गौर वर्ण से चमक रहे ॥ जीते निज के कषाय-बंधन बने तभी प्रभु जिनवर हो। चन्द्रप्रभो! मम नमन तुम्हें हो सुरपति नमते ऋषिवर हो ॥१॥ परम ध्यानमय दीपक उर में जला आत्म को जगा दिया। मोह-तिमिर को मानस-तल से पूर्ण रूप से भगा दिया। हे प्रभु! तव तन की श्रीछवि से बाह्य सघनतम दूर भगा। दिनकर को लख, तम ज्यों भगता पूरब में द्युति पूर उगा ॥२॥ पूरे भीगे कपोल जिनके मद से गज-गण मद-धारे। सिंह-गर्जना सुनते, डरते, बनते ज्यों निर्मद सारे ॥ निजमत स्थिति से पूर्ण मत्त हो प्रतिवादी त्यों अभिमानी। स्याद्वाद तव सिंहनाद सुन बनते वे पानी-पानी ॥३॥ तपः साधना अद्भुत करके हित-उपदेशक आप्त हुए। परम इष्ट पद को तुम प्रभुवर त्रिभुवन में जब प्राप्त हुए ॥ अनन्त सुख के धाम बने हो विश्व-विज्ञ अविनश्वर हो। जग-दुख-नाशक शासक के ही शासक तारक ईश्वर हो ॥४॥ भगवन् तुम शशि, भव्य कुमुद ये खिलते हैं दृग खोल रहे ॥ राग-रोषमय मेघ तुम्हारे चेतन में नहिं डोल रहे ॥ स्याद्वादमय विशद वचन की मणिमय माला पहने हो। परमपूत हो, पावन कर दो, मम मन वश में रहने दो ॥५॥ (दोहा) चन्द्र कलंकित किन्तु हो चन्द्रप्रभु अकलंक । वह तो शंकित केतु से शंकर तुम नि:शंक ॥१॥ रंक बना हूँ मम अतः मेटो मन का पंक। जाप जपूँ जिन-नाम का बैठ सदा पर्यंक ॥२॥
  9. निज आतम में चिर स्थिर बसना भविक-जनों का स्वार्थ यही। भाँति-भाँति के क्षणभंगुर सब भोग कभी ये स्वार्थ नहीं ॥ तृष्णा का वह अविरल बढ़ना ताप शान्ति के हेतु नहीं। सुपाश्र्व प्रभु का कथन यही है भव सागर का सेतु सही ॥१॥ जंगम चालक जभी चलाता, स्थाणु यंत्र तब चल पाता। तथा जीव से तन चल पाता, जड़मय तन की यह गाथा ॥ दुखद विनाशी रुधिरमांस मय, तन है इस विध बता दिया। तन की ममता अतः वृथा है, शिव का तुमने पता दिया ॥२॥ बाह्याभ्यंतर कारण द्वारा बनी हुई कृति जो दिखती। होनहार सो हो कर रहती रोके वह नहिं रुक सकती ॥ बाहर कारण सब पाकर भी अहंकार से दुखित हुए। सब कार्यों में विफल रहे शठ, प्रभु तुम कहते सुखित हुए ॥३॥ मात्र मरण से भले भीति हो मोक्ष-धाम वह नहिं मिलता। शिव की वांछाभर से शिव नहिं मिलता जीवन नहिं खिलता ॥ मृत्यु-भीति से काम-चोर से ठगा हुआ जड़ अज्ञानी। वृथा व्यथा है सहता फिर भी, तुमने कह दी यह वाणी ॥४॥ धर्म-रत्न की गवेषणा में निरत-जनों के नायक हो। जननी-सम जड़-जन के हित प्रभु सदुपदेश के दायक हो ॥ सकल विश्व के जड़-चेतनमय सकल तत्त्व के ज्ञायक हो। इसीलिए मैं तव गुण-गण का गीत गा रहा, गायक हो ॥५॥ (दोहा) अबंध भाते काट के वसु विध विधि का बंध। सुपार्श्व प्रभु निज प्रभु-पना पा पाये आनन्द ॥१॥ बाँध-बाँध विधि-बंध मैं अन्ध बना मति मन्द। ऐसा बल दो अंध को बंधन तोडू द्वन्द्व ॥२॥
  10. शुचिमय तन-चेतन लक्ष्मी से मंडित निज में निवस रहे। लाल-लाल कल पलाश छवि से अहो पद्मप्रभ! विलस रहे ॥ लोकबन्धु हो भविक-कमल ये तुम दर्शन से खिलते हैं। जिस विध सर में सरोज दल वे दिनकर को लख खुलते हैं ॥१॥ अक्षय सुख-मय लक्ष्मी वर के दिव्य भारती पाय लसे। पूर्णमुक्ति से पूर्ण प्रभो! तुम त्रयोदशी गुण माँय बसे ॥ देव-रचित था समवसरण तव उसमें नहिं, अनुरक्त हुए। दिव्य देशना त्याग अन्त में सर्वज्ञान युत मुक्त हुए ॥२॥ नयन मनोहर किरणावली छवि आप देह से उछल रही। बाल भानु की युति सम भाती धरती छूने मचल रही ॥ नर सुर से जो भरी सभा को ललित लाल अति करा रही। पद्म राग-मय पर्वत जिस विध स्वीय-पार्श्व को विभामयी ॥३॥ सहस्र दल वाले कमलों के मध्य आप चलने वाले। चरण-कमल से नभ-तल को प्रभु पुलकित अति करने वाले ॥ मत्त मदन का मद-मर्दन कर निर्मद जीवन बना लिया। विश्व-शान्ति के लिए विश्व में विचरण इच्छा बिना किया ॥४॥ तुममें हे! ऋषिवर गुण-गण का लहराता वह सिन्धु महा। इन्द्र विज्ञ तव स्तुति करके भी पी न सका वह बिन्दु अहा!! अज्ञ, सफल क्या? मैं हो सकता स्तुति करने जो उद्यत हूँ। बाध्य मुझे तव भक्ति कराती तुम पद में तब अवनत हूँ ॥५॥ (दोहा) शुभ्र सरल तुम, बाल तव कुटिल कृष्ण-तम नाग। तव चिति चित्रित ज्ञेय से किन्तु न उसमें दाग ॥१॥ विराग पद्मप्रभु आपके दोनों पाद-सराग। रागी मम मन जा वहीं पीता तभी पराग ॥२॥
  11. स्व पर तत्त्व का सही सुनिर्णय सुयुक्तियों से स्वतः लिया। सुमति-नाथ मुनि ‘सुमति' नाम को सार्थक तुमने अतः किया ॥ शेषमतों में क्रिया-कर्म औ कारक कारण की विधियाँ। चूँकि सही नहिं सभी सर्वथा एकान्तीपन की छवियाँ ॥१॥ तुमसे स्वीकृत तत्त्व सही है अनेक भी है एक रहा। पर्ययवश वह अनेक दिखता द्रव्य अपेक्षा एक रहा ॥ इक उपचारी इनमें हो तो दूजा झूठा, इक नय से। शेष मिटेगा अवाच्य जिससे तत्त्व बनेगा निश्चय से ॥२॥ तत्त्व कथंचित् असत्त्व सत् ही अपर अपेक्षा चहक रहा। नभ में यदपि न पुष्प खिला पर, तरु पर खुल-खिल महक रहा ॥ तत्त्व, सत्त्व औ असत्त्व बिन यदि, रहा नहीं सम्मानित है। तुम मत से प्रभु अन्य सभी मत, स्वीय वचन से बाधित हैं ॥३॥ तत्त्व सर्वथा नित्य रहा जो मिटता-उगता नहीं कभी। तथा क्रिया औ कारक विधियाँ उसमें बनती नहीं कभी ॥ जनन असत का नहीं सर्वथा सत भी वह ना विनस रहा। दीपक, खुद बुझ, सघन तिमिर बन, पुद्गल-पन से विहस रहा ॥४॥ नास्तिपना औ अस्तिपना है इष्ट कथंचित् यही सही। वक्ता के कथनानुसार ये मुख्य-गौण हो कभी कहीं ॥ तत्त्व-कथन की सही प्रणाली सुमति-नाथ प्रभु तव प्यारी। स्तुति करती है तव, मम मंदा मति, अमंद हो सुख प्याली ॥५॥ (दोहा) सुमति-नाथ प्रभु सुमति दो मम मति है अति मंद। बोध कली खुल-खिल उठे महक उठे मकरन्द ॥१॥ तुम जिन मेघ मयूर मैं गरजो बरसो नाथ। चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा ऊपर कर के माथ ॥२॥
  12. क्षमा-सखी युत दया-वधू में सतत निरत हो नन्दन हो। गुण-गण से अति परिवर्धित हो इसीलिए अभिनन्दन हो ॥ ‘लक्ष्य' बना कर समाधि भर का समाधि पाने यमी बने। बाहर-भीतर नग्न बने प्रभु ग्रन्थ तजे सब दमी बने ॥१॥ निरे अचेतन तन-मन-धन हैं वचन बंधु-जन-तनुज रहें। हम इनके, ये रहें हमारे इस विध जग के मनुज कहें ॥ मोह-भूत के वशीभूत हो अस्थिर को स्थिर समझे हैं। तत्त्व-ज्ञान प्रभु उन्हें बताया उलझे जन-जन सुलझे हैं ॥२॥ अशन-पान कर, क्षुधा तृषा से जनित दु:ख के वारण से। तन तनधारक नहिं ध्रुव बनते, क्षणिक विषय सुख पानन से ॥ इसीलिए ये विषय सुखादिक किसी तरह नहिं गुणकारी । इसविध इस जग को समझाया प्रभो आप गुणगणधारी ॥३॥ यदपि दास बन विषयों का शठ लोलुपता से पूर रहा। तदपि नृपादिक भय से परवश दुराचार से दूर रहा ॥ इस-पर-भव में ‘दुखद' विषय है इस विध जो जन यदि जाने। किस विध विषयन में फिर रमते यही कहा प्रभु, बुध माने ॥४॥ विषयों की यह विषय-वासना ताप बढ़ाती क्षण-क्षण है। तृष्णा फलतः द्विगुणित, जिस सुख से, तोषित ना जड़ जन हैं॥ सदुपदेश यों देते जिससे निहित-लोक-हित तुम मत में। अतः शरण हो सुधी-जनों के मुनि-गण के सब अभिमत में ॥५॥ (दोहा) विषयों को विष लख तजू बन कर विषयातीत। विषय बना ऋषि ईश को गाऊँ उनका गीत ॥१॥ गुण धारे पर मद नहीं मृदुतम हो नवनीत। अभिनन्दन जिन! नित नमूं मुनि बन मैं भवभीत ॥२॥
  13. ऐहिक सुख-तृष्णामय रोगों से जो पीड़ित जग जन हैं। उन्हें निरोगी पूर्ण बनाने वैद्य रहे शंभव जिन हैं॥ प्रति-फल की पर वाँछा कुछ नहिं बिना स्वार्थ परहित रत हैं। वैद्य लोग ज्यों रोग मिटाते दया-भाव से परिणत हैं ॥१॥ अहंकार-मय विभाव भावों मिथ्या-मल से रंजित हैं। क्षणिक रहा है त्राण-हीन है जगत रहा सुख-वंचित है॥ जनन-मरण से जरा रोग से पीड़ित दु:खित विकल अहा! उसे किया जिन निरंजना-मय, शान्ति पिला कर सबल महा ॥२॥ बिजली-सम पलजीवी चंचल इन्द्रिय-सुख है तनिक रहा। तृष्णा-मय-मारी के पोषण का कारण है क्षणिक रहा ॥ तृष्णा की वह वृद्धि, निरंतर उपजाती है ताप निरा। ताप जगत को पीड़ित करता जिन कहते, तज पाप जरा ॥३॥ बंध-मोक्ष क्या उनका कारण सुफल मोक्ष का कौन रहा? बद्ध जीव औ मुक्त जीव सब जग में रहते कौन कहाँ? ये सब वर्णन देव! तुम्हारे स्याद-वाद मत में पाते। एकान्ती-मत में ना पाते, शिव-पथ-नेता तुम तातें ॥४॥ पुण्यवर्धनी तुम स्तुति करने इन्द्र विज्ञ असमर्थ रहा। किन्तु अज्ञ मैं स्तोत्र कार्य में उद्यत हूँ ना अर्थ रहा ॥ तदपि भक्तिवश तुम-पद-पंकज-स्तुति, अलि बन अनिवार्य किया। शिव-सुख की कुछ गंध हुँधा दो आर्य-देव! शुभ कार्य किया ॥५॥ (दोहा) तुम-पद-पंकज से प्रभो झर-झर-झरी पराग। जब तक शिव-सुख ना मिले पीऊँ षट्पद जाग ॥१॥ भव-भव, भव-वन भ्रमित हो भ्रमता-भ्रमता आज। शंभव-जिन भव शिव मिले पूर्ण हुआ मम काज ॥२॥
  14. बन्धु-वर्ग तो खेल-कूद में भी विजयी तव मस्त रहा। अजेय-बनकर अमेय बल पा मुदित मुखी बन स्वस्थ रहा ॥ यह सब प्रभाव मात्र आपका दिवि से आ जब जन्म लिया। अजित'' नाम तब सार्थक रख तव परिजन सार्थक जन्म किया ॥१॥ अजेय शासन के शासक थे अनेकान्त के पोषक थे। भविजन हित-सत पथदर्शक थे अजित-नाथ जग तोषक थे। वांछित-शिव-सुख, मंगल पाने मुमुक्षु जन अविराम यहाँ। आज! अभी भी लेते जिन का परम सुपावन नाम महा ॥२॥ भविजन का सब पाप मिटे बस यही भाव ले उदित हुए। मुनि नायक प्रभु समुचित बल ले घाति-घात कर मुदित हुए। मेघ-घटा बिन नभ-मंडल में दिनकर जिस विध पूर्ण उगा। कमल-दलों को खुला-खिलाता, अन्धकार को पूर्ण भगा ॥३॥ चन्दन-सम शीतल जल से जो भरा लबालब लहराता। तपन ताप से तपा मत्त गज उस सर में ज्यों सुख पाता ॥ धर्म-तीर्थ तव परम-श्रेष्ठ शुचि जिसमें अवगाहन करते। काम-दाह से दग्ध दुखी जन पल में सुख पावन वरते ॥४॥ शत्रु मित्र में समता धरकर परम ब्रह्म में रमण किया। आत्म-ज्ञान-मय सुधा-पान कर कषाय-मल का वमन किया ॥ आतम-जेता अजित-नाथ हो चेतन-श्री का वरण किया। जिन-पद-संपद-प्रदान कर दो तुम पद में यह नमन किया ॥५॥ (दोहा) जित इन्द्रिय जित मद बने, जित भव विजित कषाय। अजित-नाथ को नित नर्मू, अर्जित दुरित पलाय ॥१॥ कोंपल पल-पल को पले, वन में ऋतु-पति आय। पुलकित मम जीवन-लता, मन में जिन पद पाय ॥२॥
  15. पर से बोधित नहीं हुए पर, स्वयं स्वयं ही बोधित हो। समकित-संपति ज्ञान नेत्र पा जग में जग-हित शोभित हो ॥ विमोह-तम को हरते तुम प्रभु निज-गुण-गण से विलसित हो। जिस विध शशि तम हरता शुचितम किरणावलिले विकसित हो ॥१॥ जीवन इच्छुक प्रजाजनों को जीवन जीना सिखा दिया। असि, मषि, कृषि आदिक कर्मों को प्रजापाल हो दिखा दिया ॥ तत्त्व-ज्ञान से भरित हुए फिर बुध-जन में तुम प्रमुख हुए। सुर-पति को भी अलभ्य सुख पा विषय-सौख्य से विमुख हुए ॥२॥ सागर तक फैली धरती को मन-वच-तन से त्याग दिया। सुनन्द-नन्दा वनिता तजकर आतम में अनुराग किया। आतम-जेता मुमुक्षु बनकर परीषहों को सहन किया। इक्ष्वाकू-कुल-आदिम प्रभुवर अविचल मुनिपन वहन किया ॥३॥ समाधि-मय अति प्रखर अनल को निज उर में जब जनम दिया। दोष-मूल अघ-घाति कर्म को निर्दय बनकर भसम किया ॥ शिव-सुख-वांछक भविजन को फिर परम तत्त्व का बोध दिया। परम-ब्रह्म-मय अमृत पान कर तुमने निज घर शोध लिया ॥४॥ विश्व-विज्ञ हो विश्व-सुलोचन बुध-जन से नित वंदित हो। पूरण-विद्या-मय तन धारक बने निरंजन नंदित हो ॥ जीते छुट-पुट वादी-शासन अनेकान्त के शासक हो। नाभि-नन्द हे! वृषभ जिनेश्वर मम-मन-मल के नाशक हो ॥५॥ आदिम तीर्थंकर प्रभो आदिनाथ मुनिनाथ! आधि व्याधि अघ मद मिटे तुम पद में मम माथ ॥१॥ शरण, चरण हैं आपके तारण तरण जहाज। भव-दधि-तट तक ले चलो! करुणाकर जिनराज ॥२॥
  16. सन्मति को मम नमन हो मम मति सन्मति होय। सुर नर पशु गति सब मिटे गति पंचम गति होय ॥१॥ स्वामी समंतभद्र हो मैं तो रहा अभद्र। मम उर में तुम आ बसो बन जाऊँ मैं भद्र ॥२॥ तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥३॥ चन्दन चन्दर चाँदनी से जिन-धुनि अति शीत। उसका सेवन मैं करूँ मन वच तन कर नीत ॥४॥ स्वयंभु-थुति का मैं करूं पद्यमयी अनुवाद। मात्र कामना मम रही मोह मिटे परमाद ॥५॥
  17. ‘समन्तभद्र की भद्रता' ग्रन्थ आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित 'स्वयंभू स्तोत्र' का हिन्दी अनुवाद है। इस रचना की पृष्ठभूमि यह है कि सन् १९७७ में आचार्यश्री जब सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि से पटेरा, दमोह (म० प्र०) पधारे तो वहाँ की जनता ने उनका श्रद्धा भक्तिपर्वक भव्य स्वागत किया। प्रतिदिन की भाँति जब एक दिन आचार्यश्री ने अत्यन्त भक्ति-प्रवणता के साथ प्रातः सस्वर ‘स्वयंभू स्तोत्र का पाठ किया, जिसे सुनकर सागर से दर्शनार्थ पहुँचे श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने उनके चरणों में निवेदन किया कि अधिकांश लोग संस्कृत नहीं जानते, अतः आप इसका पद्यानुवाद कर दीजिए, ताकि उसे कण्ठस्थ कर सकें और सस्वर पढ़ भी सकें। सागर की जैन समाज की यह प्रार्थना स्वीकृत तो हुई, परन्तु देर से, सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि, छतरपुर (म० प्र०) पर इसे प्रारम्भ किया और २९ मार्च, १९८० को महावीर जयन्ती के पुण्य अवसर पर इसे समाप्त किया और नाम रखा गया ‘समन्तभद्र की भद्रता'।
  18. पद्यानुवादक-प्रशस्ति लेखक कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़ें धीमान ॥१॥ निधि-नभ-नगपति-नयन का सुगन्ध-दशमी योग। लिखा ईसरी में पढ़ो बनता शुचि उपयोग ॥२॥ मंगल - कामना विहसित हो जीवनलता विलसित गुण के फूल। ध्यानी मौनी सूँघता महक उठी आ-मूल ॥१॥ सान्त करूँ सब पाप को हरूँ ताप बन शान्त। गति-अगति रति मति मिटे मिले आप निज प्रान्त ॥२॥ रग रग से करुणा झरे दुखी जनों को देख। विषय-सौख्य में अनुभवू स्वार्थ-सिद्धि की रेख ॥३॥ रस-रूपादिक हैं नहीं मुझ में केवलज्ञान। चिर से हूँ चिर औ रहूँ, हूँ जिनके बल जान ॥४॥ तन मन से औ वचन से पर का कर उपकार। यह जीवन रवि सम बने मिलता शिव-उपहार ॥५॥ हम, यम दम शम सम धरें, क्रमशः कम श्रम होय। देवों में भी देव हो अनुपम अधिगम होय ॥६॥ वात बहे मंगलमयी छा जावे सुख छाँव। गति सबकी सरला बने टले अमंगल भाव ॥७॥ मन ध्रुव निधि का धाम हो, क्यों? बनता तू दीन। है उसको बस देख ले, होकर निज में लीन ॥८॥
  19. आप्तमीमांसा सर पर फिरते छतर चँवर वर स्वर्णासन पर अधर लसे। ऊपर से सुर उतर उतर कर तुम पद में बन भ्रमर बसे ॥ इस कारण से पूज्य हमारे बने प्रभो! यह बात नहीं। इस विध वैभव माया-जाली भी पाते क्या? ज्ञात नहीं ॥१॥ जरा-रहित है रोग-रहित है उपमा से भी रहित रहा। तव तन अकालमरणादिक से रहित रहा द्युति सहित रहा ॥ इस कारण से भी तुम प्रभु तो पूज्य हमारे नहीं बने। देवों की भी दिव्य देह है देव सुखों में तभी सने ॥२॥ आगम, आगमकर्ता अनगिन तीर्थकरों की कमी नहीं। किन्तु किसी की कभी किसी से बनती नहिं है कमी यही ॥ कौन सही फिर कौन सही ना! इसीलिए सब आप्त नहीं। किन्तु एक ही इन सब में ही गुरु चेता' यह बात रही ॥३॥ कहीं किसी में मोहादिक की तरतमता वह विलस रही। अतः ईश तुम, तुम में जड़ से अघ की सत्ता विनस रही ॥ यथा कनक-पाषाण, कनक हो समुचित साधन जब मिलता। चरित-बोध-दृग आराधन से बाह्याभ्यन्तर मल मिटता ॥४॥ सूक्ष्म रहें कुछ, दूर रहें कुछ बहुत पुराने तथा रहें। पदार्थ सब प्रत्यक्ष रहे हैं किसी पुरुष के, पता रहे ॥ अनलादिक अनुमान-विषय हैं, स्पष्ट किसी को यथा रहें। इसीलिए सर्वज्ञ-सिद्धि हो साधु-सन्त सब बता रहे ॥५॥ ‘सो' तुम ही ‘सर्वज्ञ' रहे प्रभु दोष-कोष से मुक्त रहे। बोल, बोलते युक्ति-शास्त्र से युक्त रहें उपयुक्त रहें। विसंवाद तव मत में नहिं है पक्षपात से दूर रहा। अन्य मतों से बाधित भी ना क्षमता से भरपूर रहा ॥६॥ अपने को सर्वज्ञ मानकर मान-दाह में दग्ध हुए। सदा सर्वथा मतैकान्त के क्षार-स्वाद में दग्ध हुए। सुधा-सार है तव मत, जिसके सेवन से तो वंचित हैं। बाधित हो प्रत्यक्ष-ज्ञान से उनका मत अघ रंजित है ॥७॥ पोषक हैं एकान्त मतों के अनेकान्त से दूर रहें। निजके निज ही शत्रु रहें वे औरों के भी क्रूर रहें। उनके मत में पुण्य, पुण्य-फल, नहीं पापफल, पाप नहीं। नाथ! मोह नहिं, मोक्ष नहीं हो, इह भव, परभव आप नहीं ॥८॥ पदार्थ सारे भावरूप ही होते यदि यूँ मान रहे। सभी अभावों का फिर क्या हो निश्चित ही अवसान रहे ॥ सबके सब फिर विश्वरूप हों आदि नहीं फिर अन्त नहीं। आत्मरूप का विलय हुआ यूँ तुम मत में भगवन्त नहीं ॥९॥ प्रागभाव का मन से भी यदि करो अनादर घोर कहीं। घट पट आदिक कार्यद्रव्य हो अनादि फिर तो छोर नहीं ॥ अभाव जो प्रध्वंस रूप है उसका स्वागत नहिं करते। कार्यद्रव्य ये नियम रूप से अनन्तता को हैं धरते ॥१०॥ रहा ‘परस्पर अभाव' घट पट आदिक में जो एक खरा। उसे न माना, विशेष बिन, सब एक रूप हों, देख जरा ॥ अभाव जो अत्यन्त रूप है द्रव्य अचेतन चेतन में। जिस बिन चेतन बने अचेतन चेतनता आती तन में ॥११॥ अभाव को एकान्त रूप से मान रहे वे भूल रहे। भावपक्ष को पूर्ण रूप से उड़ा रहे प्रतिकूल रहे। प्रमाणता को आगम, अधिगम कभी नहिं फिर धर सकते। निजमत पोषण, परमत शोषण फिर किस विध हैं कर सकते ॥१२॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए। पदार्थ भावाभावात्मक हो ऐसा कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित, सब वृथा रही। दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥१३॥ भाव रूप ही रहा कथंचित् पदार्थ को जिनमत जानो। वही इष्ट फिर अभावमय हो रहा कथंचित् पहिचानो॥ उभय रूप भी, अवाच्य सो है, नहीं सर्वथा तथा रहा विविध नयों का लिया सहारा छन्द यहाँ यह बता रहा ॥१४॥ अपने अपने चतुष्टयों से सत्त्व रूप ही सभी रहें। किन्तु सभी परचतुष्टयों से असत्त्व ही गुरु सभी कहें॥ ऐसा यदि तुम नहीं मानते चलते पथ विपरीत कहीं। बिना अपेक्षा ‘सदसत् सब' यूँ कहना यह बुध-रीत नहीं ॥१५॥ अस्तिरूप औ नास्ति रूप भी उभय रूप यों तत्त्व रहा। अवक्तव्य भी, तीन रूप भी शेष भंग, मय सत्त्व रहा ॥ अनेकान्तमय वस्तुतत्त्व यह स्याद्वाद से अवगत हो। विसंवाद सब मिटते इससे सुधी जनों का अभिमत हो ॥१६॥ किसी एक जीवादि वस्तु में बात तुम्हें यह ज्ञात रहे। अस्तिपना वह नियम रूप से नास्तिपना के साथ रहे ॥ कारण सुन लो, एक वस्तु में कई विशेषण हैं रहते। ‘सो' सहभावी ज्यों सहधर्मी वैधर्मी का, गुरु कहते ॥१७॥ किसी एक जीवादि वस्तु में बात तुम्हें यह ज्ञात रहे। नास्तिपना वह नियम रूप से अस्तिपना के साथ रहे ॥ कारण सुन लो एक वस्तु में कई विशेषण हैं रहते। ‘सो' सहभावी ज्यों सहधर्मी वैधर्मी का, गुरु कहते ॥१८॥ शब्दों का जो विषय बना है विशेष्य उसकी यह गाथा। विधि औ निषेध वाला होता छन्द यहाँ है यह गाता ॥ यथा अनल हो साध्यधर्म जब धूम्र हेतु हो वहाँ सही। किन्तु नीर जब साध्य-धर्म हो धूम्र हेतु तब रहा नहीं ॥१९॥ इसी तरह ही शेष भंग भी साधित हो गुरु समझाते। समुचित नय के प्रयोग द्वारा सब उलझन को सुलझाते ॥ कारण इसमें किसी तरह भी विरोध को कुछ जगह नहीं। हे मुनिनायक! तव शासन में मुनि यह रमता वजह यही ॥२०॥ इसविध निषेध-विधिवाली यह पद्धति स्वीकृत जब होती। बुधस्वीकृत वह वस्तुव्यवस्था कार्यकारिणी तब होती ॥ ऐसा यदि ना मान रहे तुम अर्थशून्य सब कार्य रहें। बाह्याभ्यन्तर साधन भी वे व्यर्थ रहें यूँ आर्य कहें ॥२१॥ अनन्त धर्मों का आकर ही प्रति पदार्थ का बाना हो। उन उन धर्मों में पदार्थ का भिन्न भिन्न ही भाना हो ॥ एक धर्म जब मुख्य बना ‘सो' शेष धर्म सब गौण हुए। स्याद्वाद का स्वाद लिया जो विवाद सारे मौन हुए ॥२२॥ एक रहा है अनेक भी है, उभय रूप भी तत्त्व रहा। अवक्तव्य भी शेष भंगमय विविध रूप यूँ सत्त्व रहा संशय-मथनी सप्तभंगिनी का प्रयोग यूँ सुधी करें। उचित नयों से, नय विधान में कुशल रहें, सुख सभी वरें ॥२३॥ द्वैत नहीं अद्वैत तत्त्व है मतैकान्त का यह कहना। अपने वचनों से बाधित है विरोध-बहाव में बहना ॥ क्योंकि कारकों तथा क्रियाओं में दिखता वह भेद रहा। और एक खुद, खुद का किस विध जनक रहा, यह खेद महा ॥२४॥ मानो तुम अद्वैत विश्व को पाप-पुण्य दो कर्म नहीं। कर्म-पाक फिर सुख, दुख दो ना इह भव, परभव धर्म नहीं ॥ ज्ञान तथा अज्ञान नहीं दो द्वैत-भाव का नाश हुआ। बन्ध मोक्ष फिर कहाँ रहे दो यह कहना निज हास हुआ ॥२५॥ यदि तुम मानो किसी हेतु से सिद्ध हुआ अद्वैत रहा। हेतु साध्य दो मिलने से फिर सिद्ध हुआ वह द्वैत रहा ॥ अथवा यदि अद्वैत सिद्ध हो बिना हेतु यूँ मान रहे। बिना हेतु फिर द्वैत सिद्ध हो इसविध क्यों ना मान रहे ॥२६॥ बिना हेतु के अहेतु ना हो जैसा सबको अवगत है। बिना द्वैत अद्वैत नहीं हो वैसा ही यह बुधमत है॥ निषेध-वाचक वचन रहें जो विधि-वाचक के बिना नहीं। निषेध उसका ही होता जो निषेध्य, जिसके बिना नहीं ॥२७॥ पृथक् पृथक् ही पदार्थ सारे ऐसा यदि एकान्त रहा। गुणी तथा गुण अभिन्न होते पता नहीं? क्या भ्रान्त रहा ॥ पृथक् नाम का गुण यदि न्यारा गुणी तथा गुण से होता। बहु अर्थों में ‘सो' है कहना विफल आपपन से होता ॥२८॥ द्रव्य रूप एकत्व भाव को नहीं मानते यदि बुध हो। जनन मरण आदिक किसके हो प्रेत्यलोक फिर किस विध हो ॥ और नहीं समुदाय गुणों का सजातीयता बने नहीं। तथा नहीं संतान श्रृंखला और दोष बहु घने यहीं ॥२९॥ ज्ञान ज्ञेय से भिन्न रहा यदि चिदात्म से भी भिन्न रहा। असत् ठहरते ज्ञान ज्ञेय दो सत्वत् फिर क्या? प्रश्न रहा ॥ अभाव जब हो ज्ञान-भाव का ज्ञेय-भाव फिर कहाँ टिके। बाह्याभ्यन्तर ज्ञेय शून्य फिर हे जिन! परमत कहाँ टिके ॥३०॥ समान जो सामान्य मात्र को विषय बनाते वचन सभी। विशेष वचनातीत वस्तु है बौद्धों का है कथन यही ॥ अतः नहीं सामान्य वस्तुतः वचन सत्य से वंचित हो। ऐसे वचनों से फिर कैसे कथन कथ्य श्रुति संगत हो ॥३१॥ पृथक्पना एकत्वपना मय पदार्थ कहते तने हुए। स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महा विरोधक बने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥३२॥ पृथक्पना एकत्वपना यदि भ्रातृपना को छोड़ रहें। दोनों मिटते क्योंकि परस्पर दोनों का वह जोड़ रहें॥ लक्षण से तो भिन्न भिन्न हों किन्तु द्वयात्मक द्रव्य कथा। अन्वय आदिक भेद भले हो तन्मय साधन भव्य यथा ॥३३॥ सत् सबका सामान्य रूप है इसीलिए बस एक सभी। निज निज गुण लक्षण धर्मों से पृथक् परस्पर एक नहीं ॥ कभी विवक्षित भेद रहा हो अभेद किंवा रहा कभी। बिना हेतु के नहीं सहेतुक बुध साधित है रहा सही ॥३४॥ यथार्थ है यह प्रति पदार्थ में अमित गुणों का वास रहा। वर्णन उनका युगपत् ना हो वर्षों से विश्वास रहा ॥ इसीलिए वक्ता पर आश्रित मुख्य गौणता रहती है। मुख्य गौण भी सत् ही होता असत् नहीं श्रुति कहती है ॥३५॥ भेद तथा है अभेद दोनों नहिं है ऐसा मत समझो। प्रमाण के ये विषय रहे हैं कुछ सोचो तुम मत उलझो ॥ एक वस्तु में इनका रहना नहीं असंगत, विदित रहे। मुख्य गौण की यही विवक्षा जिनमत में ही निहित रहें ॥३६॥ नित्य रूप एकान्त पक्ष का यदि तुम करते पोषण हो। पदार्थ में परिणमन नहीं हो क्रिया मात्र का शोषण हो। कर्ता किसका पहले से ही कारक का वह नाम नहीं। प्रमाण फिर क्या? रहा बताओ प्रमाण-फल का काम नहीं ॥३७॥ प्रमाण कारक से यदि मानो पदार्थ भासित होते हैं। जैसे इन्द्रियगण से निज निज विषय प्रकाशित होते हैं। नित्य रहे हैं वैसे वे भी विकार किस में किस विध हो। जिनमत से जो विमुख रहे हों सुख तुम मत में किस विध हो ॥३८॥ सांख्य पुरुष सम सदा सर्वथा कार्य रहे सद्रूप रहे। यदि यूँ कहते, किसी कार्य का उदय नहीं मुनि भूप कहे॥ फिर भी यदि तुम विकारता की करो कल्पना वृथा रही। नित्य रूप एकान्त पक्ष की वही बाधिका व्यथा रही ॥३९॥ पुण्य क्रिया नहिं पाप क्रिया नहिं औ सुख दुख फल नहीं रहे। जन्मान्तर फिर कैसा होगा मूल बिना फल नहीं रहे। कर्म-बन्ध की गंध नहीं जब मोक्षतत्त्व की बात नहीं। ऐसे मत के नायक नहिं जिन! मुमुक्षुओं के नाथ सही ॥४०॥ क्षणिक रूप एकान्त पक्ष के आग्रह का यदि स्वागत हो। प्रेत्यभाव का अभाव होगा शिवसुख भी ना शाश्वत हो ॥ स्मरणादिक ज्ञानों का निश्चित क्यों ना ‘सो अवसान रहा। किसी कार्य का सूत्रपात नहिं फल का फिर अनुमान कहाँ? ॥४१॥ कार्य सर्वथा असत्य ही हो ऐसा तव मत मूल रहा। कार्य सभी आकाशकुसुम सम कभी न जनमें भूल अहा ॥ उपादान कारण सम होता कार्य नियम यह नहीं रहा। किसी कार्य के होने में फिर संयम भी वह नहीं रहा ॥४२॥ तथा कार्य-कारण-भावादिक क्षणिक पंथ में रहे कदा। आपस में ना अन्वय रखते अन्य अन्य ही रहे सदा ॥ जिस विध है सन्तानान्तर से भिन्न रूप सन्तान रही। एकमेक सन्तान नहीं है सन्तानी से जान सही ॥४३॥ पृथक्-पृथक् सब यदपि रहा पर अनन्य सा टिमकार रहा। और वही उपचार कहो यूँ क्यों न झूठ उपचार रहा ॥ तथा मुख्य जो अर्थ रहा है कभी नहीं उपचार रहा। बिना मुख्य उपचार नहीं हो सन्तों का उद्गार रहा ॥४४॥ सदसत् उभयानुभयात्मक जो वस्तु धर्म का कथन रहा। सब धर्मों के साथ उचित ना सुगत पन्थ का वचन रहा ॥ सन्तानी सन्तान भाव से अन्य रहा या अन्य नहीं। कह नहिं सकते अवक्तव्य है इसीलिए बुध मान्य नहीं ॥४५॥ सन्तानी सन्तानन में यदि सदादि चहुविध कथन नहीं। अवक्तव्यमय वस्तु धर्म में सदादि किस विध वचन सही ॥ किसी तरह भी किसी धर्म का कथन नहीं फिर वस्तु नहीं। तुम्हें विशेषण विशेष्य रीता वस्तु इष्ट ही अस्तु कहीं ॥४६॥ अपने मन से होकर परमन से पदार्थ ओझल होता। जिसकी सत्ता विद्यमान है निषेध उस ही का होता ॥ किन्तु यहाँ पर किसी भाँति भी यदि जिसका अस्तित्व नहीं। उसका विधान निषेध ना हो सुनो जरा वस्तुत्व यही ॥४७॥ सभी तरह के धर्मों से यदि पूर्ण रूप से रहित रहा। अवक्तव्य वह वस्तु नहीं हो मतैकान्त से सहित रहा ॥ आप पने से वस्तु वही पर अवस्तु पर पन से होती। अनेकान्त की पूजा फलतः हम से तन मन से होती ॥४८॥ अवक्तव्य हो प्रति पदार्थ में धर्म रहे कुछ औ न रहे। ऐसा यदि है बोल रहे क्यों बन्द रहे मुख मौन रहे॥ यदि मानो हम बोल रहे ‘सो' मात्र रहा उपचार अहा। मृषा रहा उपचार सत्य से दूर रहा बिन सार रहा ॥४९॥ अवक्तव्य, क्यों अभाव है या उसका ही नहिं बोध रहा। कथन शक्ति का या अभाव है जिस कारण अवरोध रहा ॥ जब कि सुगत अति विज्ञ बली है तुम सबकी दृग खोल रहा । मायावी बन बोल रहा क्या? लगता यह सब पोल रहा ॥५०॥ हिंसा का संकल्प किया वह कभी न हिंसा करता है। भाव किये बिन हिंसा करता चित्त दूसरा मरता है॥ इन दोनों को छोड़ तीसरा चित्त बन्ध में है फँसता। फँसा मुक्त नहिं और मुक्त हो क्षणिक पंथ पर जग हँसता ॥५१॥ कभी किसी का नाश हुआ ‘सो' रहा अहेतुक सुगत कहे। हिंसक से हिंसा होती है यह कहना फिर गलत रहे। और चित्त की सन्तति का यदि नाश मोक्ष का मूल रहा। समतादिक वसु साधन से हो मोक्ष मानना भूल रहा ॥५२॥ कपाल आदिक उद्भव में तो हेतु अपेक्षित रहता हो। घट आदिक के किन्तु नाश में हेतु उपेक्षित रहता हो ॥ इन दोनों में विशेषता कुछ रही नहीं कुछ भेद नहीं। कहने भर को भेद रहा है हेतु एक है खेद यही ॥५३॥ रूपादिक की नामादिक की विकल्प की जो सन्तति है। कार्य नहीं ‘सो' औपचारिकी कहती सौगत की मति है॥ विनाश विकास फिर किसके हो तथा सततता किसकी हो। भला बता! आकाशकुसुम को आँख देखती किसकी ओ ॥५४॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महा विरोधक बने हुए। पदार्थ नित्यानित्यात्मक ही ऐसा कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष सभी एकान्तवाद में आते हैं श्रुति बता रही ॥५५॥ स्मृति पूर्वक प्रत्यक्ष ज्ञान वह बिना हेतु का नहिं होता। अतः प्रवाहित तत्त्व कथंचित् नित्य रहा यह सुन श्रोता ॥ क्षणिक कथंचित् क्योंकि उसी की प्रतिपल मिटती पर्यायें। कदाग्रही के यह ना बनता है जिन तव मत समझायें ॥५६॥ सभी दशाओं में ज्यों-का-त्यों द्रव्य सदा यह लसता है। द्रव्य कभी सामान्य रूप से नहीं जनमता नशता है॥ पर्यायों से किन्तु जनमता क्रमशः मिटता रहता है। एक द्रव्य में जनन मरण स्थिति घटती, जिनमत कहता है ॥५७॥ नियम रहा यह कारण मिटता दिखा कार्य का मुख प्यारा। कारण, कारण लक्षण न्यारा तथा कार्य का भी न्यारा ॥ किन्तु कार्य कारण दोनों की जाति एक ही है भाती। जाति क्षेत्र भी भिन्न रहे तो गगनकुसुम की स्थिति आती ॥५८॥ एक पुरुष तो कलश चाहता, एक मुकुट को, देख दशा। कलश मिटा जब मुकुट बनाया एक रुलाया एक हँसा ॥ निरख कनक की स्थिति कनकार्थी शोक किया ना नहीं हँसा। मिटना बनना स्थिर भी रहना रहा सहेतुक, नहीं मृषा ॥५९॥ केवल दधि का त्याग किया है दुग्ध-पान वह करता है। दुग्ध-पान का त्याग किया है दधि का सेवन करता है। दोनों का सेवन ना करता जो है गोरस का त्यागी। तत्त्व त्रयात्मक रहा इसी से गुरु कहते यूं बड़भागी ॥६०॥ कार्य तथा कारण ये दोनों रहें परस्पर न्यारे हैं। तथा गुणी से गुण भी होते न्यारे न्यारे सारे हैं। विशेष से सामान्य सर्वथा सदा भिन्न ही रहता है। ऐसा यदि एकान्त रूप से वैशेषिक मत कहता है ॥६१॥ एक कार्य के अनेक कारण होते यह फिर नहिं रहता। क्योंकि एक में भाग नहीं हैं बहुरूपों में वह बहता ॥ एक कार्य यदि बहु भागों में भाजित हो फिर एक कहाँ?। कार्य-विषय में पर-मत में यूँ दोषों का अतिरेक रहा ॥६२॥ कार्य तथा कारण ये न्यारे देश-काल वश भी न्यारे। घट पट में ज्यों भेदात्मक व्यवहार रहा है सुन प्यारे॥ तथा मूर्त सब कार्य कारणों की स्थिति पूरी जुदी रही। उसमें फिर वह एक देशता कभी न बनती सही रही ॥६३॥ कार्य तथा कारण में होता आश्रय-आश्रयि भाव रहा। समवायी-समवाय-बन्ध तब स्वतंत्र ना यह भाव रहा ॥ बन्ध-रहित संबंध रहा यह तुम में सब निर्बन्ध अरे। समवायी-समवाय निरे जब आपस में कब बन्ध करे ॥६४॥ नित्य एक सामान्य रहा है उसी भाँति समवाय रहा। एक एक अवयव में व्यापे यह जिन का व्यवहार रहा ॥ आश्रय के बिन रह नहिं सकते फिर इनकी क्या कथा रही। मिटतीं बनतीं क्षणिकाओं में कौन व्यवस्था बता सही ॥६५॥ भिन्न रहा समवाय सर्वथा तथा भिन्न सामान्य रहा। आपस में फिर बन्धन इनका किस विध कब वह मान्य रहा ॥ इनसे फिर गुण पर्ययवाले पदार्थ का भी बन्ध नहीं। फिर क्या कहना, गगनकुसुम सम तीनों की ही गन्ध नहीं ॥६६॥ अणु अणु मिलकर स्कन्ध बने ना चूंकि सभी वे निरे निरे। स्कन्ध बने तो अविभागी ना रह सकते अणु निरे परे ॥ अवनि अनल औ सलिल अनिल ये भूतचतुष्टय भ्रान्ति रही। अन्यपना या अनन्यपनमय मतैकान्त में शान्ति नहीं ॥६७॥ कार्य-मात्र की भ्रान्ति रही तो अणु स्वीकृति भी भ्रान्ति रही। क्योंकि कार्य का दर्शन ही तो कारण का अनुमान सही ॥ भूत चतुष्टय औ अणु का जब अभाव निश्चित होता हो। उनके गुण-जात्यादिक का वह वर्णन क्यों ना? थोथा हो ॥६८॥ एकमेक यदि कार्य कारण हो एक मिटे इक शेष रहा। इनमें अविनाभाव रहा ‘सो' रहा शेष निश्शेष अहा ॥ दो की संख्या भी नहिं टिकती यदि मानो वह कल्पित है। कल्पित सो मिथ्या मानी है मात्र सांख्य-मत जल्पित है ॥६९॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग जैन के महाविरोधक बने हुए। गुण, गुणधर आदिक उभयात्मक ऐसा कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७०॥ द्रव्य तथा पर्यायों में वह रहा कथंचित् ऐक्य सही। कारण? दोनों का प्रदेश है एक रहा व्यतिरेक नहीं ॥ परिणामी परिणाम रहे हैं द्रव्य तथा ये पर्यायें। शक्तिमान यदि द्रव्य रहा तो रही शक्तियाँ पर्यायें ॥७१॥ इसी तरह इन दोनों का बस भिन्न-भिन्न ही नाम रहा। संख्या इनकी निरी निरी है न्यारे लक्षण काम रहा ॥ यथार्थ में यह अनेकान्त से बनता सुन नानापन है। परन्तु हा! एकान्त पक्ष में तनता मनमानापन है॥७२॥ गुणी गुणादिक सदा सर्वदा आपेक्षिक यदि साधित हों। दोनों कल्पित होने से वे सिद्ध नहीं हों बाधित हों ॥ अनपेक्षिक ही सिद्धि उन्हीं की ऐसा यदि तुम मान रहे। विशेषता सामान्य पना ना सहचर का अवसान रहे ॥७३॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए। आपेक्षिक अनपेक्षिक द्वयमय ‘पदार्थ' कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७४॥ धर्म बिना धर्मी नहिं धर्मी के बिन भी वह धर्म नहीं। रहा परस्पर अन्वय इनका आपेक्षित है मर्म यही ॥ स्वरूप इनका किन्तु स्वतः है ज्ञापक कारक अंग यथा। ज्ञान स्वत: तो ज्ञेय स्वत: है कर्म-करण निजरंग कथा ॥७५॥ हेतु मात्र से तत्त्व ज्ञात हो सिद्ध हो रहे काम सभी। इन्द्रिय आगम आप्तादिक फिर व्यर्थ रहे कुछ काम नहीं ॥ या आगम से तत्त्व ज्ञात हो सबके आगम मौलिक हो। उनमें वर्णित पदार्थ-सारे लौकिक भी पर-लौकिक हों ॥७६॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए। तत्त्व ज्ञात हो शास्त्र, हेतु से ऐसे कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७७॥ वक्ता यदि वह आप्त नहीं तो वस्तु तत्त्व का बोध न हो। मात्र हेतु से साधित जो है बोध नहीं वह बोझ अहो! परन्तु वक्ता आप्त रहा तो वचन उन्हीं के शास्त्र बने। उन शास्त्रों से तत्त्व ज्ञात कर भविक सभी सुख-पात्र बने ॥७८॥ भीतर के निज-ज्ञान मात्र से जाने जाते अर्थ रहें। ऐसा यदि एकान्त रहा तो मनस वचन सब व्यर्थ रहें। उपदेशादिक प्रमाण नहिं फिर सभी प्रमाणाभास रहे। एकान्तिक आग्रह करने से अपना ही उपहास रहे॥७९॥ साध्य तथा साधन का जब भी ज्ञान हमें जो होता है। मात्र रहा वह ज्ञान एक है और नहीं कुछ होता है॥ ऐसा यदि एकान्त रहा तो कहाँ साध्य फिर साधन हो। और, पक्ष में साध्य-दर्शिका निजी-प्रतिज्ञा बाधक हो ॥८०॥ बाह्य अर्थ परमार्थ रहे हैं अंतरंग कुछ खास नहीं। ऐसा यदि एकान्त रहा तो रहा प्रमाणाभास नहीं ॥ वस्तु-तत्त्व का कथन यदपि जो यद्वा तद्वा करते हैं। उन सबके सब कार्य सिद्ध हों वितथ सत्यता वरते हैं ॥८१॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग जैन के महाविरोधक बने हुए। बाह्याभ्यन्तर उभय रूप है ‘पदार्थ' कहते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥८२॥ बना ज्ञान जब ज्ञेय स्वयं का अन्तरंग में रहता है। रहा प्रमाणाभास लुप्त तब यही जिनागम कहता है॥ किन्तु ज्ञान जब बाह्य अर्थ को ज्ञेय बनाता तनता है। बने प्रमाणाभास वही तब प्रमाण भी बस बनता है॥८३॥ कहा, 'जीव' यूँ शब्द रहा यह बाह्य अर्थ से सहित रहा। हेतु शब्द ज्यों नाम रहा है निजी अर्थ से विहित रहा ॥ अर्थ शून्य मायादिक का ही नामकरण हो नहिं ऐसा। प्रमाण का भी नाम रहा है सार्थक मायादिक वैसा ॥८४॥ बुद्धि तथा वह शब्द, अर्थ ये संज्ञायें हैं गुरु कहते। बुद्धयादिक के वाच्यभूत जो वाचक बन करके रहते ॥ उन उन सम हो बुद्धयादिक ये बोधरूप भी तीन रहें। उनको भासित करते दर्पण में पदार्थ आ लीन रहें ॥८५॥ वक्ता श्रोता ज्ञाता के जो बोध वचन है ज्ञान तथा। न्यारे न्यारे रहे कथंचित् क्रमशः सुन तू मान तथा ॥ यदि मानो वे रहीं भ्रान्तियाँ प्रमाण भी फिर भ्रान्त रहा। बाह्याभ्यन्तर भ्रान्त रहे तो अन्धकार आक्रान्त रहा ॥८६॥ शब्दों में भी तथा बुद्धि में प्रमाणता तब आ जाती। बाह्य अर्थ के रहने पर ही, नहीं अन्यथा, श्रुति गाती ॥ तथा सत्य की असत्यता की रही व्यवस्था यही सही। अर्थ-लाभ में अलाभ में यों क्रमशः, वरना! कभी नहीं ॥८७॥ दैव दिलाता सभी सिद्धियाँ ऐसा कहता पता चला। पौरुष किसविध दैव-विधाता हो सकता तू बता भला ॥ दैव दैव को मनो बनाता मोक्ष कभी फिर मिले नहीं। व्यर्थ रहा पुरुषार्थ सभी का मोह कभी फिर हिले नहीं ॥८८॥ पौरुष से ही सभी सिद्धियाँ मिलती कहता तू ऐसा। भला बात दैवानुकूल ही पौरुष चलता यह कैसा ॥ पौरुष से ही सदा सर्वथा पौरुष आगे यदि चलता। सभी जीव पुरुषार्थशील हैं सबका पौरुष कब फलता ॥८९॥ स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए। दैव तथा पौरुष दोनों का आग्रह करते तने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित, सब वृथा रहीं। दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९०॥ अबुद्धिपूर्वक जीवात्मा का पौरुष जब वह चलता है। सुख दुख का जो भी मिलना है वही दैव का फलना है॥ किन्तु बुद्धिपूर्वक जीवात्मा पौरुष जब वह करता है। तब जो सुख दुख मिलता, समझो, पौरुष से वह झरता है॥९१॥ पर को दुख देने भर से यदि पापकर्म ही बँधता है। पर को सुख-पहुँचाने से यदि पुण्य कर्म ही बँधता है॥ कई अचेतन विष आदिक औ कषाय विरहित मुनि त्यागी। निमित्त दुख-सुख में होने से पाप-पुण्य के हों भागी ॥९२॥ जिससे निज को सुख होता सो पाप-बन्ध का कारण है। जिससे निज को दुख होता सो पुण्य-बन्ध का कारण है। ऐसा यदि एकान्त रहा तो विराग मुनि, औ बुध जन भी। क्यों ना होंगे दोनों क्रमशः पुण्य-पाप के भाजन ही ॥९३॥ उभय रूप एकान्त मान्यता स्वयं बना कर तने हुए। स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए ॥ अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९४॥ यदा कदा अपने में या पर में जो सुख दुख हो जाते। क्रमशः विशुद्धि संक्लेशों के सुनो अंग वे कहलाते ॥ यही एक कारण पा आस्रव पुण्य-पाप का हो जाता। वरना आस्रव तत्त्व कहाँ हो अरहन्तों का ‘मत' गाता ॥९५॥ कर्मबन्ध अज्ञानमात्र से होता दें यदि मान रहा। ज्ञेय रहें ‘सो अनन्त' फिर क्यों होगा केवलज्ञान महा ॥ अल्प ज्ञान से मोक्ष मिले यदि ऐसा कहता ‘अन्ध' अहा। बहुत रहा अज्ञान, इसी से मोक्ष नहीं, विधि-बन्ध रहा ॥१६॥ उभयरूप एकान्त मान्यता स्वयं बनाकर तने हुए। स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए ॥ अवाच्यमत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही। दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९७॥ मोह-लीन अज्ञान भाव से कर्मबन्ध वह होता है। मोह-हीन अज्ञान भाव से कर्मबन्ध वह खोता है॥ अल्पज्ञान भी मोहरहित जो मोक्ष-महल में ले जाता। वरना, विधि-बन्धन ही भाई मोह-गहल में क्यों जाता ॥९८॥ कामादिक ये जहाँ उपजते सुनो वही संसार रहा। जिसका संचालन होता है कर्म-बन्ध अनुसार रहा ॥ कर्मों का कारण जीवों का अपना-अपना भाव रहा। जीव भव्य ये अभव्य भी हैं चिर से बस भटकाव रहा ॥९९॥ भव्यपना औ अभव्यपन ये जीवों के बस! आप रहें। मूंग मोठ कुछ पकते, कुछ नहिं, भले अनल का ताप सहे ॥ भव्यपने की व्यक्ति सादि हो अभव्यपन की अनादिनी। स्वभाव को कब तर्क छू सकी? श्रुति गाती सुख-सुदायिनी ॥१००॥ लोकालोकालोकित करता युगपत् केवलज्ञान रहा। वही आपका तत्त्वज्ञान जिन! प्रमाण है वरदान रहा ॥ तथा नयात्मक ज्ञान रहा जो स्याद्वाद से है भाता। विषय बनाता क्रमशः सबको ‘प्रमाण' फलत: कहलाता ॥१०१॥ आदिम प्रमाण का फल सुन लो विरागपन है अमल रहा। त्याज्य-त्याग में ग्राह्य-ग्रहण में प्रीति इतर का सुफल रहा ॥ या विनाश अज्ञानभाव का स्याद्वाद का फल माना। किसमें हित औ अहित निहित है आत्मबोध का बल पाना ॥१०२॥ सही अर्थ से बात कराता स्यात्पद शाश्वत सार रहा। अनेकान्त को साथ कराता दिखा वस्तु का पार अहा ॥ रहा ज्ञेय लो उसके प्रति ही सदा विशेषण धार रहा। सो श्रुतिधर के हे जिनवर! तव वचनों का श्रृंगार रहा ॥१०३॥ दूर रहा, एकान्तवाद से स्याद्वाद वह कहलाता। मूल रहा सापेक्षवाद का तभी कथंचित् विधि-दाता ॥ सप्तभंग-मय कथन-प्रणाली समयोचित ही अपनाता। त्याज्य ग्राह्य क्या? तथा बताता, रखें उसी से अब नाता ॥१०४॥ स्याद्वादमय ज्ञान रहा औ पूरण केवलज्ञान रहा। सकल-ज्ञेय को विषय बनाते दोनों सो परमाण अहा ॥ परोक्ष औ प्रत्यक्ष रहें ये इनमें से यदि एक रहा। वस्तुतत्त्व का कथन नहीं हो बोध नहीं कुछ नेक रहा ॥१०५॥ साध्य-धर्म को विपक्ष से तो सदा बचाने दक्ष रहा। किन्तु साथ ही साध्य-सिद्धि में लेता अपना पक्ष रहा ॥ स्याद्वादमय प्रमाण का जो सुनो अर्थ है विषय रहा। उसी अर्थ की विशेषता को विषय बनाता सुनय रहा ॥१०६॥ कई भेद उपभेद कई हैं, सुनो, नयों के, जता रहे। भिन्न-भिन्न एकान्तरूप से विषय नयों के तथा रहे॥ त्रैकालिक उन विषयों का ही एकतान यह द्रव्य रहा। और द्रव्य भी अनेक विध है उपादेय निज द्रव्य रहा ॥१०७॥ भिन्न-भिन्न नय-विषयों का वह समूह मिथ्या नहिं होता। क्योंकि सुनो तो हठाग्रही ना जिनमत के नय हे! श्रोता ॥ रहें परस्पर निरपेक्षित जो, मिथ्या नय हैं कहलाते। सापेक्षित नय समीचीन हो वस्तु, जनाते वह तातें ॥१०८॥ वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन जब, जब वचनों से होता है। विधान का या निषेध का तब तब आलम्बन होता है॥ निजवश ही तो वस्तु रही है परवश सो वह रही नहीं। यही व्यवस्था रही, अन्यथा सूनी, सब कुछ रही नहीं ॥१०९॥ वस्तुतत्त्व यह तदतत् होता यह कहना तो समुचित है। किन्तु वस्तु तो तत् ही है बस! यह प्रलाप तो अनुचित है॥ असत्य वचनों से फिर भी यदि तत्त्वदेशना होती हो। कैसी हित करने वाली ‘सो' दुःख लेश ना हरती हो ॥११०॥ नियम रहा प्रत्येक वचन वह निजी अर्थ का पक्ष धरे। अन्य वचन के किन्तु अर्थ का निषेध करने दक्ष अरे॥ सुगत कहें सामान्य स्वार्थ को इसी भाँति बस हम माने। तो फिर सबको गगनपुष्प सम जाने माने पहिचाने ॥१११॥ यदि मानो सामान्य वचन वह विशेष के प्रति मौन रहा। मिथ्या सो एकान्त रहा है सत्य वचन फिर कौन रहा ॥ सुनो! इष्ट के परिचय देने में सक्षम ‘स्यात्कार' रहा। सत्य अर्थ का चिह्न यही है, सो उसका सत्कार रहा ॥११२॥ विधेय है प्रतिषेध्य वस्तु का अविरोधी सुन आर्य महा। कारण, है वह इष्ट कार्य का अंग रहा अनिवार्य अहा ॥ आपस में आदेयपना औ हेयपना का पूरक है। स्याद्वाद बस यही रहा सब वादों का उन्मूलक है॥११३॥ विराग का उपदेश सही है सराग का उपदेश नहीं। यही ज्ञान बस ध्येय रहा है और आस कुछ लेश नहीं ॥ लिखी आप्तमीमांसा फलतः शास्त्रबोध अनुसार रहा। आत्महितैषी बनो सुनो यह मात्र बोध निस्सार रहा ॥११४॥
  20. सादर उर में बिठा वीर को जिनके विधि सब विलय हुए। समवसरण की श्री शोभा से शोभित, गुणगण निलय हुए ॥ आतम दर्शक आतमशासन नामक आगम की रचना। भविकजनों को मोक्ष मिले बस करूँ प्रयोजन औ कुछ ना ॥१॥ सुख की आशा करते-करते युग-युग अब तक बीत गये। भव-भव, भव-दुख सहते-सहते भव-दुख से अति भीत हुए ॥ मनवांछित फल मिले तुम्हें बस यहीं भावना भाकर मैं। दुख का हारक सुख का कारक पथ्य कहूँ जिन चाकर मैं ॥२॥ इसका सेवन करते आता यदि कुछ-कुछ कटु स्वाद मनो। किन्तु अन्त में मधुर-मधुरतम मुख बनता निर्बाध बनो ॥ स्वल्प मात्र भी इसीलिए मत इससे मन में भय लाना। रोग मिटाने रोगी चखता जिस विधि कटु औषध नाना ॥३॥ करुणा रस पूरित उर वाले जग-हित में नित निरत रहें। दुर्लभ जग में, सुलभ अदयजन वाचाली बस फिरत रहें ॥ ढुलमुल ढुलमुल-नभ में डोले बिन जल बादल बहुत बके। सजल जलद हैं जल वर्षाते कम मिलते मन मुदित भले ॥४॥ जन-मन हारक पर निंदक नहिं विविध प्रश्न भी सहन करें। उत्तर मुख में रखते प्रतिभा, निधि गुणगण को ग्रहण करें॥ शमी दमी व्यवहार चतुर हैं शास्त्र ज्ञान के सही धनी। हित मित मिश्री मिश्रित प्रकटित बोल बोलते सुधी गणी ॥५॥ शिवपथ पथिकों को पथदर्शित करने रत बोधित भवि को। दोष रहित श्रुत पूरण धरते धरते शुचि चारित छवि को ॥ निरीह निर्मद लोक विज्ञ मृदु बुधजन से भी वंदित हैं। यतिपति गुण ये जिनमें वह 'गुरु' और गुणों से मंडित हैं ॥६॥ मम हित किसमें निहित रहा यों चिंतित दु:खित प्रति श्वासा। धर्म-श्रवण, निर्णय, धारण बल रखे भव्य, शिव-सुख आशा ॥ प्रमाण नय से सिद्ध, दयामय धर्म श्रवण का अधिकारी। दूर दुराग्रह से हो सुनकर धर्म धारता सुखकारी ॥७॥ हिंसादिक इन पाप कर्म कर, प्राणी पल-पल दुख पाता। लोक-मान्य यह सूक्ति रही है धर्म कर्म कर सुख पाता ॥ सुर-सुख या शिव-सुख चाहो यदि पूर्ण पाप का त्याग करो। चर्म-राग तज, धर्म भाव में भाग्य मान अनुराग करो ॥८॥ सभी चाहते शिव-सुख पाना मिले शीघ्र शिव करम नशे। वह शुचि व्रत से, व्रत धी से, धी आगम से, श्रुति परम वशे ॥ श्रुति जिन से जिन दोष रहित हो, दोष सहित जिन आप्त नहीं। सही समझ शिव-सुखद आप्त को भजो तजो अघ व्याप्त मही ॥९॥ द्विविध त्रिविध दशविध समदर्शन मदादि बिन भव काम हने। संवेगादिक से वर्धित, त्रय वितथ बोध शुचि-धाम बने ॥ मोक्ष महल सोपान प्रथम जो शिव पथ के सब पथिकों को। तत्त्वों अर्थों का विषयक है सेव्य सदा बुधपतियों को ॥१०॥ आज्ञा उद्भव मार्ग समुद्भव सदुपदेश-भव, यथा रहा। सूत्र समुद्भव, बीज समुद्भव, समास उद्भव तथा रहा ॥ विस्तृत उद्भव अर्थ समुद्भव इस विध दश विध दर्शन है। आवगाढ़, परमावगाढ़ है गाता यह जिन-दर्शन है ॥११॥ मोह नाश से जिन की आज्ञा पालन आज्ञा दर्शन है। ग्रन्थ-श्रवण बिन शिव सुख पथ में रुचि हो मारग दर्शन है॥ परम पूततम पुरुष कथा सुन परम दृष्टि जो पाना है। ग्रन्थ स्रजक गणधर ने उसको सदुपदेश-भव माना है ॥१२॥ पदार्थ दल को अल्प जान रुचि हो समासभव वही भला। शास्त्र अर्थ जो अगम ज्ञात हो किसी बीज पद सही खुला ॥ मोह कर्म के वर उपशम से बीज समुद्भव दृष्टि खिली ॥ मुनि-व्रतविधि-सूचक सूतर सुन सूत्र दृष्टि वह दृष्टि मिली ॥१३॥ द्वादशांग सुन श्रद्धा करना वह है विस्तृत दृष्टि रही। अंग बाह्य बिन सुन तदंश में रुचि हो सार्थक दृष्टि वही ॥ मथन अंग का अंग बाह्य का दृष्टि वही ‘अवगाढ़ रही। पूर्ण ज्ञान में आगत में रुचि दृष्टि ‘परम-अवगाढ़' वही ॥१४॥ मन्द मन्दतम कषाय कर, धर बोध चरित खरतर तपना। वृथा भार पाषाण खण्ड सम समदर्शन बिन सब सपना ॥ समदर्शन से मंडित यदि हो सहज सधे अघ-विधि खपना। मंजु-मंजुतम मणि-माणिक सम पूज्य बने, फिर 'शिव' अपना ॥१५॥ किसमें मम, हित अहित निहित है तुझको यह ना विदित रहा। हुआ हिताहित लाभ हानि ना मोह-रोग से व्यथित रहा ॥ क्लेश बिना शिशु को जननी ज्यों शिवपथ परिचित करा रहे। कोमल समकित संस्कारों से हम संस्कारित करा रहे ॥१६॥ विषम विषयमय अशन उड़ाया तुमने कितना पता नहीं। मोह महाज्वर तभी चढ़ा है तृष्णा तुमको सता रही ॥ अणुव्रत लेना नि:शंकित तुमको समयोचित सार यही। प्रायः पाचक पथ्य पेय से प्रारंभिक उपचार सही ॥१७॥ सुखमय जीवन जीते हो या दुखमय जीवन बीत रहा। धर्म एक ही शरण जगत् में आगम का यह गीत रहा ॥ सुखमय जीवन यदि है मानो धर्म उसे औ पुष्ट करे। दुखमय जीवन बीत रहा यदि धर्म उसे झट नष्ट करे ॥१८॥ मनवांछित इन्द्रिय विषयों के भाँति-भांति के सुख सारे। धर्म रूप वर नन्दन वन के तरुओं के रस फल प्यारे॥ कुछ भी कर तू वृष तरुओं का किसी तरह रक्षण करना। प्राप्त फलों को संचय कर कर सुचिर काल भक्षण करना ॥१९॥ भव्य भद्र सुन धर्म एक ही अनुपम सुख का साधक है। साधक जो हो, स्वीय कार्य का नहीं विराधक बाधक है॥ मन में भय हो, यदि हो सकता इस सुख का अवसान कहीं। किन्तु स्वप्न में भी नहिं होना धर्म विमुख धर ध्यान सही ॥२०॥ धर्म पालते फलतः मिलता अतुल विभव भरपूर सही। भोग-भोगते उनका भोगो किन्तु धर्म को भूल नहीं ॥ प्रथम बीज बोकर कृषि करता कृषक विपुल फल पाता है। किन्तु पृथक् रख बीज सुरक्षित पुनः शेष फल खाता है ॥२१॥ कल्पवृक्ष से यथायोग्य ही कल्पित फल भर मिलता है। चिंतामणि से मन में चिंतित मिलता पर मन खिलता है॥ किन्तु कल्पना चिंता के बिन अनुपम अव्यय फल देता। सत्य धर्म है क्यों ना मन तू तदनुसार रे, चल लेता ॥२२॥ पाप-पुण्य का केवल कारण अपना ही परिणाम रहा। विज्ञ बताते इस विध आगम गाता यह अभिराम रहा ॥ अतः पाप का प्रलय कराना प्रथम आपका कार्य रहा। पल-पल अणु-अणु परम पुण्य का संचय अब अनिवार्य रहा ॥२३॥ धर्म त्याग कर पागल पामर पापाश्रित हैं गिरे हुए। विषय सुखों का सेवन करते मोह भाव से घिरे हुए ॥ सरस फलों से लदा हुआ है मूल सहित द्रुम छेद रहें। फल खाने में निरत हुए हैं नहीं अनागत वेद रहे॥२४॥ कृत भी हो, पर से कारित भी अनुमत भी अनिवार्य रहा। मन से वच से औ तन से भी पूर्ण शक्य जो कार्य रहा ॥ उसी धर्म का धारण पालन किस विध फिर नहीं हो सकता। उज्ज्वल जल है पी लो धोलो पल भर में मल धो सकता ॥२५॥ जब तक जिसके जीवन में वह जीवित जागृत धर्म रहा। मारक को भी नहीं मारते तब तक ना अघ कर्म रहा ॥ चूंकि धर्म च्युत पिता पुत्र भी कट-पिट आपस में मिटते। अतः धर्म ही सबका रक्षक जिससे सब सुख हैं मिलते ॥२६॥ पाप बन्ध वह हो नहिं सकता सुख के सेवन करने से। किन्तु पाप हो धर्म विघातक हिंसादिक अघ करने से ॥ मिष्ट अन्न के अशन मात्र से अपच रोग नहिं वह आता। अशन रसन का किन्तु दास अति अधिक अशन खा दुख पाता ॥२७॥ सप्त व्यसन तो स्पष्ट दुःख हैं पर भव में भी दुखकारी। पाप ताप हैं किन्तु उन्हें तुम मान रहे अति सुखकारी ॥ इन्द्रिय सुख में अनासक्त ज्यों बुधजन जिसको अपनाते। उभय लोक में सुखद धर्म को क्यों न मानते अपनाते ॥२८॥ दोष रहित हैं, त्राण रहित हैं रहती हैं भयभीत यहीं। देह गेह ही धन है जिनका जिनकी जीवन रीत यही ॥ दंत पंक्ति में मिले मृदुल तृण भोजन करतीं मृगीं व्यथा। व्याध उन्हें भी मार मिटाते पर की अब क्या रही कथा ॥२९॥ पर निन्दन तज दैन्य दंभ से सभी सर्वथा दूर रहो। मृषा वचन मत बोलो मुख से करो न चोरी भूल अहो ॥ चूंकि धर्म-धन यश-धन धी-धन इष्ट तुम्हें हैं सुखकर हैं। इह भव हित भी पर भव हित भी अर्जित कर लो अवसर है ॥३०॥ पुण्य करो निज पुण्य पुरुष को कुछ नहिं करती आपद है। आपद ही वह बन जाती है सुखद संपदा आस्पद है॥ निखिल जगत को निजी ताप से तपन तपाता यदपि यहाँ। सकल दलों सह कमल दलों को खुला खिलाता तदपि अहा ॥३१॥ सुरगुरु मन्त्री सुर सैनिक थे जिसके शिर पर ‘हरिकर' था। स्वर्ग दुर्ग था वज्र शस्त्र था ऐरावत वर कुंजर था। बली इन्द्र भी इस विध रण में रावण दानव से हारा ॥ अतः शरण बस दैव, वृथा है पौरुष को बहु धिक्कारा ॥३२॥ धरणीपति सम अचल कुलाचल मोह भाव से रहित हुए। जलनिधि सम धन राग रहित हो गुण मणि निधि से सहित हुए ॥ पर आश्रित ना नभ सम स्वाश्रित जग हित में निर निरत हुए। सन्त आज भी लसे पुराने मुनि सम कतिपय विरत हुए ॥३३॥ नृप-पद जैसे सुख लव पाने मोह मद्य पी भ्रमित हुए। पिता पुत्र को पुत्र पिता को ठगते धन से भ्रमित हुए ॥ अहो! मूढ़जग जनन-मरण के दीर्घ दाढ़ में पड़ा हुवा। नहिं लखता, रत, तन हरने में निकट काल को खड़ा हुवा ॥३४॥ मोही जड़ जन अन्ध बने हैं विषयों में जो झूल रहे। महा अन्ध हैं अन्धों से भी सत्यपंथ को भूल रहे ॥ नेत्रों से जो अन्ध बने हैं मात्र रूप को नहिं लखते। किन्तु मूढ़ विषयान्ध बने कुछ भी न लखें सुध नहिं रखते ॥३५॥ प्रति प्राणी में आशारूपी गर्त पड़ा है महा बड़ा। जिसमें सब संसार समाकर लगता अणुसम रहा पड़ा। किसको कितना उसका भाजित भाग मिले फिर बता सही। विषय वासना इसीलिये बस विषय-रसिक की वृथा रही ॥३६॥ उचित आयु धन तन सुख मिलते पास पुण्यमय रतन रहा। यदि वह नहिं तो धनादि भी नहिं भले करो अब यतन महा ॥ यही सोच इस भव सुख पाने रुचि लेते ये आर्य नहीं। परभव सुख के निशिदिन करते कार्य सुधी अनिवार्य सही ॥३७॥ कटु कटुतम विषसम विषयों में कौन स्वाद तू लुभित सुधी। जिसे ढूँढने निजी अमृत का मूल्य मलिन कर अमित दुखी ॥ मन के अनुचर विषय रसिक इन इन्द्रिय गण से विकृत हुवा। पित्त ज्वराकुल नर मुख सम तव स्वाद, खेद यह विदित हुवा ॥३८॥ विरत भाव से विरत रहा तू विषय राग रसिकेश रहा। खाता खाता भोग्य जगत को तेरे मुख से शेष रहा ॥ चूंकि शक्ति नहिं तुझमें उतनी भोग सके जो पूर्ण इसे। राहु केतु के मुख से जिस विध शेष रहे शशि सूर्य लसे ॥३९॥ किसी तरह भी विश्वसारमय सार्वभौम पद प्राप्त किया। किन्तु अन्त में तजा उसे तब चक्री शिव पद प्राप्त किया ॥ त्याज्य परिग्रह ग्रहण पूर्व तज नहिं तो तव उपहास हुवा। पतित धूल में मोदक ले ऋषि का जिस विध यश नाश हुवा ॥४०॥ सुबुध-चरित को भी यह करता पूर्ण पापमय कभी-कभी। कभी-कभी तो पूर्ण धर्ममय, पाप धर्ममय कभी-कभी ॥ अंध रज्जु संपादन सम गज स्नान सदृश गृह धर्म रहा। या पागल चेष्टा सम इससे हित न सर्वथा शर्म रहा ॥४१॥ खेद बोध बिन नृप सेवक बन सुखार्थ धन से प्यार किया। कृषि करता बन वनिक वनिकता करता वन नद पार किया ॥ विष में जीवन तेल रेत में ढूँढ रहा दिन-रात अहा। मोह भूत के निग्रह बिन सुख नहीं, तुझे क्या ज्ञात रहा ॥४२॥ दुख से बचने तू सुख पाने चलता उलटी राह रहा। दुख के कारण आशावर्धक भोग संपदा चाह रहा ॥ तपन ताप से तपा हुवा नर शांति खोजता दुखी बड़ा। बाँस जल रही उसकी छाया में जाकर बस वहीं खड़ा ॥४३॥ प्यास लगी जल निकट जानकर भू खोदत, पाषाण मिला। अब क्या करता कार्य चल रहा खोदत ही पाताल चला ॥ बिल-बिल करते कृमि-कुल जिसमें जहाँ मिला जल क्षार भरा। प्यास बुझी ना, कण्ठ सूखता हाय भाग्य से हार मरा ॥४४॥ नीति न्याय से धन अर्जन कर जीवन अपना बिता रहे। उनका वह धन बढ़ नहिं सकता साधु सन्त यों बता रहे॥ पूर्ण सत्य है नदियाँ बहतीं जग में जल से भरी-भरी। मलिन सलिल से सदा भरीं वे विमल सलिल से कभी नहीं ॥४५॥ अधर्म जिसमें पलता नहिं है धर्म वहीं पर पलता है। गन्ध दुःख की आती नहिं है उसमें ही सुख फलता है॥ वही ज्ञान है वहीं ज्ञान है जहाँ नहीं अज्ञान रहा। वही सही गति चहुँ गतियों का जब होता अवसान रहा ॥४६॥ धन-कन-कंचन संचय करने असि मषि कृषि में बन श्रमधी। बार-बार कटु पीर पा रहा विषय लंपटी बन भ्रमधी॥ शम-यम-दम-नियमादिक धरता यदि जाने शिवधाम सही। जनन-मरण औ जरण जनित दुख-जीवन का फिर नाम नहीं ॥४७॥ बाह्य-वस्तु को मान रहा यह अनिष्ट यह है इष्ट रहा। तत्त्व बोध बिन वृथा समय खो बार-बार पा कष्ट रहा ॥ निर्दय यम के ज्वालामय मुख में जब तक नहिं जल मरता। तब तक पीले निजी शांतिमय अविकल अविरल जल झरता ॥४८॥ परवश आशा सरिता में तुम बह-बह कर अति दूर गये। इसे तैरने सक्षम तुम ही, क्या न पता, क्या भूल गये? ॥ निजाधीन हो निज अनुभव कर शीघ्र तैरकर तीर गहो। नहिं तो पातक मरण मगर मुख, में पड़ भवदधि पीर सहो ॥४९॥ रस ले लेकर नीरस कहकर विषयी जन सब विषय तजे। उन्हें मूढ़ तुम अपूर्व समझे करें उन्हीं की विनय भजे ॥ आशारूपी पाप खानमय रिपु सेना की रही ध्वजा। मिटे न तब तक विषय कीट! रे शांति नहीं ना निजी मजा ॥५०॥ विषम नाग सम भोग भोगते खुद मर सुर सुख नहिं पाते। निर्भय निर्दय बन, पर को मर, - वाते तातें दुख पाते ॥ साधु जनों ने जिनको त्यागा चाह उन्हीं की नित करते। काम क्रोध के वशीभूत जन क्या-क्या अनर्थ नहिं करते ॥५१॥ जिसको भावी कल है वह ही उसे विगत का कल बनता। ध्रुव कुछ नहिं जग काल अनिल से बदल रहा बादल घनता ॥ भ्रात! भ्रान्ति तज कुछ तो देखो आँख खोलकर सही सही। बार-बार हो भ्रमित रम रहा विषयों में ही वहीं-वहीं ॥५२॥ नरकों में दुख सहन किये हैं करनी की थी पाप भरी। दूर रहें वे बीत गये हैं जिनकी स्मृति भी ताप करी ॥ मदन बाण सम स्त्री कटाक्ष से, रे निर्धन! तू जला मरा। हिम से मृदुतरु जलता जिस विध उसे याद कर भला जरा ॥५३॥ आत्म प्रवंचक चरित रहित है आधि व्याधि से सहित रहा। सप्त धातुमय तन-धारक है क्रोधी तन से उदित अहा ॥ जीर्ण जरा का कवल बनेगा काल गाल में पतित हुवा। हे जन्मी! क्यों? अहित विधायक विषयों में तू मुदित हुवा ॥५४॥ तरुण अरुण की खरतर अरुणिम किरणों से नर तप्त यथा। इन्द्रियमय अति ज्वाला से अति तृषित जगत संतप्त तथा ॥ कुधी विषय सुख मिलते नहिं तब अघकर उस विध दुख पाता। नीर निकट-तम कीच बीच फँस बैल क्षीण बल दुख पाता ॥५५॥ उचित रहा यह अगनी जलती, समयोचित इन्धन पाती। इन्धन जब इसको ना मिलता, जलती ना झट बुझ जाती ॥ मोह अग्नि तो किन्तु निरन्तर, धू-धू करती ही जलती। भोग मिले तो भले जले पर नहीं मिले तब भी जलती ॥५६॥ दुखमय ज्वाला लपटों से क्या कभी काय तब जला नहीं। मधु मक्खी सम प्रखर पाप से क्या तव जीवन छिला नहीं ॥ गर्जन करते काल वाद्य के, भयद शब्द क्या सुना नहीं। क्यों न तजी फिर निंद्य मोह की नींद, भाव यह गुना नहीं ॥५७॥ तन में घुलमिल रहना अघविधि फल चखना तव काम रहा। पुनि पुनि पल पल विधि बंधन में पड़ना भी अविराम रहा। मृति ध्रुव फिर भी मृति भय रखता, निद्रा ही विश्राम रहा। फिर भी जन्मी! भव में रमता, विस्मय का यह धाम रहा ॥५८॥ स्थूल हाड़मय काष्ठ रचित है सिरा नसों से बंधा हुवा। विधि-रिपु रक्षित रुधिर पिशित से लिप्त चर्म से ढका हुवा ॥ लगा जहाँ पर आयु रूप गुरु-सांकल है तव तन घर है। मूढ़ उसे तू जेल समझ, मत वृथा राग कर, अघकर है ॥५९॥ विधि बंधन के मूल बंधुजन शरण काय नहिं अशरण है। आपद गृह के महाद्वार हैं चिर परिचित प्रमदा जन हैं॥ स्वार्थ परायण सुत, रिपु हैं यदि तुमको है शिव चाह रही। तजो इन्हें बस भजो धर्म शुचि यही रही शिव राह सही ॥६० ॥ जिनसे तृष्णा अनल दीप्त हो इंधन सम क्या उस धन से?। पाप जनक संबंध रहा है जिनका क्या उन परिजन से?। मोह नाग का विशाल बिल सम गेह रहा क्या, क्या तन से?। भज समता देही! सुख-वांछक! प्रमाद तज तू तन मन से! ॥६१॥ सेनापति औ बली जनों के सर्वप्रथम आश्रित रहती। सैनिक रक्षित, असिधर रक्षक, - दल से फिर आवृत रहती ॥ चमर अनिल से दीप शिखा सम, झट नरपति श्री भी मिटती। भला बता फिर साधारण जन की लक्ष्मी की क्या गिनती ॥६२॥ जनन-मरण से व्याप्त रहा है जड़मय तेरा यह तन है। खेद, खेद का अनुभव करता तन में स्थित हो निशिदिन है॥ अग्नि लगी एरण्ड काष्ठ में दोनों मुख जिसके जलते। जैसे उसमें स्थित कीड़े हा! दुख पाते मरते जलते ॥६३॥ दुराचार कर अघ करता क्यों दुखित हुवा सम नौकर के। इन्द्रिय पति मन से प्रेरित हो सुख पाने सुध खोकर के ॥ विषय त्याग, बन इन्द्रिय विजयी इन्द्रिय तेरे दास बने। अकलुष निज लख शिव सुख पाने पाल चरित, विधि नाश घने ॥६४॥ धन का अभिलाषी नहिं धन पा, दुखी रहें निर्धनी सदा। धन पाकर भी तृप्त नहीं हों दुखी रहें नित धनी मुधा॥ धनिक दुखी हैं दुखी निर्धनी खेद यहाँ सब देख दुखी। अंतरंग बहिरंग संग तज निसंग मुनि बस एक सुखी ॥६५॥ सुखाभास है केवल दुख है सुख जो पर के आश्रित है। यथार्थ सुख तो शाश्वत शुचितम सुख यह निज के आश्रित है॥ ऐसा भी सुख मिल सकता क्या यदि मन शंकित इस विध है। द्वादश विध तप तपते तापस सुखी सदा फिर किस विध है ॥६६॥ निजाधीन हो विचरण करते बिना याचना अशन करें। बुधजन संगति करते श्रुत का मनन करें मन शमन करें। बाह्य-द्रव्य में मन की गति कम, किस वर तप का सुफल रहा। यह सब सोचा सुचिर काल पर, जान सका ना, विफल रहा ॥६७॥ विरति विषय से कर श्रुत चिंतन उर से करुणा अति बहती। जिनकी मति एकान्त-तिमिर को हरने में नित रत रहती ॥ अशन अन्त में तज तन तजना पर आगम बल पर चलना। महामना उन मुनियों का यह लघु तप विधि का प्रतिफल ना! ॥६८॥ कोटि- कोटि खुद उपाय कर लो तन लक्षण नहिं संभव है। पर से करवाते करवा लो यह तो सदा असंभव है। पल-पल गलना चलता तन का मिटना रहता क्षण-क्षण है। तन रक्षण का हट छोड़ो तुम समझो यह ‘तन लक्षण' है ॥६९॥ निसर्ग नश्वर स्वभाव वाले आयु काय आदिक सारे। ज्ञात हुआ यह निश्चित तुमको तरंग जीवन यह प्यारे॥ इसके मिटने से यदि मिलता शाश्वत शुचितम शिव पद है। बिना कष्ट बस मिला समझ लो स्वयं आ गई संपद है॥७० ॥ उच्छवासों का नि:श्वासों का करता है अभ्यास सदा। जीव चाहता तन से निकलें बाहर, शिव में वास कदा ॥ किन्तु मनुज कुछ श्वास रोक लो, आयु बढ़ेगी कहते हैं। अजर अमर आतम बनता है फलतः जड़ जन बहते हैं ॥७१॥ अरहट घट दल के जल सम यह आयु घटे बस पल-पल है। तथा आयु का सहचर होकर चलता अविरल तन खल है॥ काय आयु के आश्रित जीवन फिर पर से क्या अर्थ रहा। किन्तु नाव-थित नर समनिज को भ्रान्त लखे स्थिर व्यर्थ अहा ॥७२॥ बिना खेद उच्छास जनम ना लेता वह दुख कूप रहा। टिका हुआ है जिस पर नियमित जीवन का यह स्तूप रहा ॥ जब वह लेता विराम निश्चित जीवन का अवसान तभी। आप बता दो किस विध सुख का पान करे फिर प्राण सभी ॥७३॥ जनन ताड़ के पादप से तो प्राणी फल दल पतित हुए। अधोमुखी हैं निराधार हैं पथ में हैं वे पथिक हुए ॥ भले अभी तक मरण रूप इस धरती तल तक नहिं आये। कब तक फिर वे अन्तराल में अधर गगन में रह पाये ॥७४॥ नीचे नारक असुरों ऊपर देवों को बस! बसा दिये। मध्य मानवों को रख अमितों द्वीप सागरों घिरा दिये ॥ तीन वातवलयों से वेष्टित कर विधि ने नभ को ताना। पर नरपति ना बचा बचाता अटल काल का सो बाना ॥७५॥ विदित निलय जिसका ना तन भी दुष्ट राहु तापस पापी। पूर्ण निगलता खेद! भानु को भासुरतम जो परतापी ॥ दश शत प्रखर किरण कर बल से निखिल प्रकाशित कर पाता। उचित समय यदि कर्म उदय हो कौन बली फिर बच पाता ॥७६॥ ठग सम निर्दय कर्म ब्रह्म खुद मोह महामद पिला-पिला। सकल जगत् को संमोहित कर सही पंथ से भुला-भुला ॥ सघन भयानक भव-कानन में हन्ता बनकर विचर रहा। उसे मारता कौन बली वह कहाँ रहा है किधर रहा ॥७७॥ आता है कब किस विध आता काल कहाँ से आता है। महादुष्ट है काल विषय में कुछ भी कहा न जाता है। वह तो निश्चित आता ही पै तुम क्यों बैठे मन माने। विज्ञ! करो नित यतन निजोचित निज सुख पाने शिव जाने ॥७८॥ किसी तरह संबंध नहीं हो दुष्ट काल से बस जिसका। कुछ भी कर लो किसी तरह भी शोध लगाओ तुम उसका ॥ देश काल विधि हेतु वही इक जहाँ मोह का नाम नहीं। शरण उसी की ले बिन चिंता रहो रहा शिवधाम वही ॥७९॥ बार-बार उपकार किया पर, बार-बार अपकार मिला। इस विधि दारा तन है नारक दुख का भारी द्वार खुला ॥ परम पुण्य को जला-जलाकर भस्म बनाती यह ज्वाला। किस विध इसमें मुग्ध हुवा तू जिसे कहे जड़ सुख प्याला ॥८० ॥ विपद पर्वमय मूल भोग्य, ना रस बिन जिस का चूल रहा। तथा बहुत से रोगों से भी ग्रसित रहा दुख शूल रहा ॥ घुण-भक्षित उस इक्षु दण्ड सम ऊपर केवल मनहर है। परभव सुख का बीज बना बस मानव जीवन अघहर है॥८१॥ निशि में करता शयन मृतक सम चेष्टा विहीन हो जाता। जागृत हो जीवन साधन में दिन भर विलीन हो पाता ॥ इस विध प्रतिदिन नियमित जीवन इस प्राणी का बीत रहा। किन्तु काय में कब तक टिक कर गा पायेगा गीत अहा ॥८२॥ अरे! हितैषी इस जीवन में बन्धुजनों से क्या पाया। सत्य-सत्य बस हमें बता दे क्या! हित अनुभव कर पाया? ॥ केवल इतना करते मरता जब तू तज कंचन तन को। जला-जला वे राख बनाते अहित दुरित घर तव तन को ॥८३॥ राग रंगमय भववर्धक है विवाह आदिक कार्य रहें। उनको करने में ही परिजन निरत सदा अनिवार्य रहें ॥ अतः वस्तुतः परम शत्रु हैं परिजन इस विधि जान अरे!। अन्य शत्रु तो एक बार पर बार-बार ये प्राण हरें ॥८४॥ जिसके जीवन में वह जलता आशारूपी अनल महा। जिसमें डाले धन इंधन का ढेर ढेर जड़ विकल अहा ॥ प्रतिफल में वह प्रतिपल जलती जलती दीपित हो जाती। भ्रान्त समझता शान्त उसे पै बुद्धि भ्रान्ति वश खो जाती ॥८५॥ धवल धवल तम बालों से तव मस्तक शशि सम धवलित है। इसी बहाने तव मति शुचिता बाहर निकली मम मत है॥ जरा दशा में जरा सोचना भी किस विध फिर बन सकता। परभवहित का अतः स्मरण भी किस विध यह मन कर सकता ॥८६॥ तृप्ति जनक, ना, इष्ट अर्थमय अब सुख खारा उदक रहा। बहुविध मानस दुख वडवानल जिसके भीतर धधक रहा ॥ जनन जरा मृति तरंग उठती मोह मगर मुख खोले हैं। भवदधि में गिरने से कुछ ही बच पाते दृग खोले हैं ॥८७॥ अविरल सुख परिकर से लालित यौवन मद से स्पर्शित था। ललित युवति दल नयन कमल ले तुझे निरख कर हर्षित था॥ फिर भी तप कर काय सुखाया धन्य हुवा यदि सुधी रखे। जली कमलिनी का भ्रम कर तुझ दग्ध वनी में मृगी लखे॥८८॥ निर्बल तन मन बालक जब थे नहीं हिताहित विदित हुए। युवा हुए कामान्ध युवति तरु वन में निशिदिन भ्रमित हुए ॥ प्रौढ़ हुए धन तृषा बड़ी फिर कृषि आदिक कर विकल बने। वृद्ध हुए फिर अर्धमृतक कब जनम धरम कर सफल बने ॥८९॥ बाल्य काल में जो कुछ बीता उसकी स्मृति अब उचित नहीं। धन संचय करता तब विधि ने किया तुझे क्या दुखित नहीं ॥ अन्त समय तो दांत तोड़कर इसने तव उपहास किया। फिर भी तू दुर्मति विधिवश हो विधि पर ही विश्वास किया ॥९०॥ घृणित दशा तव देख सके ना तभी नेत्र तव अन्ध हुये। तव निंदा पर से सुन सुनकर बधिर कान अब बन्द हुये ॥ निकट काल को लख भय वश तव पूर्ण कांपता वदन तथा। फिर भी रहता अकंप जर्जर तन में जलता भवन यथा ॥९१॥ परिचय जिनका अधिक हुवा हो वहीं अनादर तनता है। सूक्ति रही यह नवीनतम जो प्रीति तथा ऽऽदर बनता है। दोष कोष में निरत हुवा क्यों गुण-गण से अति विरत हुवा। उचित उक्ति को वृथा मृषा क्यों करता यह ना उचित हुवा ॥९२॥ हंस कभी ना खाते जिसको दिन में खिलता जलज रहा। जल में रहकर जल ना छूता कठोर कर्कश सहज रहा ॥ जलज धर्म ना ज्ञात भ्रमर को भ्रमित वृथा फँस मर जाता। स्वहित विषय में विषय रसिक कब समुचित विचार कर पाता ॥९३॥ तीन लोक में प्रज्ञा दुर्बल स्वपर बोध का हेतु रही। शुभ गति दात्री और दुर्लभा भवदधि में शुभ सेतु सही ॥ इस विध प्रज्ञा पाकर भी यदि पद पद प्रमाद पाले हैं। उनका जीवन चिन्त्य रहा है बोल रहे मतवाले हैं ॥१४॥ जगदधिपति धरतीपति सुरपति हुये विगत में अगणित हैं। सुकृत सुफल वह बाह्य-वाक्य से यद्यपि सब जन परिचित हैं॥ किन्तु खेद है वीर धीर औ बुधजन तक भी किन्नर हैं। इन्हीं सुराधिप भूपजनों के जिन पर हँसते शंकर हैं॥९५॥ श्रेष्ठ धर्म के बल पर नरपति महावंश में जनन धरें। सुधी धनी हो जिन्हें निर्धनी धनार्थ सविनय नमन करें। यह पथ शम मय जिस पर चलना विषयी का वह कार्य नहीं। धर्म कथ्य नहिं महाजनों को जिसे लखें जिन आर्य सही ॥९६॥ अशुचिधाम तन दुखद रहा है इसमें चिर से निवस रहा। निरीह इससे हुवा नहीं तू राग बढ़ा प्रति दिवस रहा ॥ घटे राग तव, सदुपदेश में अतः निरत नित यतिजन ये। महाजनों की परहित की रति देख जरा, तज रति मन ऐ! ॥९७॥ ‘इस विध’ ‘उस विध' तन है इस विध कहने से कुछ अर्थ नहीं। पुनि पुनि तन धर तजकर तूने व्यथा सही क्या व्यर्थ नहीं ॥ फिर भी यह संकेत मात्र है सदुपदेश सुन संपद है। भव भ्रमितों का यह जड़ तन सब विपदाओं का आस्पद है॥९८॥ मल घर माँ का उदर जहाँ चिर क्षुधित तृषित मुख खोल पड़ा। पड़ा अन्न मल-मिश्रित खाया विधिवश ले दुख मोल सड़ा॥ निश्चल था तव कृमि कुल सहचर तभी मरण से भीत हुवा। चूंकि जनन का मरण जनक है यही मुझे परतीत हुवा ॥९९॥ अजा कृपाणक समान तुमने चिर से अब तक कार्य किया। नहीं हिताहित हुवा विदित हे आर्य दुरित अनिवार्य किया ॥ अन्धक वर्तन न्याय मात्र से प्राप्त किया सुख क्षणिक रहा। वह भी आत्मिक सुख ना इन्द्रिय दुख मिश्रित सुख तनिक रहा ॥१०० ॥ हा! आकस्मिक वनितादिक की काम कामना करवाता। निज को पंडित माने उनके पंडितपन को भरमाता ॥ फिर भी पंडित धीर धार कर इसको सहते यह विस्मय। सुतप अनल से क्रूर काम को नहीं जलाते बन निर्दय ॥१०१॥ समझ विषय को तृण सम कोई याचक को निज धन देता। तृष्णा वर्धक अघमय गिन इक बिना दिये धन तज देता ॥ किन्तु प्रथम ही दुखद जान धन नहिं लेता वह बड़भागी। एक एक से क्रमशः बढ़कर, सर्वोत्तम हैं ये त्यागी ॥१०२॥ विलासतायें प्राप्त संपदा संत साधु ये यदि तजते। विस्मय क्या है इस घटना में विरागता को जब भजते ॥ उचित रहा यह जिसके प्रति है घृणा मनो, नर यदि करता। रसमय भोजन भला किया हो तुरत वमन क्या नहिं करता ॥१०३॥ श्रम से अर्जित लक्ष्मी तजता रोता तव जड़मति-वाला। तथा संपदा तजता यद्यपि मद करता हिम्मत-वाला। ना मद करता ना रोता है किन्तु संपदा तजता है। वही विज्ञ है वीतराग है तत्त्व ज्ञान नित भजता है ॥१०४॥ जड़मय तन जननादिक से ले मृति तक सोचो भला जरा। क्लेश अरुचि भय निंदन आदिक से पूरा बस भरा परा॥ त्याज्य, तजो तन रति जब मिलती मुक्ति भली फिर कौन कुधी। दुर्जन सम तन राग तजे ना उत्तर दो तुम मौन सुधी ॥१०५॥ मिथ्या मतिवश राग रोष कर दुराचार में लीन हुवा। बार-बार तन धार-धार मर दुखी हुवा अति दीन हुवा ॥ राग हटाकर विराग बनकर एक बार यदि निज ध्याता। अक्षय बनकर अक्षय फल पा निश्चित बनता शिव धाता ॥१०६॥ जीवदया-मय इन्द्रिय-दम-मय संग-त्यागमय पथ चलना। मन से तन से और वचन से पूर्ण यत्न से तज छलना ॥ जिस पर चलने से निश्चित ही मिले मुक्ति की मंजिल है॥ निर्विकल्प है अकथनीय है अनुपम शिवसुख प्रांजल है ॥१०७॥ ज्ञान भाव से प्रथम हुवा हो मोह भाव का शमन महा। किया गया पुनि पाप-मूल उस सकल संग का वमन अहा ॥ अजर अमर पद का कारण वह मुक्तिरमा खुद वरती है। रही ‘कुटी परवेश क्रिया' ज्यों विशुद्ध तन को करती है॥१०८॥ योग्य भोग उपभोग योग पा भोग भाव नहिं मन लाते। किन्तु विश्व को उपभोजित कर स्वयं भोग सब तज पाते ॥ मार मार कौमार्य काल में बाल ब्रह्मचारी प्यारे। चकित हुए हम इस घटना से उन चरणों को उर धारें ॥१०९॥ सदा अकिंचन मैं चेतन हूँ इस विध चिंतन करना है। तीन लोक का ईश शीघ्र बन मुक्ति रमा को वरना है। योग धार कर योगी जिसको विषय बनाते अपना है। परमातम का गूढ़रूप यह प्राप्य! और सब सपना है॥११०॥ अल्प काल ही मानव गति है काल आय कब ज्ञात नहीं। दुर्लभ तम है अशुचिधाम है जिसकी दुखमय गात रही ॥ इस गति में ही तप बन सकता तप से ही शिव मिलता है॥ अतः करे तप तापस बनकर तप से ही विधि हिलता है॥१११॥ ध्यान समय में जगन्नाथ, प्रभु ध्येय बने बुध सम्मति है। जिन पद स्मृति ही क्लेशमात्र है क्षति यदि है तो विधि क्षति है॥ साधन मन है साध्य सिद्धि सुख काल लगेगा पल भर ही। सब विध बुधजन निशिदिन चिंतन करें कष्ट ना तिल भर भी ॥११२॥ धन की आशा जिसे जलाती कभी सुखी क्या बन सकता ? तप के सम्मुख काम व्याध आ मनमाना क्या तन सकता ? छू सकती अपमान धूल क्या तप तपते उन चरणन को? बता कौन वह तप बिन वांछित सुख देता भवि जन-जन को? ॥११३॥ यहीं सहज कोपादिक पर भी पाता तापस विजय अहा! प्राणों से जो अधिक मूल्य है पाता गुण-गण निलय महा! पर भव में फिर परम सिद्धि भी स्वयं शीघ्र बस वरण करें। ताप पाप हर तप कर फिर नर क्यों ना नित आचरण करें ॥११४॥ अपक्व फल से लगा फूल ज्यों यथा समय पर गलता है। त्यों मुनि तन भी सुतप बेल से लिपटा शुभ फल फलता है॥ दूध सुरक्षित रख जल सूखे समाधि अगनी में जिसकी। आयु सूखती वृष रक्षित कर धन्य! वही जय हो उसकी ॥११५॥ राग रंग बहिरंग संग तज विराग पथ पर चलते हैं। किन्तु उपेक्षित नहिं है समुचित पालन तन का करते हैं॥ जीवन भर चिर तापस बनकर खरतर तपते अचल महा। भ्रात ज्ञात हो निश्चित ही यह आत्म ज्ञान का सुफल रहा ॥११६॥ आत्म ज्ञान वह चूंकि हुवा हो तन का परिचय स्पष्ट रहा। पल भर भी पलमय तन का फिर पालन किसको इष्ट रहा ॥ तन का पालन करने में बस तदपि प्रयोजन एक रहा। ध्यान सिद्धि वर ज्ञान सिद्धि हो आत्मसिद्धि अतिरेक रहा ॥११७॥ जीरण तृण सम सकल संपदा तजी वृषभ ने तपधारा। क्षुधित दीन सम बिन मद, पर घर जाते पाने आहारा ॥ बहुत दिवस तक मिली नहीं विधि भिक्षार्थी बन भ्रमण किया। सुखार्थ हम क्या नहीं सहे जब जिन ने परिषह सहन किया ॥११८॥ जिनका सुत नवनिधियों का पति कुलकर मनु वृषभेश महा। गर्भ पूर्व ही विनीत सेवक जिनका था अमरेश रहा ॥ भूतल पर प्रभु भटके भूखे पुरुषोत्तम छह मास यहाँ। कौन टालता विधान विधि का बल वह किसके पास कहाँ ॥११९॥ प्रथम संयमी स्वपर तत्त्व का अवभासक हो चलता है। जिस विध सबको दीपक करता आलोकित है जलता है॥ तदुपरान्त वह सुतप ध्यान से और सुशोभित हो जाता। प्रखर प्रभा आलोक ताप से जिस विध नभ में रवि भाता ॥१२०॥ ज्ञान विभा से चरित चमक से भासुर धी-निधि यमी दमी। दीप बने है उन्हें नमूँ मम-अघ-तम की हो कमी-कमी ॥ समीचीन आलोक-धाम से करा स्वपर को उजल रहें। कर्म रूप अलि काला कज्जल फलतः पल-पल उगल रहें ॥१२१॥ सही सही आगम का भवि जब चिंतन मंथन करता है। अशुभ असंयम तज शुभ संयम प्रथम यथाविधि धरता है॥ फिर बनता वह विशुद्धतम है सकल कर्म-मल धुलता है। उचित रहा रवि प्रभात से जब मिलता फिर तम टलता है॥१२२॥ विषय राग को मिटा रहा है तप श्रुति में अनुराग हुवा। भविक-जनों का भाग्य खुला है सुख का ही अनुभाग हुवा ॥ प्रभात में जब बाल भानु की कोमल हलकी सी लाली। अणु-अणुकण-कणखुलते खिलते, खिलती जगजीवन डाली॥१२३॥ तत्त्वज्ञान आलोक त्याग यदि विषय राग में रमन करो। रवरव नारक निगोद आदिक गतियों में गिर भ्रमण करो ॥ संध्या की लाली को छूता सघन निशा सम्मुख करके। प्रखर प्रभा तज, जाय रसातल दिनकर नीचे मुख करके ॥१२४॥ चरित पालकी पड़ाव समुचित स्वर्ग रहा गुण रक्षक हैं। तप संबल है सहचर-लज्जा ज्ञान रहा पथ-दर्शक है॥ सरल पंथ शम जल से सिंचित दया भाव ही छाँव रही। बाधा बिन यह यात्रा मुनि को पहुँचाती शिव गाँव सही ॥१२५॥ नाग दृष्टि विष ना, पर नारी रही दृष्टि विष दुरित मही। जिसके पल भर ही लखने से ही धू-धू जलता जगत सभी। विलोम उनके तुम हो जिससे क्रुद्ध भटकती विवश सभी। स्त्री के मिष विष वे उनके वश हो न वशी बस निमिष कभी ॥१२६॥ कभी क्रुद्ध हो नाग काट कर प्राण हरे पर सदा नहीं। लो औषध भी बहु मिलती झट विष हरती है सुधामयी ॥ किन्तु क्रुद्ध या प्रसन्न रह भी “दिखी देख सबको मारे। जिस पर औषध नहिं स्त्री-नागिन से योगी भी भय धारे ॥१२७॥ यदि चाहो यह मुक्ति रमा है कुलीन जन को मिलती है। परम नायिका जन-जन प्रिय है गुण-बगिया में खिलती है॥ इसे सजा गुणगण से इसमें रम जाओ पर मत बोलो। अन्य स्त्रियों से लगभग महिला ईर्षा करती, दृग खोलो ॥१२८॥ बाहर केवल कोमल कोमल वदन कमल से विलस रही। तरल लहर सुख से स्त्री सरवर वचन सलिल से विहँस रही ॥ बालक सम हा! अज्ञ तृषित ही जिसके तट पर बस जाते। विषय विषम कर्दम से फिर वे नहीं निकलते फँस जाते ॥१२९॥ भयद क्रुद्ध पापिन इन्द्रिय सब राग आग अति जला जला। अस्त व्यस्त कर त्रस्त, किया है पूर्ण रूप से धरातला ॥ स्त्री मिष निर्मित घात थान का श्रेय लेते हा! मरण जहाँ। मदन व्याधपति से पीड़ित जन-मृग ढूंढत सुख शरण यहाँ ॥१३०॥ हे निर्लज्जित! सुतप अनल से अधजल शवसम तव तन है। बना घृणा का भय का आस्पद ज्ञात नहीं क्या जड़घन है॥ तव तन को लख महिला डरती चूंकि सहज कातर रहती। क्या न डराता उन्हें वृथा तव रति उनमें क्यों कर रहती ॥१३१॥ उन्नत दो दो स्तन पर्वतमय दुर्ग परस्पर मिले वहीं। रोमावलिमय कुपथ बहुत हैं भ्रमत करें पथ दिखे नहीं ॥ दुखद त्रिवलियाँ सरितायें है जिसे घिरी, नहिं पार कहीं। स्त्री-योनी पा विषय-मूढ़! क्या खिन्न हुवा बहु बार नहीं? ॥१३२॥ मदन शस्त्र का नाड़ी व्रण है जहाँ पटकता मल कामी। काम सर्प को निवास करने बनी हुई है वह बॉमी ॥ उन्नत तम शिव मुक्ति शैल का ढका गर्त है बुध गाते। रम्य-दान्त-वाली स्त्री जन का योनिथान तू तज तातें ॥१३३॥ कृत्रिम गड्ढे में जिस विध गज! तप धारक भी गिरते हैं। स्त्रीजन के उस योनिथान में विषयों से जब घिरते हैं। प्रथम जन्म थल अतः मात वह रागथान! पर जड़ कहते। उन दुष्टों के दुष्ट वचन से ठगा जगत है हम कहते ॥१३४॥ कराल काला काल कूट वह महादेव के गला पड़ा। पर उस विषधर का विष उस पर नहीं चढ़ा क्या भला चढ़ा ॥ तथापि वह तो स्त्री संगति से अति जलता दिन-रात रहे। निश्चित ही बस विषम विषमतम विष हैं स्त्री जन, ज्ञात रहे ॥१३५॥ सकल दोष के कोष यदपि स्त्री-काया की परिणति होती। शशि आदिक सम सुंदर दिखती जिससे यदि तव रति होती ॥ शुचितम शुभतम पदार्थ भर में करो भली फिर प्रीति यहाँ। किन्तु काम रत मदान्ध जन में कहाँ बोध शुभ रीति कहाँ ॥१३६॥ यदा प्रिया को अनुभवता मन केवल कातर बने दुखी। किन्तु प्रिया को विषयी-इन्द्रिय अनुभवती तब बने सुखी ॥ मात्र शब्द से नहीं नपुंसक रहा अर्थ से भी मन ओ। शब्द अर्थ से पुरुष बने फिर मन के साथी बुधजन हो? ॥१३७॥ न्याय युक्त ही राज्य पूज्य है पूज्य ज्ञान-युत सुतप महा। राज्य त्याग तप करे महा, लघु करे राज्य, तज सुतप अहा ॥ राज्य कार्य से सुतप पूज्य है इस विध बुधजन समझ सभी। पाप भीत वे आर्य करें बस भव-भय हर तप सहज अभी ॥१३८॥ पूर्ण खिले हों पूर्ण सुगंधित फूल महकते जब तक हैं। देव सुबुध तक मस्तक पर भी धारण करते तब तक हैं॥ छूते पैरों से तक पुनि ना, गंध फूल से नहिं झरता। अहो जगत् में नाश गुणों का क्या क्या अनर्थ नहिं करता ॥१३९॥ अरे चन्द्र तू तूझे हुआ क्या बता समल क्यों बना कुधी। बनना तुझको समल इष्ट था पूर्ण समल क्यों बना नहीं ॥ तव मल को प्रकटाती ज्योत्स्ना व्यर्थ रही बदनाम रही। मलिन राहु सम यदि बनता तो अदृश्य होता शाम कहीं ॥१४०॥ दोष छिपा कुछ शिष्य जनों के स्वयं मनो गुरु चले चला। दोष सहित यदि शिष्य मरे तो फिर वह गुरु क्या करे भला ॥ इसीलिये वह किसी तरह भी हितकारी गुरु नहीं रहा। स्वल्प दोष भी बढ़ा चढ़ा खल भले कहें गुरु वही महा ॥१४१॥ गुरु के वचनों में यद्यपि वह कठोरता भी रहती है। भविकजनों के मन की कलियाँ तथापि खुलती खिलती हैं॥ प्रखर प्रखरतर दिनकर की वे किरणें अगनी बरसातीं। कोमल कोमलतम कमलों को किन्तु खुल खिला विहँसाती ॥१४२॥ उभय लोक के हित की बातें कई सुनाते सुनते थे। विगत काल में भी दुर्लभ थे सुनते सुनते गुणते थे॥ धर्म सुनाता कौन सुने अब ये भी दुर्लभ विरल मिले। हित पथ पर चलने वाले तो ‘ईद चन्द्र' सम विरल खिले ॥१४३॥ दोष गुणन का ज्ञान जिन्हें है जबकि दिखाते दूषण हैं। बुधजन को वह सदुपदेश सम प्रिय लगता है भूषण है॥ बुधजन की जो करें प्रशंसा बिन आगम का ज्ञान अहा। विज्ञ तुष्ट नहिं होते उससे खेद कष्ट अज्ञान रहा ॥१४४॥ सद्गति सुख के साधक गुण-गण जिन्हें अपेक्षित प्यारे हैं। दुर्गति दुख के कारण सारे हुए उपेक्षित खारे हैं॥ फलतः साधक को भजते हैं अहित विधायक को तजते। सुबुधजनों में श्रेष्ठ रहे वे जन-जन हैं उनको भजते ॥१४५॥ अविनश्वर शिव सुखप्रद पथ तज अहित पंथ पर चलता है। कुधी बना है दुःख दाह से फलतः पल-पल जलता है॥ कुटिल चाल तज सरल चाल से शिव पथगामी यदि बनता। सुधी नियम से बन अनुभवता तू शाश्वत शिव सुख-धनता ॥१४६॥ मिथ्यात्वादिक दोष रहे हैं मोहादिक से उदित हुए। सम्यक्त्वादिक गुण लसते हैं मोहादिक जब शमित हुए ॥ समझ त्याज्य तज अहित हेतु को हित साधन को गह पाता। सुख निधि यश निधि वही, वही बुध, वही सुचारित कहलाता ॥१४७॥ बढ़न किसी के घटन किसी के आयु धनादिक हैं चलते। पूर्व उपार्जित पुण्य पाप फल साधारण सबमें मिलते ॥ किन्तु दृगादिक बढ़े, घटे अघ जिनके वे ही विज्ञ रहे। इससे उल्टा जीवन जिनका सुबुध कहें वे अज्ञ रहे ॥१४८॥ दण्ड नीति ही चलती केवल नरपतियों से कलियुग में। धनार्थ नरपति इसे चलाते किन्तु नहीं धन मुनिपद में ॥ इधर ख्याति रत गुरु शिष्यों को नहिं शिवपथ दिखला सकता। मूल्य मणी सम महामना मुनि महि में है विरला दिखता ॥१४९॥ निज को मुनि माने अति आकुल महिलाजन के लखने से। भ्रमते व्याकुल बाण लगे उन घायल मृग के गण जैसे ॥ विषय वनी में जिन्हें कभी भी बना असंभव स्थिर रहना। तूफानी बादल सम चंचल उनकी संगति मत करना ॥१५०॥ गेह गुफा हो गगन दिशायें तेरे हो बस वसन सदा। द्वादशविध तप विकास मधुरिम इष्ट उड़ा ले अशन सुधा॥ परमागम का अर्थ प्राप्त तुझ गुणावली तव वनिता है। वृथा याचना मत कर अब तू मुनियों की यह कविता है ॥१५१॥ सकल विश्व में और दूसरा नभ सम गुरुतम नहीं रहा। उसी तरह बस यह भी निश्चित अणु सम लघुतम नहीं रहा ॥ मात्र इसी पर ध्यान दे रहे सूक्ति यहाँ जो प्रचलित है। स्वाभिमान मंडित जन औ क्या नहीं दीन से परिचित है॥१५२॥ याचक बनकर दीन याचना दीन भाव से करता है। मैं मानें तब उसका गौरव दाता में जा भरता है॥ मेरा निर्णय मानो यदि यह प्रमाण पन नहिं रखता है। दान समय में दाता गुरु औ याचक लघु क्यों दिखता है ॥१५३॥ ग्रहण भाव को रखने वाले नीचे जाते दिखते हैं। ग्रहण भाव को नहिं रखते वे ऊपर जाते दिखते हैं। इसी बात को स्पष्ट रूप से तुला हमें बतलाती है। भरी पालड़ी नीचे जाती खाली ऊपर जाती है॥१५४॥ धनी-जनों से धन की इच्छा सभी निर्धनी करते हैं। धनी बनाकर किन्तु तृप्त भी उन्हें धनी कब करते हैं। याचक की ना प्यास बुझाता धनिकपना क्या काम रहा। धनिकपना से निर्धनपनमय मुनिपन वर अभिराम रहा ॥१५५॥ अतल अगम पाताल छू रही आशा की जो खाई है। तीन लोक की सब निधियाँ भी जिसे नहीं भर पाई हैं॥ किन्तु उसे बस पूर्ण रूप से स्वाभिमान धन भरता है। इसीलिये तू मान! मानधन ही धन भव-दुख हरता है ॥१५६॥ तीन लोक के नीचे जिसने किया थाह किसने पाई। थाह नहीं है अथाह आशा खाई दुखदाई भाई ॥ किन्तु यही आश्चर्य रहा है किया इसे भी समतल है। तज तज विषयों को भविकों ने धार तोष धन संबल है॥१५७॥ भाव-भक्ति से शुद्ध अशन यदि यथासमय श्रावक देते। तन की स्थिति, तप की उन्नति हो तभी स्वल्प कुछ मुनि लेते ॥ महामना मुनियों को वह भी लज्जा का ही कारण है। अन्य परिग्रह को फिर किस विध कर सकते वे धारण हैं ॥१५८॥ देह अशन-धन गृही व्रती है दाता इस विध शास्त्र कहें। निज पर हित हो अशन गहें मुनि निरीह तन से पात्र रहें॥ पात्र दान दे पात्र दान ले रागद्वेष यदि वे करते। कलियुग की यह महिमा कहते बुध जिस पर लज्जा करते ॥१५९॥ त्रिभुवन आलोकित जिससे हो तव वर केवलज्ञान सही। सहज आत्म सुख इन्हें मिटाया विधि ने विधि पहिचान यही ॥ विधि निर्मित इन्द्रिय पा इन्द्रिय सुख तू चखता लाज नहीं। दीन क्षुधित कुछ खा पीकर ज्यों सुखित बने दुख भाजन ही ॥१६० ॥ व्रत तप पालो सहो परीषह स्वर्गों में तुम जावोगे। विषयों की यदि रुचि है मन में विषयों को बस पाओगे ॥ भोजन पाने यदपि प्रतीक्षित क्षुधित क्षुधा की व्यथा सहो। किन्तु पेय पी नष्ट कर रहे भोजन को क्यों वृथा अहो ॥१६१॥ बाहर भीतर संग रहितपन मुनिपन ही धन बना हुवा। मृत्यु महोत्सव सदा मनाना जिनका जीवन बना हुवा ॥ साधु-जनों को एक मात्र बस विशद सुलोचन ज्ञान सही। फिरविधि उनको क्या कर सकता विचलित या भयवान कभी ॥१६॥ जीवन जीने की अभिलाषा आशा धन की जिन्हें रही। कर्म उन्हें पीड़ित कर सकता भीति कर्म से उन्हें रही ॥ जिनकी आशा निराशता में किन्तु ढली फिर कर्म भला। उन्हें दुखी क्या कर सकता है सुखमय आतम धर्म भुला ॥१६३॥ चक्री पद को पाकर भी तज तापस बन तप तपते हैं। परम पूज्य वे बनते, जन-जन नाम उन्हीं के जपते हैं। पुरुष बने हैं किन्तु तपों को तज विषयन में झूल रहें। पद-पद पर उनकी निंदा हो हित का साधन भूल रहें ॥१६४॥ चक्री, चक्रीपन तज तपता विस्मय करना विफल रहा। अनुपम अव्यय आत्मिक सुख यह चूंकि सुतप का सुफल रहा ॥ समझ विषम विष विषयों को तज तपधर, पुनि तज तप मोही। सुधी उन्हीं का सेवन करते रहा महा विस्मय सो ही ॥१६५॥ उन्नत शैया तल से नीचे भू तल पर आ शिशु गिरता। संभावित पीड़ा लखकर तब कॅपता भय से है घिरता ॥ त्रिभुवन से भी उन्नत तप गिरि से गिरते मतिवर यति हैं। किन्तु भीति नहिं होती उनको होते विस्मित हम अति हैं ॥१६६॥ अतीचार से अनाचार से हुवा महाव्रत दूषित हो। योग सुतप का उसे मिले तो शुचिपन से झट भूषित हो ॥ विमल विमलतम उस तप को भी मलिन मलिनतम करता है। सदाचार से दूर दुष्ट जो दुराचार भर धरता है॥१६७॥ जहाँ कहीं भी मिलते सौ सौ कौतुक विस्मयकारी हैं। उन सबमें भी इन दो पर ही होता विस्मय भारी है॥ परमामृत का प्रथम पानकर पुनः उसे जो वमन करें। सुकृत रहित वे व्रतधर व्रत तज फिर विषयन में रमण करें ॥१६८॥ बाह्य शत्रु आरंभादिक को पूर्ण रूप से त्याग दिया। निज बल संग्रह करने वाला अब थोड़ा बस जाग जिया ॥ अशन शयन गमनादिक में हो जागृत निज रक्षण करना। रागादिक का क्षय करना हो व्रत पालन हर क्षण करना ॥१६९॥ कतिपय नयमय शाखाओं में वचन पत्र से सजा हुवा। अमित धर्म के निलय अर्थमय फूल फलों से लदा हुवा ॥ उन्नत ‘श्रुत-तरु' समकित मतिमय जड़ जिसकी अति दृढ़तर भी। बुधजन अपने मन मर्कट नित रमण करावे उस पर ही ॥१७० ॥ अव्यय व्ययमय एक नैक भी विलसित होती निज सत्ता। वही द्रव्य पर्यय वश लसती गौण मुख्य हो मतिमत्ता ॥ आदि रहित है मध्य रहित है अन्त रहित भी जगत रही। इस विध चिंतन बुधजन कर लो रहो जगत में जगत सही ॥१७१॥ एक द्रव्य ही एक समय में ध्रौव्य रूप भी लसता है। नाश रूप भी वही दिखाता जन्म धार-कर हँसता है॥ यदि इस विधि ना स्वीकृत करते फिर यह निश्चित थोथा है। नित्यपने का अनित्यपन का ज्ञान हमें जो होता है॥१७२॥ बोधधाम ही क्षणिक नित्य ही अभावमय ही तत्त्व रहा। चूंकि उचित ना इस विध कहना उस विध दिखता तत्त्व कहाँ ॥ भेदाभेदात्मक हो लसता किन्तु तत्त्व वह प्रतिपल है। इसी भाँति सब आदि अन्त बिन समझो मिलता शिवफल है ॥१७३॥ रवि सम भाता आतम का है स्वभाव केवलज्ञान रहा। उसका मिलना ही मिलना बस शिवसुख है अभिराम रहा ॥ इसीलिए तुम सुचिर काल से शिव सुख की यदि चाह करो। ज्ञान भावना के सरवर में संग त्याग अवगाह करो ॥१७४॥ ज्ञान भावना का फल भी वह ज्ञान मात्र बस भास्वर है। श्लाघनीय है अर्चनीय है नश्वर नहिं अविनश्वर है॥ किन्तु ज्ञान की सतत भावना अज्ञ करे भव सुख पाने। अहो! मोह की महिमा न्यारी सुख दुख क्या है ना जाने ॥१७५॥ शास्त्र अग्नि में भविजन निज को जला-जला शुचि हो लसते। मणिसम बनकर मनहर सुखकर लोक शिखर पर जा बसते ॥ उसी अग्नि में मलिन मुखी हो राख-राख बनकर नशते। किन्तु दुष्ट वे विषयी निज को विषय पाश से हैं कसते ॥१७६॥ बार-बार बस ज्ञान नेत्र को फैला-फैला लखना है। पदार्थ दल जिस विध है उस विध उसको केवल चखना है॥ आतम-ज्ञाता मुनि वे केवल ध्यान सुधा का पान करें। किन्तु भूल भी राग-रोष के कभी नहीं गुणगान करें ॥१७७॥ कर्म निर्जरा सहित किन्तु वह जब तक विधि बंधन पलता। तब तक भवदधि में आतम का भ्रमण नियम से है चलता ॥ एक छोर से रस्सी बँधती एक ओर से खुलती है। तब तक निश्चित मथनी की वह भ्रमण क्रिया बस चलती है॥१७८॥ एक ओर से भले छोड़ दो रस्सी, मथनी नहिं रुकती। और छोर से नियम रूप से बँधती भ्रमती है रहती ॥ उसी भाँति कुछ कर्म छोड़ते बंध भ्रमण पर नहिं मिटते। पूर्ण निर्जरा यदि करते हो बंध भ्रमण तब सब मिटते ॥१७९॥ भले पालते समिति गुप्तियाँ तुम बहुविध तप हो धरते। बहुविध विधि का बंधन बँधता राग-द्वेष यदि हो करते ॥ तत्त्वज्ञान को किन्तु धारते राग-रोष यदि नहिं करते। उन्हीं समितियाँ गुप्ति पालकर मुक्ति-रमा को झट वरते ॥१८० ॥ हित पथ के प्रति अरुचि भाव औ अहित पंथ का राग वही। पाप कर्म का बंध कराता अतः उसे तू त्याग यहीं। इससे जो विपरीत भाव है पाप मिटाता पुण्य मिले। दोनों मिटते शिव मिलता पर प्रथम पाप पुनि पुण्य मिटे ॥१८१॥ मूल और अंकुर जिस विध वे सदा बीज से उदित रहें। मोह बीज से राग-द्वेष भी उदित हुए हैं विदित रहें। तत्त्वज्ञान के तेज अनल से उन्हें जला कर शान्त करो। तप्त क्लान्त निज जीवन को तुम सुधा पिलाकर शान्त करो ॥१८२॥ नस पर गहरा घाव पुराना पल-पल पीड़ाप्रद होता। सदुपचार घृत-आदिक का हो मिटता सीधा पद होता ॥ मोह घाव भी संग ग्रहण से सुचिर काल से सता रहा। संग त्याग से वह भी मिटता शिव मिलता गुरु बता रहा ॥१८३॥ मित्र मानते तुम उनको यदि सुखित तुम्हें जो करते हैं। तथा शत्रु यदि उन्हें मानते दुखित तुम्हें जो करते हैं। किन्तु मित्र जब मरते तब तुम विरह दुःख अति सहते हो। अतः मित्र भी शत्रु हुए फिर शोक वृथा क्यों करते हो ॥१८४॥ मरण टले ना टाले, मरते अपने परिजन पुरजन हैं। विलाप कर-कर रोते खुद भी मरण समय में जड़ जन हैं। उन्हें सुगति यश किस विध मिलते वीर-मरण के सुफल रहें। सुधी करें ना शोक मरण में फलतः शिव सुख विमल गहें ॥१८५॥ इष्ट वस्तु जब मिटती तब हो शोक, शोक से दुख होता। इष्ट वस्तु जब मिलती तब हो राग, राग से सुख होता ॥ अतः सुधीजन इष्ट हानि में शोक किये बिन मुदित रहें। सदा सर्वदा सुखी सर्वथा उन पद में हम नमित रहें ॥१८६॥ इस भव में जो सुखी हुवा हो वही सुखी पर भव में हो। दुखी रहा है इस जीवन में वही दुखी पर भव में हो ॥ उचित रहा है सुख का कारण सकल संग का त्याग रहा। उससे उलटा दुख का कारण ग्रहण संग का राग रहा ॥१८७॥ मरण प्राप्त कर पुनः मरण को जग प्राणी जो पाते हैं। उनका वह ही जनम रहा है साधु संत यों गाते हैं। किन्तु जन्म में जन्म दिवस में होते मोही प्रमुदित हैं। मना रहे वे भावी मृति का उत्सव यह मम अभिमत हैं ॥१८८॥ सकल श्रुतामृत पी डाला है चिर से खरतर तप धारा। उनका फल यदि नाम यशादिक चाह रहा गत-मतिवाला ॥ तप तरु में जो लगा फूल है उसे तोड़ता वृथा रहा। सरस पक्व फल किस विध फिर तू खा पायेगा व्यथा रहा ॥१८९॥ सदा सर्वदा लोकेषण बिन श्रुत का आलोडन कर लो। उचित तपों से तन शोषण कर निज का अवलोकन कर लो ॥ इन्द्रिय विषयों कषाय रिपुओं जीत विजेता तभी बनो। तप श्रुत का फल शम है मुनिजन गीत सुनाते सभी सुनो ॥१९०॥ विषय रसिक को लखकर क्यों कर विषय भाव मन में लाते। भले अल्प हो विषय भाव अति अनर्थ जीवन में लाते ॥ उचित रहा यह तैलादिक तो अपथ्य रोगी को जैसे। निषिद्ध मानो निषिद्ध ना है सशक्त भोगी को वैसे ॥१९१॥ अहित विधायक विषयों में रत विषयीजन भी त्याग करें। निज प्रमदा यदि पर पुरुषन में एक बार भी राग करें। भव-भव में वे जिनने परखे विषय विषम विष से सारे। निज हित में रत बुध किस विध फिर विषयों में रत हो प्यारे ॥१९२॥ दुराचार कर दूषित निज को कर चिर बहिरातम रुलता। अब तुम मुनि बन निज चारित जल से अंतर आतम धुलता ॥ मिले आत्म से परमातम पद मिलता केवलज्ञान महा। आतम से आतम में आत्मिक सुख का कर अनुपान अहा ॥१९३॥ दास बनाकर तन ने अब तक कष्ट दिया अति कटुतर है। अनशनादि तप से इसको अब कृश कृशतर कर अवसर है॥ जब तक तन की स्थिति है तब तक ले लो तुम इससे बदला। स्वयं शत्रु आ मिला मिटा ले भीतर का बाहर बल ला ॥१९४॥ प्रथम जनन हो तन का तन में भाँति-भाँति इन्द्रिय उगती। इन्द्रिय निज-निज विषय चाहती विषय वासना अति जगती ॥ फलतः होती मानहानि हो श्रम भय अघ हो दुर्गति हो। अनर्थ जड़ है तन यह तेरा, तप तपता यदि शिवगति हो ॥१९५॥ मोह भाव से मंडित जन ही तन का पोषण करते हैं। विषयों का सेवन करते हैं आतम शोषण करते हैं। सब कुछ उनको सुलभ रहे हैं कोई दुष्कर कार्य नहीं। विष पीकर भी जीवन जीना चाह रहे वे आर्य नहीं ॥१९६॥ इधर-उधर दिन भर मृगगण वे दुखित हुए वन में भ्रमते। किन्तु रात में ग्रामादिक के निकट थान में आ जमते ॥ इसी भाँति कलियुग में मुनिगण दिन में रहते हैं वन में। किन्तु खेद! यह निशा बिताते नगर निकट के उपवन में ॥१९७॥ यदपि आज तुम तप धरते हो बचकर रागी बनने से। यदि लुटती वैराग्य संपदा कल स्त्रीजन के लखने से ॥ जनन मरण तो नहीं मिटाता किन्तु बढ़ाता उस तप से। श्रेष्ठ रहा वह गृहस्थपन ही शास्त्र कह रहा तुम सबसे ॥१९८॥ स्वाभिमान औ लज्जा तजकर जीवन जीता स्वार्थ बिना। स्त्री के वश अपमानित शत शत बार हुआ अति आर्त बना ॥ ठगा हुआ है स्त्री तन से तू किन्तु साथ वे नहीं चलते। रहा सुधी यदि अतः राग तज तन का जिससे विधि पलते ॥१९९॥ एक गुणी से एक गुणी का हो सकता समवाय नहीं। किन्तु काय से ऐक्य रहा तव कष्ट खेद बस हाय यही ॥ तव तन नहिं है तन में रचता अभेद जिसको मान रहा। छिदता भिदता भव वन में तू बहुत दुखी भयवान रहा ॥२०० ॥ जनन रहा जो मात वही तव मरण रहा ओ तात रहें। विविध आधियाँ दुखद व्याधियाँ तथा सगे तव भ्रात रहें। अन्त समय में साथ दे रहा परम मित्र है जरा वही। फिर भी तन में आशा अटकी भला सोच तू जरा सही ॥२०१॥ स्वभाव से ही विषय बनाता त्रिभुवन को तव ज्ञान महा। अमूर्त शुचि हो अशुचि मूर्त तू तन वश तज निज भान अहा ॥ मूर्त रहा तन रहा अचेतन अशुचिधाम मल झरता है। किस किस को ना दूषित करता धिक धिक सबको करता है॥२०२॥ नर सुर पशु नारक गतियों में सुचिर काल से दुखित हुवा। उसका कारण तन-धारण तन-पालन में तू निरत हुवा ॥ विदित हुवा है तुझे अचेतन अशुचि निकेतन तव तन है। अब यह साहस! तन तजना तन-राग मिटा, तब शिवधन है॥२०३॥ जिनके तन में असहनीय हों कर्म योग से रोग रहे। विचलित यति ना होते फिर भी उनका शुचि उपयोग रहे ॥ उचित रहा यह भले बढ़ रहा नीर नदी में बड़ी नदी। छिद्र रहित नौका में बैठा यात्री डरता कभी नहीं ॥२०४॥ साधक तन में रोग हुवा हो उचित रूप उपचार करें। यदि नहिं मिटता तन तज निज पर समता धर उपकार करें॥ आग लगी हो घर में यदि तो जल से उसका शमन करें। नहीं बुझे तो वहीं रहें क्या? और कहीं झट गमन करें ॥२०५॥ सर पर भारी भार स्वयं ले पथिक चल रहा पथ पर हो। किसी तरह कंधे पर उसको उतार कर चलता फिर वो ॥ यदपि भार तन पर से उतरा नहीं तदपि वह अज्ञानी। सुख का अनुभव करता इस पर निश्चित हँसते सब ज्ञानी ॥२०६॥ सदुपचार से रोगों का यदि प्रतीकार वह हो सकता। तब तक उनका प्रतीकार भी यथायोग्य बस कर सकता ॥ प्रतीकार करने से भी वे यदि ना होते प्रशमित हैं। क्लेश क्षोभ बिन रहना ही फिर प्रतीकार है, समुचित है॥२०७॥ तन रति रखता फिर-फिर तन धर यह भव वन में भ्रमता है। निरीह तन से बन तन तजता मुक्ति भवन में रमता है॥ इसीलिए बस इस जीवन में त्याज्य रहा तन रति तन है। अर्थहीन शत अन्य विकल्पों से तो केवल बंधन है ॥२०८॥ रहा अपावन स्वभाव से ही काय रहा यह जड़मय है। पूज्य बनाता उसे चरित से आतम का यह अतिशय है॥ किन्तु काय तो आतम को भी निंद्य बनाता नीच अहा। इसीलिये धिक्कार उसे हो कीच रहा भव बीच रहा ॥२०९॥ रस रुधिरादिक सप्त धातुमय जिसका आदिम भाग रहा। ज्ञानावरणादि कार्मिक वह जड़मय मध्यम भाग रहा ॥ ज्ञानादिक गुण-गण ले चिर से भाग तीसरा वह भाता। रहा त्रयात्मक इसविध प्राणी भव-भव भ्रमता दुख पाता ॥२१०॥ रहा त्रयात्मक भाग सहित यह आतम जीवन जीता है। नित्य रहा है वसु विध विधि के कलुषित पीवन पीता है॥ सही जानकर दो भागों से पृथक् जीव को कर सकता। तत्त्व ज्ञान का अवधारक वह शीघ्र भवोदधि तिर सकता ॥२११॥ घोर घोरतर विविध तपों को मतकर यदि नहिं कर सकता। क्योंकि दीर्घ संहनन नहीं है क्लेश सहन नहिं कर सकता ॥ मन निग्रह कर कषाय रिपु पर विजय प्राप्त यदि नहिं करता। विज्ञ कहें तव यही अज्ञता मैं समझूँ यह कायरता ॥२१२॥ अगाध यद्यपि हृदय सरसि शुचि चेतन जल से भरित रहा। कषायमय हिंसक जलचर से किन्तु पूर्ण यदि क्षुभित रहा ॥ क्षमादि उत्तम दशलक्षण गुण, निश्चित तब तक नहिं मिलते। यम दम शम सम क्रमशः पालो फलत: पल में ये मिटते ॥२१३॥ शांत मनस की करे प्रशंसा यदपि मोक्ष सुख इष्ट रहा। किन्तु संग तज समता धरना बुधजन को भी कष्ट रहा ॥ बिल्ली चूहा सम उनकी यह दशा यही कलियुग फल है। जिससे इहभव परभव सुख से वंचित जीवन निष्फल है॥२१४॥ सागर जल सम यद्यपि तुम में बोध, शास्त्र का मनन किया। कठिन तपस्या में भी रत हो कषाय का भी हनन किया ॥ फिर भी ईर्षा साधर्मी से तुममें उसको शीघ्र तजें। जिस विधि सर सूखे ऊपर, नहिं दिखता नीचे नीर बचे ॥२१५॥ अबोध वश शिव ने मन में स्थित मनोज को ही भुला दिया। अन्य वस्तु को ‘काम’ समझकर क्रोधित होकर जला दिया ॥ उसी क्रोध कृत घोर भयानक बुरी दशा को भुगत रहा। क्रोधोदय से कार्य हानि भी किसकी ना हो? उचित रहा ॥२१६॥ बाहुबली के निजी दाहिनी चारु बाहु पर चक्र लसा। उसे तजा मुनि हुवा वनी में निसंग वन निर्वस्त्र बसा। उसी समय, पर मुक्त हुवा ना सुचिर काल तक क्लेश सहा। स्वल्प ‘मान' भी महा हानि का दायक है वृषभेश कहा ॥२१७॥ दान पुण्य में धन जिनके मन में आगम करुणा उर में। शौर्य बाहु में सत्य वचन में लक्ष्मी परम पराक्रम में ॥ शिवपथ चलते तदपि मान बिन गुणी पूर्व में बहु मिलते। अब यह विस्मय गुण बिन जीते किन्तु गर्व से हैं चलते ॥२१८॥ भू पर सब रहते भू रहती वात वलय के आश्रय ले। वाल वलय त्रय आश्रित चिर से रहते नभ के आश्रय ले ॥ ज्ञेय बना नभ पूर्ण ज्ञान के एक कोन में जब दिखता। निज से गुरु हैं उनसे लघु फिर किस विधवह मद कर सकता? ॥२१९॥ मरीचिका यश सुवरण मृग की माया से ही मलिन हुवा। तुच्छ युधिष्ठिर हुवा कहा जब अश्वथाम का मरण हुवा ॥ कपट बटुक का वेषधार कर सुनो! श्याम घनश्याम बने। अल्प छद्म भी महा कष्ट दे जहर मिला पय प्राण हने ॥२२०॥ माया का जो गर्त रहा है अतल अगम अति बड़ा रहा। सघन सघनतम मिथ्यातम से ठसा ठसा बस भरा रहा ॥ जिसमें अलिसम काली काली कराल कषाय नागिन हैं। झुक-झुक कर यदि तुम देखो तो नहीं दीखती अनगिन हैं ॥२२१॥ भीतर के मम गुप्त पाप वह किसी सुधी से विदित नहीं। शुचि गुण की वह महा हानि भी मत समझो यों उचित नहीं ॥ धवल धवलतम निजकिरणों से ताप मिटाता शांत अहो! उस शशि को जब निगल रहा हो गुप्त राहु क्या ज्ञात न हो ॥२२२॥ वनचर भय से चमरी भागी विधिवश उलझी पूँछ कहीं। लता कुंज में बाल लोलुपी अचल खड़ी सुध भूल वहीं ॥ फलतः जीवन से धो लेती हाथ यही बस खेद रहा। विपदाओं से घिरे रहें अति लोभी जन ‘यह वेद' रहा ॥२२३॥ तत्त्व मनन यम दम शम पालन तप तपना मन वश करना। कषाय निग्रह संग त्याग औ विषयों में ना फँस मरना। या, भक्ति जिन की करना ये भविक-जनों में प्रकट रहें। भाग्य खुला बस समझो उनका भवदधि तट जब निकट रहे ॥२२४॥ सब जीवों पर करुणा रखते ध्यानन में नित निरत रहें। अशन यथाविधि स्वल्प करें मुनि जितनिद्रक हैं विरत रहें। दृढ़तर संयम नियम पालते बाहर भीतर शांत रहें। समूल दुख को नष्ट करें वे सार आत्म का ज्ञात रहे ॥२२५॥ निज हित में ही दत्त चित्त हैं सकल पाप से दूर रहें। स्वपर भेदविज्ञान सहित हैं इन्द्रिय-विजयी शूर रहें। निज पर हित हो बोल बोलते मन में कुछ संकल्प नहीं। शिव सुख भाजन क्यों ना हो मुनि अनल्प सुख हो अल्प नहीं ॥२२६॥ दास बना है विषयों का जो जीवन जिसका परवशता। दोष गुणन का बोध जिसे ना काफिर का फिर क्या नशता। तीन रत्न त्रिभुवन को द्योतित करती हरती सब तम को। तुमसे इन्द्रिय चोर घिरे हैं डरना जगना है तुमको ॥२२७॥ रम्य वस्तुयें वनितादिक को वीत-मोह बन त्याग दिया। संयम साधक उपकरणों में वृथा भला क्यों राग किया। मुझे बतादे रोग भीति से यदपि अशन ना खाता है। औषध पी पी अजीर्णता को कौन सुधी वह पाता है॥२२८॥ चोरादिक से रक्षा करता कृषक समय पर कृषि करता। फसल काट कर लाता तब वह धन्य मानता खुशि धरता। तप श्रुत का साधन कर उस विध जब निज में अति थिति पाता। इन्द्रिय तस्कर बाधा से बच कृतार्थ निज को यति पाता ॥२२९॥ नाच नचाता आशा रिपु है उसे मिटाओ व्रत असि से। तत्त्व ज्ञात है ज्ञान गर्व से रहो उपेक्षित मत उससे ॥ अपार सागर जल, बाडव को देख! देखकर हिलता है। शत्रु रहें यदि निकट उसे कब जीवन में सुख मिलता है॥२३०॥ रागादिक कणिका से भी यदि जिसका मानस दूषित है। स्तुत्य नहीं वह चरित बोध से यद्यपि जीवन भूषित है॥ पाप कर्म का बंधन जिससे चूंकि निरन्तर चलता है। दीप उगलता कज्जल काला तेल जलाकर जलता है ॥२३१॥ राग रंग से जब तू हटता रोष नियम से करता है। रोष भाव को तजता फिर से राग रंग में ढलता है॥ किन्तु कभी ना रोष तोष तज लाता मन में समता है। खेद यही बस अज्ञ दुखी हो भवकानन में भ्रमता है॥२३२॥ तपा लोह का गोला जिस विध जल कण से नहिं शांत बने। पूर्ण रूप से उसे डूबा दो गहरे जल में शान्त बने । दुःख अनल में तप्त जीव की क्षणिक सौख्य से क्लांति नहीं। मिटती, मिलती मोक्ष सिंधु में डूबे तो चिर शान्ति सही ॥२३३॥ यद्यपि तुमने दिया बयाना समदर्शन का उचित हुवा। मोक्ष सौख्य पर अमिट रूप से नाम आपका लिखित हुवा ॥ निर्मल चारित विमल ज्ञान का सकल मूल्य अब देना है। तुम्हें शीघ्र शाश्वत शिव सुख को निजाधीन कर लेना है ॥२३४॥ यथार्थ में यह सकल विश्व ही एक रूप है योग्य रहा। निवृत्ति वश तो अभोग्यमय है प्रवृत्ति वश है भोग्य रहा ॥ भोग्य रहा हो अभोग्य या हो इस विध विकल्प तजना है। मोक्ष सौख्य की प्यास तुम्हें यदि निर्विकल्प पन भजना है ॥२३५॥ त्याज्य वस्तुयें जब तक तुम नहिं तजते तब तक बुधजन से। त्याग भावना अविरल भावो मन से वच से औ तन से ॥ तदुपरान्त ना प्रवृत्ति रहती निवृत्ति भी वह ना रहती। अक्षय अव्यय वही निरापद-पद है जिनवाणी कहती ॥२३६॥ राग द्वेष यदि मन में उठते प्रवृत्ति वह कहलाती है। उनका निग्रह करना ही वह निवृत्ति यति को भाती है॥ बाह्य द्रव्य के बिना किन्तु वे रागादिक ना हो पाते। सर्वप्रथम तुम बाह्य द्रव्य सब तजो भजो निज को तातें ॥२३७॥ महा भयानक भव भंवरों में भ्रमित पड़ा मैं दुख पाता। जिन भावों को भा न सका अब उन भावों को बस भाता ॥ विषय भावना भा-भाकर ही बार-बार भव बढ़ा लिया। उन्हें तजूं निज भाव भजूँ है भवनाशक गुरु पढ़ा दिया ॥२३८॥ सुनो! शुभाशुभ पुण्य पाप औ सुख दुख छह त्रय युगल रहें। प्रति युगलों में आदिम त्रय है हित कारण हैं विमल रहें। उनको तुम अपने जीवन में धारण कर लो सुख वर लो। अशुभ पाप दुख शेष अहित हैं अहित हेतुवों को हर लो ॥२३९॥ हित-कारक में भी आदिम सुख का तजना अनिवार्य रहा। पुण्य और सुख स्वयं छूट ही जाते हैं सुन आर्य! महा॥ इस विध शुभ को छोड़ शुद्ध में श्वास श्वास पर बस रमना। अंत समय में अनंत पद पा अनन्त भव में ना भ्रमना ॥२४०॥ जीव रहा चिर बंधन बंधित बंधन तनादि आस्रव से। आस्रव कषाय वश वे कषाय प्रमाद के उस आश्रय से ॥ वह मिथ्या अविरति वश अविरत कालादिक कारण पाते। दृग व्रत प्रमाद बिन शम धारे योग रोध कर शिव जाते ॥२४१॥ यह तन मेरा रहा, रहा मैं इसका, इसविध प्रीति रही। तब तक तप फल शिवसुख, आशा वृथा रही यह नीति सही ॥ कृषक कृषी है करता पूरण खेत भरी है फसल खड़ी। ईति भीति आदिक से यदि है घिरी, फलाशा विफल रही ॥२४२॥ तन ही मैं हूँ मैं ही तन है इसविध चिर से भ्रान्त रहा। भवसागर में फलतः अब तक दुखित रहा है क्लान्त रहा ॥ अन्य रहा हूँ तन से तन भी मुझसे निश्चित अन्य रहा। तन तो तन है मैं तो मैं हूँ शिवसुख दे चैतन्य महा ॥२४३॥ बाहर कारण बाह्य वस्तु भी विगत काल में अन्ध हुवा। पर पदार्थ में रत था तू तब दृढ़ दृढ़तम विधि बंध हुवा ॥ वही वस्तु वैराग्य ज्ञान वश विधि के क्षय में कारण है। सुधी-जनों की सहज कुशलता अगम अहो अघमारण है ॥२४४॥ किसी जीव को अधिक अधिकतम विधि बंधन वह होता है। किसी जीव को न्यून न्यूनतम कर्म बंध ही होता है। किन्तु निर्जरा किसी किसी को केवल होती ज्ञात रहे। बंध मोक्ष का यही रहा क्रम यही बात जिननाथ कहें ॥२४५॥ गत जीवन में जिसने बाँधा पुण्य रहा औ पाप रहा। बिना दिये फल वह यदि गलता तप का वह फल आप रहा ॥ वह शुचि उपयोगी है योगी उसे शीघ्र शिवधाम मिले ॥ पुनः कर्म का आस्रव नहिं हो ज्ञान ज्योति अभिराम जले ॥२४६॥ महा सुतपमय विशाल सरवर नयन मनोहर वह साता। उजल-उजलतम शान्त-शान्ततम गुणमय जल से लहराता ॥ नियमरूप जो बांध बँधी है किन्तु कभी वह ना फूटे। रहो उपेक्षित मत उससे तुम नहिं तो जीवन ही लूटे ॥२४७॥ मुनि का मुनिपद घर है जिसके सुदृढ़ गुप्तित्रय द्वार रहें। मतिमय जिसकी नींव रही है धैर्य-रूप दीवार रहें। किन्तु कहीं भी दोष छिद्र यदि उसमें हो तो घुसते हैं। राग-रोषमय कुटिल सर्प वे भय से मुनि-गुण नशते हैं ॥२४८॥ कठिन कठिनतर विविध तपों को तपता तापस बनकर है। पूर्ण मिटाने निज दोषों को पूर्ण रूप से तत्पर है॥ पर दोषों को अपना भोजन बना अज्ञ यदि जीता है। निज दोषों को और पुष्ट कर रहता सुख से रीता है॥२४९॥ विधिवश शशि सम कलंक गुणगण-धारक को यदि है लगता। मूढ़ अन्ध भी सहज रूप से उसको बस लखने लगता ॥ दोष देखकर भी वह उसकी महानता को कब पाता?। स्वयं प्रकट शशि कलंक लख भी विश्व कभी शशि बन पाता ॥२५०॥ विगत काल में जो कुछ हमने किया कराया मरण किया। बिना ज्ञान अज्ञान भाव से प्रेरित हो आचरण किया ॥ क्रम-क्रम से इस विध योगी को वस्तु तत्त्व प्रतिभासित हो। ज्ञान भानु का उदय हुवा हो अँधकार निष्कासित हो ॥२५१॥ जिनके मन की जड़ वह ममता-जल से भींगी जब तक है। महातपस्वी जन की आशा-बेल युवति ही तब तक है॥ अनशन आदिक कठिनी चर्या अतः करें वे बुधजन हैं। चिर परिचित उस निजी देह से निरीह रहते निशिदिन है॥२५२॥ क्षीर-नीर आपस में मिलकर एक रूप ही दिखते हैं। यथार्थ में तो भिन्न-भिन्न ही लक्षण अपने रखते हैं। उसी भाँति तन आतम भी हैं भिन्न-भिन्न फिर सही बता। धन कण आदिक पूर्ण भिन्न हैं फिर इनकी क्या रही कथा ॥२५३॥ स्वभाव से जल यद्यपि शीतल अनल योग पा जलता है। तप्त हुवा हूँ देह योग से सता रही आकुलता है॥ इस विध चिंतन बार- बार कर भव्य जनों ने तन त्यागा। शान्त हुए विश्रान्त हुए हैं जिनमें अनन्त बल जागा ॥२५४॥ समय समय पर समान बल ले वृद्धि पा रहा नहीं पता। कब से बैठा मन में मदमय महामोह है यही व्यथा ॥ समीचीन निज परम योग से उसका जिनने वमन किया। भावी जीवन उनका उज्ज्वल उनको हमने नमन किया ॥२५५॥ भव सुख तजने को सुख गिनते विधि फल सुख को आपद है। तन क्षय को मनवांछित मिलना निसंगपन को संपद है॥ दुख भी सुख भी सब कुछ सुख है जिन्हें साधु वे सही सुधी। सब कुछ लूटे किन्तु मनावे मृत्यु महोत्सव तभी सुखी ॥२५६॥ सुबुध उदय में असमय में ला तप से विधि को खपा रहे। स्वयं उदय में विधि यदि आता खेद नहीं विधि कृपा रहे॥ विजय भाव से रिपु से भिड़ने लड़ने भट यदि उद्यत हो। खुद रिपु चढ़ आता तब फिर क्या हानि लाभ ही प्रत्युत हो ॥२५७॥ सहे परीषह सकल संग तज एकाकी निर्भ्रांत दमी। तन भी शिव का कारण इस विध सोच लाज वश क्लान्त यमी ॥ निजी कार्यरत अकाय बनने आसन दृढ़ कर ध्यान करें। गिरि कन्दर में अभय सिंह सम मोह रहित निज ज्ञान धरें ॥२५८॥ स्थान शिलातल जिनका भूषण निज तन पर जो धूल लगी। रहें सिंह वह गुफा गेह हैं शय्या धरती शूलमयी ॥ यह मम यह मैं विकल्प छोड़े मोह ग्रन्थियाँ सब तोड़े। शुद्ध करें मम मन को ज्ञानी निरीह शिव से मन जोड़े ॥२५९॥ जिनमें अतिशय तप बल से वर ज्ञान ज्योति वह उदित हुई। किसी तरह भी निज को पाये तप्त चेतना मुदित हुई॥ चपल सभय मृग अचल अभय हो वन में जिनको लखते हैं। धन्य साधु चिरकाल बिताते अचिन्त्य चारित रखते हैं ॥२६०॥ आशा आतम में जो अन्तर अज्ञ जनों को ज्ञात नहीं। उस अन्तर को ज्ञात किये बिन होते बुध विश्रान्त नहीं ॥ बाह्य विषय से हटा मनस को निज में नियमित अचल रहें। शम धन धारे उन मुनि पद रज मम मन को अति विमल करे ॥२६१॥ पूर्व जन्म में बँधा शुभाशुभ कर्म वही बस दैव रहा। वही उदय में आता सुख-दुख पाता तू स्वयमेव अहा ॥ स्तुत्य रहें शुभ करते केवल किन्तु वन्द्य वे मुनिजन हैं। शुभाशुभों को पूर्ण मिटाने तजे संग धन परिजन हैं ॥२६॥ सुख होता या दुख होता जब किया कर्म का स्वफल रहा। हर्ष भाव क्यों खेद भाव क्यों करना, करना विफल रहा ॥ इस विध विचार, विराग यदि हो नया बँध ना फिर बनता। पूर्व कर्म सब झड़े साधु तब मणि सम मंजुलतर बनता ॥२६३॥ पूर्ण विमल निज बोध अनल वह देह गेह में जनम लिया। यथा काष्ठ को अनल जलाता अदय बना तन भसम किया। हुई राख तन तदुपरांत भी उद्दीपित हो जलता है। विस्मयकारक साधु चरित है पता न बल का चलता है॥२६४॥ गुणी रहा जो वही नियम से विविध गुणों का निलय रहा। विलय गुणों का होना ही बस हुवा गुणी का विलय रहा ॥ अतः ‘मोक्ष' गुण गुणी विलय ही अन्य मतों का अभिमत है। रागादिक की किन्तु हानि ही ‘मोक्ष' रहा यह 'जिनमत' है॥२६५॥ निज गुण कर्ता निज सुख भोक्ता अमूर्त सुख से पूर रहें। केवलज्ञानी जनन दुःख से तथा मरण से दूर रहें। काय कर्म से मुक्त हुए प्रभु लोक शिखर पर अचल बसे। अंतिम तन आकार जिन्होंका असंख्य देशी विमल लसे ॥२६६॥ कर्म निर्जरा लक्ष्य बनाकर तप में अन्तर्धान रहें। तब कुछ दुख निश्चित हो तापस किन्तु उसे सुख मान रहें। शुद्ध हुए फिर सिद्ध हुए हैं अविनश्वर सुखधाम हुए। वे किस विध फिर सुखी नहीं हो, जिन्हें स्मरें कृत काम हुए ॥२६७॥ इस विध कतिपय शुभ वचनों का माध्यम मैंने बना लिया। बुध मन रंजक कृत्य रचा है विषयों से मन बचा लिया ॥ शिव सुख पाने करते मन में इसका चिंतन अविकल है। मिटे आपदा मिले संपदा उन्हें शीघ्र सुख निर्मल है ॥२६८॥ परम पूत आचार्य दिगंबर वीतराग जिनसेन रहे, जिनके पद की स्मृति में जिसका मानस रत दिन-रैन रहे। वही रहा गुणभद्र सूरि, कृति आतम अनुशासन जिनकी। सुधा सिन्धु है पीते मिटती क्लान्ति सभी बस तन मन की ॥२६९॥
  21. मंगलाचरण सन्मति को मम नमन हो, मम मति सन्मति होय। नर-सुर-पशु गति सब मिटे, पंचम गति होय ॥१॥ चन्दन चन्दर - चाँदनी, से जिन-धुनी अतिशीत। उसका सेवन मैं करूँ, मन-वच-तन कर नीत ॥२॥ सुर, सुर-गुरु तक गुरु चरण, रज सर पर सुचढ़ाय। यहमुनि, मन-गुरु-भजन में, निशिदिन क्यों नलगाय ॥३॥ कुन्दकुन्द को नित नमू, हृदय-कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥४॥ गुण-निधि समन्तभद्रगुरु, महके अगुरु सुगंध। अर्पित जिनपद में रहे, गन्ध-हीन मम छन्द ॥५॥ तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो, कर से दो आशीष ॥६॥ देवागम का मैं करूँ, पद्यमयी अनुवाद। मात्र प्रयोजन मम रहा, मोह मिटे परमाद ॥७॥
  22. आप्तमीमांसा (२६ सितम्बर,१९८३) आचार्य समन्तभद्रस्वामी द्वारा संस्कृत भाषाबद्ध आप्तमीमांसा' (देवागमस्तोत्रम्) का आचार्यश्री द्वारा पद्यबद्ध यह भाषान्तरण है। उनकी इस कृति में दस परिच्छेद हैं, जिनमें ११४ कारिकाएँ हैं। इसी आप्त-मीमांसा का ज्ञानोदय छन्द' में पद्यानुवाद आचार्यश्री ने किया, पद्यानुवाद के प्रारम्भ में सात दोहों में मंगलाचरण है। मंगलाचरण हमें उनके गुणोदय आदि ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। अन्तर केवल इतना है कि अन्तिम दोहे में ग्रन्थ का नाम बदल दिया गया है। अन्त में पद्यानुवाद-प्रशस्ति है, जिसके एक दोहे में शोध कर पढ़ने का परामर्श है और दूसरे में इसकी रचना का काल है निधि-नभ-नगपति-नयन का सुगन्ध-दशमी योग। लिखा ईसरी में पढ़ो, बनता शुचि उपयोग॥ अर्थात् वीरनिर्वाण संवत् २५०९ की भाद्रपद शुक्ला दशमी, सुगन्धदशमी, विक्रम संवत् २०४०, शुक्रवार, २६ सितम्बर, १९८३ को सिद्धक्षेत्र तीर्थराज सम्मेदशिखर के पादमूल में स्थित ईसरी नगर गिरीडीह, बिहार प्रान्त में इसे लिखा, इसके पढ़ने से शुद्धोपयोग बनेगा।
  23. मंगल कामना विहसित हो जीवन लता, विलसित गुण के फूल। ध्यानी मौनी सँघता, महक उठी आमूल ॥१॥ सान्त करूँ सब पाप को, ह ताप बन शान्त। गति आगति रति मति मिटे, मिले आय निज प्रान्त ॥२॥ रग-रग से करुणा झरे, दुखी जनों को देख। विश्व सौख्य में अनुभवू, स्वार्थ सिद्धि की रेख ॥३॥ रस रूपादिक हैं नहीं, मुझमें केवलज्ञान। चिर से हूँ, चिर और हूँ, हूँ निज के बल जान ॥४॥ तन मन से औ वचन से, पर का कर उपकार। रवि सम जीवन बस बने, मिलता शिव उपहार ॥५॥ यम-दम-शम-सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय। नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥६॥ मंगल जग जीवन बने, छा जावे सुख छाँव। जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव ॥७॥ शाश्वत निधि का धाम हो, क्यों बनता हूँ दीन। है उसको बस देख ले, निज में होकर लीन ॥८॥ रचना काल एवं समय परिचय खुद पर्वत यों गा रहा, ले कुण्डल आकार। कुण्डलगिरि में हूँ खड़ा, कौन करे नाकार? ॥१॥ सार्थक कुण्डलगिरि रहा, सुखकर कोनी क्षेत्र। एक झलक में खुल गये, मन के मौनी नेत्र ॥२॥ व्यसन गगन गति गन्ध' की, चैत्र अमा का योग। पूर्ण हुआ यह ग्रन्थ है, ध्येय मिटे भव रोग ॥३॥
  24. रयण मंजूषा बाहर भीतर श्री से युत हो वर्धमान, गतमान हुए, विराग-जल से राग-मलिनता धुला स्वयं छविमान हुए। झलक रहा सब लोक सहित नभ जिनकी विद्या दर्पण में, मन-वच-तन से जिन चरणों में करूं नमन मुनि अर्पण मैं ॥१॥ भव-सागर के दुःख गर्त से ऊपर भविजन को लाता, उत्तम, उन्नत मोक्ष महल में स्थापित करता, सुख धाता। धर्म रहा वह समीचीन है वसु विध विधि का नाशक है, करूँ उसी का कथन मुझे अब बनना निज का शासक है ॥२॥ समदर्शन औ बोध चरितमय धर्म रहा यह ज्ञात रहे, इस विध करुणा कर हम पर वे धर्म-नाथ जिननाथ कहें। किन्तु धर्म से, मिथ्या-दर्शन आदिक वे विपरीत रहें, भव पद्धति हैं भव-दुख के ही निशदिन गाते गीत रहें ॥३॥ परमारथमय पूज्य आप्त में परमारथ अघहारक में, श्रद्धा करना भाव-भक्ति से तथा परम तपधारक में। वसुविध अंगों का पालन, त्रय मूढ़पना, वसु मद तजना, वही रहा समदर्शन है नित रे मन! ‘समदर्शन भजना' ॥४॥ लोकालोकालोकित करते पूर्ण ज्ञान से सहित रहें, विरागता से भरित रहे हैं। दोष अठारह रहित रहें। जगहित के उपदेशक ये ही नियम रूप से आप्त रहें, यही आप्तता नहीं अन्यथा जिन-पद में मम माथ रहे ॥५॥ क्षुधा नहीं है तृषा नहीं है जरा जनन नहिं खेद नहीं, रोग शोक नहिं राग रोष नहिं तथा मरण नहिं स्वेद नहीं। निद्रा, चिन्ता, विस्मय नहिं हैं भीति अरति नहिं गर्व रहा, मोह न जिनमें आप्त रहे वे जिनपद में जग सर्व रहा ॥६॥ परमेष्ठी हैं परम ज्योतिमय पूर्ण-ज्ञान के धारी हैं, विमल हुए कृतकृत्य हुए हैं वीतराग अविकारी हैं। आदि मध्य औ अन्त रहित हैं विश्व-विज्ञ जग हितकारी, वे ही शास्ता कहलाते हैं सदुपदेश के अधिकारी ॥७॥ भविक जनों का हित हो देते, सदुपदेश स्वयमेव विभो, प्रतिफल की वांछा न रखते वीतराग जिनदेव प्रभो! वाद्यकला में पण्डित शिल्पी मुरज बजाता, बजता है, मुरज, माँगता नहीं कभी कुछ यही रही अचरजता है ॥८॥ प्रत्यक्षादिक अनुमानादिक प्रमाण से अविरोधित हो, वीतराग सर्वज्ञ कथित हो नहीं किसी से बाधित हो। एकान्ती मत का निरसक हो सब जग का हितकारक हो, अनेकान्तमय तत्त्व-प्रदर्शक शास्त्र वही अघहारक हो ॥९॥ विषयों से अति दूर हुए हैं कषायगण को चूर किया, निरारम्भ हैं पूर्ण रूप से सकल संग को दूर किया। ज्ञान-ध्यानमय तप में रत हो अपना जीवन बिता रहे, महा-तपस्वी कहलाते वे हमें मनस्वी बता रहे ॥१०॥ तत्त्व रहा जो यही रहा है इसी तरह ही तथा रहा, नहीं अन्य भी तथा रहा है नहीं अन्यथा यथा रहा। खड्ग धार पर थित जल-कण सम अचल सुपथ में रुचि करना, शंका के बिन निशंक बनकर सम-दर्शन को शुचि करना ॥११॥ कर्मों पर जो निर्धारित है स्वभाव जिसका सान्त रहा, सुख-सा दिखता किन्तु दुःख से भरा हुआ निर्भ्रांत रहा। पाप बीज है इन्द्रिय-सुख यह इसमें अभिरुचि ना करना, अनाकांक्षमय अंग रहा है समदर्शन का सुख झरना ॥१२॥ स्वभाव से ही अशुचिधाम हो रहा अचेतन यह तन हो, रतनत्रयी का योग प्राप्त कर पूज्य पूत पुनि पावन हो। ग्लानि नहीं हो मुनि-मुद्रा से गुण-गण के प्रति प्रीति रहे, निर्विचिकित्सक अंग यही है समदर्शन की रीति रहे ॥१३॥ भटकाने वाले कुत्सित पथ दुखदायक जो बने हुए, विषयों में अति सने हुए हैं पथिक कुपथ के तने हुए। तन,मन,वच से इनकी सेवा अनुमति थुति भी नहीं करना, यही दृष्टि है अमूढ़पन की प्राप्त करो शिव-सुख वरना ॥१४॥ स्वयं रहा शुचितम शिव-पथ जिस पर चलते बिन होश कभी, अज्ञ तथा निर्बल जन यदि वे करते हैं कुछ दोष कभी। उनके उन दोषों को ढकना कभी प्रकाशित नहिं करना, उपगूहन दृग अंग रहा है अनंग-सुख-प्रद, उर धरना ॥१५॥ समदर्शन या पावन चारित यद्यपि पालन करते हैं, खेद कभी यदि उनसे गिरते बाधक कारण घिरते हैं। धर्म-प्रेम से विज्ञ उन्हें बस पूर्व-स्थिती पर फिर लाते, स्थितीकरण दृग अंग वही है अपनाते निज घर जाते ॥१६॥ कुटिल भाव बिन जटिल भाव बिन साधर्मी से प्यार करो, तरल भाव से सरल भाव से नित समुचित व्यवहार करो। यथायोग्य उनका विनयादिक करना भी कर्तव्य रहा, रहा यही वात्सल्य अंग है उज्ज्वल हो भवितव्य अहा ॥१७॥ अन्धकार अज्ञानमयी जब फैल रहा हो कभी कहीं, उसे मिटाना यथायोग्य निज-शक्ति छुपाना कभी नहीं। जिन-शासन की महिमा की हो और प्रसारण सुखद कहाँ? प्रभावना दृग अंग यही है पाप रहे फिर दुखद कहाँ? ॥१८॥ प्रथम अंग नि:शंकित में वह प्रसिद्ध अंजन चोर महा, नि:काक्षित में अनन्तमति यश फैल रहा चहुँ ओर यहाँ। निर्विचिकित्सित में उद्दायन ख्यात हुआ कृतकाम हुआ, अडिग रेवती अमूढ़पन में ख्यात उसी का नाम हुआ ॥१९॥ अंग पाँचवें उपगूहन में नामी जिनेन्द्र-भक्त रहे, स्थितीकरण के पालन में वर वारिषेण अनुरक्त रहे। इसी भाँति वात्सल्य अंग में विष्णु-मुनि विख्यात रहे, ख्यात हुए हैं प्रभावना में वज्र मुनीश्वर ज्ञात रहे ॥२०॥ समदर्शन यदि निज अंगों का अवधारक वह नहीं रहा, जनम जरा भय भव-संतति का हारक भी फिर नहीं रहा। न्यूनाधिक अक्षर वाला हो मन्त्र जहर को कब हरता ? उचित रहा यह समुचित कारण निजी कार्य वह द्रुत करता ॥२१॥ कंकर-पत्थर ढेर लगाना स्नान नदी सागर करना, अग्नि-कुण्ड में प्रवेश करना गिरि पर चढ़कर गिर मरना। लोक-मूढ़ता यही रही है मूढ़ इन्हें बस धर्म कहें, अतः मूढ़ता बुधजन तजकर शाश्वत शुचि शिव-शर्म गहें ॥२२॥ राग-रोष से दोष-कोष से जिनका जीवन रंजित है, देव नहीं वे, कुदेव सारे देव-भाव से वंचित हैं। धन सुत आदिक की वांछा से उनकी पूजा जड़ करते, देव-मूढ़ता यही, इसी से विधि-बन्धन को दृढ़ करते ॥२३॥ संग सहित आरम्भ सहित हैं हिंसादिक में फंसे हुए, सांसारिक कार्यों में उलझे मोह पाश से कसे हुए कुगुरु रहें वे उनका आदर जो जड़-जन नित करते हैं, गुरू-मूढ़ता यही इसी से पुनि-पुनि तन-धर मरते हैं ॥२४॥ ज्ञानवान हूँ ऋद्धिमान हूँ उच्च-जाति कुलवान तथा, पूज्य प्रतिष्ठित रूपवान हूँ तपधारी बलवान तथा। मन में आविर्मान, मान हो इन आठों के आश्रय ले, वही रहा ‘मद' निर्मद कहते जिनवर जिनका आश्रय ले ॥२५॥ व्यर्थ गर्व से तने हुए हैं मन में जो मद-मान धरें, धार्मिक जीवन जीने वाले भविजन का अपमान करें। अतः स्वयं ही आत्म-धर्म को मिटा रहे वह भूल रहे, धर्मात्मा बिन चूंकि धर्म नहिं मिलता जो भव कूल रहे ॥२६॥ संवरमय समकित आदिक से जिनका कलुषित पाप धुला, जात-पात धन कुल से फिर क्या? रहा प्रयोजन आप भला। किन्तु पाप-मय जीवन जिनका बना हुआ है सतत रहा, बाह्य सम्पदादिक फिर भी वह मूल्य-शून्य सब वितथ रहा ॥२७॥ निजी कर्म के उदय प्राप्त कर जन्म-जात चाण्डाल रहा, पर समदर्शन से है जिसका भासित जीवन भाल रहा। गणधर आदिक पूज्य साधुजन, पूज्य उसे भी तदपि कहा, तेज अनल ज्यों अन्दर,ऊपर राख ढकी हो यदपि अहा! ॥२८॥ धर्म-भाव वश श्वान स्वर्ग में देव बने वह सुखित बने, पाप-भाववश देव श्वान हो पशुगति में आ, दुखित घने। अतः धर्म के बिन जग जन को अन्य कौन फिर सम्पद है? धर्म-शरण हो मम जीवन हो अक्षय सुख का आस्पद है ॥२९॥ आशा भय के स्नेह लोभ के वशीभूत सुख खोकर के, कुगुरु-देव आगम ना पूजे नहीं विनय बुध हो करके। चूंकि विमल समदर्शन से वह जिनका जीवन पोषित है, इस विध गुरु कहते जिनके तन-मन यम दम से शोभित है ॥३०॥ ज्ञात रहे यह बात सभी को समदर्शन ही श्रेष्ठ रहा, ज्ञान तथा चारित में समपन लाता फलतः जेष्ठ रहा। मोक्षमार्ग में समदर्शन ही खेवटिया सम मौलिक है, सन्त कह रहे, कर नहिं सकते जिसका वर्णन मौखिक है ॥३१॥ विद्या चारित के उद्भव औ रक्षण वर्धन सुफल महा, समदर्शन बिन सम्भव नहिं हैं कुछ भी करलो विफल अहा। उचित बीज बिन भला बता हूँ फूल-फलों से लदा हुआ, हरित भरित तरु कभी दिखा क्या समदर्शन बिन मुधा रहा ॥३२॥ शिव-पथ का वह पथिक रहा है गृही बना यदि निर्मोही, मोक्ष-मार्ग से बहुत दूर हैं मुनि होकर यदि मुनि मोही। अतः मोह से मण्डित मुनि से मोह रहित “वर'' गृही रहा, मात्र भेष नहिं गुण से शिव हो यही रहा श्रुत, सही रहा ॥३३॥ तीन लोक में तीन काल में तनधारी को सुखकारी, अन्य कौन यह द्रव्य रहा है समदर्शन बिन दुखहारी। इसी भाँति मिथ्यादर्शन सम और नहीं दुखकारक है, हित चाहो हित कारण धारो गुरु गाते गुण-धारक है ॥३४॥ विरत भाव से विरत यदपि हैं जिनका जीवन अविरत है, किन्तु विमलतम समदर्शन के आराधन में नित रत हैं। प्रथम नरक बिन नहीं नपुंसक परभव में पशु स्त्री ना हों, अल्प आयुषी अपांग ना हो दरिद्र ना दुष्कुलिना हो ॥३५॥ बने यशस्वी बने मनस्वी ओज तेज से सहित बने, नीर निधी सम धीर धनी भी शत्रु-विजेता मुदित घने। महाकुली हो शिवपथ साधक मनुज लोक के तिलक बने, समदर्शन से विमल लसे हैं शीघ्र निरंजन अलख बने ॥३६॥ अणिमा महिमा गरिमादिक वसु गुण पूरण पा तुष्ट रहें, अतिशय सुन्दर शोभा से बस विलसित हो संपुष्ट रहें। सुर बनकर सुर-वनिताओं से सुचिर स्वर्ग में रमण करें, दृग धारक जिन के आराधक फिर शिवपुर को गमन करें ॥३७॥ चक्री बनकर चक्र चलाते छह खण्डों के अधिपति हैं, जिनके पद में मुकुट चढ़ाते सादर आ धरणीपति हैं। नव निधियाँ शुभ चौदह मणियाँ सभी उन्हीं को प्राप्त रहें, जो हैं शुचितम दर्शनधारी इस विध हमको आप्त कहें ॥३८॥ सुरपति, नरपति, असुराधिप भी जिन चरणों में माथ धरें, गणधर आदिक पूज्य साधु तक जिन्हें सदा प्रणिपात करें। सत्य-दृष्टि से तत्त्व बोध को पाये जग में शरण रहें, धर्म-चक्र के चालक वे ही तीर्थंकर सुख झरण रहें ॥३९॥ रोग नहीं हैं शोक नहीं है जहाँ जरा नहिं मरण नहीं, बाधा की भी गन्ध नहीं है शंका का अनुसरण नहीं पूरण विद्या सुख शुचि सम्पद अनुपम अक्षय शिवपद है, समदर्शन के धारक ही वे पा लेते अभिनव पद हैं ॥४०॥ यों सुरपुर में अमित सम्पदा-युत सुरपति पद भोग वहाँ, पुनः धरापतियों से पूजित नरपति पद का योग यहाँ। तीन लोक में अनुपम अद्भुत तीर्थंकर पद पाकर के, प्रभु-पद-पंकज-पूजक भविजन शिव हो निज घर जाकर के ॥४१॥ अहो! न्यूनता-रहित रहा है संशय से भी रीता है, तथा अधिकता रहित रहा है नहीं रहा विपरीता है। सदा वस्तु सब जिस विध भाती उन्हें उसी विध जान रहा, जिन कहते हैं समीचीन बस ! ज्ञान वही सुख खान रहा ॥४२॥ महापुरुष की कथा, शलाका-पुरुषों की जीवन गाथा, गाता जाता बोधि विधाता समाधि-निधि का है दाता। वही रहा प्रथमानुयोग है परम पुण्य का कारक है, समीचीन शुचि बोध कह रहा, रहा भवोदधि-तारक है॥४३॥ लोक कहाँ से रहा कहाँ तक अलोक कितना फैला है ?, कब किस विध परिवर्तन करता काल खेलता खेला है। दर्पण सम जो चहुँ गतियों को स्पष्ट रूप से दर्शाता, वही रहा करणानुयोग शुचि-ज्ञान बताता हर्षाता ॥४४॥ सागारों का अनगारों का चरित सुखद है पावन है, जिसके उद्भव रक्षण वर्धन में बाहर जो साधन है। वही रहा चरणानुयोग' है पूर्ण-ज्ञान यों बता रहा, उसका अवलोकन कर ले तू समय वृथा क्यों बिता रहा ॥४५॥ जीव तत्त्व क्या कहाँ रहा है, अजीव कितने रहे कहाँ, पाप रहा क्या पुण्य रहा क्या, बन्ध मोक्ष क्या रहे कहाँ? इन सबको द्रव्यानुयोग-मय, दीप प्रकाशित करता है, मूल-भूत जिन-श्रुत विद्या का, प्रकाश लेकर जलता है ॥४६॥ सुचिर काल के मोह तिमिर को, पूर्ण रूप से भगा दिया, समदर्शन का लाभ हुआ जो, सत्य ज्ञान को जगा लिया। राग-रोष का मूल रूप में, क्षय करना अब कार्य रहा, तभी चरित को धारण करता, साधु रहा यह आर्य रहा ॥४७॥ हिंसादिक सब पापों के जब, निराकरण के करने से, राग रोष ये मिटते कारण, बाधक कारण मिटने से। जिसके मन में अणु भर भी नहिं, धन मणि यश की अभिलाषा, किस विध कर सकता फिर सेवा, राजा की वह बन दासा ॥४८॥ हिंसा से औ असत्य से भी, चोरी मैथुन-सेवन से, पापास्रव के सभी कारणों, और परिग्रह मेलन से। सुदूर होना भाग्य मानकर, संयम-मय जीवन जीना, सच्चे ज्ञानी पुरुषों का वह, चारित है निज आधीना ॥४९॥ सकल सङ्ग को त्याग चुके हैं, अनगारों का सकल रहा, अल्प सङ्ग को त्याग चुके हैं,सागारों का विकल रहा। सकल नाम का विकल नाम का,इस विध चारित द्विविध रहा, भविजन धरते फल मिलता है, सुरसुख शिवसुख विविध महा॥५०॥ गृही जनों का विकल चरित भी, त्रिविध बताया जिनवर ने, अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत यों, नाम पुकारा गणधर ने। रहा पञ्चधा अणुव्रत भी वह, गुणव्रत भी वह त्रिविध रहा, शिक्षाव्रत यह रहा चतुर्विध, रुचि से पालो सुबुध अहा ? ॥५१॥ प्राणनाशिनी हिंसा का औ, अनुचित असत्य भाषण का, चोरी मैथुन-सेवन का भी तथा संग के धारण का। पूर्ण नहीं पर स्थूल रूप से, पापों का जो त्याग रहा, अणुव्रत माना जाता है वह, सुख का ही अनुभाग रहा ॥५२॥ कभी भूलकर काया से भी, और वचन से निजमति से, कृत से भी औ कारित से भी, अन्य किसी की अनुमति से। संकल्पित हो त्रस जीवों का, प्राण-घात जो नहिं करना, ‘अहिंसाणुव्रत' वही रहा है, जिन कहते तू उर धरना ॥५३॥ निर्बल नौकर पशु पर भारी, भार लादना रोज व्यथा, छेदन भेदन पीड़न करना, देना कम ही भोज तथा। अहिंसाणुव्रत के पाँचों ये, अतीचार हैं त्याज्य रहें, तजता वह, भजता सुर सुख औ, क्रमशः शिव साम्राज्य गहें ॥५४॥ स्थूल झूठ ना स्वयं बोलता, तथा न पर से बुलवाता, तथा सत्य से बच, बचवाता, पर पर यदि संकट आता। स्थूल सत्यव्रत यही रहा है, श्रावक पाले मन हरणे, पर उपकारों में रत गणधर, इस विध कहते सुख बरसे ॥५५॥ कभी धरोहर डकार जाना, अहित पंथ को ‘हित' कहना, नर-नारी के गुप्त प्रणय को, प्रकटाना चुगली करना। ईर्षावश, नहिं किये कहे को, किये कहे यों लिख देना, स्थूल-सत्यव्रत के ये दूषण, रस इनका ना चख लेना ॥५६॥ रखी हुई या गिरी हुई या, कभी भूल से कहीं रही, औरों की जो वस्तु रही हो, दी न गई हो निजी नहीं। उसे न लेना, अन्य किसी को तथा न देना भूल कभी, ‘अचौर्य अणुव्रत' यही रहा है, रहा सौख्य का मूल यही ॥५७॥ चोरी करने प्रेरित करना, चौर्य द्रव्य पर से लेना, काम मिलावट का करना औ, सत्ता का कर नहिं देना। माप-तौल में बढ़न-घटन कर लेन-देन करते रहना, अचौर्य अणुव्रत के ये पाँचों, दोष इन्हें हरते रहना ॥५८॥ पाप कर्म से डरते हैं जो, पर-वनिता का भोग नहीं, स्वयं तथा पर को प्रेरित नहिं, करते हैं बुध लोग कभी। पर वनिता का त्याग रूप वह, ब्रह्मचर्य अणुव्रत भाता, तथा उसी का अपर नाम है ‘स्वदार -सन्तोषित' साता ॥५९॥ पर के विवाह करना, अनुचित अंग संग मैथुन करना, गाली गलौच देना, इच्छा काम-भोग की अति करना। व्याभिचारिणी के घर जाना, आना वार्तादिक करना, ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पाँचों दूषण हैं इनसे डरना ॥६०॥ दशविध परिग्रह धान्यादिक का, समुचित सीमित कोष करे, संग्रह उससे अधिक संग का, नहीं करे, मनतोष धरे। ‘परिमित परिग्रह' पंचम अणुव्रत यही रहा सुन सही जरा, ‘इच्छा परिमाणक' भी प्यारा नाम इसी का तभी परा ॥६१॥ बहुत भार को ढोना संग्रह, व्यर्थ संग का अति करना, पर धन लख विस्मित होना अतिलोभी बहु वाहन रखना। परिमित परिग्रह पंचम अणुव्रत, के पाँचों ये दोष रहे, इस विध कहते जिनवर हमको, वीतराग गत दोष रहे ॥६२॥ अतीचार से रहित रही हैं, सारी अणुव्रत की निधियाँ, नियमरूप से शीघ्र दिखाती, स्वर्गों की स्वर्णिम गलियाँ। अणिमा महिमादिक आठों गुण अवधिज्ञान से सहित मिले, भव्य-दिव्य मणिमय-सी काया छाया से जो रहित मिले ॥६३॥ आदिम में मातंग रहा है, दूजे में धनदेव रहें, वारिषेण नीली जय क्रमशः अन्य व्रतों में, देव कहें। इस विध अणुव्रत पालन में ये, दक्ष रहें निष्णात हुए, पूजा अतिशय यश पाया है, भविक जनों में ख्यात हुए ॥६४॥ सुनो! सुनो! हिंसा में कुशला रही धनश्री सेठानी, असत्य में तो सत्यघोष वह चोरी में तापस नामी। काम पाप में यमपालक था और श्मश्रु-नवनीत रहा, पाँचों पापों में यों पाँचों ख्यात यही अघ-गीत रहा ॥६५॥ मद्य-मांस-मधु मकार त्रय का प्रथम पूर्ण वारण करना, अहिंसादि अणुव्रत पाँचों का सादर परिपालन करना। गृही जनों के अष्टमूल-गुण श्रमणवरों ने बतलाया, पाला जिसने पाया उसने पावन-पद शाश्वत काया ॥६६॥ गुणव्रत हैं त्रय दिग्व्रत आदिम अनर्थदण्डक व्रत प्यारा, भोगोपभोग परिमाण तथा है रहा तीसरा व्रत सारा। विमल बनाते सबल बनाते सकल मूलगुण के गण को, सार्थक इनका नाम इसी से आर्य बताते भविजन को ॥६७॥ मरण काल तक दशों दिशाओं की मर्यादा अपनाना, उससे बाहर कभी न जाऊँ यों संकल्पित हो जाना। चूंकि ध्येय है सूक्ष्म पाप से भी पूरण बचकर रहना, यही रहा है दिग्व्रत इस विध पूज्य गणधरों का कहना ॥६८॥ सागर सरिता सरवर भूधर पुर गोपुर औ नगर महा, यथा प्रयोजन, योजन आदिक वन-उपवन गिरि शिखर महा। दशों दिशाओं की मर्यादा गुणव्रत धर के की जाती, इन्हीं स्थलों को हेतु बनाते जिनवाणी यों बतलाती ॥६९॥ मर्यादा के बाहर जबसे सूक्ष्म पाप से रहित हुए, पापभीत हो यथा प्रयोजन सभी दिग्व्रतों सहित हुए। तभी महाव्रत पन को पाते सागारों के अणुव्रत हो, पाप त्याग की महिमा न्यारी अकथनीय है अनुगत हो ॥७० ॥ कषाय प्रत्याख्यानावरणा मन्द-मन्दतर हुए जभी, चरित मोह परिणाम सभी वे मन्द-मन्दतर हुए तभी। मोहादिक के भाव यदपि हैं सहज पकड़ में नहिं आते, तभी गृही उपचार मात्र से महाव्रती वे कहलाते ॥७१॥ हिंसादिक पाँचों पापों को तन से वच से औ मति से, पूर्ण त्यागना भूल राग को कृतकारित से अनुमति से। महामना मुनि महाराज का रहा महाव्रत सुधा वही, संग सहित हो स्वयं आपको मुनि माने जो मुधा वही ॥७२॥ ऊपर - नीचे आजू - बाजू सीमा उल्लंघन करना, किसी प्रलोभनवश निर्धारित, सीमा संवर्धन करना। प्रमादवश कृत सीमा की स्मृति विस्मृत करना, मूढ़ रहे, आगम कहता सुनो! पाँच ये दिग्व्रत के हैं शूल रहे ॥७३॥ दशों दिशाओं की मर्यादा के भीतर भी वच तन को, बिना प्रयोजन पाप कार्य से रोक लगाना निज मन को। अनर्थदण्डक व्रत यह माना, व्रत धर के गुरु बतलाते, जिसके जीवन में यह उतरा तरा भवोदधि वह तातें ॥७४॥ रुचि से सुनना पाप कथायें और सुनाना औरों को, प्रमाद करना, प्रदान करना हिंसा के उपकरणों को। अनर्थ-दण्डक पाँच पाप ये दुश्चितन में रत रहना, इन दण्डों को नहीं धारते गणधर देवों का कहना ॥७५॥ पशुओं को पीड़ा हो जिनसे कृषि आदिक हिंसाधिक हो, जिन उपदेशों से यदि बढ़ते प्रचलित प्रवंचनादिक हो। उन्हीं कथायें बार-बार बस, सतत सुनाते जो रहना, वही रहा पापोपदेश है अनर्थ जड़ है भव गहना ॥७६॥ हिंसा के जो कारण माने फरसा भाला हाला को, खड्ग कुदारी तथा श्रृंखला जलती ज्वाला जाला को। प्रदान करना, अनर्थदण्डक यह है हिंसा दान रहा, बुध कहते, दुख प्रदान करता भव-भव में दुख खान रहा ॥७७॥ द्वेषभाव से कभी किसी के बंधन छेदन का वध का, रागभाव के वशीभूत हो पर-वनितादिक का धन का। मन से चिंतन करना हो तो दुःख हेतु दुर्ध्यान रहा, जिन-शासन के शासक कहते सौख्य हेतु शुभ ध्यान रहा ॥७८॥ कृषि आदिक का वशीकरण का, संग वृद्धि का वर्णन हो, वीर रसों का मिश्रण जिनमें द्वेषभाव का चित्रण हो। कुमत मदन मद के पोषक हैं, उन शास्त्रों का श्रवण रहा, मन कलुषित करता, दुःश्रुति' यह इसका फल भवभ्रमण रहा ॥७९॥ अनल जलाना अनिल चलाना सलिल सींचना वृथा कभी, धरा खोदना, धूल उछालन लता तोड़ना तथा कभी। बिना प्रयोजन स्वयं घूमना और घुमाना परजन को, प्रमाद नामक अनर्थ-दण्डक यह कारण भव-बंधन को ॥८०॥ बहु बकना अति राग भाव से, असभ्य बातें भी करना, भोग्य वस्तुयें अधिक बढ़ाना कुत्सित चेष्टायें करना। किसी कार्य काऽऽरम्भ अधिक भी पूर्व भूमिका बिन करना, अनर्थदण्डकव्रत के पाँचों दोष रहें ये, नहिं करना ॥८१॥ विषय राग की लिप्सा को जब और क्षीणतम करना है, विषयों की सीमा को उसके भीतर भी कम करना है। आवश्यक पंचेन्द्रिय विषयों की सीमा सीमित करना, भोगोपभोग परिमाण यही है गुणव्रत धरना हित करना ॥२॥ भोग वही जो भोग काम में एकबार ही आता है, किन्तु रहा उपभोग काम में बार-बार जो आता है। अशन सुमन आसन वसनादिक पंचेन्द्रिय के विषय रहें, श्रावक इनमें रचे-पचें नहिं निज व्रत में नित अभय रहें ॥८३॥ जिसने जिनवर के जग-तारण-तरण-चरण की शरण गही, कहा जा रहा उसका, निश्चित बनता है आचरण सही। त्रस-हिंसा से जब बचता है मांस तथा मधु तजता है, तथा साथ ही प्रमाद तजने मद्य-पान भी तजता है॥८४॥ मूली, लहसुन, प्याज, गाजरा, आलू, अदरक आदिक को, नीम कुसुम नवनीत केवड़ा गुलाब गुलकन्दादिक को। साधु जनों ने त्याज्य बताया इसका कारण यह श्रोता! जीव घात तो अधिक, अल्प फल इनके भक्षण से होता ॥८५॥ रोग जनक प्रतिकूल अन्न हो भक्ष्य भले ही त्याज्य रहे, प्रासुक हो पर अनुपसेव्य भी व्रतीजनों को त्याज्य रहे। क्योंकि ग्रहण के योग्य विषय को, इच्छापूर्वक तजना ही, व्रत है इस विध आगम कहता, मोह राग को तज राही ॥८६॥ भोगोपभोग परिमाण द्विविध है कहता जिन-आगम प्यारा, नियम नाम का एक रहा है, रहा दूसरा ‘यम' वाला। तथा काल की सीमा करना, वही नियम से नियम रहा, आजीवन जो धारा जाता यम कहलाता परम रहा ॥८७॥ अशन पान का शयन स्नान का तथा काम के सेवन का, श्रवण गाने का सुमन माल का ललित काय के लेपन का। पचन पान का वसन मान का शोभन भूषण धारण का, वाद्य गीत संगीत प्रीति का हयगय अतिशय वाहन का ॥८८॥ घटिका में या दिनभर में या निशि में निशिवासर में या, पक्ष मास ऋतु एक अयन में पूरण संवत्सर में या। यथाशक्ति इन्द्रिय विषयों का जो तजना है ‘नियम' रहा, इसका पालन करने वाला सुख पाता अप्रतिम रहा ॥८९॥ विषम-विषमतम विष सम विषयों को अनपेक्षित नहिं करना, विगत काल में भोगे-भोगों, की स्मृति भी पुनि-पुनि करना। भावी भोगों की अति तृष्णा, लोलुपता अति अपनाना, भोगोपभोग परिमाण दोष ये, भोगों में अति रम जाना ॥९० ॥ प्रथम देश अवकाशिक प्यारा दूजा है सामयिक तथा, रहा प्रोषधा उपवासा है, “वैयावृत्त्या, श्रमिक-कथा''। मुनिव्रत शिक्षा मिलती इनसे, शिक्षाव्रत ये चार रहे, मुनि बनने की इच्छा रखते श्रावक इनको धार रहे॥९१॥ बहुत क्षेत्र की दशों दिशाओं, में सीमा आजीवन थी, उसे काल की मर्यादा से, कम-कम करना प्रतिदिन भी। यही देश अवकाशिक व्रत है, अणुव्रत पालक श्रावक का, यही देशनामृत मृतिनाशक जिन-शासन के शासक का ॥९२॥ ग्राम तथा आरामधाम निज पुर गोपुर औ भवन महा, यथा प्रयोजन योजन-योजन नद नदिका वन गहन अहा। सुनो! देश अवकाशिक व्रत में, इनकी सीमा की जाती, गणी कहें, भवतीर लगाती वीर-भारती भी गाती ॥९३॥ एक स्थान पर रहूँ वर्ष या एक अयन ऋतु पक्ष कभी, चार मास या मास बनाना नियम कभी नक्षत्र कभी। यही देश अवकाशिक व्रत की कालावधि मानी जाती, ज्ञानी ध्यानी कहते हैं औ जिनवर की वाणी गाती ॥९४॥ देश काल की सीमायें जब, निर्धारित कर पाने से, उनके बाहर स्थूल सूक्ष्म अघ पाँचों ही मिट जाने से। स्वयं देश अवकाशिक व्रत भी अणुव्रत होकर महा बने, व्रत की महिमा यही रही है दुख बनता सुख सुधा बने ॥२५॥ कभी भेजना सीमा बाहर पर को अथवा बुलवाना, कंकर आदिक फेंक सूचना करना ध्वनि देकर गाना। सीमा के अन्दर रहना पर रूप दिखाना बाहर को, दोष, देश अवकाशिक व्रत के ये हैं; तज अघ-आकर को ॥१६॥ सीमा के भीतर बाहर पाँचों पापों का त्याग करो, तन से मन से और वचन से आतम में अनुराग करो। यही रहा सामयिक नाम का शिक्षाव्रत अघहारक है, ऐसे कहते गणधर आदिक अगाध आगम धारक हैं॥९७॥ केशबन्ध का मुष्टिबन्ध का वस्त्र बन्ध का काल रहा, तथा बैठने स्थित होने का जो आसन का काल रहा। वही रहा सामयिक समय है कहते आगम ज्ञाता हैं, जो करता सामयिक नियम से बोधि समागम पाता है॥९८॥ व्यभिचारी महिलाजन पशु से रहित रहे एकान्त रहे, सभी तरह की बाधाओं से रहित रहे पै, शान्त रहे। निजी भवन में वन उपवन में चैत्य भवन या जंगल में, व्रती सदा सामयिक करे वह प्रसन्न मन से मंगल में ॥९९॥ देहादिक की दूषित चेष्टा प्रथम नियन्त्रित भी करके, संकल्पों औ विकल्प जल्पों का निग्रह कर भीतर से। अनशन के दिन करना अथवा एकाशन के दिन करना, व्रती पुरुष सामयिक यथाविधि अन्य दिनों में भी करना ॥१०० ॥ यथाविधी एकाग्र-चित्त से श्रावकजन नित प्रतिदिन भी, अहोभाग्य सामयिक करें वे अनुत्साह आलस बिन ही। क्योंकि अहिंसादिक अणुव्रत हो पूर्ण इसी से सफल रहे, गीत इसी के निशिदिन गाते मुनिगण नायक सकल रहे ॥१०१॥ सुनो! व्रती सामयिक करेगा जब करता आरम्भ नहीं, पास परिग्रह नहिं रखता है पर का कुछ आलम्ब नहीं। तभी गृही वह यतिपन को है पाता दिखता है ऐसा, हुआ कहीं उपसर्ग वस्त्र से वेष्टित मुनि लगता जैसा ॥१०२॥ श्रावक जब सामयिक कार्य को करने संकल्पित होता, बाँधी सीमा तक अपने में पूर्णरूप अर्पित होता। मच्छर आदिक काट रहे हों शीत लहर हो अनल दहे, सहें परीषह उपसर्गों को मौन योग में अचल रहे ॥१०३॥ अशरण होकर अशुभ रहा है सार नहीं दुख क्षार रहा, पर है परकृत तथा रहा है क्षणभंगुर संसार रहा। किन्तु शरण है शुभ है सुख है स्वयं मोक्ष ध्रुव सार रहा, यह चिंतन सामयिक काल में करता वह भवपार रहा ॥१०४॥ मन-वच-तन के योग तीन ये पाप सहित जो बन जाना, तथा अनादर होना, होना सहसा विस्मृत अनजाना। ये पाँचों सामयिक नाम के शिक्षाव्रत के दोष रहे, दोषरहित जिनदेव बताते गुण-गण के जो कोष रहे ॥१०५॥ सदा अष्टमी चतुर्दशी को भोजन का बस त्याग करें, अशन पान को खाद्य लेह्य को, याद करें ना राग करें। यही “प्रोषधा उपवासा'' है व्रतीजनों का ज्ञात रहे, किन्तु मात्र व्रत पालन करना सत्य प्रयोजन साथ रहे ॥१०६॥ लोचन अंजन नासा रंजन दाँतन मंजन स्नान नहीं, नास तमाखू अलंकार ना फूल-माल का मान नहीं। असि मसि कृषि आदिक षट्कर्मों पापों का परिहार करें, निराहार उपवास दिनों में निज का ही श्रृंगार करें ॥१०७॥ पूर्ण चाव से निजी श्रवण से धर्मामृत का पान करें, बने अन्य को पान करावे सहधर्मी का ध्यान करें। ज्ञानाराधन द्वादशभावन धर्म-ध्यान में लीन रहें, किन्तु व्रती उपवास दिनों में प्रमाद-भर से हीन रहें ॥१०८॥ अशन पान का खाद्य लेह्य का पूर्ण-त्याग उपवास रहा, एक बार ही भोजन करना प्रोषध उसका नाम रहा। तथा पारणा के दिन भोजन एक बार ही जो गहना, रहा ‘प्रोषधा उपवासा' वह बार-बार गुरु का कहना ॥१०९॥ देख-भाल बिन शोधे बिन ही पूजन द्रव्यों को लेना, जहाँ कहीं भी दरी बिछाना मल-मूत्रों को तज देना। तथा अनादर होना, होना विस्मृति भी वह कभी-कभी, दोष प्रोषधा उपवासा के हैं कहते हैं सुधी सभी ॥११०॥ तपोधनी हैं गुण के निधि हैं गृह-त्यागी संयम-धर हैं, उनको अन्नादिक देना यह ‘वैयावृत्या' व्रतवर है। पर प्रतिफल की मन्त्र-तन्त्र की इच्छा बिन हो दान खरा, यथाशक्ति से तथा यथाविधि धर्म-भाव पर ध्यान धरा ॥१११॥ संयमधर पर आया संकट उसे मिटाना कार्य रहा, पैर थके हों पीड़ा हो तो उन्हें दबाना आर्य महा। गुण के प्रति अनुराग जगा हो अन्य-अन्य उपकार सभी, वैय्यावृत्या कहलाता है लाता है भवपार वही ॥११२॥ पाप कार्य सब चूली चक्की आदिक सूने त्याग दिये, आर्य रहें अनिवार्य कार्यरत संयम में अनुराग किये। उन्हें सप्त गुण युत शुचि आवक नवविध भक्ती है करता, प्रासुक अन्नादिक देता वह दान कहाती दुख हरता ॥११३॥ अगार तज अनगार बने हैं अतिथि रहें नहिं तिथि रखते, उन पात्रों को दाता देते दान यथोचित मति रखते। गृह-कार्यों से अर्जित दृढ़तम अघ भी जिससे धुलता है, रुधिर नीर से जिस विध धुलता, आती अति उज्ज्वलता है ॥११४॥ तपोधनों को नमन करो तो सुफल निराकुल सुकुल मिले, उपासना से पूजा मिलती भोग दान से विपुल मिले। भक्त बनो गुरु-भक्ति करो तो सुभग-सुभगतम तन मिलता, गुरु-गुण-गण की स्तुति करने से यश फैले जन मंजुलता ॥११५॥ सही पात्र को भाव-भक्ति से समयोचित हो दान रहा, अल्पदान भी अनल्प फल दे भविजन को वरदान रहा। उचित धरा पर वपन किया हो, हो अणु-सा वट बीज भले, घनी छाँव फल देता तरु बन भाव भले शुभ चीज मिले ॥११६॥ प्रथम रहा आहार दान है दूजा औषध दान रहा, शास्त्रादिक उपकरणदान जो वही तीसरा दान रहा। चौथा है आवासदान यों भेद दान के चार रहे, वैयावृत्या अतः चतुर्विध सुधी कहें आचार्य कहे ॥११७॥ प्रजापाल श्रीषेण नाम का प्रथम दान में ख्यात रहा, हुई वृषभसेना वह औषध महादान में ख्यात महा॥ तथा रहा उपकरण - दान में नामी है कौण्डेश अहा, सूकर वह आवास-दान में यह गुरु का उपदेश रहा ॥११८॥ देवों से भी पूज्य देव ‘जिन' जिनके सुरपति दासक हैं, प्रभु पद पंकज कामधेनु हैं कामभाव का नाशक हैं। सविनय सादर जिनपद पूजन बुधजन प्रतिदिन करें अतः, सब दुख मिटता मिलता निजसुख क्रमश:शिवको वरेंस्वतः ॥११९॥ अरहन्तों के चरण कमल की पूजा की महिमा न्यारी, शब्दों में वह बँध नहिं सकती थकती रसनायें सारी। इस महिमा को राजगृही में भविकजनों के सम्मुख रे, प्रमुदित मेंढक दिखलाया है फूल-पाँखुड़ी ले मुख में ॥१२०॥ अतिथिजनों को दाता देते भोजन जो यदि ढका हुआ, कदली के पत्रों से अथवा कमल-पत्र पर रखा हुआ। तथा भाव मात्सर्य अनादर विस्मृति होना दोष रहे, वैयावृत्या व्रत के पाँचों कहते गुरु गतदोष रहे॥१२१॥ जरा-दशा दुर्भिक्ष-काल या उपसर्गों का अवसर हो, रोग भयंकर तथा हुआ हो दुर्निवार हो दुखकर हो। धर्म-भावना रक्षण करने तन तजना तब कार्य रहा, सल्लेखन वह है इस विध ये कहते गुरुवर आर्य महा ॥१२२॥ अन्त समय संन्यास सहारा लेना होता हे प्राणी!, सकल तपों का सुफल रहा वह विश्व-विज्ञ की यह वाणी। इसीलिए अब यथाशक्ति बस पाने समाधि-मरण अरे! सतत यतन करते रहना है तुम्हें मुक्ति तब वरण करे॥१२३॥ प्रेम भाव को वैर भाव को तथा अंग की ममता को, सकल संग को तजकर, धरकर निर्मल मनमें समता को। विनय घुला हो प्रिय सम्वादों मिश्री मिश्रित वचनों से, आप क्षमाकर क्षमा माँगकर पुरजन परिजन स्वजनों से ॥१२४॥ सर्व पाप का आलोचन कर कृत से कारित अनुमति से, सभी तरह का कपट भाव तज सरल सहज निश्छल मति से। पञ्च पाप का त्याग करे वह जब तक घट में प्राण रहे, पञ्च महाव्रत ग्रहण करें पर आत्म-तत्त्व का भान रहे ॥१२५॥ शोक छोड़ना भीति छोड़ना पूर्ण छोड़ना खेद तथा, स्नेह छोड़ना द्वेष छोड़ना अरतिभाव मनभेद व्यथा। अहो! धैर्य भी तथा जगाना उत्साहित निज को करना, सत्य श्रुतामृत पिला पिलाकर तृप्त शान्त मन को करना ॥१२६॥ दाल भात आदिक को क्रमशः कम-कम करते त्याग करें, दुग्धादिक का पान करें अब नहीं अन्न का राग करें। दुग्धादिक को भी क्रमशः फिर निज इच्छा से त्याग करें, नीरस कांजी नीरादिक का केवल बस अनुपान करें ॥१२७॥ नीरस प्रासुक जलपानादिक भी क्रमशः फिर तज देना, तन कृश हो उपवास करे पर प्रथम निजी बल लख लेना। पूज्य पञ्च नवकार मन्त्र को निशिदिन मन से जपना है, पूर्ण यत्न से जागृत बनकर तजना तन को अपना है ॥१२८॥ जीवन की वांछा करना मैं शीघ्र मरूँ मन में लाना, तथा मित्र की स्मृति हो आना भय से मन भी घिर जाना। भोग मिले यों निदान करना पाँच दोष ये कहलाते, सल्लेखन के जिनवर कहते दोष टाल बुध सुख पाते ॥१२९॥ सल्लेखन से कुछ धर्मात्मा भवसागर का तट पाते, अन्तरहित शिव सुखसागर को तज नहिं भव पनघट आते। किन्तु भव्य कुछ परम्परा से शिवसुख भाजन हो जाते, तन के मन के दुख से रीता दीर्घकाल सुर सुख पाते ॥१३०॥ जनन नहीं है मरण नहीं है जरा नहीं है शोक नहीं, दुःख नहीं है भीति नहीं है किसी तरह के रोग नहीं। वही रहा निर्वाणधाम है नित्य रहा अभिराम रहा, निःश्रेयस है विशुद्धतम सुख ललाम आतम-राम रहा ॥१३१॥ अनन्त विद्या अनन्त दर्शन अनन्त केवल शक्ति रही, परम स्वास्थ्य आनन्द परम औ परम शुद्धि परितृप्ति सही। जो कुछ उघड़े घटे-बढ़े नहिं अमित काल तक अमिट रहे, निःश्रेयस निर्वाण वही है सुख से पूरित विदित रहे ॥१३२॥ एक-एक कर कल्प-काल भी बीत जाय शत-शत भाई, या विचलित त्रिभुवन हो ऐसा वज्रपात हो दुखदाई। सिद्ध शुद्ध जीवों में फिर भी विकार का वह नाम नहीं, उनका सुखकर नाम इसी से लेता मैं अविराम सही ॥१३३॥ निःश्रेयस निर्वाणधाम में सुचिर काल ये बसते हैं, तीन लोक की शिखामणी की मंजुल छवि ले लसते हैं। कीट कालिमा रहित कनक की शोभा पाकर भासुर हैं, सिद्ध हुए हैं शुद्ध हुए हैं जिन्हें पूजते आसुर हैं ॥१३४॥ आज्ञापालक सेवक मिलते मिलती पूजा पद-पद है, सभी तरह की विलासताएँ मिलती महती सम्पद है। परिजन मिलते योग्य भोग्य बल काम धाम आराम मिले, जग-विस्मित हो अद्भुत सुख दे सत्य धर्म से शाम टले ॥१३५॥ प्रतिमाएँ वे कहलाते हैं। ग्यारह श्रावक पद भाते, उत्तर पद गुण पूर्व पदों के गुणों सहित ही बढ़ पाते। उचित रहा यह करोड़पति ज्यों लखपति पण से युक्त रहे, ऐसा जिनवर का कहना है जनन मरण से मुक्त रहे ॥१३६॥ विषय भोग संसार देह से अनासक्त हो जीता है, समीचीन दर्शन का नियमित मधुर सुधारस पीता है। पाँचों परमेष्ठी गुरुजन के चरणों में जा शरण लिया, दर्शन-प्रतिमा का धारक वह तत्त्वपंथ को ग्रहण किया ॥१३७॥ पाँचों अणुव्रत धारण करता अतीचार से रहित हुआ, तीनों गुणव्रत चउशिक्षाव्रत इन शीलों से सहित हुआ। वही रहा व्रत प्रतिमाधारक किन्तु शल्य से रीता हो, महाव्रती गणधर आदिक यों कहते हैं भवभीता हो ॥१३८॥ तीन - तीन कर चार - चार जो आवत को करते हैं, दिग्अम्बर हो स्थित हो प्रणाम, चार बार औ करते हैं। तीनों सन्ध्याओं में वन्दन बैठ नमन दो बार करे, श्रावक वे सामयिक नाम पद पा ले भव को पार करें ॥१३९॥ चतुर्दशी दो तथा अष्टमी मास-मास में आते हैं, उन्हीं दिनों में यथाशक्ति सब काम-काज तज पाते हैं। प्रसन्न हो एकाग्र चित्त हो प्रोषध नियमों कर पाते, प्रोषध उपवासा प्रतिमा के धारक आवक कहलाते ॥१४० ॥ कच्चे जब तक रहते हैं वे कन्द रहो या मूल रहो, करीर हो या शाक पात फल शाखा हो या फूल रहो। उनको तब तक खाते नहिं हैं दयामूर्ति जो श्रावक हैं, सचित्त-विरता प्रतिमा के वे पूर्णरूप से पालक हैं ॥१४१॥ अन्न पान औ खाद्य लेह्य यों रहा चतुर्विध भोजन है, उसका सेवन निशि में करते नहीं व्रतीजन भो! जन है। जग में सब जीवों के प्रति जो करुणा धारण करते हैं, निशि भोजन के त्याग नाम की प्रतिमा पालन करते हैं ॥१४२॥ मल का कारण, बीज रहा है मल का मल झरवाता है, अशुचि-धाम दुर्गन्ध रहा है तथा घृणा करवाता है। ऐसे तन को लखकर श्रावक मैथुन सेवन तजता है, वही ब्रह्मचारी कहलाता धर्म-भाव बस भजता है ॥१४३॥ असि मसि कृषि सेवा शिल्पादिक प्रमुख यही आरम्भ रहे, प्राणघात के कारण, कारण पापों के सम्बन्ध रहे। इन आरम्भों को तजता है पाप-भीत करुणाधारी, वही रहा आरम्भ त्यागमय प्रतिमाधारी आगारी ॥१४४॥ दाम धाम आदिक सब मिलकर बाह्य परिग्रह दशविध हो, उसकी ममता तज जो श्रावक निरीह निर्मम बस बुध हो। तथा बना सन्तोष कोष हो निज कार्यों में निरत सही, स्वामीपन ले मन में बैठे सकल संग से विरत वही ॥१४५॥ असि मसि कृषि आदिक आरम्भों में तो ना अनुमति देता, किन्तु संग में विवाह कार्यों में भी कभी न मति देता। यद्यपि घर में रहता फिर भी समता-धी से सहित रहा, वही रहा दशवीं प्रतिमा का पालक अनुमति-विरत रहा ॥१४६॥ श्रावक घर को तजता है फिर मुनियों के वन में जाता, गुरुओं के सान्निध्य प्राप्त कर करे ग्रहण सब व्रत साता। भिक्षाचर्या से भोजन पा तप तपता सुखकारक है, श्रावक वह उत्कृष्ट रहा है खण्ड वस्त्र का धारक है ॥१४७॥ पाप रहा जो वही शत्रु है धर्म-बन्धु है रहा सगा, यदि आगम को जान रहा है ऐसा निश्चय रहा जगा। वही श्रेष्ठ है ज्ञानी अथवा अपने हित का है ज्ञाता, जिसको हित की चिन्ता नहिं है ज्ञानी कब वह कहलाता ? ॥१४८॥ मिथ्यादर्शन आदिक से जो निज को रीता कर पाया, दोषरहित विद्या-दर्शन-व्रत रत्नकरण्डक कर पाया। धर्म अर्थ की काम मोक्ष की सिद्धि उसी को वरण करे, तीन लोक में पति-इच्छा से स्वयं उसी में रमण करे ॥१४९॥ सुखद कामिनी कामी को ज्यों सुखी मुझे कर दुरित हरे, शीलवती माँ सुत की जिस विध मम रक्षा यह सतत करे। कुल को कन्या सम गुणवाली यह मुझको शुचि शान्त करे, दृग् लक्ष्मी मम जिन-पद पद्मों में रहती सब ध्वान्त हरे॥१५०॥
  25. मंगलाचरण सन्मति को मम नमन हो मम मति सन्मति होय। सुर नर पशु गति सब मिटे गति पंचम गति होय ॥१॥ चन्दन चन्दर चाँदनी से जिन धुनि अति शीत। उसका सेवन मैं करूँ मन-वच-तन कर नीत ॥२॥ कुन्दकुन्द को नित नमूं हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में जीवन मम घुल जाय ॥३॥ महके अगरु सुगन्ध हैं श्री गुरु समन्तभद्र। श्रीपद में अर्पित रहें गन्धहीन मम छन्द ॥४॥ तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर करुणा करो कर से दो आशीष ॥५॥ रतनकरण्डक का करूं पद्यमयी अनुवाद। मात्र प्रयोजन मम रहा मोह मिटे परमाद ॥६॥
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