मंगल कामना
विहसित हो जीवन लता, विलसित गुण के फूल।
ध्यानी मौनी सँघता, महक उठी आमूल ॥१॥
सान्त करूँ सब पाप को, ह ताप बन शान्त।
गति आगति रति मति मिटे, मिले आय निज प्रान्त ॥२॥
रग-रग से करुणा झरे, दुखी जनों को देख।
विश्व सौख्य में अनुभवू, स्वार्थ सिद्धि की रेख ॥३॥
रस रूपादिक हैं नहीं, मुझमें केवलज्ञान।
चिर से हूँ, चिर और हूँ, हूँ निज के बल जान ॥४॥
तन मन से औ वचन से, पर का कर उपकार।
रवि सम जीवन बस बने, मिलता शिव उपहार ॥५॥
यम-दम-शम-सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय।
नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ॥६॥
मंगल जग जीवन बने, छा जावे सुख छाँव।
जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव ॥७॥
शाश्वत निधि का धाम हो, क्यों बनता हूँ दीन।
है उसको बस देख ले, निज में होकर लीन ॥८॥
रचना काल एवं समय परिचय
खुद पर्वत यों गा रहा, ले कुण्डल आकार।
कुण्डलगिरि में हूँ खड़ा, कौन करे नाकार? ॥१॥
सार्थक कुण्डलगिरि रहा, सुखकर कोनी क्षेत्र।
एक झलक में खुल गये, मन के मौनी नेत्र ॥२॥
व्यसन गगन गति गन्ध' की, चैत्र अमा का योग।
पूर्ण हुआ यह ग्रन्थ है, ध्येय मिटे भव रोग ॥३॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव