विरोध एकान्ती का करता तर्कादिक से सिद्ध सही।
तदतत्-स्वभाव-धारक यानी मुख्य-गौण हो कहीं कहीं ॥
सुविधिनाथ प्रभु आत्मज्योति से तत्त्व प्ररूपित सही किया।
तुम मत से विपरीत मतों ने जिसका स्वाद न कभी लिया ॥१॥
स्वभाव-वश औ अन्यभाव-वश तत्त्व रहा वह नहीं रहा।
क्योंकि कथंचित् उसी तरह ही प्रतीत होता सही रहा ॥
निषेध-विधि में कभी सर्वथा अनन्यपन या अन्यपना।
होते नहिं हैं जिन-मत गाता तत्त्व अन्यथा शून्य बना ॥२॥
वही रहा यह प्रतीत इस विध तत्त्व अतः यह नित्य रहा।
अन्यरूप ही झलक रहा है इसीलिए नहिं नित्य रहा ॥
बाहर-भीतर के कारण औ कार्य-योग वश, तत्त्व वही।
नित्यानित्यात्मक संगत है तव मत का यह सत्त्व सही ॥३॥
एक द्रव्य वश अनेक गुण वश वाच्य रहा वह वाचक का।
वन है तरु है'' इस विध कहते भाव विदित ज्यों गायक का ॥
सर्व धर्म के कथन चाहते गौणपक्ष पर नहिं माने।
एकान्ती मत कहते उनको स्याद्-पद दुखकर, बुध जाने ॥४॥
गौण-मुख्यमय अर्थ-युक्त तव दिव्य वाक्य है सुख-कारी।
यदपि तदपि तुम मत से चिढ़ते उनको निश्चित दुखकारी ॥
साधु-राज हे चरण-कमल तव सुर-नर-पति से वंदित हैं।
अतः मुझे भी वन्दनीय हैं सुरभित-सौम्य-सुगंधित हैं ॥५॥
(दोहा)
सुविध! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर ॥१॥
बाल मात्र भी ज्ञान ना मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे तुम पद में मम भाल ॥२॥