रयण मंजूषा
बाहर भीतर श्री से युत हो वर्धमान, गतमान हुए,
विराग-जल से राग-मलिनता धुला स्वयं छविमान हुए।
झलक रहा सब लोक सहित नभ जिनकी विद्या दर्पण में,
मन-वच-तन से जिन चरणों में करूं नमन मुनि अर्पण मैं ॥१॥
भव-सागर के दुःख गर्त से ऊपर भविजन को लाता,
उत्तम, उन्नत मोक्ष महल में स्थापित करता, सुख धाता।
धर्म रहा वह समीचीन है वसु विध विधि का नाशक है,
करूँ उसी का कथन मुझे अब बनना निज का शासक है ॥२॥
समदर्शन औ बोध चरितमय धर्म रहा यह ज्ञात रहे,
इस विध करुणा कर हम पर वे धर्म-नाथ जिननाथ कहें।
किन्तु धर्म से, मिथ्या-दर्शन आदिक वे विपरीत रहें,
भव पद्धति हैं भव-दुख के ही निशदिन गाते गीत रहें ॥३॥
परमारथमय पूज्य आप्त में परमारथ अघहारक में,
श्रद्धा करना भाव-भक्ति से तथा परम तपधारक में।
वसुविध अंगों का पालन, त्रय मूढ़पना, वसु मद तजना,
वही रहा समदर्शन है नित रे मन! ‘समदर्शन भजना' ॥४॥
लोकालोकालोकित करते पूर्ण ज्ञान से सहित रहें,
विरागता से भरित रहे हैं। दोष अठारह रहित रहें।
जगहित के उपदेशक ये ही नियम रूप से आप्त रहें,
यही आप्तता नहीं अन्यथा जिन-पद में मम माथ रहे ॥५॥
क्षुधा नहीं है तृषा नहीं है जरा जनन नहिं खेद नहीं,
रोग शोक नहिं राग रोष नहिं तथा मरण नहिं स्वेद नहीं।
निद्रा, चिन्ता, विस्मय नहिं हैं भीति अरति नहिं गर्व रहा,
मोह न जिनमें आप्त रहे वे जिनपद में जग सर्व रहा ॥६॥
परमेष्ठी हैं परम ज्योतिमय पूर्ण-ज्ञान के धारी हैं,
विमल हुए कृतकृत्य हुए हैं वीतराग अविकारी हैं।
आदि मध्य औ अन्त रहित हैं विश्व-विज्ञ जग हितकारी,
वे ही शास्ता कहलाते हैं सदुपदेश के अधिकारी ॥७॥
भविक जनों का हित हो देते, सदुपदेश स्वयमेव विभो,
प्रतिफल की वांछा न रखते वीतराग जिनदेव प्रभो!
वाद्यकला में पण्डित शिल्पी मुरज बजाता, बजता है,
मुरज, माँगता नहीं कभी कुछ यही रही अचरजता है ॥८॥
प्रत्यक्षादिक अनुमानादिक प्रमाण से अविरोधित हो,
वीतराग सर्वज्ञ कथित हो नहीं किसी से बाधित हो।
एकान्ती मत का निरसक हो सब जग का हितकारक हो,
अनेकान्तमय तत्त्व-प्रदर्शक शास्त्र वही अघहारक हो ॥९॥
विषयों से अति दूर हुए हैं कषायगण को चूर किया,
निरारम्भ हैं पूर्ण रूप से सकल संग को दूर किया।
ज्ञान-ध्यानमय तप में रत हो अपना जीवन बिता रहे,
महा-तपस्वी कहलाते वे हमें मनस्वी बता रहे ॥१०॥
तत्त्व रहा जो यही रहा है इसी तरह ही तथा रहा,
नहीं अन्य भी तथा रहा है नहीं अन्यथा यथा रहा।
खड्ग धार पर थित जल-कण सम अचल सुपथ में रुचि करना,
शंका के बिन निशंक बनकर सम-दर्शन को शुचि करना ॥११॥
कर्मों पर जो निर्धारित है स्वभाव जिसका सान्त रहा,
सुख-सा दिखता किन्तु दुःख से भरा हुआ निर्भ्रांत रहा।
पाप बीज है इन्द्रिय-सुख यह इसमें अभिरुचि ना करना,
अनाकांक्षमय अंग रहा है समदर्शन का सुख झरना ॥१२॥
स्वभाव से ही अशुचिधाम हो रहा अचेतन यह तन हो,
रतनत्रयी का योग प्राप्त कर पूज्य पूत पुनि पावन हो।
ग्लानि नहीं हो मुनि-मुद्रा से गुण-गण के प्रति प्रीति रहे,
निर्विचिकित्सक अंग यही है समदर्शन की रीति रहे ॥१३॥
भटकाने वाले कुत्सित पथ दुखदायक जो बने हुए,
विषयों में अति सने हुए हैं पथिक कुपथ के तने हुए।
तन,मन,वच से इनकी सेवा अनुमति थुति भी नहीं करना,
यही दृष्टि है अमूढ़पन की प्राप्त करो शिव-सुख वरना ॥१४॥
स्वयं रहा शुचितम शिव-पथ जिस पर चलते बिन होश कभी,
अज्ञ तथा निर्बल जन यदि वे करते हैं कुछ दोष कभी।
उनके उन दोषों को ढकना कभी प्रकाशित नहिं करना,
उपगूहन दृग अंग रहा है अनंग-सुख-प्रद, उर धरना ॥१५॥
समदर्शन या पावन चारित यद्यपि पालन करते हैं,
खेद कभी यदि उनसे गिरते बाधक कारण घिरते हैं।
धर्म-प्रेम से विज्ञ उन्हें बस पूर्व-स्थिती पर फिर लाते,
स्थितीकरण दृग अंग वही है अपनाते निज घर जाते ॥१६॥
कुटिल भाव बिन जटिल भाव बिन साधर्मी से प्यार करो,
तरल भाव से सरल भाव से नित समुचित व्यवहार करो।
यथायोग्य उनका विनयादिक करना भी कर्तव्य रहा,
रहा यही वात्सल्य अंग है उज्ज्वल हो भवितव्य अहा ॥१७॥
अन्धकार अज्ञानमयी जब फैल रहा हो कभी कहीं,
उसे मिटाना यथायोग्य निज-शक्ति छुपाना कभी नहीं।
जिन-शासन की महिमा की हो और प्रसारण सुखद कहाँ?
प्रभावना दृग अंग यही है पाप रहे फिर दुखद कहाँ? ॥१८॥
प्रथम अंग नि:शंकित में वह प्रसिद्ध अंजन चोर महा,
नि:काक्षित में अनन्तमति यश फैल रहा चहुँ ओर यहाँ।
निर्विचिकित्सित में उद्दायन ख्यात हुआ कृतकाम हुआ,
अडिग रेवती अमूढ़पन में ख्यात उसी का नाम हुआ ॥१९॥
अंग पाँचवें उपगूहन में नामी जिनेन्द्र-भक्त रहे,
स्थितीकरण के पालन में वर वारिषेण अनुरक्त रहे।
इसी भाँति वात्सल्य अंग में विष्णु-मुनि विख्यात रहे,
ख्यात हुए हैं प्रभावना में वज्र मुनीश्वर ज्ञात रहे ॥२०॥
समदर्शन यदि निज अंगों का अवधारक वह नहीं रहा,
जनम जरा भय भव-संतति का हारक भी फिर नहीं रहा।
न्यूनाधिक अक्षर वाला हो मन्त्र जहर को कब हरता ?
उचित रहा यह समुचित कारण निजी कार्य वह द्रुत करता ॥२१॥
कंकर-पत्थर ढेर लगाना स्नान नदी सागर करना,
अग्नि-कुण्ड में प्रवेश करना गिरि पर चढ़कर गिर मरना।
लोक-मूढ़ता यही रही है मूढ़ इन्हें बस धर्म कहें,
अतः मूढ़ता बुधजन तजकर शाश्वत शुचि शिव-शर्म गहें ॥२२॥
राग-रोष से दोष-कोष से जिनका जीवन रंजित है,
देव नहीं वे, कुदेव सारे देव-भाव से वंचित हैं।
धन सुत आदिक की वांछा से उनकी पूजा जड़ करते,
देव-मूढ़ता यही, इसी से विधि-बन्धन को दृढ़ करते ॥२३॥
संग सहित आरम्भ सहित हैं हिंसादिक में फंसे हुए,
सांसारिक कार्यों में उलझे मोह पाश से कसे हुए
कुगुरु रहें वे उनका आदर जो जड़-जन नित करते हैं,
गुरू-मूढ़ता यही इसी से पुनि-पुनि तन-धर मरते हैं ॥२४॥
ज्ञानवान हूँ ऋद्धिमान हूँ उच्च-जाति कुलवान तथा,
पूज्य प्रतिष्ठित रूपवान हूँ तपधारी बलवान तथा।
मन में आविर्मान, मान हो इन आठों के आश्रय ले,
वही रहा ‘मद' निर्मद कहते जिनवर जिनका आश्रय ले ॥२५॥
व्यर्थ गर्व से तने हुए हैं मन में जो मद-मान धरें,
धार्मिक जीवन जीने वाले भविजन का अपमान करें।
अतः स्वयं ही आत्म-धर्म को मिटा रहे वह भूल रहे,
धर्मात्मा बिन चूंकि धर्म नहिं मिलता जो भव कूल रहे ॥२६॥
संवरमय समकित आदिक से जिनका कलुषित पाप धुला,
जात-पात धन कुल से फिर क्या? रहा प्रयोजन आप भला।
किन्तु पाप-मय जीवन जिनका बना हुआ है सतत रहा,
बाह्य सम्पदादिक फिर भी वह मूल्य-शून्य सब वितथ रहा ॥२७॥
निजी कर्म के उदय प्राप्त कर जन्म-जात चाण्डाल रहा,
पर समदर्शन से है जिसका भासित जीवन भाल रहा।
गणधर आदिक पूज्य साधुजन, पूज्य उसे भी तदपि कहा,
तेज अनल ज्यों अन्दर,ऊपर राख ढकी हो यदपि अहा! ॥२८॥
धर्म-भाव वश श्वान स्वर्ग में देव बने वह सुखित बने,
पाप-भाववश देव श्वान हो पशुगति में आ, दुखित घने।
अतः धर्म के बिन जग जन को अन्य कौन फिर सम्पद है?
धर्म-शरण हो मम जीवन हो अक्षय सुख का आस्पद है ॥२९॥
आशा भय के स्नेह लोभ के वशीभूत सुख खोकर के,
कुगुरु-देव आगम ना पूजे नहीं विनय बुध हो करके।
चूंकि विमल समदर्शन से वह जिनका जीवन पोषित है,
इस विध गुरु कहते जिनके तन-मन यम दम से शोभित है ॥३०॥
ज्ञात रहे यह बात सभी को समदर्शन ही श्रेष्ठ रहा,
ज्ञान तथा चारित में समपन लाता फलतः जेष्ठ रहा।
मोक्षमार्ग में समदर्शन ही खेवटिया सम मौलिक है,
सन्त कह रहे, कर नहिं सकते जिसका वर्णन मौखिक है ॥३१॥
विद्या चारित के उद्भव औ रक्षण वर्धन सुफल महा,
समदर्शन बिन सम्भव नहिं हैं कुछ भी करलो विफल अहा।
उचित बीज बिन भला बता हूँ फूल-फलों से लदा हुआ,
हरित भरित तरु कभी दिखा क्या समदर्शन बिन मुधा रहा ॥३२॥
शिव-पथ का वह पथिक रहा है गृही बना यदि निर्मोही,
मोक्ष-मार्ग से बहुत दूर हैं मुनि होकर यदि मुनि मोही।
अतः मोह से मण्डित मुनि से मोह रहित “वर'' गृही रहा,
मात्र भेष नहिं गुण से शिव हो यही रहा श्रुत, सही रहा ॥३३॥
तीन लोक में तीन काल में तनधारी को सुखकारी,
अन्य कौन यह द्रव्य रहा है समदर्शन बिन दुखहारी।
इसी भाँति मिथ्यादर्शन सम और नहीं दुखकारक है,
हित चाहो हित कारण धारो गुरु गाते गुण-धारक है ॥३४॥
विरत भाव से विरत यदपि हैं जिनका जीवन अविरत है,
किन्तु विमलतम समदर्शन के आराधन में नित रत हैं।
प्रथम नरक बिन नहीं नपुंसक परभव में पशु स्त्री ना हों,
अल्प आयुषी अपांग ना हो दरिद्र ना दुष्कुलिना हो ॥३५॥
बने यशस्वी बने मनस्वी ओज तेज से सहित बने,
नीर निधी सम धीर धनी भी शत्रु-विजेता मुदित घने।
महाकुली हो शिवपथ साधक मनुज लोक के तिलक बने,
समदर्शन से विमल लसे हैं शीघ्र निरंजन अलख बने ॥३६॥
अणिमा महिमा गरिमादिक वसु गुण पूरण पा तुष्ट रहें,
अतिशय सुन्दर शोभा से बस विलसित हो संपुष्ट रहें।
सुर बनकर सुर-वनिताओं से सुचिर स्वर्ग में रमण करें,
दृग धारक जिन के आराधक फिर शिवपुर को गमन करें ॥३७॥
चक्री बनकर चक्र चलाते छह खण्डों के अधिपति हैं,
जिनके पद में मुकुट चढ़ाते सादर आ धरणीपति हैं।
नव निधियाँ शुभ चौदह मणियाँ सभी उन्हीं को प्राप्त रहें,
जो हैं शुचितम दर्शनधारी इस विध हमको आप्त कहें ॥३८॥
सुरपति, नरपति, असुराधिप भी जिन चरणों में माथ धरें,
गणधर आदिक पूज्य साधु तक जिन्हें सदा प्रणिपात करें।
सत्य-दृष्टि से तत्त्व बोध को पाये जग में शरण रहें,
धर्म-चक्र के चालक वे ही तीर्थंकर सुख झरण रहें ॥३९॥
रोग नहीं हैं शोक नहीं है जहाँ जरा नहिं मरण नहीं,
बाधा की भी गन्ध नहीं है शंका का अनुसरण नहीं
पूरण विद्या सुख शुचि सम्पद अनुपम अक्षय शिवपद है,
समदर्शन के धारक ही वे पा लेते अभिनव पद हैं ॥४०॥
यों सुरपुर में अमित सम्पदा-युत सुरपति पद भोग वहाँ,
पुनः धरापतियों से पूजित नरपति पद का योग यहाँ।
तीन लोक में अनुपम अद्भुत तीर्थंकर पद पाकर के,
प्रभु-पद-पंकज-पूजक भविजन शिव हो निज घर जाकर के ॥४१॥
अहो! न्यूनता-रहित रहा है संशय से भी रीता है,
तथा अधिकता रहित रहा है नहीं रहा विपरीता है।
सदा वस्तु सब जिस विध भाती उन्हें उसी विध जान रहा,
जिन कहते हैं समीचीन बस ! ज्ञान वही सुख खान रहा ॥४२॥
महापुरुष की कथा, शलाका-पुरुषों की जीवन गाथा,
गाता जाता बोधि विधाता समाधि-निधि का है दाता।
वही रहा प्रथमानुयोग है परम पुण्य का कारक है,
समीचीन शुचि बोध कह रहा, रहा भवोदधि-तारक है॥४३॥
लोक कहाँ से रहा कहाँ तक अलोक कितना फैला है ?,
कब किस विध परिवर्तन करता काल खेलता खेला है।
दर्पण सम जो चहुँ गतियों को स्पष्ट रूप से दर्शाता,
वही रहा करणानुयोग शुचि-ज्ञान बताता हर्षाता ॥४४॥
सागारों का अनगारों का चरित सुखद है पावन है,
जिसके उद्भव रक्षण वर्धन में बाहर जो साधन है।
वही रहा चरणानुयोग' है पूर्ण-ज्ञान यों बता रहा,
उसका अवलोकन कर ले तू समय वृथा क्यों बिता रहा ॥४५॥
जीव तत्त्व क्या कहाँ रहा है, अजीव कितने रहे कहाँ,
पाप रहा क्या पुण्य रहा क्या, बन्ध मोक्ष क्या रहे कहाँ?
इन सबको द्रव्यानुयोग-मय, दीप प्रकाशित करता है,
मूल-भूत जिन-श्रुत विद्या का, प्रकाश लेकर जलता है ॥४६॥
सुचिर काल के मोह तिमिर को, पूर्ण रूप से भगा दिया,
समदर्शन का लाभ हुआ जो, सत्य ज्ञान को जगा लिया।
राग-रोष का मूल रूप में, क्षय करना अब कार्य रहा,
तभी चरित को धारण करता, साधु रहा यह आर्य रहा ॥४७॥
हिंसादिक सब पापों के जब, निराकरण के करने से,
राग रोष ये मिटते कारण, बाधक कारण मिटने से।
जिसके मन में अणु भर भी नहिं, धन मणि यश की अभिलाषा,
किस विध कर सकता फिर सेवा, राजा की वह बन दासा ॥४८॥
हिंसा से औ असत्य से भी, चोरी मैथुन-सेवन से,
पापास्रव के सभी कारणों, और परिग्रह मेलन से।
सुदूर होना भाग्य मानकर, संयम-मय जीवन जीना,
सच्चे ज्ञानी पुरुषों का वह, चारित है निज आधीना ॥४९॥
सकल सङ्ग को त्याग चुके हैं, अनगारों का सकल रहा,
अल्प सङ्ग को त्याग चुके हैं,सागारों का विकल रहा।
सकल नाम का विकल नाम का,इस विध चारित द्विविध रहा,
भविजन धरते फल मिलता है, सुरसुख शिवसुख विविध महा॥५०॥
गृही जनों का विकल चरित भी, त्रिविध बताया जिनवर ने,
अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत यों, नाम पुकारा गणधर ने।
रहा पञ्चधा अणुव्रत भी वह, गुणव्रत भी वह त्रिविध रहा,
शिक्षाव्रत यह रहा चतुर्विध, रुचि से पालो सुबुध अहा ? ॥५१॥
प्राणनाशिनी हिंसा का औ, अनुचित असत्य भाषण का,
चोरी मैथुन-सेवन का भी तथा संग के धारण का।
पूर्ण नहीं पर स्थूल रूप से, पापों का जो त्याग रहा,
अणुव्रत माना जाता है वह, सुख का ही अनुभाग रहा ॥५२॥
कभी भूलकर काया से भी, और वचन से निजमति से,
कृत से भी औ कारित से भी, अन्य किसी की अनुमति से।
संकल्पित हो त्रस जीवों का, प्राण-घात जो नहिं करना,
‘अहिंसाणुव्रत' वही रहा है, जिन कहते तू उर धरना ॥५३॥
निर्बल नौकर पशु पर भारी, भार लादना रोज व्यथा,
छेदन भेदन पीड़न करना, देना कम ही भोज तथा।
अहिंसाणुव्रत के पाँचों ये, अतीचार हैं त्याज्य रहें,
तजता वह, भजता सुर सुख औ, क्रमशः शिव साम्राज्य गहें ॥५४॥
स्थूल झूठ ना स्वयं बोलता, तथा न पर से बुलवाता,
तथा सत्य से बच, बचवाता, पर पर यदि संकट आता।
स्थूल सत्यव्रत यही रहा है, श्रावक पाले मन हरणे,
पर उपकारों में रत गणधर, इस विध कहते सुख बरसे ॥५५॥
कभी धरोहर डकार जाना, अहित पंथ को ‘हित' कहना,
नर-नारी के गुप्त प्रणय को, प्रकटाना चुगली करना।
ईर्षावश, नहिं किये कहे को, किये कहे यों लिख देना,
स्थूल-सत्यव्रत के ये दूषण, रस इनका ना चख लेना ॥५६॥
रखी हुई या गिरी हुई या, कभी भूल से कहीं रही,
औरों की जो वस्तु रही हो, दी न गई हो निजी नहीं।
उसे न लेना, अन्य किसी को तथा न देना भूल कभी,
‘अचौर्य अणुव्रत' यही रहा है, रहा सौख्य का मूल यही ॥५७॥
चोरी करने प्रेरित करना, चौर्य द्रव्य पर से लेना,
काम मिलावट का करना औ, सत्ता का कर नहिं देना।
माप-तौल में बढ़न-घटन कर लेन-देन करते रहना,
अचौर्य अणुव्रत के ये पाँचों, दोष इन्हें हरते रहना ॥५८॥
पाप कर्म से डरते हैं जो, पर-वनिता का भोग नहीं,
स्वयं तथा पर को प्रेरित नहिं, करते हैं बुध लोग कभी।
पर वनिता का त्याग रूप वह, ब्रह्मचर्य अणुव्रत भाता,
तथा उसी का अपर नाम है ‘स्वदार -सन्तोषित' साता ॥५९॥
पर के विवाह करना, अनुचित अंग संग मैथुन करना,
गाली गलौच देना, इच्छा काम-भोग की अति करना।
व्याभिचारिणी के घर जाना, आना वार्तादिक करना,
ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पाँचों दूषण हैं इनसे डरना ॥६०॥
दशविध परिग्रह धान्यादिक का, समुचित सीमित कोष करे,
संग्रह उससे अधिक संग का, नहीं करे, मनतोष धरे।
‘परिमित परिग्रह' पंचम अणुव्रत यही रहा सुन सही जरा,
‘इच्छा परिमाणक' भी प्यारा नाम इसी का तभी परा ॥६१॥
बहुत भार को ढोना संग्रह, व्यर्थ संग का अति करना,
पर धन लख विस्मित होना अतिलोभी बहु वाहन रखना।
परिमित परिग्रह पंचम अणुव्रत, के पाँचों ये दोष रहे,
इस विध कहते जिनवर हमको, वीतराग गत दोष रहे ॥६२॥
अतीचार से रहित रही हैं, सारी अणुव्रत की निधियाँ,
नियमरूप से शीघ्र दिखाती, स्वर्गों की स्वर्णिम गलियाँ।
अणिमा महिमादिक आठों गुण अवधिज्ञान से सहित मिले,
भव्य-दिव्य मणिमय-सी काया छाया से जो रहित मिले ॥६३॥
आदिम में मातंग रहा है, दूजे में धनदेव रहें,
वारिषेण नीली जय क्रमशः अन्य व्रतों में, देव कहें।
इस विध अणुव्रत पालन में ये, दक्ष रहें निष्णात हुए,
पूजा अतिशय यश पाया है, भविक जनों में ख्यात हुए ॥६४॥
सुनो! सुनो! हिंसा में कुशला रही धनश्री सेठानी,
असत्य में तो सत्यघोष वह चोरी में तापस नामी।
काम पाप में यमपालक था और श्मश्रु-नवनीत रहा,
पाँचों पापों में यों पाँचों ख्यात यही अघ-गीत रहा ॥६५॥
मद्य-मांस-मधु मकार त्रय का प्रथम पूर्ण वारण करना,
अहिंसादि अणुव्रत पाँचों का सादर परिपालन करना।
गृही जनों के अष्टमूल-गुण श्रमणवरों ने बतलाया,
पाला जिसने पाया उसने पावन-पद शाश्वत काया ॥६६॥
गुणव्रत हैं त्रय दिग्व्रत आदिम अनर्थदण्डक व्रत प्यारा,
भोगोपभोग परिमाण तथा है रहा तीसरा व्रत सारा।
विमल बनाते सबल बनाते सकल मूलगुण के गण को,
सार्थक इनका नाम इसी से आर्य बताते भविजन को ॥६७॥
मरण काल तक दशों दिशाओं की मर्यादा अपनाना,
उससे बाहर कभी न जाऊँ यों संकल्पित हो जाना।
चूंकि ध्येय है सूक्ष्म पाप से भी पूरण बचकर रहना,
यही रहा है दिग्व्रत इस विध पूज्य गणधरों का कहना ॥६८॥
सागर सरिता सरवर भूधर पुर गोपुर औ नगर महा,
यथा प्रयोजन, योजन आदिक वन-उपवन गिरि शिखर महा।
दशों दिशाओं की मर्यादा गुणव्रत धर के की जाती,
इन्हीं स्थलों को हेतु बनाते जिनवाणी यों बतलाती ॥६९॥
मर्यादा के बाहर जबसे सूक्ष्म पाप से रहित हुए,
पापभीत हो यथा प्रयोजन सभी दिग्व्रतों सहित हुए।
तभी महाव्रत पन को पाते सागारों के अणुव्रत हो,
पाप त्याग की महिमा न्यारी अकथनीय है अनुगत हो ॥७० ॥
कषाय प्रत्याख्यानावरणा मन्द-मन्दतर हुए जभी,
चरित मोह परिणाम सभी वे मन्द-मन्दतर हुए तभी।
मोहादिक के भाव यदपि हैं सहज पकड़ में नहिं आते,
तभी गृही उपचार मात्र से महाव्रती वे कहलाते ॥७१॥
हिंसादिक पाँचों पापों को तन से वच से औ मति से,
पूर्ण त्यागना भूल राग को कृतकारित से अनुमति से।
महामना मुनि महाराज का रहा महाव्रत सुधा वही,
संग सहित हो स्वयं आपको मुनि माने जो मुधा वही ॥७२॥
ऊपर - नीचे आजू - बाजू सीमा उल्लंघन करना,
किसी प्रलोभनवश निर्धारित, सीमा संवर्धन करना।
प्रमादवश कृत सीमा की स्मृति विस्मृत करना, मूढ़ रहे,
आगम कहता सुनो! पाँच ये दिग्व्रत के हैं शूल रहे ॥७३॥
दशों दिशाओं की मर्यादा के भीतर भी वच तन को,
बिना प्रयोजन पाप कार्य से रोक लगाना निज मन को।
अनर्थदण्डक व्रत यह माना, व्रत धर के गुरु बतलाते,
जिसके जीवन में यह उतरा तरा भवोदधि वह तातें ॥७४॥
रुचि से सुनना पाप कथायें और सुनाना औरों को,
प्रमाद करना, प्रदान करना हिंसा के उपकरणों को।
अनर्थ-दण्डक पाँच पाप ये दुश्चितन में रत रहना,
इन दण्डों को नहीं धारते गणधर देवों का कहना ॥७५॥
पशुओं को पीड़ा हो जिनसे कृषि आदिक हिंसाधिक हो,
जिन उपदेशों से यदि बढ़ते प्रचलित प्रवंचनादिक हो।
उन्हीं कथायें बार-बार बस, सतत सुनाते जो रहना,
वही रहा पापोपदेश है अनर्थ जड़ है भव गहना ॥७६॥
हिंसा के जो कारण माने फरसा भाला हाला को,
खड्ग कुदारी तथा श्रृंखला जलती ज्वाला जाला को।
प्रदान करना, अनर्थदण्डक यह है हिंसा दान रहा,
बुध कहते, दुख प्रदान करता भव-भव में दुख खान रहा ॥७७॥
द्वेषभाव से कभी किसी के बंधन छेदन का वध का,
रागभाव के वशीभूत हो पर-वनितादिक का धन का।
मन से चिंतन करना हो तो दुःख हेतु दुर्ध्यान रहा,
जिन-शासन के शासक कहते सौख्य हेतु शुभ ध्यान रहा ॥७८॥
कृषि आदिक का वशीकरण का, संग वृद्धि का वर्णन हो,
वीर रसों का मिश्रण जिनमें द्वेषभाव का चित्रण हो।
कुमत मदन मद के पोषक हैं, उन शास्त्रों का श्रवण रहा,
मन कलुषित करता, दुःश्रुति' यह इसका फल भवभ्रमण रहा ॥७९॥
अनल जलाना अनिल चलाना सलिल सींचना वृथा कभी,
धरा खोदना, धूल उछालन लता तोड़ना तथा कभी।
बिना प्रयोजन स्वयं घूमना और घुमाना परजन को,
प्रमाद नामक अनर्थ-दण्डक यह कारण भव-बंधन को ॥८०॥
बहु बकना अति राग भाव से, असभ्य बातें भी करना,
भोग्य वस्तुयें अधिक बढ़ाना कुत्सित चेष्टायें करना।
किसी कार्य काऽऽरम्भ अधिक भी पूर्व भूमिका बिन करना,
अनर्थदण्डकव्रत के पाँचों दोष रहें ये, नहिं करना ॥८१॥
विषय राग की लिप्सा को जब और क्षीणतम करना है,
विषयों की सीमा को उसके भीतर भी कम करना है।
आवश्यक पंचेन्द्रिय विषयों की सीमा सीमित करना,
भोगोपभोग परिमाण यही है गुणव्रत धरना हित करना ॥२॥
भोग वही जो भोग काम में एकबार ही आता है,
किन्तु रहा उपभोग काम में बार-बार जो आता है।
अशन सुमन आसन वसनादिक पंचेन्द्रिय के विषय रहें,
श्रावक इनमें रचे-पचें नहिं निज व्रत में नित अभय रहें ॥८३॥
जिसने जिनवर के जग-तारण-तरण-चरण की शरण गही,
कहा जा रहा उसका, निश्चित बनता है आचरण सही।
त्रस-हिंसा से जब बचता है मांस तथा मधु तजता है,
तथा साथ ही प्रमाद तजने मद्य-पान भी तजता है॥८४॥
मूली, लहसुन, प्याज, गाजरा, आलू, अदरक आदिक को,
नीम कुसुम नवनीत केवड़ा गुलाब गुलकन्दादिक को।
साधु जनों ने त्याज्य बताया इसका कारण यह श्रोता!
जीव घात तो अधिक, अल्प फल इनके भक्षण से होता ॥८५॥
रोग जनक प्रतिकूल अन्न हो भक्ष्य भले ही त्याज्य रहे,
प्रासुक हो पर अनुपसेव्य भी व्रतीजनों को त्याज्य रहे।
क्योंकि ग्रहण के योग्य विषय को, इच्छापूर्वक तजना ही,
व्रत है इस विध आगम कहता, मोह राग को तज राही ॥८६॥
भोगोपभोग परिमाण द्विविध है कहता जिन-आगम प्यारा,
नियम नाम का एक रहा है, रहा दूसरा ‘यम' वाला।
तथा काल की सीमा करना, वही नियम से नियम रहा,
आजीवन जो धारा जाता यम कहलाता परम रहा ॥८७॥
अशन पान का शयन स्नान का तथा काम के सेवन का,
श्रवण गाने का सुमन माल का ललित काय के लेपन का।
पचन पान का वसन मान का शोभन भूषण धारण का,
वाद्य गीत संगीत प्रीति का हयगय अतिशय वाहन का ॥८८॥
घटिका में या दिनभर में या निशि में निशिवासर में या,
पक्ष मास ऋतु एक अयन में पूरण संवत्सर में या।
यथाशक्ति इन्द्रिय विषयों का जो तजना है ‘नियम' रहा,
इसका पालन करने वाला सुख पाता अप्रतिम रहा ॥८९॥
विषम-विषमतम विष सम विषयों को अनपेक्षित नहिं करना,
विगत काल में भोगे-भोगों, की स्मृति भी पुनि-पुनि करना।
भावी भोगों की अति तृष्णा, लोलुपता अति अपनाना,
भोगोपभोग परिमाण दोष ये, भोगों में अति रम जाना ॥९० ॥
प्रथम देश अवकाशिक प्यारा दूजा है सामयिक तथा,
रहा प्रोषधा उपवासा है, “वैयावृत्त्या, श्रमिक-कथा''।
मुनिव्रत शिक्षा मिलती इनसे, शिक्षाव्रत ये चार रहे,
मुनि बनने की इच्छा रखते श्रावक इनको धार रहे॥९१॥
बहुत क्षेत्र की दशों दिशाओं, में सीमा आजीवन थी,
उसे काल की मर्यादा से, कम-कम करना प्रतिदिन भी।
यही देश अवकाशिक व्रत है, अणुव्रत पालक श्रावक का,
यही देशनामृत मृतिनाशक जिन-शासन के शासक का ॥९२॥
ग्राम तथा आरामधाम निज पुर गोपुर औ भवन महा,
यथा प्रयोजन योजन-योजन नद नदिका वन गहन अहा।
सुनो! देश अवकाशिक व्रत में, इनकी सीमा की जाती,
गणी कहें, भवतीर लगाती वीर-भारती भी गाती ॥९३॥
एक स्थान पर रहूँ वर्ष या एक अयन ऋतु पक्ष कभी,
चार मास या मास बनाना नियम कभी नक्षत्र कभी।
यही देश अवकाशिक व्रत की कालावधि मानी जाती,
ज्ञानी ध्यानी कहते हैं औ जिनवर की वाणी गाती ॥९४॥
देश काल की सीमायें जब, निर्धारित कर पाने से,
उनके बाहर स्थूल सूक्ष्म अघ पाँचों ही मिट जाने से।
स्वयं देश अवकाशिक व्रत भी अणुव्रत होकर महा बने,
व्रत की महिमा यही रही है दुख बनता सुख सुधा बने ॥२५॥
कभी भेजना सीमा बाहर पर को अथवा बुलवाना,
कंकर आदिक फेंक सूचना करना ध्वनि देकर गाना।
सीमा के अन्दर रहना पर रूप दिखाना बाहर को, दोष,
देश अवकाशिक व्रत के ये हैं; तज अघ-आकर को ॥१६॥
सीमा के भीतर बाहर पाँचों पापों का त्याग करो,
तन से मन से और वचन से आतम में अनुराग करो।
यही रहा सामयिक नाम का शिक्षाव्रत अघहारक है,
ऐसे कहते गणधर आदिक अगाध आगम धारक हैं॥९७॥
केशबन्ध का मुष्टिबन्ध का वस्त्र बन्ध का काल रहा,
तथा बैठने स्थित होने का जो आसन का काल रहा।
वही रहा सामयिक समय है कहते आगम ज्ञाता हैं,
जो करता सामयिक नियम से बोधि समागम पाता है॥९८॥
व्यभिचारी महिलाजन पशु से रहित रहे एकान्त रहे,
सभी तरह की बाधाओं से रहित रहे पै, शान्त रहे।
निजी भवन में वन उपवन में चैत्य भवन या जंगल में,
व्रती सदा सामयिक करे वह प्रसन्न मन से मंगल में ॥९९॥
देहादिक की दूषित चेष्टा प्रथम नियन्त्रित भी करके,
संकल्पों औ विकल्प जल्पों का निग्रह कर भीतर से।
अनशन के दिन करना अथवा एकाशन के दिन करना,
व्रती पुरुष सामयिक यथाविधि अन्य दिनों में भी करना ॥१०० ॥
यथाविधी एकाग्र-चित्त से श्रावकजन नित प्रतिदिन भी,
अहोभाग्य सामयिक करें वे अनुत्साह आलस बिन ही।
क्योंकि अहिंसादिक अणुव्रत हो पूर्ण इसी से सफल रहे,
गीत इसी के निशिदिन गाते मुनिगण नायक सकल रहे ॥१०१॥
सुनो! व्रती सामयिक करेगा जब करता आरम्भ नहीं,
पास परिग्रह नहिं रखता है पर का कुछ आलम्ब नहीं।
तभी गृही वह यतिपन को है पाता दिखता है ऐसा,
हुआ कहीं उपसर्ग वस्त्र से वेष्टित मुनि लगता जैसा ॥१०२॥
श्रावक जब सामयिक कार्य को करने संकल्पित होता,
बाँधी सीमा तक अपने में पूर्णरूप अर्पित होता।
मच्छर आदिक काट रहे हों शीत लहर हो अनल दहे,
सहें परीषह उपसर्गों को मौन योग में अचल रहे ॥१०३॥
अशरण होकर अशुभ रहा है सार नहीं दुख क्षार रहा,
पर है परकृत तथा रहा है क्षणभंगुर संसार रहा।
किन्तु शरण है शुभ है सुख है स्वयं मोक्ष ध्रुव सार रहा,
यह चिंतन सामयिक काल में करता वह भवपार रहा ॥१०४॥
मन-वच-तन के योग तीन ये पाप सहित जो बन जाना,
तथा अनादर होना, होना सहसा विस्मृत अनजाना।
ये पाँचों सामयिक नाम के शिक्षाव्रत के दोष रहे,
दोषरहित जिनदेव बताते गुण-गण के जो कोष रहे ॥१०५॥
सदा अष्टमी चतुर्दशी को भोजन का बस त्याग करें,
अशन पान को खाद्य लेह्य को, याद करें ना राग करें।
यही “प्रोषधा उपवासा'' है व्रतीजनों का ज्ञात रहे,
किन्तु मात्र व्रत पालन करना सत्य प्रयोजन साथ रहे ॥१०६॥
लोचन अंजन नासा रंजन दाँतन मंजन स्नान नहीं,
नास तमाखू अलंकार ना फूल-माल का मान नहीं।
असि मसि कृषि आदिक षट्कर्मों पापों का परिहार करें,
निराहार उपवास दिनों में निज का ही श्रृंगार करें ॥१०७॥
पूर्ण चाव से निजी श्रवण से धर्मामृत का पान करें,
बने अन्य को पान करावे सहधर्मी का ध्यान करें।
ज्ञानाराधन द्वादशभावन धर्म-ध्यान में लीन रहें,
किन्तु व्रती उपवास दिनों में प्रमाद-भर से हीन रहें ॥१०८॥
अशन पान का खाद्य लेह्य का पूर्ण-त्याग उपवास रहा,
एक बार ही भोजन करना प्रोषध उसका नाम रहा।
तथा पारणा के दिन भोजन एक बार ही जो गहना,
रहा ‘प्रोषधा उपवासा' वह बार-बार गुरु का कहना ॥१०९॥
देख-भाल बिन शोधे बिन ही पूजन द्रव्यों को लेना,
जहाँ कहीं भी दरी बिछाना मल-मूत्रों को तज देना।
तथा अनादर होना, होना विस्मृति भी वह कभी-कभी,
दोष प्रोषधा उपवासा के हैं कहते हैं सुधी सभी ॥११०॥
तपोधनी हैं गुण के निधि हैं गृह-त्यागी संयम-धर हैं,
उनको अन्नादिक देना यह ‘वैयावृत्या' व्रतवर है।
पर प्रतिफल की मन्त्र-तन्त्र की इच्छा बिन हो दान खरा,
यथाशक्ति से तथा यथाविधि धर्म-भाव पर ध्यान धरा ॥१११॥
संयमधर पर आया संकट उसे मिटाना कार्य रहा,
पैर थके हों पीड़ा हो तो उन्हें दबाना आर्य महा।
गुण के प्रति अनुराग जगा हो अन्य-अन्य उपकार सभी,
वैय्यावृत्या कहलाता है लाता है भवपार वही ॥११२॥
पाप कार्य सब चूली चक्की आदिक सूने त्याग दिये,
आर्य रहें अनिवार्य कार्यरत संयम में अनुराग किये।
उन्हें सप्त गुण युत शुचि आवक नवविध भक्ती है करता,
प्रासुक अन्नादिक देता वह दान कहाती दुख हरता ॥११३॥
अगार तज अनगार बने हैं अतिथि रहें नहिं तिथि रखते,
उन पात्रों को दाता देते दान यथोचित मति रखते।
गृह-कार्यों से अर्जित दृढ़तम अघ भी जिससे धुलता है,
रुधिर नीर से जिस विध धुलता, आती अति उज्ज्वलता है ॥११४॥
तपोधनों को नमन करो तो सुफल निराकुल सुकुल मिले,
उपासना से पूजा मिलती भोग दान से विपुल मिले।
भक्त बनो गुरु-भक्ति करो तो सुभग-सुभगतम तन मिलता,
गुरु-गुण-गण की स्तुति करने से यश फैले जन मंजुलता ॥११५॥
सही पात्र को भाव-भक्ति से समयोचित हो दान रहा,
अल्पदान भी अनल्प फल दे भविजन को वरदान रहा।
उचित धरा पर वपन किया हो, हो अणु-सा वट बीज भले,
घनी छाँव फल देता तरु बन भाव भले शुभ चीज मिले ॥११६॥
प्रथम रहा आहार दान है दूजा औषध दान रहा,
शास्त्रादिक उपकरणदान जो वही तीसरा दान रहा।
चौथा है आवासदान यों भेद दान के चार रहे,
वैयावृत्या अतः चतुर्विध सुधी कहें आचार्य कहे ॥११७॥
प्रजापाल श्रीषेण नाम का प्रथम दान में ख्यात रहा,
हुई वृषभसेना वह औषध महादान में ख्यात महा॥
तथा रहा उपकरण - दान में नामी है कौण्डेश अहा,
सूकर वह आवास-दान में यह गुरु का उपदेश रहा ॥११८॥
देवों से भी पूज्य देव ‘जिन' जिनके सुरपति दासक हैं,
प्रभु पद पंकज कामधेनु हैं कामभाव का नाशक हैं।
सविनय सादर जिनपद पूजन बुधजन प्रतिदिन करें अतः,
सब दुख मिटता मिलता निजसुख क्रमश:शिवको वरेंस्वतः ॥११९॥
अरहन्तों के चरण कमल की पूजा की महिमा न्यारी,
शब्दों में वह बँध नहिं सकती थकती रसनायें सारी।
इस महिमा को राजगृही में भविकजनों के सम्मुख रे,
प्रमुदित मेंढक दिखलाया है फूल-पाँखुड़ी ले मुख में ॥१२०॥
अतिथिजनों को दाता देते भोजन जो यदि ढका हुआ,
कदली के पत्रों से अथवा कमल-पत्र पर रखा हुआ।
तथा भाव मात्सर्य अनादर विस्मृति होना दोष रहे,
वैयावृत्या व्रत के पाँचों कहते गुरु गतदोष रहे॥१२१॥
जरा-दशा दुर्भिक्ष-काल या उपसर्गों का अवसर हो,
रोग भयंकर तथा हुआ हो दुर्निवार हो दुखकर हो।
धर्म-भावना रक्षण करने तन तजना तब कार्य रहा,
सल्लेखन वह है इस विध ये कहते गुरुवर आर्य महा ॥१२२॥
अन्त समय संन्यास सहारा लेना होता हे प्राणी!,
सकल तपों का सुफल रहा वह विश्व-विज्ञ की यह वाणी।
इसीलिए अब यथाशक्ति बस पाने समाधि-मरण अरे!
सतत यतन करते रहना है तुम्हें मुक्ति तब वरण करे॥१२३॥
प्रेम भाव को वैर भाव को तथा अंग की ममता को,
सकल संग को तजकर, धरकर निर्मल मनमें समता को।
विनय घुला हो प्रिय सम्वादों मिश्री मिश्रित वचनों से,
आप क्षमाकर क्षमा माँगकर पुरजन परिजन स्वजनों से ॥१२४॥
सर्व पाप का आलोचन कर कृत से कारित अनुमति से,
सभी तरह का कपट भाव तज सरल सहज निश्छल मति से।
पञ्च पाप का त्याग करे वह जब तक घट में प्राण रहे,
पञ्च महाव्रत ग्रहण करें पर आत्म-तत्त्व का भान रहे ॥१२५॥
शोक छोड़ना भीति छोड़ना पूर्ण छोड़ना खेद तथा,
स्नेह छोड़ना द्वेष छोड़ना अरतिभाव मनभेद व्यथा।
अहो! धैर्य भी तथा जगाना उत्साहित निज को करना,
सत्य श्रुतामृत पिला पिलाकर तृप्त शान्त मन को करना ॥१२६॥
दाल भात आदिक को क्रमशः कम-कम करते त्याग करें,
दुग्धादिक का पान करें अब नहीं अन्न का राग करें।
दुग्धादिक को भी क्रमशः फिर निज इच्छा से त्याग करें,
नीरस कांजी नीरादिक का केवल बस अनुपान करें ॥१२७॥
नीरस प्रासुक जलपानादिक भी क्रमशः फिर तज देना,
तन कृश हो उपवास करे पर प्रथम निजी बल लख लेना।
पूज्य पञ्च नवकार मन्त्र को निशिदिन मन से जपना है,
पूर्ण यत्न से जागृत बनकर तजना तन को अपना है ॥१२८॥
जीवन की वांछा करना मैं शीघ्र मरूँ मन में लाना,
तथा मित्र की स्मृति हो आना भय से मन भी घिर जाना।
भोग मिले यों निदान करना पाँच दोष ये कहलाते,
सल्लेखन के जिनवर कहते दोष टाल बुध सुख पाते ॥१२९॥
सल्लेखन से कुछ धर्मात्मा भवसागर का तट पाते,
अन्तरहित शिव सुखसागर को तज नहिं भव पनघट आते।
किन्तु भव्य कुछ परम्परा से शिवसुख भाजन हो जाते,
तन के मन के दुख से रीता दीर्घकाल सुर सुख पाते ॥१३०॥
जनन नहीं है मरण नहीं है जरा नहीं है शोक नहीं,
दुःख नहीं है भीति नहीं है किसी तरह के रोग नहीं।
वही रहा निर्वाणधाम है नित्य रहा अभिराम रहा,
निःश्रेयस है विशुद्धतम सुख ललाम आतम-राम रहा ॥१३१॥
अनन्त विद्या अनन्त दर्शन अनन्त केवल शक्ति रही,
परम स्वास्थ्य आनन्द परम औ परम शुद्धि परितृप्ति सही।
जो कुछ उघड़े घटे-बढ़े नहिं अमित काल तक अमिट रहे,
निःश्रेयस निर्वाण वही है सुख से पूरित विदित रहे ॥१३२॥
एक-एक कर कल्प-काल भी बीत जाय शत-शत भाई,
या विचलित त्रिभुवन हो ऐसा वज्रपात हो दुखदाई।
सिद्ध शुद्ध जीवों में फिर भी विकार का वह नाम नहीं,
उनका सुखकर नाम इसी से लेता मैं अविराम सही ॥१३३॥
निःश्रेयस निर्वाणधाम में सुचिर काल ये बसते हैं,
तीन लोक की शिखामणी की मंजुल छवि ले लसते हैं।
कीट कालिमा रहित कनक की शोभा पाकर भासुर हैं,
सिद्ध हुए हैं शुद्ध हुए हैं जिन्हें पूजते आसुर हैं ॥१३४॥
आज्ञापालक सेवक मिलते मिलती पूजा पद-पद है,
सभी तरह की विलासताएँ मिलती महती सम्पद है।
परिजन मिलते योग्य भोग्य बल काम धाम आराम मिले,
जग-विस्मित हो अद्भुत सुख दे सत्य धर्म से शाम टले ॥१३५॥
प्रतिमाएँ वे कहलाते हैं। ग्यारह श्रावक पद भाते,
उत्तर पद गुण पूर्व पदों के गुणों सहित ही बढ़ पाते।
उचित रहा यह करोड़पति ज्यों लखपति पण से युक्त रहे,
ऐसा जिनवर का कहना है जनन मरण से मुक्त रहे ॥१३६॥
विषय भोग संसार देह से अनासक्त हो जीता है,
समीचीन दर्शन का नियमित मधुर सुधारस पीता है।
पाँचों परमेष्ठी गुरुजन के चरणों में जा शरण लिया,
दर्शन-प्रतिमा का धारक वह तत्त्वपंथ को ग्रहण किया ॥१३७॥
पाँचों अणुव्रत धारण करता अतीचार से रहित हुआ,
तीनों गुणव्रत चउशिक्षाव्रत इन शीलों से सहित हुआ।
वही रहा व्रत प्रतिमाधारक किन्तु शल्य से रीता हो,
महाव्रती गणधर आदिक यों कहते हैं भवभीता हो ॥१३८॥
तीन - तीन कर चार - चार जो आवत को करते हैं,
दिग्अम्बर हो स्थित हो प्रणाम, चार बार औ करते हैं।
तीनों सन्ध्याओं में वन्दन बैठ नमन दो बार करे,
श्रावक वे सामयिक नाम पद पा ले भव को पार करें ॥१३९॥
चतुर्दशी दो तथा अष्टमी मास-मास में आते हैं,
उन्हीं दिनों में यथाशक्ति सब काम-काज तज पाते हैं।
प्रसन्न हो एकाग्र चित्त हो प्रोषध नियमों कर पाते,
प्रोषध उपवासा प्रतिमा के धारक आवक कहलाते ॥१४० ॥
कच्चे जब तक रहते हैं वे कन्द रहो या मूल रहो,
करीर हो या शाक पात फल शाखा हो या फूल रहो।
उनको तब तक खाते नहिं हैं दयामूर्ति जो श्रावक हैं,
सचित्त-विरता प्रतिमा के वे पूर्णरूप से पालक हैं ॥१४१॥
अन्न पान औ खाद्य लेह्य यों रहा चतुर्विध भोजन है,
उसका सेवन निशि में करते नहीं व्रतीजन भो! जन है।
जग में सब जीवों के प्रति जो करुणा धारण करते हैं,
निशि भोजन के त्याग नाम की प्रतिमा पालन करते हैं ॥१४२॥
मल का कारण, बीज रहा है मल का मल झरवाता है,
अशुचि-धाम दुर्गन्ध रहा है तथा घृणा करवाता है।
ऐसे तन को लखकर श्रावक मैथुन सेवन तजता है,
वही ब्रह्मचारी कहलाता धर्म-भाव बस भजता है ॥१४३॥
असि मसि कृषि सेवा शिल्पादिक प्रमुख यही आरम्भ रहे,
प्राणघात के कारण, कारण पापों के सम्बन्ध रहे।
इन आरम्भों को तजता है पाप-भीत करुणाधारी,
वही रहा आरम्भ त्यागमय प्रतिमाधारी आगारी ॥१४४॥
दाम धाम आदिक सब मिलकर बाह्य परिग्रह दशविध हो,
उसकी ममता तज जो श्रावक निरीह निर्मम बस बुध हो।
तथा बना सन्तोष कोष हो निज कार्यों में निरत सही,
स्वामीपन ले मन में बैठे सकल संग से विरत वही ॥१४५॥
असि मसि कृषि आदिक आरम्भों में तो ना अनुमति देता,
किन्तु संग में विवाह कार्यों में भी कभी न मति देता।
यद्यपि घर में रहता फिर भी समता-धी से सहित रहा,
वही रहा दशवीं प्रतिमा का पालक अनुमति-विरत रहा ॥१४६॥
श्रावक घर को तजता है फिर मुनियों के वन में जाता,
गुरुओं के सान्निध्य प्राप्त कर करे ग्रहण सब व्रत साता।
भिक्षाचर्या से भोजन पा तप तपता सुखकारक है,
श्रावक वह उत्कृष्ट रहा है खण्ड वस्त्र का धारक है ॥१४७॥
पाप रहा जो वही शत्रु है धर्म-बन्धु है रहा सगा,
यदि आगम को जान रहा है ऐसा निश्चय रहा जगा।
वही श्रेष्ठ है ज्ञानी अथवा अपने हित का है ज्ञाता,
जिसको हित की चिन्ता नहिं है ज्ञानी कब वह कहलाता ? ॥१४८॥
मिथ्यादर्शन आदिक से जो निज को रीता कर पाया,
दोषरहित विद्या-दर्शन-व्रत रत्नकरण्डक कर पाया।
धर्म अर्थ की काम मोक्ष की सिद्धि उसी को वरण करे,
तीन लोक में पति-इच्छा से स्वयं उसी में रमण करे ॥१४९॥
सुखद कामिनी कामी को ज्यों सुखी मुझे कर दुरित हरे,
शीलवती माँ सुत की जिस विध मम रक्षा यह सतत करे।
कुल को कन्या सम गुणवाली यह मुझको शुचि शान्त करे,
दृग् लक्ष्मी मम जिन-पद पद्मों में रहती सब ध्वान्त हरे॥१५०॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव