पद्यानुवादक-प्रशस्ति
लेखक कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान।
त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़ें धीमान ॥१॥
निधि-नभ-नगपति-नयन का सुगन्ध-दशमी योग।
लिखा ईसरी में पढ़ो बनता शुचि उपयोग ॥२॥
मंगल - कामना
विहसित हो जीवनलता विलसित गुण के फूल।
ध्यानी मौनी सूँघता महक उठी आ-मूल ॥१॥
सान्त करूँ सब पाप को हरूँ ताप बन शान्त।
गति-अगति रति मति मिटे मिले आप निज प्रान्त ॥२॥
रग रग से करुणा झरे दुखी जनों को देख।
विषय-सौख्य में अनुभवू स्वार्थ-सिद्धि की रेख ॥३॥
रस-रूपादिक हैं नहीं मुझ में केवलज्ञान।
चिर से हूँ चिर औ रहूँ, हूँ जिनके बल जान ॥४॥
तन मन से औ वचन से पर का कर उपकार।
यह जीवन रवि सम बने मिलता शिव-उपहार ॥५॥
हम, यम दम शम सम धरें, क्रमशः कम श्रम होय।
देवों में भी देव हो अनुपम अधिगम होय ॥६॥
वात बहे मंगलमयी छा जावे सुख छाँव।
गति सबकी सरला बने टले अमंगल भाव ॥७॥
मन ध्रुव निधि का धाम हो, क्यों? बनता तू दीन।
है उसको बस देख ले, होकर निज में लीन ॥८॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव