आप्तमीमांसा
सर पर फिरते छतर चँवर वर स्वर्णासन पर अधर लसे।
ऊपर से सुर उतर उतर कर तुम पद में बन भ्रमर बसे ॥
इस कारण से पूज्य हमारे बने प्रभो! यह बात नहीं।
इस विध वैभव माया-जाली भी पाते क्या? ज्ञात नहीं ॥१॥
जरा-रहित है रोग-रहित है उपमा से भी रहित रहा।
तव तन अकालमरणादिक से रहित रहा द्युति सहित रहा ॥
इस कारण से भी तुम प्रभु तो पूज्य हमारे नहीं बने।
देवों की भी दिव्य देह है देव सुखों में तभी सने ॥२॥
आगम, आगमकर्ता अनगिन तीर्थकरों की कमी नहीं।
किन्तु किसी की कभी किसी से बनती नहिं है कमी यही ॥
कौन सही फिर कौन सही ना! इसीलिए सब आप्त नहीं।
किन्तु एक ही इन सब में ही गुरु चेता' यह बात रही ॥३॥
कहीं किसी में मोहादिक की तरतमता वह विलस रही।
अतः ईश तुम, तुम में जड़ से अघ की सत्ता विनस रही ॥
यथा कनक-पाषाण, कनक हो समुचित साधन जब मिलता।
चरित-बोध-दृग आराधन से बाह्याभ्यन्तर मल मिटता ॥४॥
सूक्ष्म रहें कुछ, दूर रहें कुछ बहुत पुराने तथा रहें।
पदार्थ सब प्रत्यक्ष रहे हैं किसी पुरुष के, पता रहे ॥
अनलादिक अनुमान-विषय हैं, स्पष्ट किसी को यथा रहें।
इसीलिए सर्वज्ञ-सिद्धि हो साधु-सन्त सब बता रहे ॥५॥
‘सो' तुम ही ‘सर्वज्ञ' रहे प्रभु दोष-कोष से मुक्त रहे।
बोल, बोलते युक्ति-शास्त्र से युक्त रहें उपयुक्त रहें।
विसंवाद तव मत में नहिं है पक्षपात से दूर रहा।
अन्य मतों से बाधित भी ना क्षमता से भरपूर रहा ॥६॥
अपने को सर्वज्ञ मानकर मान-दाह में दग्ध हुए।
सदा सर्वथा मतैकान्त के क्षार-स्वाद में दग्ध हुए।
सुधा-सार है तव मत, जिसके सेवन से तो वंचित हैं।
बाधित हो प्रत्यक्ष-ज्ञान से उनका मत अघ रंजित है ॥७॥
पोषक हैं एकान्त मतों के अनेकान्त से दूर रहें।
निजके निज ही शत्रु रहें वे औरों के भी क्रूर रहें।
उनके मत में पुण्य, पुण्य-फल, नहीं पापफल, पाप नहीं।
नाथ! मोह नहिं, मोक्ष नहीं हो, इह भव, परभव आप नहीं ॥८॥
पदार्थ सारे भावरूप ही होते यदि यूँ मान रहे।
सभी अभावों का फिर क्या हो निश्चित ही अवसान रहे ॥
सबके सब फिर विश्वरूप हों आदि नहीं फिर अन्त नहीं।
आत्मरूप का विलय हुआ यूँ तुम मत में भगवन्त नहीं ॥९॥
प्रागभाव का मन से भी यदि करो अनादर घोर कहीं।
घट पट आदिक कार्यद्रव्य हो अनादि फिर तो छोर नहीं ॥
अभाव जो प्रध्वंस रूप है उसका स्वागत नहिं करते।
कार्यद्रव्य ये नियम रूप से अनन्तता को हैं धरते ॥१०॥
रहा ‘परस्पर अभाव' घट पट आदिक में जो एक खरा।
उसे न माना, विशेष बिन, सब एक रूप हों, देख जरा ॥
अभाव जो अत्यन्त रूप है द्रव्य अचेतन चेतन में।
जिस बिन चेतन बने अचेतन चेतनता आती तन में ॥११॥
अभाव को एकान्त रूप से मान रहे वे भूल रहे।
भावपक्ष को पूर्ण रूप से उड़ा रहे प्रतिकूल रहे।
प्रमाणता को आगम, अधिगम कभी नहिं फिर धर सकते।
निजमत पोषण, परमत शोषण फिर किस विध हैं कर सकते ॥१२॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए।
पदार्थ भावाभावात्मक हो ऐसा कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित, सब वृथा रही।
दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥१३॥
भाव रूप ही रहा कथंचित् पदार्थ को जिनमत जानो।
वही इष्ट फिर अभावमय हो रहा कथंचित् पहिचानो॥
उभय रूप भी, अवाच्य सो है, नहीं सर्वथा तथा रहा
विविध नयों का लिया सहारा छन्द यहाँ यह बता रहा ॥१४॥
अपने अपने चतुष्टयों से सत्त्व रूप ही सभी रहें।
किन्तु सभी परचतुष्टयों से असत्त्व ही गुरु सभी कहें॥
ऐसा यदि तुम नहीं मानते चलते पथ विपरीत कहीं।
बिना अपेक्षा ‘सदसत् सब' यूँ कहना यह बुध-रीत नहीं ॥१५॥
अस्तिरूप औ नास्ति रूप भी उभय रूप यों तत्त्व रहा।
अवक्तव्य भी, तीन रूप भी शेष भंग, मय सत्त्व रहा ॥
अनेकान्तमय वस्तुतत्त्व यह स्याद्वाद से अवगत हो।
विसंवाद सब मिटते इससे सुधी जनों का अभिमत हो ॥१६॥
किसी एक जीवादि वस्तु में बात तुम्हें यह ज्ञात रहे।
अस्तिपना वह नियम रूप से नास्तिपना के साथ रहे ॥
कारण सुन लो, एक वस्तु में कई विशेषण हैं रहते।
‘सो' सहभावी ज्यों सहधर्मी वैधर्मी का, गुरु कहते ॥१७॥
किसी एक जीवादि वस्तु में बात तुम्हें यह ज्ञात रहे।
नास्तिपना वह नियम रूप से अस्तिपना के साथ रहे ॥
कारण सुन लो एक वस्तु में कई विशेषण हैं रहते।
‘सो' सहभावी ज्यों सहधर्मी वैधर्मी का, गुरु कहते ॥१८॥
शब्दों का जो विषय बना है विशेष्य उसकी यह गाथा।
विधि औ निषेध वाला होता छन्द यहाँ है यह गाता ॥
यथा अनल हो साध्यधर्म जब धूम्र हेतु हो वहाँ सही।
किन्तु नीर जब साध्य-धर्म हो धूम्र हेतु तब रहा नहीं ॥१९॥
इसी तरह ही शेष भंग भी साधित हो गुरु समझाते।
समुचित नय के प्रयोग द्वारा सब उलझन को सुलझाते ॥
कारण इसमें किसी तरह भी विरोध को कुछ जगह नहीं।
हे मुनिनायक! तव शासन में मुनि यह रमता वजह यही ॥२०॥
इसविध निषेध-विधिवाली यह पद्धति स्वीकृत जब होती।
बुधस्वीकृत वह वस्तुव्यवस्था कार्यकारिणी तब होती ॥
ऐसा यदि ना मान रहे तुम अर्थशून्य सब कार्य रहें।
बाह्याभ्यन्तर साधन भी वे व्यर्थ रहें यूँ आर्य कहें ॥२१॥
अनन्त धर्मों का आकर ही प्रति पदार्थ का बाना हो।
उन उन धर्मों में पदार्थ का भिन्न भिन्न ही भाना हो ॥
एक धर्म जब मुख्य बना ‘सो' शेष धर्म सब गौण हुए।
स्याद्वाद का स्वाद लिया जो विवाद सारे मौन हुए ॥२२॥
एक रहा है अनेक भी है, उभय रूप भी तत्त्व रहा।
अवक्तव्य भी शेष भंगमय विविध रूप यूँ सत्त्व रहा
संशय-मथनी सप्तभंगिनी का प्रयोग यूँ सुधी करें।
उचित नयों से, नय विधान में कुशल रहें, सुख सभी वरें ॥२३॥
द्वैत नहीं अद्वैत तत्त्व है मतैकान्त का यह कहना।
अपने वचनों से बाधित है विरोध-बहाव में बहना ॥
क्योंकि कारकों तथा क्रियाओं में दिखता वह भेद रहा।
और एक खुद, खुद का किस विध जनक रहा, यह खेद महा ॥२४॥
मानो तुम अद्वैत विश्व को पाप-पुण्य दो कर्म नहीं।
कर्म-पाक फिर सुख, दुख दो ना इह भव, परभव धर्म नहीं ॥
ज्ञान तथा अज्ञान नहीं दो द्वैत-भाव का नाश हुआ।
बन्ध मोक्ष फिर कहाँ रहे दो यह कहना निज हास हुआ ॥२५॥
यदि तुम मानो किसी हेतु से सिद्ध हुआ अद्वैत रहा।
हेतु साध्य दो मिलने से फिर सिद्ध हुआ वह द्वैत रहा ॥
अथवा यदि अद्वैत सिद्ध हो बिना हेतु यूँ मान रहे।
बिना हेतु फिर द्वैत सिद्ध हो इसविध क्यों ना मान रहे ॥२६॥
बिना हेतु के अहेतु ना हो जैसा सबको अवगत है।
बिना द्वैत अद्वैत नहीं हो वैसा ही यह बुधमत है॥
निषेध-वाचक वचन रहें जो विधि-वाचक के बिना नहीं।
निषेध उसका ही होता जो निषेध्य, जिसके बिना नहीं ॥२७॥
पृथक् पृथक् ही पदार्थ सारे ऐसा यदि एकान्त रहा।
गुणी तथा गुण अभिन्न होते पता नहीं? क्या भ्रान्त रहा ॥
पृथक् नाम का गुण यदि न्यारा गुणी तथा गुण से होता।
बहु अर्थों में ‘सो' है कहना विफल आपपन से होता ॥२८॥
द्रव्य रूप एकत्व भाव को नहीं मानते यदि बुध हो।
जनन मरण आदिक किसके हो प्रेत्यलोक फिर किस विध हो ॥
और नहीं समुदाय गुणों का सजातीयता बने नहीं।
तथा नहीं संतान श्रृंखला और दोष बहु घने यहीं ॥२९॥
ज्ञान ज्ञेय से भिन्न रहा यदि चिदात्म से भी भिन्न रहा।
असत् ठहरते ज्ञान ज्ञेय दो सत्वत् फिर क्या? प्रश्न रहा ॥
अभाव जब हो ज्ञान-भाव का ज्ञेय-भाव फिर कहाँ टिके।
बाह्याभ्यन्तर ज्ञेय शून्य फिर हे जिन! परमत कहाँ टिके ॥३०॥
समान जो सामान्य मात्र को विषय बनाते वचन सभी।
विशेष वचनातीत वस्तु है बौद्धों का है कथन यही ॥
अतः नहीं सामान्य वस्तुतः वचन सत्य से वंचित हो।
ऐसे वचनों से फिर कैसे कथन कथ्य श्रुति संगत हो ॥३१॥
पृथक्पना एकत्वपना मय पदार्थ कहते तने हुए।
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महा विरोधक बने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥३२॥
पृथक्पना एकत्वपना यदि भ्रातृपना को छोड़ रहें।
दोनों मिटते क्योंकि परस्पर दोनों का वह जोड़ रहें॥
लक्षण से तो भिन्न भिन्न हों किन्तु द्वयात्मक द्रव्य कथा।
अन्वय आदिक भेद भले हो तन्मय साधन भव्य यथा ॥३३॥
सत् सबका सामान्य रूप है इसीलिए बस एक सभी।
निज निज गुण लक्षण धर्मों से पृथक् परस्पर एक नहीं ॥
कभी विवक्षित भेद रहा हो अभेद किंवा रहा कभी।
बिना हेतु के नहीं सहेतुक बुध साधित है रहा सही ॥३४॥
यथार्थ है यह प्रति पदार्थ में अमित गुणों का वास रहा।
वर्णन उनका युगपत् ना हो वर्षों से विश्वास रहा ॥
इसीलिए वक्ता पर आश्रित मुख्य गौणता रहती है।
मुख्य गौण भी सत् ही होता असत् नहीं श्रुति कहती है ॥३५॥
भेद तथा है अभेद दोनों नहिं है ऐसा मत समझो।
प्रमाण के ये विषय रहे हैं कुछ सोचो तुम मत उलझो ॥
एक वस्तु में इनका रहना नहीं असंगत, विदित रहे।
मुख्य गौण की यही विवक्षा जिनमत में ही निहित रहें ॥३६॥
नित्य रूप एकान्त पक्ष का यदि तुम करते पोषण हो।
पदार्थ में परिणमन नहीं हो क्रिया मात्र का शोषण हो।
कर्ता किसका पहले से ही कारक का वह नाम नहीं।
प्रमाण फिर क्या? रहा बताओ प्रमाण-फल का काम नहीं ॥३७॥
प्रमाण कारक से यदि मानो पदार्थ भासित होते हैं।
जैसे इन्द्रियगण से निज निज विषय प्रकाशित होते हैं।
नित्य रहे हैं वैसे वे भी विकार किस में किस विध हो।
जिनमत से जो विमुख रहे हों सुख तुम मत में किस विध हो ॥३८॥
सांख्य पुरुष सम सदा सर्वथा कार्य रहे सद्रूप रहे।
यदि यूँ कहते, किसी कार्य का उदय नहीं मुनि भूप कहे॥
फिर भी यदि तुम विकारता की करो कल्पना वृथा रही।
नित्य रूप एकान्त पक्ष की वही बाधिका व्यथा रही ॥३९॥
पुण्य क्रिया नहिं पाप क्रिया नहिं औ सुख दुख फल नहीं रहे।
जन्मान्तर फिर कैसा होगा मूल बिना फल नहीं रहे।
कर्म-बन्ध की गंध नहीं जब मोक्षतत्त्व की बात नहीं।
ऐसे मत के नायक नहिं जिन! मुमुक्षुओं के नाथ सही ॥४०॥
क्षणिक रूप एकान्त पक्ष के आग्रह का यदि स्वागत हो।
प्रेत्यभाव का अभाव होगा शिवसुख भी ना शाश्वत हो ॥
स्मरणादिक ज्ञानों का निश्चित क्यों ना ‘सो अवसान रहा।
किसी कार्य का सूत्रपात नहिं फल का फिर अनुमान कहाँ? ॥४१॥
कार्य सर्वथा असत्य ही हो ऐसा तव मत मूल रहा।
कार्य सभी आकाशकुसुम सम कभी न जनमें भूल अहा ॥
उपादान कारण सम होता कार्य नियम यह नहीं रहा।
किसी कार्य के होने में फिर संयम भी वह नहीं रहा ॥४२॥
तथा कार्य-कारण-भावादिक क्षणिक पंथ में रहे कदा।
आपस में ना अन्वय रखते अन्य अन्य ही रहे सदा ॥
जिस विध है सन्तानान्तर से भिन्न रूप सन्तान रही।
एकमेक सन्तान नहीं है सन्तानी से जान सही ॥४३॥
पृथक्-पृथक् सब यदपि रहा पर अनन्य सा टिमकार रहा।
और वही उपचार कहो यूँ क्यों न झूठ उपचार रहा ॥
तथा मुख्य जो अर्थ रहा है कभी नहीं उपचार रहा।
बिना मुख्य उपचार नहीं हो सन्तों का उद्गार रहा ॥४४॥
सदसत् उभयानुभयात्मक जो वस्तु धर्म का कथन रहा।
सब धर्मों के साथ उचित ना सुगत पन्थ का वचन रहा ॥
सन्तानी सन्तान भाव से अन्य रहा या अन्य नहीं।
कह नहिं सकते अवक्तव्य है इसीलिए बुध मान्य नहीं ॥४५॥
सन्तानी सन्तानन में यदि सदादि चहुविध कथन नहीं।
अवक्तव्यमय वस्तु धर्म में सदादि किस विध वचन सही ॥
किसी तरह भी किसी धर्म का कथन नहीं फिर वस्तु नहीं।
तुम्हें विशेषण विशेष्य रीता वस्तु इष्ट ही अस्तु कहीं ॥४६॥
अपने मन से होकर परमन से पदार्थ ओझल होता।
जिसकी सत्ता विद्यमान है निषेध उस ही का होता ॥
किन्तु यहाँ पर किसी भाँति भी यदि जिसका अस्तित्व नहीं।
उसका विधान निषेध ना हो सुनो जरा वस्तुत्व यही ॥४७॥
सभी तरह के धर्मों से यदि पूर्ण रूप से रहित रहा।
अवक्तव्य वह वस्तु नहीं हो मतैकान्त से सहित रहा ॥
आप पने से वस्तु वही पर अवस्तु पर पन से होती।
अनेकान्त की पूजा फलतः हम से तन मन से होती ॥४८॥
अवक्तव्य हो प्रति पदार्थ में धर्म रहे कुछ औ न रहे।
ऐसा यदि है बोल रहे क्यों बन्द रहे मुख मौन रहे॥
यदि मानो हम बोल रहे ‘सो' मात्र रहा उपचार अहा।
मृषा रहा उपचार सत्य से दूर रहा बिन सार रहा ॥४९॥
अवक्तव्य, क्यों अभाव है या उसका ही नहिं बोध रहा।
कथन शक्ति का या अभाव है जिस कारण अवरोध रहा ॥
जब कि सुगत अति विज्ञ बली है तुम सबकी दृग खोल रहा ।
मायावी बन बोल रहा क्या? लगता यह सब पोल रहा ॥५०॥
हिंसा का संकल्प किया वह कभी न हिंसा करता है।
भाव किये बिन हिंसा करता चित्त दूसरा मरता है॥
इन दोनों को छोड़ तीसरा चित्त बन्ध में है फँसता।
फँसा मुक्त नहिं और मुक्त हो क्षणिक पंथ पर जग हँसता ॥५१॥
कभी किसी का नाश हुआ ‘सो' रहा अहेतुक सुगत कहे।
हिंसक से हिंसा होती है यह कहना फिर गलत रहे।
और चित्त की सन्तति का यदि नाश मोक्ष का मूल रहा।
समतादिक वसु साधन से हो मोक्ष मानना भूल रहा ॥५२॥
कपाल आदिक उद्भव में तो हेतु अपेक्षित रहता हो।
घट आदिक के किन्तु नाश में हेतु उपेक्षित रहता हो ॥
इन दोनों में विशेषता कुछ रही नहीं कुछ भेद नहीं।
कहने भर को भेद रहा है हेतु एक है खेद यही ॥५३॥
रूपादिक की नामादिक की विकल्प की जो सन्तति है।
कार्य नहीं ‘सो' औपचारिकी कहती सौगत की मति है॥
विनाश विकास फिर किसके हो तथा सततता किसकी हो।
भला बता! आकाशकुसुम को आँख देखती किसकी ओ ॥५४॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महा विरोधक बने हुए।
पदार्थ नित्यानित्यात्मक ही ऐसा कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष सभी एकान्तवाद में आते हैं श्रुति बता रही ॥५५॥
स्मृति पूर्वक प्रत्यक्ष ज्ञान वह बिना हेतु का नहिं होता।
अतः प्रवाहित तत्त्व कथंचित् नित्य रहा यह सुन श्रोता ॥
क्षणिक कथंचित् क्योंकि उसी की प्रतिपल मिटती पर्यायें।
कदाग्रही के यह ना बनता है जिन तव मत समझायें ॥५६॥
सभी दशाओं में ज्यों-का-त्यों द्रव्य सदा यह लसता है।
द्रव्य कभी सामान्य रूप से नहीं जनमता नशता है॥
पर्यायों से किन्तु जनमता क्रमशः मिटता रहता है।
एक द्रव्य में जनन मरण स्थिति घटती, जिनमत कहता है ॥५७॥
नियम रहा यह कारण मिटता दिखा कार्य का मुख प्यारा।
कारण, कारण लक्षण न्यारा तथा कार्य का भी न्यारा ॥
किन्तु कार्य कारण दोनों की जाति एक ही है भाती।
जाति क्षेत्र भी भिन्न रहे तो गगनकुसुम की स्थिति आती ॥५८॥
एक पुरुष तो कलश चाहता, एक मुकुट को, देख दशा।
कलश मिटा जब मुकुट बनाया एक रुलाया एक हँसा ॥
निरख कनक की स्थिति कनकार्थी शोक किया ना नहीं हँसा।
मिटना बनना स्थिर भी रहना रहा सहेतुक, नहीं मृषा ॥५९॥
केवल दधि का त्याग किया है दुग्ध-पान वह करता है।
दुग्ध-पान का त्याग किया है दधि का सेवन करता है।
दोनों का सेवन ना करता जो है गोरस का त्यागी।
तत्त्व त्रयात्मक रहा इसी से गुरु कहते यूं बड़भागी ॥६०॥
कार्य तथा कारण ये दोनों रहें परस्पर न्यारे हैं।
तथा गुणी से गुण भी होते न्यारे न्यारे सारे हैं।
विशेष से सामान्य सर्वथा सदा भिन्न ही रहता है।
ऐसा यदि एकान्त रूप से वैशेषिक मत कहता है ॥६१॥
एक कार्य के अनेक कारण होते यह फिर नहिं रहता।
क्योंकि एक में भाग नहीं हैं बहुरूपों में वह बहता ॥
एक कार्य यदि बहु भागों में भाजित हो फिर एक कहाँ?।
कार्य-विषय में पर-मत में यूँ दोषों का अतिरेक रहा ॥६२॥
कार्य तथा कारण ये न्यारे देश-काल वश भी न्यारे।
घट पट में ज्यों भेदात्मक व्यवहार रहा है सुन प्यारे॥
तथा मूर्त सब कार्य कारणों की स्थिति पूरी जुदी रही।
उसमें फिर वह एक देशता कभी न बनती सही रही ॥६३॥
कार्य तथा कारण में होता आश्रय-आश्रयि भाव रहा।
समवायी-समवाय-बन्ध तब स्वतंत्र ना यह भाव रहा ॥
बन्ध-रहित संबंध रहा यह तुम में सब निर्बन्ध अरे।
समवायी-समवाय निरे जब आपस में कब बन्ध करे ॥६४॥
नित्य एक सामान्य रहा है उसी भाँति समवाय रहा।
एक एक अवयव में व्यापे यह जिन का व्यवहार रहा ॥
आश्रय के बिन रह नहिं सकते फिर इनकी क्या कथा रही।
मिटतीं बनतीं क्षणिकाओं में कौन व्यवस्था बता सही ॥६५॥
भिन्न रहा समवाय सर्वथा तथा भिन्न सामान्य रहा।
आपस में फिर बन्धन इनका किस विध कब वह मान्य रहा ॥
इनसे फिर गुण पर्ययवाले पदार्थ का भी बन्ध नहीं।
फिर क्या कहना, गगनकुसुम सम तीनों की ही गन्ध नहीं ॥६६॥
अणु अणु मिलकर स्कन्ध बने ना चूंकि सभी वे निरे निरे।
स्कन्ध बने तो अविभागी ना रह सकते अणु निरे परे ॥
अवनि अनल औ सलिल अनिल ये भूतचतुष्टय भ्रान्ति रही।
अन्यपना या अनन्यपनमय मतैकान्त में शान्ति नहीं ॥६७॥
कार्य-मात्र की भ्रान्ति रही तो अणु स्वीकृति भी भ्रान्ति रही।
क्योंकि कार्य का दर्शन ही तो कारण का अनुमान सही ॥
भूत चतुष्टय औ अणु का जब अभाव निश्चित होता हो।
उनके गुण-जात्यादिक का वह वर्णन क्यों ना? थोथा हो ॥६८॥
एकमेक यदि कार्य कारण हो एक मिटे इक शेष रहा।
इनमें अविनाभाव रहा ‘सो' रहा शेष निश्शेष अहा ॥
दो की संख्या भी नहिं टिकती यदि मानो वह कल्पित है।
कल्पित सो मिथ्या मानी है मात्र सांख्य-मत जल्पित है ॥६९॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग जैन के महाविरोधक बने हुए।
गुण, गुणधर आदिक उभयात्मक ऐसा कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७०॥
द्रव्य तथा पर्यायों में वह रहा कथंचित् ऐक्य सही।
कारण? दोनों का प्रदेश है एक रहा व्यतिरेक नहीं ॥
परिणामी परिणाम रहे हैं द्रव्य तथा ये पर्यायें।
शक्तिमान यदि द्रव्य रहा तो रही शक्तियाँ पर्यायें ॥७१॥
इसी तरह इन दोनों का बस भिन्न-भिन्न ही नाम रहा।
संख्या इनकी निरी निरी है न्यारे लक्षण काम रहा ॥
यथार्थ में यह अनेकान्त से बनता सुन नानापन है।
परन्तु हा! एकान्त पक्ष में तनता मनमानापन है॥७२॥
गुणी गुणादिक सदा सर्वदा आपेक्षिक यदि साधित हों।
दोनों कल्पित होने से वे सिद्ध नहीं हों बाधित हों ॥
अनपेक्षिक ही सिद्धि उन्हीं की ऐसा यदि तुम मान रहे।
विशेषता सामान्य पना ना सहचर का अवसान रहे ॥७३॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए।
आपेक्षिक अनपेक्षिक द्वयमय ‘पदार्थ' कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७४॥
धर्म बिना धर्मी नहिं धर्मी के बिन भी वह धर्म नहीं।
रहा परस्पर अन्वय इनका आपेक्षित है मर्म यही ॥
स्वरूप इनका किन्तु स्वतः है ज्ञापक कारक अंग यथा।
ज्ञान स्वत: तो ज्ञेय स्वत: है कर्म-करण निजरंग कथा ॥७५॥
हेतु मात्र से तत्त्व ज्ञात हो सिद्ध हो रहे काम सभी।
इन्द्रिय आगम आप्तादिक फिर व्यर्थ रहे कुछ काम नहीं ॥
या आगम से तत्त्व ज्ञात हो सबके आगम मौलिक हो।
उनमें वर्णित पदार्थ-सारे लौकिक भी पर-लौकिक हों ॥७६॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए।
तत्त्व ज्ञात हो शास्त्र, हेतु से ऐसे कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष सभी एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥७७॥
वक्ता यदि वह आप्त नहीं तो वस्तु तत्त्व का बोध न हो।
मात्र हेतु से साधित जो है बोध नहीं वह बोझ अहो!
परन्तु वक्ता आप्त रहा तो वचन उन्हीं के शास्त्र बने।
उन शास्त्रों से तत्त्व ज्ञात कर भविक सभी सुख-पात्र बने ॥७८॥
भीतर के निज-ज्ञान मात्र से जाने जाते अर्थ रहें।
ऐसा यदि एकान्त रहा तो मनस वचन सब व्यर्थ रहें।
उपदेशादिक प्रमाण नहिं फिर सभी प्रमाणाभास रहे।
एकान्तिक आग्रह करने से अपना ही उपहास रहे॥७९॥
साध्य तथा साधन का जब भी ज्ञान हमें जो होता है।
मात्र रहा वह ज्ञान एक है और नहीं कुछ होता है॥
ऐसा यदि एकान्त रहा तो कहाँ साध्य फिर साधन हो।
और, पक्ष में साध्य-दर्शिका निजी-प्रतिज्ञा बाधक हो ॥८०॥
बाह्य अर्थ परमार्थ रहे हैं अंतरंग कुछ खास नहीं।
ऐसा यदि एकान्त रहा तो रहा प्रमाणाभास नहीं ॥
वस्तु-तत्त्व का कथन यदपि जो यद्वा तद्वा करते हैं।
उन सबके सब कार्य सिद्ध हों वितथ सत्यता वरते हैं ॥८१॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग जैन के महाविरोधक बने हुए।
बाह्याभ्यन्तर उभय रूप है ‘पदार्थ' कहते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥८२॥
बना ज्ञान जब ज्ञेय स्वयं का अन्तरंग में रहता है।
रहा प्रमाणाभास लुप्त तब यही जिनागम कहता है॥
किन्तु ज्ञान जब बाह्य अर्थ को ज्ञेय बनाता तनता है।
बने प्रमाणाभास वही तब प्रमाण भी बस बनता है॥८३॥
कहा, 'जीव' यूँ शब्द रहा यह बाह्य अर्थ से सहित रहा।
हेतु शब्द ज्यों नाम रहा है निजी अर्थ से विहित रहा ॥
अर्थ शून्य मायादिक का ही नामकरण हो नहिं ऐसा।
प्रमाण का भी नाम रहा है सार्थक मायादिक वैसा ॥८४॥
बुद्धि तथा वह शब्द, अर्थ ये संज्ञायें हैं गुरु कहते।
बुद्धयादिक के वाच्यभूत जो वाचक बन करके रहते ॥
उन उन सम हो बुद्धयादिक ये बोधरूप भी तीन रहें।
उनको भासित करते दर्पण में पदार्थ आ लीन रहें ॥८५॥
वक्ता श्रोता ज्ञाता के जो बोध वचन है ज्ञान तथा।
न्यारे न्यारे रहे कथंचित् क्रमशः सुन तू मान तथा ॥
यदि मानो वे रहीं भ्रान्तियाँ प्रमाण भी फिर भ्रान्त रहा।
बाह्याभ्यन्तर भ्रान्त रहे तो अन्धकार आक्रान्त रहा ॥८६॥
शब्दों में भी तथा बुद्धि में प्रमाणता तब आ जाती।
बाह्य अर्थ के रहने पर ही, नहीं अन्यथा, श्रुति गाती ॥
तथा सत्य की असत्यता की रही व्यवस्था यही सही।
अर्थ-लाभ में अलाभ में यों क्रमशः, वरना! कभी नहीं ॥८७॥
दैव दिलाता सभी सिद्धियाँ ऐसा कहता पता चला।
पौरुष किसविध दैव-विधाता हो सकता तू बता भला ॥
दैव दैव को मनो बनाता मोक्ष कभी फिर मिले नहीं।
व्यर्थ रहा पुरुषार्थ सभी का मोह कभी फिर हिले नहीं ॥८८॥
पौरुष से ही सभी सिद्धियाँ मिलती कहता तू ऐसा।
भला बात दैवानुकूल ही पौरुष चलता यह कैसा ॥
पौरुष से ही सदा सर्वथा पौरुष आगे यदि चलता।
सभी जीव पुरुषार्थशील हैं सबका पौरुष कब फलता ॥८९॥
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए।
दैव तथा पौरुष दोनों का आग्रह करते तने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित, सब वृथा रहीं।
दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९०॥
अबुद्धिपूर्वक जीवात्मा का पौरुष जब वह चलता है।
सुख दुख का जो भी मिलना है वही दैव का फलना है॥
किन्तु बुद्धिपूर्वक जीवात्मा पौरुष जब वह करता है।
तब जो सुख दुख मिलता, समझो, पौरुष से वह झरता है॥९१॥
पर को दुख देने भर से यदि पापकर्म ही बँधता है।
पर को सुख-पहुँचाने से यदि पुण्य कर्म ही बँधता है॥
कई अचेतन विष आदिक औ कषाय विरहित मुनि त्यागी।
निमित्त दुख-सुख में होने से पाप-पुण्य के हों भागी ॥९२॥
जिससे निज को सुख होता सो पाप-बन्ध का कारण है।
जिससे निज को दुख होता सो पुण्य-बन्ध का कारण है।
ऐसा यदि एकान्त रहा तो विराग मुनि, औ बुध जन भी।
क्यों ना होंगे दोनों क्रमशः पुण्य-पाप के भाजन ही ॥९३॥
उभय रूप एकान्त मान्यता स्वयं बना कर तने हुए।
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए ॥
अवाच्य मत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९४॥
यदा कदा अपने में या पर में जो सुख दुख हो जाते।
क्रमशः विशुद्धि संक्लेशों के सुनो अंग वे कहलाते ॥
यही एक कारण पा आस्रव पुण्य-पाप का हो जाता।
वरना आस्रव तत्त्व कहाँ हो अरहन्तों का ‘मत' गाता ॥९५॥
कर्मबन्ध अज्ञानमात्र से होता दें यदि मान रहा।
ज्ञेय रहें ‘सो अनन्त' फिर क्यों होगा केवलज्ञान महा ॥
अल्प ज्ञान से मोक्ष मिले यदि ऐसा कहता ‘अन्ध' अहा।
बहुत रहा अज्ञान, इसी से मोक्ष नहीं, विधि-बन्ध रहा ॥१६॥
उभयरूप एकान्त मान्यता स्वयं बनाकर तने हुए।
स्याद्वादमय न्यायमार्ग के महाविरोधक बने हुए ॥
अवाच्यमत में अवाच्य कहना भी अनुचित सब वृथा रही।
दोष घने एकान्त पक्ष में आते हैं श्रुति बता रही ॥९७॥
मोह-लीन अज्ञान भाव से कर्मबन्ध वह होता है।
मोह-हीन अज्ञान भाव से कर्मबन्ध वह खोता है॥
अल्पज्ञान भी मोहरहित जो मोक्ष-महल में ले जाता।
वरना, विधि-बन्धन ही भाई मोह-गहल में क्यों जाता ॥९८॥
कामादिक ये जहाँ उपजते सुनो वही संसार रहा।
जिसका संचालन होता है कर्म-बन्ध अनुसार रहा ॥
कर्मों का कारण जीवों का अपना-अपना भाव रहा।
जीव भव्य ये अभव्य भी हैं चिर से बस भटकाव रहा ॥९९॥
भव्यपना औ अभव्यपन ये जीवों के बस! आप रहें।
मूंग मोठ कुछ पकते, कुछ नहिं, भले अनल का ताप सहे ॥
भव्यपने की व्यक्ति सादि हो अभव्यपन की अनादिनी।
स्वभाव को कब तर्क छू सकी? श्रुति गाती सुख-सुदायिनी ॥१००॥
लोकालोकालोकित करता युगपत् केवलज्ञान रहा।
वही आपका तत्त्वज्ञान जिन! प्रमाण है वरदान रहा ॥
तथा नयात्मक ज्ञान रहा जो स्याद्वाद से है भाता।
विषय बनाता क्रमशः सबको ‘प्रमाण' फलत: कहलाता ॥१०१॥
आदिम प्रमाण का फल सुन लो विरागपन है अमल रहा।
त्याज्य-त्याग में ग्राह्य-ग्रहण में प्रीति इतर का सुफल रहा ॥
या विनाश अज्ञानभाव का स्याद्वाद का फल माना।
किसमें हित औ अहित निहित है आत्मबोध का बल पाना ॥१०२॥
सही अर्थ से बात कराता स्यात्पद शाश्वत सार रहा।
अनेकान्त को साथ कराता दिखा वस्तु का पार अहा ॥
रहा ज्ञेय लो उसके प्रति ही सदा विशेषण धार रहा।
सो श्रुतिधर के हे जिनवर! तव वचनों का श्रृंगार रहा ॥१०३॥
दूर रहा, एकान्तवाद से स्याद्वाद वह कहलाता।
मूल रहा सापेक्षवाद का तभी कथंचित् विधि-दाता ॥
सप्तभंग-मय कथन-प्रणाली समयोचित ही अपनाता।
त्याज्य ग्राह्य क्या? तथा बताता, रखें उसी से अब नाता ॥१०४॥
स्याद्वादमय ज्ञान रहा औ पूरण केवलज्ञान रहा।
सकल-ज्ञेय को विषय बनाते दोनों सो परमाण अहा ॥
परोक्ष औ प्रत्यक्ष रहें ये इनमें से यदि एक रहा।
वस्तुतत्त्व का कथन नहीं हो बोध नहीं कुछ नेक रहा ॥१०५॥
साध्य-धर्म को विपक्ष से तो सदा बचाने दक्ष रहा।
किन्तु साथ ही साध्य-सिद्धि में लेता अपना पक्ष रहा ॥
स्याद्वादमय प्रमाण का जो सुनो अर्थ है विषय रहा।
उसी अर्थ की विशेषता को विषय बनाता सुनय रहा ॥१०६॥
कई भेद उपभेद कई हैं, सुनो, नयों के, जता रहे।
भिन्न-भिन्न एकान्तरूप से विषय नयों के तथा रहे॥
त्रैकालिक उन विषयों का ही एकतान यह द्रव्य रहा।
और द्रव्य भी अनेक विध है उपादेय निज द्रव्य रहा ॥१०७॥
भिन्न-भिन्न नय-विषयों का वह समूह मिथ्या नहिं होता।
क्योंकि सुनो तो हठाग्रही ना जिनमत के नय हे! श्रोता ॥
रहें परस्पर निरपेक्षित जो, मिथ्या नय हैं कहलाते।
सापेक्षित नय समीचीन हो वस्तु, जनाते वह तातें ॥१०८॥
वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन जब, जब वचनों से होता है।
विधान का या निषेध का तब तब आलम्बन होता है॥
निजवश ही तो वस्तु रही है परवश सो वह रही नहीं।
यही व्यवस्था रही, अन्यथा सूनी, सब कुछ रही नहीं ॥१०९॥
वस्तुतत्त्व यह तदतत् होता यह कहना तो समुचित है।
किन्तु वस्तु तो तत् ही है बस! यह प्रलाप तो अनुचित है॥
असत्य वचनों से फिर भी यदि तत्त्वदेशना होती हो।
कैसी हित करने वाली ‘सो' दुःख लेश ना हरती हो ॥११०॥
नियम रहा प्रत्येक वचन वह निजी अर्थ का पक्ष धरे।
अन्य वचन के किन्तु अर्थ का निषेध करने दक्ष अरे॥
सुगत कहें सामान्य स्वार्थ को इसी भाँति बस हम माने।
तो फिर सबको गगनपुष्प सम जाने माने पहिचाने ॥१११॥
यदि मानो सामान्य वचन वह विशेष के प्रति मौन रहा।
मिथ्या सो एकान्त रहा है सत्य वचन फिर कौन रहा ॥
सुनो! इष्ट के परिचय देने में सक्षम ‘स्यात्कार' रहा।
सत्य अर्थ का चिह्न यही है, सो उसका सत्कार रहा ॥११२॥
विधेय है प्रतिषेध्य वस्तु का अविरोधी सुन आर्य महा।
कारण, है वह इष्ट कार्य का अंग रहा अनिवार्य अहा ॥
आपस में आदेयपना औ हेयपना का पूरक है।
स्याद्वाद बस यही रहा सब वादों का उन्मूलक है॥११३॥
विराग का उपदेश सही है सराग का उपदेश नहीं।
यही ज्ञान बस ध्येय रहा है और आस कुछ लेश नहीं ॥
लिखी आप्तमीमांसा फलतः शास्त्रबोध अनुसार रहा।
आत्महितैषी बनो सुनो यह मात्र बोध निस्सार रहा ॥११४॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव