मंगलाचरण
सन्मति को मम नमन हो, मम मति सन्मति होय।
नर-सुर-पशु गति सब मिटे, पंचम गति होय ॥१॥
चन्दन चन्दर - चाँदनी, से जिन-धुनी अतिशीत।
उसका सेवन मैं करूँ, मन-वच-तन कर नीत ॥२॥
सुर, सुर-गुरु तक गुरु चरण, रज सर पर सुचढ़ाय।
यहमुनि, मन-गुरु-भजन में, निशिदिन क्यों नलगाय ॥३॥
कुन्दकुन्द को नित नमू, हृदय-कुन्द खिल जाय।
परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥४॥
गुण-निधि समन्तभद्रगुरु, महके अगुरु सुगंध।
अर्पित जिनपद में रहे, गन्ध-हीन मम छन्द ॥५॥
तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश।
करुणाकर! करुणा करो, कर से दो आशीष ॥६॥
देवागम का मैं करूँ, पद्यमयी अनुवाद।
मात्र प्रयोजन मम रहा, मोह मिटे परमाद ॥७॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव