निज आतम में चिर स्थिर बसना भविक-जनों का स्वार्थ यही।
भाँति-भाँति के क्षणभंगुर सब भोग कभी ये स्वार्थ नहीं ॥
तृष्णा का वह अविरल बढ़ना ताप शान्ति के हेतु नहीं।
सुपाश्र्व प्रभु का कथन यही है भव सागर का सेतु सही ॥१॥
जंगम चालक जभी चलाता, स्थाणु यंत्र तब चल पाता।
तथा जीव से तन चल पाता, जड़मय तन की यह गाथा ॥
दुखद विनाशी रुधिरमांस मय, तन है इस विध बता दिया।
तन की ममता अतः वृथा है, शिव का तुमने पता दिया ॥२॥
बाह्याभ्यंतर कारण द्वारा बनी हुई कृति जो दिखती।
होनहार सो हो कर रहती रोके वह नहिं रुक सकती ॥
बाहर कारण सब पाकर भी अहंकार से दुखित हुए।
सब कार्यों में विफल रहे शठ, प्रभु तुम कहते सुखित हुए ॥३॥
मात्र मरण से भले भीति हो मोक्ष-धाम वह नहिं मिलता।
शिव की वांछाभर से शिव नहिं मिलता जीवन नहिं खिलता ॥
मृत्यु-भीति से काम-चोर से ठगा हुआ जड़ अज्ञानी।
वृथा व्यथा है सहता फिर भी, तुमने कह दी यह वाणी ॥४॥
धर्म-रत्न की गवेषणा में निरत-जनों के नायक हो।
जननी-सम जड़-जन के हित प्रभु सदुपदेश के दायक हो ॥
सकल विश्व के जड़-चेतनमय सकल तत्त्व के ज्ञायक हो।
इसीलिए मैं तव गुण-गण का गीत गा रहा, गायक हो ॥५॥
(दोहा)
अबंध भाते काट के वसु विध विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभु-पना पा पाये आनन्द ॥१॥
बाँध-बाँध विधि-बंध मैं अन्ध बना मति मन्द।
ऐसा बल दो अंध को बंधन तोडू द्वन्द्व ॥२॥