ऐहिक सुख-तृष्णामय रोगों से जो पीड़ित जग जन हैं।
उन्हें निरोगी पूर्ण बनाने वैद्य रहे शंभव जिन हैं॥
प्रति-फल की पर वाँछा कुछ नहिं बिना स्वार्थ परहित रत हैं।
वैद्य लोग ज्यों रोग मिटाते दया-भाव से परिणत हैं ॥१॥
अहंकार-मय विभाव भावों मिथ्या-मल से रंजित हैं।
क्षणिक रहा है त्राण-हीन है जगत रहा सुख-वंचित है॥
जनन-मरण से जरा रोग से पीड़ित दु:खित विकल अहा!
उसे किया जिन निरंजना-मय, शान्ति पिला कर सबल महा ॥२॥
बिजली-सम पलजीवी चंचल इन्द्रिय-सुख है तनिक रहा।
तृष्णा-मय-मारी के पोषण का कारण है क्षणिक रहा ॥
तृष्णा की वह वृद्धि, निरंतर उपजाती है ताप निरा।
ताप जगत को पीड़ित करता जिन कहते, तज पाप जरा ॥३॥
बंध-मोक्ष क्या उनका कारण सुफल मोक्ष का कौन रहा?
बद्ध जीव औ मुक्त जीव सब जग में रहते कौन कहाँ?
ये सब वर्णन देव! तुम्हारे स्याद-वाद मत में पाते।
एकान्ती-मत में ना पाते, शिव-पथ-नेता तुम तातें ॥४॥
पुण्यवर्धनी तुम स्तुति करने इन्द्र विज्ञ असमर्थ रहा।
किन्तु अज्ञ मैं स्तोत्र कार्य में उद्यत हूँ ना अर्थ रहा ॥
तदपि भक्तिवश तुम-पद-पंकज-स्तुति, अलि बन अनिवार्य किया।
शिव-सुख की कुछ गंध हुँधा दो आर्य-देव! शुभ कार्य किया ॥५॥
(दोहा)
तुम-पद-पंकज से प्रभो झर-झर-झरी पराग।
जब तक शिव-सुख ना मिले पीऊँ षट्पद जाग ॥१॥
भव-भव, भव-वन भ्रमित हो भ्रमता-भ्रमता आज।
शंभव-जिन भव शिव मिले पूर्ण हुआ मम काज ॥२॥