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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. इन पुलाक आदि मुनियों की और भी विशेषता बतलाते हैं- संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपाद-स्थान विकल्पतः साध्याः ॥४७॥ अर्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान के भेद से पुलाक आदि मुनियों के भेद जानना चाहिए। English - The saints are to be described (differentiated) on the basis of differences in self-restraint, scriptural knowledge, transgression, the period of Tirthankara, the sign, the thought coloration, birth, and the place. विशेषार्थ - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील मुनि के सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है। कषाय कुशील मुनि के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही होता है। पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि अधिक से अधिक पूरे दस पूर्व के ज्ञाता होते हैं। कषाय-कुशील और निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। और कम से कम पुलाक मुनि आचारांग के ज्ञाता होते हैं; बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ पाँच समिति और तीन गुप्तियों के ज्ञाता होते हैं। स्नातक तो केवलज्ञानी होते हैं, अतः उनके श्रुताभ्यास का प्रश्न ही नहीं है। प्रतिसेवना का मतलब व्रतों में दोष लगाना है। पुलाक मुनि पाँच महाव्रतों में तथा रात्रि में भोजन त्याग व्रत में से किसी एक में परवश होकर कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। बकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण-बकुश और शरीर-बकुश। उपकरण बकुश मुनि को सुन्दर उपकरणों में आसक्ति रहने से विराधना होती है। और शरीर बकुश मुनि की अपने शरीर में आसक्ति होने से विराधना होती है। प्रतिसेवना कुशील मुनि उत्तर गुणों में कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। कषाय-कुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के प्रतिसेवना नहीं होती; क्योंकि त्यागी हुई वस्तु का सेवन करने से प्रतिसेवना होती है। सो ये करते नहीं हैं। तीर्थ यानि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ पाये जाते हैं। लिंग के दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग। भावलिंग की अपेक्षा तो पाँचों ही निर्ग्रन्थ भावलिंगी हैं-क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि और संयमी होते हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ दिगम्बर होते हुए भी स्नातक के पिच्छिका-कमण्डलु उपकरण नहीं होते, शेष के होते हैं। अतः द्रव्य लिंग में थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। पुलाक के तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छह लेश्याएँ भी होती हैं, क्योंकि उपकरणों में आसक्ति होने से कभी अशुभ लेश्याएँ भी हो सकती हैं। कषाय कुशील के कृष्ण और नील के सिवा बाकी की चार लेश्याएँ होती हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोग केवली के लेश्या नहीं होती। उपपाद-पुलाक मुनि अधिक से अधिक सहस्रार स्वर्ग में उत्कृष्ट स्थिति के धारक देव होते हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील बाईस सागर की स्थिति वाले आरण और अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। कषाय कुशील और ग्यारहवें गुणस्थान वाले निर्ग्रन्थ तैंतीस सागर की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होते हैं। इन सबकी उत्पत्ति कम से कम सौधर्म कल्प में होती है। और स्नातक तो मोक्ष जाता है। इसी तरह संयम के स्थानों की अपेक्षा भी इनमें अन्तर होता है ॥४७॥ ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे नवमोऽध्यायः ॥९॥
  2. अब निर्ग्रन्थों के भेद कहते हैं- पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥४६॥ अर्थ - पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँचों निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनके उत्तरगुणों की तो भावना भी न हो और मूलगुणों में भी कभी-कभी दोष लगा लेते हों, उन साधुओं को पुलाक कहते हैं। पुलाक नाम पुवाल सहित चावल का है। पुवाल सहित चावल की तरह मलिन होने से ऐसे साधु को पुलाक कहते हैं। जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए सदा तत्पर हों और जिनके मूलगुण निर्दोष हों; किन्तु शरीर, पिच्छिका वगैरह उपकरणों से जिन्हें मोह हो, उन मुनि को बकुश मुनि कहते हैं। बकुश का अर्थ चितकबरा है। जैसे सफेद पर काले धब्बे होते हैं, वैसे ही उन मुनियों के निर्मल आचार में शरीर आदि का मोह धब्बे की तरह होता है। इसी से वे बकुश कहे जाते हैं। कुशील साधु के दो भेद हैं- प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील। जिनके मूलगुण और उत्तर गुण दोनों ही पूर्ण हों किन्तु कभी-कभी उत्तर गुणों में दोष लग जाता हो उन साधुओं को प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को तो वश में कर लिया है किन्तु संज्वलन कषाय के उदय को वश में नहीं किया है, उन साधुओं को कषाय-कुशील कहते हैं। जिनके मोहनीय कर्म का तो उदय ही नहीं है और शेष घाति कर्मों का उदय भी ऐसा है जैसे जल में लाठी से खींची हुई लकीर तथा अन्तर्मुहूर्त के बाद ही, जिन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट होने वाला है, उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। जिनके घाति कर्म नष्ट हो गये हैं, उन केवलियों को स्नातक कहते हैं। ये पाँचों ही सम्यग्दृष्टि होते हैं और बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी होते हैं। इसलिए चारित्र की हीनाधिकता होने पर भी इन पाँचों को ही निर्ग्रन्थ कहा है। English - Pulakah (observes primary vows, but lapses sometimes), Bakusha (observes primary vows perfectly, but cares adornment of the body and implements), Kushila (observes primary vows perfectly, but lapses in secondary vows or has controlled all passions except the gleaming ones), Nirgrantha (will attain omniscience within Antarmuhurta) and Snataka (Omniscient-Kevali) are the passionless saints.
  3. आगे बतलाते हैं कि सब सम्यग्दृष्टियों के समान निर्जरा नहीं होती- सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, महाव्रती मुनि, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले, दर्शन मोह का क्षय करने वाले, चारित्र मोह का उपशम करने वाले, उपशान्तमोह यानि ग्यारहवें गुणस्थान वाले, क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले, क्षीणमोह यानि बारहवें गुणस्थान वाले और जिन भगवान् के परिणामों की विशुद्धता अधिक-अधिक होने से प्रतिसमय क्रम से असंख्यात गुणी-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। English - The dissociation of karmas increases innumerable-fold from stage to stage in the ten stages of the right believer, the householder with partial vows, the ascetic with great vows, the separator of the passion leading to infinite births, the destroyer of faith-deluding karmas, the suppressor of conduct-deluding karmas, the saint with quiescent passions, the destroyer of delusion, the saint with destroyed delusion and the spiritual victor (Jina). विशेषार्थ - जब मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए तीन करण करता है, उस समय उसके आयुकर्म के सिवा शेष सात कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। वह जब सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तो उसके पहले से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वह जब श्रावक हो जाता है तो उसके सम्यग्दृष्टि से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। श्रावक से जब वह सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि हो जाता है तो उसके श्रावक से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। जब वह मुनि होकर अनन्तानुबन्धी कषाय को शेष कषाय रूप परिणमा कर उसका विसंयोजन करता है तो उसके मुनि से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। उसके बाद वह जब दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय करता है तो उसके विसंयोजन काल से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। जब वह उपशम श्रेणी चढ़ता है तो उसके दर्शन मोह क्षपक से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। उसके बाद वह समस्त मोहनीय कर्म का उपशम करके उपशान्त कषाय गुणस्थान वाला हो जाता है तो उसके उपशम अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जीव जब उपशम श्रेणी से गिरने के बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है। तो उसके ग्यारहवें गुणस्थान से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जब समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके क्षीणकषाय हो जाता है तो उसके क्षपक अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। वही जब समस्त घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली हो जाता है तो उसके क्षीणकषाय से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। सारांश यह है कि इन दस स्थानों को प्राप्त होने वाले जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्ध होते हैं, अतः इनके कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी होती है। इतना ही नहीं, जहाँ उत्तरोत्तर निर्जरा असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी हो जाती है, वहाँ निर्जरा का काल असंख्यातवें भाग असंख्यातवें भाग घटता जाता है। जैसे जिनेन्द्र भगवान् के निर्जरा काल सबसे कम है, उससे संख्यात गुणा काल क्षीणकषाय का है। इस तरह यद्यपि निर्जरा का काल सातिशय मिथ्यादृष्टि तक अधिक अधिक होता है, किन्तु सामान्य से प्रत्येक का निर्जरा काल अन्तर्मुहूर्त ही है। इस उत्तरोत्तर कम कम काल में कर्मों की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती है।
  4. अब वीचार का लक्षण कहते हैं- वीचारोऽर्थ-व्यञ्जन-योग-सङ्क्रान्तिः ॥४४॥ अर्थ - अर्थ से मतलब उस द्रव्य या पर्याय से है, जिसका ध्यान किया जाता है। व्यंजन का अर्थ वचन है और मन-वचन-काय की क्रिया को योग कहते हैं तथा संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है। ध्यान करते समय द्रव्य को छोड़कर पर्याय का ध्यान करना और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान करना अर्थात् ध्यान के विषय का बदलना अर्थ संक्रान्ति है। श्रुत के किसी एक वाक्य को छोड़कर दूसरे वाक्य का सहारा लेना, उसे भी छोड़कर तीसरे वाक्य का सहारा लेना, इस तरह ध्यान करते समय वचन के बदलने को व्यंजनसंक्रान्ति कहते हैं। काययोग को छोड़कर अन्य योग का ग्रहण करना, उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योगसंक्रान्ति है। इन तीनों प्रकार की संक्रान्ति को वीचार कहते हैं। और जिस ध्यान में इस तरह का वीचार होता है, वह वीचार सहित है और जिसमें यह वीचार नहीं होता, वह वीचार रहित है। English - Vichara is shifting with regard to objects, words, and activities. विशेषार्थ - अभ्यस्त साधु ही इस चार प्रकार के शुक्लध्यान को संसार से छूटने के लिए ध्याते हैं। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है सबसे प्रथम ध्यान के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जो एकदम एकान्त हो, जहाँ न मनुष्य का संचार हो, न सर्प, सिंह आदि पशुओं का उत्पात हो, जो न अति गरम हो और न अति शीतल, हवा और वर्षा की भी बाधा जहाँ न हो। सारांश यह है कि चित्त को चंचल करने का कोई साधन जहाँ न हो, ऐसे स्थान पर किसी साफ सुथरी जमीन में पर्यंकासन लगाकर अपने शरीर को सीधा रखें और अपनी गोदी में बाँए हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रक्खे। नेत्र न एकदम बन्द हों और न एकदम खुले हों। दृष्टि सौम्य और स्थिर हो। दाँत से दाँत मिले हों। मुख थोड़ा उठा हुआ हो, प्रसन्न हो। श्वासोच्छ्वास मन्द मन्द चलता हो। ऐसी स्थिति में मन को नाभि देश में, हृदय में अथवा मस्तक वगैरह में एकाग्र करके मुमुक्षु को शुभ ध्यान करना चाहिए। सो जब साधु सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जाता है, तब द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु का ध्यान करता है। उस समय उसका मन ध्येय में और वाक्य में तथा काययोग और वचनयोग में घूमता रहता है। अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति रूप वीचार चलता रहता है। जैसे कोई बालक हाथ में ठूठी तलवार लेकर उसे ऐसे उत्साह से चलाता है, मानो वृक्ष को काटे डालता है, वैसे ही वह ध्याता भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम के शुक्लध्यान को करता है। वही ध्याता जड़मूल से मोहनीय कर्म को नष्ट करने की इच्छा से पहले से अनन्त गुना विशुद्ध ध्यान का आलम्बन लेकर अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति को हटाकर मन को निश्चय करके जब बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तो फिर ध्यान लगाकर पीछे नहीं हटता, इसलिए उसे एकत्व वितर्क वीचार ध्यान वाला कहते हैं। इस एकत्व वितर्क ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला देने पर, जैसे मेघ पटल के हट जाने पर मेघों में छिपा हुआ सूर्य प्रकट होता है, वैसे ही कर्मों का आवरण हट जाने पर केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हो जाता है। उस समय वह तीर्थंकर केवली अथवा सामान्य केवली होकर अपनी आयुपर्यन्त देश में विहार करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहर्त बाकी रहती है और वेदनीय, नाम तथा गोत्र कर्म की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त ही शेष होती है, तो वह समस्त वचन योग मनोयोग और बादर काययोग को छोड़कर सूक्ष्म काययोग का आलंबन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को करते हैं। किन्तु यदि आयुकर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष हो और शेष तीन कर्मों की स्थिति अधिक हो तो केवली समुद्धात करते हैं। उसमें आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्मप्रदेशों को फैलाकर दण्ड के आकार करते हैं, दूसरे समय में कपाट के आकार करते हैं, तीसरे समय में प्रतररूप करते हैं और चौथे समय में अपने आत्म प्रदेशों से लोक को पूर देते हैं। पाँचवें समय में लोकपूरण से प्रतररूप, छठे में प्रतर से कपाट रूप और सातवें में कपाट से दण्ड रूप करते हैं आठवें समय में बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश फिर शरीर में प्रविष्ट होकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। इस तरह चार समय में प्रदेशों का विस्तार और चार समय में प्रदेशों का संकोच करने से शेष तीन कर्मों की स्थिति भी आयु के समान अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है। उस समय वे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्लध्यान करते हैं। इसके बाद समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान करते हैं। इस ध्यान के समय श्वासोच्छ्वास का संचार, समस्त मनोयोग, वचनयोग, काय योग और समस्त प्रदेशों का हलन-चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसीलिए इसे समुच्छिन्नक्रिया-निवर्ति कहते हैं। इसके होने पर समस्त बन्ध और आस्रव रुक जाता है और समस्त बचे हुए कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। अतः मोक्ष के साक्षात् कारण यथाख्यात चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं। तब वह अयोग केवली समस्त कर्मों को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर किट्टकालिमा से रहित शुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल आत्म रूप होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के तप नवीन कर्मों के आस्रव को रोकने के कारण संवर का भी कारण है और पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने का कारण होने से निर्जरा का भी कारण है।
  5. अब वितर्क का लक्षण कहते हैं- वितर्कः श्रुतम् ॥४३॥ अर्थ - विशेषरूप से तर्क अर्थात् विचार करने को वितर्क कहते हैं। वितर्क नाम श्रुतज्ञान का है। English - Vitarka is scriptural knowledge through reasoning.
  6. इस कथन में थोड़ा अपवाद करते हैं- अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥ अर्थ - किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार रहित है। अर्थात् पहला शुक्लध्यान तो वितर्क और वीचार दोनों से सहित है। किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वितर्क से सहित है, पर वीचार से रहित है। English - The second type is free from shifting.
  7. अब आदि के दो शुक्लध्यानों का विशेष कथन करते हैं- एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ अर्थ - आदि के दोनों शुक्लध्यान पूर्ण श्रुतज्ञानी के ही होते हैं, अतः दोनों का आधार एक ही है। तथा दोनों वितर्क और वीचार से सहित हैं। English - The first two types are based on one substratum and are associated with scriptural knowledge and shifting.
  8. अब शुक्लध्यान का आलम्बन बतलाते हैं- त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ अर्थ - पहला शुक्लध्यान तीनों योगों में होता है। दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से एक योग में होता है। तीसरा शुक्लध्यान काय योग में ही होता है। English - These four types of pure concentrations are achieved by those having all the three activities (the mind, the speech, and the body), one activity, body activity, and no activity respectively.
  9. अब शुक्ल ध्यान के भेद बतलाते हैं- पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि ॥३९॥ अर्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान के भेद हैं। ये सब नाम सार्थक हैं। इनका लक्षण आगे कहेंगे। English - The four types of pure concentration are that of many substances through the activity of mind, speech and body, that of one substance through the activity of mind, speech and body, that of subtle activity and that of complete destruction of activity.
  10. अब बाकी के दो शुक्लध्यान किसके होते हैं, यह बतलाते हैं- परे केवलिनः ॥३८॥ अर्थ - अन्त के दो शुक्लध्यान सयोग केवली और अयोग केवली के होते हैं। English - The last two types of pure meditation arise in the omniscient.
  11. अब शुक्लध्यान के स्वामी बतलाते हैं- शुक्लेचाद्धेपूर्वविदः ॥३७॥ अर्थ - आदि के दो शुक्लध्यान सकल श्रुत के धारक श्रुतकेवली के होते हैं। ‘च' शब्द से धर्मध्यान भी ले लेना चाहिए। अतः श्रेणी पर चढ़ने से पहले धर्मध्यान होता है और श्रेणी चढ़ने पर क्रम से दोनों शुक्लध्यान होते हैं। English - The first two types of pure meditation are attained by the saints well-versed in the purvas, the Shrutkevali.
  12. अब धर्मध्यान का स्वरूप व भेद बतलाते हैं- आज्ञापायविपाक-संस्थान-विचयायधर्म्यम् ॥३६॥ अर्थ - आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं। अच्छे उपदेष्टा के न होने से, अपनी बुद्धि के मन्द होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि “यह ऐसा ही है, आज्ञा विचय है। अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुए भी दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिये युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना, जिससे दूसरों को ठीक ठीक समझाया जा सके, आज्ञा विचय है; क्योंकि उसका उद्देश्य संसार में जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का प्रचार करना है। जो लोग मोक्ष के अभिलाषी होते हुए भी कुमार्ग में पड़े हुए हैं, उनका विचार करना कि कैसे वे मिथ्यात्व से छूटे, इसे अपाय विचय कहते हैं। कर्म के फल का विचार करना विपाक विचय है। लोक के आकार का तथा उसकी दशा का विचार करना संस्थान विचय है। ये धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले जीव के होते हैं। English - The virtuous meditation is of four types - concentration on realities (tattva) through pramana and naya, ways and means to help living beings to take the right belief, knowledge and conduct, fruition of karmas and the reasons thereof, and state of the universe.
  13. अब रौद्रध्यान के भेद और उनके स्वामियों को बताते हैं- हिंसानृत-स्तेय-विषय-संरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥ अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह संचय करने की चिन्ता करते रहने से रौद्रध्यान होता है। यह रौद्रध्यान पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान वालों के तथा देशविरत श्रावकों के होता है। किन्तु संयमी मुनि के नहीं होता; क्योंकि यदि कदाचित् मुनि को भी रौद्रध्यान हो जाये तो फिर वे संयम से भ्रष्ट समझे जायेंगे। English - Cruel meditation relating to injury, untruth, stealing and safeguarding of possessions occurs in the case of laymen with and without partial vows. शंका - जो व्रती नहीं हैं, उनके रौद्रध्यान भले ही हो, किन्तु देशव्रती श्रावक के कैसे हो सकता है? समाधान - श्रावक पर अपने धर्मायतनों की रक्षा का भार है, स्त्री, धन वगैरह की रक्षा करना अभीष्ट है, अत: इनकी रक्षा के लिए जब कभी हिंसा के आवेश में आ जाने से रौद्रध्यान हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसके ऐसा रौद्रध्यान नहीं होता, जो उसको नरक में ले जाये।
  14. अब आर्तध्यान किसको होता है, यह बतलाते हैं- तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ॥३४॥ अर्थ - वह आर्तध्यान अविरत यानि पहले, दूसरे, तीसरे और चतुर्थ गुणस्थान वालों के, देशविरत श्रावकों के और प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के होता है। परन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के निदान नहीं होता। बाकी के तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय से जब कभी हो जाते हैं। English - These sorrowful meditations occur in the case of laymen with and without small vows and non-vigilant ascetics.
  15. अब चौथा भेद कहते हैं- निदानं च ॥३३॥ अर्थ - भोगों की तृष्णा से पीड़ित होकर रात-दिन आगामी भोगों को प्राप्त करने की ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है। इस तरह आर्तध्यान के चार भेद हैं। English - Thinking about the fulfillment of the wishes for enjoyment is the fourth sorrowful meditation.
  16. तीसरा भेद कहते हैं- वेदनायाश्च ॥३२॥ अर्थ - वात आदि के विकार से शरीर में कष्ट होने पर रात-दिन उसी की चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है। English - In the case of suffering from pain thinking continuously for its removal is the third type of sorrowful meditation.
  17. दूसरा भेद कहते हैं- विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ अर्थ - पुत्र, धन, स्त्री आदि प्रिय वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनसे मिलन होने का बार-बार चिन्तन करना इष्ट-वियोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon loss of a favorable object, thinking again and again for its repossession is the second kind of sorrowful meditation.
  18. आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ अर्थ - विष, काँटा, शत्रु आदि अप्रिय वस्तुओं का समागम होने पर उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए बार-बार चिंतन करना अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon receipt of a harmful object, thinking again and again for its removal is the first kind of sorrowful meditation.
  19. यही बात कहते हैं- परे मोक्षहेतू ॥२९॥ अर्थ - अन्त के धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं। इससे यह मतलब निकला कि आदि के आर्त और रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। अब आर्तध्यान के भेद और उनके लक्षण कहते हैं English - The last two (the virtuous and the pure) are the causes of liberation.
  20. अब ध्यान के भेद कहते हैं- आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ अर्थ - ध्यान के चार भेद होते हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल इनमें से आदि के दो ध्यान अशुभ हैं, उनसे पाप का बन्ध होता है। शेष दो ध्यान शुभ हैं, उनके द्वारा कर्मों का नाश होता है ॥२८॥ English - The painful (sorrowful), the cruel, the virtuous (righteous) and the pure are the four types of meditation.
  21. अब ध्यान का वर्णन करते हैं- उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ अर्थ - उत्तम संहनन के धारक मनुष्य का अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोक कर एक ही विषय में लगाना ध्यान है। यह ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। English - Concentration of thought on one particular object is meditation. In the case of a person with the best physical structure or constitution, it extends up to one muhurta. विशेषार्थ - आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। वे ही ध्यान के कारण हैं। किन्तु उनमें से मोक्ष का कारण एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही है। अन्य संहनन वाले का मन अन्तर्मुहूर्त भी एकाग्र नहीं रह सकता। शंका - यदि ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही हो सकता है तो आदिनाथ भगवान् ने छह मास तक ध्यान कैसे किया ? समाधान - ध्यान की सन्तान को भी ध्यान कहते हैं। अतः एक विषय में लगातार ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। उसके बाद ध्येय बदल जाता है। और ध्यान की सन्तान चलती रहती है, अस्तु | इस सूत्र में तीन बातें बतलायी हैं - ध्याता, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का काल। सो उत्तम संहनन का धारी पुरुष तो ध्याता हो सकता है। एक पदार्थ को लेकर उसी में चित्त को स्थिर कर देना ध्यान है। जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं, तब वह विचार ज्ञान कहलाता है। और जब वह ज्ञान एक ही विषय में स्थिर हो जाता है, तब उसे ही ध्यान कहते हैं। उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
  22. अब व्युत्सर्ग तप के भेद कहते हैं- बाह्याभ्यन्तरोपध्योः॥२६॥ अर्थ - त्याग को ही व्युत्सर्ग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- बाह्य उपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मा से जुदे धन-धान्य वगैरह का त्याग करना बाह्य उपधि त्याग है और क्रोध, मान, माया आदि भावों का त्याग करना अभ्यन्तर उपधि त्याग है। कुछ समय के लिए अथवा जीवन भर के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना भी अभ्यन्तरोपधि त्याग ही कहा जाता है। इसके करने से मनुष्य निर्भय हो जाता है, वह हल्कापन अनुभव करता है तथा फिर जीवन की तृष्णा उसे नहीं सताती। English - Giving up external and internal attachments are two types of renunciations.
  23. अब स्वाध्याय तप के भेद कहते हैं- वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशाः ॥२५॥ अर्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश- ये पाँच स्वाध्याय के भेद हैं। धर्म के इच्छुक विनयशील पात्रों को शास्त्र देना, शास्त्र का अर्थ बतलाना वाचना तथा शास्त्र भी देना और उसका अर्थ भी बतलाना वाचना है। संशय को दूर करने के लिए अथवा निश्चय करने के लिए विशिष्ट ज्ञानियों से प्रश्न करना पृच्छना है। जाने हुए अर्थ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका बार-बार विचार करना अनुप्रेक्षा है। शुद्धता पूर्वक पाठ करना आम्नाय है। धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश है। इस तरह स्वाध्याय के पाँच भेद हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है, वैराग्य बढ़ता है, तप बढ़ता है, व्रतों में अतिचार नहीं लगने पाता तथा स्वाध्याय से बढ़कर दूसरा कोई सरल उपाय मन को स्थिर करने का नहीं है। अतः स्वाध्याय करना हितकर है। English - Teaching, questioning, reflection, recitation, and preaching are the five types of study.
  24. अब वैय्यावृत्य तप के भेद कहते हैं- आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-संघ साधु-मनोज्ञानाम् ॥२४॥ अर्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ- इन दस प्रकार के साधुओं की अपेक्षा से वैय्यावृत्य के दस भेद हैं।जिनके पास जाकर सब मुनि व्रताचरण करते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जिनके पास जाकर मुनिगण शास्त्राभ्यास करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जो साधु बहुत व्रत, उपवास आदि करते हैं, उन्हें तपस्वी कहते हैं। जो साधु श्रुत का अभ्यास करते हैं, उन्हें शैक्ष कहते हैं। रोगी साधुओं को ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियों की परिपाटी में जो मुनि होते हैं, उन्हें गण कहते हैं। दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं। ऋषि, यति, मुनि और अनगार के भेद से चार प्रकार के साधुओं के समूह को संघ कहते हैं। अथवा मुनि, आर्यिका और श्रावक, श्राविका के समूह को संघ कहते हैं। बहुत समय के दीक्षित मुनि को साधु कहते हैं। जिसका उपदेश लोकमान्य हो अथवा जो लोक में पूज्य हो उस साधु को मनोज्ञ कहते हैं। इनको कोई व्याधि हो जाये या कोई उपसर्ग आ जाये या किसी का श्रद्धान विचलित होने लगे तो उसका प्रतिकार करना, यानि रोग का इलाज करना, संकट को दूर करना, उपदेश आदि के द्वारा श्रद्धान को दृढ़ करना वैय्यावृत्य है। English - Respectful service to the Head (Acharya), the preceptor, the ascetic, the disciple, the ailing ascetic, the congregation of aged saints, the congregation of disciples of a common teacher, the congregation of the four orders (of ascetic, nuns, laymen and laywomen), the long-standing ascetic and the ascetic of high reputation are the ten kinds of service.
  25. अब विनय तप के भेद कहते हैं- ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः ॥२३॥ अर्थ - ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनयये चार भेद विनय के हैं। आलस्य त्यागकर आदरपूर्वक सम्यग्ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना आदि ज्ञान विनय है। तत्त्वार्थ का शंका आदि दोष रहित श्रद्धान करना दर्शन विनय है। अपने मन को चारित्र के पालन में लगाना चारित्र विनय है और आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखकर उनके लिए उठना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़कर वन्दना करना तथा परोक्ष में भी उन्हें नमस्कार करना, उनके गुणों का स्मरण वगैरह करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, यह सब उपचार विनय है। English - Reverence to knowledge, faith, conduct and the custom of homage are the four kinds of reverence.
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