इन पुलाक आदि मुनियों की और भी विशेषता बतलाते हैं-
संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपाद-स्थान विकल्पतः साध्याः ॥४७॥
अर्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान के भेद से पुलाक आदि मुनियों के भेद जानना चाहिए।
English - The saints are to be described (differentiated) on the basis of differences in self-restraint, scriptural knowledge, transgression, the period of Tirthankara, the sign, the thought coloration, birth, and the place.
विशेषार्थ - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील मुनि के सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है। कषाय कुशील मुनि के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही होता है। पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि अधिक से अधिक पूरे दस पूर्व के ज्ञाता होते हैं। कषाय-कुशील और निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। और कम से कम पुलाक मुनि आचारांग के ज्ञाता होते हैं; बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ पाँच समिति और तीन गुप्तियों के ज्ञाता होते हैं। स्नातक तो केवलज्ञानी होते हैं, अतः उनके श्रुताभ्यास का प्रश्न ही नहीं है। प्रतिसेवना का मतलब व्रतों में दोष लगाना है। पुलाक मुनि पाँच महाव्रतों में तथा रात्रि में भोजन त्याग व्रत में से किसी एक में परवश होकर कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। बकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण-बकुश और शरीर-बकुश। उपकरण बकुश मुनि को सुन्दर उपकरणों में आसक्ति रहने से विराधना होती है। और शरीर बकुश मुनि की अपने शरीर में आसक्ति होने से विराधना होती है। प्रतिसेवना कुशील मुनि उत्तर गुणों में कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। कषाय-कुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के प्रतिसेवना नहीं होती; क्योंकि त्यागी हुई वस्तु का सेवन करने से प्रतिसेवना होती है। सो ये करते नहीं हैं। तीर्थ यानि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ पाये जाते हैं। लिंग के दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग। भावलिंग की अपेक्षा तो पाँचों ही निर्ग्रन्थ भावलिंगी हैं-क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि और संयमी होते हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ दिगम्बर होते हुए भी स्नातक के पिच्छिका-कमण्डलु उपकरण नहीं होते, शेष के होते हैं। अतः द्रव्य लिंग में थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। पुलाक के तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छह लेश्याएँ भी होती हैं, क्योंकि उपकरणों में आसक्ति होने से कभी अशुभ लेश्याएँ भी हो सकती हैं। कषाय कुशील के कृष्ण और नील के सिवा बाकी की चार लेश्याएँ होती हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोग केवली के लेश्या नहीं होती। उपपाद-पुलाक मुनि अधिक से अधिक सहस्रार स्वर्ग में उत्कृष्ट स्थिति के धारक देव होते हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील बाईस सागर की स्थिति वाले आरण और अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। कषाय कुशील और ग्यारहवें गुणस्थान वाले निर्ग्रन्थ तैंतीस सागर की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होते हैं। इन सबकी उत्पत्ति कम से कम सौधर्म कल्प में होती है। और स्नातक तो मोक्ष जाता है। इसी तरह संयम के स्थानों की अपेक्षा भी इनमें अन्तर होता है ॥४७॥
॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे नवमोऽध्यायः ॥९॥