अब वीचार का लक्षण कहते हैं-
वीचारोऽर्थ-व्यञ्जन-योग-सङ्क्रान्तिः ॥४४॥
अर्थ - अर्थ से मतलब उस द्रव्य या पर्याय से है, जिसका ध्यान किया जाता है। व्यंजन का अर्थ वचन है और मन-वचन-काय की क्रिया को योग कहते हैं तथा संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है। ध्यान करते समय द्रव्य को छोड़कर पर्याय का ध्यान करना और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान करना अर्थात् ध्यान के विषय का बदलना अर्थ संक्रान्ति है। श्रुत के किसी एक वाक्य को छोड़कर दूसरे वाक्य का सहारा लेना, उसे भी छोड़कर तीसरे वाक्य का सहारा लेना, इस तरह ध्यान करते समय वचन के बदलने को व्यंजनसंक्रान्ति कहते हैं। काययोग को छोड़कर अन्य योग का ग्रहण करना, उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योगसंक्रान्ति है। इन तीनों प्रकार की संक्रान्ति को वीचार कहते हैं। और जिस ध्यान में इस तरह का वीचार होता है, वह वीचार सहित है और जिसमें यह वीचार नहीं होता, वह वीचार रहित है।
English - Vichara is shifting with regard to objects, words, and activities.
विशेषार्थ - अभ्यस्त साधु ही इस चार प्रकार के शुक्लध्यान को संसार से छूटने के लिए ध्याते हैं। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है सबसे प्रथम ध्यान के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जो एकदम एकान्त हो, जहाँ न मनुष्य का संचार हो, न सर्प, सिंह आदि पशुओं का उत्पात हो, जो न अति गरम हो और न अति शीतल, हवा और वर्षा की भी बाधा जहाँ न हो। सारांश यह है कि चित्त को चंचल करने का कोई साधन जहाँ न हो, ऐसे स्थान पर किसी साफ सुथरी जमीन में पर्यंकासन लगाकर अपने शरीर को सीधा रखें और अपनी गोदी में बाँए हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रक्खे। नेत्र न एकदम बन्द हों और न एकदम खुले हों। दृष्टि सौम्य और स्थिर हो। दाँत से दाँत मिले हों। मुख थोड़ा उठा हुआ हो, प्रसन्न हो। श्वासोच्छ्वास मन्द मन्द चलता हो। ऐसी स्थिति में मन को नाभि देश में, हृदय में अथवा मस्तक वगैरह में एकाग्र करके मुमुक्षु को शुभ ध्यान करना चाहिए। सो जब साधु सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जाता है, तब द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु का ध्यान करता है। उस समय उसका मन ध्येय में और वाक्य में तथा काययोग और वचनयोग में घूमता रहता है। अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति रूप वीचार चलता रहता है। जैसे कोई बालक हाथ में ठूठी तलवार लेकर उसे ऐसे उत्साह से चलाता है, मानो वृक्ष को काटे डालता है, वैसे ही वह ध्याता भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम के शुक्लध्यान को करता है। वही ध्याता जड़मूल से मोहनीय कर्म को नष्ट करने की इच्छा से पहले से अनन्त गुना विशुद्ध ध्यान का आलम्बन लेकर अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति को हटाकर मन को निश्चय करके जब बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तो फिर ध्यान लगाकर पीछे नहीं हटता, इसलिए उसे एकत्व वितर्क वीचार ध्यान वाला कहते हैं। इस एकत्व वितर्क ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला देने पर, जैसे मेघ पटल के हट जाने पर मेघों में छिपा हुआ सूर्य प्रकट होता है, वैसे ही कर्मों का आवरण हट जाने पर केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हो जाता है। उस समय वह तीर्थंकर केवली अथवा सामान्य केवली होकर अपनी आयुपर्यन्त देश में विहार करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहर्त बाकी रहती है और वेदनीय, नाम तथा गोत्र कर्म की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त ही शेष होती है, तो वह समस्त वचन योग मनोयोग और बादर काययोग को छोड़कर सूक्ष्म काययोग का आलंबन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को करते हैं। किन्तु यदि आयुकर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष हो और शेष तीन कर्मों की स्थिति अधिक हो तो केवली समुद्धात करते हैं। उसमें आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्मप्रदेशों को फैलाकर दण्ड के आकार करते हैं, दूसरे समय में कपाट के आकार करते हैं, तीसरे समय में प्रतररूप करते हैं और चौथे समय में अपने आत्म प्रदेशों से लोक को पूर देते हैं। पाँचवें समय में लोकपूरण से प्रतररूप, छठे में प्रतर से कपाट रूप और सातवें में कपाट से दण्ड रूप करते हैं आठवें समय में बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश फिर शरीर में प्रविष्ट होकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। इस तरह चार समय में प्रदेशों का विस्तार और चार समय में प्रदेशों का संकोच करने से शेष तीन कर्मों की स्थिति भी आयु के समान अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है। उस समय वे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्लध्यान करते हैं। इसके बाद समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान करते हैं। इस ध्यान के समय श्वासोच्छ्वास का संचार, समस्त मनोयोग, वचनयोग, काय योग और समस्त प्रदेशों का हलन-चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसीलिए इसे समुच्छिन्नक्रिया-निवर्ति कहते हैं। इसके होने पर समस्त बन्ध और आस्रव रुक जाता है और समस्त बचे हुए कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। अतः मोक्ष के साक्षात् कारण यथाख्यात चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं। तब वह अयोग केवली समस्त कर्मों को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर किट्टकालिमा से रहित शुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल आत्म रूप होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के तप नवीन कर्मों के आस्रव को रोकने के कारण संवर का भी कारण है और पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने का कारण होने से निर्जरा का भी कारण है।