अब मुक्त जीवों में परस्पर में भेदव्यवहार का कारण बतलाते हैं-
क्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधितज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वतः साध्याः ॥९॥
अर्थ - क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व-इन बारह अनुयोगों के द्वारा सिद्धों में भेद का विचार करना चाहिए।
English - The emancipated souls can be differentiated with reference to the region, time, state, sign, type of Arhant, conduct, self-enlightenment, enlightened by others, knowledge, stature, interval, number, and numerical comparison.
विशेषार्थ - प्रत्युत्पन्न नय और भूतप्रज्ञापन नय की विवक्षा से बारह अनुयोगों का विवेचन किया जाता है। जो नय केवल वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है अथवा यथार्थ वस्तुस्वरूप को ग्रहण करता है, उसे प्रत्युत्पन्न नय कहते हैं। जैसे ऋजुसूत्र नय या निश्चय नय। और जो नय अतीत पर्याय को ग्रहण करता है, उसे भूतप्रज्ञापन नय कहते हैं। जैसे व्यवहार नय।
क्षेत्र में इस बात का विचार किया जाता है कि मुक्त जीव की मुक्ति किस क्षेत्र से हुई। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सिद्ध क्षेत्र में, अपने आत्मप्रदेशों में अथवा जिस आकाश प्रदेशों में मुक्त होने वाला जीव मुक्ति से पूर्व स्थित था, उन आकाशप्रदेशों में मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में से किसी भी कर्मभूमि के मनुष्य को यदि कोई हर कर ले जाये तो समस्त मनुष्य लोक के किसी भी स्थान से उसकी मुक्ति हो सकती है।
काल की अपेक्षा यह विचार किया जाता है कि किस काल में मुक्त हुई-सो प्रत्युपन्न नय की अपेक्षा तो एक समय में ही मुक्ति होती है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा सामान्य से तो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालों में मुक्ति होती है। विशेष से अवसर्पिणी काल के सुखमा-दुखमा नामक तीसरे काल के अन्त में जन्मे जीव और दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्में जीव मोक्ष जाते हैं।
गति में यह विचार किया जाता है कि किस गति से मुक्ति हुई? सो प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो सिद्धगति में ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा मनुष्य गति से ही मुक्ति मिलती है। लिंग में विचार किया जाता है कि किस लिंग से मुक्ति हुई ? सो प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा तो वेद रहित अवस्था में ही मुक्ति होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा तीनों ही भाव वेदों से मुक्ति होती है। किन्तु द्रव्य से पुल्लिंग ही होना चाहिए। अथवा प्रत्युत्पन्ननय से निर्ग्रन्थ लिंग से ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नय से सग्रंथ लिंग से भी मुक्ति होती है।
तीर्थ का विचार करते हैं- कोई तो तीर्थंकर होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। कोई सामान्य केवली होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उनमें भी कोई तो तीर्थंकर के विद्यमान रहते हुए मोक्ष जाते हैं, कोई तीर्थंकर के अभाव में मोक्ष जाते हैं। चारित्र में विचार करते हैं कि किस चारित्र से मुक्ति मिलती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो जिस भाव से मुक्ति होती है, उस भाव को न तो चारित्र ही कहा जा सकता है और न अचारित्र ही कहा जा सकता है। और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा अव्यवहित रूप से तो यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और व्यवहित रूप से सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और जिनके परिहार विशुद्धि चारित्र भी होता है, उनको पाँचों ही चारित्रों से मोक्ष प्राप्त होता है।
जो अपनी शक्ति से ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं। और जो पर के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करते हैं, उन्हें बोधितबुद्ध कहते हैं। सो कोई प्रत्येकबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और कोई बोधितबुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। किस ज्ञान से मुक्ति होती है? प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो केवलज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होती है और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा किन्हीं को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पूर्वक केवलज्ञान होता है और किन्हीं की मति, श्रुत और अवधिज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है। किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है, तब मोक्ष जाते आत्मप्रदेशों के फैलाव का नाम अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होती है। मध्यम अवगाहना के बहुत से भेद हैं। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा से इन अवगाहनाओं में से किसी एक अवगाहना से मुक्ति प्राप्त होती है। और प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा इससे कुछ कम अवगाहना से मुक्ति होती है, क्योंकि मुक्त जीव की अवगाहना उसके अन्तिम शरीर से कुछ कम होती है।
अन्तर पर विचार करते हैं कि-मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव लगातार भी मुक्ति प्राप्त करते हैं और बीच-बीच में अन्तर दे देकर भी मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि जीव लगातार मोक्ष जायें तो कम से कम दो समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक मुक्त होते रहते हैं। इसके बाद अन्तर पड़ जाता है। सो यदि कोई भी जीव मुक्त न हो तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह माह का अंतर पड़ता है।
संख्या पर विचार करते हैं कि-एक समय में कम से कम एक जीव मुक्त होता है और अधिक से अधिक १०८ जीव मुक्त होते हैं। क्षेत्र आदि की अपेक्षा से जुदे जुदे मुक्त जीवों की संख्या को लेकर परस्पर में तुलना करना अल्प-बहुत्व है। सो बतलाते हैं-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सब जीव सिद्धक्षेत्र से ही मुक्ति प्राप्त करते हैं, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा जो किसी के द्वारा हरे जाकर मुक्त हुए, ऐसे जीव थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जन्म सिद्ध हैं। तथा ऊर्ध्व लोक से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उनसे असंख्यात गुणे जीव अधोलोक से मुक्त हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुणे जीव मध्यलोक से मुक्त हुए हैं। तथा समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे कम हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव द्वीप से मुक्त हुए हैं। यह तो हुआ सामान्य कथन।
विशेष कथन की अपेक्षा लवण समुद्र से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुणे जीव कालोदधि समुद्र से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे जम्बूद्वीप से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे धातकीखण्ड से मुक्त हुए हैं। उनसे संख्यात गुणे पुष्करार्ध से मुक्त हुए हैं। यह क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व हुआ। काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे अधिक हैं। और बिना उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं; क्योंकि पाँचों महाविदेहों में न उत्सर्पिणी काल है और न ही अवसर्पिणी काल है। फिर भी वहाँ से जीव सदा मुक्त होते हैं। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा एक समय में ही मुक्ति होती है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। गति की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है! भूतप्रज्ञापन नय से तिर्यञ्च गति से आकर मनुष्य हो, मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मनुष्य गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। नरक गति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और देवगति से आकर मनुष्य हो मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं।
वेद की अपेक्षा विचार करते हैं कि-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो वेद रहित जीव ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा नपुंसक लिंग से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। स्त्रीवेद से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव संख्यात गुणे हैं। और पुरुषवेद के उदय से श्रेणी चढ़कर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। तीर्थ की अपेक्षा-तीर्थंकर होकर मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। सामान्य केवली होकर मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। चारित्र की अपेक्षा-प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा तो अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा भी अव्यवहित चारित्र सबके यथाख्यात ही होता है, अतः अल्पबहुत्व नहीं है। अन्तर सहित चारित्र की अपेक्षा पाँचों चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं और चार चारित्र धारण करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। प्रत्येकबुद्ध थोड़े होते हैं। बोधितबुद्ध उनसे संख्यात गुणे हैं। ज्ञान की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सब जीव केवलज्ञान प्राप्त करके ही मुक्त होते हैं, अत: अल्पबहुत्व नहीं है। भूतग्राही नय की अपेक्षा दो ज्ञान से मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। चार ज्ञान से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। विशेष कथन की अपेक्षा मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। मति, श्रुत ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मति, श्रुत और अवधि ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। अवगाहना अपेक्षा से जघन्य अवगाहना से मुक्त हुए जीव थोड़े हैं। उत्कृष्ट अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं और मध्यम अवगाहना से मुक्त हुए जीव उनसे संख्यात गुणे हैं। संख्या अपेक्षा से एक समय में एक सौ आठ की संख्या में मुक्त हुए जीव थोड़े हैं, एक समय में एक सौ सात से लेकर पचास तक की संख्या में मुक्त हुए जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। एक समय में उनचास से लेकर पच्चीस तक की संख्या में मुक्त हुए जीव असंख्यात गुणे हैं। एक समय में चौबीस से लेकर एक तक की संख्या में मुक्त हुए जीव संख्यात गुने हैं। इस प्रकार मुक्त हुए जीवों में वर्तमान की अपेक्षा तो कोई भेद नहीं है। जो भेद है वह भूतपर्याय की अपेक्षा ही है।
॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥