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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 10 : सूत्र 4

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    Vidyasagar.Guru

    क्षायिक भाव शेष रहते हैं, सो ही कहते हैं-

     

    अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥

     

     

    अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व को छोड़कर अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव हो जाता है।

     

    English - Upon liberation infinite faith, infinite knowledge, infinite perception, and infinite perfection are not destroyed.

     

    शंका - यदि मुक्त जीव के ये चार ही क्षायिक भाव शेष रहते हैं, तो अनन्त वीर्य, अनन्त सुख आदि भावों का भी अभाव कहलाया ?

    समाधान - नहीं कहलाया, क्योंकि अनन्त वीर्य आदि भाव अनन्त  ज्ञान और अनन्त दर्शन के अविनाभावी हैं। अर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के साथ ही अनन्त वीर्य होता है। जहाँ अनन्त वीर्य नहीं होता, वहाँ अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन भी नहीं होते। रहा अनन्त सुख, सो वह अनन्त ज्ञानमय ही है; क्योंकि बिना ज्ञान के सुख का अनुभव नहीं होता।

     

    शंका - मुक्त जीवों का कोई आकार नहीं है, अतः उनका अभाव ही समझना चाहिए, क्योंकि जिस वस्तु का आकार नहीं है वह वस्तु नहीं ?

    समाधान - जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस शरीर का जैसा आकार होता है, वैसा ही मुक्त जीव का आकार रहता है।

     

    शंका - यदि जीव का आकार शरीर के आकार के अनुसार ही होता है, तो शरीर का अभाव हो जाने पर जीव को समस्त लोकाकाश में फैल जाना चाहिए, क्योंकि उसका स्वाभाविक परिमाण तो लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर बतलाया है ?

    समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के प्रदेशों में संकोच और विस्तार का कारण नामकर्म था। नामकर्म के कारण जैसा शरीर मिलता था उसी के अनुसार आत्म प्रदेशों में संकोच और विस्तार होता था। मुक्त होने पर नाम कर्म का अभाव हो जाने से संकोच और विस्तार का भी अभाव हो गया।

     

    शंका - यदि कारण का अभाव होने से मुक्त जीव में संकोच विस्तार नहीं होता तो गमन का भी कोई कारण न होने से ; जैसे मुक्त जीव नीचे को नहीं जाता या तिरछा नहीं जाता, वैसे ही ऊपर को भी उसे नहीं जाना चाहिए, बल्कि जहाँ मुक्त हुआ है, वहीं सदा उसे रहना चाहिए ?

     

    इसका समाधान करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं-


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