Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. जैसे आप लोग एक समाज के अंग के रूप में अपने आपको महसूस करते हैं, समाज की कुछ व्यवस्थाएँ होती हैं, सबके सहयोग से उसको पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। ऐसे ही पशुओं की भी व्यवस्था होती है। एक जंगल में सिंह रहता था। वह प्रतिदिन २-४ जानवरों को मारता था और एक जानवर को खाता था। सभी जानवरों ने मीटिंग कर व्यवस्था बनाई कि व्यर्थ में अनेक जानवर मरने की अपेक्षा प्रतिदिन एक जानवर वनराज के सामने उनके भोजन के लिए प्रस्तुत हो जाया करेगा। व्यवस्था बना ली गई। वनराज ने स्वीकार कर ली। व्यवस्था के अनुसार अनेक मेम्बर बन गये, उनमें एक सदस्य खरगोश भी था वह सोच रहा है मेरा नम्बर कब आ जायेगा। लेकिन जब सदस्यता अंगीकार कर ली है, तो नम्बर तो आयेगा। अपनी-अपनी बार वाली बात है। जब जीवन प्राप्त होता है तो मरण साथ ही चलता है। जब दीपक में बाती डालकर उसको जलाया जाता है, तो यह निश्चत है कि एक दिन तेल समाप्त होगा, वह भले ही अंतिम बूंद के लिए सोचे कि मेरा नम्बर तो बहुत बाद में आयेगा, लेकिन आयेगा अवश्य। एक दिन उसका क्रम आ गया तब तक उसने यह भी सोच रखा था कि जिस दिन मेरा नम्बर आयेगा तब मुझे क्या करना है? जैसे पहले के क्रम में हुआ है वही करना है कि कुछ और करना है? उसका क्रम आया तो वह सहर्ष तैयार हो गया। इसको देख करके जिनका नम्बर आने वाला था वे घबरा रहे थे। उन्होंने सोचा कि भैया ये कौन सा व्यक्तित्व है जो सहर्ष एक चुनौती की बात कर रहा है, हम मरेंगे नहीं जीवित लौट कर आ जायेंगे। आज आखिरी नम्बर होगा इसके बाद किसी को नहीं जाना पड़ेगा। सभी लोग सोच रहे थे छोटा सा खरगोश है घबरा जायेगा। संसारी प्राणी को मृत्यु का नाम सुनते ही घबराहट हो जाती है। ये कुछ समझ में नहीं आता, वह प्रत्येक समय घबराहट के कारण अपनी उम्र, अपनी बुद्धि अपनी संस्कृति को खोता रहता है और इसके परिणाम स्वरूप १० दिन के बाद जो मृत्यु है वो १० दिन पहले ही आ जाती है। उज्ज्वल संस्कृति भी धूमिल हो जाती है और जो बहुत दुर्लभ बुद्धि है वह पागलपन की ओर अपने आप बढ़ने लग जाती है। उसने ऐसा नहीं किया, बुद्धि का प्रयोग किया। उसने सोच लिया था कि अपने को सफलता प्राप्त करनी ही है और वह आगे बढ़ता है सहर्ष। आज मेरा नम्बर है। जहाँ जाना था उसे वहाँ जाता है। थोड़े विलम्ब से जाता है, थोड़ा विराम कर लेता है, फिर दूर से आवाज करता हुआ वहाँ पर पहुँच जाता है। आज इतना छोटा जानवर आया वह भी विलम्ब से? वनराज कहता है- क्यों रे! इतनी देरी से क्यों आया? तब खरगोश ने कहा-क्या करूं? रास्ते में एक आप जैसा ही दूसरा शेर मिल गया था और वह मुझे पकड़ने लगा तब भागता हुआ छुपकर बहुत लम्बे रास्ते से होकर आया हूँ राजन्। वनराज सोचने लगा वह कौन हो सकता है? यदि ऐसा हुआ तो प्रतिदिन हमारे शिकार को रोकेगा। वनराज कहता है चल पहले बता वह कौन है? कहाँ रहता है? पहले उसी का काम तमाम करता हूँ बाद में तेरा करूंगा। चलिये राजन्! हम भी यही चाहते हैं। वह इसी जंगल में एक कुंए में रहता है, जैसी आपकी आवाज वैसी उसकी आवाज, जैसी आपकी वैसी उसकी काया, जैसी आपका आकार वैसा उसका आकार है। जो कुछ है उसमें और आप में कोई अंतर नहीं। कौन हो सकता है? शेर बोला। वो कौन हो सकता है, आप जानो। लेकिन उसी की हरकत के कारण विलम्ब हुआ। मेरी गलती क्षम्य हो, आपने जिसके लिए बुलाया मैं तैयार हूँ। नहीं-नहीं ये कार्य बाद में होगा। वनराज कहता है-डरो मत मेरे साथ चलो। जैसी आपकी आज्ञा। आपके सामने हम क्या कह सकते हैं? हम तैयार हैं। हम यहाँ से जायेंगे नहीं। अच्छा ये बताओ जाना कहाँ पर है? जो बड़ा था उसे आगे होना चाहिए। लेकिन बुद्धि का ऐसा प्रभाव रहता है, वह खरगोश आगे-आगे हो गया और वह शेर पीछेपीछे हो गया, अभी कितनी दूर है? महाराज अभी पास ही है। चल-चल जल्दी चल। यहाँ तो कुछ नहीं दिख रहा है, ऐसे नहीं दिखता महाराज ।आवाज नहीं आ रही है, ऐसी अभी आवाज नहीं आयेगी क्योंकि अपने-अपने क्षेत्र में हम पहुँच जाते हैं। आवाज प्रारम्भ हो जाती है, अपने-अपने महल में ये सब कार्य होता है। अपने-अपने वार्ड में ये सब कार्य होता है, अपने पक्ष के सामने ही ये सब कुछ कहा जाता है। जब विपक्ष आ जाता है, तो पक्ष बलवान हो जाता है। यह सब हमेशा तुलनात्मक चलता रहता है। चल जल्दी बता वो कहाँ पर है? इधर आइये वह कुंए के किनारे पर गया। महाराज धीरे से देखना, क्यों धीरे से देखें? तो उधर से आवाज आती क्यों धीरे से देखें? तू कौन है? अन्दर से आवाज आती है तू कौन है? मैं बोल रहा हूँ इधर आओ, फिर आवाज आती है मैं बोल रहा हूँ इधर आओ। ये जैसी आवाज देता है वहाँ से भी वैसी आवाज आती है। आप थोड़ा सा झुक करके देख लीजिए, झाँक लीजिए वो दिखेगा। तो वह झाँकता है। भीतर झाँकने के उपरान्त वस्तुत: उसमें कोई भी अंतर नहीं था। जैसा ये यूँ झाँकता, तो कुंए में जैसी उसकी मूंछे, वैसी उसकी मूंछे, ये भी तनी हुई, तो वो भी। ये भृकुटी चढ़ाकर देखता तो वह भी भूकुटी चढ़ाकर देखता। एक्शन में कोई भी अंतर नहीं। गुस्सा आ जाता है और आप लोगों को ज्ञात है, बुद्धि तब तक काम करती है, जब तक होश हवास रहता है। जब व्यक्ति क्रोध, आवेश में आ जाता है तो पारा गरम हो जाता है और गरम पारा होने के उपरान्त ठंडा होना मुश्किल होता है। बुखार नापने का थर्मामीटर होता है। गर्मी के कारण उसका पारा चढ़ जाता है। उतारने के लिए झटका मारना पड़ता है। शेर का भी पारा गरम हो गया प्रतिपक्षी को देखकर छलांग लगा देता है। खरगोश मौन है, वह जान रहा है कि वहाँ पर न पक्ष है न विपक्ष है, मात्र अपनी छाया को ही प्रतिपक्षी समझ रहा है। जब अपनी छाया, शत्रु रूप में दिखने लग जाय तो विनाश निश्चत है। कौन-सी कक्षा में? दूसरी कक्षा में, छोटी कहानी यह पढ़ी थी। वह छोटा सा खरगोश और वह सिंह। यह मृग है, वह मृगराज है, वन का राजा माना जाता है। प्रजा की अपनी बुद्धि हुआ करती है। जब कभी भी पुराण उठाते हैं तो पढ़ने में आता है कि जब राजा प्रजा को सताने लगता है तो प्रजा मिल कर राजा को शिक्षा देती थी और नहीं मानता था तो राजगद्दी से उतार देती थी। प्रजा के प्रतिकूल नहीं चल सकता, राजा प्रजा पर अनुशासन जरूर रख सकता है। राजा प्रजा के हित की बात सोचे और प्रजा राजा की आज्ञा स्वीकार कर अनुशासन में रहे तो देश में सुख समृद्धि रह सकती है। एक-दूसरे के होकर के हम अपना कार्य कर सकते हैं। दोनों आँख के सहयोग से कार्य होता है। एक आँख दूसरी आँख के लिए सहयोग दे रही है। उधर की आँख इधर नहीं आ सकती है क्योंकि बीच में एक दीवार है। पहले से एक बॉर्डर है। इसका उल्लंघन नहीं कर सकती। उल्लंघन नहीं करते हुए भी एक दूसरे को सहयोग तो दे सकती है। यह अनिवार्य है। प्रजा हमेशा सहयोग देती चली जाती है। प्रजा सोचे अपनी सीमा क्या है? कहाँ तक हम सहयोग दे सकते हैं? किसको दे सकते हैं? आज इसको भूल जाते हैं। उसका परिणाम है यह भारत राष्ट्र आज जो उन्नति की ओर बढ़ना चाहिए वह दिनों-दिन अवनति की ओर चला जा रहा है। स्वतन्त्र होते हुए भी वस्तुत: और पर-वश सा होता जा रहा है। उसमें कारण, बुद्धि का सही समय पर सही प्रयोग नहीं करवा रहे हैं। बुद्धि किसी के पास कम है, यह मानने के लिए मैं तैयार हूँ लेकिन जब तिर्यचों के पास में इस प्रकार की सूझ बूझ हो सकती है और वह राजा के लिए अपना महत्व क्या है वह दिखा सकता है, तो यह मनुष्य होकर क्यों नहीं दिखा सकते? हम पुराणों को पढ़ते हुए आते हैं, प्रणाली के वह संस्कार भारतीय मनुष्य के ऊपर हैं। अभी आप महावीर भगवान् की बात कर रहे थे। कभी आप आदिनाथ, पाश्र्वनाथ की बात करते हैं। उससे पूर्व में भी यही बात की जाती थी, वेद-पुराण इन बातों से भरे हुए हैं। यह भी हम कहते हैं और बताते हैं और गौरव का अनुभव करते हैं। मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जिस कार्य के लिए ५० वर्ष हो गये लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकल रहा है क्योंकि नीचे की ओर होता चला जा रहा है। माइनस में जाना, कोई समझ में नहीं आ रहा है, एक नम्बर नहीं आता कोई बात नहीं, लेकिन माइनस तो नहीं आना चाहिए। लेकिन हम समझते हैं कि माइनस में सही कम से कम हैं, यही धारणा गलत है। पहले एक कक्षा से प्रारम्भ हो जाता था, लेकिन आज एक कक्षा के ४ माइनस श्रेणी वन टू श्री फोर इसके बाद प्रथम कक्षा यानि इतना गुजरना आवश्यक है। वह क्यों हो रहा है? आप ८ वर्ष से पहले स्कूल में पहुँचाना चाहोगे तो एक कक्षा के ४ पाठ करना ही होंगे, माइनस से शुरू होती प्रारम्भिक शिक्षा। ५० वर्ष हो गये, बुद्धि का विकास होना चाहिए था। लेकिन यह विकास नहीं है, बल्कि हमारा लड़का पढ़ने के लिए चला जायेगा तो बहुत जल्दी होशियार होगा। ये गलत धारणा है। उसका जो बल है, ज्ञान बल है वह ८ वर्ष से ही प्रारम्भ होता है। सोच समझ ७ वर्ष में भी हो सकती है, लेकिन एक दम ही दो तीन वर्ष के उपरान्त पढ़ना प्रारम्भ कर दो, नहीं हो सकता। समय पर सहीसही करना चाहिए। मैं यह कहना चाह रहा हूँकि प्रजा और सत्ता दोनों होने के उपरान्त भी आज प्रजा अपने दायित्व से परिचित नहीं हुई या होने का प्रयास ही नहीं किया। उसका परिणाम यह हम देख रहे हैं। जिसके लिए स्वतन्त्रता मिली थी, उसके लिए कुछ प्रयास किया जा रहा है कि नहीं ये भी समझ में नहीं आ रहा है। उस समय राजा के साथ जो मंडली रहती थी वो राजा तो नहीं लेकिन राजमंडली अवश्य कहलाती थी। राजा को सही निर्देशन देती थी। लेकिन आज प्रजामंडली है कि राजमंडली है, समझना बहुत कठिन हो गया। आज तो अनेकों पार्टी बन रही हैं लेकिन इतनी पार्टी की क्या आवश्यकता है। आज संघर्ष चल रहा है और ऐसा संघर्ष चल रहा है कि १३-१३ घंटे बहस चलती है संसद में, परिणाम कुछ नहीं निकलता। लेकिन इतने घंटों की कोई आवश्यकता नहीं है। उलझते चले जा रहे हैं। कुछ समझ में नहीं आता। पक्षी के पास यदि दो पंख रहते हैं उसकी यात्रा बहुत जल्दी और बहुत दूर तक रहती है, यदि पक्षी के पास पंख और ज्यादा हो जायें तो फड़फड़ाने की वहाँ पर गुंजाइश ही नहीं होती और वह पक्षी उड़ भी नहीं सकता। भारत की शासन मंडली भी ऐसी ही हो रही है। जितने पंख उतना ही पक्षी के लिए खतरा। यदि पक्षी उड़ नहीं सकता तो उसको कोई दबोच सकता है। बिल्ली तो इधर उधर घूम ही रही है। अब चूँकि पंखों के कारण वह बिल्ली पास नहीं आ रही। लेकिन पंख फड़फड़ाते-फड़फड़ाते यदि टूट गये तो बिल्ली तो खड़ी ही है। दो ही पक्ष हो जाते हैं, तो बहुत ही अच्छा है, यहाँ पर दो पक्ष आ जाते हैं। ध्यान रखना, एक पक्ष दूसरे पक्ष को काम दिये बिना चल नहीं सकता। आज तक कोई पक्षी एक पंख के ऊपर उड़ नहीं सका, धीरे-धीरे मैं वहाँ पर आ रहा हूँ जहाँ पर आपको आना है। बहुत दूर काल की अपेक्षा होने के बाद वहाँ पर नहीं आ पाये, ये हम लोगों की कमजोरी माननी चाहिए। तो जब वह खरगोश यह सोचना प्रारम्भ कर देता है। जो व्यक्ति अपना स्वभाव नहीं जानता। जो व्यक्ति अपनी वस्तु क्या है, पहचानने की कला नहीं रखता, उस व्यक्ति को कभी भी मौत के कमरे में ढकेल दिया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति ढकेला जा सकता है और आज आप सभी मौत कूप के किनारे हैं और लाया गया है आपको, आप स्वयं नहीं गये और आपकी कमजोरी के कारण यहाँ तक आने का यह अवसर प्राप्त हुआ। एक व्यक्ति ऐसा है जो पीछे पड़ा है, जो आपको अपना परिचय दिलाना चाहता है लेकिन आप अपने से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। अपनी शक्ल को देखने के उपरान्त भी यह मेरी शक्ल है, यह तक जिसे ज्ञान नहीं, वह व्यक्ति कभी भी राजा नहीं बन सकता। वह राजा होते हुए भी निश्चत रूप से मौत के कुंए में गिर जायेगा। सिंह को ओवर कान्फिडेन्स था। मैं इतना बलवान हूँसबको दबोच दूँगा। मेरे हाथ में सत्ता है, सबको आना पड़ेगा और इसी आवाज के बल पर, क्रमश: सारे के सारे आते चले गये मौत कूप मैं । वो चले गये और सबको निर्बल बनाया गया। लेकिन उसकी वह नीति उसको ही खा गयी। एक खरगोश ऐसा पैदा हुआ जिसने बुद्धि से काम लिया, जिसने चतुराई से काम लिया, जिसने धैर्य रखा। जहाँ पर बुद्धि है, जहाँ पर कर्तव्य है वहाँ पर निश्चत रूप से विजय हो सकती है, होती है। लेकिन ये ध्यान रखना आप एक पक्ष को समृद्ध बनाने का प्रयास करेंगे, तो आप लोग खरगोश की नीति नहीं समझ पायेंगे। जिस व्यक्ति को आप भेज रहे हैं, वह व्यक्ति अपना राष्ट्र है, यह नहीं समझता है और अपनी कुर्सी की ओर मुँह करता है। कुर्सी कोई अपनी नहीं हुआ करती है, कुर्सी के पास दो पैर नहीं, ४ पैर होते हैं। ध्यान रखो ४ पैर वाले के ऊपर बैठा जाता है। आप दो पैर वाले हैं, ४ पैर वाले के ऊपर बैठना चाह रहे हैं सोचना चाहिए। आपको। वो कभी भी गिर सकता है, उसके पास कोई बैलेन्स नहीं। दो पैर वाला ही बैलेन्स रखता है। ४ पैर वालों के पास अपना कुछ बैलेन्स नहीं है और एक-एक कम कर दो तो निश्चत रूप से कुर्सी गिर जाती है। आज यही बातें हो रही हैं १३ घंटे योजनाएँ बनती हैं। पहले तो चुनाव के लिए खड़े हो जाते हैं फिर चुनाव जीतने के बाद बैठने की बात करते हैं। ये समझ में नहीं आता चुनाव के लिए खड़े हैं तो बैठना नहीं चाहिए खड़े रहना चाहिए। वह पद है, उसके माध्यम से कुछ कार्य किया जाता है, बैठकर के कार्य ठीक नहीं हुआ करता है। कार्य जो किया जाता है वह बुद्धि के माध्यम से कार्य किया जाता है। सिंह को यह भी ज्ञान नहीं था कि यह मैं ही हूँ या मेरा केवल प्रतिबिम्ब है, प्रतिछाया है, उस छाया की भी पहचान नहीं की। सबसे ज्यादा मूर्ख निकला वह मृगराज जो वह मौत के कूप में गिर गया, गिर नहीं गया उसको गिराया गया। गिराने वाला कौन है, गिरने वाला कौन है? यह देखने की बात है। कितनी युक्ति के साथ उसने जंगल के जीवों को बचा लिया। ये दूसरी कक्षा में लिखने की आवश्यकता थी। हमेशा इन छोटी-छोटी कक्षाओं के बारे में सोचता हूँ। ये दूसरी कक्षा में लगाने योग्य नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानियों को शिक्षा देने वाली कथा है खरगोश इस प्रकार का कार्य कर सकता है और खरगोश की कथा के ऊपर बड़े-बड़े शोध हो रहे हैं। लेकिन राष्ट्र को बचाने की हिम्मत किसी भी खरगोश के पास नहीं है। एक से एक मृगराज भी पशुओं का भक्षण करते जा रहे हैं और प्रजा है देखती जा रही है। 'यथा राजा तथा प्रजा' की युक्ति आप लोगों को ध्यान में लानी थी। राष्ट्र के हित में आप लोगों का कहाँ तक हित है, विचार है, प्रयास है, जिनको चुनकर भेज दिया उनको सोचना चाहिए। चुनाव राष्ट्र के हित में है, मैं नहीं मानता। जिस राष्ट्र में गुणों का, योग्यता का योग्य व्यक्ति द्वारा मूल्यांकन नहीं होता, वह राष्ट्र तीन काल में उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति का कारण कभी पैसा/धन नहीं हुआ करता। बिलिंडग आप बनाते चले जाओ, ये उन्नति का मार्ग नहीं है क्योंकि प्राचीन काल में बिलिंडग में शिक्षण नहीं हुआ करता था। ऐसे क्षेत्र हैं, ऐसे पेड़ हैं, पेड़ के नीचे ऐसी नीति दी जाती थी जो बड़ेबड़े राष्ट्र को चलाने की हिम्मत उनके पास आ जाती थी। चाणक्य की नीति और उसकी चोटी और चोटी की गांठ बस यह पर्याप्त था भैया! यह गांठ खुल नहीं सकती जब तक कार्य नहीं होगा। आज तो चोटी ही नहीं, फिर चोटी के विद्वान कहाँ से बनेंगे। चोटी के विद्वान क्यों कहा जाता है? चोटी का विद्वान का अर्थ – इतना करके ही चोटी की गाँठ खोलूगा, ऐसा संकल्प लेते थे। उस गाँठ में ऐसी शक्ति रहती थी। जब कभी आप पहचानेंगे गाँठ के माध्यम से देख सकते हैं। उसने एक बार ठान लिया तो उसको समाप्त करना जिसकी नियत बुरी है, यही है नीति। आज प्रत्येक राजनेता चाणक्य नीति नहीं समझ पा रहा है। चुनाव की नीति आ जा रही है। बार-बार मेरे पास आकर के कहते हैं ये पक्ष वाले, ये विपक्ष वाले, दोनों मिलकर के राज्य चला रहे हैं। त्रिशंकु सरकार देश को चला रही है। तीन-तीन पक्ष विपक्ष मिलकर देश की कुर्सी पर बैठे हैं, कुर्सी तो टूटेगी ही। ये बात समझ में नहीं आती है। उस खरगोश के समान आज की यह प्रजा हमेशा-हमेशा जागृत रहनी चाहिए कि जिसको हमने आगे चुन करके आज भेजा है वह किस ढंग से काम कर रहा है? उसने अपने बल/बुद्धि पर पूरे-पूरे वन के जीवों को उजड़ने से बचा लिया, उसने चतुराई के साथ अपने बचाव के साथ-साथ दूसरे को भी बचा दिया। आज इस नीति की आवश्यकता है। राष्ट्र स्वतन्त्र हुआ, उसमें जितने भी प्राणी हैं, वे सुख शान्ति स्वतन्त्रता के साथ जी सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। ५o वर्ष के बाद उसको समृद्ध बनाने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन दिनोंदिन वह अवनति/माइनस की ओर चली जा रही है। अब कब यह उत्थान करेगा? कौन-सा व्यक्तित्व आयेगा? कौन सा ऐसा समय आयेगा? एक व्यक्ति के द्वारा काम नहीं होने वाला क्योंकि यह सारी प्रजा मिल करके देश को उन्नत कर सकती है। आज तो देश को उन्नत बनाने वाले अहिंसा धर्म को समाप्त करके देश को उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके बलबूते पर बुद्धि, चारित्र, जीवन यापन होते हैं, उन्हीं को आज समाप्त किया जा रहा है। एक दिन में लाखों बड़े-बड़े जानवरों का सरेआम गला घोंटा जा रहा है। सुनने में ऐसा आता है मांस यहाँ पर नहीं खाया जाता, जीवों को मारकर मांस निर्यात किया जाता है और ये भी बात है कोई भी मनुष्य केवल मांस पर जिंदा नहीं रह सकता, लेकिन आज केवल मांस पर जिंदा रहने का प्रयास चालू हो गया है। खाकर के नहीं। जैसे कहा था अन्न प्राण है। भारतीय साहित्य में १२ प्राण माने गये हैं। वहाँ पशुधन १२वाँ प्राण कहा गया है, परन्तु तुच्छ मुद्रा रूप धन के लिए अच्छे-अच्छे जाति के जानवरों का कत्ल किया जा रहा है और उसमें से मांस निकाल करके उसको निर्यात किया जा रहा है। यह व्यवसाय की बात कुछ समझ में नहीं आती है। यह भक्षण की बात नहीं, यह व्यवसाय की बात है और व्यवसाय का यदि यह विषय बन गया तो यहाँ पर बहुत जल्दी तूफान आ सकता है। जिसके माध्यम से व्यवसाय चल रहा, वह सब जब समाप्त हो जायगा उस समय क्या होगा? जो जिसके लिए नियुक्त है, वह व्यवसाय का साधन तो नहीं बन सकता किन्तु आज व्यवसाय का साधन ये बना लिया। बड़े-बड़े जानवरों को कत्ल करके भेजा जा रहा है। चर्चा चल रही है कि दुधारू गायें कब तक दूध देती हैं? इन पर रिसर्च चल रही है, शोध चल रहे हैं। कितनी ये दूध दे सकती हैं, ज्यों ही वह दूध बंद कर दे उसको कत्ल कर देना क्योंकि उनको उसके माध्यम से पैसा लाना है और पुन: बेचने में पैसा लगाना है। वैज्ञानिक लोग भी त्रस्त हैं और इसके साथ-साथ ये सोचना चाहिए जिसके जीवित रहने मात्र से प्रकृति में एक अलग ही वातावरण बन जाता है, प्रदूषण खत्म हो जाता है। गाय बैल जिस समय घर लौटे वह समय गोधूलि कहा जाता है। संतों की प्रासुक भूमि इन्हीं के माध्यम से बनती है। मूलाचार में कहावत है, जब गाय, ऊँट, बैल, भैंस चलना प्रारम्भ कर दें तो जमीन प्रासुक हो जाती है। इसके बाद हम चले। इनकी धूल के माध्यम से अपने आप वातावरण शान्त हो जाता है लेकिन आज पहले से उनको समाप्त कर दिया जाता है। जहाँ कहीं भी एक चित्र हम देखते हैं, जिसको वृषभ अवतार बोलते हैं। जिनके माध्यम से दूध मिलता है, कृषि होती है, जिनके माध्यम से माँ की याद आ जाती है। जन्म देने वाली माँ मनुष्य को जन्म भर दूध नहीं पिलाती, जन्म भर दूध पिलाने वाली कौन सी माँ है? वही गाय है, वही बकरी, भैंस है, जिसका दूध पीकर भारत का संचालन कर सकते हैं, नेतृत्व की भी क्षमता रखते हैं और बड़े वैज्ञानिक हो सकते हैं, संत हो सकते हैं, जिनके माध्यम से युग को दिशा बोध प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार के जानवर को यूजलेस (अनुपयोगी) कहकर काटना वैज्ञानिकता नहीं हो सकती। बात कुछ समझ में नहीं आ रही, इसकी ओर कोई भी व्यक्ति या सरकार का ध्यान नहीं है। कत्ल करके मुद्रा को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए इस बात को बार-बार मैं कह चुका हूँकि व्यवसाय अलग वस्तु है और निर्वाह अलग वस्तु है। व्यवसाय आपके लिए और भी हो सकते हैं, ऐसा कोई भारत ने ठेका नहीं लिया कि जो मांसाहारी है, उनके लिए मांस पूर्ति करना चाहिए। यह सम्भव भी नहीं क्योंकि बहुत सारे राष्ट्र हैं जो मांसाहारी हैं, ये पूर्ति तीन काल में संभव नहीं। भले ही छोटा क्यों न हो पर खरगोश की जाति/बुद्धि का हो, और जो कुर्सी पर बैठे हैं, बिठाया गया है दो पैर वाले हैं, उनको समझा दें, जो व्यक्ति अपना अपनत्व नहीं समझता है उस व्यक्ति को किस ढंग से समझाया जा सकता है। राष्ट्र किस बलबूते पर जीवित रहेगा, इसको भी देखना आवश्यक है। जिस पर हम खड़े हैं यदि उसको उखाड़ देंगे तो हमारा जीवन निश्चत रूप से धराशायी हो जायेगा। जो भी पशु पक्षी हैं वह राष्ट्र के अंग माने जाते हैं। बुद्धि के विकास के लिए कुछ ऐसे भी कलरव सुनना चाहिए। कवि जब कभी भी कविता लिखता है, वह अपनी बुद्धि से प्रकृति की गोद में बैठकर लिखता है। वह सागर के तट पर उस आवाज को सुनता है, यदि कल-कल करके नदी बह रही है, उसके तट पर बैठते हुए उसको निहारते हुए अपने आप उस भावों को व्यक्त करता है। उसमें अलग ही प्रकार का अनुभव शब्द के माध्यम से आता है। युगों-युगों तक उस प्रकृति की गोद में बैठ करके लिखा हुआ वाक्य युग को दिशा बोध देने में सक्षम है। प्रकृति की गोद में रहने वाले ये सारे के सारे जीव जन्तु हैं, इससे आप लोगों को बल मिलता है। आप उस बल को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करें और उसके लिए अच्छे खाद्य-पानी का सेवन करें, अच्छे वातावरण में रहकर विचार करने का प्रयास करें। निश्चत रूप से आपकी बुद्धि विश्व के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सकती है। यहाँ से ही विश्व को आज तक स्रोत मिले लेकिन आज ये स्रोत मिट्टी से ढकते चले जा रहे हैं। अब वह स्रोत युगों-युगों तक खोदने से मिलने वाले नहीं हैं। सबसे बड़ी हानिकारक सिद्ध हो रही है वह हिंसा जो दाम के लिए, अर्थ के लिए, करोड़ों की तादाद में बड़े पैमाने पर बढ़ती जा रही है। प्रत्येक प्रजा का, प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है, प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है, उन व्यक्तियों तक, उन कानों तक यह आवाज पहुँचाने का प्रयास करें कि सरकार क्यों बाध्य होकर कत्ल करने की अनुमति दे रही है? किसको दे रही है? किसलिए दे रही है? इसके पीछे क्या सही है? इसके बारे में आप लोगों को सोचना चाहिए। एक गाय यदि मर जाये उसके लिए प्रायश्चित ग्रन्थ में दण्ड के लिए कहा गया। कोई अपराध या चोरी करता है तो उसके लिए दण्ड में तुम ५० गायें दो,५० बैल दो ये कहा जाता था। आज वो पंक्ति देखने से ऐसा लगता है गाय इतनी महत्वपूर्ण थी कि जिसके प्रति तुमने अपराध किया वह गायें पाकर अपने को धन्य मानेगा और तेरे यहाँ से गायें चली जायेंगी, यह अपशकुन तेरे लिए सजा है। उस अपराध को दूर करने के लिए गायें-बैलों को दिया जाता था, जीवित धन माना जाता था। उसको बेचा नहीं जाता था, उसके माध्यम से प्रकृति में एक माहौल तैयार किया जाता था। लेकिन उसी को दण्डित किया जा रहा है, बल्कि उसी को समाप्त किया जा रहा है, अब प्रायश्चित ग्रन्थ दुबारा लिखना पड़ेगा। लेकिन कहा जाता है कि कोई कानून/ग्रन्थ लिखा जाता तो कानून को कानून माना जाता है। अब हम कौन से दण्ड दें? सामने देख रहे हैं, वो भी राजा के माध्यम से हो रहा है, जिसको आपने योग्य बना करके भेजा। जो व्यक्ति इस प्रकार की अनुमति दे रहा है तो क्या आप इसके समर्थक हैं? केवल मांस निर्यात बंद हो, इस आवाज को केवल आवाज के रूप में नहीं, उनको सोचने के लिए बाध्य होना पड़े इस प्रकार का मार्ग अपनाया जा सकता है। जंगल में एक खरगोश के माध्यम से हो गया जीवों का बचाव। मैं आवाज लगा रहा हूँ, इन्तजार कर रहा हूँ कोई खरगोश के समान अपनी युक्ति इन मूक प्राणियों को जीवन दान देने में लगाए। एक अंतिम समय वह आयेगा, इसके कारण अपने आप ही सोच समझ में आयेगा कि हमने हिंसा की दिशा में जो कार्य किया यह ठीक नहीं किया। मुगल साम्राज्य में भी इसको स्वीकार नहीं किया गया। एक लेख पढ़ा थाकश्मीर के जो शासक हुए हैं उन्होंने भी गाय, बैल, भैंस के मांस के लिए व्यवसायीकरण की स्वीकृति नहीं दी थी। किसी भी शासक ने मांस निर्यात के माध्यम से भारत को समृद्ध बनाने का प्रयास नहीं किया। बहुत सारे व्यवसाय के मार्ग हैं/साधन हैं उनके माध्यम से हम कर सकते हैं और मैं इसलिए कह रहा हूँकि धर्म का यदि कोई चिह्न है और मूल है तो एक मात्र अहिंसा और दया है। दया के अभाव में धर्म कोई भी नहीं माना जाता। दया ही धर्म का मूल है और जो कुछ भी है वह पाप का मूल है। इसलिए सत्य बोलना, चोरी नहीं करना आदि-आदि सारे धर्म इसी एक मात्र दया धर्म के लिए हैं और इसी के ऊपर इसकी प्रतिष्ठा है। यदि हम सत्य को धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तो मूल में दया होना अनिवार्य है। उसी प्रकार अचौर्य को हम प्रतिष्ठित करते हैं तो दया होना पहले अनिवार्य है, अपरिग्रह को भी हम प्रतिष्ठित करते हैं। महावीर भगवान् का यह प्रतिष्ठित धर्म माना जाता है लेकिन यह ध्यान रखना, यह दया के ऊपर आधारित है। परिग्रही व्यक्ति कभी भी पूर्ण दया का पालन नहीं कर सकता है। जो परिग्रह तिल तुष मात्र नहीं रखता है वह व्यक्ति दया का भंडार हो जाता है, दया का सागर हो जाता है और उसके बिना दुनियाँ को उपदेश प्राप्त नहीं होगा, ऐसे में दया निश्चत रूप से मौन रहते हुए भी उसके पास बहुत शक्ति है। यह वात्सल्य अंग उसी की एक देन है, दया के बिना वात्सल्य नहीं होता है। मोह के द्वारा जो वात्सल्य आता है, वह वात्सल्य नहीं स्वार्थ परायण वात्सल्य माना जाता है लेकिन धर्म परायण व्यक्ति ही वत्सल होता है, वह दया के ऊपर ही आधारित रहता है। धार्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन की चर्चा होती है, वह सम्यग्दर्शन दया के द्वारा ही प्रतिष्ठित हो सकता है। मूल के अभाव में जिस तरह वृक्ष नहीं, फल नहीं, फूल नहीं, पते नहीं, छाया नहीं उसी प्रकार दया धर्म के अभाव में कोई धर्म नहीं। दया जैसे-जैसे घटती चली जा रही है। यदि मूल हिलता चला जाय, फिर कितना ही प्रौढ़ वृक्ष ही क्यों न हो, वह धराशायी हुए बिना नहीं रह सकता है। जिसकी जड़ों में ढिलाई आ गयी, थोड़ा सा झोंका आ जाता है, गिर जाता है। आज की सत्ता क्यों गिर जाती हैं क्योंकि उसका मूल का पता ही नहीं है। इतना बड़ा राष्ट्र है, कितने बेलेन्स की आवश्यकता है। यदि भारत को जीवित रूप में रखना चाहते हो, प्राचीनता के साथ तुलना करना चाहते हो तो दया धर्म को तुम जीवित रखने का प्रयास करो। धर्म कभी भी अपने आप जीवित नहीं रह सकता। धर्मात्मा ही धर्म को रख सकता है और धर्म के कारण धर्मात्मा रह सकता है। धर्म के कारण ही धर्मात्मा कहलाता है। आप धनिक कहलाते हैं, आपके वजह से धन नहीं है, धन की वजह से आप धनिक हैं, यदि वह धन नहीं है, तो आप यहाँ पर बैठ नहीं सकते। १२ प्राण सुरक्षित होना चाहिए तो ११ प्राण आप सुरक्षित रख पाते हैं। मांस भक्षी भी सोच रहे होंगे कि भारत इतना पागल हो गया है, इसकी बुद्धि कहाँ चली गयी है? हमारे मांस के प्रति स्वयं के धन को नाश करके हमारे लिए खुश करने का प्रयास कर रहा है और बदले में क्या ले रहा है? समझ में नहीं आ रहा है। बदले में आपको क्या मिल रहा है? इतने कत्ल होने के बाद आज केवल ढाई या तीन अरब की राशि प्राप्त हुई है भारत को, जब करोड़ों की हत्या हो चुकी है। अगले दिनों में ५ अरब तक पहुँच सकता है। केवल ५ अरब के लिए यानि इतनी छोटी राशि के लिए इतने जानवरों की हत्या? हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आप बिल्कुल कटिबद्ध हो जाइये, थोड़ा जोश के साथ।
  2. शुक्ल पक्ष में गर्मी कितनी भी हो, फिर भी सुनते हैं समुद्र में एक प्रकार से ज्वारभाटा होना निश्चत है, विशेष रूप से सूर्य कितना भी तपे इससे कोई मतलब नहीं है। वह समुद्र में निश्चत रूप से उठेगे। लेकिन कृष्ण पक्ष में क्यों नहीं उठते? १२ घंटे तपा सूर्य शुक्ल पक्ष में ज्यों ही दिन डूबता है, उससे पहले ही चन्द्रमा आसमान में विद्यमान रहता है। प्रकाश भी देता है और अनेक प्रकार के समुद्र में परिवर्तन भी ला देता है। उपमा दी जाती है, उसका जीवन दूज के चन्द्रमा की तरह प्रकाशित हो। ऐसा कहा जाता है क्योंकि चाहे गर्मी, सर्दी या वर्षा हो, हमेशा कहा जाता है। शुक्ल पक्ष के कारण ही वह मर्यादित कार्य चलता रहता है। दूज के उपरान्त तीज, चौथ इस प्रकार मुहूर्तों में भी शुक्ल पक्ष के मुहूर्त मंगलकारी माने जाते हैं। अच्छे कार्यों में शुक्ल पक्ष की तिथि मंगलकारी मानी जाती है। १५ दिन तक क्रम से प्रकाश बढ़ता जाता है और एक तरह से प्रकृति में आह्वाद करने की क्षमता उस शुक्ल पक्ष में रहती है। सुनते हैं, शुक्ल पक्ष में अमृत कण बिखरते रहते हैं और ऐसे बिखरते-बिखरते पूर्णिमा के दिन पूर्ण बिखर जाते हैं। इससे ठीक विपरीत कृष्ण पक्ष आ जाता है और उसमें ये खूबी रहती है। कृष्ण पक्ष आते ही चन्द्रमा समाप्त नहीं होता है, एक-एक कलायें गायब होती चली जाती हैं। पूर्णिमा के ठीक एक दिन बाद भी वही कृष्ण पक्ष है और एक कला फिर कम होना शुरू हो जाती है। कलाएँ घटती रहती हैं इसलिए कृष्ण पक्ष माना जाता है और कृष्ण पक्ष में समुद्र अपने आप बैठता चला जाता है। उन दिनों में भी यद्यपि प्रकाश मिलता है लेकिन वह दूज का चन्द्रमा नहीं माना जाता। दिन अस्त होते ही दिखने में आना चाहिए उसी चन्द्रमा को मंगलकारी माना जाता है। शिव जी की जटाओं में जो चन्द्रमा का चिह्न देखा जाता है वह शुक्ल पक्ष के दूज का माना जाता है। अब हमें अपने जीवन की ओर देखना है कि हमारा जीवन शुक्ल पक्ष के समान है या कृष्ण पक्ष जैसा है। हमारे जीवन के पक्ष किस ओर मुड़े हुए हैं और हम विनाश की ओर हैं कि विकास की ओर? ये हम देखें कि हमें भी कुछ शान्ति/आह्वाद/उत्साह के क्षण प्राप्त करना है। यदि कृष्ण पक्ष के समान हमारे जीवन में प्रकाश है, समय पर प्रकाश का प्रयोग नहीं हो रहा हो, उपयोग नहीं हो रहा हो, तो निश्चत ही हम अमावस्या की ओर हैं। अमावस्या की ओर जो कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा होता है, उसकी कलाओं का प्रतिदिन अभाव होता रहता है। ऊपर से नीचे की ओर आता चला जाता है और शुक्ल पक्ष में नीचे से ऊपर की ओर होता चला जाता है। इसे लेश्याओं में इस प्रकार घटा सकते हैं। शुक्ल लेश्या यदि हीयमान होती है और पीत लेश्या वर्धमान होती है, तो पीत लेश्या हमारे लिए लाभप्रद होती है। किन्तु शुक्ल लेश्या हमारे लिए लाभप्रद नहीं हुई क्योंकि हीयमान है। कृष्ण पक्ष में हमें भले ही चन्द्रमा बहुत बड़ा मिलता है तो भी वह हमारे लिए हानिप्रद होता है। प्रकाश अक्षुण्ण बना रहे। प्रकाश अक्षुण्ण शुक्ल पक्ष में बना रहता है। हमें सोचना है जब जीवन का अंतिम समय गुजरता है तो अंधियारा नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे भले ही उजाला बढ़ता चला जाये, लेकिन वह वर्धमान होना चाहिए। पीत से पद्म, पद्म से शुक्ल धीरे-धीरे होती चले जाये, हीयमान शुक्ल लेश्या ठीक नहीं है। वर्धमान पीत लेश्या ठीक है। उसमें हमारा संयम, हमारी दृष्टि ठीक बनी रहती है। उसके कारण सभी को लाभ मिल सकता है, स्व का तो लाभ उसमें है ही। ऐसा जीवन कैसे बने? इस प्रकार जीने को हमारे लिए कौन सी सामग्री का आलम्बन लेना है। किस सामग्री से हमारा जीवन विकासोन्मुखी होता है यह सोच लेना चाहिए। ५० वर्षों से लगभग स्वतंत्रता भारत को मिली। दिनों दिन अमावस्या की ओर भारत जा रहा है। कृष्ण लेश्या धीरे-धीरे बढ़ती चली जा रही है। प्रकाश समाप्त होता चला जा रहा है। मूल धर्म एक मात्र अहिंसा है। अहिंसा के अभाव में कोई भी धर्म, धर्म नहीं कहलाता है। भले ही उसे धर्म का नाम दे सकते हैं लेकिन मूल धर्म केवल अहिंसा है। अहिंसा के माध्यम से निश्चत रूप से वह धर्म पूज्य हो सकते हैं। आपका सत्य तब सत्य कहलाता है जब उसके पीछे धर्म रहता है। आपका अस्तित्व तब अस्तित्व कहलाता है, जब पृष्ठ के पीछे धर्म रहता है। आपका निष्परिग्रह तब माना जाता है, जब उसके पीछे वह धर्म रहता है। वह धर्म है 'अहिंसा धर्म'। अहिंसा की पूजा करके परिग्रह को छोड़ना सार्थक है। जब अहिंसा को हम जीवित रखना चाहेंगे तभी आपका धर्म जीवित रह सकता है। यदि नहीं है तो सब धर्म बेकार माने जाते हैं। किसान खेती करता है, बीज सर्वप्रथम बो देता है उससे पूर्व में वह हल चलाता है कहीं देखा होगा आप लोगों ने जिस समय वह हल चलाता है। उस समय में बिल्कुल खुली जमीन रहती है। मेढ़ रहते हैं, मेढ़ यदि रह भी जाये तो उसमें बन्धन कुछ भी नहीं रहता और बैल घूमना चाहते हैं तो वे दूर तक घूम के आ जाते हैं और जब वह जमीन तैयार कर दी गई, बीज वपन कर दिया गया, इसके उपरान्त अंकुर उत्पन्न हो जाता है, अंकुर उत्पन्न होते ही वह एक प्रबंध कर देता है, चारों ओर उसकी बाड़ी लगा देता है। ये बाड़ी क्यों लगाई? खेत कहीं चला न जाए। खेत न कहीं गया, न आगे जायेगा खेत तो वही का वहीं है। बाड़ी आती है और चली जाती है। फसल आती है और चली जाती है। किसान आता है और चला जाता है। खेत वहीं के वहीं रहता है। खेत की रक्षा के लिए बाड़ी है या खेती की रक्षा के लिए बाड़ी है? भारत की रक्षा के लिए धर्म है या भारतीयता की रक्षा के लिए धर्म है, यही भारत, समर भूमि में परिवर्तित होने वाला है। ये ध्यान रखो! भारत में प्रलय होने वाला है, ये भी ध्यान रखो। ये सब कुछ समाप्त होने वाला है, ये समाप्ति से पूर्व की बात यहाँ कही जा रही है। "भारत की रक्षा आप नहीं कर सकते है, भारतीयता की रक्षा कर सकते हैं।" अहिंसा रूपी बाड़ी लगाई गई है और स्वतंत्रता छिन न जाये, इसमें कोई दूसरे राष्ट्र आकर मुँह न मार लें इसके लिए लगाई है। अहिंसा इसलिए आवश्यक है कि धन की नहीं, वैभव की नहीं, ये तो होता रहता, आता रहता, चला जाता है, भारत के कुछ संस्कार जीवित रहें, इसके लिए यह काम किया गया है। किसान बीज बोने के उपरान्त, अंकुर होने के बाद ही बाड़ी लगाता है। किन्तु ५० वर्ष के उपरान्त भी यहाँ पर बाड़ी की व्यवस्था नहीं है। यदि भारत से अहिंसा ही उठ जायेगी तो मैं समझता हूँ यहाँ पर कुछ नहीं रहने वाला है। अहिंसा की रक्षा के लिए भारत ने आज क्या प्रबंध किया? भारत के लिए मैं समझता हूँ एक तरह से कृष्ण पक्ष चल रहा है, शुक्ल पक्ष नहीं है। दिनों-दिन, दिनों-दिन हिंसा ही हिंसा चारों ओर सिर उठाती चली जा रही है, अंधकार चारों ओर फैल रहा है, फिर बाद में कब शुक्ल पक्ष आयेगा? जिसमें आनंद की लहरें उठेगी। आनंद की लहरें तब उठती हैं, जब आसमान में चन्द्रमा भले ही बादलों में छुपा हुआ क्यों न हो। अहिंसा देवता हमारे पूज्य देवता हैं। इसके बारे में हमने क्या बहुमान व्यक्त किया? उसको सुरक्षित रखने के लिये क्या किया? कुछ भी नहीं किया। कन्नड़ में कहावत है- 'बेलयुद्ध बलवन मेयदु' ये जो बाढ़ लगाई गई है, यही उठ करके खेती को खा गई, ये संभव है। भारत के द्वारा भारतीयता नष्ट हो रही है। जब यहाँ पर ब्रिटिश गवर्नमेन्ट काम करती थी, उस समय इतनी हिंसा नहीं थी जितनी की आज हिंसा हो रही है। आप लोग कहोगे कि महाराज स्वतंत्रता मिलने के बाद कुछ न कुछ विकास होना चाहिए। ये हिंसा का विकास होता चला जा रहा है। पशुओं को सर्वप्रथम आप लोगों ने विषय बनाया। उनको समाप्त करके देश का विकास कर रहे हो, (अब तो धीरे-धीरे बच्चों को क्रूरता का शिकार बना लोगे तो निश्चत रूप से वह एक दिन आयेगा कि व्यक्तियों के ऊपर भी प्रहार करेगी यह विकास की हवस।) आज भारत की स्वतंत्रता ५० वर्ष होने को हो गये लेकिन धर्म की ओर इतनी दृष्टि नहीं है, जितनी कि दृष्टि इसकी धन की ओर है और उसके धन के कारण ही यह धर्म को समाप्त करता चला जा रहा है। एक ऐसा समय आयेगा, इसके पास इतनी क्रूरता आ जायेगी कि वह किसी भी धन के लिए वह कुछ भी कर सकता है। अपनी उस धन की प्यास को बुझाने के लिए धनिक बनने के लिए वह किसी के भी ऊपर प्रहार कर सकता है क्योंकि येन-केन-प्रकारेण इसी को बोलते हैं। उसकी रफ्तार अपने आप ही बढ़ रही है। कोई मशीन चालू कर दी जाती है, कुछ समय लगता है, कुछ मिनटों के उपरान्त उसमें गति आ जाती है। गति क्या महाराज, प्रगति हो जाती है। यही हो रहा है। हिंसा का बटन दबा हुआ है। क्षण-प्रतिक्षण इसमें बढ़ोतरी हो रही है। ५० वर्ष के उपरान्त भारत में ऐसे हिंसा के संस्कार पड़ गये कि अब दया-दया कहते-कहते भी दया समाप्त हो जायेगी। क्योंकि कृष्ण पक्ष के होने के उपरान्त प्रतिदिन प्रति घंटा विलम्ब से चन्द्र प्रकाश मिलता है दूसरे दिन दो घंटे विलम्ब से होगा, तीसरे दिन ३ घंटे विलम्ब के साथ चन्द्रमा उत्पन्न होगा। तब तक तो अंधकार रहेगा। आज दया की बात ऐसे ही हो रही है। पहले दया की गंध कैसी आती थी? सुन करके ही वह अपने आप दया के भाव आते थे, अहिंसा की उपासना किस ढंग से की जाती थी, वह आज पुराण ग्रन्थों तक ही सीमित रह गयी है। हिंसा का प्रखर ताप भीतर आ गया, अब वह पित्त भड़कायेगा। आप कितना भी अमृत कलश पिला दें, वह तो झटके के साथ बाहर आके रहेगा क्योंकि गर्मी बहुत पड़ चुकी। शरीर की प्रकृति अब समाप्त हो गयी। शरीर की प्रकृति जब संतुलित नहीं रही तो आप कूलर भी चला दो, तो भी जीवन रहने वाला नहीं और बाहर भले ही यह तपन हो, यदि भीतर प्रकृति स्वस्थ है, निश्चत रूप से आप कुछ भी खा लो, तो भी वह ९८ डिग्री से ऊपर बढ़ नहीं सकता। भले ही वह बाहरी तापमान ३५ डिग्री से लेकर एक-एक डिग्री बढ़ते-बढ़ते ५० डिग्री तक भी पहुँच जाये तो भी वह स्वस्थ प्रकृति भीतर बिल्कुल ठंडा करा के रखेगी और पसीना आ जायेगा। बिल्कुल मेनटेन हो जायेगा। यदि शारीरिक प्रकृति असन्तुलित है तो १०-२० डिग्री बाह्य तापमान में (कड़ाके के ठंड में) भी अन्दर का तापमान १०७-१०८ डिग्री हो सकता है। लूकिस को लगती है महाराज, निमाड़ की लू प्रसिद्ध है। आपने अभी क्या देखा, अभी क्या जाना? ऐसी बात है। हाँ लेकिन लू में भी प्रवास किया जा सकता है। भीतर यदि पानी की मात्रा हो तो कोई बाधा नहीं। पर यदि पानी भीतर नहीं है और खाली बैठे हैं तो कूलर के पास भी बैठे तो कूलर की हवा भी लू के रूप में परिवर्तित हो जायेगी ये निश्चत बात है। अहिंसा के बिना यदि ५० वर्ष निकाल दिये और आगे कूलर आ जाये विज्ञान के माध्यम से या बर्फ की डली पर भी आप बिठा दो तो भी आपका बुखार शांत नहीं होने वाला। स्वस्थ शरीर के लिए गरम पानी भी दे दो तो भी कूलर का काम कर जायेगा और अस्वस्थ शरीर के लिए बर्फ की डली के ऊपर भी बिठा दी तो वह गर्मी नहीं जा सकेगी क्योंकि बाहर के माध्यम से भीतर की गर्मी नहीं जाती। वो उसका अपने आप में अलग वातावरण होता है। जब अहिंसा देवता ही समाप्त हो जायेंगा तो शेष सारे के सारे धर्म किस काम के? किसी के काम के नहीं। इसके लिए यह सब कुछ है, अहिंसा के अभाव में सब कुछ समाप्त है और इस अहिंसा को जीवित रखना है। आप लोग कहते हो कि महाराज अहिंसा की बात आप करते हो लेकिन कोई ऐसा आशीर्वाद दीजिये, जिससे धन लक्ष्मी खूब आ जाये फिर हिंसा अपने आप बंद हो जायेगी। यह आपका सोचना गलत है। धन की वृद्धि के साथ हिंसा और भड़केगी/अराजकता फैलेगी। यह भी ध्यान रखना धन लक्ष्मी जहाँ जायेगी वहाँ से शान्ति देवी लुप्त हो जायेगी। बाहर से लक्ष्मी आ जाती है तो शान्ति देवी जो कुल देवता है वो चली जाती है। आज जितना भी वित्त बढ़ता चला जा रहा है उतना ही वित्त या विज्ञान विकृत होता चला जा रहा है। पैसा आ जाता है तो पैसा किस स्थान पर खर्च करें यह दिमाग नहीं चल पा रहा है। जिस व्यक्ति के पास इतना भी दिमाग नहीं है कि अर्थ का उपयोग कहाँ पर करना है, यद्व-तद्वा करेगा तो धर्म के स्थान पर अधर्म ही करेगा। अर्थ के माध्यम से जीवन में शांति मिलनी चाहिए, तो शान्ति तो नहीं मिलती है। शान्ति तो तब मिलती है जब हम अपनी बुद्धि से काम लें। धन का विकास उतना ही होना चाहिए जितना कि धर्म का विकास होता चला जाये। लेकिन आज बाढ़ उसी खेत को खा रही है। आज वही स्वतंत्रता अहिंसा को लुप्त कर रही है, आज वही स्वतंत्रता संस्कृति को लुटाने में जुटी हुई है। अब ५० वर्ष में बहुत कुछ मिट चुका। अब शेष क्या रहा है? कृष्ण पक्ष में आपका गमन हो रहा है, अब धीरे-धीरे प्रकाश तो मिल रहा है लेकिन उस प्रकाश में वह आनंद नहीं है, लेकिन शुक्ल पक्ष टल चुका है। अब यह याद रखो यदि शुक्ल पक्ष का वातावरण बनाना चाहते हो तो संस्कृति दूर जो पीछे रह गयी है दृष्टिपात करिएगा, करना चाहें तो कर सकते हैं और यदि कर लिया तो संभव है कि वह लौटकर आ सकती है। दिन अस्त होने से पूर्व में ये कार्य होना चाहिए। १० योजनाएँ५५ वर्ष की हो चुकी यहाँ पर। लेकिन जैसी-जैसी योजनाएँ होती चली जा रही हैं वैसे- वैसे यहाँ पर जो शांति और समृद्धि आना चाहिए वो नहीं आयी। हम बुंदेलखण्ड से इधर की ओर आ रहे थे, भिन्न प्रान्तों में/जिलों में होते हुए आ रहे थे। उस समय ये कहा गया कि ये जो हरियाली दिख रही है हरित क्रान्ति का फल है। इन नहरों के माध्यम से सुदूर तक देखो वह हरियाली छाई है। मैंने कहा कि हरियाली को खाने वाले जानवर आज नहीं बचे। इनको तो समाप्त किया जा रहा है, तो हरित क्रांति कैसी? इसके उपरान्त श्वेत क्रान्ति लाने का और विचार है। तो श्वेत क्रान्ति कैसे आ जायेगी? श्वेत का अर्थ दुग्ध का उत्पादन आज तो सिन्थेटिक दूध आ गया, जल्दी-जल्दी चाहिए, असली दूध नहीं मिल सकता। दूध भी, आज सुनते हैं रासायनिक पद्धति से दूध बनाया जा रहा है। वितरित किया जा रहा है। कालान्तर में इसके प्रकोप होंगे, एक साथ उसके दुर्गुण नहीं आते उसके परिणाम बाद में आते हैं। जब आते हैं तब तक तो बुद्धि समाप्ति पर ही रहती है। भिन्न-भिन्न खोजों के माध्यम से आज आविष्कार हो रहे हैं जिसके माध्यम से बदल-बदल करके विष की ओर दुनियाँ को ले जाया जा रहा है। किसी समय यहाँ पर चाय को कोई भी व्यक्ति नहीं जानता था लेकिन आज तो चाय लोकप्रिय है। इसके लिए क्या किया जाता था? हमने सुना था कि पहले मुफ्त ही बांटते थे और बुला-बुला करके चाय फ्री में पिलाते थे और पीते-पीते जैसे-जैसे वह आदत पड़ गई तो फिर इसके उपरान्त आज २ रुपये में एक कप मिलती है। कई लोग अष्टमी चर्तुदशी तो कर सकते हैं लेकिन चार बार चाय पिये बिना नहीं रह सकते। पर्व के दिनों में भी ऐसे लोग आ जाते हैं। महाराज हम उपवास १० कर सकते हैं। आप आशीर्वाद दें तो चाय तो ले सकते हैं? ये स्थिति होती है। तो वह अमृत छुड़वाया है, जहर की आदत डाल दी। विष दो तरह के होते हैं- एक कड़वा एक मीठा। अहिंसा को समाप्त करने के लिए ऐसे-ऐसे बोल आपके लिए दिये जा रहे है, हिंसा ने ऐसी जड़ें पकड़ ली हैं जीवन में। उनको समाप्त करना बहुत मुश्किल हो गया है। उसकी जड़ें पाताल तक पहुँच गयी हैं, उसके संस्कार इतने घने हो गये कि हम उनको निकाल नहीं पायेंगे। जहर जब पूरे शरीर में व्याप्त हो जाता है तो भरोसा कम रखना चाहिए। चिकित्सा कितनी भी कर लो वह जहर समाप्त नहीं हो पाता। निश्चत रूप से अंत ही होगा क्योंकि जहर रग-रग में व्याप्त हो गया। अहिंसा कण-कण में थी, अब हिंसा कण-कण में अवतरित हो गयी। बाहर ही बाहर अहिंसा की बात करेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है, आपको अब कटिबद्ध होना है, श्वेत क्रान्ति, हरित क्रान्ति के लिए आप सजग हो गये थे। उसी प्रकार पशु-धन आपके इर्द-गिर्द रहेगा। पशुओं को देखने से कभी क्रोध नहीं आता, आता भी है तो तात्कालिक आता है। पशुओं के सामने कुछ भी बातें कर लो, वह सुनते नहीं है, लेकिन एकान्त में आप कुछ भी बोलते हैं, तो दीवार के भी कान हैं, ऐसा कहा जाता है। पशुओं के भी कान हैं। ऐसा किसी ने नहीं कहा कि इनके सामने कैसा बोल रहे हो। गाय के सामने कुछ भी कह दो वह आपको दूध ही देगी। आपके खिलाफ कुछ भी कह नहीं पायेगी, वह हमारे लिए शत्रु नहीं है। मनुष्य को देख कर के आप मान करते हैं, मनुष्य को देखकर आप क्रोध करते हैं, मनुष्य के खिलाफ आप मायाचार कर देते हैं, मनुष्य से लोग और कुछ कर लेते हैं। लेकिन पशुओं से चारों कषाय आप नहीं करते हैं। इसलिए पशुओं को देखकर क्रोध-मान-माया-लोभ हमारे लिए जागृत नहीं होते। बल्कि ये ध्यान रखना आपके कषाय शान्त करने में सहायक हो सकते हैं पशु। वह मित्रवत् है, वह मातृ तुल्य है, वह पिता के समान है। उसके माध्यम से कई निर्देशन आपको मिल सकते हैं। वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन का अंग माना जाता है, वह किसी मनुष्य को केन्द्र रखकर नहीं कहा गया। वत्स यानि बछड़ा और बछड़े के साथ गाय का जो सहज रूप से संबंध होता है, उससे उसका वात्सल्य का निर्माण हुआ। मतलब वात्सल्य का उत्पादन करने वाली जननी गाय है। सम्यग्दर्शन के एक अंग को ही समाप्त किया जा रहा है, फिर बाद में किसके साथ किसका क्या सम्बन्ध है वात्सल्य का अर्थ ही गायब हो जाये। गाय बैल (वृषभ) जब तक जीवित रहेंगे तब तक ही वात्सल्य अंग रह सकता है। हमारे विचार से असि, मसि, कृषि,वाणिज्य, शिल्प और विद्या ये छह कर्म हैं और ये भविष्यवाणी जब से ही है कि जब तक ये षट्कर्म हैं तब तक आपका सब कुछ चलता रहेगा, असि मसि समापन से सम्यग्दर्शन भी लुप्त हो जायेगा। वात्सल्य अंग भी समाप्त हो जायेगा। सहज रूप से करुणा, वात्सल्य, सहज रूप से प्रेम, सहज रूप से अहिंसा का दर्शन हम पशुओं से पा सकते हैं। प्रकृति कितनी भी कुपित हो जाये, किन्तु पशुओं में जो नियम हैं, उनका उल्लंघन नहीं होता है लेकिन मनुष्य कई प्रकार के परिवर्तन कर जाता है। कितने परिवर्तन कर लिए मनुष्य ने? ग्रीष्म काल की चीजें सदी के दिनों में और सदी की चीजें बरसात में लाना चाहता है। ये ही तो विज्ञान है। लेकिन इसके माध्यम से दिमाग खराब हो जाता है। प्रकृति-प्रकृति के अनुरूप चलती है। पशु-धन अनुकरण करते है। समन्तभद्र स्वामी जी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में जितनी भी उपमा दी है, वह पशुओं की उपमा दी है। अभयदान में सुअर की, भक्ति में मेंढ़क की। मनुष्य के लिए कुत्ता भी अच्छा कार्य करता है। इसलिए कहा कि पशुओं में नेचुरल रूप से स्वाभाविक परिणति रहती है। मनुष्य को आठ वर्ष के बाद सम्यग्दर्शन का नियम बनाया, पशुओं के लिए यह नियम नहीं। पशु के पास तो ऐसी क्षमता आ जाती है कि वह अंतर्मुहूर्त होने के उपरान्त सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है गर्भज हो या सम्मूच्छन कोई भी हो। सम्यग्दर्शन की शक्ति के उद्धाटन के लिए मनुष्य को ८ वर्ष अंतर्मुहूर्त चाहिए तो पशु के लिए एक अंतर्मुहूर्त आवश्यक है। कितना विकास, कितनी सहजता, कितनी धर्म के प्रति आस्था। सिंह के लिए भी ऐसा है? हाँ मनुष्य से जल्दी सिंह को सम्यग्दर्शन हो सकता है, नरसिंह की बात ही अलग है और सिंह की बात ही अलग है। घोड़े हैं कुत्ते हैं, गाय है, भैंस हैं, ऊँट, बिल्ली, हाथी सभी को यही नियम बता दिया गया। मनुष्य के लिए क्याक्या प्रबंध करना पड़ता है। मूलाचार में मुनि महाराज की चर्या को गोचरी कहा है। हाँ मुनिराज छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलने वाले हैं। उनको शिक्षा दी जा रही है कि गाय के समान चरो। घास नहीं उसकी वृत्ति रखो, वृत्ति कैसी? गाय को चरने रख दो, फिर आँख उठाकर देखती नहीं। भरते चले जाओ, पेट भर गया बस! कौन दे रहा है, कैसा दे रहा है, कोई मतलब नहीं, शान्त भाव से लेती रहती है। इसलिए मुनियों के लिए भी गोचर्यावत् अपनी चर्या करने को कहा है मनुष्यचर्यावत् नहीं कहा, क्यों? मनुष्य खाता है, खिलाने वाले को भी खाता है, मनुष्य क्या नहीं खाता। अंत में माथा भी खा जाता है, लेकिन गाय कभी भी माथा नहीं खाती है। आपके माथे के विकास के लिए मिष्ठ दूध प्रदान कर जाती है। घास फूस खा करके भी वह अपनी गोचरी चर्या करती है। ये ध्यान रखना। इसके उपरान्त एक शब्द और आता है अपने कोर्स में ‘गवेषणा' यह भी गाय शब्द से उत्पन्न हुआ है। गो से ही गवेषण होती है, यह गाय दूर तक चरने के लिए चली जाती है उसी प्रकार आप भी घर में नहीं बैठो दूर तक चले जाओ। एषणा समिति का पालन करते हुए गवेषणा करो। शुद्धि की गवेषणा करो, अशुद्धि की नहीं। शुद्ध आहार कहाँ-कहाँ मिलता है, शुद्ध चारा जहाँ तक खाने को मिले वहाँ तक चले जायेंगे। कितना भी परिश्रम क्यों न हो, वहाँ तक वो पहुँच जायेगा। गवेषणा, गोचरी वृत्ति एवं वात्सल्य ये तीन शब्द कोर्स में आज गौरवशाली हैं जो मनुष्य के लिए दिशाबोध के रूप में मंत्र का काम कर रहे हैं। गोधूलि काल को मंगल यानि गायें जब चारा चर कर गाँव की तरफ लौटती हैं उस काल को मंगल कहा है। कृष्ण पक्ष की भयंकर अमावस्या सामने हैं और पूर्णिमा बहुत पीछे रह गयी, चन्द्रमा का दर्शन अब संभव नहीं है। ऐसे पवित्र आदशों को प्रस्तुत करने वाले इन पशुओं को सरे आम कत्ल कराया जा रहा है। इन शब्दों से इतना ज्ञात होता है कि अवश्य ही पशु के माध्यम से मानव का जीवन एक प्रकार से आह्वादित हो उठता है। दया धर्म इनके माध्यम से निश्चत रूप से आगे बढ़ा जा सकता है। उसको यदि जीवित रखने का संकल्प यदि आप लोगों का है तो यह कार्य आप लोगों को तात्कालिक कर लेना चाहिए। कल का आज और आज का अभी कर लेना चाहिए। जिसके द्वारा और हानि होने वाली है, वो यहीं की यहीं रुक जाये और आगे विकास के लिए हमारे रास्ते प्रारम्भ हो सकते हैं। ५० वर्ष भले ही चले गये लेकिन आज भी यदि प्रारम्भ कर दें तो बहुत जल्दी प्रगति हो सकती है। भारत, प्रभु भजन करने वाला देश है। प्रभु का भजन करने वाला व्यक्ति हमेशा-हमेशा अहिंसा की उपासना ही करता रहता है, अहिंसा को अपना जीवन मानता है, एक-एक अंग में अहिंसा उसके फूटती है, उसी के माध्यम से उसकी जीवन चर्या आगे बढ़ती है। प्रत्येक मानव अपने ऊपर अहिंसा के ही संस्कार डालता है, तभी यहाँ जन्म लेना सार्थक माना जाता है, ये ध्यान रखो। कुल हैं स्वदेश हैं, जहाँ पर अहिंसा पाली जाती है, वहाँ पर जन्म होना बहुत कठिन माना जाता है, दुर्लभ माना जाता है। आप लोगों का जन्म हुआ तो है लेकिन अब अगले जन्म के लिए क्या भूमिका कर रहे हैं? यह आप लोग देख लो। यहीं से उत्थान होता है और यहीं से बहुत बड़ा पतन भी होता है। पतन के चिह्न देखने में आ रहे हैं, उत्थान के चिह्न बहुत कम नजर आ रहे हैं। अभी इसमें कुछ लिखा जा सकता है, उसमें कुछ किया जा सकता है। एक पल भी भारतीय होने के नाते अहिंसा की सेवा की जाती है तो पल्योपम काल तक भी वह शान्ति साम्राज्य की स्थापना की क्षमता रखती है। पल्योपम काल तक वह एक पल भी कार्यकारी हो सकता है। उस क्षण को गंवाना नहीं, जितना बने उतना कोशिश करके उसी ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
  3. विश्वविज्ञ विध वेदं वीरं वैराग्य-वैभवं। संगमुक्त यति बुद्ध, केशवं संभवं शिवम्॥ राजा और प्रजा इन दोनों का संबंध मूल और चूल जैसा है। वृक्ष के कई अंग हुआ करते हैं उसमें जो मूल अंग है मूल, जिसे जड़ कहते हैं, यह अंग पूरे वृक्ष की ताजगी के लिए हमेशा-हमेशा पुरुषार्थरत रहता है। वह मूल अंग, जड़ पाताल की ओर भी चला जाता है और उस वृक्ष की आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है। वृक्ष तो कभी फल रहित भी होता है, कभी वह पत्तों रहित रह सकता है, कभी वह और भी अंगों उपांगों के बिना भी रह सकता है, किन्तु जड़ के बिना नहीं रह सकता। ज्यों ही मूल समाप्त हो जाता है, तो उसका पूरा का पूरा वैभव समाप्त हो जाता है। यह निश्चत है, इस संबंध को जो भूल जाते हैं या जो इस संबंध से अपरिचित रहते हैं वे उस पेड़ को काटना चाहते हैं, काट भी लेते हैं और यह मान भी लेते हैं कि पेड़ समाप्त हो गया लेकिन पुन: वह वृक्ष पूर्व की भाति ज्यों का त्यों हरा हो ही जाता है। कितनी भी बार काटें तो भी वह वृक्ष पुन: फैल जाता है अपने शीतल वैभव के साथ। लेकिन जब तक मूल सुरक्षित रहता है तब तक की यह बात है। एक माली हैरान है, वह प्रत्येक दिन अपने बगीचे में जो फूल-फल के पेड़ लगे हैं, उनकी रक्षा एवं उन्नति के लिए प्रयासरत है, लेकिन एक दिन वह देखता है, सोचता है कि इस पेड़ को मैंने खाद भी समय पर डाली है, पानी का सिंचन भी किया है, उसे लहलहाने के लिए लाड़ प्यार भी उसे दिया है फिर भी कौन सा कारण है कि यह ताजगी से रहित है। इधर-उधर वह देखता है कोई कारण ज्ञात नहीं है फिर बाद में वह सोचता है कि इर्द-गिर्द देखना ही पर्याप्त नहीं है, आगे पीछे भी देखना पर्याप्त नहीं है, बाहर देखना ही पर्याप्त नहीं है, भीतर भी देखने की आवश्यकता है। हम बाहर तो देख लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमारा कर्तव्य पूर्ण हो गया। भीतर देखना भी आवश्यक है तो पेड़ के भीतर देखें। पेड़ के भीतर तो नहीं देख सकते क्योंकि पेड़ के भीतर देखने का अर्थ उसकी जड़ों की ओर देखना आवश्यक है। तो उसने थोड़ी सी मिट्टी को जो मूल के ऊपर थी उसको हटाना प्रारम्भ कर दिया और तीन-चार अंगुल नीचे की ओर चला जाता है। जाते-जाते वह वहाँ पर एक दृश्य देख लेता है, उसे विस्मय होता है और एक तरह से उसे अपनी अज्ञानता के ऊपर ग्लानि भी आती है। ओ हो! इस ओर हमारी दृष्टि नहीं जा पाई, जड़ में छोटा सा कीड़ा लगा है। वह वृक्ष कुल्हाड़ी की मार को सहन कर सकता है, करने के बाद भी हरा हो सकता है लेकिन छोटे से कीड़े का मुख से जड़ में काटना वह सहन नहीं कर पा रहा था क्योंकि वह मर्मस्थल माना जाता है। उस पर छोटा सा प्रहार जीवन को ही समाप्त कर सकता है। ऊपर से लगता कुछ नहीं है लेकिन मर्म पर वह चोट कर जाता है। छोटा सा कीड़ा वह जड़ को काटने में लगा हुआ है। ऊपर का विशाल वृक्ष भी सूखने को हो जाता है। भरी गर्मी में ज्येष्ठ मास में भी, पानी सिंचन यदि ऊपर किया जाये, नीचे न किया जाये तो भी वृक्ष सूख जायेगा और नीचे मूल में पानी का सिंचन हो जाता है, ऊपर भले न हो तो भी लहलहाता है। ये कैसा संबंध है वृक्ष का? वृक्ष को पानी पिलाओ। ऐसा करने से मैं सोचता था, कोई मुख होगा वृक्ष में जिसमें माली पिलाता होगा। टहनी को डुबोता होगा पानी में, या और किसी माध्यम से पिलाता होगा। धरती को पानी पिलाओ का अर्थ यही होता है जड़ में पानी डालना। अर्थात् जहाँ जड़ वहाँ की मिट्टी का सिंचन करना ही वृक्ष को पानी पिलाना है। वर्षा का जल यदि मूल में पहुँच जाता है तो उससे सम्पूर्ण रूप से सभी जगह हरियाली छा जाती है। उस कीड़े को उसने उठा करके अन्यत्र रख दिया और पुन: पूर्ववत् मिट्टी को पूर दिया। कल आकर के देखता है वो पेड़ खुश था नव चेतना दिख रही थी क्योंकि अब मूल में कोई वेदना नहीं थी। बाहरी वेदना कोई वेदना नहीं मानी जाती है क्योंकि बाहरी वेदना विकास के लिए कारण भी हो सकती है, हुआ करती है किन्तु भीतरी वेदना विकास में बाधक सिद्ध होती है। हमें राजा और प्रजा का सम्बन्ध क्या है? इसे समझाने का प्रयास करना चाहिए। आज चूँकि लोकतंत्र और प्रजातंत्र का समय आ गया है। तिथि गौण हो गई तारीख का साम्राज्य है, अभी ये तिथि स्वतंत्र नहीं हुई है। उस पर अभी तारीख का बोल बाला है। लोग तिथि भूल गये हैं, तारीख याद रखते हैं। तिथि भूल जाते हैं, वह अतिथि को भी भूल जाते हैं। अत: आप स्वतंत्रता की तिथि नहीं बता सकेंगे, स्वतन्त्रता की तारीख कौन सी है, (सभा से आवाज आती है १५ अगस्त) ये स्वतन्त्रता का दिन है। फिर इसके उपरान्त स्वतंत्रता दिवस का अर्थ प्रजा को जिस दिन सत्ता मिली। राजा गायब, प्रजा को सत्ता मिली। प्रजा के अनुसार कार्य होगा। ये लोकतंत्र है, बहुत अच्छा माना जाता है, लेकिन इसकी अच्छाइयाँ इसका महत्व समझे तब हो सकता है, नहीं तो नहीं। प्रजा का और राजा का जो संबंध है वह यदि मिट जाता है तो प्रजा का स्वयं का क्या कर्तव्य है? समझ लें, नहीं समझती है तो प्रजा अपने लक्ष्य को कभी पूर्ण नहीं कर सकती। वर्षों के उपरान्त भी अभी प्रजा को ज्ञात नहीं है गहरी जड़, अपने कर्तव्य/स्वतंत्रता दिवस/गणतंत्र दिवस आने के उपरान्त ध्वजारोहण आदि आवश्यक औपचारिक कार्य तो हो जाते हैं, लेकिन प्रजा एवं राजा के कर्तव्य उनके द्वारा संपादित नहीं हो पा रहे हैं। देश की संस्कृति में लहलहापन किसके माध्यम से होता है। इसके लिए कारण क्या है? क्षेत्र काल है? प्रजा/ राजा, कौन/क्या कैसे हैं? पहले हम अपने जीवन में खुशहाली लाना चाहेंगे तब बाद में ये बाहर की ओर आ जाती है। ये बाद की बात है। प्रसंग लेना चाहता हूँ कि हमारी मानसिकता में वह ताजगी आये। वह ताजगी क्या वस्तु है? वह एक-ताजगी और एकता-जगी वाली बात है। ताजगी तो चाहिए लेकिन कैसे मिले। पहले प्रजा को खुशहाली देने वाला राजा तो होता था। राजा के द्वारा वह मिलती थी, लेकिन आज स्वयं सारे के सारे राजा हो गये, सत्ता चलाने वाला एक होता था और हम शासित होते थे और काम चलता था। एक उदाहरण द्वारा हम अपने भाव को व्यक्त करते हैं। एक छोटा लड़का कहता है माँ मेरा विकास कब होगा? मैं बड़ा कब बनूँगा? मैं आसमान को कब छूऊँगा? माँ सुनती रहती है, वह बेटा कहता है मैं जो प्रश्न पूछ रहा हूँ उतर दो। माँ कहती है बहुत अच्छी भावना है बेटे! तुम्हारी भावना फलीभूत हो और आशा पूर्ण हो, पर ये ध्यान रखना बेटा! आसमान को छूना बहुत आसान नहीं है। हम समझते हैं कि आसमान को देखना ही आसमान को छूना है तो आसमान को देखना और आसमान को छूना, बहुत अंतर है। माँ कहती है तुम्हारा कार्य पूर्ण हो बेटा, मैं भावना भाती हूँ। लेकिन कब संभव है बेटा यह? जब तक मेरे भीतर (पृथ्वी रूपी माँ के अन्दर) उतरकर तुम पाताल की ओर भी अपनी मजबूती की सत्ता प्रतिपादित नहीं कर सकते तब तक आसमान को छूने की बात भूल जाना चाहिए। बात आपको समझ में आ रही होगी। वहाँ पर पेड़ बड़ा होना चाहता है, पेड़ तो बड़ा बहुत जल्दी हो जायेगा, लेकिन तूफान आयेगा तो गिर जायेगा, यदि जड़ें मजबूत नहीं हैं। लेकिन कुछ वृक्ष तूफान आने के बाद वह झुक जाते हैं, तूफान चला जाता है, तो फिर उठ जाते हैं, वह कौन उठता है, जिसकी जड़ें मजबूत होती हैं। जिसका मूल आधार मजबूत हुआ करता है। पेड़ का विकास दो तरफ से प्रारम्भ होता है, एक आसमान की ओर और एक पाताल की ओर। गहरी जड़ खाद और पानी की गवेषणा कर लेती है और वृक्ष को रस देकर हरा भरा कर देती है। इस प्रकार विकास दिन दूना और रात चौगुना होता चला जाता है। इस प्रक्रिया को न समझ पाने के कारण हम तत्व की बात नहीं समझ पाते। पहले की बात भूल जाते हैं, कारण के बिना कार्य को समझने की चेष्टा करते हैं। आपका जीवन ताजगी मय क्यों नहीं है? उसका कारण यही है ऊपर ही ऊपर आप सींचते चले जा रहे हैं। उसका मूल ही समाप्त हो गया। जो राजा का काम करने वाला था, वह राजत्व गुण खो बैठा है। आज प्रजा भी अपना प्रजापन खो चुकी है। अत: यथा राजा तथा प्रजा वाली कहावत समाप्त कर देनी चाहिए। जैसे मेघ ऊपर आते हैं तो किसान ये कहता है आजा-आजा। क्या आ जाये? और वर्षा हो भी जाये तो भी कुछ होने वाला नहीं है। यदि खेती हम ठीक नहीं रखेंगे, बादल आने से क्या मतलब निकलता है? बताओ। खेती यदि आपकी ठीक है, समय पर बीजारोपण है, अच्छे बीजों का वपन है, तो निश्चत रूप से जब कभी भी वर्षा होगी, फसल लहलहायेगी। इन घोषणाओं के माध्यम से फसल नहीं आने वाली, सो विचार करो। समय-समय पर यदि आप अच्छे कार्य करते चले जायेंगे तो आपके लिए वह शपथ ग्रहण सार्थक है और आप लोगों ने बिठाया है नेता पद पर लेकिन चुनावी प्रक्रिया में कहा जाता है कि ये चुनाव में खड़े हैं। खड़े होना पड़ेगा चुनाव में। बैठकर के चुनाव नहीं किया जा सकता है, धीरे-धीरे खड़े होना पड़ता है। जिसके पास दो पैर नहीं है, उसे भी चुनाव के लिए खड़ा ही होना पड़ेगा, ये नियम है। इसका अर्थ ये होता है कि जो खड़े होने का नियम नहीं रखता वह व्यक्ति प्रजा के लिए अथवा आप लोगों के लिए क्या कर सकता है? लेकिन ये बातें सब पुरानी होती चली गई कि हमारा क्या कर्तव्य है? किस दिशा में अपन को कार्य करना है? ५० वर्ष हो गये, लेकिन ध्यान नहीं जा रहा है। प्रजा सत्तात्मक का अर्थ यही होता है कि प्रत्येक की निष्ठा भी होनी चाहिए कि मैं अपनी ड्यूटी, अपने कर्तव्य का निर्वाह करूं। किस दिशा में मुझे कार्य करना है? स्व का कार्य हो जाये पर्याप्त है। प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कार्य करता चला जाये, पूरा कार्य हो जायेगा, इसी को बोलते हैं, प्रजासत्तात्मक चिह्न और वह राष्ट्र अन्य राष्ट्रों से अवश्य आगे बढ़ेगा लेकिन वह आगे नहीं बढ़ रहा है, अभी ५० वर्षों के उपरान्त भी। अपने लिए ऋण लेने की आवश्यकता पड़ रही है, योजनाएँ बन जाती हैं लम्बी चौड़ी लेकिन उसकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं और क्यों नहीं कर पाते? एक व्यक्ति के मुख से हमने सुना था। भले ही वह व्यंग्य होगा-अभी पंचवर्षीय योजनाओं में जो राशि निर्धारित की जाती है उसका चार आना भी अच्छे ढंग से उपयोग नहीं हो पाता। पंचवर्षीय योजनाओं के लिए ही चुनाव है? काम करने के लिए नहिं? वित्तमंत्री की आवश्यकता है बजट बनाने के लिए? जो अपने घर का या स्वयं का बजट पूर्ण नहीं कर पा रहा हो वह देश के बजट को बनाये तो कैसे काम चलेगा? बजट बनाने से कोई काम नहीं चलेगा, उसकी पूर्ति भी आवश्यक है। लम्बी चौड़ी योजनाएँ हम बना लें, लेकिन उनकी कार्य रूप परणति न कर पायें, तो उन योजनाओं से कोई मतलब नहीं है। प्रयोजन किस दशा में है? योजनाओं का काम क्या है? मूल आवश्यकताओं को पहले प्रबंध कर दीजिए। जैसे मैं पूछता हूँकि टिनोपाल का पहले प्रबंध करना चाहिए या पहले साबुन सोड़ा का? कपड़े को साबुन से धोया नहीं, साफ किया नहीं और टिनोपाल देने से क्या प्रयोजन? अच्छे ढंग से, गंदगी दूर होने के बाद टिनोपाल कार्यकारी है, वह बाद का कार्य है। स्टेण्डर्ड का कार्य चाहते हो, पहले स्टेण्ड तो हो जाओ। खड़े होने की हिम्मत नहीं और कहते हैं कि हमें स्टेण्डर्ड चाहिए। केवल बाहरी दृश्य की ओर जा रहा है मानव! पहले ये नहीं होता था। मूल के ऊपर दृष्टिपात होता था और इस ढंग से प्रजा का पालन हुआ करता था और आज स्वतन्त्रता के बाद भी प्रजा का पालन नहीं हो रहा है क्योंकि प्रजा पालन के लिए पालक की आवश्यकता है, दूसरी बात बालक अपने आपको पालक मान रहा है। प्रत्येक व्यक्ति पालक बनने की सोच रहा है। अब बालकों का दर्शन ही नहीं होता। सभी जगह पालक-पालक बनने की होड़ लगी है। इसलिए आज के पालक, पालक की साग सब्जी जैसे बन गये। ये प्रजा की सत्ता हो गयी, अब पालन किसका करना, सब अहमिन्द्र/इन्द्र हो गये, हम क्या कम हैं? बस ये ही कहते चले जाओ। कम कोई नहीं है। अधिक कौन है? भगवान् जानते हैं। बड़े कौन हैं? प्रजा राजा का संबंध पवित्र था, आज भी रहना चाहिए। इसका रूप भले बदल गया हो किन्तु जो व्यक्ति जिस स्थान पर नियुक्त किया गया है, वो व्यक्ति अपने ढंग से पालन/अनुशासन कराये तो बहुत कम वित में ही बहुत बड़ा काम हो सकता है लेकिन वह नहीं हो पा रहा है। ध्यान रखना, केवल अर्थ विकास से हम व्यवस्था पूर्ण कर लें ये संभव नहीं किन्तु परमार्थ के साथ यदि अर्थ का प्रयोग करते चले जायें तो अवश्य इसका बहुत बढ़िया काम हो सकता है, इतना खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं। पानी सिंचन के लिए एकाध लोटा सिंचन कर दो, पूरा का पूरा वृक्ष हरा हो जायेगा, लेकिन मूल यदि हरा है तो ये काम हो सकता है। मूल तो सूखता चला जा रहा है, बाहरी पानी का अंश शीघ्र समाप्त हो जाता है और भीतर से पानी पा लेता है, उसके लिए कुछ दिन तक पानी नहीं भी दिया जाये और ऊपर से सूर्य प्रकाश की तपन मिले तो भी वृक्ष हरा भरा रह सकता है और टिका हुआ रहता है और आप चले जायेंगे उसकी छाया में तो वह शीतलता प्रदान भी करता है। एक पौराणिक घटना आपके सामने मैं प्रस्तुत करता हूँ। वह कहाँ तक घटित होती है वर्तमान युग में यह हमें सोचना है। हमारे जो कुछ भी कदम हैं वह गलत दिशा में जा रहे हैं। हम अपने स्टेण्डर्ड के लिए बहुत कुछ वित्त खर्च कर रहे हैं, उसका उपयोग कहाँ तक है, ये भी देखना है, कभी-कभी करना भी पड़ता है लेकिन हमेशा ही करना पड़े ऐसी कोई बात नहीं। कभी-कभी कर लें तो चल सकता है - एक राजा ने अपनी प्रजा से सीधे-सीधे कर न लेने की अपेक्षा बहुत सारे पहलू के द्वारा कर ले लिया वस्तु स्थिति ये थी। प्रजा तो ठीक चल रही थी लेकिन राजा को पैसे की कमी पड़ती थी, वो येन-केन-प्रकारेण प्रजा से वित्त को लेना चाहता था। सीधे तो राजा धन ले नहीं सकता अत: पहले एक शर्त रखी और कहा कि देखो ये तुम सब लोगों को पूर्ण करना पड़ेगी, यह नहीं करते हो तो ये कर देना पड़ेगा। प्रजा के सामने समस्या खड़ी हो गयी, इसको देखकर के सोचते हैं क्या करें? राजा की आज्ञा है, नहीं करते हैं तो दण्ड के रूप में प्राण दण्ड भी मिल सकता है। व्यक्ति उस समय घबरा गये। सोचने लगे। अब तो हम बच नहीं सकते? एक बुद्धिशाली व्यक्ति ने पूछ लिया कि आप लोग घबरा क्यों रहे हो? समस्या क्या है? प्राण दण्ड के लिए समस्या है, येन-केन-प्रकारेण इसका हल करना संभव नहीं है। वह व्यक्ति पूछता है कि क्या बात है? बताओ तो सही! जनता ने कहा कि राजा का कहना है कि यह जो बकरा है एक माह बाद भी इसका वजन ३० किलो रहना चाहिए। कम हो जाये या बढ़ जाये तो भी नहीं चलेगा, यथावत् रहना चाहिए। ऐसा राजा का कहना है। कम बढ़ तो हम कर सकते हैं, थोड़ा कम बड़ खाने देंगे। क्या करें? अब तो मरना है। हमारे सामने यही समस्या है। वह सज्जन बोले- घबराओ मत इसका भी जबाब है। प्रश्न है तो उत्तर अवश्य है। कई लोग उत्तर की समस्या में डूब जाते हैं। जिसके पास प्रश्नों का कोष है, तो उसका ज्ञान विकास की ओर होगा। जो व्यक्ति प्रश्न उठा सकता है तो उत्तर भी होगा। आज आप लोगों की खोपड़ी प्रश्न हीन हो गयी। उत्तर की ओर देखते हैं। जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे, गुरुजी गणित देते थे तो उत्तर की तरफ हम देखते थे और धन करना है, गुणनफल करना है इसका हमें कोई मतलब नहीं। बस कापी से उत्तर देखकर लिख देते थे। लेकिन ऐसे नम्बर नहीं मिला करते हैं। नकल के लिए भी अकल चाहिए। इसलिए शुद्ध लेख की परम्परा आयी, तुम देखकर के लिखी गलत हो गया तो नम्बर कटेगा। हाँ होशियारी के साथ लिखो, नकल से नहीं। बुद्धि विवेक के साथ लिखी। कहाँ, क्या, किस विधि से करना है? समस्याओं में कभी चिंतित मत होओ। उस सज्जन ने कहा-इस बकरे को ४-४ बार अच्छी तरह खिलाओ। गादी के ऊपर उसको सुलाओ, भाग्य खुल गया। उसको घास मत खिलाओ, दूध, घी खिलाओ दिन भर खिलाना, रात भर सुलाना, लेकिन ध्यान रखना उसके बाजू में दो सिंह के पुतला बना देना। बस सब कार्य ठीक हो जायेगा। पुतले हू-बहू शेर जैसे लगने चाहिए। एक माह हो गया और बकरे को लेकर एक माह बाद वह गया और कहा जितने किलो का यह बकरा था, वह उतना ही है, इसे संभालो। राजा सोचता है कि यह तो हमारे से भी आगे के निकले इन्हें फंसाने की/ अपने अंडर में लाने की बात सोची थी लेकिन इन्होंने प्रश्न का उत्तर दे दिया। हमारे से भी आगे के निकले। राजा ने पूछा कि यह वही बकरा है, कि दूसरा है। आप ही पहचान कर लीजिए। राजा ने पूरी की पूरी पहचान कर ली, ज्ञात हुआ कि यह वही बकरा है। द्रव्य की ओर देखते हैं, तो वही मूल का ज्ञात होता है। द्रव्य पहले भी वही था और आगे भी वही रहेगा। बदलता सा लगता है, लेकिन वो बदलता नहीं, मूल में वह ज्यों का त्यों बना रहता है। यह द्रव्य का स्वभाव है। इतना विकास हो गया कि ऐसा लगता है जैसे आप लोग कहते हो कि यह वस्तु पहले १० रुपये में आती अब १०० रुपये में आने लगी ऐसा समझते हो कि दाम बहुत बढ़ गये। भाव नहीं बढ़े यदि दूसरी तरफ अर्थात् वेतन की तरफ देखें तो आज ३० वर्ष पूर्व में कोई १०० रुपये वेतन पाता था, आज वही ५००० पा रहा है। यानि ५० गुना आ गया क्योंकि ३० वर्ष पूर्व में १०० रुपये में १ तोला सोना मिलता था, आज तो ५००० रुपये में एक तोला मिलता है। ३० वर्ष पहले भी एक तोला और आज भी एक तोला आता है। महंगाई कहाँ बढ़ी? पहले द्रव्य को पकड़ने का प्रयास करो, पदार्थ की ओर मत देखो। यही स्थिति बकरे के सम्बन्ध में है। खाने से मोटा और खाने से पतला होता है, ऐसा नहीं। उसका मापदण्ड अलग है। राजा कहता है मैं तुम्हारे से प्रसन्न हूँ। पहले तुम ये बताओ तुमने एक माह में ३० किलो वजन ज्यों का त्यों कैसे रखा? खिलाया क्या? खूब खिलाया, मोटा ताजा क्यों नहीं हुआ? ये ही तो रहस्य है राजन्! राजा ने कहा कम से कम ये रहस्य तो बताओ, इसका भार ज्यों का त्यों कैसे रखा? कोई महाराज जी के पास तो नहीं गये थे, कोई जादू टोना तो नहीं किया था। जनता ने कहा- संत भी इस कार्य को नहीं कर सकते राजन्! क्योंकि कार्य तो उपादान की योग्यता पर हुआ करते हैं, उस बकरे के पास उपादान की योग्यता है। वह सज्जन उस बकरे को चार बार खिलाते थे। उससे जितना खून बढ़ता था सामने बंधे हुए शेर को देख उतना ही खून उसके डर से सूख जाता था। ये ही तो राज है राजन्! बकरे को सन्तुलित रखने का रहस्य राजा समझ नहीं पाया। केवल वित्त आ जाये, कोश समृद्ध हो जाये, यह वणिक बुद्धि जिस राजा के पास है, उसके द्वारा राज्य नहीं चल सकता। ध्यान रखो, पूरी-पूरी सम्पदा यदि राजकोष में चली जावे तो भी संभव नहीं। आज के नेता अच्छे ढंग से कार्य करे, ऐसी आशा कम है। प्रजा अपने कर्तव्य करती चली जावे तो भी राज्य का कोश अपने आप समृद्ध नहीं होगा क्योंकि दुराचरण रूपी शेर सामने बंधा है। किसान की कमाई को आज देश में बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार सब निगलता जा रहा है। बकरा खा लेता फिर प्रसन्नता के साथ इधर-उधर देखता है तो डर जाता है। अड़ोस-पड़ोस/आजू-बाजू के ऊपर आधारित है। तराजू आजू-बाजू के ऊपर आधारित है। उस रहस्य को कोई देख नहीं रहा है, समझ नहीं पा रहा है। इतनी जल्दी विकास और इतनी जल्दी विनाश। ये तो हाथ की बात है। एक दिन हाथ मिलाते हैं/शपथ समारोह होते हैं, समर्थन देते हैं, दूसरे दिन मित्रता समाप्त, समर्थन वापस। कैसे चलेगा यह देश? देश में चुनाव होते हैं, लोग सोचते हैं, नई सरकार देश को समृद्ध करेगी लेकिन सरकार को तो चौबीस घंटे कुर्सी बचाने का डर लगा रहता है। त्रिशंकु सरकार की समर्थन की वापसी कब हो जाये कहा नहीं जा सकता। अविश्वास प्रस्ताव रूपी शेर देश की योजनाओं को पुष्ट नहीं होने देता है। योजनाएँ बनाने मात्र से कोई विकास नहीं होता। परमार्थ हीन अर्थ की ओर जितनी दृष्टि रहेगी, उतनी ही देश में अराजकता/भ्रष्टाचार फैलेगा, अनर्थ होगा। संस्कृति विनाशक/अनर्थकारी अधिक अर्थ किस काम का? ऐसा वह गहना किस काम का जिससे नाक-कान कट जाये? ज्यादा अर्थ किस काम का जो जीवन की शांति भंग कर दे? ज्यादा वित्त आयेगा, मद/अहंकार होगा, अनेक प्रकार के बुरे भाव होंगे, इसलिए दान पुण्य की व्यवस्था हमारे आचार्यों ने बनाई है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो बचता है, उसे दे दिया। कितना रखा है? संस्कृति रक्षा एवं परोपकार में धन को लगाना चाहिए, इसी का नाम तो रामराज्य है। जितना मशीन में आवश्यक है उतना दे दो न। इतना संग्रह, इतनी महत्वाकांक्षा की क्या आवश्यकता है? इसलिए भारतीय संस्कृति के अनुसार नीति हैं "मोटा खाओ, मोटा पहनो और विचार अच्छे रखो।" गाँधी जी ने दो पंक्ति याद रखी थी "सिम्पिल लिविंग एण्ड हाई थिकिंग"। आज उलट गया 'हाई लिविंग नो थिकिंग” कोई विचार की आवश्यकता नहीं। आज विचार निम्न होते जा रहे हैं। खाओ, पीओ, मस्त रहो बस! क्या जमाना आ गया? ये ही स्वतन्त्रता है? नहीं। आत्मा का स्वभाव जानना देखना है। हमें विचार करने की क्षमता प्राप्त नहीं है, तो अपने स्वभाव को कैसे जानेंगे, देखेंगे और कैसे राम/महावीर बनेंगे? कैसे हम हनुमान जैसे बनेंगे? हम उस कुल के उस वंश की परम्परा में लगे हुए पेड़ पौधे हैं, लेकिन आज समझ में नहीं आता किस ओर बहना चाह रहे हैं? लोग बहते जा रहे हैं, पता तक नहीं हम कितने बहकर आ गए। ५० वर्ष के बाद भी हम समझ नहीं पा रहे हैं, कि क्या स्वतन्त्रता है, क्या सत्ता है? और क्या उन्नति है, क्या अवनति है? ये नहीं समझ पाये, जीवन यूँ ही आया और चला गया। प्रवाह आया और बह करके चला गया। बाढ़ आ गयी और सद्विचारों को बहा करके चली गयी। सत्य क्या है? स्वभाव क्या है? ये अपने को समझने थे, इसीलिए यह स्वतन्त्रता थी। उस बकरे के माध्यम से राजा को समझ में आ गया कि बाधक साधनों से भी बचना आवश्यक है। यदि इर्द-गिर्द बाधक साधन हमेशा बने रहते हैं तो हमारे उपाय किसी काम के नहीं है। कितना भी आप करो इसका कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है। वहीं के वहीं हम रहेंगे। यदि विकास चाहते हो, तो सही दिशा में विकास करो। जिसमें विकास के लिए अर्थ की आवश्यकता है, उतना तो रखो। जिस अर्थ से हमारा परमार्थ, संस्कृति, हमारा धर्म, हमारा कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं तो उससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए उसके बिना भी चल सकता है। कम है ऐसा मत समझो। उसी में काम चल सकता है तो काम चलाना चाहिए, ये ही एकमात्र विवेक माना जाता है। यहाँ ज्ञान की आवश्यकता नहीं किन्तु विवेक की आवश्यकता है। तीन शक्तियाँ हैं हमारे पास। उम्र के हिसाब से वह अपने आप में परिवर्तन लाती हैं, कम उम्र में भी बहुत कुछ विवेक जागृत हो सकता है, किन्तु सबसे ज्यादा बढ़ोतरी होती है तो वह इच्छा शक्ति की होती है। वह २५ साल तक कायम बनी रहती है, धीरे-धीरे ३० साल तक वह घट करके अपने रूप में वह उभर करके आ जाती है, फिर इसके उपरान्त विकास हो जाता है, तो वह समय होने के उपरान्त विवेक जागृत हो जाता है। "नियर अबाऊट फोर्टियस" लगभग ४० तक आना चाहिए तब कहीं जा करके विवेक जागृत होता है। किसी-किसी को संस्कार के कारण, वंश परम्परा के कारण या अड़ोस-पड़ौस के प्रभाव के कारण कम उम्र में भी विवेक जागृत हो जाता है। हमें ज्ञान की नहीं, विवेक की आवश्यकता है। ज्ञानचंद नहीं बन सकते तो विवेकानंद अवश्य बन सकते हैं। विवेक का अर्थ भेद-विज्ञान होता है, अपना और पराया। विवेक का अर्थ होता है, अच्छा और बुरा। विवेक का अर्थ होता है, कौन साधक है, कौन बाधक है। इस प्रकार का विवेक जागृत होता है। तो बाधक को छोड़कर के साधक को अपनाने की कला अपने जीवन में आ जाना ही जीवन का एक प्रकार से नया कदम माना जाता है। इसी को उन्नति कहते हैं और उसी के माध्यम से सुख और शांति मिल जाती है। ये सब साधन हम लोगों को पूर्व भव के पुण्य के माध्यम से मिले हैं, उसी के अनुसार हम लोगों को चलने का प्रयास करना चाहिए। राजा को समझ में आ गया कि मैंने प्रजा को बिना प्रयोजन सताने का प्रयास किया। मेरा राज्य तो विवेकशील जनता के माध्यम से ही शान्ति का अनुभव करेगा। आज उस तरह के व्यक्तित्वों की आवश्यकता है।
  4. जैसा बीज बोया जायेगा, वैसा ही फल प्राप्त होगा, यह नीति है। इस पर प्रत्येक का विश्वास है। फिर भी अज्ञान दशा में ऑख बन्द करके बीज बोया जाता है और ऑखें खोल कर फल खाया जाता है। फल जब खाता है उस समय हर्ष और विषाद करता है। जो मीठा फल होता है उसका आनंद/उत्साह के साथ सेवन करता है, जब कड़वा फल मिलता है तो कहता है मुझे नहीं चाहिए, मुझे ऐसा क्यों दिया गया? ऐसी धारणा उसकी बन जाती है। अज्ञान दशा में बोया हुआ बीज जब फलता है, तब आँखें भर आती हैं। 'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह निश्चत है, चाहे गरीब हो/अमीर हो, राजा हो या रंक हो, नर हो या नारी हो, गृहस्थ हो या संत हो। प्रत्येक के लिए यह अनिवार्य होता है कि किए हुए कर्म का फल उसे भोगना ही पड़ता है तो उसमें आगे-पीछे क्यों देखा जाये? और क्यों सोचा जाये? यदि उससे दूर होना चाहते हैं तो बीज बोते समय सोच लेना चाहिए। कर्म रूपी बीज बोने का कोई समय नियत नहीं होता है, इसे समझ लें और हर समय जागृत रहें। बोने का कार्यक्रम प्रतिपल चल रहा है। जब वह भोजन कर रहा है, तब भी बीज बोया जा रहा है। कर्म का नया बीज बोता है, उसी समय में पुरानी फसल काटता भी चला जाता है। फसल की कटाव और बीज का वपन होना इन दोनों में एक क्षणवर्ती पर्याय बनकर कर्म बंध एवं निर्जरा की प्रक्रिया चलती रहती है। बोया तो अच्छा है, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि काटते समय पश्चाताप होता है। अच्छा बोया जाता है, फिर भी फसल अच्छी नहीं आती और उसमें भी बुरा फल निकलता है। बोने के उपरान्त उसमें कलम पद्धति और चालू हो जाती है। पेड़ आया और उससे कलम पद्धति से दूसरा स्वाद लेना चाहें तो ले सकते हैं। इस प्रकार कर्मों के बोने में और फलानुभूति में भी अंतर आ जाता है। अच्छे भावों के साथ बोये थे, किन्तु बीच में भाव बुरे हो गये तो अच्छे भी बुरे के रूप में परिणत हो जाते हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बुरे बोए जायें और अच्छा फल मिल जाये, लेकिन वह बहुत कम होता है। ज्यादातर तो बुरे का बुरा ही फल मिलता है। बुराई का अच्छाई के रूप में संक्रमण कम होता है अच्छाई का बुराई के रूप में संक्रमण होने में देर नहीं लगती। बुराई का अच्छाई के रूप में संक्रमण होने में बहुत पसीना बहाना पड़ता है। आहार के लिए निकले हैं ऋषभदेव महाराज, अभी भगवान् नहीं हैं, भगवान् बनने के पथ पर हैं। यह बात अलग है, अभी भी वे महाराज हैं, पूज्य पद है और भोजन के लिए निकले हैं, किन्तु उनका भोजन नहीं हुआ है। क्यों नहीं हुआ? संभवत: आप लोगों ने विनय पूर्वक भोजन नहीं कराया होगा। महाराज हम तो तैयार थे पर वो क्या चाहते थे, हमें मालूम नहीं हुआ। एक दिन नहीं हुआ, २ दिन नहीं हुआ ऐसे छह माह निकल गए। क्यों निकल गए? आहार क्यों नहीं हो पाया? "अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार" तीन लोक के नाथ बनने वाले हैं और ऐसी अद्वितीय उनकी प्रतिमा/दिव्य शरीर हैं, जिसमें कोई झुरिया नहीं पड़ती, जिनका शरीर सूर्य की भाती चमकता है, जिस रूप को तीन लोक के प्राणी एक टक देखते रहने से भी तृप्त नहीं होते। ऐसा विश्व का कल्याण करने वाला नेता आहार को निकले और आहार ना हों, यह कैसी बात है। इतना तेज पुण्य है। ऐसा पुण्य तो किसी का नहीं होगा जो वृषभनाथ भगवान् का था। जिनके चरणों में सेवा करके इन्द्र अपने को धन्य- धन्य कृतकृत्य मानता है, जिसके संकेत मात्र से कुबेर अयोध्या की रचना करता है। ऐसा इन्द्र जिनके चरणों में रहता है, जीवन में आदि से अंत तक लेकर, गर्भ में आने से पूर्व में ही सारी की सारी व्यवस्था जिसने संभाली थी, ऐसा व्यक्तित्व है, ऐसा तेज पुण्य होने के उपरान्त ऐसा क्यों हो रहा है? ‘अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' आपको थोड़ा विलम्ब हो जाये भोजन में तो थाली ही चक्र बन जाती है। ऐसी भूख प्यास छह महीने तक कैसे सहन करते रहे? छह महीने के बाद उठे थे। छह महीने तक तो उन्होंने उठने का उपक्रम भी नहीं किया, तथा छह महीने तक उन्हें आहार नहीं मिला। ‘कर्म फल' ये प्रत्येक व्यक्ति की हिस्ट्री प्रस्तुत करते हैं। कर्म इतिहास साक्षी हैं, प्रमाण हैं। इतिहास में क्या कब किया पता नहीं चलता। कई लोग पूछते हैं कि हमारा भविष्य बता दो तो मैं कहता हूँ जो वर्तमान में कर्म का उदय आ रहा है वही अतीत है और जो आज वर्तमान में कर रहे हो वही भविष्य है। कोई काल के द्वारा मिलने वाला नहीं, जो भीतर बंध रहा है, उसी के द्वारा फल मिलने वाला है। वह भविष्य के ऊपर डिपेण्ड करता है। ये इतिहास है किसी को भूखा रहना पड़ रहा है, किसी को प्यासा मरना पड़ रहा है। यह एक इतिहास है किसी को दुख हो रहा है, किसी को सुख मिल रहा है। गत रविवार में एक इतिहास हुआ था और यह जो वर्तमान रविवार है इसका भविष्य क्या होगा, इसकी प्रतीक्षा है। कोई काल के द्वारा फल नहीं मिलता। एक ऐसी रील, द्रव्य-क्षेत्र-कालभव-भाव की मर्यादाओं के अनुसार चलती रहती है। कुछ परोक्ष होता है, कुछ प्रत्यक्ष आ जाता है, परोक्ष में बंध होता है क्योंकि बंध की प्रक्रिया हमारे दिमाग की बात नहीं है। दिमाग के द्वारा बंध तो होता है, लेकिन दिमाग का वह विषय नहीं बन पाता। सत्य को नकारा नहीं जा सकता। इस सत्य को पहचानने की कोशिश करना चाहिए। जो प्रतिपल बोया जा रहा है वह आगे भविष्य का निर्माण करने वाला होता है। कई लोग कहते हैं महाराज ऐसा आशीर्वाद दे दो ताकि मेरा भविष्य ब्राइट हो, अच्छा/प्रकाशमय हो। कैसी विचित्र बात है। वर्तमान में अंधकार में रहें और माँग करें ब्राइटनेस की। ऐसा क्यों हो रहा है? इसे ज्ञात नहीं है कि मैं अपने भविष्य का निर्माता स्वयं हूँ और वर्तमान में अज्ञान के साथ कर्म कर रहा हूँ तो अज्ञान रूपी अंधकार मिलेगा, और ज्ञान के साथ कर रहा हूँ तो ब्राइटनेस अवश्य प्राप्त होगा। मेरी आँखों के ऊपर कोई भी पर्दा डाल नहीं सकता, ये विश्वास जिसको होता है, वो भविष्य की चिन्ता नहीं करता है। जो अतीत में कुछ किया है वो मुझे फल न मिले ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें एक युक्ति अवश्य है अतीत में यदि किया है तो उसको परिवर्तित किया जा सकता है, वर्तमान की लाईट में ये कार्य किया जा सकता है, अज्ञान दशा में किया हुआ कार्य ज्ञान दशा में समाप्त किया जा सकता है, एक हद तक/एक सीमा तक। पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु हद तक आना भी एक बहुत अच्छा कार्य माना जाता है। कुछ न कुछ परिवर्तन संभव है, लेकिन यह तब संभव है जब हम रहस्य को समझ सकें। ऐसा नहीं, कार्य पूर्ण कर लो फिर उस कार्य को परिवर्तित करना चाहो तो संभव नहीं । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव के अनुसार ही ये परिवर्तन संभव है। अतीत में क्या-क्या कर आये हैं? इसका कोई भी अंत नहीं है। कब से करते आये हैं? इसका भी कोई अंत नहीं है। क्या करते आये हैं? इसके बारे में बताने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि जो वर्तमान में फल मिल रहा है अच्छा/बुरा यह अतीत का ही किया हुआ है। उठते हैं आहार के लिए ऋषभदेव, यह निश्चत है भूख लगी है, भूख मिटाने का इरादा है और सामग्री भी सामने है, लेकिन सामग्री मात्र जुटाने से भूख नहीं मिटती। भूख-भूख कहने मात्र से भूख नहीं मिटती। माँगने से बहुत जल्दी मिट जाती, यह भी गलत है। माँगने वाला माँग सकता है, देने वाला दे सकता है हाथ में। अपने हाथ से दिया जा सकता है और माँगने वाला व्यक्ति मुख तक ले आ सकता है और भीतर पहुँचने को है और चबाते-चबाते भी चाब बंद हो जाती है। देखते-देखते जीवन लीला समाप्त हो सकती है और कभी-कभी कोई व्यक्ति मरते-मरते नहीं मरता है। कब से देख रहे हैं पलंग पर पड़ा-पड़ा बेहोशी में जी रहा है। भेजना चाहे तो भी नहीं भेज सकते हैं, रोकना चाहेंगे तो भी रोक नहीं सकते, देना चाहें तो भी दे नहीं सकते, लेना चाहें तो भी ले नहीं सकते। यह बात प्रत्येक पल घटित हो रही है, प्रत्येक पल महसूस करने की बात है और वह महसूस करने की प्रक्रिया चालू हो गई एक दो दिन करके इस तरह छ: माह निकल गये, सब लोगों को यही विचार आ रहा है कि क्या हो गया? क्यों नहीं हो रहा है आहार ऋषभ देव का? क्या चाहते हैं? सुनते हैं कि ऋषभनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से आज ये भारत विख्यात है, सुनते ये भी हैं सर्वार्थसिद्धि से अवधिज्ञान को लेकर उतरे थे, जब अवधिज्ञान है तो अपने आप सोच सकते हैं, कि पिताजी ऋषभनाथ जब आये हैं तो ये क्या चाहते हैं? क्यों आये हैं? और बार-बार क्यों आ रहे हैं? प्रतिदिन कोई संकेत नहीं कर रहे हैं, कोई अंगुली का इशारा भी नहीं, मुड़कर देखते भी नहीं, सामने जाने के उपरान्त कुछ देखते नहीं, सामने से ऐसा लगता है हमारी ओर आ रहे हैं और सीधे चले जाते हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? कुछ तो होना चाहिए संकेत? अवसर्पिणी काल है, थोड़ा संकेत तो होना चाहिए। लोगों को दुविधा में मत रखा करो। हम तो तुच्छ प्राणी हैं, आप तो बड़े हैं, कम से कम इतना तो होना चाहिए। इशारा काफी हो जाता है, हम सब कुछ प्रबंध कर देंगे लेकिन इशारा कुछ नहीं होता है, न मौन तोड़ते हैं, न इधर-उधर देखते हैं। छह माह बहुत हो गये। आधा वर्ष हो गया सर्दी से गर्मी आ जाती है, एक अयन समाप्त हो जाता है, वैशाख शुक्ला तृतीया आखातीज यानि अक्षय तृतीया आ गई। आज वह पुनरावृत्ति समाप्त हो गई, किसके माध्यम से हो गई? भरत -बाहुबली के माध्यम से, नहीं। श्रेयांस राजा था, चारण ऋद्धिधारी मुनिराज को पूर्वभव में आहार दान कराया था, और आहार दान सीधा नहीं होता है, आहार दान की प्रक्रिया अपने आप में अलग होती है। उसकी शुरूआत उसका अंत कहाँ से होता है? आप लोगों को ज्ञात रहना चाहिए। चक्रवर्ती को ज्ञात नहीं रहा, संस्कार की बात है, ऐसे संस्कार भी नहीं होंगे उनके। नहीं तो अवश्य ही वह स्वप्न आ जाता चक्रवर्ती को, बाहुबली को और भी सेनापति आदि किसी को स्वप्न नहीं आया, राजा श्रेयांस को स्वप्न आया। हाँ, ये बात हो गयी भगवान् ने डायरेक्ट काम नहीं किया। स्वप्न से याद दिलाया, ये अच्छी युक्ति है, ऐसा आप लोग सोच सकते हो। लेकिन ध्यान रखना यह जैन धर्म है, इसमें साधु को कृत/कारित/ अनुमोदना से त्याग करना पड़ता है। वह स्वप्न राजा श्रेयांस को अपने पूर्व भव के संस्कारों से आया था। संस्कार अपने आप उभर कर आ जाते हैं। 'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह फैक्ट है, केवल पात्र का ही अंतराय होता है, ऐसा नहीं है। अंतराय कर्म का उदय दो के बीच में आता है, दाता और पात्र इन दो के बीच में आता है। अंतर एक में नहीं पड़ता, अंतर पड़ता है, वह दो के बीच में ये रहस्य माना जाता है। बिना पात्र के दाता का क्या उदय चल रहा है? ये ज्ञात नहीं होता है और बिना दाता के पात्र का क्या उदय हुआ है? यह भी नहीं जाना जाता है। लेकिन एक पक्ष हमेशा रोता है, एक पक्ष बिना रोये वहाँ से जल्दी-जल्दी निकलकर आ जाता है। एक पक्ष साक्षी बनकर रह जाता है, एक पक्ष साक्षी नहीं बन पाता, वह कहता है, हमारा महान् कर्म का उदय है। यह कौन-सा कर्म? इसका कार्य क्या है? उमास्वामी तत्वार्थ सूत्र में कहते हैं- 'विध्नकरण मंतरायस्य' अच्छे कार्यों में विध्न आना यह अंतराय कर्म है। बुरे कार्यों में विध्न डालना, वह विध्न नहीं, किन्तु वह अच्छा कार्य माना जाता है। बुरा कार्य रुक जाये और अच्छे कार्य चालू हो जायें वह विध्न नहीं माना जाता-तो ‘श्रेयान्सि बहू-विध्नानि' अच्छे कार्यों में ही विध्न आया करते हैं। व्यक्ति के सामने वह कर्म नो-कर्म के रूप में उपस्थित हो जाता है, यह देखने में नहीं आता। राजा श्रेयांस को संस्कार के कारण स्वप्न पड़ा, स्वप्न के बाद वह सोचने लगे अरे बड़ी भूल हो गयी। छह महीने तक मुनिराज आये और चले गए और वो क्या चाहते हैं ज्ञात नहीं है। वह सोचता है कि हम लोग सब कुछ दे रहे हैं लेकिन नवधा भक्ति से नहीं दे रहे हैं। इसलिए प्रभु आते हैं और बिना कुछ लिए चले जाते हैं। यहाँ पर कुछ बातें विचारणीय हैं। पहली बात तो श्रावकों की गलती है कि वह नवधा भक्ति भूल चुके हैं उस भूल के कारण अहार नहीं हुआ छह माह तक। इस छह माह तक क्यों ध्यान नहीं आई नवधा भक्ति? अथवा छह माह तक श्रेयांस को स्वप्न क्यों नहीं आया? तो इसमें मूल कारण है दाता का दानान्तराय एवं पात्र का लाभान्तराय कर्म का तीव्र उदय। श्रेयांस का भी कर्म का उदय था और प्रभु का भी। ये दान देना चाहते हैं 'दातुमिच्छति' देना चाहता है, लेकिन ‘न ददाति' अन्तराय कर्म नहीं देने देता। इसी प्रकार लेने वाला लेना चाहता है, तो लाभांतराय कर्म का क्षयोपशम, उपभोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है, ये किसी को ज्ञात नहीं है। जब कार्य हो जाता है। पंच आश्चर्य हो जाते हैं। जब ज्ञात होता है, कि अरे अंतराय कर्म का उदय होने के कारण यह सब नहीं हो रहा था, नहीं हो सकता है। दान कार्य हो तो आश्चर्य हो। छह महीने तक यह पुण्य कार्य नहीं हुआ, बाद में श्रेयांस राजा के द्वारा यह कार्य सम्पन्न हुआ। पूछा गया, ऐसा कैसे हुआ? अवधिज्ञान जब था तो अवधिज्ञान से सोच लेता, देखो अवधिज्ञान से जब सोचा जाता है, जब अन्तराय कर्म का क्षयोपशम हो। सब कुछ सामग्री पास रहते हुए हम इसका प्रयोग करें, ये कोई नियम नहीं है। 'दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है' यह युक्ति यहीं विराम को प्राप्त नहीं होती बल्कि जैन सिद्धांत कहता है इसके साथ यह भी कहो कि दाने-दाने पर लिखा है देने वाले का नाम । दाता और पात्र दोनों के नाम चाहिए तभी वस्तु व्यवस्था बनेगी। 'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह बहुत रहस्यपूर्ण वाक्य है। दूसरे-दूसरे का नहीं, अपने-अपने कर्म का। माँ के कर्म का फल माँ को मिलेगा, पिता का कर्म पिता को ही फल देगा। बहिन का कर्म बहिन को ही फल देगा, पुत्र का कर्म पुत्र को ही फल देगा, ये निश्चत है। अपना-अपना फल मिलता है। कुछ सीमा तक परिवर्तन किया जा सकता है। उसकी एक पृथक प्रक्रिया है वह बंधा हुआ कर्म या तो स्वमुख से आयेगा या परमुख से आयेगा, अपने आप समाप्त नहीं होगा। ऐसा तेज पुण्य भरत का नहीं निकला और किसी का नहीं निकला, किन्तु श्रेयांस राजा का निकला! भरत-बाहुबली का पुण्य फीका रह गया। ऐसा कौन-सा पुण्य है जो तीर्थकर को बुला ले? तीर्थकर तो तीन लोक के नाथ हैं, उन का तो बहुत तेज पुण्य है, लेकिन तेज पुण्य होते हुए एक लघु पुण्य के द्वारा भी सम्बन्ध को प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है। पूर्व का पुण्य है कि छह महीने के उपरान्त उनके दरवाजे पर खड़े हुए। अब दूसरी तरफ विचार करें कि ऋषभदेव को छह महीने तक आहार क्यों नहीं मिला? कर्म जो पूर्व में बांधा, वह कर्म कहता है कि भले ही आप तीर्थकर बन जाओ लेकिन जो आपने पूर्व में कर्म किया है, उसे अवश्य दुनियाँ के सामने रखेंगा कि आपकी क्या हिस्ट्री है? आपने क्या गुनाह किये हैं? ये दिखाना आवश्यक है। एक-एक घड़ी के लिए एक-एक माह का अनुपात लगाया जा सकता है। छह घड़ी के लिए अंतराय किया था, उन्होंने पूर्व जीवन में। ऋषभनाथ भगवान् का एक किसान के रूप में खलियान में बैलों के द्वारा दांय करा रहे थे। बैलों को ज्वार के सिट्टों पर घुमा रहा था, जिसके माध्यम से दाना अलग-अलग होता चला जा रहा था और बाकी भूसा अलग-अलग होता चला जाता था, ये सारा का सारा कार्य चल रहा था। घुमाते समय एक बैल ने अपना मुँह मार दिया और ज्वार के सिट्टों को मुख में लेने का प्रयास किया। तो किसान ने दायें रोककर एक नहीं दोनों बैलों को भी मुश्का बांध दिया। नीचे मुख करता तो ऊपर से चाबुक मारता, यह छह घड़ी तक उन बैलों को मुश्का बाँधे रहा, फिर खोल दिया। छह घड़ी का कर्म यह छह महीने तक निकाचित कर्म के रूप में उदय में बना रहा, बैल खाना चाहता था और उसको बंद कर दिया। कोई हिंसा नहीं, लेकिन यह भी एक हिंसा हो गयी। यदि आप भोजन कर रहे हो और उसका मुख बंद कर दिया जाये तो? आपके सामने यह कहना चाहता हूँकि मुश्का का यह फल मिला। मारा नहीं, पीटा नहीं, कुछ भी नहीं किया। आज तो बैलों का ही वध कर दिया जा रहा है। कल एक लेख पड़ा था सोचना भारत की यह दशा हो गई। आज कहना पड़ता है कि क्या यह वही भारत देश है? यही कृषि प्रधान देश है, वे ही बैल हैं, वो ही गाय है, वो ही सब कुछ है। किसान की यह सामग्री मानी जाती है, पशु धन यह देश की शोभा मानी जाती है, जिसके परिश्रम के माध्यम से अनेक प्राण, अनेक मानव जीवित रहते हैं। लेकिन ऐसे उपकारी पशु धन का ही वध करने के प्रयास की व्यथा अखबार में लिखी हुई थी। दो ट्रकों में २५-२५ गायें, दो ट्रक में कैसे भर दिया गया? बताओ और पैर लोहे के तारों से बाँधे हुए थे, खून रिस रहा है और प्रत्येक के मुख में कपड़ा ट्रेंस दिया गया, ताकि आवाज न करें। ताकि उसकी आवाज आप न सुन सको। पुलिस को संदेह हुआ पुलिस पीछे पड़ गयी। ड्राइवर फरार हो गया। जनता एकत्रित हो गयी, गौशाला का प्रबंध था, उसमें ले जाकर के उनको रखा। उसमें कई गायें प्रसूति के योग्य भी थी। बोल भी नहीं सकतीं, आवाज भी नहीं दे सकतीं। भगवान् का नाम वह मन से ही ले रही थीं। यह राष्ट्र की नीति, प्रजातंत्र की नीति, यह कैसी राजनीति है? कुछ समझ में नहीं आता। जीवित अवस्था में उनके प्राणों को समाप्त कर देना और उस मांस को विदेश निर्यात कर देना और विदेश से मुद्रा मिलने के बाद भारत की उन्नति कर देना, क्या आप मंजूरी देते हैं? इस प्रकार से राष्ट्र का विकास आप चाहते हैं? नहीं चाहते। निर्दयता के साथ कत्लखाने की ओर ले जा रहे हैं फिर भी आप मौन बैठे हो। न पानी न भोजन की व्यवस्था। जीवित अवस्था में मरण का अनुभव? और कैसा अनुभव? बहुत कटु अनुभव। भीतर जो गर्भ में बछड़े हैं, उनका क्या होता होगा? उनके लिए हवा कहाँ से मिलती होगी? यह सब कुछ त्रासनायें, सब कुछ यातनायें, यह सब कुछ विपदायें? मूक जानवर सहन करते चले जा रहे हैं? क्या उनके जीवन के बारे में आप नहीं सोच सकते हैं? ऐसी कौन सी आपकी परिस्थिति आ गई है? इस प्रकार गाय धन के निर्यात से, मांस के निर्यात से आप उन्नत देश बनाना चाह रहे हैं? हाँ महाराज। प्रत्येक नेता कहता है हम कटिबद्ध हैं, राष्ट्र को उन्नत बना करके ही रहेंगे, गरीबी मिटा करके ही रहेंगे। लेकिन ध्यान रखना! ऐसी दुनीति से गरीबी नहीं मिटा सकते। भले ही गरीबों को ही मिटाते चले जायें। इन मुद्राओं के माध्यम से गरीबी नहीं मिट रही है, गरीब अवश्य मिट रहे हैं। जो व्यक्ति दो बैल दो गाय रखते हैं। उनका परिवार आनंद से चल रहा है। लेकिन धन का प्रलोभन देकर के उनसे आनन्द के साधन छीन लिये जा रहे हैं। ये बहुत अन्याय है और उस अन्याय को और हिंसा को देखते हुए यदि आप अक्षय तृतीया मनाते हो तो हमको समझ में नहीं आ रहा है। मेरा तो कहना है कि आज वृषभनाथ भगवान् का नाम भले ही मत लो तो भी चल जायेगा, लेकिन वृषभ का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। बचाओ उन वृषभों को ताकि आपका कल्याण हो सके। गाय भैंस सभी जीवों की कथा हम पुराण ग्रन्थों में पड़ते हैं, तो आप के समान वह भी व्रतों का पालन करते हैं, भगवान् के प्रति उनकी भी अटूट आस्था रहती है श्रावक होने के नाते। सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दृष्टि के लिए उपयोगी बनना चाहिए। गाय बैल भैंस भी सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं, वे घोषणा नहीं करते कि हम देश व्रती श्रावक हैं, उनके पास मानसिकता है, लेकिन मूक जानवर हैं। यह राष्ट्र उन्नति की बात करते हैं। आपके जीवन को उन्नत बनाने की बात करते हैं। गरीबी को मिटाने का नारा लगाते हैं। गरीबी तो दूर, गरीब ही मिटते जा रहे हैं। पशु गरीब हैं इनको मारकर मांस निर्यात करना क्या गरीब को मिटाना नहीं है। मुद्रा इसके द्वारा कितनी मिलती है? दिखाओ तो सही, ये केवल ५ अरब तक पहुँचने वाली है। लेकिन जानवरों की हत्या हो जाती है। कम से कम ५० से ७० लाख के बीच में जानवर कट जाते हैं। अब सोचिए कि यह संख्या और राशि कितनी मिल रही है? धन का उत्पादन तो अन्य स्त्रोत से हो सकता है, लेकिन जानवरों के उत्पादन के लिए कोई भी फैक्ट्री, कोई खान नहीं है। उसका एक मात्र स्रोत पुण्य के उदय से जन्म मिलता है और अधूरे जीवन में थोड़े से मांस के लिए उनको समाप्त कर रहे हैं। ये चेतन धन माना जाता है। ७-८ रविवार से इसी की चर्चा सुनी आप लोगों ने प्रवचनों से कि मांस निर्यात बंद आन्दोलन को कैसे भी हो हमें सफल बनाना है। तीर्थकर ऋषभनाथ होने वाला यह जीव भी अतीत में थोड़ी सी भी गलती कर देता है, तो उसे दण्ड मिला और इतना तेज पुण्य होने के उपरान्त भी उपसर्ग छह महीने तक हुआ। छह महीने तक घूमते रहे और वह ऋषभनाथ कर्मों को साक्षी होकर के देख रहे हैं और चिन्तन धारा चल रही है। देखो, मैंने ये अपराध किया था, उसका फल मुझे भोगना पड़ रहा है और आपको कौन सा फल मिलेगा? आप वोट देकर यह कह देते हैं, हमारी दुकान में कोई समस्या नहीं आनी चाहिए, न ही इनकम टेक्स ऑफिसर आना चाहिए, आ जाये तो वहीं के वहीं ठीक कर दीजिए फोन के द्वारा। ध्यान रखना! कभी इन मूक प्राणियों पर ध्यान दिया करो। यदि इन मूक प्राणियों की समस्याओं का ध्यान नहीं रखते तो ध्यान रखना डायरेक्ट, इनडायरेक्ट इनके प्रति अत्याचारों का समर्थन हो जाता है और वह पाप आपसे छूट नहीं सकता है। बड़े-बड़े कत्लखाने हैं जिनमें एक-एक दिन में १०-१०हजार गाय-बैल काटे जा रहे हैं। एक कत्लखाने में दूर-दूर से जानवरों को बुलाया जाता है क्योंकि यहाँ स्थानीय जानवर नहीं मिलते तो देश भर से पशु ट्रकों में भरकर लाये जाते हैं और टनों-टन मांस का निर्यात होता चला जा रहा है। अनाज वायुयान से नहीं आता किन्तु जलयान से आना-जाना होता है। लेकिन मांस निर्यात के लिए अविलम्ब भेजना होता है नहीं तो सड़-गल जाये। इसलिए वायुयान के माध्यम से भेजा जाता है।' लोभ पाप का बाप बखाना' अब लोभ कैसा? इतनी हत्या के द्वारा ५-६ अरब कोई वस्तु नहीं होती। ९००-९०० करोड़ के एक-एक घोटाले सुन रहे हैं, जिसमें अरबों-अरबों की राशि समाप्त हो रही है और यहाँ पर कौन सी राशि की उन्नति हो रही है? कौन सी आमद हो रही है? और कुछ भी तो एक्सपोर्ट कर सकते हैं। धान्य का कर सकते हैं, कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते फल-फूल का कर सकते हैं। ये भी कृषि के अंदर आ सकता है तो भारत से खनिज पदार्थ आदि का निर्यात करके बहुत अच्छी मुद्रा प्राप्त कर सकते हैं। आप भारतवासी हैं भारत में रहते हो तो राम, महावीर, आदिनाथ के आदेशों (उपदेशों) को अपने जीवन में अपनायें और सारे विश्व में अहिंसा विश्व धर्म की पताका फहरायें, यही मेरी भावना है।
  5. विश्वविज्ञं विधि-वेदं वीरं वैराग्य वैभवम्। संगमुक्तं यतिं बुद्धं केशवं संभवं शिवम्॥ मंगलाचरण में मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो विश्व को जानने वाला है, विश्व वेत्ता है, वीर है, महावीर है, विराग है, परिग्रह से दूर है, ऐसे राम/शिव/शंकर/महावीर के लिए नमस्कार है। राम से सारा का सारा विश्व परिचित है। जिन्होंने कर्तव्य का प्रतिक्षण पालन किया उनको कोई भी युग नहीं भूल सकता, युग युगान्तर होने के बाद भी वह स्मरण में आ जाते हैं, युगों-युगों व्यतीत हो गये वह आज भी हमारे स्मरण के विषय बने हुए हैं। हमारी बुद्धि अधूरी है उनके व्यक्तित्व के बारे में, उनकी महानता के बारे में, उनकी कर्तव्यनिष्ठा के बारे में, उनकी ऊँचाईयों के बारे में विचार नहीं कर पाती है। केवल नाम में, रूप में उलझ जाती है। दुनियाँ ध्यान रखे भगवान् जो होता है, वह भगवान् ही होता है। वह किसी जाति, किसी पक्ष, किसी क्षेत्र को लेकर नहीं चलता, किन्तु उसका पूरा-पूरा संबंध ही विश्व के साथ जुड़ जाता है। विश्व का प्राणी यदि उसे याद करता है, उसे दिशा निर्देश मिलता है उसे नकारता नहीं, किन्तु वो कहता है, हाँ तुम भी अपने पद को प्राप्त करो, निश्चत रूप से हमारे जैसा वैभव पा सकते हो। राम का समस्त जीवन ही स्मरण करने योग्य है। चाहे बाल्य काल हो, चाहे गृहस्थ आश्रम हो, चाहे प्रौढ़ आश्रम हो, कोई भी आश्रम हो आवश्यक रूप से शिक्षा देता है। उनके जीवन के कुछ बिन्दु आपके सामने रखना चाहता हूँ। जिनके माध्यम से हमारी जितनी कमियाँ हैं, याद आ जाये। हमारा अनुकरण उनकी ओर हो जाय। स्वार्थ परायणता एवं मोह के कारण से सारे प्राणी कितने विरूपित हो जाते हैं, आश्चर्य होता है। अयोध्या में चारों तरफ खुशहाली है। राम का राज्याभिषेक होना है। लेकिन एक सौतेली माँ की महत्वाकांक्षा ने रंग में भंग कर दिया। कैकेयी ने घोषणा कर दी, मेरा पूत राज्याभिषेक से युक्त हो। इतना ही नहीं राम यहाँ से चले जायें। घटना आप लोगों को ज्ञात है। स्वार्थ परायणता संसार की प्रकृति से बनी है, लेकिन इस संसार में रहकर भी ऐसे महामानव होते हैं। जो इन तुच्छ चीजों की ओर दृष्टिपात नहीं करते हुए भी उस विशाल सम्राट में लीन होना चाहते हैं और विश्व को उस ओर अग्रसर करने का प्रयास करते हैं और कहते हैं कि इस ओर आओ और स्वीकार करते हैं चुनौती को। राम अपनी माँ कौशल्या के पास जाकर कहते हैं कि माँ मुझे आज आशीर्वाद दीजिए। मेरा लक्ष्य जल्दी-जल्दी पूरा हो सके। पिताजी की आज्ञा का मैं पालन कर सकूं आपका आशीर्वाद फलीभूत हो। माँ कहती हैं- बेटा! क्या कह रहा है। हाँनिश्चत है कि पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता, आज्ञा शिरोधार्य है। मुझे अभी-अभी यहाँ से चले जाना है। माँ कौशल्या थी, बेटे राम को जाया है, आँचल का दूध पिलाया है। इसलिए आँख भर आती है, पुत्र वियोग की बात सुनकर।फिर भी क्षत्रिय पुत्र की माँ साहस बटोर कर कहती है। बेटा तेरा भाव पूर्ण हो, भगवान् का हाथ तेरे ऊपर रहे। ज्यों ही आशीर्वाद मिलता है, वे (राम) जाने के लिए तैयार होते हैं, पीछे से लक्ष्मण की आवाज आती है- वनवास जा रहे हो भैया? हाँ लक्ष्मण! पिताजी की एवं माता कैकेयी की आज्ञा है। तुम्हें यहीं रहना है। यह सुनते ही लक्ष्मण कहते हैं-असम्भव! जहाँ आप वहीं पर यह आपका चरणदास, आपका अनुज रहेगा। वह स्वयं कहता है मैं तो आपके साथ चलूगा। मैं यहाँ पर आपके बिना नहीं रह सकता यह असली बात है। कोई माने या न माने लेकिन मुझे तो यहाँ पर नहीं रहना है। क्योंकि माता-पिता तो चले जाते हैं कुछ दिन के बाद अर्थात् आयु समाप्त कर मरण को प्राप्त हो जाते हैं लेकिन भाई साथ देते हैं और समस्त जीवन भाइयों के साथ रहना है। माता-पिता भले ही नींव रख लेते हैं, लेकिन प्रासाद में बैठ करके भाई-भाई की छाया का अनुभव करना है और एकदूसरे से मिल करके रहना, यही एक मात्र जीवन होता है और इसमें सुख मिलेगा। आपके साथ रहने को मैं आ रहा हूँ। उसके उपरान्त राम ने कहा-नहीं लक्ष्मण! ऐसा नहीं कहो, माताजी-पिताजी का एक दिन का भी साथ जीवन को सुखी बना देता है। बड़ों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुम्हें रहना है और मैं ये कह रहा हूँ मेरे साथ रहना चाहते हो तो मेरी आज्ञा को तुम्हें भी पालन करना है, मेरे साथ रहने की तुम्हारी भावना से ही तुम मेरे साथ हो, ऐसा मानो। क्योंकि साथ तन से नहीं हुआ करते हैं और न ही धन से हुआ करते हैं, साथ हुआ करते हैं, केवल आज्ञा के पालन से। राम के उपदेशों में कितनी गहनता है। आज राम का जन्म हुआ राम का जन्म पालने में है। लेकिन राम का पालना बहुत अद्भुत है और स्वयं राम अपने आप में है, महापुरुष हैं। महापुरुष हमेशा महान् हुआ करते हैं, तन से नहीं भीतर से। आज्ञा का भीतर से सम्बन्ध होता है। निश्चत रूप से हम आज महावीर भगवान् के साथ जी रहे हैं, आज हम भी राम भगवान् के साथ ही जी रहे हैं, यदि उनकी आज्ञा का पालन करने का स्मरण हमें है और बनती कोशिश उनकी आज्ञानुसार चलने का प्रयास हम कर रहे हैं तो निश्चत रूप से हमारा जीवन उनके जीवन के साथ चल रहा है। अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ महान् संतों ने यह युति दी है। निश्चत बात है जो पुराण पुरुष हुए हैं उनकी आज्ञा का यदि हम अनुपालन कर रहे हैं तो निश्चत रूप से हम भी उनके ऊपर उपकार कर रहे हैं क्योंकि उनका भी भाव यही है। युग को संदेश मिलता रहे। हमेशा-हमेशा यह युग उनके आदर्श तक पहुँचने के लिए कोशिश करता रहे। इस प्रकार का भाव हमेशा-हमेशा संतों का भी रहता है, हुआ करता है और संत के उपासकों के मन में भी यही भावना रहती है। युग शान्ति का स्वाद हमेशा लेते रहें, कभी भी दुख का अनुभव न हो। अयं निज: परोवेति यह मेरा यह तेरा ऐसा विचार संकीर्ण बुद्धि वाले व्यक्तियों का हुआ करता है। "उदारचरितानां तु.......जिनका उदार दिल होता है, सबका उद्धार हो इस प्रकार का भाव उनमें पलता है वे उद्धार करने वाले जगद् उद्धारक होते हैं। ऐसे महान् उद्धारकों के संकीर्ण भाव नहीं हुआ करते हैं। वह तो सोचते हैं कि सबका कल्याण हो "क्षेमं सर्वप्रजानां" जितने भी जीव हों सबका उद्धार हो। इस प्रकार की भावना के लिए कोई बड़े-बड़े भवन की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए एयरकंडीशनर की आवश्यकता नहीं है। मात्र विशाल हृदय की आवश्यकता है।" लक्ष्मण मेरी बात मान लो, पिता की आज्ञा का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता और मुझे यहाँ पर रुकने की नहीं, वन जाने की आज्ञा दी गई है। लक्ष्मण कहते हैं, आप तो जंगल में विपत्ति भरा जीवन व्यतीत करने जा रहे हो और मैं भवनों में रहूँ यह सम्भव नहीं होगा। रामचन्द्र जी कहते हैं, अरे! जंगल में भी मंगल है यही देखने जा रहा है तू चिन्ता मत कर, तू मेरी आज्ञा मान, यहाँ रह। मुझे जंगल के मंगल का आनन्द लेने दे। लक्ष्मण कहता है-भैय्या आपके साथ मंगल चलता है, आपके जाने के बाद यहाँ तो मुझे अमंगल नजर आ रहा है। अत: मैं भी मंगल का अनुभव करना चाहता हूँ, चाहे जंगल हो या मंगल मैं तो तुम्हारे साथ रहूँगा। दोनों सीता सहित चल दिये वन की ओर और चित्रकूट पहुँच कर विश्राम किया। रामचन्द्र जी के वनवास जाते समय भरत अयोध्या में नहीं थे, ननिहाल गये हुए थे। यदि भरत उस समय होता तो शायद यह घटना टल सकती थी। कुछ दिन बाद भरत जब अयोध्या लौटा और समाचार जाना तो राम के बिना बहुत ही व्याकुल हो गया और अपनी माँ की स्वार्थ लिप्सा को धिक्कारता हुआ राम भैय्या को खोजने के लिए चित्रकूट जाता है। रामचन्द्र जी भरत को बहुत समझाते हैं। लेकिन भरत हठ करते हैं कि मैं आप को साथ लेकर ही लौटूँगा। अंत में राम ने जब आज्ञा देकर बाध्य किया तब भरत कहते हैं कि भैय्या में चरण पादुका ले जाकर सिंहासन पर बैठा लूगा और इनका सेवक बनकर राज्य की व्यवस्था करूंगा। विचार करो कितना महान् दृश्य होगा उस समय का जब राम और भरत दोनों (गद्दी पर) बैठना नहीं चाह रहे हैं और आज के पिता उठना नहीं चाह रहे हैं, अंतर इतना ही आ गया है। राम की जन्म जयंती तो मनाई जा रही है क्योंकि भारतीय संस्कृति में कुर्सी से ऊपर उठने वालों की जयन्ती मनाई जाती है कुसीं पर बैठने वालों की कोई भी जयन्ती नहीं मनाई जाती है। हाँ! यदि उनसे और कोई स्वार्थ सिद्ध होता हो तो अवश्य हम मना लेते हैं। लेकिन आज के राजनेता राजसत्ता के भूखे हैं। एक सूतिकार ने लिखा था- रजोनिमीलितगुणा: पदमर्जयन्ति कुपथे.........॥ जो पढ़े लिखे हैं, साक्षर हैं, वो भी कुपथ पर चलकर पद अर्जित करते हैं अर्थात् उन्मार्ग गामी हो जाते हैं, क्योंकि 'रजोनिमिलित गुणा:" जिस समय स्वार्थ परायणता आ जाती है, राजसत्ता समाप्त हो जाती है। भरत को राज्य मिल रहा है। लेकिन वह कहता है मुझे नहीं चाहिए।"न त्वह कामये राज्यं न स्वर्ग नपुनर्भवम्। कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।" कितना उज्ज्वल भाव है, आज रामनवमी है। आप रामनवमी मना रहे हैं। राम के नाम पर आप क्या-क्या करने का इरादा कर रहे हैं थोड़ा तो विचार करो। राम के जीवन को पहचानना चाहते ही लेकिन राम का नाम लेकर के रावण का काम करते हो तो ध्यान रखी राम के फल को कभी नहीं पाओगे। संसार कभी भी तुम्हें आदर्श रूप से याद नहीं करेगा, यदि करेगा तो वह अभिशाप के रूप में करेगा, कंटक के रूप में करेगा। यही कहेगा हमेशा-हमेशा कि एक आतातायी हुआ था जैसा रावण। जंगल में रहकर के राम कहते हैं न कामये राज्यं मुझे राज्य की कोई आवश्यकता नहीं। न ही मुझे स्वर्ग की आवश्यकता है। न कामये मोक्ष मुझे अभी मोक्ष भी नहीं चाहिए क्योंकि 'कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशन।' जब तक संतप्त धरती को शांत नहीं देख सकूंगा तब तक मुझे मुक्ति में भी सुख का अनुभव नहीं मिलेगा। ऐसे राम थे। मुझे राज्य को छोड़ दुख से तपती हुई जनता का उद्धार करना है। ऐसा हृदय/ऐसी आँख राम की थी। जिसमें करुणा का सरोवर हमेशा लहराता रहता था। नीर-क्षीर विवेकी हस के समान विवेकवान थे राम, कितनी ऊँचाई को लेकर राम का जीवन था, हमारे पास वैसा व्यक्तित्व भी नहीं कि उस ऊँचाई को हम देख सकें। उसकी ऊँचाई को हम पी नहीं सकते, हम तैर नहीं सकते, उनके व्यक्तित्व के सरोवर में हम डुबकी लगा नहीं सकते । वो एक ऐसे अथाह सागर हैं, जिसमें हम डुबकी लगाने को चले जाये तो डूब जायेंगे, धराशायी हो जायेंगे क्योंकि हमारे पास उन जैसा व्यक्तित्व नहीं है। हमारे पास वैसी बुद्धि नहीं है, वैसा जीवन नहीं जो कि हम आदर्श जीवन आत्मसात् कर सकें लेकिन इसके उपरान्त भी पवित्र भावना से हम राम के जीवन को अंग-अंग में समा सकते हैं। फिर राम से पृथक हमारा जीवन रहेगा नहीं। लेकिन हमारे पास जो कुछ भी है, उसको निकालना होगा, समाप्त करना होगा, तब यह संभव है। राम ने भरत को आज्ञा दी किन्तु भरत ने भी राम से कहा- मैं आपकी चरण पादुका को आदर्श मानकर अपने कर्तव्य का पालन करूंगा और यदि कर्तव्य से विमुख हो जाऊँगा तो मैं आपका भैय्या कहलाने योग्य नहीं रहूँगा। भरत चरण पादुका को सिंहासन पर विराजमान करके अयोध्या में आकर राज्य का संचालन करने लग जाता है। लेकिन भरत का तन यहाँ है किन्तु मन राम में लगा हुआ था बार-बार संदेश भेजता कि राम भैय्या मैं आपके बिना यहाँ पर कैसे रह सकता हूँ? लेकिन कभी-कभी तन की दूरी के माध्यम से आनंद का अनुभव दुगुना हो जाता है। आस्था में अवगाढ़ता आती है। चलचित्र जितने दूर बैठकर देखते हो तो चित्र अच्छा दिखता है और पास में बैठने से अच्छा नहीं दिखता है। इसी प्रकार तन की दूरी मन को अधिक श्रद्धालु बना देती है निश्चत बात है। एक पतंग उड़ाने वाला बालक छत के ऊपर पतंग उड़ाने बैठ जाता है और वह पतंग बहुत ऊपर चली जाती है, लेकिन डोर की छोर एक उसके हाथ में रहती है, इस छोर को वह यूँ खींचता है, तो वह पतंग हाँ मैं तुम्हारे अधीन ही हूँ तुम्हारे साथ लगातार संबंध जुड़ा हुआ है और अपने सम्बन्धी की डोर के माध्यम से संकेत कर उड़ती रहती है। उसी प्रकार राम और भरत में प्रेम रूपी डोरी का सम्बन्ध है। भरत आनंद का अनुभव ले रहा है। हाँ भैय्या ने मुझे चरण पादुका देकर के बहुत बड़ा उपकार किया। यहाँ प्रसंग में एक और आदर्श पात्र स्मरण करने योग्य है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। वह है लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला। लक्ष्मण से उर्मिला ने कहा, मैं भी साथ चलेंगी तब लक्ष्मण ने कहा- यहाँ माँ अकेली है उनकी सेवा करनी पड़ेगी, तुम्हें यहीं रहना होगा, वह उर्मिला एक तरह सीता से बढ़कर निकली। सीता तो सहवासी यानि राम के साथ-साथ रही। स्त्री पति के साथ कहीं रहे वह उसका घर ही है। उर्मिला आशा एवं आज्ञा की डोर में बंधी रह गई। सीता राम के साथ में है लेकिन उर्मिला को तो सही-सही वनवास था । चौदह वर्ष तक बिना पति के रहना अपने आप में महानता है। सभी लोग राम लक्ष्मण को त्यागी कहते हैं उर्मिला का नाम कोई लेता ही नहीं। भरत का राज्य संचालन आवश्यक है। लक्ष्मण एवं सीता को राम का साथ मिलने के कारण से सूनेपन का विशेष अनुभव नहीं हो रहा है। वह राम के साथ हैं, जंगल किसी को जंगल लग नहीं रहा है। इन घटनाओं को याद करने पर पता चलता है कि उस समय से ही त्याग की परम्परा मानी जाती है यह यही वंश रघुवंश माना जाता है। लेकिन रघुवंशी राम के जीवन में और हमारे जीवन में कितना अंतर आ गया। हम विपरीत दिशा में चले जा रहे हैं। उनके आचार-विचार और हमारा आचार-विचार बिल्कुल विपरीत देखने में आ रहा है। इतना तो हमें ज्ञात है कि रामनवमी है, मना रहे हैं लेकिन जीवन की दिशा, दशा एवं संस्कारों से संस्कृति जो आज बन रही है वह रावण नवमी की तरफ जा रही है। एक आक का दूध होता है और एक गाय का दूध होता है। रंग सफेद है अत: देखने में दोनों में अंतर ही नहीं है लेकिन गुण धर्म बिल्कुल विपरीत है। एक है जीवन विनाशक और एक पोषक है, जीवन दाता है। रावण की विचारधारा आक के दूध के समान थी और राम की नीति गाय के दूध के समान थी। राम के जीवन के समान बनना चाहिए। राम के जीवन को हम अपने जीवन में देख सकते हैं। महावीर भगवान् को आज हम अपनी जीवन चर्या में देख सकते हैं। उनके जीवन के साथ हमारा मोक्ष अनुबद्ध हो सकता है। ये गठबंधन हमारे ऊपर आधारित है। यदि हम स्वार्थ परायणता छोड़ देते हैं तो ये संभव है। 'न कामये अहं राज्य' मैं राज्य की कामना नहीं करता, 'न स्वर्ग कामये' स्वर्ग की इच्छा मैं नहीं रखता। ‘न पुनर्भव' पुनर्भव की भी मैं इच्छा नहीं रखता। ‘कामये अहं एकमेव आर्तिनाशनम्' एक मात्र में चाहता हूँ। मेरी ये वाञ्छा है कि 'दुख तप्त प्राणिनां आर्तिनाशनम् कामये' संसारी प्राणियों के आर्त की पीड़ा का अभाव कैसे हो? कब हो? ये मात्र मैं चाहता हूँ ऐसे जगत्कल्याणक राम जब जंगल जा रहे हैं। तब वहाँ की सारी की सारी जनता की आँखों में आँसू आ जाते हैं। भरत जी यहाँ पर रह गये राम जी वनवास चले गये, सीता भी साथ चली गई। उर्मिला यहाँ पर आशा एवं आज्ञा की डोर से बंधी रह गई। ये चेतना के अनन्य उपासकों की कथाएँ हैं, जो आज वर्षों के उपरान्त भी हम लोगों को ऐसे बाध्य कर देती हैं कि तुम क्या कर रहे हो?, क्या कह रहे हो? और किस ओर तुम्हारी दृष्टि है? यह चैतन्य का भोग आज तक तुम्हें मिला नहीं। जड़ रूप भोग सामग्री मात्र आँखों की विषय बन गई है, यह इन्द्रियों के विषय मात्र हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् यह बिल्कुल विलोम हो गया। वसु अर्थात् द्रव्य धन, द्रव्य को धारण करना हमारा जीवन बन गया। बाकी चेतना से हमारा नाता है ही नहीं केवल मशीन सी केवल यह यांत्रिक युग के पीछे दौड़कर केवल तन के अधीन होते चले जा रहे हैं। आदर्शमय चैतन्य की उपासना छूटती चली जा रही है। राम के जीवन में कैसी-कैसी घटनाएँ घटी यह आपको ज्ञात है सीता की परीक्षा हुई कब/क्यों हुई? फल क्या हुआ? पास कौन हुआ? यह सब आपको ज्ञात है। सीता पास हुई, पास होने के बाद राम के साथ नहीं रहना चाहती है। आज का अंतिम प्रसंग है सीता राम के साथ रहना नहीं चाहती है और उस समय राम कहते हैं-नहीं इस परीक्षा के उपरान्त ही हमारा जीवन प्रारम्भ होना था और लव कुश हमारे हैं, ये राज्य करेंगे। सीता सोचती है जब परीक्षा में पास हो गये। फिर स्कूल से कोई मतलब नहीं रहता। स्कूल से मतलब केवल बुद्धि बढ़ाना है। अब राम के साथ कक्षा में रहकर हमें कुछ पढ़ना नहीं है। हम पास हो गये और आपकी कृपा हो गई। हमें उतीर्णता मिली १०० /१०० आ गये। यह श्रेय आप पर चला जाता है और विचार करती है। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है इस सिद्धान्त को हमें अपनाना है। पहले राम-सीता अभिन्न हैं। गठबन्धन हुआ था किन्तु सीता ने वह गठबन्धन तोड़ दिया। अब दोनों अलग हैं कोई किसी का नहीं वह अस्तित्व शरीर के साथ था, छूट गया। सीता सोचती है अब कुछ और पढ़ाई नहीं करना। अब तो थीसिस लिखना है, अब तो शोध करना है, अब अनुभव करना है। अब शोध की भी आवश्यकता नहीं अब तो बोध करना है। अब विश्व का कोई भी व्यक्ति प्रलोभन नहीं दे सकता और बस वह सीता परीक्षा के उपरान्त पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो जाती है। वह आर्यिका सीतामती बन जाती है। राम वंदना कर रहे हैं। राम कहते हैं- आज पुरुष के लिए मोक्षमार्ग क्या होता है? नारी के द्वारा ज्ञात हुआ। मैं भूल गया था, मैं बाहरी-बाहरी राज्य विस्तार में रहा, इसी का अनुपालन करता रहा और मानता रहा यही मेरा कर्तव्य है लेकिन तुमने एक और आगे कदम बढ़ाये, ऐसा साहस जुटा लिया, ऐसा बोध प्राप्त कर लिया, साक्षात बोध के लिए चल पड़ी हो। धन्य हैं और वहाँ पर राम आर्यिका सीतामती की वंदना करते हैं, इसलिए लोग सीता-राम बोलते हैं। सीता पहले आर्यिका बन जाती हैं तो राम उनको वंदना करते हैं। यही एक मात्र निश्चत पथ है जिस पथ को अपनाने के बाद विश्व विश्व रूप में ज्ञात हो जाता है। विश्व मेरा नहीं, विश्व किसी का नहीं। विश्व तो विश्व है। प्रत्येक कण-कण अपनी स्वतन्त्रता को लिए हुए है। ध्यान रखो जो सत्ता की भूख को मिटाना चाहते हैं वे यह नहीं सोच पाते कि दूसरे के ऊपर हुकूमत चलाना जघन्य कार्य माना जाता है। हाँ! यदि सामने वाला कह दे हम अनजान है, हमारे पास बुद्धि/ शक्ति नहीं है, हमारे पास विवेक नहीं है, आप शक्ति सम्पन्न हो, कुछ दिशा निर्देश देकर मेरी रक्षा करो, तब अकिञ्चन भाव से मात्र अपना कर्तव्य पूरा करता हुआ विचार करता रहता है। निर्देश दे देता है, तुम्हारी सत्ता भिन्न है, हमारी सत्ता भिन्न है, इस प्रकार का जो अवलोकन अपने दिव्य ज्ञान से करता है, उसी का नाम सम्यक ज्ञान है। हम प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर सत्ता चलाने के लिए लगे हुए हैं। राजसत्ता दूसरे के ऊपर सत्ता चलाने के लिए नहीं है, यह अनंतकालीन घोर दुख की परिपाटी है, यह रीति संसार को बढ़ाने वाली है, ध्यान रखिए! इस प्रकार समस्त संकल्प विकल्प छोड़कर सीता आर्यिका बन जाती है। सीता के इस वैराग्य से राम के हृदय की मोह ग्रन्थि ढीली पड़ गई। कुछ दिन के उपरान्त लव-कुश को राज्य व्यवस्था सौंपकर राम भी आत्माराम को खोजने की तैयारी में चल पड़े वह विचार करने लगे नाहं रामो न मे वाञ्छा, भोगेषु च न मे मनः । शान्तिं समाप्तुमिच्छामि स्वात्मन्येव यथा जिनः॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् स्वात्मन्येव स्थित होते हैं। 'जिन' वह होता है, जो जीतता है अपनी आत्मा को, कर्मों को/कषायों को शान्त कर देता है। इन्द्रियों को वशीभूत कर लेता है, वह जिन माना जाता है। जिनेन्द्र भगवान् अपनी आत्मा में, सुख शान्ति में लीन हो गये हैं उसी प्रकार आज राम कह रहे हैं-"नाहं रामो" दुनियाँ मुझे भले राम कह दे लेकिन आज तक में चक्कर में था ये मुझे राम कह देते तो मैं अपने को राम मानता रहा हूँ। नहीं आज भेद-विज्ञान हुआ, भेद पता चला मैं आत्म सम तो हो सकता हूँ लेकिन आप लोगों के द्वारा कहा हुआ राम नहीं हो सकता। यह स्वयं राम कह रहे हैं वैराग्य के क्षणों में नाहं रामो-मैं राम नहीं हूँ। यह राम केवल शरीर का नाम है। न मे वाच्छा-मुझे कोई इच्छा नहीं है। भोगेषु च न मे मन:-मेरा मन पंच इन्द्रियों के विषयों में कभी लुब्ध नहीं हो सकता। एक मात्र शान्तिमिच्छामि-मैं शान्ति को चाहता हूँ। इसका अर्थ-न सीता के साथ शांति मिली, न रावण को जीतने के उपरान्त शान्ति मिली न लक्ष्मण भरत आदि मिलने के उपरान्त भी शान्ति मिली, बहुत लोग उनकी सेवा करने के लिए तत्पर हो गये, उसमें भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। शान्ति बाहर नहीं, शान्ति भीतर है। वसन्त की बहारों में भी नहीं है, जंगल में भी नहीं है, भीतर मंगल में है। उसको देखने का प्रयास करो। आज नेत्र खुले हैं राम के। वो राम कह रहे हैं, मैं राम नहीं हूँ, राम आज आत्मा के उन्मुख हो गये हैं, आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया है। और सोचते हैं राम कि मुझे यथा जिन बनना है। जिनेन्द्र भगवान् ने जिस प्रकार सुख शान्ति ढूंढी और सुख शान्ति में लीन हो गये। उसी प्रकार में भी केवल आत्मा में लीन होना चाहता हूँ। एकाकी निःस्पृह शान्तः, पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदाह संभविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः॥ मैं दिगम्बर कब बर्नूगा, मुनि कब बनूँगा, मैं पाणिपात्री कब बर्नूगा, ऐसा विकल्प करते हुए सोचने लगे, मुझे वस्त्रों की कोई आवश्यकता नहीं, मैं अकेला हूँ, दूसरे की कोई आवश्यकता नहीं, मैं निस्पृह हूँ, स्वभाव से मैं दिगम्बर हूँ मैं स्वयंभू बनना चाहता हूँ, संसार के जड़ कर्मों को काटना चाहता हूँ। जिन कषायों ने संसार को खड़ा कर रखा है, उसको मूल सहित उखाड़ना चाहता हूँ। जब तक हम पेड़ को काटते चले जाते हैं तब तक वसन्त की बहार में पेड़ पुन: कोपल को धारण कर लेता है। जड़ सहित उखाड़ देते हैं, तो कुछ दिनों में वह राख-राख हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार का प्रासाद निर्मूल करना चाहता हूँ उसके लिए एक मात्र एकाकी होना आवश्यक और दिगम्बर होना अनिवार्य है। शरीर से ही नहीं भीतर से जो आत्मा में ग्रंथियाँ/कषायें बैठी हैं उनसे भी मैं दूर होना चाहता हूँ, निस्पृह होना चाहता हूँ यही राम की भावना/कामना है। यही राम की प्रार्थना है। यह दृश्य उस समय का प्रस्तुत किया गया है जिस समय राम इस भूमि पर गृहस्थ अवस्था में सीता की आर्यिका दीक्षा अपनी आँखों से देख रहे थे तथा संसार की असारता का अनुभव कर रहे थे। कुछ समय के बाद राम ने भी अपने चिन्तन के अनुसार दिगम्बर दीक्षा ले कर सिद्ध पद को प्राप्त कर लिया। आज राम संसार के बंधनों से छुटकारा पाकर अनंतकाल के लिए अनन्त धाम को प्राप्त कर सिद्धालय में विराजमान हैं। हमारी भी यही भावना है हम भी उसी पद को प्राप्त करने की साधना कर रहे हैं। हमें सिद्ध परमेष्ठी पद प्राप्त हो। ऐसे राम के सिद्धान्तों को और अपने जीवन से मुक्त राम को मैं नमस्कार करता हूँ।
  6. गुरुवर आचार्य श्री ज्ञान सागर जी मुनि महाराज का आज समाधि दिवस है। महाराज की समाधि हुए बहुत दिन हो गये। अतीत के समय का ज्ञापन जीव और पुद्गलों के ऊपर आधारित है। इतना बड़ा कालखण्ड का व्यतीत होना तथा ज्ञात करना कठिन है लेकिन जीव के परिणाम के माध्यम से उस अमूर्त दृश्य की भी पहचान हो जाती है। नया-पुराना, छोटा-बड़ा, आना-जाना यह सारे विकल्प हैं। विकल्पों में उलझा हुआ प्राणी ही उस अखण्ड में भी खण्डता का बोध या अनुभव करता रहता है। जिन्हें वस्तु का स्वरूप ज्ञात होता है, वह कभी भी इन विकल्पों में उलझता नहीं। सुख-दुख एक विकल्प जन्य आत्मा की प्रणाली है, परिणाम है। अज्ञान के कारण ही सुख को अच्छा और दुख को बुरा स्वीकार किया जाता है। सुख को जानना बुरा नहीं, सुख को अच्छा मानना और दुख को बुरा मानना, यह एक प्रकार से पीड़ा है, आर्तध्यान है। आर्तध्यान में डूबे हुए इस युग के सामने धर्मध्यान के अमृत में डूबने वाले उस व्यक्तित्व का, साधक का (आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का) क्या प्रदर्शन किया जाये। युग हमेशा ज्ञानी के विपरीत चलता है। उनसे क्या मिला, इसके बारे में कहने की कोई आवश्यकता नहीं, हमने जब कभी जिज्ञासा की उस समय उन्होंने क्या संबोधित किया यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे पार नहीं अपार थे। हमने कुछ चाहा तो उसके बदले में उन्होंने क्या हमें संकेत देने का प्रयास किया, यह बहुत महत्वपूर्ण है। रसोई बन जाती है, उसको परोसी जाती है, किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि माँ जब कभी भी उस भोजन का सेवन कराती है, उस पेय को पिलाती है, उस समय उस पेय को घोल-घोल कर पिलाती है। क्या घोलती है उस समय समझ में बात नहीं आती है। लेकिन बात जब समझ में आती है, तब माँ नहीं रहती है। माँ के नहीं रहने पर प्राय: उसका महत्व और बढ़ता चला जाता है। जीवन के अनुभवों को घोलती है माँ घुट्टी में, उसी प्रकार जीवन की अनुभूतियाँ साधकों को पिलाते हैं गुरु। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् अध्यात्म प्रेमी आत्मा की बात सहजता से साधक को एक गाथा में दे देते हैं, उन्होंने कहा मोक्षमार्ग के तीन उपकरण हैं, यथा - उवयरणां जिण मग्गे लिंग, जहजाद रूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पिय विष्णओ सुक्तज्झयणं च णिद्दिष्टुं॥ स्वयं का करण साधकतम हुआ करता है और साधकतम करण के लिए उपकरण बहुत अच्छे काम में आ जाते हैं। सर्वप्रथम उन्होंने जिन लिंग को उपकरण माना है, लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने सावधान किया है कि कैसा होना चाहिए वह लिंग? यथाजात होना चाहिए। मोक्षमार्ग में बुद्धि-मस्तिष्क काम नहीं करता है, मोक्षमार्ग में हृदय काम करता है, अथवा बालक का मन जैसा होता है, वैसा निर्मल मन काम करता है। यथाजात का अर्थ क्या होता है? यथाजात का अर्थ ‘जैसा जन्म' अभी लिया है, उस बच्चे को न माँ-पिता से, न भाई-बहिन से मतलब है न उसका कोई परिवार है, न व्यवसाय है, न लाभ है, न हानि है, न मेरा है, न तेरा है, कुछ भी नहीं, न संयोग है, न वियोग है। यह प्रथम शर्त है, प्रथम उपकरण है- यथाजात जिनलिंग। यथाजात यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, उपकरण है। हम वृद्ध होना चाहते हैं, वृद्धों को समझाना चाहते हैं, बालक बनना कोई पसंद नहीं करता, यही एक मात्र चातुर्य था कला का, कि वे वृद्ध थे मैं नहीं मानता, वे बालक के समान यथाजात थे, उनको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। गुरु महाराज की क्रिया में रहस्य रहता था। ये राज आज उद्धाटित करना चाहता हूँ। आचार्य ज्ञानसागर महाराज कहा करते थे कोई यहाँ पर बालक बनना नहीं चाहता है, समझाने वाले/सिखाने वाले/पढ़ाने वाले दुनियाँ में बहुत मिलेंगे, लेकिन बालक की भाति दुनियाँ में कोई नहीं बन सकता ये ध्यान रखना और महाराज जी को बहुत अच्छा लगता था, वो कहते थे कि बालक बनना इतना आनंददायक लगता है, कह नहीं सकते। कोई विकल्प नहीं, दुनियाँ संकल्प-विकल्प में मिट जाये, लेकिन बालक तो हंसी/मुस्कान के साथ जीता है। उसका दुनियाँ से कोई लेना देना नहीं, वह मतलब की बात सोचता है, यह पागलपन है, जो ज्यादा सोचता है, वो ही पागल बनता है, बालक अभी तक पागल नहीं बना यह ध्यान रखना। जो अधिक सोचते हैं मस्तिष्क भारी हो जाता है, बोझिल हो जाता है, निश्चत रूप से उनके तकलीफ हो जाती है। एक सैकण्ड में अपनी भूलों को भूलने की कला, जिसके पास विद्यमान है, वह बालक है। एक चांटा मार दें तो वह रोने लग जाता है। अश्रुधार गालों पर आ जाती है और एक चुटकी बज जाती है, तो वह तुरन्त मुस्कराने लगता है, गाल पर वह अश्रु बूंद दिख रही है, लेकिन वह हँस रहा है। इसको बोलते हैं, बालकवत/यथाजात है। यह यथाजात बालक वृत्ति हमारे भीतर आना चाहिए। आचार्य श्री कहते थे ऐसे श्रमण को मोक्षमार्ग में हमेशा प्रसन्नता बनी रहती है। अक्षुण्ण रूप से यात्रा अंतिम क्षण तक बनी रहती है, यदि तुम भी यथाजात बने रहोगे तो तुम्हारी यात्रा सानन्द सम्पन्न हो जायेगी। फिर इसके उपरान्त दूसरे उपकरण में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं- गुरुवयण - गुरु के वचन माँ के वचन के तुल्य होते हैं, भाषा होती है, सीखी जाती है, स्कूलों में जाकर के। अध्ययन करके लेकिन जब कोई पूछता है कि आपकी मातृभाषा कौन सी है? अर्थात् माँ की भाषा कौन सी है? तुम्हारी मातृभाषा- ‘गुरुवयण" ये मातृभाषा है। गुरु ऐसे वचन दे देते हैं, जिससे शिशु शिष्य की यात्रा में कभी बाधा नहीं आती है, इसी को बोलते हैं घोल-घोल कर उसे पिलाया जाता है। यह शिशु भी अपने आप ही आनंद के साथ घूंट लेता चला जाता है। ग्रन्थों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। गुरु ने क्या वचन दिये हैं इसे समझने की बात है। समस्याओं को हल करने की क्षमता उनके (आचार्य श्री) शब्दों में उनके वचनों में रहती थी। यह दूसरा उपकरण है। तीसरा उपकरण है विनय। हमें आज नय की आवश्यकता नहीं विनय की आवश्यकता है। नय। ज्ञान विनय को भुलाने वाला होता जा रहा है, आज विकल्प पैदा करने वाला हो गया है, तर्क पैदा करने वाला है। विनय में तक नहीं चलता है। विनय में नम्रता रहती है, विनय में स्वीकारोक्ति रहती है, विनय में हमेशा व्यक्ति लघु होता चला जाता है। विनय गुण हमेशा उसको झुकाता हुआ पुन: उठाता हुआ, यात्रा तक पहुँचा देता है, ये विनय है। इसके उपरान्त चौथा उपकरण दिया हुआ है 'सुप्तज्झयण च णिद्विट्ट' अर्थात् ‘सूत्र का अध्ययन' यह चौथा उपकरण है। आज का युग विपरीत चल रहा है। सूत्र का अध्ययन पहले कर देता है। सेल्फ स्टेडी इस युग की महान् उपलब्धि है। विनय की कोई आवश्यकता नहीं है। गुरु के वचन क्या हैं? इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यथाजात क्या है? इससे कोई मतलब नहीं है। सूत्र हमारे पास है, सब काम हो जायेगा। बन्धुओं! नहीं होगा क्योंकि सूत्र का उद्धाटन भी गुरुओं की सेवा और भक्ति के माध्यम से हुआ करते हैं। धवला जी में वीरसेन स्वामी ने कहा है कि सम्यग्दृष्टि के द्वारा सम्यग्दृष्टि को समझाने के लिए सूत्रों को उद्धाटन किया जाता है। महान् जो सूत्र होते हैं, वे विश्वस्त व्यक्तियों के लिए ही दिये जाते हैं और सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के उपरान्त ही सूत्र का अध्ययन उद्धाटित होता रहता है। आज विनय, गुरुवचन एवं यथाजात रूप की ओर दृष्टि नहीं है। समझ में नहीं आता सूत्र का अध्ययन क्या काम करेगा। वह केवल तोता रटन्त पाठ होता चला जाता है। कुछ भी पाठ नहीं आता तो भी यदि गुण ग्रहण होता है तो भी काम चल जाता है, यह बात आचार्य महाराज जी ने प्रवचनसार का अध्ययन कराते समय कही थी। इन चार उपकरणों के साथ रहेंगे तो सब काम अपने आप हो जायेंगे। वह शिष्य कहीं भी रहे वह स्व-पर का कल्याण कर लेगा। और ये नहीं है तो गुरु के चरणों में भी रहेगा तो भी कोई काम होने वाला नहीं है। गुरु के पास रहकर भी गुरु से दूर रह सकता है और गुरु से दूर रहकर भी शिष्य गुरु के पास रह सकता है। ये कठोर वचन हैं सुनते समय लगता है ऐसा क्यों कहा जा रहा है? हाँ ये बिल्कुल ठीक है। गुरु के साथ रहने का नाम साथ रहना नहीं है। बल्कि गुरु का हाथ जिसके मस्तिष्क पर रहता है उसका कभी भी गुरु से साथ छूटता नहीं है भले ही वह बाहर विहार करता रहे। पर एक बार का भी वह स्पर्श अनंतकालीन भीतरी कर्म श्रृंखला को तोड़ने में सक्षम रहता है। वे संस्कार, वे प्राण, वे प्रतिष्ठायें अमर हो जाती हैं। प्रतिष्ठित मूर्ति जितनी पुरानी होगी उतना ही उसमें अतिशय होगा, उतने ही उन संस्कारों में अधिक तेज आता चला जाता है, क्योंकि वह पुराना होता चला जाता है। प्रेम के साथ यदि एक बार भी हाथ फेर दिया जाता है, तो सभी काम फल पूर्ण हो जाते हैं। माँ चली जाती है, लेकिन उसका काम होता चला जाता है। संस्कार की बात है। गुरु महाराज ने क्या नहीं दिया? हमने क्या लिया यह विचारणीय है। सागर बहुत लम्बा चौड़ा रहता है। हमारी प्यास बुझाने के लिए चुल्लू पर्याप्त हो जाता है। हमने कहाँ तक का उसका पान किया ये समझने की बात है। गुरु कभी भी शासन चलाना नहीं चाहते, शासित कोई होना चाहता है उसके लिए दिशा बोध संकेत अवश्य देते हैं। बार-बार सोचता हूँ, विचार करता हूँ मैं कब उन जैसा बनूँ। ये ही सोचता हूँ क्या मिला, क्या लिया, उसका उपयोग कहाँ तक किया? थाली सामने रख दी गई, परोस दी गई, व्यंजन परोस दिये गए, खाया कितना यह नहीं देखा जा रहा है बल्कि लोगों को तृष्णा रहती है और परोसा जाना चाहिए ये पागलपन माना जाता है। ये बातें दिनों दिन याद आती चली जा रही है- ‘‘विद्या कालेन पच्यते।' ये उनका शब्द था, यह वाचन करना सरल है लेकिन पाचन हमेशा चारित्र के माध्यम से ही होता है। यह संकेत उनका था, और सूत्र का अर्थ यही बताता है कि वह काल में ही पचता है। जो दिशा बोध प्राप्त है, वह चारित्र के माध्यम से ही पकता चला जाता है। हम यदि पाचन शक्ति को बढ़ाते हैं, तो उन्होंने जो दिया है, वह सब पच सकता है और यदि हम अपनी पाचन शक्ति नहीं बढ़ाते, या केवल स्मरण ही करते चले जाते हैं तो पचेगा नहीं सड़ेगा, अफरा चढ़ जायेगा। यदि खाया हुआ बचता है तो वह अभिशाप सिद्ध होता है और पेट में कुछ भी नहीं बचता है तो वरदान सिद्ध होता है, आप क्या चाहते हैं? उस सूत्र में अर्थ है- विद्या कालेन पच्यते हे भगवान्! हे दीपस्तम्भ! आपसे मुझे अब दीप नहीं द्वीप चाहिए जिस पर मैं ठहर सकूं। भव सागर में आते-आते, गोते खाते-खाते, तैरते-तैरते हाथ भर आये हैं, अब हाथों में पैरों में बल नहीं रहा, शिथिलता आ गई है, अब हमें केवल द्वीप चाहिए यानि विराम चाहिए। आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मैं दीप नहीं चाहता, द्वीप चाहता हूँ। जैसे उन्होंने किनारा पाया उसी प्रकार हमें भी किनारा मिल जाये हमें भी वह समाधि में लीन होने का सौभाग्य प्राप्त हो जाये। हमें पर नहीं, स्वचाहिए। स्व में जो लीन हो जाता है पर के लिए वह आदर्श बन जाता है। स्व-पर कल्याणी दृष्टि चाहिए। आचार्य शान्तिसागर महाराज ने एक बात कही थी, भगवान् का दर्शन कैसे करें? जैसे भगवान् बैठे हैं वैसे बैठ जा पहले, बच्चों को सिखाया जाता है पालथी लगाकर। पंगत में बैठना, इसके बाद परोसा जायेगा। अगर ज्यादा गड़बड़ करोगे तो आधा परोसा जायेगा। पूरा लड्डू चाहते हो तो भगवान् जैसे बैठ जाओ, अगर आँख खोलकर बैठोगे तो उसको आधा ही मिलेगा। कोई भी आँखें नहीं खोलता, भगवान् का दर्शन करना चाहते हो तो पहले भगवान् जैसा बैठना तो सीख लो। यह बात निश्चत है, कि हम बातें बहुत करते हैं। चर्चा तक सीमित रह गया ज्ञान। ज्ञान का प्रयोग समाप्त हो गया, योग समाप्त हो गया। अब उपयोग स्थिर कैसे हो सकेगा? कहाँ लगेगा? बस संयोग और वियोग में ही उपयोग की लीला चल रही है। कैसा प्रायोगिक जीवन था ज्ञानसागर महाराज जी का, जो पढ़ा उसको प्रयोग में लाने का प्रयास किया। इर्द गिर्द जो कोई भी बैठ जाता है, उस पर छाप पड़ती चली जाती थी। एक बार कार्बन नीचे रखा हो फिर निश्चत रूप से नीचे के पत्रों पर यथावत् उतरकर आयेगा। उसका दबाव उसका प्रभाव अवश्य उभर करके आयेगा। आज प्रयोग का नामोनिशान समाप्त होता चला जा रहा है। अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने को प्रयोग की शाला में ही पाया। वे अनुशासन की बात कहते नहीं थे, स्वयं अनुशासित रहते थे, आत्मानुशासित होते थे अत: कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनुशासनशील व्यक्ति को देखकर सामने वाला अपने आप अनुशासित हो जाता था। भगवान् के समान बैठने के उपरान्त, भगवान् कैसे बैठे हैं, यह प्रशिक्षण देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, मात्र प्रयोग की आवश्यकता होती है। कम शब्दों में अधिक अर्थ देने की क्षमता उनके वचनों में विद्यमान थी। और वे कहते कम थे, करते ज्यादा थे, तो बिना कहे ही असर पड़ता था और हम करते कम हैं, कहते ज्यादा हैं इसलिए असर कम पड़ता चला जा रहा है। अब तो हमें भी समझ में आने लगा है, कहना अब बंद कर देना चाहिए क्योंकि कहने की मात्रा जब बढ़ जाती है तो करने की मात्रा घट जाती है। तो करने की मात्रा बढ़ाने में ही लग जाना चाहिए तभी काम होता है अन्यथा नहीं हो सकता और निमित्त तो निमित्त हुआ करता है। उनकी लीनता, उनकी तल्लीनता अद्भुत थी, उनकी निरीहता अद्भुत थी। निभीकता की बात तो कहना ही क्या है! जो तल्लीन हो जाता तो निश्चत रूप से निर्भीक/निरीह होता है। जिसका जितना ध्यान लगता। है उतना वह नि:शंक होता है, और नि:शंक का अर्थ भय रहित होना। वे हमेशा-हमेशा कुन्दकुन्द की वाणी में कहा करते थे। कुन्दकुन्द ने शंका का नाम भय लिया और सम्यग्दृष्टि को भय से रहित होना चाहिए और भय से जो रहित हो जाता है, वह स्वरूप में लीन हो जाता है। वैरागी दृष्टि से देखा जाये तो निभीक होना बहुत अच्छा माना जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि में जो लीन हो जाता है, विलीन हो जाता है, वह वस्तुत: स्व-पर के लिए वरदान सिद्ध होता है और निश्चत रूप से अपनी आत्मा को उन्नत बना सकता है, एक सी लीनता उनमें अंतिम क्षणों तक पायी गयी। वे कहा करते थे कि कर्तव्य में कभी भी कर्तापन नहीं होना चाहिए। कर्तव्य अप्रमतता का द्योतक है, प्रवृत्ति होते हुए भी। और कर्तापन हमेशा प्रमाद, ज्यादा अहंकार और स्वामित्व का प्रतीक बन जाता है, जिसके द्वारा अपनी यात्रा रुक जाती है हमेशा-हमेशा। ये उनसे हमने सीखा है। कर्तव्य करते जाओ, कर्तव्य से विमुख नहीं होना, निश्चत रूप से अपनी तल्लीनता प्राप्त होगी। सामने वाले को स्वीकार है तो ठीक, नहीं तो विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है, हमें इससे आगे बढ़ने की आवश्यकता नहीं है। आपको पता होगा कि रामायण कैसे बनी? एक बार सीता ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया और राम ने हिरण के कारण और रावण ने सीता हरण के कारण अनर्थ कर लिया। यदि चारों सीमा में रहते, तो कुछ भी गड़बड़ होने वाला नहीं था। जो उपकरण बताये हैं,उपकरण बोलते है "उपकार करोति इति उपकरणं" जो उपकार करता है वह उपकरण, जो उपकार नहीं करता है, उसको पास नहीं रखना चाहिए। अत: वही उपकरण रखे गये कुन्दकुन्द द्वारा जो मोक्षमार्ग पर चलने के लिए उपकारी सिद्ध हो रहे हैं। ये गाथा हमेशा कहते थे हमारे सामने गुरुदेव। 'पडिवज्जदु सामण जदि इच्छदि दुखपरिमोक्ख' श्रामण्य को अंगीकार करो, दुख से मुक्ति यदि इष्ट है तो। दुख से घबराये हो तो श्रमणता को स्वीकार करो। श्रमणता कोई विशेष बात नहीं है, केवल यथाजात कर देना, बाहर से यथाजात हम हो जाते हैं, लेकिन कुन्दकुन्द का कहना है कि जो बाहरी और भीतरी दोनों ओर से यथाजात होता है, उसका नाम यथाजात । जैसा बाहर है-वैसा ही भीतर हो। बाहर तो यथाजात यानि बालक का रूप है, और भीतर पालक का रूप हो, ये कहाँ साम्य बैठता है? तन को नग्न बनाया, मन को अभी तक नहीं बनाया तो काम नहीं चलेगा, मन में यदि वह नग्नता आ गयी तो तन की नग्नता सार्थक हो जाती है और वह पूज्य हो जाती है, स्व और पर को कल्याणकारी हो जाती है। उनका वह यथाजात बालकवत् वह सौम्य मुखमंडल विशाल ललाट उसके ऊपर झुर्रियाँ भी देखने को नहीं आतीं थीं। केवल जान सकते थे, इस पार्थिव ललाट के ऊपर कितनी रेखाएं हैं। लेकिन रेखाएँ कहीं उलझी हुई नहीं थीं, वह निश्छलता उनके ललाट, उनकी आँखों में हमने पायी। हमेशा सरलता जीवन का लक्ष्य था, विरोध उनके जीवन में नहीं आया, बोध हमेशा शोधोन्मुखी बना रहा, कभी भी बोध का प्रदर्शन नहीं रहा, हमेशा लक्ष्य दर्शन की ओर रहता था। किन शब्दों के द्वारा उस महान् व्यक्तित्व की हम प्ररूपणा करें हमें समझ में नहीं आता, उनकी तल्लीनता कैसी थी, मैं इस उदाहरण के माध्यम से आपके सामने रख रहा हूँ- बहुत छोटा था। किन्तु हमेशा-हमेशा कार्य कैसा होता है? क्या होता है? ये देखता रहता था। कार्य होने के उपरान्त कारण की पहचान होती थी और कारण के माध्यम से कभी-कभी कार्य की ओर दृष्टि गढ़ाये रखता था और एक दिन एक कुंए पर बैठा था। कुंआ जल से भरा है, अब क्या करें, ऊपर आम का वृक्ष है और तोते वगैरह अथवा हवा के माध्यम से आम टकरा करके जब गिर जाते, उस आम के वृक्ष के नीचे एक टीन वाला मकान था, उसके ऊपर गिरते थे, आवाज होते ही हम उसे उठाने चले जाते, लेकिन हम उसको पकड़ नहीं पाते और वह गिर करके नीचे कुंआ में चला जाता। अरे, ज्यों ही नीचे चला जाता, अब क्या करें? सोचा आम जल में डूब जायेगा लेकिन देखते क्या हैं कि वह आम डूबा नहीं और वह तैरने लगा तब आशा बंधी की अब वह पकड़ने में आ जायेगा, जाकर के किसी भी तरह पकड़ करके निकाल लेते, लेकिन वह कच्चा ही निकलता, तो हमने कहा ये कैसी बात है। आम टूटा और डूबा नहीं। जब दूसरे, तीसरे ऐसी संख्या बहुत होती, ऊपर बंदर बैठते, बन्दर उन कच्चे आमों को तोड़कर के फेंक देते, तो हम बच्चे नीचे वाले बंदर (सभा में हँसी) देख लेते ये कैसी बात है? आम डूबते क्यों नहीं? लेकिन एक बार पीलापीला आम जब हमारे सामने गिरा और देखा यह भी तैरेगा तो पकड़ में आ जायेगा, लेकिन ज्यों ही गिरा कुंए में चला गया लेकिन कच्चे आम के समान तैरा नहीं, डूब गया। अब पता लग गया ये कैसी बात है। पीला आम तो ऊपर नहीं आया और हरे-हरे आम तो हर-हर करते ऊपर आ गये। ये क्या है? जो कच्चा होता है, वह हमेशा-हमेशा रस की प्राप्त के लिए पुन: पेड़ की ओर देखता रहता है और जो पका हुआ होता है वह रस से लबालब भरा हुआ रहता है। वह पेड़ की ओर नहीं देखते और नीचे डुबकी लगा लेता है, आचार्य ज्ञानसागर महाराज जी के जीवन में हमने यही देखा। वे कभी बाहर से रस नहीं लेते, भीतर से इतना अध्यात्म का रस भरा हुआ रहता था। वो किसी की आकांक्षा नहीं करते थे। यह निश्चत बात है हमेशा-हमेशा वे यही कहा करते थे, जब आत्मा अमृतकुण्ड है, तो हम प्यास बुझाने बाहर क्यों मृगमरीचिका में वृथा भटकते फिरें। युग की दीनता और अज्ञानता उनसे देखी नहीं जाती थी, लेकिन कर्तव्य तो कर्तव्य होता है, अनेक महान् संत हुए उन्होंने अपने शिष्यों के साथ जबरदस्ती नहीं की। तो हमारे साथ ये भी कैसी जबरदस्ती करते। कर्तव्यों के प्रति उन्मुख करने का प्रयास अवश्य करते थे। किसी उलझन को सुलझाने की बात जब पूछते तो महाराज कहते थे कि समय पर सब काम होता जायेगा, संतोष रखा करो। जिसके पास संतोष नहीं होता वह कभी किसी भी प्रकार से उन्नत नहीं हो सकता, जो व्यक्ति उतावली कर देता है वह कभी भी काम को पूर्ण नहीं कर सकता है। उतावली करने से कार्य पूर्ण नहीं होता उलझता और चला जाता है। यह निश्चत है कि अपने उपादान के माध्यम से कार्य होता है, लेकिन उस उपादान के योग्य निमित्त को भी अपने पुरुषार्थ बल पर जुटाते रहना, इतनी ही पुरुषार्थ की सीमा है आगे नहीं बढ़ सकते हैं। यह कर्तव्य की एक परीक्षा है कि हम उस संतोष को कहाँ तक आत्मसात् किये हुए हैं, क्योंकि स्वयंभू स्तोत्र - ७/३ उस भवितव्यता की पहचान दो कारणों के ऊपर ही निर्धारित है। दो कारणों के द्वारा जो अविष्कृत कार्य है, वही उस भवितव्यता की पहचान है। इसलिए हम अपनी मति, अपनी बुद्धि के द्वारा कहाँ तक पहचान सकते हैं, वहीं तक पहचान लें, फिर उसके बाद सीमा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। कार्य तो अपने क्रिया कलापों के माध्यम से सम्पन्न होगा। ऐसा न्याययुक्त आध्यात्मिक व्यवहार आदि सारी कुशलताये हमने उनमे देखो और कभी भी आग्रह वाली बात नहीं थी ज्यादा आग्रह करने से पदार्थ का मूल्य कम होता है। ज्यादा टीका लिखने से मूल का महत्व कम हो जाता है। आप लोग कहोगे कि महाराज ये बात तो गलत कही आपने। नहीं भैया ठीक कह रहा हूँ। जितने भाष्य बनेंगे, जितनी टीका टिप्पणी लिख दी जायेगी जितनी पत्रिका बनेगी उतना ही मूल को चखने का कोई प्रयास नहीं करेगा और टीका-टीकाओं में रहेंगे और टीका टिप्पणी चालू हो जाती है। हम देखते हैं टीकाओं में मतभेद हैं मूल में कोई भेद नहीं है। आज तो बहुत सारी टीका टिप्पणी उन्हीं टीका टिप्पणियों के माध्यम से ही होने लगी। मूल तक पहुँचने के लिए अब हमारे पास गति ही समाप्त हो गयी। हमेशा हमेशा मूल के ऊपर दृष्टि रखने की बात वो कहा करते थे। हिन्दी वे नहीं देखने देते थे, मूल के ऊपर सोचो विचार करो, यह सूत्र उनका मुझे आज प्राप्त है। तत्वार्थसूत्र को जितने बार पड़ता हूँ उतने बार मुझे बहुत आनंद आता है और महाराज जी का सूत्र ताजा होता चला जाता है। भाद्रपद में ही उसका विषय उद्धाटित होता है। बहुत सारी बातें अपने आप उद्धाटित होती चली जाती हैं। यह गुरु महाराज की कृपा है। जितना मूल के ऊपर हम अध्ययन करेंगे, उतना ही हमें आनंद आयेगा। कुन्दकुन्द महाराज की गाथाएं आत्मसात् कर लेना चाहिए। आज कुन्दकुन्द नहीं है, लेकिन कुन्दकुन्द नहीं होने के उपरान्त भी ये ध्यान रखना, हमें कुन्दकुन्द के भावों तक जाने के लिए कुन्दकुन्द की गाथाओं में ही एक प्रकार से डूबना आवश्यक है। हमेशा-हमेशा कुन्दकुन्द की गाथाओं में डूबे रहने वाले ऐसे आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज हमारे लिए वरदान सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह ही नहीं है। लेकिन ये बात बार-बार आ जाती है, कुछ समय और वो दे देते तो और अच्छा होता,ये नहीं सोचते कि हम और कुछ उनसे समय ले लेते तो और अच्छा है। लेने के लिए गाथायें अभी दी हुई हैं ले सकते हैं। हमारी वृत्ति हमेशा-हमेशा द्रव्य की ओर रहती है, भाव की ओर नहीं। ऐसी स्थिति में कुन्दकुन्द तो मिलने वाले नहीं है लेकिन कुन्दकुन्द के भाव हमारे सामने हैं। एक काल का परिणमन जो द्रव्य में हमेशा-हमेशा हुआ करता है, उसको जानकर के युगोंयुगों पूर्व अतीत में जो चले गये हैं, जो अनंत सिद्ध हुए हैं, उनको भी हम अपना आदर्श बना सकते हैं। ये बनाने की कला ऑख बंद करते ही आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज जी के पास थी। दो पंक्तियाँ जो कि उनकी समाधि के उपरान्त मुझे मिली थी। उनको देखने से ऐसा लगा कि ये पंक्तियाँ ज्ञानसागर महाराज के ऊपर बिल्कुल फलित हो जाती हैं। वह पंक्तियाँ यह हैं - जब पहाड़ ही बना तब धूप से क्या जब साधु ही बना तब भूप से क्या जब सागर ही बना फिर कूप से क्या और जब चिन्मय ही बना फिर रूप से क्या उनका अध्यात्म इन पंक्तियों में हमने देखा, वह सौभाग्य हमें भी प्राप्त हो। मैं बार-बार सोचता रहता हूँ वह घड़ी कब आये। नहीं, अब तो सोचना बंद कर रहा हूँ वह घड़ी कब आये ये कहने की अपेक्षा, वह घड़ी अभी भी है। कब की चिंता नहीं और जिसका अब छूट गया, तो कब तो कभी मिलने वाला नहीं है। जिस प्रकार आप लोग चतुराई के साथ व्यापार करते हो। एक बोर्ड लगा देते हो 'आज नगद कल उधार' और उस व्यक्ति के पास से नगद ले लेते हो, और कल के लिए कह देते हो, बेचारा वह कल की इच्छा से आज नगद आपको देकर चला जाता है, और कल आते ही कहता है, आज पुन: दे दो, हाँ-हाँ ठीक है, लाओ नगद। कल कहा था न आपने। क्या कहा था बताओ 'आज नगद कल उधार'। हाँ! कल कभी आता नहीं। कब-कब की चिंता में अब को खोने वाला आचार्य ज्ञानसागर महाराज को पहचान नहीं पाता। २५ वर्ष हो गए पंडित जी मूलचन्दजी लुहाड़िया, किशनगढ़ वक्तव्य दे रहे थे उनको हमने ३० साल से देखा, हमेशा-हमेशा हाँ महाराज कल देखेंगे, समझ में भी नहीं आता। महाराज जी ने भी कहा- मैं ब्रह्मचर्य अवस्था में था, उस समय में भी ये बातें करते थे, महाराज के साथ ही बात करते थे। बात ही करते थे, बात ही करते रह गये। किन्तु काया तो परिवर्तित हो गई। उनको महसूस हो रहा होगा। जिस समय काया में माया थी, उसको तो उन्होंने खो दिया, अब दुनियाँ के कार्यों में उलझ गये। अब करूं? कब करूं? कल करूं? तो ये ध्यान रखना चाहिए था, वो स्वयं भी एक वणिक् हैं और ये वणिक् प्रत्येक समय पर ये बोर्ड लगाये रखते हैं, आज नगद कल उधार, कल कभी आता ही नहीं है। कल कोई वस्तु है ही नहीं। भविष्य में क्यों झूल रहे हैं। इसी का नाम है, आचार्य ज्ञानसागर महाराज को नहीं समझना। इसलिए ऐसे व्यक्ति कभी आप लोगों को निर्देशन देने लग जायें तो इनके निर्देशन कभी प्रभावकारी नहीं हो सकते। निर्देशन मानना चाहिए आचार्य ज्ञानसागर महाराज जैसे साधकों का। उनके अनुसार चलने वाला एक कदम भी चला देते हैं तो भी ठीक है। लेकिन ऐसे केवल बात करने वालों से महाराज ज्ञानसागर जी कहते थे बचियो, क्योंकि वे कभी भी यहाँ तक जाने नहीं देंगे। वह बात करने वाले महाराज नहीं थे, उनके द्वारा साहित्य का इतना विशाल भण्डार बनाया गया। आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने मुनि अवस्था में बहुत कम लिखा। लेकिन पंडित अवस्था में लिखते चले गये और जब समझ में बात आ गयी, तो सब विकल्प छोड़कर यथाजात रूप धारण कर लिया। समयसार की हिन्दी टीका उनकी अंतिम कृति मानी जा सकती है, उसका उन्होंने अच्छे ढंग से चिन्तन मंथन के साथ लखा फिर लिखा। लिखना तो जीवन पर्यन्त हुआ, अब तो लखने का अवसर प्राप्त हुआ है ऐसी भावना मुनि अवस्था धारण करते ही हो गई थी। हमेशा-हमेशा प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले, वह साधकों से कहा करते थे मैं प्रचारक नहीं, एक साधक हूँ और साधक हमेशा साधना प्रिय ही होता है। उनका जीवन का लक्ष्य क्या है? यह तो उनके जीवन के अंतिम क्षणों से ही ज्ञात हो सकता है। यह बात अलग है उनके पास वज़वृषभनाराच संहनन यदि होता तो निश्चत रूप से कैवल्य को उपलब्ध कर लेते और अनेकों के लिए वह कार्यकारी सिद्ध हो जाते। लेकिन कर्म का ऐसा संयोग है, उसके कारण से वह कार्य नहीं हुआ। लेकिन उनका कार्य रुका हुआ नहीं है, जब तक मुक्ति नहीं हुई तब तक उनकी साधना बनी रहेगी क्योंकि वह आत्म साधक थे। चारित्र के साथ ज्ञान की साधना करने वालों के ज्ञान संस्कार के रूप में पर भव में भी जाते हैं। लेकिन अविरत अवस्था में जो ज्ञान रहता है। उसका कोई पतियारा नहीं रहता है, ऐसा शास्त्र का उल्लेख है। जब नेत्र खुल गये और पैर मंजिल की ओर बढ़ने लगे, अब डरने की कोई बात ही नहीं, मंजिल पास आयेगी या हम मंजिल के पास चले जायेंगे। ये ध्रुव सत्य है। श्रद्धान के साथ ही उनका जीवन श्रद्धा के तद्रुप था। इतनी क्षीण काया में भी, वह ज्योत जलती थी और वह तेज था उनमें कि उन्हें देखकर डरा हुआ व्यक्ति भी साहस पा जाता था, हमें बहुत विकल्प होते थे। ज्ञानसागर महाराज जी के जाने के उपरान्त हमारा क्या होगा। अरे स्वार्थी दुनियाँ ये तो सोच रहा है हमारा क्या होगा अरे भाई ये भी सोच लेना चाहिए कि प्रति समय कितना बड़ा उपकार किया है अत: उनको जल्दी-जल्दी सद्गति हो, उनकी यात्रा पूर्ण हो, यह भी विचार करना चाहिए। उनसे हमें इतना साहस मिला है कि अब डरने की बात नहीं है। आदि रहित अंत रहित ये महान् समुद्र होते हुए भी तैरने वाला व्यक्ति कभी भी डरता नहीं है। ऐसा जहाज हमें प्राप्त हो गया। ऐसी दिव्य दृष्टि हमें प्राप्त हो गई। ऐसा पथ हमें प्राप्त हो गया। अब मंजिल की चिंता नहीं। अब यही विकल्प है कि वह घड़ी जल्दी-जल्दी आ जाये। वह घड़ी आनी अवश्य है क्योंकि परिणाम हमारे भीतर हो रहा है, घड़ी अवश्य आवेगी। घड़ी जो बंधी हुई है, वह रुक सकती है, लेकिन यह परिणमन कभी भी रुक नहीं सकता। ध्रुव की ओर जो यात्रा प्रारम्भ हो गई अब मंजिल कभी भी ओझिल नहीं हो सकती है। निश्चत रूप से हमें प्राप्त होगी। ज्ञानी को कभी भी भविष्य में घटित होने वाली उस परिणति के ऊपर विस्मय नहीं होता, आकुलता नहीं होती, भूमिका के अनुसार हो जाये तो भी उसका अलग ही स्वाद होगा। हमें भी वही स्वाद प्रति समय आना चाहिए और इससे भी आगे बढ़ करके आये ये भावना होनी ही चाहिए। आकुलता नहीं है। आकुलता करने से कर्तव्य च्युत हो जाता है जीव। कर्तव्य के लिए भी आकुलता होती है, मैं मानता हूँ लेकिन कर्तव्य की आकुलता वह सामयिक होती है। वैकालिक नहीं हुआ करती है क्योंकि कर्तव्य के उपरान्त अपना जो गंतव्य है, लक्ष्य है, उसकी ओर हमेशा दृष्टि चली जाना चाहिए। ऐसे ज्ञानसागर महाराज श्री के चरणों में बार-बार नमोस्तु करता हूँ। आज भले ही परोक्ष कहता हूँ लेकिन वो परोक्ष नहीं है। हमारे लिए तो वे हमेशा-प्रत्यक्ष हैं। तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव हपदद्वये लीनम्। तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद् यावद् निर्वाण सम्प्राप्तिः ॥ (समाधि भक्ति-७)
  7. यहाँ पर सब अपने-अपने कर्तव्य करते हैं और कर्तव्य के फलस्वरूप उसके फल को प्राप्त करते हैं। कर्तव्य से विमुख होना फल से विमुख होना है। कर्तव्य अपना होता है, अपने लिये होता है किन्तु उद्धार के लिये बाहर के पदार्थ को भी निमित्त बनाया जा सकता है। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो अपनी आत्मिक साधना अपने आपके माध्यम से करते हैं किन्तु उस समय दूसरा कोई साधक उस साधक को निमित्त बनाकर अपना उद्धार कर लेता है। दूसरी बात यह कहना चाहूँगा कि कुछ साधक ऐसे होते हैं जो दूसरे का निमित्त लेकर अपने आपकी साधना में लीन हो जाते हैं। आप देख लीजिये, आपको भी अपनी साधना पूर्ण करनी है। आपको कहाँ जाना है, ये मुझे ज्ञात नहीं, आपको ज्ञात करना है। हाँ, चलने से पूर्व आप पूछताछ कर सकते हैं कि मेरा भला किसमें है। बहुत लम्बी-चौड़ी राह को पार करके आप आये हैं। बल्कि यूँ कहना चाहिए वह राह ही नहीं थी जहाँ से आप आये हैं। भटकते हुए आये हैं, किन्तु अब भटकन के बिना सीधा जाना है, जहाँ से पुनः लौटकर नहीं आना है। आपको यह निश्चत करना है कि हमें वहाँ तक जाना है या नहीं? सुख-शान्ति प्राप्त करने का उद्देश्य रखते हैं लेकिन सुख का चुनाव, सुख की परिभाषा ज्ञात नहीं है। इसीलिए सुख को कई ढंगों से परिभाषित किया जाता है। उन्हीं में से एक को आप लोगों ने भी चुना होगा। ध्यान रखो, एक बार प्राप्त होने के बाद पुन: न छूटे उसी का नाम सुख होता है। एक बार धारा बहती हुई सागर में मिल जाये तो पुन: वहाँ से बाहर नहीं आती। नदी, पहाड़ की चोटी से निकलकर सागर में जाती है। नदी कभी भी लौटकर पहाड़ की चोटी की ओर नहीं जाती। इसी प्रकार हमें उस सागर तक जाना है। सागर तक जाने के लिये नदी को दो तटों के बीच से बहना पड़ता है। सरिता के पास यदि तट न हों तो सरिता सागर का मुख नहीं देख सकती। आपको अपने तटों को बाँधकर उसके बीच में से निकलना है। अन्यथा आपकी वह मंजिल आपके पास नहीं आयेगी। आप को वहाँ तक जाना है तो जाने के लिये कटिबद्ध होना है कि आपके तट बहुत अच्छी तरह से मजबूत बने रहें। संसार में प्राणी यात्रा बहुत जल्दी चालू कर देता है किन्तु बहुत जल्दी वह खो भी देता है। पूर्ण नहीं कर पाया आज तक। इस संसारी प्राणी ने उस यात्रा को पूर्ण करने के लिये मजबूती के साथ, उस साधना पथ को नहीं अपनाया जिसके तट मजबूत हैं। गर्भ में आप कई बार आ चुके हैं। जन्म आपका कई बार हो चुका है और कई तपस्याएँ भी आपने की हैं। नहीं की हैं, ऐसी बात नहीं है और आज ज्ञान का युग है, विज्ञान का युग है। आज उस विज्ञान का एक प्रकार से विकास देखने में आ रहा है किन्तु अन्तिम कल्याण, जिसको बोलते हैं ‘निर्वाण' यह आज तक नहीं हुआ है। दुख मिटा नहीं और सुख हासिल नहीं हो सका। उसका मूल कारण यही है कि हमारा चुनाव गलत है। वह चुनाव क्या है? हमें बुद्धि का प्रयोग करना है, विवेक जागृत करना है। उस चीज को प्राप्त करने के लिये बहुत कसरत की आवश्यकता नहीं और शारीरिक शक्ति की भी विशेष आवश्यकता नहीं है। किन्तु एकमात्र यह निर्णय करना है कि आज तक जिन-जिन साधनों के द्वारा हमें सुख प्राप्त नहीं हुआ उनके द्वारा तीन काल में सुख मिलने वाला भी नहीं है। किन्तु सोचना यह है कि कौन-सा ऐसा साधन है जिसके द्वारा शाश्वत सुख उपलब्ध हो सकता है। आँख के द्वारा, रसना के द्वारा और नासिका के द्वारा उपलब्ध नहीं हो सकता। किन्तु वह केवल विवेक के नेत्रों से ही देखा जा सकता है, जाना जा सकता है। जिन्होंने इस नेत्र के माध्यम से उसको उपलब्ध किया उनके पैर धोकर आप निर्देश प्राप्त कर लें। सुख-शान्ति कहाँ है? जग में सुख है ही नहीं। खुद में सुख की खान। निज नाभि में गन्ध है। मृग भटकत बिन ज्ञान॥ यह निश्चत है कि गन्ध के लिये मृग भटकता चला जाता है, भटकता चला जाता है। गन्ध आ रही है, गन्ध का स्रोत कहाँ है? यह पता नहीं है और वह भटकना प्रारम्भ कर देता है। भटकताभटकता वह रुक जाता है, गिर जाता है लेकिन फिर भी उसे यह ज्ञान नहीं है कि गन्ध कहाँ से आ रही है? गंध तो उसकी नाभि में से आ रही है। आप लोग सुख चाह रहे हैं, आप लोग भी दुनियाँ में सुख ढूँढ़ रहे हैं लेकिन सुख तो आपकी आत्मा में है, यह आपको ज्ञान नहीं है। इसका ज्ञान न होने से हम लोगों ने अनन्तकाल को यों ही खो दिया। ऐसा खो दिया जिसका अब हमें पश्चाताप ही एकमात्र मिलने वाला है। अनन्तकाल व्यतीत हो गया किन्तु हमें इस सुख का एक समय के लिये भी अनुभव नहीं हुआ। जिन्हें हुआ, उनका मार्गदर्शन हमने स्वीकार किया नहीं। सूर्य प्रथम घड़ी में उगता है और अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। आसमान में लाखों मीलों ऊपर वह सूर्य की यात्रा प्रारम्भ है और लगता है जैसे आपके आँगन में आ रहा है। रुकने वाला है, ऐसा लगता है। उसकी ओर देखेंगे तो रुका हुआ लगता है। किन्तु बाद में ऐसा लगता है पाँच मिनट के उपरान्त जैसे वह खिसक गया है क्योंकि छाया दिखती है। छाया जहाँ पहले थी वह वहाँ से अन्यत्र स्थानांतरित हो चुकी है। वह सूर्य रुकता हुआ-सा लगता है लेकिन रुकता नहीं। हमें बुलाता हुआसा लगता है लेकिन बुलाता नहीं। मात्र ऐसा लगता है मानो हमारे लिये अपने किरणमयी हाथों को छोड़कर कह रहा हो कि तुम भी आ जाओ मेरे साथ। वह ऐसा कहता सा लगता है लेकिन कहता नहीं। जब सूर्य का उदय हो गया, तो वह तीन लोक को प्रकाशित करता है यह उसका महान् उपकार है। आप सोये हैं अपने घर में। सूर्य का उठना हो गया, आपका उठना नहीं हुआ क्योंकि किसी ने उठाया ही नहीं आपको। सूर्य ऊपर आ गया फिर भी आपकी नींद नहीं टूटी। सूर्य आने का प्रयास कर रहा है। आया है आपके पास, लेकिन अपनी यात्रा को रोकते हुए नहीं। आपके घर के लिए नहीं आया किन्तु आपके घर के पास से घर के ऊपर से गुजर रहा है वह। आपने अपने दरवाजे बन्द कर रखे हैं। खिड़कियाँ भी बन्द हैं। कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता हमारे घर के भीतर क्योंकि घर का निर्माण हमने किया है। अब उठाये तो कौन उठाये? फिर सूर्य का प्रकाश किसी छिद्र के मुँह से भीतर भी आ रहा है। फिर भी आप उठते नहीं। रजाई ऊपर लेकर सो जाते हैं। फिर भी उसका प्रयास है किन्तु रुकता हुआ नहीं, जाता हुआ आपको उठा रहा है। कैसे उठा रहा है? सूर्य के पास दो साधन हैं उठाने के-एक प्रकाश-किरण, दूसरा ताप-उष्णता। किरणों के माध्यम से उसने उठाना चाहा किन्तु आपने आँख बन्द रखी। दूसरे साधन के माध्यम से उठाना चाहा। हाथों-हाथ आप में ऊष्मा आयेगी। रात में सूर्य का उदय नहीं होने के कारण ऊष्मा का अभाव रहता है किन्तु दिन ज्यों ही उदय हो जाता है त्यों ही, विज्ञान कहता है कि अपने शरीर में एक प्रकार से उष्णता का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है। निश्चत है, उस उष्णता के कारण ही आपमें पाचन-शक्ति बढ़ती चली जाती है। इसी प्रकार सूर्य आपके पास ऊष्मा छोड़ देता है और उसके माध्यम से आपको गर्मी लगती है। गर्मी लगने से आप क्या करते हैं? पहले रजाई को हटा देते हैं। जहाँ हटा दिया वहीं किरणों के माध्यम से सूर्य के दर्शन हो जाते हैं। जब तक रजाई नहीं हटाओगे तब तक सूर्य का दर्शन तो नहीं होगा किन्तु ऊष्मा की अनुभूति तो अवश्य होगी आपको। जब कभी भी इस विश्व में महान् आत्मा ने जन्म लिया और अपनी यात्रा प्रारम्भ की उस समय उन्होंने यही कार्य किया। यह कार्य उनका अनिवार्य कार्य नहीं है। दूसरे के लिए उनका कार्य नहीं होता; किन्तु दूसरा अपना कार्य कर लेता है तो बहुत अच्छी बात है। उसके लिए धन्यवाद देने के लिये भी वह नहीं आता। आप धन्यवाद दे दो तो भी वह सुनने के लिए तैयार नहीं होता क्योंकि आपका कार्य हो गया, बहुत अच्छी बात है। मैं करना नहीं चाहता था लेकिन हो गया, आप सावधान हो गये बहुत अच्छी बात है। ऐसे-ऐसे अनन्त सूर्य हमारे सामने से गुजर चुके हैं किन्तु हम लोगों की आँख नहीं खुली। हम लोगों ने बुद्धि का प्रयोग नहीं किया। ऐसी महान् विभूतियों का उपयोग नहीं किया। आज हम अपने आप को पश्चाताप की गर्त में देखते हैं और भीतर आत्मा में ऐसी पीड़ा होती है कि कितना अज्ञानरूपी अन्धकार है जो कि सूर्य सामने आ गया तो भी हमने आँखों को खोल कर देखा तक नहीं। ऐसे तेजपुञ्ज व्यक्तित्व आये फिर भी उनका महत्व हमने नहीं समझा। और आज केवल छोटे से दीपक के लिए हम लोग सोच रहे हैं। हमारे पास दीपक है, निश्चत बात है। लेकिन दीपक कब काम करता है? आप लोग सोची, विचार करो। दिन में दीपक काम नहीं करता। किन्तु दिवाकर का जब अभाव होता है उस समय दीपक काम कर जाता है। रात में दीपक का मूल्य समझ में आ जाता है। आज वे चले गये, निश्चत बात है। लेकिन एक दीपक का रूप हमारे सामने विद्यमान है। इसके माध्यम से अतीत के खण्ड में जितनी आत्मायें चली गई उनका मूल्यांकन कर सकते हैं, करते हैं और एक बार अपनी आत्मा को, अपने कलुषित भावों को धिक्कारते हैं। कितनी हम अनर्थ की क्रियायें और अनर्थ के कार्य कर चुके, इनका लेखा-जोखा लगा सकते हैं। संसार है तो मोक्ष है। भोग है तो योग है। सुख है तो दुख है, अशान्ति भी है। ये दोनों धारायें अनादिकाल से चल रही हैं। उन धाराओं में से एक धारा सांसारिक प्राणी के लिए प्रमुख रही है, जो भोग धारा है, संसार की धारा है। सुख-शान्ति चाहते हुए भी हम अपने आपको इस विषाक्त वातावरण से ऊपर नहीं उठा पाये इन्हीं विषयों में सुख ढूँढ़ रहे हैं। अब यह सोचना है कि हमें विषयों की गन्ध तो बहुत बार आ गई। वह सुगन्धी कहाँ से आती है उसे पहचानना है। ‘निज नाभि में गन्ध है, मृग भटकत है बिन ज्ञान' पर की तरफ दौड़ने वाला ज्ञान, ज्ञान नहीं है। आप टॉर्च के द्वारा दूसरे को देख सकते हैं। टॉर्च के द्वारा दूसरे आपको देख सकते हैं। दूसरे पदार्थ के ऊपर टॉर्च का प्रभाव पड़ सकता है। ध्यान रखें टॉर्च को आप अपने ऊपर डाले तो भी उस टॉर्च के द्वारा आपको अपने आपका ज्ञान नहीं होगा। होगा तो भी अपने मुख का नहीं होगा, ये ध्यान रखें। हाथ का हो सकता है, पैर का हो सकता है, पेट का हो सकता है और किसी का हो सकता है। किन्तु उस टॉर्च को आप मुख के ऊपर भी छोड़ दो तो टॉर्च तो दिख सकती है लेकिन अपना मुख नहीं दिख सकता। इस विज्ञान से क्या मतलब है? जिसके द्वारा वह दूसरे को दिखा सकता है लेकिन स्वयं देखने में नहीं आ सकता उस विज्ञान से कोई मतलब नहीं। उस विज्ञान की यहाँ बात कही जा रही है जो अपने आपको दिखा देता है। जैनदर्शन इसी विज्ञान की बात करता है। आँख के द्वारा दुनियाँ को देखना सरल है किन्तु आँख के द्वारा आँख को देखना असंभव है। आप अपनी आँख दूसरे को दिखाते हो लेकिन आँख को जरा सा कह दो कि हे आँख! तू दूसरे को ही देखती है कभी अपने आपको तो देख ले। नहीं देख पायेगी क्यों की उसके पास वहे हिम्मत नहीं, क्षमता नहीं, योग्यता नहीं, धन्य हैं वे, जिन्होंने अपने ऐसे प्रज्ञा चक्षु को जगा लिया। ऐसे दीपक को जला लिया कि संसार के सारे तूफान आ जायें तो भी वह उस तूफान से कभी भी बुझने वाला नहीं है। आज के दीपक ऐसे हैं जो बुझ जाते हैं। बुझे हुए ही हैं। कभी सोचा है आप लोगों ने पंचकल्याणक महोत्सव क्या होता है? उद्धार की बात जिसमें निहित है, वह पंचकल्याणक होता है। उसमें मेरा कहना है कि पंचों का भी कल्याण होना चाहिए। प्राय: लोग यह कहते हैं कि पंचकल्याण होता है। पंचों का कल्याण नहीं होता। पंचों का कल्याण नहीं होता क्योंकि प्रपंचों में पड़े रहते हैं इसे भली-भाँति समझने पर प्रपंचों को छोड़ने पर कल्याण हो सकता है। इन पंचकल्याणकों से शिक्षा लेनी चाहिए। ऐसा विचार आना चाहिए कि वह गर्भ भी धन्य है, वह जन्म भी धन्य है, वह तप भी धन्य है। वह ज्ञान तो धन्य है ही किन्तु वह उनका मरण भी धन्य है। इन आत्माओं का मरण तो होता ही नहीं, शरीर का मरण हो जाता है और आत्मा को तो शरीरातीत अवस्था प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः ‘निर्वाण' का अर्थ ही सही मायने में जन्म माना जाता है। आज तक यह बन्धन में पड़ा हुआ है, संसारी प्राणी जेल में पड़ा हुआ है। जेल को जेल यह समझ नहीं पा रहा है। जेल में रहते हैं लेकिन जेल क्या वस्तु है यह ज्ञात नहीं है उसे। यहाँ रह रहे हैं। रहते— रहते ऐसा हो गया कि मानो यही स्थाई घर हो। शरीररूपी जेल को ही घर मान रहा है अत: यह शरीर न छूट जावे इसकी ही चिन्ता करता रहता है। भीतरी आत्मा की बात कोई पूछना नहीं चाहता, जो वास्तविक घर है। अपनी आत्मा की बात यदि कोई बताता है तो सुनते नहीं और सुन भी लेते हैं तो एक कान से सुनकर दूसरे कान से छोड़ देते हैं। उसके ऊपर अमल करने की चिन्ता किसको है? किसी को भी नहीं। बहुत समय निकल चुका हमारे जीवन का। वह आत्मतत्व महत्वपूर्ण नहीं रहा है हमारे सामने। केवल इधर-उधर की बातों में हमारा समय, जीवन निकल जाता है। आत्मा का उद्धार किसमें है? कैसे होता है, यह बात बहुत कम हम समझते हैं और समझने की चेष्टा भी बहुत कम करते हैं। नीति-न्याय का संचार हो, भारतवर्ष में ही नहीं किन्तु सारे विश्व में, किन्तु, इस ओर दृष्टि किसी की भी नहीं जा रही है। आज करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं, होते रहेंगे यह निश्चत बात है। लेकिन जैनधर्म की महिमा क्या है? वस्तुतः जैनदर्शन क्या है? इसकी सर्वोपयोगिता क्या है? इसके बारे में बहुत कम लोग सोच रहे हैं। सोचने के लिये कह भी दिया जाता है तो कहते हैं कि हाँ महाराज, सोचते हैं, ऐसा कहकर चले जाते हैं, लेकिन सोचते कम और कहते ज्यादा हैं। इससे जैनधर्म की प्रभावना होने वाली नहीं है। जैन धर्म की जो सर्वोपयोगिता है वह समझनी है। यह समय आया है जब आपको उसे विश्व के कोने-कोने तक ले जाना है। हिंसा करना महान् पाप है, झूठ बोलना महान् पाप है, चोरी करना भी महान् पाप है, कुशील भी महान् पाप है, लेकिन किसी ने भी आज तक परिग्रह को पाप समझा ही नहीं। परिग्रह का अर्थ क्या होता है? परिग्रह का अर्थ होता है आत्मा की परतन्त्रता जिसके ऊपर आधारित होती है उसका नाम परिग्रह है। आत्मा जिसके द्वारा अपने स्वतन्त्र रास्ते को छोड़कर के भटकाव में पड़ जाता है उसका नाम परिग्रह है। यह मीठा जहर का काम करता है। लेकिन त्याग के माध्यम से रास्ता खुल जाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने अपने 'प्रवचनसार' जैसे दिव्य ग्रन्थ में यह लिखा है कि इस परिग्रह से मोह छूटेगा तभी यह संसारी प्राणी आत्मा के वैभव के बारे में पहचान सकेगा/जान सकेगा। सबसे महान् पाप तो यही माना जाता है 'परिग्रह' जिसके माध्यम से आत्मा की दिव्य ज्योति मिट जाती है। केवलज्ञानरूपी शक्ति आत्मा की जैसे कुंठित हो गई, समाप्त जैसी हो गई है। ध्यान रखो पुद्गल कर्म के कारण। यह पुद्गल क्या है? वस्तुत: परिग्रह है। एक भीतरी परिग्रह माना जाता है वह केवल ज्ञानावरण कर्म, जिसके आवरण से आत्मा का दिव्यज्ञान भी समाप्त हुआ है, दिव्य प्रकाश समाप्त हुआ है और अन्धकार चारों ओर फैला है। उस अन्धकारमय जीवन के सामने कोई भी व्यक्ति जाजवल्यमान तेज देख नहीं सकता; क्योंकि अन्धकार के पास में वह ऑखें हैं ही नहीं। अन्धकार हमेशा काला दिखता है। देखने वालों को वह काला ही परिचय में आता है उसके पास वह धोलापना/धवलपन है ही नहीं। परिग्रह महान् पाप माना जाता है बन्धुओ! धनादिक परिग्रह, उसके बन्ध के लिए मुख्य कारण होता है। केवल ज्ञानावरण कर्म का बन्ध तब तक होता रहता है जब तक आपके पास मोह उदय में रहता है और मोह का दूसरा नाम मूच्छा परिग्रह है, ऐसा कहा गया है। उसकी आप रक्षा करोगे तो केवलज्ञान प्रकट नहीं हो पायेगा और यदि केवलज्ञान की उत्पति चाहते हो तो मोह का त्याग बताया गया है। उसके लिये एक स्थान पर लिखा है कि आचार्यों को, सन्तों को, श्रमणों को अपना आत्म-कल्याण करते-करते ऐसी देशना देनी चाहिए जिसके द्वारा समाज का जो अन्धकार है वह मिट जाये। उपदेश में यही कहा जाता है कि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करो तो निश्चत रूप से यह अन्धकार मिट सकता है। जिनेन्द्रदेव को पहचानना अनिवार्य है। हमारे भगवान् कैसे होते हैं? हमारे भगवान् के पास तिलतुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता। वीतरागता का उपदेश देने के लिये वे खड़े हो जाते हैं लेकिन राग में डूबे हुए व्यक्ति को उनका उपदेश हजम नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार से इन रागियों को वीतरागता की ओर आकर्षित करना, यह अपेक्षित है। आपका मोह छूट जाये। मोह मजबूत नहीं हो, मोह टूट जाये। इस अपेक्षा से यह दान, यह त्याग, इसका उपदेश दिया गया। हाँ, ये ध्यान रखें कि अगर बहुत परिग्रह बढ़ाते जायें और थोड़ा-सा निकालें तो इससे कोई मतलब सिद्ध होने वाला नहीं है। मतलब तब सिद्ध होगा जब आय के अनुपात में दान की क्रिया बढ़ जाये तो यह मूच्छी घट सकती है। जहाँ धन की आवश्यकता है वहाँ धन को दान में लगाना चाहिए। जहाँ तन की आवश्यकता है तो तन को लगा देना चाहिए। यदि वचन की आवश्यकता है तो वचन को लगा देना चाहिए और यदि मन की आवश्यकता है तो मन को लगा देना चाहिए। इन्द्र और कुबेर सोचते हैं कि हम कब इस वैभव से हाथ धोकर नीचे चले जायें मनुष्य गति को प्राप्त कर लें और आप क्या सोचते हैं? कि हम यहाँ से जल्दी-जल्दी मनुष्य से ऊपर कैसे चले जायें।? स्वर्गीय वैभव को प्राप्त करने की इच्छा रहती है, यह गलत बात है। धर्म के रहस्य को समझने वाला व्यक्ति ही इसको समझ सकता है कि वस्तुत: धन का मार्ग, मार्ग नहीं है। धन के त्याग का नाम ही धर्म है। जिनके राग का त्याग होता है उनके लिये धर्म का उपदेश सुनने की पात्रता प्राप्त हो जाती है। मोह के कारण संग्रह कर लेता है। जब ज्ञान हो जाता है तो उसको खोल देता है। खोल क्या देता है, उसको पीछे छोड़ देता है और चला जाता है; क्योंकि यह मेरे लिये बाधक तत्व है। यह राग आग के समान है, ऐसा सन्तों का कहना है। यह राग विष के समान है, ऐसा सन्तों का कहना है। यह भारत की धर्म प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जो आगे बढ़ना चाहती है, पीछे हटना नहीं चाहती। और पीछे जो रह गया उसकी सुरक्षा की फिक्र नहीं करती। यह धन की फिक्र, चिन्ता आप लोगों को सताये चली जा रही है। धन के कारण ही धर्म छूटा हुआ है। हमारे भगवान् जो प्रतीक के रूप में रहते हैं वे कैसे है? मालूम है आप लोगों को कि वे वैभव के ऊपर बैठते हैं और आपके ऊपर वैभव बैठता है। आपमें और जिन के जीवन में यही अन्तर है। यह वैभव आप अपने सिर पर लाद लेते हैं और स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं और हमारे भगवान् वैभव को नीचे रख देते हैं। कभी छूते भी नहीं। वैभव से बिल्कुल दूर रहते हैं। मोह नहीं है, मोह नहीं है तो भय नहीं है, भय नहीं है तो परिग्रह नहीं है और परिग्रह नहीं है तो पूर्ण स्वतंत्रता है। आप बँधे हुए हो और लोभी हो अत: परतन्त्र हो। चाहते हैं सुख लेकिन सुख का साधन क्या है यह ज्ञात नहीं है। कुन्दकुन्द भगवान् ने यही कहा है कि इन गृहस्थों को, इस समाज को दान पूजा का उपदेश दो। दान की आवश्यकता है लेकिन दान वही माना जाता है जो आदान की आकांक्षा से दूर रहता है। तीर्थकर एवं साधु सारी दुनियाँ को सन्मार्ग दिखाते हैं लेकिन फल के रूप में कुछ माँगते नहीं। कोई देना भी चाहता है तो लेते नहीं। फिर भी पटक देता है वह, तो भी उसे छूते नहीं। उस तरफ देखते नहीं। अर्थात् दानी आदान की आकांक्षा नहीं करता। निकांक्षित त्याग होना चाहिए। दान, वह दान जो कभी भी कहता नहीं कि मैंने दान दिया है। दान कहाँ दिया? मान लीजिये हमने कुछ खा लिया। तीन-चार ग्रास पेट में चले गये। सामने थाली भरी हुई है। हाथ में ग्रास है, मुँह में ग्रास चबाया जा रहा है। ज्ञात हो गया इस भोजन में अन्न में विष है। उस समय आप क्या करेंगे? कोई बात नहीं इस बार भोजन तो बहुत दिनों के बाद मिला है। कल से नहीं खायेंगे। अभी तो खा लेने दो। कहेंगे क्या आप? नहीं, जब तक अज्ञात था तब तक वह थाली थी और बहुत मिष्ठान्न था और सब कुछ था और डकार ले रहे थे लेकिन ज्यों ही विष है, यह सुनने में आया त्यों ही उस थाली को और हाथ में जो था उसको फेंक देते हो और मुँह में जो है उसको निगल लिया? नहीं, उसको थूक देते हो और जल्दी-जल्दी चलो, डॉक्टर को फोन करो। जल्दी और भागते हुए चले जाओगे। जल्दी करो-जल्दी करो, जितना चाहो उतना पैसा ले लो डॉक्टर साहब । लेकिन क्या हुआ? बताओ तो सही। विष खाने में आ गया। कैसे मालूम पड़ा? ऐसे मालूम पड़ा। कितने ग्रास खा लिये। ३-४ ग्रास खा लिये। आपने विष खा लिया है। उल्टी की सोच रहा हूँ लेकिन उल्टी नहीं हो पा रही है। डॉक्टर साहब उल्टी करा सकते हो तो जल्दी उल्टी कराओ। डॉक्टर साहब कहते हैं उल्टी करा तो दूँ लेकिन विष तो फैल-गया है खून के अन्दर। डॉक्टर साहब आपके बस में जो कुछ हो जल्दी-जल्दी कर लो। ऐसा कोई इन्जेक्शन, कोई टेबलेट निकाल कर दे दो ताकि हमारे प्राण बच बायें। डॉक्टर पूरा पुरुषार्थ करता है, वह निकाल देता है आपके विष को और आप उसके चरण-स्पर्श कर लेते हैं। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में हमारे विष को विषाक्त वातावरण को निकालने वाले वे हमारे गुरु हैं हमारे कुन्दकुन्द है, हमारे जिन हैं , भगवान् हैं जिनके दर्शन मात्र से यह अनंतकालीन व्याप्त हुआ विष भी समाप्त हो जाता है। अमृत के खोज की कोई आवश्यकता नहीं है बन्धुओ, विष से बचो। निश्चत रूप से अमृत मिलेगा। अमृत कहीं दूर नहीं है। विष खाते चले जा रहे हो आप। उस विष से बचाने वाला जिनधर्म है। जिन्होंने अपने गृहस्थाश्रम में रहकर भी इस प्रकार की कलुषता से बचने के लिए प्रयास किया, जिनधर्म की प्रभावना के लिये यथाशक्ति अपने समय पर जहाँ जैसा चाहिए आवश्यकता हो, उसे लगाकर व्यक्तियों को इस अहिंसा, इस सत्य, इस अनेकांत धर्म की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया, उनका वह जीवन इस अवसर्पिणी काल में/पंचम काल में भी धन्य है। वह चतुर्थ काल का अनुभव कर रहा है क्योंकि आज वह जगा है, ऐसा जगा है कि आज तक जो प्रकाश नहीं देखा था वह दिख गया। वह सद्नमित्तों को पाकर अपने आपका भला कर रहा है यही एक सही विज्ञान है और ज्ञान चक्षु है, यही आपको समझना है। आप अपनी संतान के लिये भी इसी प्रकार का उपदेश दीजिये। परिग्रह के जंजाल में उसे मत फेंसाइये। सिर्फ लिमिटेड, बाउण्ड कर दीजिये। एक सीमा बाँध दीजिये। सीमातीत सुख को पाना चाहते हो तो कम से कम आप परिग्रह की सीमा बाँध दीजिये। परिग्रह को अभिशाप, महान् दुख का कारण और महान् पाप समझ लीजिये। आचार्य उमास्वामी ने मूच्छा परिग्रह कहा है। धन के प्रति ऐसी मोह-ममता मत रखिये कि धन का अभाव होते ही अपने जीवन में दुख का अनुभव होने लग जाये, नहीं। धन तो आया है और चला जायेगा। यह उपदेश आप दूसरों के लिये भी देते हैं। देते हैं कि नहीं? धन क्या वस्तु है रुपयापैसा क्या वस्तु है? अरे! ये तो हाथ का मैल है। अहा कैसा उपदेश है। अरे हाथ का मैल है तो निकाल कर देते क्यों नहीं? उसको तो आप जेब में रखो। ट्रेजरी में रखो। यह ठीक नहीं है। धन का लोभ ही संसार को बढ़ाने वाला है। मनुष्य ही धन का लोभ रखता है और स्वर्ग के देव धन का लोभ नहीं रखते हैं। इसलिए धन छोडो। तिर्यच आज तक सोने-चाँदी का जेवर पहन करके, आभरण पहन करके, आपके यहाँ आये होंगे? हमें सुना देना, आये हैं क्या? यह अलग बात है कि आप लोगों के यहाँ गाय है या भैंस है तो आप ही उसे आभूषण लटका दो तो बात अलग है। फिर भी वे उसे श्रृंगार के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। वह तो उसे बंधन मानेगी उससे छुटकारा पाने का प्रयास करेगी। आप ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, आपका ही एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो जड़ के माध्यम से अपने आपकी शोभा बढ़ाना चाहता है। अन्य कोई भी प्राणी नहीं। आप अभी नहीं फेंक पा रहे हैं क्योंकि उसका मूल्यांकन ज्यादा किया है आपने और धर्म का कम किया। धर्म को प्राप्त करने के लिए धन को पर ही नहीं दुख का मूल कारण मानना पड़ेगा। धन्य हैं ऐसे समन्तभद्र महाराज, जिन्होंने आप जैसे व्यक्तियों को यह समझाने का प्रयास किया है। बार-बार समझाना ही तो हमारा कर्तव्य है (Its is our duty)। यह हमारा कार्य है। कोई जबरदस्ती नहीं है। इसके माध्यम से यह समझ आपको फौरन प्राप्त होती है, तो ठीक है, नहीं तो यह सूर्य उदयाचल से उदित होकर अस्ताचल की ओर जा रहा है। उसने अपनी यात्रा पूर्ण कर दी। हमारा भी समय हो गया। आये हैं तो चले भी जायेंगे। आप को भी यहाँ से जाना है। आये तो हैं लेकिन भटकते हुए आये हैं। सही रास्ता पकड़ करके सही दिशा में और सही मंजिल पर पहुँचें यही एकमात्र भावना रहती है, रहनी चाहिए। इस अर्थ के युग में धन का दान बहुत हो रहा है। आहार दान भी हो रहा है। शास्त्र दान भी हो रहा है लेकिन अभय दान गौण हो गया है। अभयदान के सम्बन्ध में एक उदाहरण देता हूँ। एक बार की घटना है। सारा का सारा जंगल जुड़ गया और सारे के सारे वनचर भयभीत होकर जिधर आश्रय मिला। उधर भागने के लिए तैयार हो गये। बचने का कोई भी रास्ता नहीं, क्या करें। हाथी, शेर, चीते और भी कई अन्य पशु-पक्षी सब के सब भयभीत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। एक तालाब की ओर वह बढ़ने लगे और तालाब चारों ओर से घिर गया। जहाँ पर सारे के सारे प्राणी हैं लेकिन एक-दूसरे की ओर वे लोग देख नहीं रहे केवल एकमात्र अपनी सुरक्षा देख रहे हैं। इसी बीच एक खरगोश भी भागता-भागता आ गया। देखता है कि अब मेरे लिये कहाँ पर स्थान है? जगह वह देखता रह गया। सब कुछ खचाखच भर गया है, जैसे यहाँ सभा भरी है। कोई भी वहाँ से हटना नहीं चाहता। कोई भी वहाँ से उठना नहीं चाहता। सब अपने-अपने स्थान पर डट गये हैं। कोई किसी की बात नहीं सुन रहा है और उस खरगोश की ओर एक महान् आत्मा की दृष्टि गई। खरगोश की आँखों में उन महान् आत्मा की आँखें चली गई। वह चाहता था शरण, वह चाहता था जगह, वह चाहता था अभय। किन्तु अभय किस रूप में दिया जाये। शरण किस रूप में दिया जाये? उसकी दयनीयता को किस रूप में स्वीकार किया जाये। केवल ऑखों के माध्यम से ही शरण दें केवल भावों के माध्यम से ही अभय दें कैसे करें? क्या करें? वह सोचता है। मैं एक महान् आत्मा शरीर की अपेक्षा से और मेरे पास चार पैर हैं। पर बात इतनी है कि मैं यदि इस समय एक चरण को ऊपर उठा लें तो संभव है इस प्राणी की पूर्णत: रक्षा होगी और मेरे लिये पर्याप्त है तीन पैर। मैं खड़ा रह सकता हूँ। चल भले ही ना सकूंगा लेकिन खड़ा हो सकता हूँ। मेरी भी रक्षा होगी, सबकी रक्षा हो रही है। सबको अभय मिला है। एक छोटा-सा प्राणी और आया है। इसको भी मिलना चाहिए और उसने अपना पैर उठाया । बस उसने अपना स्थान जमा लिया | रघरगIIश स्थान जन्म लेता है और हाथी अपना एक पैर उठा लेता है। अन्यथा शरण नास्तित्वमेव शरण मम। दुखी जीवन सुख का अनुभव करने लगा। सारा का सारा दुख भूल गया कि कहाँ लपटें चल रही हैं? और वह तालाब के किनारे स्थान पा जाता है, हाथी के पैर के नीचे। एक कहावत, संभव है वहीं से चल पड़ी थी कि हाथी के पैर में सब कुछ समा जाता है। आप लोगों को सुन करके विस्मय होगा कि जंगल में ऐसी भी घटना घट सकती है क्या? हाँ! हाँ! भीतरी आत्मा वहीं रहती है। हर आत्मा अहिंसा की उपासना कर सकती है, वह दूसरे को अभयदान दे सकती है। वह दूसरे के ऊपर कृपा भी कर सकती है। और दूसरे के ऊपर वह अनुग्रह करके इस प्रकार से धर्म का प्रतिपालन भी कर सकती है। पशु जाति में रहने वाली आत्मा भी इसी प्रकार की है जिस प्रकार मनुष्य पर्याय में रहने वाली आत्मा। किसी कर्म के उदय से, किसी पाप के उदय से, किसी पूर्व में अर्जित विधि के कारण से भिन्न-भिन्न वेश, भिन्न-भिन्न स्थान, भिन्नभिन्न क्षेत्र, भिन्न-भिन्न क्षयोपशम के साथ यहाँ पर जीवन यात्रा आप लोगों की चल रही है। अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार। एक खस टाटी सींचता, एक ले रहा बहारा। कोई सेठ साहूकार है और एयर-कंडीशनर में बैठा है। बाहर कोई दरिद्र है, गरीब है और वह गर्मी के दिन में खस-खस की टाटी को सींच रहा है। लू में खड़े होकर खस की टाटी को सींच रहा है। और भीतर एक ऑफीसर बैठकर भोजन करने के उपरान्त शान्ति की लहर ले रहा है। यह सब कर्म और कर्म के उदय का फल है। चारों गतियों में चौरासी लाख योनियों में अनेक राष्ट्रों में-देशों में नरक-निगोद आदि में सब गतियों में संसारी प्राणी इस प्रकार पाप व पुण्य कर्म का फल भोग रहा है। इसलिए भोग के समय में भी जिस व्यक्ति के मन में अन्य जीवों के प्रति करुणा, वात्सल्य प्रेम जागृत हो जाता है उस समय वह धन, ऐशोआराम, विषयसामग्री, कषाय भूल जाता है और वह आत्मा से दुखियों को गले लगा लेता है, स्वागत कर लेता है। वस्तुत: धन का कोई मूल्य नहीं है। धन की वजह से दो व्यक्तियों के मन के बीच एक प्रकार का विरोध आ जाता है। दो व्यक्तियों के बीच में यह धन आ जाता है तो धर्म को थोड़ा सरकना पड़ता है। अर्थ की आँखों में परमार्थ नहीं झलक सकता। धन का यह मोह, धन का यह राग संसारी प्राणी के लिये अभिशाप सिद्ध हुआ है। पशुओं में धन नहीं होता, पशुओं में मकान नहीं होते। पशु परिग्रह का अंबार नहीं लगाते। लेकिन धन के द्वारा जितना अनर्थ मनुष्य करता है उतना अनर्थ कोई पशु-पक्षी नहीं करते। सिंह से आप बहुत डरते होंगे। सिंह बहुत पापी होगा आपकी दृष्टि में। लेकिन भगवान् कहते हैं सिंह मनुष्य से ज्यादा पापी नहीं है। नरसिंह महान् पाप का मूल बना हुआ है। जब तक दृष्टि में अर्थ रहता है तब तक वह जघन्य अनर्थ भी कर सकता है और जब वह अपनी आँखों से अर्थ को गौण कर देता है, परमार्थ की ओर दिशा दृष्टि करता है तो पशुओं में भी भगवत् स्वरूप का अवलोकन हो सकता है, पक्षियों में भी इस प्रकार का दर्शन हो जाता है, लेकिन मनुष्य में यदि विवेक जाग जाय तो इससे बड़ा कोई भला जीव नहीं है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कुछ विचार कर ले तो विश्व के कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है और मनुष्य यदि अपना तृतीय नेत्र खोल दे तो विश्व को ध्वस्त भी कर सकता है। विश्व को मिटाने का प्रयास आज मनुष्य के द्वारा चल रहा है। दानव और देव के द्वारा नहीं, पशु-पक्षी के द्वारा नहीं और किसी के द्वारा नहीं केवल मनुष्य ही एक अभिशाप सिद्ध हो रहा है इस सृष्टि के लिए। अत: मनुष्य के लिये ही हित-उपदेश देने की आवश्यकता पड़ रही है और मनुष्य को जब हम उपदेश देते हैं तो उस समय पशु-पक्षी जो भी सुनते हैं वे भी ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते हैं जो कि आप लोगों के लिए टेढ़ी खीर बन जाती है। लेकिन उसने तो सहज ही स्वीकार कर लिया कि खरगोश को शरण दे दी और खरगोश की आँखों में हर्ष के आँसू आ गये और उस समय हाथी ने यह समझा कि एक का आज जीवन और बच गया। मेरा तो बचा ही था। ध्यान रखें-अहिंसा धर्म कहता है, सब धर्म यही कहते हैं, ऋषभनाथ भगवान् ने यही कहा था कि अहिंसा ही हमारा महान् उच्च उपास्य देवता है। अहिंसा के अभाव में संसार में हिंसा होगी तो संसार पूरा का पूरा ध्वस्त हो जायेगा। संसार पूरा का पूरा समाप्त हो जायेगा। प्रलयकाल उस दिन आने वाला है जिस दिन इस धरती से पूर्णत: अहिंसा धर्म उठ जाना है। यह निश्चत बात है। बीच-बीच में ये जो प्रकोप आ रहे हैं, ये प्रकोप उसी के प्रतीक हैं। हिंसा का तांडव नृत्य जैसे-जैसे होता है वैसे-वैसे सृष्टि में प्रलय आता है। हाथी ने कभी जरूर किसी संत से अहिंसा का पाठ सीखा होगा। रामायण की पृष्ठभूमि कहाँ से शुरू होती है? आप लोगों को ध्यान रखना चाहिए। रामायण राम के माध्यम से नहीं, रामायण सीता के माध्यम से नहीं, रामायण और किसी पात्र, व्यक्ति के माध्यम से नहीं, रामायण की पृष्ठभूमि में विशेष रूप से हाथ है उस जटायु पक्षी का, जिसने राम के आश्रय को पाकर के, जिसने राम की शरण में आकर के राम जिस समय मुनियों के लिए आहारदान दे रहे थे उस समय, आहारदान की अनुमोदना करके अपने आपको धन्य माना था और उस सन्त की चरणरज में वह लोट-पोट हो गया था। उस समय ऐसा कहा जाता है कि उस जटायु पक्षी के जितने भी बाल थे वे सारे के सारे केसर जैसे स्वर्णमय हो गये थे। उस समय राम ने कहा था कि यह भी एक महान् भव्य जीव है। उस समय सन्त ने कहा था कि जिस प्रकार आपके भाव उज्ज्वल हुए हैं उसी प्रकार इसके भाव भी उज्ज्वल हुए हैं। उसी ने रामायण की पृष्ठभूमि में कार्य किया था। सर्वप्रथम वह महान् नीच कार्य करने वाला जो रावण था, उस रावण पर प्रहार करने का यदि श्रेय सर्वप्रथम मिलता है, तो जटायु को और किसी को नहीं। हनुमान तो बाद में आये हैं। लेकिन सर्वप्रथम राम की अनुपस्थिति में, लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सीता की रक्षा के लिये उसी ने सर्वप्रथम प्रहार किया था रावण के ऊपर। यह अहिंसा धर्म का प्रतीक है। पक्षी में भी अहिंसा धर्म के प्रति भाव उत्पन्न हो जाता है तो हे मानव प्राणी, फिर सोची, विचार करो, किस ओर आपकी यात्रा हो रही है। धन के पीछे, वैभव के पीछे, क्षणिक ऐश्वर्य के पीछे, आप लोग क्या-क्या अनर्थ करते हों? गलत बात है। हिंसा से जीवन सुखी नहीं होगा। अहिंसा की शरण अन्ततोगत्वा लेनी ही पड़ेगी। ॥ अहिंसामय धर्म की जय॥
  8. सामने विशाल दर्पण है, वह दर्पण साफ-सुथरा है और उसमें देखा जा रहा है। बार-बार देखा जा रहा है। अपने आपको सजाया जा रहा है। रूप निखर जाय इसकी कोशिश चल रही है। बार-बार कंघी की जा रही है। अपने उन धुंघराले, काले बालों को वह रूप दिया जा रहा है जो प्रत्येक व्यक्ति की आँख का आकर्षण केन्द्र बन जाय। वह अपने अलंकार, अपने आभूषण देखता जा रहा है। बारबार सजाया जा रहा है। एक आभूषण अच्छा नहीं लगता तो दूसरा आभूषण लगाया जाता है। आभूषण में परिवर्तन, अलंकार में परिवर्तन और आकार-प्रकार में निखार लाने का प्रयास चल रहा है। वह व्यक्ति ऐसा एकाग्र हो गया है। अच्छा लग रहा है। बहुत अच्छा लग रहा है। मन में भाव उठ रहा है और उसी में तृप्ति की अनुभूति हो रही है। इसी बीच उस रूप के साथ एक दूसरा रूप टकराता है और एक रूप है और एक कुरूप है। स्वरूप की ओर दृष्टिपात न होने से कुरूप से अपने को बचा रहा है। रूप को निखारा जा रहा है। रूप में से जो रस निकलता है उसको चूसना है। वह उस रूप रस का कूप बना हुआ है। कुरूप में रस नहीं है। उसको दूर करना चाहता है। लेकिन करे कैसे? नहीं चाहते हुए भी कुरूप देखने में आ गया। ज्यों ही कुरूप देखने में आ गया त्योंही रंग में भंग हो गया। वह सब किरकिरा हो गया। अब क्या करें कौन आया है? कैसे आया है? कहाँ से आया है? क्यों आया है? कैसा रूप था? कहाँ चला गया? यह सुन्दर शरीर ऐसा कैसे हो गया? एड़ी से लेकर चोटी तक कोढ़ की दुर्गन्ध बहने लगी। जिस शरीर से पहले सुगन्धी बहती थी। जिस रूप को देखने के लिये विश्व तरसता था और स्वयं भी तृप्ति का अनुभव करता था। प्रिय का परिवर्तन हो गया है और वहाँ पर कोढ़ वह रहा है जिसकी ओर कोई भी देखने की इच्छा नहीं करता। और इसी दशा में उसका अवसान हो जाता है। उस कुरूपकर्म का अवसान नहीं हुआ किन्तु जीवन का अवसान हो गया। अभी तो उस कर्म की प्रारम्भिक दशा है। रूप राशि की धनी कुरूपता की गठरी बाँध कर मर जाती है। सर्वप्रथम वह कुत्ती के रूप में जन्म लेती है। काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप गर्भवती हो जाती है। सन्तानों की रक्षा के लिये कुत्ती एक स्थान में सुरक्षा ढूँढ़ लेती है और वहाँ पर रहती है और जब बच्चों को जन्म देती है उसी समय किसी के कारण वह स्थान आग की चपेट में आ जाता है। उसी आग में वह कुत्ती अपने बच्चों सहित समाप्त हो जाती है। मरकर वह सूकरी बन जाती है। यही दशा उसकी वहाँ भी हो जाती है। इस प्रकार जन्म-मरण करते-करते अन्त में उस घर में कन्या के रूप में जन्मती है जहाँ पर कोई जाना-आना नहीं चाहता है। जहाँ मछलियों की गन्ध आती है वहाँ पर उसका जन्म हो जाता है। जिस दुर्गन्ध में पूरा परिवार रहता है किन्तु ज्यों ही इस कन्या का जन्म होता है त्यों ही दुर्गन्ध असहनीय हो जाती है अत: परिवार कहता है कि हम इसके साथ नहीं रह सकते। इसका नाम रखा गया दुर्गन्धा या उसको पूती गन्धा कहो। उसको गाँव से बहुत दूर एक स्थान दिया जाता है। जिस स्थान से हवा भी जल्दी न आ सके। दुर्गन्धा नाम सुनते ही लोग नाक को बंद करना चाहते हैं। अकृतपुण्य का अर्थ यही है, कृत पाप जिन्होंने पाप ही पाप किया है और उस पाप के परिपाक मैं उसे यह पर्याय मिली। वह दुर्गन्धा अपना जीवनयापन कर रही थी, पापकर्म को भोग रही थी और वहीं पर एक व्यक्ति को देखा उसने। अरे इनका कैसा जीवन है? ये स्नान नहीं करते हैं। कपड़े भी नहीं पहनते, कोई रूप संवारते नहीं किसी रूप की ओर इनका आकर्षण नहीं। न गन्ध की ओर आकर्षण है, न रूप की ओर आकर्षण है। न खाने की बात, न दिखाने की बात है। भेष तो सामान्य है लेकिन ओज और तेज विशेष है लेकिन रूप नहीं सँवारते हुए भी इनका रूप देखो कैसा है। इस बात पर वह सोचने लगी। सर्दी का समय था। जब दिन अस्त हुआ, रात ज्यों ही चालू हुई तो देखती है कि ये रात में भी ऐसे ही रहते हैं। ऐसे व्यक्तित्व से वह प्रभावित हो गई और चरणों में वन्दना कर निवेदन किया कि आप महान् हैं। मुझे कुछ उपदेश दीजिये। इस प्रकार उस महान् व्यक्तित्व ने उसे समझाने का प्रयास किया जो एक दिगम्बर साधु था। उस दुर्गन्धा को समझाने का प्रयास किया। दुख की मारी थी अत: एक बार में ही समझती चली गई। महाराज ने कहा-तीन-चार भव के पहले तू जिस रूप में थी उस रूप और इस रूप की तुलना कर ले। उसको एकदम जातिस्मरण हो जाता है। जो अतीत में थी स्मरण में वे पूर्वभव उभर के आ जाते हैं। एक सूकरी का जन्म, एक कुत्ती का जन्म और एक गधी का। एक जन्म में अप्सरास्वरूप नारी दर्पण में मुख देखती हुई दिखती है। दुर्गन्धा आश्चर्यचकित रह गई कि चार भव पूर्व मेरा यह सौन्दर्य था। बाद में ऐसी घृणित पर्यायें। महाराज से पूछती है भगवन् ऐसा परिवर्तन क्यों हुआ? तब महाराज कहते हैं चौथे भव को ध्यान से देख। तू अपने रूपमद में डूबी हुई दर्पण देख रही थी। उसी समय मेरे जैसा नग्न साधु वहाँ से चर्या के लिए निकल रहा था उनका प्रतिबिम्ब दर्पण में पड़ गया। उसे देख तू घृणा से भर गई। उनके प्रति तूने अपशब्द कहे, जिसके परिणामस्वरूप यह तेरी दुर्दशा हुई है। देखिये वही रूप आज भी उस नारी के सामने है लेकिन मन में घृणाभाव नहीं बल्कि आदर भाव है। आज का रूप स्वरूप की ओर ले जा रहा है। पहले वह रूप कुरूपता की ओर ले जा रहा था। उस समय वही मुद्रा थी जिस समय उसके दर्पण में (Reflected) हुए थे। लेकिन आकर्षण का केन्द्र दर्पण में अपनापन था। वही मुद्रा आज है। आज दर्पण में नहीं किन्तु आज उनके चरणों में/ अर्पण में है आकर्षण। यह दुर्गन्धा की पर्याय बहुत अच्छी है। क्योंकि इस पर्याय से सुगन्धी की ओर जाने का एक रास्ता मिल रहा है। दुनियाँ भिखारी इसलिए हो रही है कि भविष्य की चिन्ता है सबको। कई लोग आ करके कहते हैं महाराज हमारा भविष्य क्या होगा? कई लोग आ करके पूछते हैं, महाराज, भारत का भविष्य क्या होगा? महाराज विश्व का क्या होने वाला है? महाराज मेरा आगे क्या होने वाला है? होगा क्या? जैनाचायों ने भविष्य के माध्यम से सम्यग्दर्शन का स्त्रोत नहीं बताया। कल्पना का विषय भविष्य बनता है किन्तु अतीत भविष्य का नहीं। वह प्रकृति में आई हुई एक घटना है। सामने आ जाये तो चौंक जायेंगे। चिन्तन का विषय मिलता है कि ऐसा क्यों हुआ? कारण ढूँढ़ये, इसमें कौन क्या निमित है? क्यों पलट गया? इस प्रकार अतीत पर चिन्तन करने से अपने आप ही अपने उपादान के बारे में आपको जानकारी मिलेगी। बन्धुओ! अतीत हमारा क्या रहा? महावीर भगवान् अभी वर्तमान में हैं। उनका अतीत क्या था ऋषभ भगवान् वर्तमान में हैं उनके अतीत में क्या था? यह दुर्गन्धा। इसका अतीत क्या था? वह रूप लावण्य उसका अतीत था। अतीत गर्त नहीं है। वह एक सिलसिला है। परम्परा कहते ही हमारा उपयोग चला जाता है इतिहास की ओर। (English) में भविष्य के लिए क्रिया पद का प्रयोग किया जाता है तो (Will) लगाया जाता है (Shall) लगाया जाता है। किन्तु बहुत का प्रयोग जब कर लेते हैं, तो (Perfect) पूर्णता का द्योतक हो जाता है। और पूर्णता की ओर हमारा उपयोग जाता है तो निश्चत रूप से रहस्य खुलता चला जाता है। हमें आनन्द चाहिए लेकिन सुख मिलेगा (Perfect) में। सुख का स्रोत क्या है हमें मालूम होगा। किसका स्रोत क्या है, भविष्य नहीं बता सकता। वर्तमान बता सकता है, जब हम होश-हवास में हों। जिस समय बहुत अच्छा रूप था, जो चमड़ी का था, उस रूप की मदहोशी में स्वरूप की ओर जिनकी गति है ऐसे स्वरूपनिष्ठ को देखकर उसे घृणा का भाव जागृत हुआ। निन्दा के भाव आ गये। ऐसा मन में आया कि ये मेरा रूप लावण्य, इसके सामने ये क्या नंग-धडंग रूप आ गया। इस प्रकार का परिणाम होते ही कर्म बिगड़ गया। रहस्य खुलता चला गया। मुनि महाराज ने कहा तुम अपने स्वरूप को देखो, यह रूप तो कई बार मिला और कई बार चला गया, ये रूप तुम्हारा नहीं, ये एकमात्र पर्याय है। यह स्थाई नहीं, पुण्य पाप फल माहिं हरख विलखी मत भाई। यह पुद्गल परजाय उपजि विनसै थिर थाई। आगे क्या पर्याय मिलेगी इसकी कोई चिन्ता मत करो। आशा मत करो। पहले क्या थी, यह देख लो और यह ध्यान रखो, पहले की अपेक्षा हम विकास की ओर हैं या नहीं। अतीत को देखेंगे, वर्तमान नजर आयेगा। देखते चले जाइये आप, अतीत के माध्यम से तुलना कीजिये। परम्परा अनन्त है। इस परम्परा का अन्त हो सकता है या नहीं? हो सकता है। कैसे होगा? स्वरूपनिष्ठ बनो रूपनिष्ठ नहीं। मुनि महाराज की ये बातें अमृत तुल्य प्रतीत हुई तो उस दुर्गन्धा ने व्रत ले लिये। उसका अब भविष्य देख लीजिये जब उसने श्राविका के व्रत लिये। सम्भवत: आर्यिका के व्रत लिये थे। वहाँ से उस पर्याय को पूर्ण करके उस दुर्गन्धा ने मरण कर रुक्मिणी के रूप में जन्म लिया जो कृष्ण की पटरानी बनी। व्रतों का प्रभाव देख लीजिये। क्या रूप था, बीच में क्या हुआ, अब क्या होगा, जिसके पेट से प्रद्युम्न को जन्म होता है। जो मोक्षगामी था। पतन हुआ तो क्यों हुआ था? उसकी पर्याय दृष्टि हो गयी थी अत: वह पर्यायों में उलझती चली गयी। फिसलती चली गयी। उसका परिणाम यह निकला। हर एक का इतिहास ऐसा ही कुछ है। इससे हम अपने आपको अलग नहीं कर सकते। ऐसा मानकर अपने जीवन को धर्ममय बनाओ, सुख-दुख में समता रखो। ज्ञानी न सुख से आकृष्ट होता है न कभी दुख से दूर भागना चाहता है। उन्हें केवल जानता रहता है। वह दुर्गन्धा सोचती है घर वालों ने मुझे निकाला, बहुत बड़ा उपकार किया। यदि घर में रखते तो घर में घुल मिल जाती। तब इस स्वरूप का कभी बोध ही नहीं होता। जब जागे तब सबेरा। लहर उठती है। हवा का निमित्त पाकर सरोवर में उठती और उसी सरोवर में समाप्ती भी चली जाती है। लगता है रहस्य है। लेकिन यथार्थ का पता चलने पर ज्ञात होता है कि यह इसका स्वभाव है। इसी प्रकार अपने द्रव्य में भी ऐसी पर्यायें निकलती हैं। आखिर ये क्या हैं? सोचना प्रारम्भ कर दीजिये। पर्यायें उत्पन्न होती हैं और समा जाती हैं तथा उस पर्याय को उत्पन्न करने वाले की ओर भी दृष्टिपात करिये तो अपने आप ही पता चल जायेगा कि वस्तुत: क्या रहस्य है। बार-बार समझायें तो भी समझने वाली बात नहीं है। समझाने की बात भी नहीं है। जब भी आप चाहेंगे तब ही यह रहस्य खुल सकता है। नहीं तो हमेशा यह रहस्य, रहस्य ही बना रहेगा। क्योंकि प्रश्न आपका है तो आनन्द भी आपको आने वाला है। पक्ष बनाकर में उसका उत्तर देने का प्रयास भी कर लें तो भी आनन्द आने वाला नहीं है। दुर्गन्धा का रहस्य खुल गया। जिस निमित्त को देखकर घृणा का भाव आया था आज उसी निमित्त के प्रति आदर भाव आ रहा है। दुर्गन्धा ने मुनिराज के उपदेश को हृदय में धारण किया तथा अणुव्रतों को धारण किया और समतापूर्वक जीवनयापन करने लगी। मिथ्या परम्परा को छोड़कर सम्यक् परम्परा में प्रवेश पा लिया। परम्परा एक महत्वपूर्ण शब्द है। परम्परा में दो शब्द हैं। शब्द की व्याख्या करके मैं समाप्त कर रहा हूँ। यह भी एक रविवार की परम्परा है। ‘परम्' का अर्थ होता है संस्कृत में उत्कृष्ट 'परा' यानि एक पराकोटि। अंतिम स्टेज। उसका नाम भी उत्कृष्ट है। जहाँ पर डबल उत्कृष्ट है उसका नाम परम्परा है। तो इस परम्परा में आप नहाते चले जाओ। रविवारीय परम्परा यहाँ पर चालू हुई है। यहाँ पर कितने रविवार निकल गये यह तो परम्परा की बात है। क्योंकि महाराज की यह परम्परा है। रविवार के दिन प्रवचन होता है और रविवार को आना आपकी परम्परा है। आपको जाना है। मुझे भी यहाँ से विहार करना है। आना और जाना यह परम्परा है। परम्परा में दुनियाँ डूबी हुई है। यह भी ध्यान रखना, कोई भी व्यक्ति इस परम्परा को तोड़ना नहीं चाहता और इस परम्परा से हटकर हम काम करेंगे यह भी एक परम्परा है। हे परम्परा, तुम्हारी शरण मैं चाहता हूँकिन्तु कौन-सी परम्परा? जो उत्कृष्ट परम्परा है। उस परम्परा में हमें जाना चाहिए लेकिन परम्परा को छोड़ना नहीं चाहिए। दो परम्परायें हैं-एक नई परम्परा और एक पुरानी परम्परा। एक नई पीढ़ी और एक पुरानी पीढ़ी, कौन-सी पीढ़ी को आप चाहते हो? हम तो (Science) की पीढ़ी को चाहते हैं। इसके-लिए (Silence) होना अनिवार्य है। लेकिन (Science) को जानना भी एक परम्परा है। विज्ञान की परम्परा भी अपनी परम्परा है। और अज्ञान की भी परम्परा है। दोनों परम्पराओं में कहाँ तक मेल है। इसको जानकर हमको किसी एक परम्परा में चलना है। उत्कर्षता की ओर जाना ही सही-सही परम्परा मानी जाती है। और जिस परम्परा की शरण में हमारा इतिहास हमेशा-हमेशा दुखपूर्ण रहा उस परम्परा से हमको हटना है। अब हटना और नहीं हटना, ये हमारे ऊपर निर्भर है। इसके लिये कोई भी परम्परा दोषी नहीं है। क्योंकि ज्ञान का जब तक हमने प्रयोग नहीं किया तब तक हम परम्परा के ऊपर दोषारोपण करते रहे, किन्तु वस्तुत: परम्परा कोई भी दोषारोपण के योग्य नहीं, क्योंकि एक अज्ञान की धारा और दूसरी ज्ञान की धारा है। दोनों के लिये परम्परा शब्द लगे हुए हैं। बन्धुओ! मैं कहना चाहता हूँ-परम्परा का कोई अन्त नहीं होता है। लेकिन परम्परा का परिवर्तन अवश्य हो जाता है। यह परिवर्तन ही आज के वक्तव्य का आशय है। उस दुर्गन्धीपने से और सुगन्धीपने से जो कुछ भी परम्परा चल रही थी उससे हटकर ज्ञान जागृत हुआ। दुर्गन्धा की परम्परा बदलकर सम्यक्र हो गई और आगे उसका अपने आप में भविष्य उज्ज्वल होता चला गया। जो व्यक्ति अपने भविष्य को उन्नत करना चाहता है उसे भी अपनी मिथ्या परम्परा को छोड़कर सम्यक्र परम्परा की शरण में आना चाहिए। ॥ अहिंसा परमोधर्मः॥
  9. मानव की सुख-शान्ति की जो इच्छा है वह सही है या नहीं, इसके बारे में एकदम तो नहीं कहा जा सकता। युगों-युगों से यह संसारी प्राणी सुख चाहता है लेकिन सही सुख किसमें है इसका ज्ञान, इसका बोध नहीं है, न ही सही दिशा में आस्था है। व्यक्ति मन को प्रसन्न करने में लगा है। मन क्या-क्या चाहता है इसके बारे में हम सीमा नहीं बाँध सकते। उसे जब तक रोकते नहीं तब तक उसकी चाह की उड़ान चलती रहती है। विश्व की विभूति को प्राप्त करने के लिए ही दौड़ लगाता रहता है। आप लोग सब लगा रहे हैं। बड़े-बड़े लोग लगाते हैं मन की प्रसन्नता के लिए, मन की खुराक को ढूँढ़ने के लिए। युग के आदि में भरत चक्री हुआ है, उसकी भी इच्छा थी कि मैं सबसे बड़ा सम्राट् बनूँ, मैं अकेला सम्राट् रहूँ और सारी जनता मेरे चरणों की दास बने। यह दास बनाने की भूख आज की नहीं, धारणाएँ आज की नहीं हैं अनादिकाल से चली आ रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि मैं उस सिंहासन का मालिक बन जाऊँ। भारत एक है, राष्ट्रपति पद भी एक है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखता है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उस ऊँचाई तक मैं भी पहुँच जाऊँ और प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार भी है। तुम राष्ट्रपति बनना नहीं चाहते हो क्या? चाहता हूँ। आप यही कहेंगे। प्रसंग आ जाये, अवसर मिल जाये तो अवश्य उस कुर्सी पर बैठने का प्रयास करूंगा और जो बैठ जाते हैं वह पुन: बैठने की इच्छा भी करते हैं। कुर्सी का एक ऐसा ही प्रभाव रहता है कि वहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति पहुँचना चाहता है। भरत चक्री को अवसर आया और वह अकेला बनेगा यह भी ज्ञात था, दूसरा कोई प्रतिपक्षी नहीं था। बिना प्रतिपक्ष के युग के आदि में उसको खड़े होने का मौका मिला था। नियति ने चक्रवर्तित्व का अधिकार उसी को दिया था। बिना प्रतिपक्ष बहुत कम हुआ करता है। लोकतंत्र में विपक्ष का होना पहले अनिवार्य होता है। फिर बाद में पक्ष को भी आनन्द आता है। यदि विपक्ष नहीं है तो सम्भव नहीं कि किसी को आनन्द आए। एक करोड़पति हो और हजारों लखपति हों तो फिर करोड़पति का साफा तो बिल्कुल फरफराता रहता है। बिना हवा के भी हवा पा जाता है। यदि सारे के सारे करोड़पति हो जाते हैं तो एक सोचता है कि कोई लखपति मिले तभी आनन्द है नहीं तो आनन्द नहीं आयेगा। खाने से नहीं, पीने से नहीं, लखपति बनने से नहीं, करोड़पति बनने से नहीं, अरबपति बनने से नहीं किन्तु एक करोड़पति हो और एक लखपति हो तब आनन्द आता है। करोड़पति वाला अरबपति के पास जाना नहीं चाहता। करोड़पति लखपतियों के झुण्ड में पहुँचना चाहता है। यह जो खुराक मन की है, इसको पूर्ण करने के लिए इस युग में कितने प्रयास किए गए, इसका कोई अंदाज नहीं लगाया जा सकता। दरिद्र व्यक्ति भी यह चाहता है कि मैं इस स्वप्न को साकार करूं । चक्रवर्ती की भी यही भावना होती है, लेकिन कुछ चक्री ऐसे हुए हैं जिन्होंने अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ की चरम सीमाओं को प्राप्त किया है। ऐसे व्यक्ति आदर्श बन जाते हैं। शान्ति, कुन्थु और अरह तीन भगवान् की प्रतिमाएँ अधिक मिलती हैं। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की ही क्यों? इसका महत्व है। महत्व यह है कि ये तीर्थकर भी थे, कामदेव भी थे और चक्रवर्ती भी थे। धर्मचक्र भी चलाने वाले, काम पुरुषार्थ को भी करने वाले और मोक्ष पुरुषार्थ भी करने वाले थे। चक्रवर्ती भीतर से रस लेता है या नहीं? यह मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ और यदि चक्रवर्ती केवल चक्र की ओर ही देखता है तो क्या परिणाम निकलता है? अपने ही भाई बाहुबली से पराजित होना पड़ा और चक्रवर्ती चक्रवर्तित्व को प्राप्त करने के उपरान्त भी उस चक्कर से दूर रहना चाहता है तो दुनियाँ उसे आदर्श मान लेती है। इस घटना के माध्यम से हम ज्ञान कर सकते हैं। भरत चक्री अपने शयनकक्ष में है। उसके दूत या उसके सेवक ने कहा कि-'महाराज आपका अर्थ पुरुषार्थ सफल हुआ, चक्र रत्न की उत्पत्ति हुई है।' आप चुनाव के लिए खड़े हो जाते हैं, परिणाम घोषित होता है तो सुख और शान्ति का कोई पार नहीं रहता। सुनने के उपरान्त भी चक्री अस्थिर नहीं हुआ केवल एक सामान्य ही परिणाम रहा। उसी समय और एक दूत आकर सूचना देता है कि राजन् अभी-अभी काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप पुत्ररत्न का लाभ हुआ है। संसार में जब दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ हो जाता है तो काम पुरुषार्थ के फल पुत्ररून की प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है। यदि सन्तान नहीं है तो फीका-फीका-सा लगने लग जाता है आप लोगों की। 'खीर तो है लेकिन मीठा उसमें नहीं रहता'। जिस फल की वाञ्छा को साथ में लेकर के वह गृहस्थी को अपनाता है उसका फल मिलना भी चाहिए। लेकिन उसमें ज्यादा गाफिलता का अनुभव न करें। बहुत कम यह अवसर प्राप्त होता है। चक्री वस्तु व्यवस्था को ध्यान में रखता हुआ वस्तुस्वरूप का विचार करता रहता है। कौन-सा सही शान्ति और सुख का साधन है, इसका निर्णय, इसकी पहचान, इसका विश्वास बहुत कम लोगों को हुआ करता है और जब हो जाता है तो फिर इसके उपरान्त वह निम्नकोटि के पदार्थों के लाभ में सुख एवं शान्ति का अनुभव नहीं करता। युग के आदि की बात है, अभी की नहीं वह सेवक आया था उसने मन में यह विचार किया था कि ओ-हो मेरी बड़ी प्रशंसा होगी, मुझे बहुत पुरस्कृत किया जायेगा। लेकिन वह चक्री के व्यक्तित्व को देखकर सोचता है कि कैसा व्यक्ति है यह चक्रवर्ती? चक्र का लाभ हो गया फिर भी किसी भी प्रकार से उतावलापन नहीं है। विद्यार्थी परीक्षा दे देता है, परिणाम घोषित होने की तिथि की प्रतीक्षा करता है और यह विश्वास रहता है कि मैं उत्तीर्ण हो जाऊँगा; लेकिन फिर भी अखबार में अपना रोल नम्बर देखने की इच्छा हमेशा बनी रहती है। यह क्या है? विश्वास होते हुए भी परिणाम सुनने का लालच तो बना ही रहता है। सुना था उस चक्रवर्ती ने भगवान् के मुख से कि, यहाँ पर प्रथम चक्रवर्ती होगा तू। सुनने के बाद उसे सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, उसे कुछ न कुछ तो उतावलापन महसूस होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ? इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह ज्ञानी है, जानता है कि यह कोई कीमती चीज नहीं है, अच्छी चीज की कीमत का ज्ञान हो जाये, फिर बाद में उससे कम कीमत वाली वस्तु आपके सामने लाकर रख दी जाये तो आप उतावले या प्रभावित नहीं होंगे, इसलिए नहीं होंगे क्योंकि यह तो यों ही मिल जायेगी, तो कौन-सी ऐसी कीमती चीज थी जो गृहस्थ आश्रम में भी उन्हें प्रभावित कर रही थी? उसी वक्त जब उसके सामने तीसरे सेवक ने आकर कहा कि १००० वर्ष की तपस्या के उपरान्त ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, यह सुनकर चक्री की खुशी का पार नहीं रहा। उपरोक्त दो समाचार सुनने पर इतनी खुशी नहीं हुई थी। विशेष चीज की प्राप्ति होती है तो पक्षपात हो जाता है। जिसको हम चाहते हैं उसकी वार्ता सुनकर उसका संदेश, समाचार सुनकर मन में उल्लास होता है। अर्थ और काम पुरुषार्थ का थोड़ा-सा लाभ हो जाता है तो धर्म को भूल जाते हैं। रागरंग में इतने रम जाते हैं कि मान-मर्यादा भी नहीं रहती। राग-रागिनी के लिए आज दादा और नाती दोनों एक कक्ष में बैठ जाते हैं। इतिहास में ऐसा नहीं होता था लेकिन आज साक्षात् देख सकते हैं। एक परिवार के सभी प्रकार के सदस्य एक साथ देख रहे हैं टी. वी. पर फिल्म। दादाजी, दादीजी, बेटा, बहू पोता सभी एक साथ रागान्वित चित्र देखते हैं। क्या संस्कार दे पायेंगे बच्चों को आप लोग? समझ में नहीं आता बार-बार वही खाना, वही पीना, वही वासना, फिर भी अंत का यहाँ पर कहीं दर्शन नहीं हो रहा है। भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः । कालो न यातो वयमेव याताः ॥ तपो न तप्तो वयमेव तप्ताः । तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा॥ यह श्लोक अब तो पुराना होता जा रहा है लेकिन मर्म प्रभाव देखो तो आज मर्मभेदी होता चला जा रहा है। भोग नहीं भोगे बल्कि भोगों ने हमें भोगा है। काल नहीं आया, लेकिन हम ही काल के कवल हो गये। दादाजी की तृष्णा और नाती की तृष्णा, दोनों की तृष्णा को देखें तो दादाजी की तृष्णा और ज्यादा भी हो सकती है। क्योंकि काल का प्रभाव जवान के ऊपर कम पड़ा। दादाजी बहुत पुराने हो गए इसलिए उनके ऊपर ज्यादा पड़ा। बहुत छोटा था उस समय की बात है। एक इमली का पेड़ था, और उसमें इमली के फल लग गये। उन्हें तोड़कर खाने लगे लोग क्योंकि उसमें खटाई तो है ही। अब वह वृक्ष बूढ़ा हो गया, उसकी त्वचा बिल्कुल ही वृद्ध हो गई, वह झुकने को हो गया लेकिन ध्यान रखो वह इमली का वृक्ष कितना ही बूढ़ा हो जाये लेकिन उसकी खटाई कभी भी बूढ़ी नहीं हुआ करती; बल्कि पुराने इमली के वृक्ष की इमली और अधिक खट्टी होती है। इन्द्रियों में परिवर्तन हो सकता है, शरीर के प्रत्येक अंग में परिवर्तन हो सकता है लेकिन मन की प्रणाली में अंतर आये यह कोई नियम नहीं है। जब मन की प्रणाली में कोई अंतर नहीं आता है तो उस समय ये चार पंक्तियाँ कहना अनिवार्य हो जाता है। उपरोक्त श्लोक में भारतीय सभ्यता छुपी हुई है। हाथ में तृष्णा रहती है, आँखों में तृष्णा रहती है, नासिका में तृष्णा रहती है, जिह्वा में तृष्णा रहती है, पैरों में तृष्णा रहती है। आखिर तृष्णा का आवास कहाँ है? इन सबमें तृष्णा नहीं है। तृष्णा के घर तो हम स्वयं हैं। हमारा मन है जिसके माध्यम से तृष्णा पली रहती है, वह बूढ़ी नहीं हुई। कमर टूट गई है, नाड़ हिल रही है और सफेद बाल आ गये हैं। कई चक्रवर्ती, कई कामदेव तो ऐसे हुए उनको एक सफेद बाल दिख जाय तो पावागिरी की राह पकड़ लेते थे, लेकिन आज पूरा ही सर गंजा हो जाये फिर भी वह बात समझ में नहीं आती। बुरी बात तो मत मानना/ इसका बुरा तो मत मानना क्योंकि हमने देखा है और देखते रहते हैं, यह कहना इसलिए आवश्यक हो जाता है। आज बाल सफेद हो जाने पर भी काले बनाने का औषध लगा रहे हैं और तो और डाई करके सारे के सारे लोग काले बनाने में लगे हुए हैं। भले ही काले बाल बना लो लेकिन आपके जो मुख के ऊपर झुर्रियाँ हैं उनको किसी भी मशीन के माध्यम से जवानी का रूप नहीं दिया जा सकता। कर भी लो तो जो इन्द्रियों को ऊर्जा देने वाली मशीन है उसको तो जवान नहीं किया जा सकता। यदि इस कोशिश में आप हो तो वह सम्भव नहीं, वह दूसरी पर्याय में ही सम्भव हो सकती है। पर्याय से पर्यायान्तर होने का समय आ गया है फिर भी ज्ञान नहीं हो पा रहा है। युग को जागरूक करने का, किसी भी प्रकार से विपरीत दिशा में जा रहे युग को सही दिशा में लाने का संतों द्वारा प्रयास किया जाता है और उसके लिए बहुत सारी पोथी लिखने की आवश्यकता नहीं होती। सूत्र रूप में भी संकेत दिया जा सकता है। संकेत के लिए बहुत सारी लाइनों की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी चुटकी भी संकेत का काम कर सकती है। कभी-कभी आँखों का इशारा भी पर्याप्त होता है। यूँ तो आप भागवत को सुनाते चले जायें, महाभारत भी सुनाते जायें, तो भी कम हो जाता है। भगवान् भी साक्षात् आ जायें तो भी समझा पायें, कठिन है। भगवान् को भी वेदी पर बिठा दोगे और आरती-पूजा करते हुए कहोगे कि भगवान् भोग भोगने में, वैभव को जोड़ने में मैं असमर्थ हो गया हूँ, भगवान् मेरी सहायता कीजिये। लेकिन ध्यान रखना भगवान् भी उस ऊर्जा को लौटा नहीं सकते। प्रकृति तो अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करेगी, आप कितना ही विकल्प करें। घर का क्या होगा। घर बसाया गया है तो एक दिन गिर जायेगा। ईट, पत्थर हैं खिसक जायेंगे, भूकम्प आ जायेगा तो सब समाप्त हो जायेगा। भूकम्प से डरने से भूकम्प रुकने वाला नहीं, वह तो सब समाप्त कर देगा। जो कोई भी कृत्रिमता है वह समाप्त हो जायेगी। आज भी भूकम्प हो रहे हैं, पहले भी भूकम्प होते थे, राजा और रंक सब एक साथ समाप्त हो जाते हैं। किसान खेत में बीज बोता है। जब फसल आ जाती है फिर उसको काटता है। दूसरी फसल बोने से पूर्व उसकी जड़ें भी सब समाप्त कर देता है हल चला करके। सृष्टि की भी यही नीति है कि वह भूकम्प एवं प्रलय आदि से जमीन को उलट-पुलट करता है, फिर से नया युग चालू होता है, जो आप नहीं चाहते हैं। आपके नहीं चाहने से या चाहने से यह कार्य नहीं रुकने वाला। चक्रवर्ती को चकरून का लाभ हुआ किन्तु उससे वह प्रभावित नहीं हुए। पुत्ररून की प्राप्ति हुई उससे वह खुशी का अनुभव नहीं कर पाए, किन्तु ऋषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान की जो ज्योति प्राप्त हो गई उससे भरत चक्रवर्ती को आनन्द का अनुभव हुआ, वह अनुपम अनुभव है। इसलिए आनन्द हुआ कि कम से कम अपने जीवन काल में हमें यह तो पता चल जाय कि धर्म क्या होता है? पाप-पुण्य क्या होता है? संसार से मुक्ति क्या होती है? अपना-पराया क्या होता है? क्या जीवन है? क्या मौत है? इसके बारे में आप जो भी प्रतिदिन देखते रहते हैं, जानते रहते हैं लेकिन यह रहस्य समझ में नहीं आता। कितनी बार मरण हो चुके हैं शरीर के लेकिन प्रत्येक बार आँखों में से पानी बहाया। मृत्यु नहीं चाहिए, जन्म-जीवन चाहिए-लेकिन जीवन और मृत्यु इन दोनों का जोड़ा है। जब से जीवन प्रारम्भ होता है, तब से प्रारम्भ हो जाता है मृत्यु का भी काल। दीपक में तेल भर दो, बाती रख दो, बाती जला दो, दीपक जलना प्रारम्भ हो जाता है। जीवन प्रारम्भ हुआ। आप लोग समझ रहे हैं जीवन प्रारम्भ हुआ लेकिन उसी क्षण से जो दीपक में तेल डाला था वह तेल जल रहा है तब प्रकाश प्राप्त हो रहा है। जीवन ज्यों ही प्रारम्भ होता है त्यों ही मौत उसके साथ-साथ चल रही है। शरीर की छाया के समान साथ-साथ चल रही है। छाया यह काली है यह मौत के समान है। यह शरीर दिखता है प्रकाश में यह जीवन के समान है। यह ज्ञान था चक्रवर्ती को अत: हर्ष के साथ वह चल दिया उस ओर जिस ओर केवलज्ञान का लाभ आदिनाथ भगवान् को हुआ था। और जाकर सब बातें वह पूछता है, आत्मा की बात पूछता है। अब आप लोगों को सोचना है चूँकि यह हमेशा-हमेशा पढ़ाई जा रही है, भैया अच्छे ढंग से खेती करो, अच्छे ढंग से दुकान चलाओ, अच्छे ढंग से व्यवसाय करो, घर का पालन-पोषण जो भी है वह करो क्योंकि यह भी जरूरी है और यह भी शिक्षण ऋषभनाथ भगवान् ने ही युग के आदि में दिया था लेकिन यह कब तक? तब तक, जब तक हम इस शरीररूपी आत्म तत्व को नहीं पहचान पाते। पहचानने के बाद ये सब गौण हो जाते हैं। फसल लहलहाती है और हरी-भरी है लेकिन हरी-भरी फसल को नहीं काटा जाता है। फसल पकनी चाहिए तब वह काटी जाती है। जब फसल पक जाती है तब हरी-भरी नहीं रहती, तब धान उत्पन्न होता है। जब तक हरी-भरी रहेगी तब तक उस धान में दूध निकल सकता है। आटा नहीं निकल सकता। आत्म तत्व की बात भी ऐसी ही है। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या सारे के सारे यह दूध की भाँति ही हैं। यह कच्चा जीवन माना जाता है। यह पका जीवन नहीं माना जाता। और ज्यों ही पका जीवन आ जाता है तो यह सारी की सारी चीजें गौण हो जाती हैं। हरी-भरी लहलहाती हुई फसल को देखकर किसान फूला नहीं समाता। लेकिन हमेशा अगर फसलें हरी रहेंगी तो चिन्ता करने लग जाता है कि मैंने जिस उद्देश्य को लेकर बीज बोया था अब वह बाल क्यों नहीं आ रही हैं? क्योंकि उसमें फूल नहीं आ पा रहे, यदि फूल आ गए हैं और झरने लग जायें तो घास तो रह जायेगा लेकिन धान नहीं आ पाएगा। दृष्टि हमेशा किसान की उस धान की ओर रहती है, जिसके माध्यम से जीवनयापन होता है। चक्रवर्ती का विकास भी ऐसा ही चल रहा था कि वह फसल पककर धान के रूप में सामने खड़ी हो। भले ही अपने जीवन में नहीं पकी, भले ही अपने खेत में नहीं पकी। ऋषभनाथ भगवान् के जीवन में तो कम से कम पक गयी। हम देख लें उस फसल को, हम उस आटे का/आटेदार धान का दर्शन कर लें वह क्या होता है ? केवलज्ञान एक ऐसी ही वस्तु है, आत्म-पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने प्राप्त किया था। और वह अनन्तकाल के लिए भोग्य वस्तु उन्हें प्राप्त हो गई। यह ज्ञान, यह संदेश, यह उपदेश अब हमें प्राप्त हो। एकमात्र यही भूख थी। भरत चक्रवर्ती को। लेकिन आप लोगों को हमेशा-हमेशा यह बोध नहीं रह पाता, रहना चाहिए। उदासीन हो जाते हैं। यहीं पर नहीं, विदेशों में भी सुन रहे हैं सब लोग उदासीन हो जाते हैं। उदासीन किससे हो जाते हैं? परिवार से हो जाते हैं। परिवार से इसलिए हो जाते हैं क्योंकि परिवार उनसे उदासीन हो जाता है। वहाँ पर आश्रम खुल रहे हैं जो वृद्ध माता-पिता हैं उनका निर्वाह अन्त में ठीक-ठाक कैसे हो, उनका पालन-पोषण कैसे ही यह प्रबन्ध किया जा रहा है। चक्रवर्ती के सामने अन्तिम सीमा थी। अर्थ और काम के फल में विशेष हर्ष क्यों नहीं हुआ। क्यों नहीं प्राप्त हुआ उन्हें सुख। इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इस रहस्य को उन्होंने समझ लिया था। आपकी यह हमेशा भावना बनी रहती है कि मैं ये बनूँ, वो बनूँ, मुझे ये मिले, मुझे वो मिले लेकिन मिलने के उपरान्त क्या होगा? उड़ान उड़ाते चले जाओ लेकिन कहाँ तक आप उड़ोगे? कितने भी आप उड़ते चले जाओ लेकिन अन्त नहीं, मन की उड़ान है, मन की वांछाएँ हैं मन की माँग है। इनको पूर्ण करने में कुशलता नहीं, इनकी पूर्ति में सुख-शान्ति नहीं है, इनकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। कोई छोर नहीं हुआ करता इच्छाओं का। 'और' की और देखते चले जाओ तो वाक्य बढ़ता ही चला जाता है। जितनी बार आप वाक्य में और लगाओगे वह वाक्य बढ्त। चल। जाता है। बेलन फेरते जाओ और वह रोटी की लोई बढ़ती चली जाती है। वह तो कम से कम कहीं न कहीं जाकर रुक सकती है। लेकिन और लगाने के बाद आपकी पंक्ति कभी विश्रान्त नहीं हुई। महाराज 'और' लगाकर लिखने की भी एक कला होती है। कला तो होती है यह निश्चत बात है। वाक्य को पूर्ण किए बिना 'और' लगाते हुए लिखते चले जाओ उसका कोई छोर नहीं। एक ही बार में कह दो कितना चाहिए? बारबार माँगने की अपेक्षा से एक ही बार कह दो कितना चाहिए? नहीं-नहीं, कितना कहने से एक सीमा आ गई। हम सीमातीत चाहते हैं। देते जाओ । आप देते जाओ। बस ! 'इसका अन्त नहीं है' इसको जानना ही एक प्रकार से भेद-विज्ञान कहा गया है और इसका अन्त कहाँ है? इसकी ओर हम न देखें यही एकमात्र अन्त है। जहाँ पर आप खड़े हैं वहीं पर पूर्व है, वहीं पर पश्चिम हो सकता है यदि पश्चिम नहीं चाहते हो तो पूर्व की ओर मुख कर दो तो पूर्व आ जायेगी। जहाँ पर खड़े हैं वहीं पर पश्चिम भी विद्यमान है और जहाँ पर आप खड़े हैं वहीं पर पूर्व विद्यमान है। इसलिए दिशाबोध प्राप्त करो दिशा नहीं। दिशा कभी भी प्राप्त नहीं होगी। आपको दिशाबोध प्राप्त हो सकता है। दिशाबोध का नाम ही दिशा का सही मायना है। बोध प्राप्त करिए। सूर्य के माध्यम से दिशा का बोध प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार भेद-विज्ञान के दर्शन से हमें दिशाबोध प्राप्त हो जाता है। नहीं तो हम पश्चिम की ओर जा रहे हैं। विश्व को दिशाबोध देने वाला जैसे दिवाकर है। पूरे के पूरे पशु-पक्षी तक इसके माध्यम से लाभ उठा लेते हैं और अपनी यात्रा को समटेते हैं तथा अपनी यात्रा को प्रारम्भ कर देते हैं। ऐसे प्रत्येक युग में एक-एक आदर्श पुरुष होते रहते हैं। जिनके माध्यम से युग को दिशाबोध प्राप्त होता है। युग के आदि में ऐसे गृहस्थ भी थे जिनके भीतर सम्यग्ज्ञान विद्यमान था। वे कभी भी यह नहीं चाहते थे कि मैं ये करूं, मैं वो करूं क्योंकि करूं-करूं कहते-कहते बहुत बार हो गया। किसी ने भी अपने पूर्ण कार्य नहीं किये। अब भागो मत, रुको। रुकना ही एक प्रकार से हमारे लिए सही मंजिल है। कहाँ तक चलना है यह मत पूछो, कहाँ रुकूं यह पूछो। कहाँ रुकूं इसके लिए कोई क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। जहाँ रुको वहीं पर रुक जाओ, पर्याप्त है। आपकी मंजिल वहीं है। जहाँ पर आप रुकेंगे वहीं से मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है। उड़ान के लिए भागने की आवश्यकता नहीं है। थोड़ी बहुत होती है किन्तु वह उड़ान के लिए ही होती है। आगे यदि और नहीं है तो ऊपर उठना बहुत जल्दी हो सकता है। मैं आपको एक बात पूछू? बहुत बड़ी-बड़ी वस्तुओं को आप उठाने की हिम्मत करते हो, करते ही चले जाते हो लेकिन एक बार अपने आपको उठाकर देख तो लो किसी का सहारा लिए बिना। अपने आपको उठा नहीं पा रहे और भारत को उठाएँगे, विदेश को उठाएँगे, अमेरिका को उठाएँगे। स्वयं का स्तर गिरता जा रहा हो और दुनियाँ को उठाने की बात आप लोग करते हैं समझ में नहीं आता। ऋषभनाथ एवं भरत चक्रवर्ती इस युग के महान् अवतार माने जाते हैं। वे यहाँ से अपनी आयु पूर्ण करके चले गए। अब हमें उनके सिद्धान्तों को याद करना है। अनादिकाल से विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है। एक क्लास में कब तक पड़े रहोगे? आगे बढ़ो- लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि आप लोगों ने एक ही कक्षा में युगों-युगों व्यतीत किए हैं, फिर भी अपने आपको महान् ज्ञानी समझ रहे हैं। दो साल एक कक्षा में कोई विद्यार्थी रह जाता है तो गर्दन बिल्कुल झुक जाती है। बाजार में मुख दिखाने के योग्य नहीं रहता; लेकिन आप लोग एक ही असंयम की कक्षा में रह जाते हैं। चूँकि बहुत भीड़ साथ है इसीलिए आप लोगों को महसूस नहीं होता है। सम्भव है कि आप लोगों ने निर्णय लिया हो कि मैं अकेला थोड़े ही हूँ साथ में और भी तो हैं। वह वृक्ष इमली का भले ही बूढ़ा हो गया परन्तु उसकी खटाई अभी जवान है। उसको जितनी मात्रा में आप पहले प्रयोग करते थे उससे कम भी कर लो तो भी वह चीज खटाई की मानी जाती है। वह कौन-सा मन है जिसमें तृष्णा पल रही है, वह कौन-सी धारणा है जिसके आगे बड़ों-बड़ों की धारणाएँ भी फेल हो जाती हैं, उपदेश भी फीके हो जाते हैं निष्क्रिय हो जाते हैं, अप्रभावक रह जाते हैं और हमारी वह धारणा पूर्ववत् वैसी की वैसी बनी रहती है। यह मोह का ऐसा प्रभाव है जिसके कारण हम अनेक प्रकार की वेशभूषा बदलते हुए भी पूर्ववत् ही अपने आपको बनाए रखते हैं। कभी मनुष्य हो जाते, कभी देव हो जाते, कभी छोटे हो जाते, कभी बड़े हो जाते हैं। कुछ सामग्रियों में अन्तर भले ही हो किन्तु मूल में कोई अन्तर नहीं आ पा रहा। मोह को जीतना ही मनुष्य की सफलता मानी जाती है। युग के आदि में चक्रवर्ती ने इसी काम को किया था और वे धन्य हुए। ऋषभनाथ भगवान् की दिव्यध्वनि को साक्षात् उन्होंने अपने कानों से पान किया था। हम यदि चाहें तो इस दिवाकर का उपयोग कर लें और अपने जीवन को मोड़ दें उस ओर, जिस ओर ऋषभनाथ भगवान् गए, पाण्डव गए हैं, कामदेव गये हैं और बहुत सारे गए हैं जिनके नाम स्मरण से ही अन्धकार पलायन कर जाता है। किन्तु वे ठीक हमसे विपरीत थे इसलिए वे संसार से ऊपर उठे हैं। चाहें तो हम उनके समान बन सकते हैं लेकिन चाह हमारी होगी, राह हमारी नहीं। सांसारिक प्राणी चाह के साथ अपनी ही राह चुन लेता है इसलिए वह भटक जाता है। चाह हमारी हो और राह भगवान् की हो तो मंजिल सहज ही प्राप्त हो जाती है। चाह के साथसाथ हम अपनी राह बनाने का प्रयास न करें। ऋषभनाथ का जो उपदेश था उसका प्रभाव चक्रवर्ती पर पड़ा। उन्होंने अपने जीवन को अवश्य ही सम्पन्न और पूर्ण बनाने का प्रयास किया। हमें अब 'और' नहीं चाहिए, हमें अब छोर चाहिए। संसार दशा का अन्त चाहिए। मोक्ष का एकमात्र अर्थ यही है कि वह पर्याय जो कि दुख के लिए कारण है उसका अन्त करके हम उस पर्याय को प्राप्त करें जिसके प्राप्त होने पर संसार में पुनः आवागमन नहीं होता। अहिंसा परमोधर्म: की जय।
  10. सुना या पढ़ा था और देखने की भावना थी और आज सुनी हुई, पढ़ी हुई बात देखने में आ गयी। हम सारे असिद्ध हैं, किसी काम के नहीं। हाँ, यदि जो सिद्ध हो गये उनकी खोज, उनकी गवेषणा करना चाहते हैं तो हमारा जीवन भी सार्थक हो सकता है, हमारा जीवन भी धन्य हो सकता है। पहले का समय था कोई तीर्थ वन्दना के लिए निकलता था। परिवार को बता कर चला जाता कि हमारी कोई चिन्ता नहीं करना। वर्षों लगते थे सम्मेदशिखर जी आदि तीर्थों की वन्दना करने के लिए और यदि कोई वन्दना करके सकुशल आ जाता था तो वहाँ की जनता उसके चरणों को धोकर चरणामृत के रूप में अपने सिर पर लेकर उनकी आरती उतारती थी और खुशी मनाती थी क्योंकि वहीं पर अपने जीवन की साधना पूरी करके जिन आत्माओं ने सिद्धत्व प्राप्त कर लिया उस स्थान को भी छूना एक प्रकार से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने की भावना व्यक्त करना है। यह नर्मदा सार्थक नाम वाली है। नरम का अर्थ संस्कृत में होता है सुख-शांति, ‘नरमं सुखं”। ध्यान के बड़े-बड़े ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि जो व्यक्ति ध्यान करना चाहता है उसमें अपनी आस्था, रुचि, तत्व के प्रति श्रद्धा आदि-आदि तो होना ही चाहिए तथा उसके साथसाथ यह भी कहा जाता है कि जहाँ पर सिद्धपद को प्राप्त कर लिया वह स्थान अपने आप में निर्विकल्प योग साधना के लिए साधकतम् माना जाता है। इस नदी का उद्गम स्थान अमरकंटक माना जाता है। दो वर्ष पूर्व मैं वहाँ पर भी गया था। कुछ ही कोसों के उपरान्त उसकी विराटता यहाँ पर ज्ञात हो जाती है। शास्त्र भरे हुए हैं रेवातट पर सिद्धि प्राप्त करने वालों से। जिनकी योग साधना पढ़कर ज्ञात हो जाता है कि साधना कैसे की जाती है। बताते नहीं, करके दिखा देते थे। नदी का प्रवाह हमेशा-हमेशा आगे की ओर बढ़ता चला जाता है। इस तट के ऊपर बैठ कर जो व्यक्ति योग साधना करना चाहता है उसका मन अपने आप ही देखते-देखते स्थिर हो जाता है। ध्यान करने वाला भी मन है और ध्यान में विध्न डालने वाला भी मन है। ध्यान द्वारा संसार का भी संपादन होता है तो ध्यान द्वारा मुक्ति का भी संपादन होता है। एक ध्यान सोपान का कार्य कर जाता है तो एक ध्यान मदिरापान का। एक ध्यान के माध्यम से हम गिर जाते हैं, एक ध्यान के माध्यम से हम उन्नत हो जाते है, आगे बढ़ जाते हैं। तटों के ऊपर यदि चिन्तन करें तो चिन्ता अपने आप ही भंग हो जाती है और उस चिन्तन में चेतना लीन होती चली जाती है। हम इधर-उधर देखते हैं तो हमारी शक्ति का व्यय हो जाता है और हम उस तट की ओर बैठ करके नदी के प्रवाह को देखते हैं तो ऊर्जा अपने आप ही प्रारम्भ हो जाती है, गति बढ़ती चली जाती है, प्रगति हो जाती है और उन्नति हो जाती है। आप लोगों ने देखा होगा कभी नदी भटकी हुई सी लगती है, कभी नदी कुण्ड का रूप धारण कर लेती है, कभी पत्थरों से टकराती है, कभी निर्जर के रूप में पहाड़ों से बहती है। कभी मैदानों में कभी गाँव-नगरों के किनारे से बहकर संदेश देती रहती है। लेकिन कभी नदी को डर के मारे लौट कर वापस जाते हुए देखा आपने ? मानव को थोड़ी सी कठिनाई का अनुभव हो जाता है तो वह अपना रास्ता बदलने लग जाता है। यह निश्चत है कि पाँच पापों के कीचड़ में सांसारिक प्राणी अटक जाता है। भटक जाता है। दलदल में फैंस जाता है। विशालकाय हाथी महान् शक्ति सम्पन्न होता है किन्तु एक बार दलदल में फेंस जाये तो उसे निकालने के लिए दो हाथी भी आ जायें तो वे भी फैंस जाते हैं। वह दलदल उन्हें पाताल की ओर लेता चला जाता है। पाप भी एक महान् दलदल माना जाता है। उस पाप के दलदल के कारण संसारी प्राणी अपने आपको आज तक ऊपर नहीं उठा पाया है। एक पैर उठाया तो, दूसरा पैर पाताल की ओर चला जाता है, उस पैर को उठा नहीं सकता क्योंकि एक पैर जमाना अनिवार्य होता है फिर बाद में एक पैर उठ सकता है। दोनों पैरों तले कीचड़ रहेगा तो हम उठ नहीं सकते और यदि कोई उठाने आ जाये तो वह भी उसमें फंसता चला जायेगा। मक्खी जैसे कफ में अटक जाती है तो वहीं की वहीं छटपटाती हुई मर जाती है। क्षणिक सुख के लिए संसारी प्राणी अनन्त बार शरीर को धारण करता हुआ मरण को प्राप्त कर चुका है। पवित्र पावन नर्मदा के तट पर भी आकर सिद्धों की आराधना करना भूल गया। बहुत दूर-दूर से साधक लोग आते हैं और उन तटों पर बैठ के सिद्धों की आराधना करना प्रारम्भ कर देते हैं। वह सौभाग्य आज तक अतीत काल में हम लोगों को प्राप्त नहीं हुआ, नहीं तो हम सिद्ध बन जाते। हम मंजिल को प्राप्त कर लेते। तब हम लौट कर नहीं आते लेकिन लौटना इसलिए कर चुके क्योंकि हमने उस साधना को नहीं अपनाया। करोड़ों-करोड़ों यहाँ पर सिद्धत्व को प्राप्त हो रहे हैं तो हमारे लिए यह स्थान वरदान सिद्ध क्यों नहीं हो रहा? भावना भवनाशिनी मानी जाती है। यदि हम पवित्र भावों के साथ आ जाते हैं तो तीर्थ का महत्व समझ में आ सकता है, यदि लौकिक ही भाव लेकर आते-जाते हैं तो वह तीर्थ प्रत्येक को तट नहीं दिखा सकता। मंजिल सभी को नहीं दिखा सकता किन्तु उसी को दिखा सकता है जिसके भाव उस मंजिल को पाने के होते हैं। सोना, पाषाण में रहते हुए भी उस पाषाण से पृथक अपने आप में होता है। दूध में घृत होते हुए भी अपने आप अलग नहीं हो सकता। तिल में तेल होते हुए भी अपने आप बाहर नहीं आ सकता। इन तीनों को संघर्ष की आवश्यकता होती है। शरीर में आत्मा है अपने आप ही परमात्मा नहीं बन सकता। परमात्मा बनने की एक विधि होती है, एक पद्धति होती है। उस पद्धति से वह परमात्मा बन सकता है लेकिन तब जब वह, जहाँ-जहाँ पर विदेह बन चुके हैं, सिद्ध बन चुके हैं परमात्मा पद को प्राप्त कर चुके हैं उस क्षेत्र पर जाकर थोड़ी देर बैठ करके चिंतन करता है, तब अवश्य ही वह भाव उसमें उभर कर आ जाता है। यह भी हमारे लिए आय का एक स्त्रोत बन गया। आत्मोन्नति के लिए साधन बन गया। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सोपान का काम कर जाता है। तीर्थ क्षेत्र जहाँ आप बैठे हैं उसका महत्व आज ज्ञात नहीं होगा, मैं बताना चाहूँ तो बता नहीं सकूंगा, आप सुनना भी चाहें तो भी बताया नहीं जा सकेगा। एकमात्र जानने की बात है, समझने की बात है बल्कि यूँ कहना चाहिए एकमात्र विश्वास की बात है। विश्वास का कोई मूल्य नहीं हुआ करता। यहाँ पर साढ़े पाँच करोड़ मुनिराज सिद्धत्व को प्राप्त हो चुके हैं। हम लोग भी धन्य हैं। कम से कम इस स्थान पर आकर, उस विराटता का दर्शन करके मन में भाव तो कर रहे हैं कि हमारे लिए भी यह वरदान सिद्ध हो। हमारे कर्म और नोकर्म अनन्तकाल के लिए कपूर की भाँति उड़ जायें। अनन्तकाल के लिए घृत की भाँति लोक के ऊपर बैठ जायें। अनन्तकाल के लिए हम पाषाण को छोड़ कर काँचन का रूप धारण कर लें। देहातीत अवस्था का अनुभव हम कब करेंगे इसके लिए भी भावना भाने के लिये ऐसे पावन तीर्थ क्षेत्रों की शरण में जाने के लिए बार-बार हमारा मन करना चाहिए। यहाँ पर खातेगाँव भी है, उन लोगों ने सोच रखा है कि यह तट मिल गया हमें तो अब पार हो ही जायेंगे। खाने वालों को और पीने वालों को सिद्ध साधना नहीं होती ध्यान रखना। खाते गाँव को और पीते गाँव को छोड़ कर जब आओगे और उसका मोह छोड़ोगे तब ही कहीं काम बनेगा अन्यथा नहीं बन सकता। बहुत अच्छा सुन्दर वातावरण है यहाँ पर। आप लोग इस क्षेत्र को जो रूप देना चाहते हैं वह बिल्कुल उचित है और सामयिक है क्योंकि विषयों में और कषायों में करोड़ोंअरबों रुपये खर्च होते चले जा रहे हैं। कोई सांसारिक शादी आदि का कार्य होता है तो करोड़ोंकरोड़ों रुपये बहाते हो दो-तीन दिन के लिए। चला जाता है सारा का सारा पैसा। और ऐसे क्षेत्रों पर उस राशि का प्रयोग हो जाता है तो कई भव्य जीव यहाँ पर दूर-दूर से आकर के पाँच मिनट भी रेवा के तट पर बैठकर सिद्धों की आराधना कर लें तो आपकी राशि का सही उपयोग हो गया समझ लेना चाहिये। ग्रन्थों में ऐसा मिलता है कि बिम्बों के निर्माण कराये जाते हैं, उसमें बहुत राशि काम आ जाती है। उसका कोई मूल्य नहीं है, पर उस बिम्ब के माध्यम से वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है, यह महत्वपूर्ण बिन्दु है। यहाँ पर यदि आप लोग वित्त को लगाकर, खर्च कर भव्य जीवों का आह्वान करते हैं तो यह बहुत अच्छा काम होगा; लेकिन यह ध्यान रखना लक्ष्य हमेशा-हमेशा सिद्ध बनने का ही रखना चाहिए। एक बार इस प्रकार के क्षेत्रों की शरण से, आधार से, माध्यम से, हमारा कायाकल्प हो जाये तो क्या कहना। काया-कल्प दो प्रकार का है। जहाँ पर उपचार और औषधि काम नहीं करती, वैद्य और डॉक्टर जवाब दे देते हैं कि अब हमारे पास कोई इलाज नहीं है तो उस समय काया-कल्प का एक प्रकार का प्रावधान आता है। उसमें पथ्य के माध्यम से कल्प कराया जाता है जिसमें यह काया कंचन के समान बन जाती है। जैसे नया शरीर मिल जाता है। तो जिस स्थान पर, जिस साधना के माध्यम से अनंतकाल से काया का दास बना हुआ है उस आत्मा का जब काया-कल्प होता है, तो उसके सुख का कोई पार नहीं। इस भूमि पर जिन्होंने सिद्धगति प्राप्त की उनको जो सुख मिला वह शब्दातीत है। जब से उन्होंने शिवत्व को प्राप्त कर लिया तब से अलौकिक आनन्द उन्हें प्राप्त हुआ, और यह क्षेत्र उनके लिए निमित्त हुआ। एक-एक क्षेत्र, एक-एक नर्मदा का तट इस तरफ और उस तरफ कोई भी ऐसा तट नहीं जहाँ से सिद्ध न हुए हों। महाराज हम यहीं पर तीर्थ बनाने जा रहें हैं इसलिए यही तो रेवातट है, ऐसा नहीं। यह आपका सामथ्र्य है कि एक स्थान विशेष को तीर्थ बना रहे हो, शास्त्रों में वो रेवातट कहाँ तक है उसकी कोई सीमा नहीं है। इन तटों के ऊपर साढ़े पाँच करोड़ मुनि-महाराजों को सिद्धत्व प्राप्त हुआ। वह नर्मदा जा रही है और कह रही है कि तुम हमारी शरण में आये हो, यहाँ पर सिद्धत्व अवश्य मिलेगा, लेकिन ध्यान में रखना, मन में कुछ और तन में कुछ और वचन में कुछ और रखोगे तो फिर कुछ नहीं मिलेगा। फिर तो जीवन यों ही व्यर्थ चला जायेगा। तन की गर्मी तो मिटे मन की भी मिट जाए। तीर्थ जहाँ पर सिद्ध सुख अमिट अमिट मिल जाए || तीर्थ उसी का नाम है जहाँ पर सिद्ध सुख का संपादन हुआ करता है। शारीरिक, मानसिक, वैचारिक बाह्य जो कुछ भी सुख-शांति है सब यहाँ पर है, लेकिन इतना ही नहीं यहाँ के वायुमण्डल में वह क्षमता है जो सिद्धात्म अनुभूति को पैदा कर सके। यहाँ क्षेत्रों के स्पर्श ऐसे हैं जो निर्विकल्प समाधि में साधक को डुबकी लगाने में निमित्त बन सकते हैं। यहाँ के सूर्य प्रकाश में, यहाँ के कणकण और अणु-अणु में वह शक्ति विद्यमान है। राजवार्तिककार अकलंकदेव ने एक स्थान पर उल्लेख किया है वह क्षेत्र आपके लिए वरदान है जहाँ पर अनेकों सिद्ध हो चुके हैं। आँख मीच (बन्द) कर वहाँ पर बैठ जाओ तो तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। वह क्षेत्र तुम्हारे लिए वरदान है जिन क्षेत्रों में सिद्धत्व का सम्पादन अन्य आत्माओं ने किया है। उन तिथियों में और उन क्षेत्रों में तुम बिना मुहूर्त अपनी साधना प्रारम्भ कर दो, निश्चत रूप से तुम्हारी साधना को बल मिलेगा। एक व्यक्ति ने कहा महाराज को बहुत दिनों तक यहाँ रुकना चाहिए। भैया बात ऐसी है कि वर्षा काल में तो बादल बहुत दिनों तक टिक जाते हैं। अभी तो पौष की मावठ है एक-दो दिन, एक-दो दिन ऐसे ही वर्षा होती है और उसी में काफी हो जाता है। सर्दी के समय पर ज्यादा वर्षा होना धान या खेती के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इसलिए हम ज्यादा तो नहीं कह सकते हैं लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि जितनी वर्षा होती हैं उतने में धान पक जाये तो अच्छा माना जाता है। बहुत खाने से शक्ति बहुत आती है यह धारणा आप छोड़ दीजिए चूँकि आपको लोभ अभी भी सता रहा है। सन्त सान्निध्य हमेशा बने रहें। ठीक है, लेकिन यह ध्यान रखना इसी प्रकार की वर्षा अन्यत्र भी होनी चाहिए। एक-एक क्षण का मूल्य अभी ज्ञात नहीं होगा। क्षण की बात है, क्षण कितनेकितने निकल चुके हैं प्रमाद दशा में, मोह निद्रा में और संसार के अन्य कार्यों में, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। पाप के फल के रूप में जो सम्पदा आती है उसको पुण्य के रूप में ढालने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है वह धन्यवाद का पात्र है। यदि दान के माध्यम से, त्याग के माध्यम से, छोड़ने के माध्यम से उसको हम पाप से पुण्य के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया अपना लेते हैं तो यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। चाहे गृहस्थ हों, चाहे संन्यासी हों उनका लक्ष्य नर्मदा के अनुरूप ही होना चाहिए। आत्मा का झरना सतत शाश्वत रूप से बहना चाहिए। नर्मदा दो तटों में बंधकर के आगे बढ़ रही है और विशाल सागर में जाकर मिलती रहती है। अपने तटों का उल्लंघन करते हुए वह इधर-उधर नहीं जाती। आप लोगों का भी यही कार्य है। गृहस्थ को भी लक्ष्य में हमेशा-हमेशा सिद्धत्व रखना चाहिए। मध्य प्रदेश में सिद्ध क्षेत्रों की संख्या बहुत है। इसमें यह रेवा नदी का तट है। हमें भले ही आज सिद्धत्व प्राप्त न हो किन्तु हम सिद्धों की आराधना अवश्य कर सकते हैं, सिद्धों की आराधना सिद्ध बनने का बीजारोपण है। आज करोगे बीजारोपण तो वह अवश्य फलीभूत होगा।
  11. पाप को शत्रु के रूप में तथा धर्म को बन्धु के रूप में स्वीकार करना ही शास्त्र को जानने की सार्थकता है और वही व्यक्ति निश्चत रूप से अक्षय सुख को प्राप्त कर सकता है अन्यथा जो कुछ भी ज्ञान है वह सांसारिक सम्पदाओं के लिए कारण तो हो सकता है लेकिन आत्मिक वैभव को प्राप्त करने में उसका सहयोग नहीं मिल पायेगा। सम्यकदर्शन के आठ अंगों में एक अन्तिम प्रभावना अंग है। इस अंग के सम्बन्ध में रत्नकरण्डक श्रावकाचार में बहुत मार्मिक बात कही है। किसको प्रभावना का साधन मान लिया जाये ? कौन सा वह भाव है ? कौन सा वह द्रव्य है ? जो जिनेन्द्र भगवान् के शासन में प्रभावना का कारण होता है। अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्। जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ अज्ञानरूपी अंधकार दूर करने के लिए दूसरे प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती किन्तु उस प्रकाश की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हमारे परिणाम निर्मल हो जाते हैं। हमें हेय और उपादेय का विवेक जागृत हो जाता है। हित और अहित के बारे में हमें पर्याप्त बोध प्राप्त हो जाता है, उस प्रकार का कार्य करना चाहिए। ‘यथायथम्' यह शब्द अपने आपमें बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे हम उत्साह के साथ सांसारिक कार्य करते हैं और अपनी शक्ति को पूरी तौर पर लगाते हैं उसी प्रकार धार्मिक कार्य में तन भी लगाओ, मन भी लगाओ, वचन भी लगाओ और गृहस्थ आश्रम में हैं तो धन भी लगाओ। धन मुख्य नहीं है किन्तु उसके माध्यम से जो धर्म होगा वह मुख्य है। कई लोगों की यह धारण बनती चली जाती है कि धनवान ही धर्म का अर्जन कर सकता है क्योंकि जमाना ही ऐसा है। लेकिन ऐसा नहीं है, चूँकि अनेक प्रकार के आरम्भ करने से जो धन का अर्जन होता है उसको हम पुण्य के रूप में परिवर्तन करना चाहते हैं तो धन का भी त्याग करना आवश्यक होता है। जिसने अनेक प्रकार के आरम्भ और परिग्रह आदि किये नहीं और उसके पास यदि धन नहीं भी है तो धन के त्याग के बिना भी वह परिणाम उज्ज्वल कर सकता है। तन के माध्यम से सेवा करके भी वह आगे धार्मिक क्षेत्र में बढ़ सकता है। वचनों के माध्यम से भी दूसरे को अभयदान देकर सम्बोधित कर दे तो भी उसका विकास अवश्य हो सकता है। और इन दोनों का यदि साधन उसके पास नहीं है तो मन के माध्यम से भी वह विश्व के कोने-कोने में प्राणी मात्र के प्रति सद्रावना कर सकता है। सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे। वैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे। (मेरी भावना) इस प्रकार की भावना भाकर हर व्यक्ति धर्म कर सकता है, इसके लिए धन की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसके माध्यम से अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो जाये वह सब कुछ धर्म के अन्तर्गत आ जाता है। जिसके माध्यम से शासन की प्रभावना हो जाती है, शासन उसी का नाम है। जिसके माध्यम से हमें इस प्रकार का प्रकाश मिले, वही धार्मिक भाव माना जाता है। शासन से सम्बन्ध हमारा तब तक बना रहता है जब तक हमारे पास इस प्रकार के उज्ज्वल भाव विद्यमान रहते हैं। स्व और पर इन दोनों के अंधकार को दूर करने में यथायथम् जब जैसी आवश्यकता होती है तब उस प्रकार का कार्य करना ही यथायथम् का अर्थ माना गया है। केवल हम आहारदान के माध्यम से ही काम चलाएँ ऐसा नहीं होगा। केवल हम ज्ञानदान के द्वारा ही काम चलाएँ ऐसा नहीं होगा। एक मन्दिर में हम बैठते हैं भाव अलग होते हैं। एक बगीचे में जाकर बैठ जाते हैं तो भाव अलग हो जाते हैं और एक औषधालय में जायें और वहाँ पर बहुत सारे जीव, बहुत सारे साथी/भाई लेटे हुए हैं, जिनके मुँह से ऐसी दयनीय आवाजें निकल रही हैं कि जिसको सुनकर अलग ही भाव पैदा हो जाते हैं। जो हमेशा बगीचे में गलीचे पर बैठता है उनको कभी-कभी थोड़ी सी हवा खाने के लिए औषधालय लेकर आना चाहिए। तब उन्हें यह ज्ञात होगा कि आरोग्य कितनी महत्वपूर्ण होती है और उन्हें यह भी ज्ञात होगा कि पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण है या इन लोगों के दुख-दर्द को दूर करना महत्वपूर्ण है। कृपण से कृपण व्यक्ति भी हो और उसका पाषाण हृदय भी यदि हो, दूसरे के दुख को देखने का यदि वह प्रयास कर ले तो निश्चत रूप से उसका दिल पिघल जायेगा। वह पत्थर का या लोहे का नहीं होता वह भी आखिर भारतीय संस्कृति में ही पला हुआ है। कष्ट से जब गुजरते नहीं हम या जो कष्ट से गुजर रहे हैं उनको देखते नहीं तब तक जीवन का रहस्य समझ में नहीं आता। अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए चाहे तो मंच बनाकर, माइक लगाकर बैठ जाओ और कहो कि इधर आ जाओ हम बता देते हैं धर्म को तुम्हारा अंधकार दूर हो जायेगा, केवलज्ञान की ज्योति जल जायेगी। ऐसे ज्योति नहीं जलने वाली क्योंकि जिसमें ज्योति जलने वाली है। उसको भी कुछ देखना चाहिए। किसमें जलने वाली है? आप में जलती है तो दूसरे में भी जल सकती है। दीपक है फिर भी ज्योति नहीं जल रही तो उसमें कोई न कोई बाधक कारण जरूर होगा या तो बाती का अभाव हो सकता है या तेल का अभाव हो सकता है या तेल, बाती दोनों होने के उपरान्त भी यदि नहीं जल रही है तो बाती के ऊपर किट्ट कालिमा जमी हुई है | अथवा वहाँ शुद्ध आक्सीजन नहीं हैं, प्राणवायु जिसे बोलते है यदि वाही नहीं मिले तो भी नहीं जलेगी ज्योति। अॉक्सीजन जहाँ नहीं है वहाँ पर आप दीपक जला दो तो भी वह बुझ जायेगा। वातावरण को तैयार करना होता है इसलिए यथायथम् यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। किस क्षेत्र में अपने धन का प्रयोग करना, किस क्षेत्र में अपने तन का और मन का और वचन का प्रयोग करना, यह भी विवेक होना चाहिए हम लोगों को। कितने समय तक करना है, यह भी हमें ज्ञान होना चाहिए। इस दिशा में हम लोग कुछ भी विवेक नहीं करते, कुछ भी नहीं जानते, कुछ भी नहीं सोचते। कुछ दान दातार जो हैं दान देते चले जाते हैं, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है कुछ मतलब नहीं। हमारे लिए तो पुण्य मिल ही जायेगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए 'विधि द्रव्य दातृपात्र विशेषातद्वशेष: 'दान, दाता एवं पात्र की मुख्यता को लेकर फलता है। अत: पात्र को दान देना ही फलदायी है। विवेक उस दाता के पास होना चाहिए, हमने तन लगाया, मन लगाया, धन लगाया, वचन लगाया और सहयोग दिया वह कार्य उपयुक्त है या नहीं यह भी देखना चाहिए। अपना लड़का है बहुत आग्रह कर रहा है, हठ कर रहा है, दे दो उसको सौ का नोट। कभी-कभी पिताजी विवेक नहीं रखते लेकिन माँ जानती है कि वह क्या खायेगा, क्या खरीदेगा और बीमार पड़ जायेगा तो उसको अस्पताल भेजना पड़ेगा। घर का खाना वह बच्चा छोड़ देता है। जिस बच्चे की जेब हमेशा गर्म रहती है वह पैसा लेकर के बाजार में जायेगा। क्या खाता है पिता को मालूम ही नहीं है, घर में माँ एक सेर घी लाकर चाट-पकौड़ी करके दे दे तो वह अच्छी नहीं लगती और वहाँ पर जाकर चाट-पकौड़ी खाकर आ जाता है। कब का बना है? क्या है? यह पता नहीं लेकिन वह खाकर आ जाता है। और एक बार इस प्रकार की आदत उसकी बन जायेगी, फिर माँ के द्वारा लाड़-प्यार से कुछ भी खिलाओ उसको अच्छा नहीं लगेगा। देखिये पैसा गया, संस्कार गये और बच्चा गया। अब आकर के महाराज जी के पास कहते हैं। हम लोगों के पास ऐसी शिकायतें आतीं हैं। महाराज, आप इसको ऐसा आशीर्वाद दे दो ताकि यह मेरा कहना मान ले। यदि आप मेरी बात मानते तो अपने आप ठीक हो जाता। आपने तो मानी ही नहीं इसलिए लड़का बिगड़ गया, जिन्दगी बर्बाद हो गई। इसलिए यथायथम् का अर्थ बहुत महत्वपूर्ण है। हमें अपने परिवार को ही नहीं देखना है, अपने अड़ोसपड़ोस को भी देखना है इसलिए ये आप लोगों की कुशलता मानी जायेगी, दूरदर्शिता मानी जायेगी कि आप दूसरे के दुख-दर्द के बारे में सोची। आप लोग इसलिए पता लेते हैं दूसरों का, कि यह हमारे काम में आयेगा। लेकिन अब, अब ऐसे एड्रेस लेना भी प्रारम्भ कर दो कि इसके लिए मैं कब काम आऊँगा। वहीं से धर्म प्रारम्भ हो जाता है। यह हमारे काम का है, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए एड्रेस लेते हैं कई लोग। यह स्वार्थ धर्म नहीं। उनके काम के लिए उनका एड्रेस लो। अपने परिवार की चिन्ता करते हो लेकिन यह स्वार्थ की बात हो गई। दूसरे के परिवार की भी चिन्ता करो। कूप का उदाहरण हमेशा याद रखने योग्य है, ताजा-ताजा पानी मिलता है और वितरण करते-करते आप चले जायें। नीचे का स्त्रोत अपने आप ही बलवान हो जाता है और उसमें से पानी आ जाता है। आप निकालते जायें। नहीं निकाला तो ऊपर के पानी का भार ज्यादा बढ़ जाता है तो पानी की आवक रुक जाती है। आप लोग यदि ऐसा विचारें कि प्रतिदिन पानी न निकालकर एक साथ सात दिन में निकाल लें तो एक दिन में इतना पानी निकलता है तो दो दिन में कितना पानी निकलेगा और चार दिन न निकाल करके हम पूरा एकत्रित कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं होगा। पानी उस अनुपात से नहीं बढ़ेगा। इसी प्रकार हम पूरे के पूरे जीवन पर्यन्त अच्छे ढंग से कमा लें। ऐसा नहीं कि जीवन के अन्त में कोई चेरिटेबल ट्रस्ट बना करके चले जायें तो वो भी ठीक नहीं रहता क्योंकि उसकी भावना यद्यपि अच्छी है लेकिन यह गणित ठीक नहीं बैठता। प्रतिदिन जो होता है उसके माध्यम से उसका ताजा हिसाबकिताब होता चला जाता है। उससे उसको ज्यादा चिन्ता भी नहीं होती। सबसे ज्यादा संकल्पविकल्प होते रहते हैं, संग्रहीत की रक्षा के। हमेशा-हमेशा चिन्ता संग्रह करने की ही होती है, ऐसा नहीं है; संग्रहीत की रक्षा का भी बहुत बड़ा विकल्प होता है। कैसे विकल्प होता है? आप अपनीअपनी चाबी को सम्भाले रहो। इतनी भीड़ है कि क्या पता इस भीड़ में ऐसे भी व्यक्ति हो सकते हैं कि आप मनोयोग के साथ सुनने लग जायें और अड़ोस-पड़ोस में बैठा व्यक्ति चाबी पार कर दे तो? इसलिए वहाँ चिन्ता है। संग्रहीत की रक्षा की चिन्ता तब तक नहीं छूटेगी जब तक आप लोग महाव्रत अंगीकार नहीं करेंगे, इसलिए महाव्रतियों की संख्या कम है, घर-बार छोड़ने वालों की संख्या कम है और घर-बार वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। आप लोग यहाँ तो घर छोड़कर के आये हैं लेकिन बार-बार जेब को देख रहे हैं कि चाबी है कि नहीं, चाबी गुम हो गई तो क्या करेंगे? इसके लिए आचार्यों ने कहा कि संग्रह करते ही क्यों हो? अपने ही द्वारा अपने लिए ही बन्ध की व्यवस्था हम करते आए हैं। यथायथम् का अर्थ हमें यह सोचना चाहिए। बच्चा यदि भूख के कारण तड़प रहा है तो उसके लिए प्रबन्ध कर लेते हैं और यदि अधिक खाने से पेट के दर्द से तड़प रहा है तो अब आहार की कोई आवश्यकता नहीं, अब औषध की आवश्यकता है, यह आप जानते हैं। इन दोनों के बाद भी यदि कोई आवश्यकता है तो उसका भी प्रबन्ध किया जाता है। एक धर्मात्मा जो धर्म से विमुख हो रहा है जिन समस्याओं के कारण, उनकी पूर्ति करके उसको धर्म की ओर ला सकते हैं। यह सबसे बड़ा कार्य है और सबसे ज्यादा कर्म निर्जरा इसी में होती है। एक व्यक्ति जो धर्मात्मा था लेकिन स्खलित हो रहा है उसको पुन: उस स्थान पर स्थापित कर देना और यदि स्थापित है तो उसके जीवन में, धार्मिक क्षेत्र में प्रगति कर देना यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। स्वयं चलते हुए दूसरे को चलाना, नि:स्वार्थ भाव से, यह महान् कार्य है। इसलिए अज्ञानरूपी अंधकार जो फैला है उसको दूर करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार/अनुरूप मार्ग का प्रकाशन यानि शासन की प्रभावना हमें करनी चाहिए। स्वामी समन्तभद्र ने यह लिखा तथा तत्वार्थसूत्र की टीका में पूज्यपाद स्वामी ने भी लिखा है कि ज्ञान, तप, पूजा, विधान आदि से भी शासन की प्रभावना कर सकता है, बड़े-बड़े विधानों से भी प्रभावना होती है। जैसे यहाँ पर विधान किया सोलह दिन का। पहले सुनते हैं इन्द्रध्वज विधान हो गया। इस प्रकार से स्थान-स्थान पर विधान करने चाहिए। बड़े- बड़े पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव होते हैं, बहुत बड़ी प्रभावना होती है। विधान नैमितिक होते हैं, पूजन हमेशा-हमेशा के लिए होती है। पूजन मुख्यत: स्वयं के द्वारा होती है, विधान में अपने साथ अन्यों को भी रखा जाता है। पूजन एवं विधान में कैसा अन्तर है, एक उदाहरण से समझाते हैं। एक हफ्ते में सात दिन होते हैं और किसी भी गाँव में, कस्बे में, नगर में जहाँ कहीं भी बाजार का दिन होता है। होता हैन, होता है यह निश्चत बात है। किन्तु सात दिन तो बाजार में जो आप लोगों की दुकान रहती उसमें जो माल रहता है, वह भीतर ही भीतर रहता है और ग्राहक कोई आ जाता है तो दुकान पर ही आकर ले जाता है यह प्रतिदिन चलता रहता है सामान्य रूप से। लेकिन जब बाजार का दिन आ जाता है तो माल आप सारा का सारा बाहर निकाल कर रख देते हैं क्योंकि उस दिन भीड़ बहुत रहती है। दुकान में बहुत कम स्थान होने के कारण सब बाहर रख देते हैं ताकि जो ग्रामीण जनता आती है गाँव-गाँव से, वह उस माल को देख लेगी। वह सुनती नहीं देख करके ही खरीदती है। यह विधान एक प्रकार से बाजार के दिन होता है। तो सब लोग देखकर के एकत्रित हो जाते हैं। पूजन तो प्रतिदिन करते ही थे उसमें कोई भी आकर के पूछताछ नहीं करता था, सब परिचित व्यक्ति ही आते रहते हैं। पूजन में भावना की मुख्यता रहती है प्रभावना की नहीं। जिस प्रकार प्रतिदिन की अपेक्षा बाजार के दिन लाभ अधिक होता है उसी प्रकार प्रतिदिन की अपेक्षा बड़े-बड़े विधानों में भी लाभ अधिक होता है। बहुत प्रकार की वैरायटी जो है उस समय खोल के रख देते हैं और श्रद्धा भी बढ़ जाती है उसमें। सब लोग दुकान के बाहर आ जाते हैं। उसी प्रकार विधान में आप सामूहिक रूप में कार्य करेंगे। आठ दिन, दस दिन, बारह दिन, ऐसे ही विधान का समय होता है, उससे बहुतों को लाभ मिलता है। रथ उत्सव आदि निकालते हैं और उसके साथ-साथ जो जनता जुड़ती है उसको धार्मिक मार्ग पर लाने के लिए यह साधन हो जाता है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि इसमें वात्सल्य अंग पनप जाता है और दोनों के माध्यम से साधक के तप की वृद्धि होती है, मार्ग का विकास हो जाता है तथा बड़े-बड़े विधानों के माध्यम से जो मार्ग से अज्ञात रहते हैं वे भी जुड़ जाते हैं। जिसकी क्षमता नहीं भी हो तो भी सामूहिक पूजन आदि देखकर सामथ्र्य आ जाती है। एकाध बार में सभी का भाव नहीं आ सकता। बार-बार करेंगे तो कभी किसी का तो, कभी किसी का भाव आ जाता है। एक साथ सभी का उद्धार नहीं होता प्राय: बहुत कम संख्या मिलती है जीवों की पुराण ग्रन्थों में जिनका बहुत जल्दी कल्याण हो गया हो। बड़े-बड़े महापुरुषों के कल्याण भी जो हुए हैं, बरसों ही नहीं, भव-भव में हुए हैं। आप पुराण ग्रन्थ पढ़ियेगा, सब कुछ करते हुए तीर्थकर अपने जीवन काल को किस ढंग से व्यतीत करके गए हैं। इसका अवलोकन भी आप लोगों को करना चाहिए। जैसे आप लोग अपने हिसाब-किताब के ज्ञान को अच्छा रखते हैं और उसके लिए अखबार-पत्रिका वगैरह पढ़ते हैं। उसी प्रकार जो बड़े-बड़े बाजार होते हैं विश्व में जहाँ-कहीं भी, उन बाजारों से सम्बन्ध फोन इत्यादि के माध्यम से रखते हैं। उसी प्रकार यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो अपने भावों को सुदृढ़ बनाने के लिए ये ग्रन्थ हैं जिनका स्वाध्याय करना चाहिए और स्वाध्याय की रुचि बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम, हमारे विचार से जो पुराण ग्रन्थ हैं उनको पढ़ लेना चाहिए। उनमें उन पुराण-पुरुषों की पूरी-पूरी हिस्ट्री लिखी हुई है। उसको सुनने से, देखने-पढ़ने से अपने भीतर मोक्षमार्ग के प्रति जिज्ञासा बहुत जल्दी पैदा हो जाती है तथा आदिनाथ भगवान् का जीवन कैसा बना? महावीर भगवान् का जीवन कैसा बना? इन लोगों ने किस ढंग से दीक्षा ली? कौन-कौन साथ हुए? यह सब सुनने से अपने आप ही धर्म भावना जागृत हो जाती है। संस्कार तो प्रत्येक व्यक्ति के पास रहते ही हैं लेकिन थोड़े बहुत उनको जागृत करने की आवश्यकता रहती है। राख में छुपी हुई अग्नि की भाँति हम लोगों की स्थिति है, थोड़े बहुत उपदेश सुन लेते हैं तो अपने आप ही भीतर हलचल होने लग जाती है। थोड़ा-सा फ्रैंक लो, राख उड़ जायेगी और वहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित हो जायेगी। थोड़ी-सी माँजने की आवश्यकता है। दूसरे की चीज हमें काम में नहीं आने वाली किन्तु दूसरा किस ढंग से कार्य करता है उसे देखकर हम अपने आप कार्य करना सीख सकते हैं। एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के लिए कोई विशेष मदद नहीं देता है। लेकिन फिर भी वह मदद परोक्ष देता रहता है। उसकी दुकान एवं दुकानदारी को देखकर नया दुकानदार अपनी दुकानदारी करना सीख जाता है। इसी प्रकार धार्मिक कार्य भी आप लोग करेंगे तो अपना जो धार्मिक भाव है वह उन्नत होगा, समृद्ध होगा, प्रौढ़ होगा। जितनी प्रौढ़ता उसमें आयेगी उतनी ही आप लोगों को आगे जाने में सुविधा मिलेगी। दुविधा को छोड़कर सुविधा में आना चाहते हैं तो हमेशा-हमेशा ऐसे भाव करते चले जायें। स्वामी समन्तभद्राचार्य जैसे महान् आचार्यों ने आप लोगों की जागृति के लिए, उन्नति के लिए कुछ बातें लिखी हैं। रुनकरण्डकश्रावकाचार पढ़ो तो कर्मों की निर्जरा करने में सुविधा मिलेगी, भावना जागृत होगी, और संकल्प शक्ति भी आप लोगो की बढेगी | संकल्प शक्ति अगर लोगो की बढ़ाना चाहते हो तो स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। देवदर्शन करना, अभिषेक करना, पूजन करना और इसके साथ-साथ स्वाध्याय भी कर लेना चाहिए। हालाँकि इन पूजन में भी एक प्रकार से स्वाध्याय की बात आ जाती है। सिद्धचक्र मण्डल विधान जो आप लोगों ने आठ दिन अष्टाहिका में किये होंगे, उसमें देख लो सिद्ध किस ढंग से बनते हैं?, सिद्ध का क्या स्वरूप होता है? इसको देखेंगे, समझेंगे तो समयसार में और उसमें कोई अन्तर नहीं पाया जाता। शुद्ध आत्मतत्व का वर्णन ही तो समयसार में है। उसी प्रकार सिद्धचक्र मण्डल विधान को गदगद भाव से करेंगे/सुनेंगे तो समझ में आ जायेगा कि सिद्धों का क्या स्वरूप है? मेरा भी स्वरूप सिद्ध स्वरूप के समान है, लेकिन हमने भुलाया हुआ है, इसलिए याद नहीं आ रहा है। उसको याद करके अपनी वर्तमान स्थिति की तुलना करने से क्या कमियाँ हैं यह ज्ञात हो जाती हैं। जिसको स्वाध्याय वगैरह करने की क्षमता नहीं है तो उसे उत्साह के साथ जाप करना चाहिए। णमोकार मंत्र का जाप करना भी आचार्यों ने कहा। यह भी एक परम स्वाध्याय है, यह भी ध्यान रहना चाहिए। लोगों की यह धारणा होती है कि केवल शास्त्र पढ़ने से ही कमाँ की निर्जरा होती है और उसी से सब कुछ होता है। उन लोगों की ऐसी एकाकी धारणा है तो उनके लिए हम बना चाहते हैं कि बहुत बड़ी कृपा होगी यदि वे अपनी इस धारणा को छोड़ दें और णमोकार मंत्र पढ़कर जो अपने कर्म काटना चाहते हैं उनको भी स्वाध्याय शील ही समझे क्योंकि पंच परमेष्ठी जो हैं एक प्रकार से उनमें सब तत्व पाये जाते हैं। पंच परमेष्ठी के त्रिकालिक स्वरूप का चिन्तन करने से, उनके स्मरण से समस्त तत्वों का चिन्तन हो जाता है। बड़े-बड़े जो साधक होते हैं, सन्त-साधु वे अन्य और कुछ कार्य नहीं करते हैं उनका केवल पंच परमेष्ठी का जाप चलता रहता है। वह कुछ करते नहीं ऐसा लगता है लेकिन ऐसा नहीं है, जो मेधावी छात्र होते हैं वे बहुत कम पढ़ते हैं पॉइन्ट्स बहुत लेते हैं और हमेशा चिन्तन में ही रहते हैं। उसी प्रकार जो शास्त्र स्वाध्याय नहीं कर रहे हैं उनकी कर्म की निर्जरा नहीं हो रही ऐसा नहीं है। कर्म निर्जरा जो होती हैं वह भावों के ऊपर आधारित है। सात्विक भाव, विकल्प रहित भाव जो होते हैं वह सबसे ज्यादा कर्म निर्जरा के लिए कारण होते हैं। उत्कृष्ट आचरण पालकर फल को पा चुके हैं, उनको स्मरण करना भी केवलज्ञान के लिए कारण है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पढ़ना-लिखना बन्द कर दें। जिनको पढ़ना नहीं आता उनको जाप का साधन बता रहा हूँ। जाप यदि निर्विकल्प होकर करेंगे तो निर्जरा होगी। माला फेरते समय भी विकल्प है। जो नारद के समान पैशून्यपने से भरा है, जैसे नारद साधु भेष में थे लेकिन चुगलखोरी, ईष्याभाव, एक दूसरे को भिड़ाना, अपमानित करना आदि करते थे। ऐसा अज्ञानी करोड़ों जाप कर ले तो भी कर्म की निर्जरा नहीं कर सकता। ऐसे अज्ञानी के जप की बात मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं तो यह कह रहा हूँकि शब्द ज्ञान के बिना शिवभूति जैसे महान् साधक अपना कल्याण करके सिद्ध बन गये। यह उदाहरण बहुत ही प्रेरणास्पद है। ऐसे पूजन, जाप विधानों आदि के माध्यम से आप लोग अपना आर्त-रौद्रध्यानमय जो जीवन है, उसको दूर करके कुछ समय के लिए नैमितिक पूजन/विधान आदि कर लें और परमार्थ की प्रभावना के साथ-साथ अपनी भावना बनाये रखें। ॥ अहिंसा परमोधर्म की जय॥
  12. युग के आदि में भोगभूमि का अवसान हो गया। अवसान का अर्थ है, जीवन चलाने के लिये जो सामग्री आवश्यक होती है, उसका लाभ कल्पवृक्षों से हुआ करता था और क्रमश: उन कल्पवृक्षों की हानि होती चली गई। एक दिन वह आया कि जीवन उपयोगी सामग्री के लिये युगीन जनता को कर्म करने की आवश्यकता हो गई लेकिन कर्म करना कोई जानते नहीं थे। युग के आदि में ऋषभनाथ हुए हैं जिन्होंने भोगभूमि के अभाव में कर्मभूमि की व्यवस्था के लिये एक ऐसी दिव्य देशना दी जो आज तक चल रही है। वह जीवन उपयोगी जो देशना थी उसी के माध्यम से यह युग आज तक चला आया है। कोई भी प्रासाद खड़ा होता है तो उसके लिये सर्वप्रथम भूमि का फाउण्डेशन अनिवार्य होता है। वह कभी देखने में नहीं आता लेकिन जो महाप्रासाद दिखता है वह उसी की पीठ पर ही दिखता है, यदि वह खिसक जाये तो वह ऊपर से जो प्रासाद है धराशायी हो जाता है, वह देखने को नहीं मिलता, मिट्टी में मिल जाता है। तो युग की आदि में ऋषभनाथ ने यह भूमिका, यह फाउण्डेशन, यह नींव डाली थी और वह कर्मभूमि की व्यवस्था उन्होंने की थी। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या छह कर्मों की व्यवस्था उन्होंने यथावत आप लोगों को दी थी। जो ‘कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा' वाली युक्ति भी तभी आती है। जो कर्म करने में शूर होता है, जो सुव्यवस्थित कर्म करता है निश्चत रूप से धर्म का अधिकारी हो जाता है। कर्म का अर्थ यहाँ पर आप आठ कर्मों से न लेकर कर्तव्य ले लें। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से यहाँ पर कर्म मतलब नहीं किन्तु कर्म का अर्थ जीवनोपयोगी एक साधन है। आज का युग कर्म युग है। भोगभूमि नहीं किन्तु कर्मभूमि है। जिस भूमि पर आप बैठे हैं यहाँ पर कर्म करने के लिए बैठे हैं। आराम के लिये नहीं, भोगों के लिये नहीं। योगी बनने के पूर्व में जो कर्म करने में निष्णात अथवा होशियार होता है वह निश्चत रूप से उपयोगों को सँभाल लेता है, मुक्त हो जाता है। छह कर्म की व्यवस्था उन्होंने पात्रता के अनुसार दी थी। वो व्यक्ति महान् पुण्यशाली होता है उसी को कर्मभूमि में जन्म प्राप्त होता है। भोगभूमि में जो उत्पन्न होता है वह एक प्रकार से भोगने के लिए ही पैदा होता है कर्म काटने के लिये नहीं। वहाँ कर्म कट नहीं सकते, वहाँ तो वह केवल दिन काट सकते हैं, कर्म नहीं। दिन काटने का अर्थ यह है कि समय वहाँ पर कट जायेगा लेकिन कर्म नहीं कट सकते। जहाँ पर कर्म कटते हैं उस धरती को हमें बहुत-बहुत पुण्पशालिनी मानना चाहिए। जिस भूमि पर हम बैठकर के अपने अतीत कालीन कर्मों को काट सकते हैं। भोगभूमि से आज तक किसी को मुक्ति नहीं मिली, और स्वर्ग जो १६ हैं उनसे भी नहीं और ऊपर के विमानों से भी मुक्ति नहीं। नीचे की नरक भूमि से तो कभी मुक्ति मिलती ही नहीं, मुक्ति केवल कर्मभूमि से ही मिलती है अत: कर्मभूमि का लाभ लेते हुए विशेष रूप से आप लोगों को ध्यान रखना चाहिए। कर्मभूमि में भी आर्यखण्ड व म्लेच्छखण्ड ये दो भेद हैं। लेकिन म्लेच्छखण्ड से मुक्ति नहीं है अर्थात् कर्मभूमि में भी आर्यखण्ड से ही मुक्ति मिलती है। आप लोग बहुत सौभाग्यशाली हैं, पुण्यशाली हैं, महान् तप का प्रतिफल है जो आप कर्म काटने में क्षेत्र रूप से निमित्त बनने वाली भूमि पर बैठे हैं। मुक्ति को प्राप्त कराने की क्षमता इस भूमि में है जहाँ का महत्व आप लोगों को अभी ज्ञात नहीं होगा। सही-सही कर्म बाँधना प्रारम्भ कर दो तो कर्म कट सकते हैं उसके बिना नहीं। बैठने के लिये भूमि चाहिए लेकिन समतल हो तो अच्छा बैठा जा सकता है। एक बार फोटो दिखाया था महाराज जी यहाँ पर हम कुछ बनाने जा रहे हैं लेकिन जब ऊबड़-खाबड़ देखा तो यहाँ पर क्या बनेगा? यहाँ तो खड़े होकर कायोत्सर्ग तो कर सकते हैं लेकिन यहाँ पर बैठने की व्यवस्था तो है ही नहीं, महाराज कम से कम आप आशीर्वाद दे दो सब कुछ हो जायेगा। इसी प्रकार अच्छी कर्म व्यवस्था करने से कर्म काटने के लिये भी उत्साह जागृत हो जाता है। हजारों व्यक्ति यहाँ पर बैठकर श्रवण कर रहे हैं, धर्म लाभ उठा रहे हैं। यह भी एक सुकर्म व्यवस्था का ही प्रतिफल है। अब अल्प समय में ही मुझे कहना है क्योंकि आप लोगों की बोलियाँ तो बहुत देर तक चल गई हैं। इसलिए आप लोगों को आगे जाना है और मुझे भी अपना कार्य करना है, सामने घड़ी रखी हुई है। मैं यह कह रहा हूँकि असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या का उन्होंने एक मनु के नाते उपदेश दिया था। धर्म के नाते नहीं, तीर्थकर के नाते नहीं और जब ऋषभनाथ ने संन्यास धारण कर लिया, एक हजार वर्ष की कठोर तपस्या के बाद केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई तब दिव्य देशना के माध्यम से कर्म को काटने की विधि उन्होंने बताई। उपदेश मुख्य रूप से मनुष्यों को दिया जाता है और भी अनेक देव थे उनके समवसरण में वो उपदेश के पात्र नहीं। उपदेश सुन सकते हैं, सुनते हैं लेकिन देवों को मुख्य करके नहीं दिया जाता। उपदेश के पात्र की बात मैं कह रहा हूँ आपके सामने। नारकी, देव ये उपदेश के पात्र नहीं। क्या उपदेश नहीं दें इनको? दे सकते हैं, लेकिन उसे उपदेश मुख्यता से दिया जाता है जो उस उपदेश के माध्यम से अपना कार्य सिद्ध कर सके। मनुष्य के पास ही क्षमता है, पूर्ण उपदेश को अपने जीवन में उतारने की। देवों को भगवान् की वाणी काम नहीं आती। इसलिए देवों के लिये उपदेश नहीं दिया। ऋषभनाथ भगवान् के उपरान्त चौबीसवें तीर्थकर महावीर भगवान् हुए हैं, उनके समवसरण में ६६ दिन तक दिव्य देशना नहीं हुई थी। जब तक शिष्य नहीं बने तब तक महावीर भगवान् की दिव्य देशना नहीं हुई। ऋषभनाथ भगवान् ने सर्वप्रथम दो प्रकार के पात्रों को उपदेश दिया, एक श्रमणों को, दूसरे नम्बर पर श्रावकों को। श्रावक की बात मैं कहना चाहता हूँ श्रावक के भी व्रत होते हैं। व्रत किसे कहते हैं। पाप–मरातिर्धर्मो बन्धुजीवस्य चेतिनिश्चिन्वन्। समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रुवं भवति॥१४८॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४८) यह रत्नकरण्डक श्रावकाचार जो कि लगभग १५० श्लोक प्रमाण है तीन अध्यायों में विभाजित है सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र। आचार्य ज्ञानसागर गुरु महाराज ने इसे स्नत्रय की स्तुति की संज्ञा दी थी। चूँकि प्रथम अध्याय में समन्तभद्र महाराज जी ने सम्यक दर्शन का वर्णन किया, यह सम्यक दर्शन की स्तुति हो गई। दूसरे अध्याय में उन्होंने लगभग ६-७ कारिकाओं के माध्यम से सम्यक ज्ञान का वर्णन किया, यह सम्यक ज्ञान की स्तुति हो गई और शेष कारिकाओं में सम्यक्रचारित्र का वर्णन मिलता है। यह स्नत्रय की स्तुति है और इसके अंतिम अध्याय में स्वामी समन्तभद्र ने यह कारिका रखी है। आप मित्रों की ओर चले जाते हैं, दोस्तों की ओर चले जाते हैं ताकि मेरी रक्षा हो और हमेशा-हमेशा शत्रु से बचे रहें। मित्र होगा तो शत्रुओं से हम अपने आप ही बचे रहेंगे। तो अपने जीवन में मित्र कौन? शत्रु कौन? बन्धु कौन? यह संक्षेप में रत्नकरण्डक श्रावकाचार में उन्होंने कहा है। पापं अराति:-पाप शत्रु है, पापी नहीं। पापी हमारा मित्र हो सकता है। अब हम पाप की क्या पहचान कहें? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह ये पाँच पाप हैं। आचार्य ने यह बताया कि ऐसा जो हिंसा से बचता है, झूठ से बचता है, चोरी से बचता है, कुशील से और परिग्रह से बचता है इन पाँचों का निन्दापूर्वक त्याग करता है। यही लोग बन्धु हैं। मैं सत्य बोलता हूँ यह कहना बहुत अच्छा है लेकिन मैं आधा सत्य बोलता हूँ यह कड़वा लगता है। लगता है ना? आदमी सत्य बोले तो बहुत अच्छा लेकिन आचार्य कहते हैं आधा सत्य तो कम से कम बोलना ही चाहिए अर्थात् आधा पाप तो छोड़, आधी हिंसा तो छोड़, आधी हिंसा छोड़ते-छोड़ते पूर्ण हिंसा से भी निवृत्ति हो सकती है। समवसरण में कई श्रमण तो बन ही गये लेकिन कई श्रावक भी बने। श्रावक बनकर उन्होंने अपने आपको कृत-कृत्य माना। उन श्रावकों ने युग के आदि में प्रभु के चरणों में महान् विराट समवसरण में संकल्प लिये। जीवनपर्यन्त यह व्रत हमारा अखण्ड निर्दोष पले, इस भावना के साथ सब वहाँ से विदा हो जाते हैं। इसके उपरान्त जब वहाँ वार्ता सुनने में आई चक्रवर्ती को तो चक्री ने उन्हें निमंत्रण दिया। यह बहुत अच्छा है, ऐसी व्यवस्था यदि हमारे राज्य में हो गई और ऋषभनाथ भगवान् के माध्यम से दिव्यदेशना के पात्र बनकर इतने-इतने व्यक्ति श्रावक बने हैं तो उनका स्वागत, उनका अभिनन्दन और उनको एक प्रकार से उच्च स्थान देना हमारा कर्तव्य होता है। लेकिन इन्होंने जो व्रत लिए वह सच्चे हैं या ऊपर से लिए हैं अत: उन्होंने उनको बुलाया। जितने भी व्रती बने थे, उनको निमंत्रण दिया। राजदरबार में जाना है और वहाँ पर आज सब एकत्रित होने जा रहे हैं। लोगों ने देखा कि राजदरबार का जो रास्ता था उस रास्ते को छोड़कर के वे व्रती दूसरे रास्ते से जा रहे हैं। कइयों ने कहा इधर से चलो। व्रती बोले यह रास्ता हम लोगों के चलने योग्य नहीं है। सामान्य जनता उसको नहीं जान पा रही थी और सामान्य जनता समझती थी, यह इन्हीं के लिये सब कुछ हो रहा है। समय पर पहुँचना था उसमें व्रतियों को देर हो गई। चक्रवर्ती ने कहा- क्या व्यवस्था कर रखी है तुम लोगों ने? हमने वो रास्ता बना रखा था उस ओर से क्यों नहीं आये? आप लोग इस ओर से आये, कोई बात नहीं आप लोगों की व्यवस्था ठीक नहीं है। पूछा, आप लोगों को तकलीफ तो नहीं? नहीं, कुछ तकलीफ नहीं थी, तो इधर दूर के रास्ते से क्यों आये? इधर से आ जाते सीधा-सीधा रास्ता था भवन का। नहीं, इधर नहीं आ सकते हम। क्यों नहीं आये? क्या काँटे बिछे थे? काँटे तो नहीं थे। फिर क्या थे? फूल की पंखुड़ियाँ बिछी हुई थीं। यह तो अच्छा ही था, कहा भी जाता है, 'यदि फूल बिछा न सको तो काँटे तो मत बिछाओ' ऐसी नीति हैं। हमने काँटे तो नहीं बिछाये थे, फूल बिछाये थे फिर तो आपको आ जाना चाहिए था। फूल बिछाने का अर्थ फूल बिछाना नहीं राजन् हम दूसरे के लिये कष्टप्रद वस्तु रास्ते में नहीं रखें। उनके जीवन के लिये हमारे योगों से कोई बाधा नहीं पहुँचे, यह अर्थ है इस सूति का। मेरी समझ से उस नीति में सचित फूल बिछाने की बात नहीं कही गई है। वहाँ पर फूल का मतलब मृदु होना है। हमारी काया, वाणी और मानसिकता के माध्यम से दूसरे को यदि ठेस पहुँचती है, बाधा पहुँचती है, दुख होता है तो इस प्रकार की किया को हमने छोड़ दिया है मन से, वचन से, काय से। हमने कल ऋषभदेव के समवसरण में प्रभु की साक्षी पूर्वक ऐसे संकल्प लिये हैं। तो क्या था वहाँ पर? पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थीं, हरी बिछी हुई थी इसलिए हरी के ऊपर हम पैर नहीं रख सकते। सुनते हैं आज हरी के ऊपर चलने से कई लोगों को अच्छा लगता है। स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत होने से ऐसा होता है। हरी सचित मानी जाती है, व्रती तो हरी पर नहीं चल सकता। यह मैं कहाँ से कह रहा हूँ, आदिपुराण में इसका ऐसा चित्रण किया गया है और जब यह सुना चक्रवर्ती ने तो सोचने लगा, अहो हम अव्रती, व्रत के बिना जीने वाले, इनको हम जीव ही नहीं मानते और प्रभु ने सम्बोधन दिया कि ये जीव हैं इनको भी बचाना। इनके ऊपर पैर नहीं रखना, इनको काटना, पीटना नहीं, आदि-आदि उपदेश को उन्होंने ग्रहण किया है। ऋषभनाथ ने युग के आदि में इसके पोषण, इसके सम्वर्धन के लिये उपदेश दिया। उपदेशों में कहा कि यह ध्यान रखो, जीवों की उत्पति नहीं कर सकते तो हम मारें क्यों? आप अपना जीवन उपयोगी बना सकते हैं लेकिन उनका भी जीवन बरकरार बना रहे, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं हो, ऐसी वृत्ति होना चाहिए। ऐसी प्रवृत्ति की परीक्षा के लिये ही चक्रवर्ती ने यह आयोजन किया था। कहाँ तक पालन हो रहा है? जब परीक्षा में व्रती श्रावक पास हो गये। चक्री ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि धन्य है मेरा राज्य, मैं भी धन्य हूँ। दिव्यदेशना का श्रवण करके इन लोगों ने जो व्रत को दृढ़तापूर्वक पालन किया है। हमारे राज्य में ऐसे व्रती होने चाहिए। बाकी सामान्य जनता को कहाइन्हें पुरस्कृत करो, इनको सहयोग दो और इनके लिये मान्यता दो और इनकी एक प्रकार से यथायोग्य सेवा करो। ताकि व्रती बनने का सौभाग्य तुम्हारे जीवन में भी आ जाये क्योंकि श्रावकों को भी मध्यम पात्र के रूप में माना जाता है, उनकी सेवा करोगे तुम्हारे पाप कम हो जायेंगे। ऐसी पूरी जनता के लिए उस चक्रवर्ती ने एक प्रकार से नियम जैसा दिला दिया। यह महापुराण का प्रकरण आज भी हमारे सामने आ जाता है। वृक्षों को काटिये नहीं, यदि काटते तो उस व्यक्ति को दण्ड दिया जाता था। यह पर्यावरण की सुरक्षा युग के आदि में ऋषभनाथ भगवान् ने दी थी। जीवत्व की पहचान दया धर्म की ओर बढ़ाने के लिए सोपान का काम कर जाती है, यदि हमें पहचान नहीं होगी तो हम रक्षा कैसे कर सकते है ? जब नोट के बण्डल आ जाते हैं तो सामने वाला व्यक्ति नहीं दिखता केवल बण्डल के हरेहरे नोट दिखते हैं व्यक्ति बस यही कोशिश करता है कि किसी भी प्रकार से ये बण्डल इधर आ जायें। कैसे आ सकते हैं? किसी भी प्रकार से आ जायें कुछ दे दिलाकर के आ जायें लेकिन आ जायें। अर्थ का लोभी व्यक्ति कुछ नहीं देखता। मित्र भी शत्रु हो जाता है। बन्धु भी, परिवार का व्यक्ति भी बहुत दूर का लगने, लगता है। उसके साथ अलगाव अपने आप ही बढ़ने लग जाता है क्योंकि अर्थ की ओर जब हमारी दृष्टि चली जाती है, जीव की पहचान समाप्त हो जाती है। अर्थ जीवन में मनुष्य के लिये बहुत खतरनाक बना हुआ है। स्वर्ग के सम्बन्ध में एक प्रसंग आता है। इन्द्र के वैभव को देखकर के मिथ्यादृष्टि देव जलने लग जाता है, सोचता है इसके पास वैभव क्यों? किसने दिया इनको? हम भी उनसे माँग लें। वैभव माँगने से नहीं मिलता, किन्तु वैभव का द्वार क्या है यह देखना चाहिए। वहाँ स्वर्ग में इसी वजह से सम्यक दर्शन की उत्पत्ति का उन्होंने साधन बताया देवऋद्धि दर्शन। देवों की ऋद्धियों को देखकर सोचते हैं मेरे पास भी हों। उनके पास जो हैं वह बहुत बढ़िया हैं और मेरे लिये तो सेकेण्डहैण्ड है। ऐसा क्यों है? तो इसका स्रोत उसे ज्ञात हो जाता है कि मैंने धर्म तो किया था लेकिन बहुत घटिया किया था। इस वजह से घटिया माल मिल गया है। धर्म घटिया नहीं था, धर्म तो बहुत बढ़िया था, भाव बहुत घटिया था। त्याग, तपस्या को जीवन उपयोगी साधन मान कर के जो अंगीकार करता है उसे वहाँ पर उत्कर्षता प्राप्त होती है। उस उत्कर्षता को देखकर अन्य जितने भी जीव हैं उनके लिये सम्यक दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। वैभव को देखने से भी सम्यक दर्शन प्राप्त होता है और वैभव को देखने से मान भी प्राप्त हो जाता है। वैभव को देखकर ईष्यां भी होती है। थोड़े से हम ठण्डे दिमाग से सोच लें तो वह सम्यक दर्शन का कारण बन सकता है और नहीं देखें तो अभिमान बढ़ता चला जाता है। इस दयामय धर्म का अनुकरण किये बिना आज तक किसी का निस्तार नहीं हुआ। धर्म और कोई वस्तु नहीं है केवल दयामय धर्म ही प्रथम है। इस दयामय धर्म के विस्तार के लिये या इसकी उन्नति के लिये, इसकी रक्षा के लिये ही सत्य धर्म है, अचौर्य धर्म है, अपरिग्रह धर्म है। सारे के सारे इसी की रक्षा के लिये हैं। उपास्य देवता अहिंसा है। अहिंसा भूतानां जगती विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं, भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः॥४॥ (स्वयंभू स्तोत्र - २२/४) समन्तभद्र महाराज नमिनाथ भगवान् की स्तुति में कहते हैं कि हे भगवान् इस संसार में दया को ही आपने मुख्य धर्म माना और उस दयामय धर्म को प्राप्त करने के लिए ही परिग्रह छोड़ा है। केवल दयामय धर्म के कारण ही आप परम कारुणिक कहलाये। जैसे ऋषभनाथ भगवान् के काल में व्रती बने थे उसी प्रकार आज भी बनना चाहिए। जीव विज्ञान की पहचान हम लोगों को होनी चाहिए। वह दया के माध्यम से ही हुआ करती है। बाढ़ की उपमा दी गई सत्य धर्म को, अचौर्य धर्म को, ब्रह्मचर्य धर्म को और अपरिग्रह रूप धर्म को, यह खेत नहीं, यह खेती नहीं। खेती यदि है, फसल यदि है तो वह अहिंसा धर्म है। 'अहिंसा परमोधर्म:' अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा की विजय हो, अहिंसा ही परमब्रह्म है। अहिंसा को परमब्रह्म के रूप में स्वीकार किया स्वामी समन्तभद्र ने। ब्रह्मा यदि बनता है तो अहिंसा के माध्यम से बनता है। हिंसक कभी भी ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता, वह भ्रम में पड़ सकता है। आज संसार पूरा का पूरा भ्रम में है, वह ब्रह्मा नहीं बन सका। क्यों नहीं बन सका? क्योंकि उसके पास दया का अभाव है। दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग दया की सिद्धि के लिए है। उपास्य देवता अहिंसा है। इस अहिंसा की रक्षा के लिये ये शेष चार व्रत माने गये हैं जैसे खेती के लिए बाढ़ की आवश्यकता होती है। इन व्रतों के बिना अहिंसारूपी खेत उजड़ जायेगा, खेत समाप्त हो जायेगा। खेत की फसल कट गई फिर बाढ़ का कोई प्रयोजन नहीं। अर्थात् अहिंसा व्रत के बिना शेष चार व्रत कोई मतलब के नहीं। जब तक बीज बोया नहीं जाता तब तक बाढ़ नहीं लगाई जाती। बो लेते हैं और जब वहाँ पौधे उग जाते हैं तो बाढ़ लगाई जाती है क्योंकि गाय, भैंस आकर के उन पौधों को खा सकती हैं इसलिए। वह फसल ज्यों की त्यों बनी रहे इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए, पालन के लिए बाढ़ लगाई जाती है। उसी प्रकार आप लोग सबसे पहले अहिंसा धर्म को अंगीकार करो फिर उसके लिए झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना और शेष जो पाप हैं वो भी नहीं करना। पाप शत्रु है, शत्रु से आप डरते हैं लेकिन पाप रूपी शत्रु से नहीं बचते, क्या करें? पाप और पुण्य के बीच एक बार एक संवाद हुआ था। पाप ने प्रारम्भ कर दिया कहना-पुण्य आपका नाम तो दुनियाँ में है, सब लोग आपको चाहते हैं, ए टू जेड सब पुण्य चाहते हैं। आपका बहुत बड़ा सौभाग्य। मुझे कोई भी नहीं चाहता। फिर पुण्य का जब नम्बर आया तो पुण्य ने कहा बात तो बिल्कुल ठीक कर रहे हो, चाहते तो मुझे हैं लेकिन साथ तो तुम्हारा ही देते हैं सब लोग। ए टूजेड तुम्हारा साथ देते हैं चाहते तो हमें हैं। इस प्रकार चाहने से क्या मतलब होगा, मतलब पाप करने में तो सभी लोग लगे हैं। पुण्यात्मा बनो! ऐसा ऊपर से तो कहते हैं लेकिन हमारे पास कोई आता ही नहीं हैं। पुण्य कहता है कि भैय्या मुझे लोग चाहते हैं मात्र,लेकिन तुझे तो हमेशा गले लगाये रहते हैं। स्वामी समन्तभद्र महाराज ने कहा कि संसारी प्राणी के लिए कोई शत्रु है तो वह केवल पाप है और संसारी प्राणी के लिए कोई बंधु है तो वह धर्म है, वह व्रत है, वह दयामय धर्म है। यही सर्वस्व है। दयामय धर्म की आप जय-जयकार करते हैं। दया जब तक इस पृथ्वीतल पर रहेगी तब तक आप लोग यह असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या आदि करेंगे और जिस दिन यह दयामय धर्म पूर्णत: समाप्त हो जायेगा वहाँ पर प्रलय अपने आप ही आ जायेगा। पुण्य को, धर्म को मिटाने के लिए जो आता है उसका नाम प्रलय है। जो अच्छाइयों को समाप्त करता है उसका नाम प्रलय है। वनस्पति पर पैर रखना भी युग के आदि में अधर्म के रूप में माना जाता था और आज का ताण्डव नृत्य देख लें तो क्या हो रहा है, आश्चर्य होता है। धीरे-धीरे मैं उस युग से इस युग तक आना चाहता हूँ। वनस्पति की बात तो छोड़ ही दो भइया। क्या-क्या हो रहा है कहते ही बहुत दुख जैसा लगता है कि आज इस भारत में तीन करोड़ बीस लाख पशुओं का यान्त्रिक कत्लखानों के माध्यम से प्रतिवर्ष नाश हो रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है समझ में नहीं आता। कई लोग कहते हैं निरुपयोगी पशुओं को ही हम कत्लखाने ले जाते हैं लेकिन अभी-अभी हमने सुना था कि जहाँ पर गौशाला है वहाँ पर कुछ गाय और भैंस, जिनको पकड़ लिया गया पुलिस के माध्यम से और ट्रकों से उनको उतार लिया गया। एक-दो दिन में ही उनमें से २० गायों ने तो बछड़े दिये और १०-१५ भैसों ने भी पड़े दिये, ये सब कत्लखाने जा रहे थे। उन बछड़ों को पेट से निकालकर उनकी चमड़ी निकाली जाती। गर्भधारण करने की क्षमता जिन पशुओं में हो वे निरुपयोगी कहाँ? जबकि निरुपयोगी ही वहाँ पर जाते हैं, ऐसा कहा जाता है, तो यह अंधकार कैसा है? और आपके ही ट्रकों में जा रहे थे और आपके ही आँगन से गुजर रहे थे। जहाँ पर बैठकर आप राम का नाम लेते हैं, यह काम भी वहीं से हो रहा है। कितना उपयोगी धन भी समाप्त हो रहा है। निरुपयोगी तो कोई है ही नहीं। जो बैल खेत में काम करने में आ गये वे भी सब कट रहे हैं और इधर आप पर्यावरण की बात कर रहे हैं। वृक्षारोपण करो, ये उगाओ, वो उगाओ। जो अपने आप ही पर्यावरण के प्रतीक हैं। संज्ञी पचेन्द्रिय पशु, जो ऋषभनाथ भगवान् का चिह्न माना जाता है और गोपाल की गैय्या मानी जाती है, भइया थोड़ा सोच तो लो क्या कर रहे हो? कोई दोलन नहीं इसके बारे में। यहाँ सड़क चाहिए, आन्दोलन करिए मिल जायेगी सड़क। थोड़ी सी आवाज और कर लो तो लाइट की व्यवस्था हो जायेगी। थोड़ी सी और आवाज कर दो तो पानी का पंप आ ही जायेगा। लेकिन पशुओं की रक्षा के बारे में किसी ने आन्दोलन का प्रयास नहीं किया? और इसे कौन करेगा? क्या भगवान् ऋषभनाथ अवतरित होकर करेंगे? आप लोगों को कहा गया कि धर्म जीवित रहेगा तो आप लोगों के माध्यम से। 'न धमों धार्मिके: बिना' धर्म को जीवित रखना चाहते हो तो केवल दयामय धर्म को जीवित रखो। बाकी आप नहीं रखते तो कोई बात नहीं। भारत के द्वारा इस प्रकार पाप किया जाये और विदेश के लिए यहाँ से मांस निर्यात हो, यह आप लोग प्रतिदिन सुन रहे हैं, देख रहे हैं। अभी सुनने में आया था कि प्रतिदिन ३०० ट्रक मांस निर्यात होता है। वह कहाँ से आया? वह कोई पेड़-पौधों पर उगा था क्या? कोई खेती-बाड़ी हो रही है क्या, कैसे आया? सम्यक दर्शन की बात करते हो सम्यक ज्ञान की बात करते हो सम्यक्रचारित्र की, आत्मानुभूति की बात करते हो। समझ में नहीं आता जिस व्यक्ति के पास अनुकम्पा/भावना नहीं है उसके सम्यक दर्शन ही नहीं बन सकता। थोड़े से जीव को धक्का लग जाये और वह यदि दुखी हो जाये तो हृदय काँप जाना चाहिए लेकिन यहाँ संज्ञी पंचेन्द्रिय जा रहे हैं, ट्रकों में लदे-लदे जा रहे हैं, ट्रेनों में जा रहे हैं, कहीं से, कैसे-कैसे ले जा रहे हैं और कत्लखाने में जा रहे हैं। उनकी पीड़ा कोई सुन नहीं सकता और लिख नहीं सकता। देख लें तो सम्यग्दृष्टि को चक्कर आए बिना रह नहीं सकता। यदि नहीं आये तो सम्यक दर्शन गायब। इतनी पीड़ा होती है वहाँ पर, कोई भी नहीं सुनता। आज सरकार के द्वारा इस प्रकार किया जा रहा है। सरकार और कोई वस्तु नहीं है। ध्यान रखो, आप लोगों के द्वारा नियुक्त किया गया एक व्यक्ति होता है। आप लोगों को सोचना चाहिए, जहाँ-जहाँ से आप लोग आए हो वहाँ सर्वप्रथम वनस्पति की भी रक्षा करो ही, पर्यावरण की आवश्यकता है निश्चत बात है लेकिन जो जहाँ से जिस किसी भी प्रांत से आये हैं तो उनके लिए भी हमारा कहना है, देहली वाले आये हैं राजधानी से आये हैं तो उनके लिए विशेष रूप से मेरा कहना है। वह राजधानी में रहते हैं इसलिए विशेष पहुँच उनके पास हो सकती है और उनको कह देना चाहिए कि ये पशु वध रुकना चाहिए विदेश जो मांस निर्यात होता है वह रुकना चाहिए। सर्वप्रथम मांस निर्यात नहीं होना चाहिए। भारत में जानवर कटे और विदेशी लोगों को भोजन पूर्ति हो। भोजन की पूर्ति के लिए मांस आप भेज दो तो पूरी की पूरी पाप की गठरी आपके सर के ऊपर बंधेगी। इसके बारे में आप लोग संकल्प लें। कुछ जो राजनेता हैं उनके सामने यह माँग रखना है और अवश्य इसमें यश आपको मिल सकता है। यह परिश्रम किये बिना नहीं हो सकता। दिल से आप परिश्रम करिए, संकल्प लीजिए। सबसे ज्यादा मांस निर्यात गुजरात से होता है। वहाँ पर मांस निर्यात बंद का काम अनिवार्य रूप से बंद होना चाहिए। कल आये थे कुछ मिनिस्टर लोग, वह कह रहे थे कि कत्लखाने बंद करने से अर्थ की बहुत हानि हो जायेगी तो उस हानि को आप पूर्ति कर सकते हैं, नहीं कर सकते क्या? सबसे ज्यादा धनाढ्य प्रान्त माना जाता है गुजरात। जब मैं पढ़ता था उस समय की बात है। अब तक और धनाढ्य हो गया होगा ही तो वह स्वयं अपने आप ही कर सकता है अन्य व्यापारों के माध्यम से और उत्तरप्रदेश कम नहीं है, राजस्थान कम नहीं है, महाराष्ट्र कम नहीं है, बहुत बड़े-बड़े राष्ट्र हैं। महाराष्ट्र महान् राष्ट्र माना जाता है और गुजरात का दूसरा नाम सौराष्ट्र है। आगे चुनाव का समय आ रहा बताते है, उनको सामने यह रखा जाये कि जो विदेश जाते हुए मांस को हमेशा रोकेगा, जाने नहीं देगा उसे ही हम वोट देंगे तो अपने आप यहाँ के कत्लखाने समाप्त हो जायेंगे। यहाँ की मांस पूर्ति के लिए यह कत्लखाने नहीं लगाये गये हैं अरब कन्ट्री की पूर्ति के लिए लगाये गये हैं। गलत को गलत के रूप में स्वीकार करके त्याग कर देना यही एकमात्र धर्म है। केवल सुनकर और इस कान से सुनकर उस कान से निकालना सक्रिय धर्म नहीं माना जाता। पोथी का धर्म हो सकता है। जिस प्रकार कागज की नाव से नदी पार नहीं की जा सकती है उसी प्रकार इन पोथियों के माध्यम से हम धर्म करना चाहेंगे इससे कभी भी निस्तार नहीं होने वाला। सक्रिय धर्म को ही धर्म मानी। दयामय धर्म ही एकमात्र धर्म है, भारत का प्रत्येक वासी इस दयामय धर्म से परिचित है, सुनते हैं और अब उसे गुनना भी चाहिए ताकि विश्व में शांति हो सके। हिंसा के तूफान के सामने अहिंसा के दीपक का टिकना मुश्किल है। घर की देहरी के ऊपर ही यह दीपक नहीं टिक पा रहा है तो आप विश्व में कैसे फैलाओगे? और यदि आप नहीं फैलाओगे तो फैलाने के लिए दूसरा कोई नहीं आने वाला। ऋषभनाथ भगवान् की परम्परा में हो आप लोग अत: आपका यह प्रथम परम कर्तव्य होता है। दयामय धर्म युग के आदि में चलता था, ऋषभनाथ भगवान् ने इसको उपदिष्ट किया है। उस समय संकल्पित हुए थे श्रावक। इस समय में भी इसकी बड़ी आवश्यकता है। जितने व्यक्ति इस प्रकार के व्रती तैयार होंगे, उतना ही यहाँ पर सुख का विस्तार होगा। दयामय धर्म के पालन करने के लिए ऐसे संकल्प लिए जाते हैं तो त्रस जीवों की हिंसा से दूर होकर स्थूल झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के त्याग रूप व्रत श्रावक को जीवन में अवश्य पालना चाहिए, इसी में स्व-पर का कल्याण निहित है। ऐसे व्यक्तियों की संख्या यहाँ पर बढ़नी चाहिए। बुन्देलखण्ड की बात अलग है। वहाँ व्रतियों की संख्या अधिक है, लोगों में सदाचार है अत: वहाँ सबसे कम बूचड़खाने हैं। बहुत कम मांसाहारी हैं, अहिंसा धर्म में आस्था है। बुन्देलखण्ड जैसा बन जाता है यदि सारा भारत तो फिर कहना ही क्या? इसी भावना के साथ। ||महावीर भगवान् की जय ||
  13. खून नहीं है जिसमें उसको नाखून कहते हैं लेकिन खून की पहचान नाखून से होती है। इसका रहस्य युगों-युगों से चला आ रहा है और जिसे यह रहस्य खुल कर सामने आ गया उसकी बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ। दुनियाँ इस रहस्य से वंचित है, दुनियाँ इस भेद-विज्ञान से दूर है, दुनियाँ इस तात्पर्य से दूर है इसलिए यह गाफिल है और वह अपनी रक्षा, अपनी शान्ति के लिये दुनियाँ को खोज रही है। रात-दिन एक कर रही है। रहस्य जब तक ज्ञात नहीं होता तब तक संसारी जीव का दुख कोई भी कम नहीं कर सकता, दूर करने का उपाय जब तक प्राप्त नहीं होता तब तक वह उपायों से घिरा हुआ रहेगा और उसके लिए कोई भी उपाय काम नहीं आयेगा। चिन्तातुर प्राणी दर-दर भटक रहा है, वह बहुत कुछ सोच रहा है। किन्तु बीच-बीच में यह भी लहर आ रही है इस प्राणी को, देखो! मेरा अज्ञान और मेरा ही किया हुआ कर्म मेरे लिए पथ-प्रशस्त न करते हुए अंधकार फैला रहा है। मेरी शान्ति को उसने छीनने का प्रयास किया और मैं शान्ति से रहित होकर दुख का अनुभव करता आया। वैद्य लोग, डॉक्टर लोग किसी की चिकित्सा से पूर्व सर्वप्रथम उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हैं और अँगुलियों के जो नाखून हैं, उन नाखूनों को देखते हैं। देखने के उपरांत ज्ञात होता है तो ठीक है और यदि नहीं होता है तो नाखूनों को एक किनारे पर थोड़ा सा दबा देते हैं उसमें से कुछ झलकता सा उन्हें लग जाता है तो ज्ञात कर लिया जाता है खून है कि नहीं। ध्यान रखें नाखून में कभी खून नहीं हुआ करता। लेकिन खून की पहचान बिना नाखून के भी नहीं हो पाती। आप थोड़ा सा दबाकर देख लीजिये कि तल के भीतर से वह चेतना बाहर की ओर झलक जाती है। थोड़ा सा दबा दो, कितना खून है आपको नाखून के बल पर ज्ञात हो गया, किन्तु नेलकटर आपके जेब में ही रहता है हमेशा । नाखून को हमेशा काटकर फेंकते रहते हैं। इसका नाम पुनभू है, बार-बार वह नाखून आ जाता है लेकिन जब तक खून रहता है तब तक नाखून आता रहता है। यह खून की पहचान है। जिस प्रकार नाखून खून की पहचान है, चिकित्सा के लिए रास्ता खोल देता है, उसी प्रकार संसार अवस्था में तन से चेतन की पहचान की जाती है। लेकिन तन ने आज तक चेतन का आविष्कार नहीं किया, जो जड़ होता है वह कभी भी आविष्कार नहीं करता है किन्तु जो चेतन होता है वह जड़ के आविष्कार को करता आया है। लेकिन अपने आप का आविष्कार, अपने आप की पहचान, अपने आप का ज्ञान उसे प्राप्त नहीं हुआ। आज तक इस रहस्य से दूर रहा। मैं भी ऐसा एक व्यक्ति था सोच रहा था, उस रहस्य को बार-बार खोल करके देख रहा था, अब समझ में आ गया। जब कोई गणित में चूक हो जाती है तो आप लोग रात को बारह बजे भी उठकर बैठ जाते हैं। आज व्यापार तो बहुत हो गया लेकिन यह कुछ समझ में नहीं आया कि आय कितनी, व्यय कितना? इसलिए माथे को खुरचते हुए सोचते रहते हैं और जब गणित फिट बैठ जाती है, आँकड़ा ठीक आ जाता है, मालूम हो जाता है कि क्या भूल थी हमारी तो अकेले में ही हंसने लग जाते हैं। विचलित हो जाते हैं, अकेले क्या-क्या सोचने लग जाते हैं। युगों-युगों से कहाँ पर भूल थी इस गणित की, यह पता नहीं था और यह ज्ञात होने के उपरान्त भीतर ही भीतर अकेला-अकेला बैठा मुस्कान ले रहा है। कोई लोग सोच रहे हैं कि यह पागल हो गया है, कोई लोग सोच रहे हैं कि इसे कुछ मिल गया होगा। इसी प्रकार ज्ञानी जीव की जब उलझन सुलझ जाती है तब वह अकेले में बैठे बैठे आनंदित होने लग जाता है। जो आनन्द की प्राप्ति होती है वह "भूतो न भविष्यति" वाली बात है और वह अनन्त? अखण्ड सुख का स्रोत है। तन था उसके पास, वैभव था उसके पास, परिवार था उसके पास, हुकूमत थी उसके पास, क्या नहीं था उसके पास दुनियाँ में। ए-वन चीजें सारी-सारी प्राप्त थीं। लेकिन ज्ञानी सोचता है यह भी एक भूल थी, उस प्राप्ति को देखकर वह फूला नहीं समाता था किन्तु आज उस भूल के ऊपर वह सोच रहा है कि किस जड़ की माया में किस जड़ की छाया में अपने आप को खुश करने का, अपने आप को सुख सम्पन्न करने का प्रयास करता रहा। ओ हो ! अज्ञान अंधकार में जीवन जीता रहा अनन्तकाल तक, लेकिन आज यह रहस्य खुल गया। जहाँ वह रहस्य खुल जाता है वही उसके लिए क्षेत्र बन जाता है और वही उसके लिए तिथि बन जाती है और अतिथि की बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ-जिसे तिथि भी मिल गई फिर भी वह अतिथि है, जिसे क्षेत्र मिल गया फिर भी सोचता है हमें इससे कोई मतलब नहीं क्योंकि यह सारी की सारी बाहरी चीजें हैं मुझे जो प्राप्त हो गया है, मुझे जो ज्ञात हो गया है वह अभूतपूर्व है, पूर्व में ऐसा कभी प्राप्त नहीं हुआ, अब आगे पुन: प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अविनश्वर पथ पर है। नश्वर जीवन स्वार्थी जीवन माना जाता है चेतना हमेशा-हमेशा अविनश्वर है, उसका कभी नाश नहीं। मैं नित्य हूँ, शाश्वत हूँ, सत्य हूँ, अजर, अमर, अविनाशी हूँ। यह एक प्रकार की बात उसके सामने आ जाती है। अभी तक भय होता था शरीर टूट न जाये, कहीं फूट न जाये, शरीर छूट न जाये। अनेक प्रकार की वेदनाएँ होती थी, कहीं यह गल न जाये, कहीं यह सड़ न जाये, कहीं यह दुबला-पतला न हो जाये आदि-आदि। इस शरीर के माध्यम से वह आपा खोकर चलता था किन्तु आज यह भेद विज्ञान मिल चुका है, जिस प्रकार कि दूध में जल मिला हुआ रहता है किन्तु जल को अलग करने के उपरान्त दूध का सही रूप सामने आ जाता है उसी प्रकार इस तन के माध्यम से आत्मा भीतर है यह ज्ञात हो जाता है। "देह मध्ये यथा शिव"। इस आत्मा का परमात्मा के रूप में जिसे बोध हो जाता है कि आत्मा देहातीत है किन्तु देह में अनन्त काल से रहता आ रहा है वह यह रहस्य खुलते ही आनन्दविभोर हो जाता है। एक साधु एक शिला पर बैठे थे। वहीं से दो-तीन व्यक्ति गुजर रहे थे, दो दोस्तों में से एक दोस्त की अभी शादी हुई थी। ये तीनों वहाँ से गुजर रहे थे। जिसकी शादी हुई उसकी बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ। वह मित्र, उसके साथ पत्नी। तीन दिन ससुराल में वह पत्नी रही। अब वह माँ के घर जा रही है किन्तु ध्यान रहे, पति भी कहता है यह ससुराल में आई थी, मैं भी तो ससुराल जाऊँ। सोचिए, आप विचार करिये। शादी होने के उपरान्त तीसरे दिन पत्नी ससुराल से जाती है। पति छोड़ने के लिए तैयार नहीं। पत्नी के साथ चल देता है। साथ में मित्र भी है और उसकी दृष्टि साधु के ऊपर पड़ जाती है, देखता रह जाता है। क्या शरीर है? क्या तेज है? क्या ओज है? क्या सुडौलता है? क्या मुस्कान है? यह जंगल है, शिला पर बैठा है, प्रकृति चारों ओर से घेरे हुए है, पास कुछ नहीं है, लेकिन पास में क्या-क्या है पता नहीं लग रहा है, आखिर थोड़े से नजदीक होकर के देख लें तो उसके पास क्या है यह ज्ञात हो जाये। कुछ समझ में आया तो ठीक, नहीं तो बाइपास से चले जायेंगे। थोड़ा सा वह आगे कदम बढाता है, मित्र इशारा करता है, क्यों क्या बात हो गई ? जल्दी थी उधर क्यों खिसक रहे हो। वह कहता है- अरे जाना तो है लेकिन एक झलक इधर भी तो देख लें। आ, तू भी देख ले भइया। वह नजदीक गया। पास में देखता रहा, प्रेरित हुआ, मंत्र-मुग्ध हुआ सा वह देखता रह गया और बात दोस्त के मुँह से निकल जाती है कि तुम यदि रुक जाते हो तो मैं भी अवश्य रुक जाऊँगा तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारा रुकना तो ऐसा ही है-‘न भूतो न भविष्यति'। उसने उत्तर नहीं दिया और उत्तर न देना ही प्रश्न का सही उत्तर माना जाता है कभी-कभी। जवाब ही जवाब नहीं लाजवाब भी हुआ करता है, नहीं बोलना भी अपने आप में उत्तर हुआ करता है और वह मुँह से भले ही न बोले लेकिन भीतर का भाव जब हम व्यक्त करते हैं तो बोलियाँ छोटी पड़ जाती हैं। जैनधर्म वस्तुत: प्राणी मात्र का है लेकिन आज जैनधर्म बनियों का है यह और किसी का नहीं। वैष्णव धर्म ब्राह्मणों का है आदि-आदि। ये नाम को, शब्द को लेकर जो आज वर्तमान में चल रहे हैं, यह भी एक रहस्य है इसको खोलना अनिवार्य है। जैनधर्म क्या धर्म है, किसके माध्यम से चला है यह ध्यान रखना चाहिए। यहाँ पर जितने भी बनिये हैं उनका यह धर्म है ही नहीं। केवल क्षत्रियों का धर्म है। वेदी में यदि भगवान् नहीं हैं तो राजस्थान में बोला जाता है कि ठाकुर जी नहीं। वहाँ तो भगवान् को ठाकुर कहते हैं। आप लोग तो वैश्यवृत्ति करने वाले हैं अत: धर्म को भी तोलने लगे हैं। जिधर ज्यादा है उधर खिसक गये ऐसा नहीं होता। क्षत्रियता के माध्यम से ही जैनधर्म की प्रभावना हुई है और आगे ऐसे ही क्षत्रिय लोग रहेंगे तो उनके माध्यम से वह जीवित रहने वाला है। अत: प्राणिमात्र को जो जीवन प्रदान करता है, रक्षा करने का बीड़ा उठा लेता है, प्राणिमात्र की रक्षा के लिए जो अपना जीवन सर्वस्व न्यौछावर कर देता है वही व्यक्ति जैन धर्म के रहस्य को समझ सकता है। मित्र की बात सुनकर उसने उत्तर दिया और जाकर साधु के सामने विराजमान होकर वह कहता है कि आखिर एक-आध मंत्र इधर भी तो सरका दो। मैं आपका अनुचर तो बन सकूं। पीछेपीछे में और आगे-आगे आप और वह वहीं पर रुक गया। दोस्त सोचता है कि क्या बात हो गई? कहीं इस प्रकृति में सम्मोहन शक्ति तो नहीं है। कहीं यहाँ पर भूत तो नहीं लगा। कहीं बाहरी बाधा, कहीं भीतरी बाधा, कहीं नीचे की बाधा, कहीं ऊपरी बाधा तो नहीं है। बाधाएँ अनेक प्रकार की हुआ करती हैं। जो व्यक्ति शादी के बाद तीसरे दिन पत्नी जा रही है तो साथ में ससुराल चलने वाला हो और वह व्यक्ति यहाँ बीच में रुक गया और ऐसे साधु का सामना, ऐसी वीतरागता का दर्शन कि सारा प्रदर्शन समाप्त हो गया। पत्नी देखती रह गई, मित्र पीड़ित हो गया और वह था कि टस से मस नहीं हो रहा। वहीं पर बैठ जाता है और प्रार्थना करता है, विनती करता है कि मुझे स्वीकार कर लीजिये भगवन् और इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए। खून का ज्ञान नाखून से हो गया। धर्म की पहचान वीतरागता के माध्यम से हुआ करती है। धर्म की पहचान किसी स्थान से नहीं हुआ करती है, किसी काल से नहीं हुआ करती अपितु जिस काल में जिस स्थान में वीतरागता रह जाती है वह क्षेत्र बन जाता है, वह तिथि बन जाती है, दोनों की स्मृति रखकर संसारी प्राणी उसकी आराधना करना प्रारंभ कर देते हैं। जहाँ पर ऐसी पवित्र आत्माएँ गुजरती चली गयीं वहीं प्रकृति की गोद में ऐसे क्षेत्र बनते चले गये। और वे वर्तमान में अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान के भण्डार बने हुए हैं। अपने आत्मसात् हो चुके हैं। जिनकी बीमारी समाप्त हो चुकी है जो रोगातीत हो गये हैं वे विश्व के लिए आज आदर्श हैं। उन्होंने ऐसा पथ-प्रदर्शन कर दिया कि अनन्त काल के उपरान्त भी आप उसको सोचेंगे, देखेंगे, पूछेगे तो वीतरागता ही एकमात्र धर्म प्रतीत होगा। कहाँ शादी? कहाँ नवोढ़ा पत्नी? कहाँ ये बातें राग की? मित्र और पत्नी सोचते हैं कि ये वीतरागता की बात कहाँ आ गई? क्यों आ गई? भावों में परिवर्तन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव की अपेक्षा से हुआ करते हैं। लेकिन उस राग का अन्त भी आ जाता है जब जिसके नेत्र खुलने लग जाते हैं तो रहस्य का उद्धाटन हो जाता है फिर वहाँ पर अंधकार के लिए अवकाश ही नहीं रहता। जितनी गति से प्रकाश आता है उतनी ही गति से अंधकार भी कहाँ चला जाता है, पता नहीं लगता। यह वैज्ञानिक सत्य उस प्रकाश के बारे में तो आप बार-बार सोचते हैं लेकिन अंधकार का मिटना भी अपने आप में बहुत बड़ी घटना है। जो बैठे हैं साधु उन्होंने तो उसका अनुभव किया ही है लेकिन उनके दर्शन मात्र से, एक झलक मात्र से राग जो बिल्कुल आग के समान सताने वाला था, जलाने वाला था वह नौ-दो-ग्यारह हो गया। नौ-दो-ग्यारह ये गणित नहीं है। नौ-दो-ग्यारह का अर्थ यह है-कहाँ पर राग गया पता नहीं। यह वीतरागतारूपी प्रकाश का प्रभाव है जो रागरूपी अंधकार पलायन हो गया। यह रहस्य समझ में आना चाहिए। यह पाँच तत्व का पिंजड़ा है, यह तोते के लिए पिंजड़ा है, यह तोते के लिए बन्धन है, यह तोते के लिए जेल है, यह तोते के लिये बाधक है। भले ही वह पिंजड़ा सोने का बना लो तो भी पिंजड़ा पिंजड़ा ही है। वह तोता उसमें बैठे-बैठे अखरोट, बादाम, काजू, किशमिश खाता रहता है और दूध का कटोरा भी वहाँ पर रखा रहता है लेकिन फिर भी वह बाहर झाँकता रहता है, दरवाजा कब खुले और कब मैं अपने दोनों पंखों का प्रयोग करूं और आप लोग कबूतर के टाइप के हैं। कबूतर क्या होता है? वह क्या करता है? कबूतर तो वह होता है जो खुला रहता है। उसके लिए पिंजड़े की जरूरत नहीं। उसको उड़ा भी दो तो भी वह उड़ता-उड़ता चला जाता है और फिर आकर आपके कंधों पर बैठ जाता है लेकिन तोते को आप देख लो, एक बार उड़ेगा तो फिर बाद में बाय-बाय और धन्यवाद आपके लिये, आपने हमारे ऊपर बहुत उपकार किये और तुम देखते रहो और वह उड़ता ही उड़ता आसमान में स्वतन्त्र विचरण करने लग जाता है। उसको कोई पकड़ने वाला नहीं होता। एक बार भूल के कारण वह पकड़ में आया है, पिंजड़े में है लेकिन वह रात-दिन यही मन्त्र दुहराता रहता है। जो अभी नवविवाहित था, अभी-अभी शादी हुई थी, उसके मन में इस प्रकार का भाव जागृत हुआ। तीर्थकरों के वंश में ऐसे ही हुआ करते हैं। क्षत्रियों का कार्य भी हमेशा ऐसा ही रहा करता है। बहुत राज्य कर लिया, छीना-झपटी हो गई, अपने हक को जमाने के लिए बहुत प्रयास कर लिया, लेकिन जब रहस्य समझ में आ जाता है तो वहीं का वहीं छोड़कर उसकी ओर पीठ दिखाते चले जाते हैं और ऐसे ही जंगलों में आकर वह अपने आप को मुक्त कर लेते हैं। उन्हीं में से यह भी एक स्थान है। नर्मदा का यहाँ पर समागम मिला है और यहाँ पर चारों ओर पहाड़ घिरा हुआ है। इस सुरम्य स्थान के इतिहास के पत्रों से यह ज्ञात होता है कि यहाँ पर अनेक ने सिद्धत्व को प्राप्त किया है। यह सिद्धवरकूट विख्यात है, प्रसिद्धि पाई है। यहाँ पर सन्त और आप जैसे भव्य जीव हमेशा आया करते थे। पहले सुना था, पढ़ा था, बार-बार लोगों से प्रशंसा सुनी थी और आज तीन दिन से हम यहाँ पर देख रहे हैं। वस्तुत: सिद्धवरकूट अच्छा है लेकिन कई लोग कहते हैं महाराज यहाँ पर कोई प्रबन्ध है ही नहीं। बन्ध को काटना चाहते हो तो प्रबन्ध को पहले गौण करो। जब बन्ध को काटने की बात यहाँ पर होती है, मुक्ति की बात होती है, परतन्त्रता को छोड़कर स्वतन्त्रता की बात होती है। आप लोग कहते हैं यहाँ पर टैन्ट लगा नहीं। भइया देखो छत्र तने हुए हैं वृक्ष लगे हुए हैं और यहाँ पर जो हजारों की जनता है उसके लिए छाया है। देखो, किसी को धूप नहीं लग रही और यदि लग भी रही है तो सुहा रही है उनको। कोई भी व्यक्ति परेशानी का अनुभव नहीं कर रहा। प्रत्येक व्यक्ति का मुँह ऐसे खिला हुआ है वैसे जैसे सरोवर में कमल खिलता है! क्या है? आनन्द की अनुभूति तो है। यहाँ बहुत कुछ हमने पाया, बहुत कुछ हमने देखा, यहाँ पर कोई सार है तो एकमात्र वही आत्म तत्व सार है जो जाननहारा है, जो देखने वाला है। रहस्य जानने में और देखने में आ जाता है तो यहाँ पर दुख का कोई नाम ही नहीं। यह दुख व सुख मात्र अज्ञान की उपज है। मोह माया के कारण ही हम मान लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं, वस्तुत: देखा जाये यह कुछ है नहीं। दुनियाँ की बातों में कोई रस नहीं आना चाहिए, एकमात्र तत्व का रहस्योद्धाटन होना चाहिए। ग्रन्थों में, वेदों में, उपनिषदों में, सूत्रों में, ऋचाओं में एक ही मात्र कहा है-आत्मा को जानो। किसी ने सम्यग्ज्ञान कहा, किसी ने भेद-विज्ञान कहा, किसी ने स्थित-प्रज्ञ कहा, किसी ने सम्यग्दृष्टि कहा, किसी ने वीतरागता कहा। इस प्रकार अनेक प्रकार के नामों से घोषित यह आत्म-तत्व वस्तुत: स्व और पर के लिए कल्याणकारी है। सन्तों ने इन सबको छोड़-छाड़ कर एकमात्र उसी भेद-विज्ञान के उद्धाटन के लिए अपनी प्रज्ञा को स्थिर करने के लिए प्रयास किया। उस प्रयास के लिए क्या-क्या छोड़ना पड़ता है। यदि उसको प्राप्त करना चाहते हो तो स्व और पर को जानने की आवश्यकता है, जो पराया है उसको बाँधने की क्या आवश्यकता है? और जो स्व है उसको प्राप्त करने की भी क्या आवश्यकता है? जो है उसको जानने का प्रयास करो। नदी तटों में रह करके, पहाड़ों के ऊपर रहकर के उन्होंने अपने निजी ज्ञान के माध्यम से यह रहस्य जाना। धन्य हैं ऐसे साधु-सन्त जो हमारे लिए ऐसे मार्ग प्रशस्त करके गये हैं। इनकी पवित्रता हमेशा बनाये रखें। यहाँ पर आ करके तप किया। तप करने का अर्थ यही है कि जिनसे कोई आनन्द प्राप्त होने वाला नहीं है उन वस्तुओं को अपने आप छोड़ते चले जाते हैं, यही वस्तुत: तप है। यदि मान लीजिए आपके हाथ में दूध है वह बहुत गर्म है, विशेष गर्म है तो कहने की कोई आवश्यकता नहीं, मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं कि मैं इसको छोड़ ढूँ। अपने आप ही अँगुली दूर हो जाती है, हाथ का प्याला दूर हो जाता है क्योंकि आप जानते हैं कि वह दोबारा भी मिल सकता है लेकिन हाथ चला जायेगा तो बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। इसी प्रकार जिन-जिन पदार्थों से कठिनाई का अनुभव होता है, आनन्द का मार्ग रुक जाता है, भेद-विज्ञान के लिए कठिनाई हो जाती है, उन सबसे वह पीठ फेरते हुए चले गये और वह क्षत्रियता के नाते ही इस प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य कर गये। एक युग में जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर होते हैं, वे चौबीस तीर्थकर क्षत्रिय ही होते हैं। उनमें से एक भी वैश्यवृत्ति वाला नहीं होता है। और जितने चक्रवर्ती भी हुए हैं सारे के सारे क्षत्रिय ही हुए हैं, उन्हीं का यह काम है, वह ही प्राणिमात्र की रक्षा कर सकते हैं, स्वयं सुरक्षित रह सकते हैं और अन्त में अपने आपको सिद्धत्व का रूप दे सकते हैं। ऐसे आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान् और उनके बीच में जो कोई भी हुए हैं उन सब के लिए मेरा बारम्बार नमस्कार है। उनकी जीवन-गाथा पढ़ने का प्रयास करें उनको समझने का हम प्रयास करें क्योंकि उनकी जीवन-गाथा ही हमारे लिए प्रशस्त रास्ता बनाती चली जाती है और कोई पढ़ने की आवश्यकता नहीं। किस ओर उनके कदम उठे, किस साहस के साथ वे बढ़ते चले गये, उनके साथ और कितने व्यक्ति मुक्त हो गये हैं। उनकी जीवन गाथा पढ़ने से हमें साहस आ जाता है। रास्ता पता चल जाता है। सम्पति बिछी हुई है, उसको देखने की आवश्यकता है। ऐसा जैन धर्म जिन धर्म माना जाता है। यह जाति परक नहीं माना जाता है। जो अपनी कषायों को, जो अपनी इन्द्रियों को, अपनी आत्मा को वशीभूत करते हैं, शासन की बात नहीं करते हैं, आत्मानुशासन की बात करते हैं वे ही जिन हैं। जब आत्मा संयत होगी तो निश्चत रूप से दुख नहीं होगा और उसके लिए प्रबन्ध की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसे आत्मानुशासित होते हुए ये तीर्थकर आगे बढ़ते गये। कषायों को आप समाप्त करिए, इन्द्रियों को अपने काबू में रखिये, अपनी आत्मा की चंचलता को मिटाने का प्रयास करिए। निश्चित रूप से हम भी महावीर भगवान् के समान, आदिनाथ के समान बन सकते हैं, बनने की क्षमता हमारे पास विद्यमान है। प्रत्येक जीव के पास परमात्मा बनने की क्षमता है। यह मन्त्र घोष, जयघोष महावीर का/आदिनाथ भगवान् का है। जैन धर्म की विशेषता है कि यह धर्म परटीक्यूलर एक व्यक्ति का नहीं है। यह असाधारण भाव प्रधान धर्म, वीतराग धर्म जो कि इस गुणवत्ता के साथ ही आगे बढ़ता है। समय आपका हो गया है, अब सावधान होइये, वह बीच में जो आया है वह साधु हो जाता है और उसका मित्र भी साधु हो जाता है। वह नवविवाहिता है वह भी अब कहाँ जाये? वह भी साध्वी हो जाती है। अब आपकी स्थिति क्या है? आप यह देख लीजिए। आप कथा सुन रहे हैं सुन ली है, पढ़ी होगी, अब इसको याद करने का प्रयास करिये। क्या होता है? कैसा होता है? जीवन में किस प्रकार परिवर्तन होता है? इसका एकमात्र उन्हीं बिन्दुओं के माध्यम से, गाथाओं के माध्यम से हम अपने आप को परिवर्तित करने का प्रयास कर सकते हैं और कोई रास्ता नहीं है। कोई ऐसे मुहूर्त नहीं आने वाले हैं जो हमें बह्मा बना दें, किन्तु आदिब्रह्मा आदिनाथ भगवान् को देखकर हम अपने आप को शुद्ध कर लें जैसे दर्पण में देखकर अपने मुख को साफ किया जा सकता है। उसी भाँति हमें अपने जीवन की कमियों को निकाल करके अपने आप के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रयास करना है, चाहे आज करो, चाहे कल करो, कभी भी करो करना आपको है। जब कभी भी दर्पण मिलेगा तो यही एकमात्र आदर्श मिलेगा। इन्हीं के लक्षण से, इन्हीं के दर्शन से और इन्हीं के कहे हुए के अनुसार आचरण करने से वह बुद्धत्व, सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है। ॥ अहिंसामय धर्म की जय॥
  14. भगवान् कुन्दकुन्द ने इस पंचमकाल में सुख के इच्छुक प्राणियों के लिए संक्षेप में सुख, शान्ति का रास्ता प्रशस्त किया है क्योंकि जहाँ तक हमें जाना है, वहाँ का रास्ता बहुत लम्बा है और शक्ति भी हमारी सीमित है तथा काल बहुत ही छोटा है। अनुभव की बात जो कही जाती है वह बात छोटी हो करके भी चोटी तक ले जाने वाली होती है। मंजिल तक पहुँचने के लिए अनुभव की बड़ी आवश्यकता होती है। किताबों के मर्म को समझने के लिए शब्द ज्ञान की आवश्यकता होती है। अनुभव की कोई आवश्यकता नहीं होती। अध्यात्म ग्रन्थों में कुन्दकुन्द भगवान् ने लौकिक उदाहरणों के माध्यम से उसे समझाने का प्रयास किया है। जैसे दलदल है और उसमें एक स्वर्ण का टुकड़ा और उसी दल-दल में एक लोहे का टुकड़ा गिर गया। कुछ काल व्यतीत होने पर उन टुकड़ों को निकाला गया। लोहे का टुकड़ा पहले हाथ लगता है जो जंग खा गया है और सोने का टुकड़ा जो पूर्व में था उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है। जिसकी ये दोनों वस्तुएँ गिरी थीं वह सोचता है कि स्वर्ण ने अपने स्वरूप को नहीं छोड़ा और लोहे के उस टुकड़े ने कुछ समय के उपरान्त ही दलदल के सहयोग से अपने स्वरूप को छोड़ दिया और वह इतना खतरनाक बन गया कि अगर कोई भी उसके ऊपर पैर रख दे तो टिटनेश हो जाता है। जिसको कहीं यह लग जाये और खून आ जाये तो फिर हजारों रुपए खर्च करने को वह मजबूर हो जाता है, नहीं तो उसमें भयानक स्थिति आ सकती है। यह समयसार का सार है किन्तु इस उदाहरण को देते हुए किन जीवों के लिए उन्होंने सम्बोधित किया है, यह विचारणीय है। अर्थात् ज्ञानी वह होता है जो सोने की मिट्टी के समान रह जाता है और अज्ञानी वह होता है जो लोहे की टुकड़ी के समान रह जाता है। संसारी प्राणी के पास ज्ञान भी है तो अज्ञान रूप परिणमन करने की क्षमता भी है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार के निर्जरा अधिकार में कहा भी है णाणी रागप्पजहो सव्व दव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदिकम्मरएण दुष्कडूममज्झे जहाकणयं॥ अण्णाणी पुण रतो सव्वदव्वेसुकम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोह || (समयसार-२२९/२३० युग्मं) ज्ञानी जानता है, देखता है, किन्तु रागद्वेष नहीं करता है। जानना-देखना आत्मा का स्वभाव है, वह स्वभाव कभी मिटता नहीं लेकिन स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह विभाव भी नहीं होता है। किसी भी पदार्थ का अभाव नहीं होता फिर भी सत् का अभाव असत् का प्रादुर्भाव नहीं होते हुए भी कुछ तीसरी वस्तु आती है जिसका नाम विकार है। जैसा संयोग मिल जाता है उसके अनुसार पदार्थ भी अपना परिणमन कर जाता है। ज्ञानी के लिए भी दलदल का और अज्ञानी के लिए भी दलदल का संयोग मिला लेकिन यह ध्यान रखना कि ज्ञानी दलदल में फेंसता नहीं और वह कभी दलदल में रह भी जाता है तो भी वह अनेक दल वाला नहीं होता हमेशा निर्दलीय रहता है। निर्दलीय का मतलब कोई राजनीति नहीं चल रही है फिर भी अर्थ यह हुआ वह किसी के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी उसका नहीं होता और किसी का नहीं होना, अपना ही रहना, यह एक वस्तुत: साधना की बात है। संयोग तो मिलेंगे, वियोग भी मिलेंगे, रात आई है, दिन आयेगा, प्रभात आयेगा। दिन और रात का जोड़ा है। यह संकल्प-विकल्प जिस प्रकार होते रहते हैं संसारी प्राणी के लिए उसी प्रकार यह रात-दिन की कल्पना; संयोग-वियोग की कल्पना यह वस्तुत: है लेकिन हमारी परीक्षा तो तभी है जब इन संयोग और वियोग में भी उस सोने के समान स्वतंत्र बने रहें। हम बनते नहीं बनने की इच्छा रखते हैं। इच्छा होना भी बहुत ही शुभ लक्षण है। यदि आपकी इच्छा है और वह भीतर से है तो नियम से एक दिन वह इच्छा पूर्ण हो सकती है। यदि भावना है तो नियम से उसमें ढल सकते हैं लेकिन वह भावना सही होनी चाहिए। जैसा भाव होगा वैसा ही हमें फल मिलेगा इसलिए भाव-विभाव के रूप में ना रहें। भाव केवल भाव के रूप में रहें। उसके पीछे किसी योग-संयोग की बात न हो तो उन्होंने बहुत अच्छी बात कही कि ज्ञानी वह जो अपने ऊपर विश्वास रखने वाला हो। राग-द्वेष करना मेरा स्वभाव नहीं है, इस प्रकार जानने/देखने वाला हो, जो कभी राग-द्वेष नहीं करता वही ज्ञानी है। और जो राग-द्वेष मेरा स्वभाव नहीं है इस प्रकार जानकर भी करता है वह कथञ्चित ज्ञानी इसलिए है कि वह राग-द्वेष छोड़ने के लिए तत्पर तो है फिर भी रागद्वेष हठात् हो रहे हैं। कुछ हठात् भी हुआ करते हैं, कुछ बलात् भी हुआ करते हैं, कुछ रुचिपूर्वक भी हुआ करते हैं। अब रुचि की बात आ गई तो इसी से मैं कहना प्रारंभ कर देता हूँ। प्रकृति और पुरुष के खेल का नाम ही संसार है यह कहना मति-मन्दता ही है क्योंकि खेल खेलने वाला पुरुष होता है और प्रकृति केवल उसका खिलौना है। पुरुष और प्रकृति के विषय को मैं थोड़ा सा खोलना चाहूँगा। पुरुष का अर्थ आत्मा है और प्रकृति का अर्थ भोग्य पदार्थ हैं। प्राय: लोगों के यह कहने में आ जाता है कि हम क्या करें इतना सारा आकर्षण है और हम आकर्षित नहीं हों तो और कौन होगा? बात तो बिल्कुल ठीक है कि ये सारी-सारी भोग्य सम्पदा तीन लोक में भरी हुई है, भोक्ता पुरुष इसके बीच में चला जाये और भोग के भाव जागृत न हों यह कैसे सम्भव है? लेकिन यह ध्यान रखना कि प्रकृति कभी भी हठात् आप को बुलाती नहीं। कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है - असुहो सुहो य गंधो ण त भणदि जिग्ध मंति सो चेव। ण य एड़ विणिग्गहिर्दू धाण विसयमागदं तु गंध॥ इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों के विषय में कहा है। कितनी अच्छी इन्होंने व्याख्या की। पाँच इन्द्रियों के विषयों से यह लोक भरा हुआ है, ज्ञानी उसके बीच में है और अज्ञानी भी उसी के बीच में है। दोनों बीच में हो करके भी बहुत अन्तर रखते हैं। एक कहता है कि प्रकृति मुझे बुला रही है, मुझसे खेलो ऐसा कह रही है, सुंघ लो, सूंघ लो कह रही है। देख लो मैं कितने रूप वाली हूँ इस प्रकार कह रही है इसलिए तो हमें रूप को देखने का आकर्षण बढ़ जाता है, सूघने की भावना भी जागृत हो जाती है आदि-आदि जो विकल्प उत्पन्न होते हैं यह हमारी ही देन नहीं है किन्तु प्रकृति के बलात् ये कार्य हो रहा है। इस प्रकार कह कर प्राणी उस दलदल में और फैंसता चला जा रहा है। जिसके पास ज्ञान है वही तो खेल खेलेगा और जिसके पास ज्ञान नहीं वह क्या खेलेगा? तो प्रकृति के पास यह ज्ञान नहीं है, वह शुभ-अशुभ के रूप में विद्यमान जरूर है लेकिन यह नहीं कहती है कि हमें खा लो, पी लो, सूंघ लो, चख लो आदि-आदि। कितनी बड़ी बात कह दी। हम स्वतंत्र हैं। हमारी आत्मा स्वतंत्र है। फिर भी हमें ऐसा बोध हो जाता है कि सामने वाला हमारा कोई स्वागत कर रहा हो, बुला रहा हो, प्रतीक्षा कर रहा हो। कभी यह नहीं सोचना कि प्रकृति के द्वारा यह सारा हमारा खेल चल रहा है। खेल नहीं चल रहा। खेल खेलते समय अज्ञानी के लिए कुछ खिलौने भी आवश्यक हो जाते हैं। अज्ञानी खेलता है और ज्ञानी भी खेलता है। ज्ञानी खिलौनों के बिना खेलता है और अज्ञानी खिलौना टूटने से रोता है। अज्ञानी का खिलौना जब टूट जाता है तो वह रोता है कि मैं ही मिटता चला जा रहा हूँ। वस्तुत: खेल खेलने वाला भीतर भी खेल सकता है और ऐसा खेल सकता है कि उसके लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं कि कितने आनन्द का अनुभव वह कर सकता है। अकेला जो खेलता है, दो के बीच में भी खेल होते हैं और बहुतों के बीच में भी खेल होते हैं लेकिन यह ध्यान रखना कि दो के बीच में जो खेल होते हैं वे अत्यधिक कमजोर होते हैं। एक बिगड़ जाय तो खेल समाप्त हो जाता है। दो में खेल का आनन्द पराधीन होता है लेकिन एक के बीच में जब खेल होता है तो उसमें कभी द्वन्द्र नहीं होता। अपने आप में ही लीन हो जाता है, अनुभव में यह बात आती चली जाती है कि पर वस्तु मेरे लिए खतरनाक है और इस बात को जब पहचान लेता है तो वह दूसरे के साथ संयोग और वियोग को कोई खेल नहीं समझता। वह केवल एकमात्र देखने में आता है। इसी बात को समझाने के लिए अनेक दर्शनकार और भी हुए हैं। यह सब माया है और यह सब संस्कार हैं और एक मात्र यह कहने में आता है और यह एकमात्र देखने में आता है लेकिन वस्तुत: यह बात नहीं है और यह बात कथञ्चित कहें तो बहुत अच्छी बात है। यह बिल्कुल ठीक है कि जब तक हम संयोग की ओर देखते जाते हैं तब तक हमारा जो मालिक बैठा हुआ है आत्मतत्व उसको हम गौण कर जाते हैं क्योंकि आनन्द लेने वाला खिलाड़ी आत्मा है, वह कभी भी ले सकता है, कैसे भी ले सकता है, पर जब वह सही वस्तुस्थिति पर आ जाता है तो उसको मात्र देखने और जानने में ही बहुत आनन्द का अनुभव हो जाता है। प्रभावित होना और प्रभावित करना ये दो बातें हैं। प्रभावित करने का मतलब क्या है? दूसरे को जो अन्य दिशाओं में प्रभावित हो रहा है, उसको इस ओर आकर्षित करना, यह भी एक प्रभावित करना ही है। लेकिन प्रभावित होना जो है वह बहुत ही समझदारी के साथ होना चाहिए। किस वस्तु से हम प्रभावित हो रहे हैं देख लीजिए। आप किस प्रकार से प्रभावित होते हैं। कोई हजारपति हो सकता है, कोई लखपति हो सकता है, कोई करोड़पति हो सकता है। तीनों व्यक्ति मिल करके जा रहे हैं घूमने के लिए और उनके सामने एक चमकीली वस्तु दिखने में आ रही है। तीनों की आँखों में वह चमकीली वस्तु आ रही है, वस्तु आँख में आ गई। क्या वस्तु वस्तु में है, यह पहले ध्यान रखें। हाँ, आँख ने उस वस्तु को देख लिया। देख लिया तो ध्यान रखना आँख उस ओर गई है, वस्तु इस ओर नहीं आई है। अब जाने के बाद भी जानना- देखना, यह सब आत्मा का स्वभाव है इसलिए हम इसको मंजूर कर लेते हैं। ठीक है, जानने-देखने के लिए तो आँख है, जानो लेकिन तीनों के मुख में पानी छूट गया। पानी छूटना क्या आत्मा का स्वभाव है? यदि है तो सिद्धालय में भी पानी झरना चाहिए। वहाँ पर भी पानी छूटना चाहिए। जिस-जिस व्यक्ति ने उस वस्तु को देख लिया, उस-उस व्यक्ति के मुँह में पानी आना चाहिए। लेकिन पानी सबके भीतर नहीं आता, कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो वस्तुओं से पानी-पानी हो जाते हैं। अपने आप को प्रभावित कर देते हैं। तो वह तीनों व्यक्ति प्रभावित हो गए। ‘‘यह क्या चीज है, देखो', हजारपति व्यक्ति कह देता है तो कथञ्चित ठीक है। लखपति भी कह रहा है तो फिर भी ठीक है लेकिन करोड़पति भी कह रहा है। अब देख लीजिए चार कदम आगे बढ़ना है। हजारपति पहुँच गया, मुझे पहले देखने दो। नहीं-नहीं, लखपति कहता है, मुझे भी दिखी है। करोड़पति कहता है, तुम दो ही नहीं, मालिक हम भी हैं। तीनों झुकने के लिए प्रयास करते हैं। करोड़पति की कमर झुक नहीं पाती, लखपति वाला झुक तो लेता है लेकिन वह घुटने तक ही झुक पाता है और हजारपति वाला? वह बैठ करके ले लेता है। जिसने लिया उसी की है, अब देखो, लखपति के मन में भी बात रह गई और करोड़पति के मन में भी बात रह गई। यदि हमारी कमर ठीक होती तो तुम्हारे से पहले हम उठा लेते। ये विकल्प क्यों उत्पन्न हो गए? एक सिक्के से भी सबके मुँह में पानी आ गया। करोड़पति भी प्रभावित हो गया। हाँ, इसी प्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों से संसारी प्राणी प्रभावित होता आया है और उसके लिए समझाया जा रहा है कि अब ज्ञानी बन चुका है, अब मुख में पानी नहीं आना चाहिए, पानी नहीं होना है। तुझे ऐसा रहना है कि जिससे विषय तुझे प्रभावित न करें। एक उदाहरण आपको देता हूँ इस सम्बन्ध में। दो व्यक्ति, एक लड़का और एक लड़की। लड़के को मिला है एक गुरु का/संत का समागम, लड़की को मिला है एक आर्यिका का समागम।दोनों का विद्याध्ययन हो जाता है। जीवन क्या है? यह समझ में आ जाता है। क्या पाना है? क्या पाना चाहिए? ये सब समझ में आ जाता है। जिस समय उस लड़के का विद्याध्ययन पूर्ण हो गया, महाराज के चरणों में आ करके वह कहता है- महाराज जी ! अब आगे क्या करना है? तो महाराज जी ने कहा कि देखो बेटा! तेरा शिक्षण तो समाप्त हो गया, अब तुझे जो चाहिए वह कर ले। यहाँ पर रहना चाहता है तो रह जा और घर जाना चाहता है तो ठीक है तो लड़के ने कहा कि कुछ दिन के लिए घर जाना चाहता हूँ। कोई बात नहीं, जाना चाहता है तो जा। जाते समय गुरु ने कहा कि कुछ दक्षिणा तो देकर जाओ यह सुनते ही आप क्या करेंगे? आप तो जेब में हाथ डाल लेंगे। कोई नोट का बण्डल चाहिए होगा? नहीं, मैं यह इसलिए कह रहा हूँकि अगला जो रविवार आने वाला है वह दीपावली का है। चातुर्मास पूर्ण हो जायेगा। इसलिए उस रविवार को कुछ गुरु दक्षिणा आप भी दे दें तो अच्छा है। लेकिन आप ध्यान रखना, जो त्यागी होता है वह दक्षिणा त्याग की ही माँगता है। जो रागी होता है वह राग की दक्षिणा माँगता है, अत: उन महाराज जी ने उस बच्चे से कहा सही दक्षिणा देओ। बच्चे ने कहा ठीक है महाराज जी दे दूँगा। यदि विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करूंगा तो शुक्ल पक्ष में मैं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा। शाबास! बेटा शाबास! कह दिया ठीक है आधा जीवन त्याग का, आधा जीवन राग का। अब किसकी कीमत सबसे ज्यादा होती है, देख लीजिए। इसी प्रकार इसी दिन उस आर्यिका के पास रहने वाली लड़की का भी विद्याध्ययन पूर्ण हुआ। आर्यिका ने पूछा कि जाना चाह रही हो क्या? उत्तर मिला हाँ। आर्यिका नहीं बनना चाहती। लड़की बोली कि थोड़ा घर जाकर फिर बाद में। ठीक है, कोई बात नहीं। फिर वह जाने के लिए तैयार होती है। आर्यिका कहती है कि दक्षिणा देकर के जाना बेटी। वह कहती है कि कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगी। इसे कहते हैं सच्चा ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि। अर्थ की उन्नति ही मात्र सुपुत्र का लक्षण नहीं है, परमार्थ की ओर भी उसके कदम बढ़ने चाहिए। वीतरागता की उपासना उसके जीवन में आ जानी चाहिए। यही एकमात्र शिक्षण का परिणाम होता है। विद्याध्ययन अर्थ के लिए नहीं होता। विद्या वैभव का अधिकारी कौन? समंतभद्र स्वामी कहते हैं- ‘दर्शनपूत:।' सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए समन्तभद्र महाराज थकते नहीं, उनकी यह विशेषता है। वह सम्यग्दृष्टि कैसा होता है? संसार शरीर भोगों से उदासीन होता है, वह ‘पूत' माना जाता है। 'दर्शनपूत:'। पूत का अर्थ पवित्र भी होता है और पूत का अर्थ पुत्र भी होता है। जो पवित्र होगा उसी का नाम यहाँ पर पूत है। दोनों के माता- पिता सोचते हैं अपने सम्बन्धियों से कहते हैं कि इनकी अब शादी/विवाह करना आवश्यक है। योग्य कन्या का चुनाव करना है। ऐसा नहीं कि जिसने दहेज ज्यादा दे दिया उसको बेच दिया, ऐसा नहीं। हमारे बेटे को बेचना नहीं, समझे। आप लोग अपने-अपने बेटों को बेचते हैं दहेज लेकर। प्रसंग आया है इसलिए कह रहा हूँ आप लोग क्या करते हैं? जैसे कोई लड़की वाला आया। वह कहे कि आपके लड़के के साथ लड़की का संबंध करना चाहते हैं। ठीक है, लेकिन अभी तो लड़का पढ़ रहा है। नहीं समझे, अभी तो लड़का पढ़ रहा है, आप कहते हैं कि जब तक पोस्ट ग्रेजुएट नहीं होता तब तक तो वह बात नहीं करता है और बीच-बीच में सम्बन्ध बहुत आ रहे हैं। अभी एक सज्जन आये थे उन्होंने पाँच लाख देने को कहा था, लेकिन हमने कहा कि नहीं यह हमारा लड़का है यह पसन्द नहीं करेगा, दस लाख आ जायें तो हम सोचेंगे। तो इस प्रकार उसका मूल्य बढ़ता जा रहा है। जिस प्रकार यहाँ पर पन्ना की खानों में हीरा निकलता है तो यह आज ५००० में बिकता है तो दूसरे के हाथ में १०००० का बिक जाता है तो तीसरे के हाथ में ५०००० का चला जाता है और जयपुर के जौहरी बाजार में जाकर उसकी कीमत लाखों हो जाती। उसी प्रकार जैसे-जैसे आप लोग प्रचार-प्रसार करते चले जाते हैं वैसे-वैसे हीरे की तरह आपके लड़के की कीमत बढ़ती जाती है। वाह! भैया वाह! यह बेचना नहीं तो और क्या है? यह खरीदना नहीं तो और क्या है? वे आप लोगों जैसे नहीं थे, वे माता-पिता ज्ञानी थे। उन्होंने दहेज की ओर नहीं देखा, संस्कारित लड़की को ढूँढ़ना है, ढूँढ़ना-ढूँढ़ते, विचार करते-करते, चर्चा करते-करते वही लड़की जो आर्यिका के पास पढ़ी थी, संस्कारित थी, उसके पास पहुँचे। उधर लड़की के पिता भी सोच रहे थे कि लड़की तो बड़ी हो गई अब इसके लिए योग्य वर कहाँ मिलेगा। यह संयोग की बात है। जैसी भावना होती है उसी प्रकार काम भी हो जाता है। दोनों का मेल हो जाता है। माता-पिता को भी खुशी होती है। दोनों के मातापिता को जोड़ा देखकर खुशी होती है। लड़के को देखकर लड़की के माता-पिता खुश हैं व लड़की को देखकर लड़के के माता-पिता खुश हैं। दोनों का सम्बन्ध हो गया। फिर क्या कहना? मिलते हैं जाकर रात्रि में तो लड़की कहती है- अभी नहीं, मेरा कृष्ण पक्ष का नियम है। लड़का कहता है मेरा भी शुक्ल पक्ष का नियम है। दो-तीन साल निकल गए, इसके उपरान्त भी कोई सन्तान नहीं। तो इसके उपरान्त पूछा गया तो वह शर्माते हुए, डरते हुए बोले, अब कैसे कहें? बहुत कठिनाई हो गई। फिर भी किसी प्रकार से उनको पूछा गया। दोनों माता-पिता को मालूम पड़ जाता है कि इन दोनों का इस प्रकार का नियम है कि शुक्ल पक्ष में इस लड़के का नियम है और कृष्ण पक्ष में इस लड़की का, और संयोग की बात है कि इन दोनों का विवाह हो गया और ये दोनों परीक्षा में खरे उतरे। एक बात और मैं कहना चाहता हूँकि एक दिन पति से पत्नी ने कहा कि आप दूसरा विवाह कर लें तो अच्छा है, कुल परम्परा चल जायेगी। आप पुरुष हैं दूसरा विवाह कर सकते हैं। किसी लड़की के साथ विवाह हो जाये तो कम से कम आपके माता-पिता की वंश परम्परा चल जायेगी। पति कहता है कि असम्भव, ऐसा पवित्र नियोग किसे मिलता है? हमें संसार की परम्परा नहीं बढ़ानी। हम तो जन्म-मरण से छुटकारा पाना चाहते हैं। हमारी भावना है कि जन्म-मरण की यह परम्परा टूट जाए। शिव-मजर – मरुज–मक्षय – मव्याबार्ध विशोकभयशङ्कम्। काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४०) अर्थात् अब तो उस शिव पद का भजन करना है जो अजर, अमर, अविनाशी है। अव्यावाध, शोक, भय, शंका से रहित अचल सुख देने वाला है। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र एक ऐसी लक्ष्मी है जिसके द्वारा अनंत सुख की उपलब्धि हो सकती है। वह लड़का कहता है नहीं, नहीं, मैं अब किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रखेंगा। क्या पता हमारे भावों में इस प्रकार की उज्ज्वलता रहे या नहीं। माता-पिता की आँखों में दुख के आँसू नहीं किन्तु सुख का पानी आ जाता है क्योंकि हमारे घर में उत्पन्न हुई यह सन्तान और इसके मन में भरी जवानी में यह वैराग्य! जहाँ पर जवानी ऑगड़ाई ले रही हो ऐसी स्थिति में विषयों से अपने आपको मोड़ ले और मोड़े क्या उसी के बीच में रहे और सौ टंच सोना सिद्ध हो जाए। ज्ञानी विषयों के बीच में रहता है फिर भी वह अपने ज्ञानपने को नहीं छोड़ता है क्योंकि कनक कभी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता। अज्ञानी विषयों के बीच में रहता है लेकिन वह लोहे के समान जग खा जाता है। यह जग खाने वाले लोहे के टुकड़े नहीं थे, किन्तु सौ टंच स्वर्ण थे क्योंकि ये वहाँ से तप करके आए थे जहाँ पर वीतरागियों ने इन्हें शिक्षण दिया था। इनके सिर पर ऐसे हाथ थे जिन हाथों में हमेशा राग नहीं वीतरागता रहती थी। वीतरागी का संस्कार मिले तो राग वीतरागता में बदलेगा नियम से। देखो, यही तो समागम की बात है। उस वीतरागता का ऐसा प्रभाव था। दस-दस, बारह-बारह साल तक ऐसे संस्कार मिले थे तभी दोनों ऐसे कनक के समान निकले। दोनों के माता-पिता की आँखों में आँसू आ गए और कह दिया कि बेटा! बेटी! तुम बहुत ही अच्छे विचार के हो, हम तुम्हारे जीवन से खुश हैं। हमें अब वंश परम्परा की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसी सन्तान हुई, हमारा जन्म भी सफल हो गया। अब देख लीजिए कि यदि शरीर, भोग सामग्री ही आत्मा को हठात् भोग के लिए आकर्षित करती और बाध्य करती तो उन्हें भी बाध्य करना आवश्यक था। यही आचार्यों का कहना है कि जिस प्रकार प्रकृति तटस्थ स्वरूप निष्ठ रहती है उसी प्रकार आत्मा को भी स्वरूप निष्ठ रहना आवश्यक है। इसी का नाम स्वास्थ्य है। स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेषपुंसां। स्वार्थो न भोग: परिभङ्गुरात्मा॥ (स्वयंभू स्तोत्र-७/१) भगवान् सुपार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए यह समन्तभद्र महाराज ने कहा कि हे भगवान्! आपने कहा, स्वास्थ्य किसको बोलते हैं? भोग स्वास्थ्य नहीं है, सुख यदि है तो स्वास्थ्य में है लेकिन भोग में सुख नहीं है इसलिए भोग स्वास्थ्य नहीं है, वह दुख का मूल है, वह तृष्णा के लिए एक कारण है इसलिए भोग सामग्री हममें कभी भी हठात्राग-द्वेष पैदा नहीं करती। यदि हम अपने स्वभाव को पहचानते हों तो। चार पंक्तियाँ देकर मैं उपसंहार कर रहा हूँ। प्रकृति के अनुरूप यदि हम पुरुष होकर रह जाते तो हम जड़ता वाद में फैंस जाते। इमली का सेवन तो दूर रहा, इमली का नाम स्मरण भी मुँह में पानी लाता है। लेकिन स्वस्थ को नहीं, प्यास पीड़ित मनुष्य को। यह तो सहज बात है किन्तु विस्मय की बात तो यह है कि भोक्ता के मुख में जाकर भी इमली के मुख में पानी नहीं आता। किसके मुख में पानी आ सकता है, जो प्यासा हो, पानी चाहता हो, उसके मुख में आ सकता है लेकिन जो स्वस्थ है उसके मुख में नहीं आ सकता। यह तो सहज बात है, विस्मय की बात तो यह है कि भोक्ता के मुख में जाकर के भी इमली के मुख में पानी नहीं आ रहा है। पानी तो आपके मुख में आता है। इसी प्रकार ज्ञानी के पास सारी की सारी भोग सामग्री लाकर के रख भी दी जायें तो भी जिस प्रकार सामग्री उठ करके नहीं जाती उसी प्रकार ज्ञानी भी उन सामग्रियों को देखेगा/जानेगा भले ही लेकिन उनके पास नहीं जायेगा अर्थात् वह उन्हें अपनी भोग्य सामग्री नहीं बनाएगा। धन्य हैं, आज भी इस प्रकार का शिक्षण पा करके जो विषयों से, कषायों से ऊपर उठने के लिए प्रयास करते रहते हैं, हमेशा ऐसी सन्तान एवं ऐसी संतान के जो माता-पिता हैं वह धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि इस प्रकार चारों ओर चकाचौंध विषयों की है फिर भी वे उन विषयों से प्रभावित न हो करके वे कुछ अलग ही वस्तु से प्रभावित हो रहे हैं। दुनियाँ जिस ओर देखना तक नहीं चाहती उस ओर उन लोगों की दृष्टि जा रही है। दिव्य दृष्टि वाले ही इस प्रकार के व्रतों को/ संयमों को अंगीकार करने की भावना करते हैं। आप लगातार यहाँ पर पाँच-छह महीने से भिन्न-भिन्न प्रवचन, भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएँ सुनते आ रहे हैं, देखते आ रहे हैं, करते आ रहे हैं। कई लोग गौरव के साथ कहते हैं हमने तो संघ को निकट से देखा है, ऐसा कहते हैं ना, लेकिन निकट से देखते हुए भी अभी कह नहीं पा रहा हूँकि कौन-कौन निकट आ रहा है। अब ये कहेंगे कि महाराज हम निकट तो आ रहे हैं लेकिन आपके निकट आना बहुत विकट सा लग रहा है। यह विकट सा नहीं है, थोड़ा-सा आप प्रयास कर लीजिए यहाँ आ गए हैं तो? अब कोई विशेष बात नहीं है, अब कुछ भी नहीं करना है बस केवल हाथ उठाना है और हम हाथ पकड़ कर यूँ ले लेंगे। यह भी एक भावना है तो कोई बात नहीं है, भावना तो इसी प्रकार जागती है। किसी व्यक्ति को आत्मा के बारे में लगातार पाँच-छह महीने तक चर्चा सुनने के लिए मिल जाये और फिर भी यह भावना न हो, हम तो इसको मंजूर नहीं करते। कई प्रकार के पाषाण होते हैं। जिस पाषाण में स्वर्ण निकलता है वह ऑख वाला पाषाण माना जाता है और जिसमें से स्वर्ण नहीं निकलता उसको अंध पाषाण कहते हैं। वर्षा तो होती है। सावन में होती है, भादों में होती है, पाषाण के ऊपर भी होती है और मिट्टी के ऊपर भी होती है। मिट्टी तो बह जाती है, फूल जाती है, उसमें बीज डालेंगे तो वह अंकुरित भी हो जाती है, लेकिन पाषाण ऊपर-ऊपर से भीग जाता है। हम तो यही समझेंगे कि यदि छह महीने के उपरान्त भी कोई त्याग की बात नहीं करता तो वह भीग तो गया लेकिन पाषाण के समान भीगा है। मिट्टी के समान भीगना चाहिए भैया, ताकि हम कुछ अंकुरित कर सकें, कुछ धान पैदा कर सकें और जिस प्रकार आप लोग बोलियाँ बढ़ाते चले जाते हैं उसी प्रकार हम भी तो यही चाहेंगे कि बढ़ती चली जाये संख्या। वीतरागता का प्रभाव ज्यादा होगा, संख्या ज्यादा होगी उतना ही रागियों के उद्धार का रास्ता प्रशस्त होगा। कुन्दकुन्द जैसे महान् अनुभव की लेखनी से लिखे हुए हजारों वर्ष प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं। एक-एक गाथा हम अपने सामने रख लेते हैं तो ऐसा लगता है कि एक-एक अक्षर, एक-एक पंक्ति, एक-एक पद वहाँ पर अनुभूति के द्वारा लिखे हुए हमें नजर आ जाते हैं। आत्मा का अनुभव वहाँ पर एक-एक अक्षर में प्रकट हो रहा है। धन्य हैं वे कि अपना कल्याण करते चले गए लेकिन साथ-साथ जो कोई भी उनके निकट आया उसके लिए भी ऐसा रास्ता बना दिया और जो आगे आने वाले हैं उनके लिए भी एक ऐसा साहित्य दे दिया जिसके द्वारा हम जैसे भी वीतरागता की बात कर पा रहे हैं। वीतरागता की पहचान कर रहे हैं और बढ़ने का पूरा-पूरा प्रयास किया जा रहा है, यह केवल एकमात्र संयोग की बात है। आप लोगों को भी संयोग मिला है और संयोग एक प्रकार से वियोग के लिए भी कारण होता है। अब होने जा रहा है, एक रविवार रह गया। वह रविवार भी बीच में नहीं आने वाला है। रविवार को प्रात: निर्वाण महावीर को होगा, मुक्ति होगी। उसी प्रकार हमारे चातुर्मास का भी निष्ठापन होगा। एक तो प्रतिष्ठापन की बात थी, अब निष्ठापन की बात हो रही है। लेकिन निष्ठा के साथ कहता हूँ कि आप लोग तन-मन-धन और जो कुछ भी है उसके साथ धर्म प्रभावना में लगे रहें और भावना यही करता हूँ भगवान् से कि आप लोगों की यह भावना प्रभावना में लगी रहे, लेकिन केवल ऊपर-ऊपर भीग करके नहीं, किन्तु भीतर भी कुछ भीगना आवश्यक है ताकि वह स्नत्रय का अंकुर ऊपर आ सके और उस अंकुर आने के उपरान्त ही सौभाग्य खड़ा होगा। फिर उसी में फूल-फलपते आदि हरे-भरे लगेंगे, सुगन्ध फैलेगी। पंचमकाल के अन्त तक जाना है, अभी तो बहुत शेष रहा है समय। अभी उतने काल तक इस वृक्ष को या उस परम्परा को ले जा रहे हैं। संसार की परम्परा की बात अब गौण कर दीजिये। अब तो श्रमण संस्कृति को हम जीवित रखना चाहते हैं, श्रमण बनकर के ही हम जीवित रख सकते हैं और श्रमण संस्कृति की सुरक्षा हेतु साहित्य का जो प्रकाशन करा रहे हैं वे भी श्रमण संस्कृति की कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। साहित्य का प्रकाशन होकर सुरक्षित होना बहुत बड़ा कार्य है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने बहुत साहित्य लिखा लेकिन विधिवत् प्रकाशित होकर साहित्य जगत् के प्रकाश में नहीं आया। अब विधिवत् प्रकाशित होकर आया है। अब लोग उसका महत्व समझ रहे हैं। ज्ञानसागर वस्तुत: ज्ञान के सागर थे, लोगों को अब समझ में आ रहा है। इसके पूर्व भी अनेक-अनेक आचार्य हुए उनके साहित्य के माध्यम से ही हमें इस पथ का पाथेय मिला है। धन्य हैं वे आत्मायें। वे जय-जयकार के, धन्यवाद के पात्र हैं। महावीर भगवान् की जय
  15. आत्मपरीक्षक, आत्मोत्तरदाता, आत्मसमालोचक, गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की आत्मदृष्टि को कोटिशः प्रणाम करता हूं...हे गुरुवर! आपश्री ने दादिया ग्राम में ब्रम्हचारी विद्याधर जी की साधना की चार बार परीक्षा ली थी ओर ब्रम्हचारी जी उन परीक्षा में शतःप्रतिशत पास ही नही हुए बल्कि त्यागी विद्यार्थी के रूप में सब के आदर्श बन गए थे। इस बारे में दादिया के पारस झाँझरी सुपुत्र हरकचंद जी झाँझरी ने बताया। प्रथम परीक्षा में परीक्षक हुए हक्के- बक्के "दादिया प्रवास में ब्रम्हचारी विद्याधर जी बडी ही साधना करते रहते थे। वे भोजन में नमक- मीठा नही लेते थे और मुनि दीक्षा लेने की तीव्र भावना रहती थी। इसलिए गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज परीक्षा लेते रहते थे। एक बार रात को ज्ञानसागर जी महाराज ने मेरे पिताजी हुकुमचंद जी झाँझरी को इशारे से पूछा कि ब्रम्हचारी विद्याधर कहा पर है ? तब पिताजी ने मंदिर, धर्मशाला सब जगह देख लिया, नही मिले। तो बाहर जाकर आस-पास भी देख लिए नही मिले। तो हम युवाओं को बुलाकर घबड़ाते हुए बताया ब्रम्हचारी विद्याधर जी नही दिख रहे है ढूढो कहा है ? हम युवा चारों तरफ दौड़ पड़े ढूढ़ाढूढ़ मच गई। कही नही मिले, फिर पिताजी को याद आया कि मंदिर की छत पर भी देख लेते है, ऊपर जाके देखा तो वो ध्यान में एक पैर से खड़े हुए थे। आधी रात का समय हो गया था। हम सभी लोग थक गए थे, सो सोने चले गए। वो कब नीचे आये पता नही, ऐसी कठोर साधना मुनि बनने के लिए ब्रम्हचारी विद्याधर जी करते थे जिसे देख सुनकर सभी हक़ी-बक्के रह गए थे।" अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  16. अधिक जानकारी का लिए :-https://vidyasagar.guru/blogs/entry/698-वेदिका-पर-विराजित-हुए-भगवान-श्रीजी-शिखर-पर-हुआ-कलश-व-ध्वजारोहण/
  17. From the album: सीएम नहीं भक्त के रूप में आया हूूं: रमन

    जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आर्शीवाद से संचालित हथकरघा केंद्रों की सराहना करते छ.ग. मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जी, उन्हें प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी देते हुए गौरव भैया जी महाकवि पंडित भूरामल सामाजिक सहकार न्यास के हथकरघा निर्मित वस्त्रों की गुणवत्ता देख मुख्यमंत्री जी विस्मित होकर पूछ रहे थे कि क्या वास्तव में ये कपड़े हथकरघा से बने हैं। इतनी अच्छी गुणवत्ता, रंग, उत्पादों में विविधता इतने कम समय में नवीन बुनकरों के साथ वास्तव में किसी चमत्कार से कम नहीं है। आखिर ऐसा क्यों न हो, इतने महान संत का आर्शीवाद जो है। हथकरघा निर्मित वस्त्रों के लाभ बताते हुए गौरव भैया जी ने कहा कि यह वस्त्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था कि धुरी है जिस पर किसानों कि आत्महत्या, बढ़ती बेरोजगारी से झूझती अर्थव्यवस्था फिर से घूमने लगेगी। साथ ही समाज को एक आरोग्यवर्धक एवं अहिंसक वस्त्र भी मिलेगा। गौरतलब है कि आचार्य श्री के आर्शीवाद से देश भर में 50 से भी ज्यादा स्थानों पर हथकरघा केंद्र संचालित हैं। जिनका कुशल संचालन उच्च शिक्षित ब्रह्मचारी भाई एवं बहनें कर रही हैं। इन केंद्रों के माध्यम से लगभग 1000 पुरुष एवं महीलाओं को रोजगार दिया जा रहा है। केवल यही नहीं आने वाली पीढ़ी को स्वाश्रित बनाने हेतु विद्यालयीन शिक्षा में भी हथकरघा को जोड़ते हुये आचार्य श्री के आर्शीवाद से संचालित प्रतिभा स्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ में 9वीं से 12वीं कि छात्राओं को हथकरघा का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। स्थान = डोंगरगांव दिनांक = 15/11/2017
  18. आत्माभा में लीन गुरु ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों मे सीमातीत वंदन... हे गुरुदेव! आपने ज्ञानपिपासु ब्रम्हचारी विद्याधर में जोज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित की। जिसे आज तक मेरे गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज दिन-रात जलाये रखते है। किसी को उपसर्ग-परिषह-संकटो को झंझावातो में बूझने नही देते है। यह संस्कार बचपन से ही विद्याधर को प्राप्त हुए थे। इस सम्बन्ध में विद्याधर की गृहस्थावस्था की बहने ब्रह्महचारिणी सुश्री शान्ता, सुश्री सुवर्णा जी जब अशोकनगर(म.प्र.) प्रवास में थी, तब संस्मरण लिखकर भेजा था। वह आपको।बता रहा हूं- विद्याधर का ज्ञानविनय "ज्योति जल-जलकर उजाला देती है, जगत् में उजाला फैलाती है, खुद उजाले में रहकर उजाले में रहने की शिक्षा देती है एवं अखण्ड जलकर अखण्डता का उपदेश देती रहती है। ऐसी अखण्ड ज्योति घर पर जिनवानी शास्त्रों के समक्ष पिताजी (मलप्पाजी) ने १८ वर्ष तक प्रज्वलित कर रखी थी। तब विद्याधर उसे बूझने नही देते थे । सदा उसे सम्हालते रहते थे। रात में भी उठकर देखते थे और बाती बगैरह ठीक करके घी डालते थे।" इस प्रकार लौकिक सगुन से जीवन का मंगल बनाये रखने के लिए पारिवारिक रीति-रिवाजों का पालन किया करते थे। ज्ञानज्योति प्रज्ज्वलित करने हेतु नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु..... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  19. 'लक्ष्य बनाओ भार उतारने का, बढ़ाने का नहीं और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे-तेरा सो एक, जो तेरा है वह एक।' अभी बोलियाँ चल रहीं थीं, एक बोली थी 'तेरा सो एक' इस बोली पर सबका चित रुकना चाहिए था। पर, किसी का चित रुका नहीं, सब आगे बढ़ते गये, 'तेरा सो एक' शब्द सुनकर मैं विचार में पड़ गया, हे आत्मन्! जो तेरा है सो-वह एक ही है।” कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है- एगो मे सासदो आदा, णाण-दंसण-लक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा॥ ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला एक आत्मा ही तेरा है, वही शाश्वत अर्थात् अविनाशी है और पर पदार्थ के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने काम क्रोधादि विकारी भाव हैं वे सब मुझसे भिन्न हैं। कुन्दकुन्द स्वामी समयसार में भी कहते हैं- अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारूवी | ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि, अण्ण परमाणु मित्तं पि || अर्थात् ज्ञान-दर्शन से तन्मय रहने वाला मैं एक शुद्ध और रूपादि से रहित हूँ कितना सुन्दर अभिप्राय है। हमारे घर में वैभाविक परिणतिमय चोर घुसा हुआ है, उसे निकालने का भाव हमारा नहीं होता, यह कितने आश्चर्य की बात है, इस विकारी भाव को चोर समझकर निकालने का पुरुषार्थ होना चाहिए। अभी आपके सामने पण्डितजी ने राजा भोज के काल में कहारों की बात की ' तथा न बाधते भार: यथा बाधति बाधते' अर्थात् राजन्! लकड़ी का भार उतनी बाधा नहीं दे रहा है जितना आपके द्वारा प्रयुक्त 'बाधति' पद बाधा दे रहा है। तात्पर्य यह है कि उस समय के कहार भी संस्कृत का इतना ज्ञान रखते थे कि कौन धातु आत्मनेपदी है और कौन धातु परस्मैपदी। राजा भोज का नाम सुनकर मुझे भी उनके जीवन की घटना याद आ गयी। एक बार राजा भोज बिस्तर पर पड़े आराम कर रहे थे, वे कवियों का आदर तो करते ही थे और स्वयं भी कवि थे, नींद खुलने पर उन्होंने काव्य-रचना प्रारम्भ की चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलाः । सद् बान्धवाः प्रणतिगर्भगिरश्च भृत्याः॥ गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः। ये तीनों चरण राजा भोज बार-बार पढ़ते, परन्तु चौथा चरण नहीं बन पाता। जब बहुत देर हो गयी तब उनके पलंग के नीचे छिपा हुआ एक चोर कहता है| 'संमीलने नयनयोर्नहि किजित्चदस्ति ||' अर्थात् नेत्र बन्द होने पर यह सब कुछ नहीं है, राजा भोज ने सुना तो बोल उठे कौन हो तुम? काव्य पूरा नहीं होता था इसलिए पूरा कर दिया है, चोरी की प्रतीक्षा में बहुत देर से छिपा था, चाहता था कि आपके नेत्र निमीलित हों, आप निद्रा में निमग्न हों और मैं चोरी कर अपना काम करता, राजा भोज ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा कि तुमने मेरे नेत्र उन्मीलित कर दिये, खोल दिये हैं, जिन्हें मैं अपना मानकर गर्व कर रहा था, वे सब मेरे नहीं हैं, मेरे मरने पर सब यहीं पड़ा रह जायेगा, तिजोड़ी और उसका ताला कुछ भी तो मृतात्मा के साथ नहीं जाता। धीरे-धीरे आयु समाप्त हो रही है, फिर भी आत्म-कर्तव्य की ओर मानव का लक्ष्य नहीं जाता। ‘मोह महामद पियो अनादि भूल आपको भरमत वादी।' अर्थात् यह जीव अनादिकाल से, मोहरूपी मदिरा का पान कर अपने आपको भूलकर शरीर आदि पर पदार्थों को अपना मान रहा है और उसी भूल के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा है। अत: आप अज्ञान पर प्रहार करने की अपेक्षा मोह पर प्रहार करो, यदि आप सचमुच ही मोह को नष्ट कर सके, तो अन्तर्मुहूर्त के अन्दर सब अज्ञान अपने आप नष्ट हो जायेगा और आत्मा सर्वज्ञ हो जायेगी। सर्वज्ञ होने पर वाणी का अतिशय प्रकट होता है। सर्वज्ञ के वचन त्रिभुवन हितकारी, मधुर और विशद हो जाते हैं। कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘पंचास्तिकाय' के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण किया है- इंद सद वंदियाण तिहुवण हिद मधुर विसद वक्काणं। अंतातीद गुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणां ॥ सौ इन्द्र जिन्हें वन्दना करते हैं, जिनके वचन त्रिभुवन हितकारी मधुर और विशद हैं तथा जो अनन्त गुणों के स्वामी हैं, उन जिनेन्द्र को, उन अरहन्त आदि परमेठियों को मेरा नमस्कार हो। मनुष्य के सिर का भार ज्यों-ज्यों कम होता जाता है, त्यों-त्यों वह सुखी होता जाता है। पर, हम सिर पर भार लादकर सुखी-होना चाहते हैं, कैसी विचित्रता है हमारे विचारों में। लक्ष्य बनाओ भार उतारने का बढ़ाने का नहीं, और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे। तेरा सो एक, जो तेरा है वह 'एक' महावीर भगवान् की जय! (सागर में प्रदत्त प्रवचन)
  20. समाजवाद से आशय है-सबके साथ वात्सल्य रखना, प्रेममय व्यवहार करना, सबका हित देखना, अनुभव करना, हिल-मिलकर चलना। इस संसार में प्रत्येक प्राणी भोग-लिप्सा के पीछे एक मृग-मरीचिका की भाँति दौड़ रहा है। उसे ध्यान नहीं, ज्ञान नहीं है कि इससे क्या फल मिलेगा, तथापि वह प्रयास कर रहा है, आशा रखता है, आशा एक खतरनाक वस्तु है, आशा-तृष्णा, मिथ्यात्व पर्यायवाची शब्द हैं, एक ही शब्द को लिये हुए हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक हुए, उन्होंने अपनी अनुभूति को, प्रत्येक पदार्थ के अध्ययन को लेखनी के माध्यम से उड़ेल दिया। तृष्णा को महान् भूल बताते हुए उन्होंने कहा-तृष्णा अनादिकाल से हमारे जीवन में भरी है, जो रग-रग से फूट-फूटकर बाहर आ रही है। संसार के प्रत्येक प्राणी के आत्म-प्रदेशों से वह तृष्णा फूट रही है, वह इतना भयंकर रूप धारण कर लेती है कि सभी प्रकार के अन्न-ज्ञान को देने वाली कर्ण-इन्द्रिय और ज्ञान-इन्द्रियाँ बन्द हो जाये, इसके उपरान्त भी तत्वज्ञों ने तृष्णा को ज्वालामुखी की उपमा दी है, ज्वालामुखी फूटने पर वातावरण विषाक्त बन जाता है। उस वातावरण में श्वास लेने पर मृत्यु भी सम्भावित है, वह ज्वालामुखी जिस समय लावा उगलता है और भी विकराल रूप धारण कर लेता है, जिस प्रकार लोग कुत्ते, बिल्ली, जानवरों को पालते हैं उसी प्रकार हमने तृष्णा पाल रखी है, इस तृष्णा के कारण जीवन मिटता चला जा रहा है, जीवन में आनन्द के फूल विकसित और सुवासित नहीं हो पा रहे हैं, उस तृष्णा को आप सुरक्षित रख रहे हैं, यह एक अनिष्ट अहितकारी बात है, इसी से आपका मणिमय जीवन अन्धकारमय है। इसमें सन्देह नहीं जहर से आप डरते हैं, किन्तु तृष्णा को आप जहर नहीं समझते; जब कि जहर की उपमा तृष्णा के लिए स्वीकार करते हैं। तृष्णा विष भी है और नागिन भी। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आप तृष्णा से भयभीत नहीं हैं। विश्व के समस्त पदार्थ स्वतन्त्र होते हुए भी काल की चपेट में आ जाते हैं किन्तु काल किसी की पकड़ में नहीं आता, उसका नाम ही काल नाग है। वह विकराल है काल-द्रव्य। प्रत्येक द्रव्य, में परिवर्तन लाता है। पर, उसमें परिवर्तन लाने में कोई भी द्रव्य सक्षम नहीं। काल अन्तिम दण्ड देने वाला अधिनायक है, काल कहीं जाता नहीं है, वह तो सदा उपस्थित रहता है उदासीन निमित्त के रूप में किन्तु आपमें जो विकास की क्षमताएँ थी वह स्फुटित नहीं हुई, क्योंकि आपने पुरुषार्थ नहीं किया, इसलिए आप काल को मूर्त समझकर उसकी चपेट में आते चले जा रहे हैं। तू उस सत्य को पाना चाहता है पर केवल चिन्तन द्वारा यह तेरी भ्रान्ति है, पुरुषार्थ और साधना की महिमा क्या बताऊँ किसी कवि ने लिखा है- भावना पाषाण को भगवान् बना देती है | साधना अभिशाप को वरदान बना देती है || विवेक के स्तर से नीचे उतरने पर | भावना इंसान को शैतान बना देती है || ये पंक्तियाँ गूढ रहस्य को उद्घाटित करती हैं, किन्तु उल्टी साधना द्वारा हम अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकते। जिसके पाँव साधना के पथ पर आरूढ़ हैं वह प्रत्येक पदार्थ में महासत्ता का दर्शन अनुभव करता है, प्रत्येक सत्ता के साथ उसका एकमेव व्यवसाय बना रहता है। वह बिना किसी क्रम (लिंक) के टूटे, धारा-प्रवाह रूप से चलती रहती है। उसमें एक प्रकार की भावात्मकता गर्भित हो जाती है। प्रत्येक पदार्थ के साथ उसका जीवन चलता रहता है, वह हर्ष और विषाद का अनुभव नहीं करता, महासत्ता का अवलोकन करने से हर्ष और विषाद गौण हो जाता है, जब जीवन सुखदुख, हर्ष-विषाद से ऊपर उठ जाता है तब एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है, उस समय वह उस सत्ता से एकमेव हो जाता है, व्यक्ति विषय-कषाय को छोड़कर जब आगे बढ़ जाता है, तब उसे ज्ञात होता है कि गौण तत्व क्या है, जिस प्रकार मद्यपान मस्तिष्क की क्रियाओं को अचेतन बना देता है, उसी प्रकार विषय-वासनाएँ आत्म-ज्ञान को सुप्त बना देती हैं, उस अवस्था में व्यक्ति शव और पुद्रल के समान हो जाता है, उसकी आत्मिक शक्ति क्रियाशून्य हो जाती है। गीता में कर्मयोग और सांख्ययोग का उपदेश श्रीकृष्ण ने दिया है, सांख्ययोग का अर्थ है पूर्ण रूप से परित्याग करना, कर्मयोग का अर्थ है फल की कामना-रहित कर्म करना, कर्मयोग में क्रियाएँ लोक-हितार्थ होती हैं। समाजवाद का भी वही अर्थ है, सबके साथ वात्सल्य, प्रेम-मय व्यवहार करना, सबका हित देखना, अनुभव करना, हिल-मिलकर चलना। संन्यासी कर्म-योग के पक्ष पर चलकर लोक-कल्याण का आदर्श उपस्थित करता है। नदी के तेज प्रवाह में यदि कोई पदार्थ गिर जाता है तो वह नदी के प्रवाह को नहीं रोक सकता है, उसे उस प्रवाह के साथ प्रवाहित होना ही पड़ेगा, पदार्थ प्रभावित होता है, परिणमित होता है, पदार्थ काल के प्रवाह की चपेट में बहता चला जाता है। भोग समाप्त नहीं हुए इसलिए तृष्णा आज तक जीवित है, हमने तप नहीं किया किन्तु हम ही तपे गये, कुछ साधना करने की हमने चेष्टा की। पर, उस साधना के माध्यम से कुछ पाया नहीं किन्तु तृष्णा के साथ बहते गये, हम तृष्णा को जीर्ण-शीर्ण बनाना चाहते रहे पर हम जीर्ण-शीर्ण होते गये, हमारी दृष्टि दूसरों की ओर चली जाती है, जो व्यक्ति वीतरागी बनता है वह संसार की अनुभूति छोड़ना प्रारम्भ कर देता है। वह व्यक्ति दूसरे को नहीं देखता किन्तु दूसरों में अपने को देखता है। देखने के कार्य मात्र से हम यह नहीं कह सकते कि वे अपनी ओर देख रहे हैं। अधिकांश जन कार्य, दर्शन के लिए नहीं, प्रदर्शन के लिए करते हैं। क्या आपने दर्पण में अपने मुख को देखा? उसे देखकर अपने गुण- दोषों का विचार किया? मैं आपको आज सजग करना चाहता हूँ, दर्पण को देखने का उद्देश्य क्या है, जरा इस बात का भी ध्यान रखे। प्रत्येक दिन हम दर्पण में मुख देखते हैं, पर दूसरों को दिखाने के लिए, क्या पाउडर, क्रीम, लिपस्टिक, सौन्दर्यसामग्री स्वयं की दृष्टि में अच्छा लगने के कारण लगायी जाती है? इस भौतिकता की चपेट में हमारा सम्पूर्ण जीवन ही प्रदर्शन बन गया है, कुछ भी अर्थ पूर्ण नहीं रहा, अपने लिए नहीं रहा। दर्पण का देखना आपकी अपनी मान्यता में भले ही सच हो सकता है, लेकिन दर्पण देखने के लिए दर्पण जैसा होना पड़ेगा, जो हमें दिख रहा है, वह दर्पण नहीं प्रतिबिम्ब है। जिसने दर्पण देखा समझो उस व्यक्ति के पास कुछ न कुछ है। वास्तविक बात तो यह है कि दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ देखने के पूर्व दर्पण दिखना चाहिए। पर, दर्पण नहीं दिखता उसको पार करके उसकी दृष्टि जाती है, प्रतिबिम्बित पदार्थों से दर्शन का विषय और विषयी का सम्बन्ध हो जाता है, दर्पण देखने से पूर्व यह लक्ष्य बनाना पड़ता है कि दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ को नहीं देखना। मात्र दर्पण को देखना है। प्रतिबिम्ब तो अनादिकाल से है तथापि हमारा लक्ष्य दर्पण नहीं सदैव प्रतिबिम्ब रहा है। इसलिए हमारा जीवन आज तक दर्पण नहीं बना, दर्पण बनने के लिए उज्ज्वल जीवन का लक्ष्य जिसका बन जाता है, वही व्यक्ति सत्य पदार्थों का अवलोकन कर सकता है अन्यथा नहीं, इसके लिए बहुत परिश्रम करने की आवश्यकता है, किन्तु बिना किसी अन्य पदार्थ की आवश्यकता के उस ज्ञान की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हम सब हेय और उपादेय, इष्ट और अनिष्ट का परिज्ञान कर सकते हैं, सम्पूर्ण पदार्थों में मूल्यवान् पदार्थ एकमात्र आत्मा है। जो कुछ भी अच्छा होगा उसी में होगा, जो कुछ उत्सर्ग आयेगा उसी में आयेगा, साधना-काल में यह शंकाएँ उठ सकती हैं कि जो आज तक नहीं मिला वह कैसे मिलेगा? जब तक हम गणित का प्रश्न कर रहे हैं, जब तक वास्तविक उत्तर नहीं मिलता है हमें परेशानी दिखती है, भूल का ज्ञान होने पर, उत्तर मिलने पर गहराई-गहराई नहीं रहती, शंकाएँ निर्मूल हो जाती हैं, हम वेगवती धारा का पानी नहीं देख सकते, गहराई नहीं नाप सकते, तैरना है, गहराई नापना है तो नदी के बीच में कूद पड़ो, गहराई का ज्ञान हो जायेगा। कितना समय हमने व्यर्थ गवाया, सोचना और प्रयास करना आवश्यक है। अधिकांश लोग अपना बहु-मूल्य जीवन मात्र सोचने में ही लगा देते हैं, जीवन में सोचना कम, काम करना अधिक, सोचने के बाद ही कार्य आरम्भ हो जाता है, फिर भी सोचना जारी रहता है, हम भूल जाते हैं, करने से पूर्व तैयारी करनी पड़ती है, जब हम कार्य प्रारम्भ कर देते हैं तो वास्तविक तैयारी और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। और नहीं भी। जब हम चलते हैं तब चलने में ज्ञान, विश्वास और चारित्र तीनों समाहित हो जाते हैं, चारित्र की पूर्णता में सम्पूर्ण ज्ञान समाहित हो जाता है तथा उससे वास्तविक आनन्द प्राप्त होने लगता है। तीर्थकर महावीर ने चारित्र को अपनाया और चारित्र की सत्य के माध्यम से देखा। कर्म-योग और संन्यास-योग हमारा है, कर्म-योग में विषय-कषायों की कामना नहीं होती, कर्मयोग धर्म का सम्पादन करने वाला है, कर्मयोग का रहस्य बतलाते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-कि अर्जुन! सोचना, विचारना घबराना नहीं है, बल्कि वह धर्म का सम्पादन करने वाला है। वह अनादिकालीन कर्मों को क्षय करने वाला है। सांख्य योग की बात है, वात्सल्य दिखाने तलवार माध्यम है। श्रीकृष्ण तलवार में रक्त नहीं देख रहे थे, भावी युद्ध में बहने वाले रत में भी वे लोक-कल्याण के दर्शन कर रहे थे। वह कहते हैं-सुनो अर्जुन! प्रेम का अर्थ क्या है? प्रेम का अर्थ है-अपनी आत्मिक सत्ता के साथ अनुभूति प्रारम्भ कर देना, प्रेम के द्वारा हम उस सत्ता को देख सकते हैं, उस अविनश्वर सत्ता रूप चेतना का संवेदन करना ही सही-सही प्रेम का रूप है। (अभी-अभी किसी ने चित्र लिया, यह प्रेम नहीं हैं, यह प्रेम का फ्रेम मात्र है) सत्य, अहिंसा, प्रेम, वात्सल्य यह आत्मा की बातें हैं, जड़ की नहीं, इन सबका आत्मा से गहरा सम्बन्ध रहता है, मुझे एक कथा याद आ गयी, स्वामी विवेकानन्द विदेशा यात्रा के लिए जा रहे थे, उनकी यात्रा मनोरंजन हेतु नहीं थी, महान् व्यक्तियों की यात्रा ही यात्रा कहलाती है, महान् व्यक्ति जहाँ भी चलते हैं, वह यात्रा के रूप में परिवर्तित हो जाती है, उनकी यात्रा अहिंसा सिखाने, प्रत्येक प्राणी को सद्ज्ञान की अनुभूति कराने, प्रत्येक को सुख की अनुभूति करने के प्रयोजन से होती है। विवेकानन्द यात्रा के पूर्व माँ-तुल्य गुरु-पत्नी शारदा के पास आशीर्वाद प्राप्त करने गये तथा बोले-'माँ! गुरु-आज्ञा, पूर्ण करने जा रहा हूँ, आपका आशीर्वाद परम आवश्यक है, विवेकानन्द ने एक शब्द भी नहीं सुना, आशीर्वाद में विलम्ब देखकर विवेकानन्द ने कहा-माँ! आशीर्वाद में विलम्ब क्यों? माँ ने कहा-विवेक! अभी आशीर्वाद देने का अवसर नहीं है, विवेकानन्द ने कहामाँ! ऐसी क्या बात है? आशीर्वाद देने में क्या परिश्रम करना पड़ता है? मात्र इतना ही तो कहना पड़ता है कि-पुत्र तेरी कामना पूर्ण हो, माँ दस मिनट तक सोचती रहीं, फिर बोलीं-‘उस आले में चाकू रखा है, उसे उठा ला।” उस समय विवेकानन्द ने विचार किया-क्या रहस्य है? समझ में नहीं आया, वातावरण बदल गया, विवेकानन्द चाकू उठा लाये और ज्यों ही माँ के हाथ में दिया त्यों ही माँ ने कहा-'तेरी कामना पूर्ण होगी, मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है, सफलता में कोई सन्देह नहीं।” विवेकानन्द चकित रह गये, चाकू देने से आशीर्वाद मिला! इसमें क्या रहस्य है? समझ में नहीं आया, माँ ने कहा-मैंने परीक्षा ली, तुम उत्तीर्ण हुए, आले में से चाकू लाना कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, चाकू का फलक मैंने तुम्हारी ओर देखा और मूठ मेरी ओर, कितनी रहस्यमय बात है, किसी जीव की भावना को ठेस (धक्का) न लगे, कितनी सावधानी बरती थी विवेकानन्द ने! प्रत्येक समय दया-धर्म को जानने वाला व्यक्ति स्वयं को कठिनाई में डालकर दूसरों को अपने द्वारा कोई कष्ट नहीं होने देना चाहता है, ये है उस परम सत्ता की अनुभूति, यह है कर्मयोग। संन्यास-योग के माध्यम से कुछ बताया नहीं जा सकता, कथन से परे है-मात्र संवेदनशील है, क्योंकि बताने में कुछ खतरा भी हो सकता है। संन्यास-योग है मात्र देखना और जानना। कर्मयोग में देखते और जानते हुए कषायों का दमन करते हुए कुछ कर्म करना, वह कर्म भी लोकहितार्थ और जनहितार्थ होता है, यहाँ पर वात्सल्य पूर्ण रूप से मूर्तिमान हो उठता है, जब तक प्रेम जीवन में नहीं आता, व्यक्ति किसी कार्य में फलीभूत नहीं हो सकता है, किसी क्षेत्र की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता है।
  21. स्वाध्याय परम तप है, अंतरंग तपों में इसे सम्मिलित किया गया है, वह कर्म निर्जरा का कारण भी है, लेकिन यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तप उसी को होता है जिसने व्रत ले रखे हैं, जिसने व्रत नहीं लिये, जो अव्रती है, आचार-संहिता का पालन नहीं करता है; उसका स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं और निर्जरा का कारण भी नहीं है। शास्त्र सम्यकज्ञान का साधन है, जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले आदमी को पाथेय (कलेऊ) आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्ष-मार्ग में चलने वाले के लिए शास्त्र-ज्ञान एक प्रकार का पाथेय है, इस पाथेय के रहते हुए मोक्ष-मार्ग के पथिक को कोई कष्ट नहीं होता। शास्त्र की उद्भूति अपने आप नहीं होती किन्तु केवलज्ञानी से होती है, जो केवलज्ञानी होता है वह वीतरागी अवश्य होता है, क्योंकि वीतरागी हुए बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, केवलज्ञानी ने अपने ज्ञान-रूप-दर्पण में सब कुछ देखकर हमें सम्बोधित किया है, भगवत्-पद की प्राप्ति केवलज्ञान से ही होती है; श्रुतज्ञान से नहीं, श्रुतज्ञान बारहवें गुण स्थान से आगे नहीं जाता, फिर भी उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपको पृथक्त्व वितर्क सवीचार और एकत्ववितर्क अवीचार नामक शुक्ल-ध्यान की! प्राप्ति में सहायक होता है। उत्कृष्टता की अपेक्षा उपर्युक्त दोनों शुक्लध्यान पूर्वविद्-पूर्वो के ज्ञाता-मुनि के होते हैं। कहा है ‘शुक्ले चाद्य पूर्वविद:।' तत्वार्थसूत्र। भगवान् महावीर को केवलज्ञान हो गया परन्तु ६६ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी, समवसरण रचा गया, उसमें विराजमान महावीर को देखकर लोगों के नेत्र तो तृप्त हो गये, परन्तु श्रोता अतृप्त बने रहे, इन्द्र के माध्यम से इन्द्रभूति समवसरण में पहुँचे, वहाँ पहुँचकर दीक्षित होने पर दिव्य-ध्वनि खिरी और उसे गणधर बनकर, ग्रन्थ रूप में अर्हन्त-कथित अर्थरूप श्रुत को शास्त्र स्वरूप में परिवर्तित कर हम लोगों को सुनाया, इस तरह शास्त्र की समुद्भूति भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि से हुई है। जिन-वचन अर्थात् जिन-शास्त्र एक प्रकार की औषधि है और ऐसी औषधि है जो विषयसुख का विवेचन करने वाली है तथा जन्म-मरण के रोगों को दूर करने वाली है। आचार्य में एक अवपीड़क नाम का गुण होता है, उस गुण के कारण वे शिष्य के हृदय में छिपे हुए विकार को बाहर निकालकर दूर कर देते हैं, शास्त्र भी आचार्यों के वचन हैं, उनमें भी अवपीड़क गुण विद्यमान है। अत: वे शिष्य के अन्तस्तल में छिपे हुए रागादि विकारी भावों को दूर करते हैं। जब मनुष्य को अजीर्ण हो जाता है और संचित मल भीतर सड़ने लगता है तब उसे विरेचन की आवश्यकता होती है। विरेचक औषधि के द्वारा सारा संचित मल नि:सृत हो जाता है और मनुष्य स्वस्थता का अनुभव करने लगता है, संसारी प्राणी के अन्तस्तल, में भी चिरसंचित रागादि विकारी-भाव रूप मल सड़कर अस्वस्थता उत्पन्न कर रहा है, इसे विरेचन करने वाला कौन है? जिनवाणी है। वही बार-बार कथन करती है-कि हे प्राणी! तू राग-द्वेष के कारण ही आज तक संसार में भटक रहा है तथा उन्हीं राग-द्वेष के कारण तूने आज तक सरागी देव की शरण पकड़ी है, अब अपने वीतराग स्वभाव का आलम्बन ले और इन औपाधिक विकारी भावों को दूर करने का प्रयत्न कर। स्वाध्याय परम तप है, अंतरंग तपों में इसे सम्मिलित किया गया है, वह कर्म निर्जरा का कारण भी है, लेकिन यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तप उसी को होता है जिसने व्रत ले रखे हैं, जिसने व्रत नहीं लिये, जो अव्रती है, आचार-संहिता का पालन नहीं करता है; उसका स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं और निर्जरा का कारण भी नहीं है। दूसरी बात...... श्रावक के चार धर्मों में एवं मुनि के षट् आवश्यकों में आचार्यों ने स्वाध्याय को कहीं भी आवश्यकों के अन्तर्गत नहीं गिना है। मूलाचार, धवला, नियमसार आदि ग्रन्थों में मुनियों के षड् आवश्यकों के नाम गिनाये हैं, जिसमें समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इस प्रकार छह प्रकार कहे हैं। नियमसार में स्वयं कुन्दकुन्ददेव ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है कि मुनि के लिए स्वाध्याय कोई आवश्यक नहीं, क्योंकि स्वाध्याय, स्तुति और प्रतिक्रमण रूप आवश्यक में गर्भित हो जाता है, इस कथन से मेरा यह मतलब नहीं है कि स्वाध्याय करना ही बन्द कर दिया जाये, किन्तु स्वाध्याय के साथ-साथ आवश्यक जो नियम संयम हैं उनका भी पालन किया जाये और स्वाध्याय क्यों किया जा रहा है यह भी ध्यान रखा जाये, अत: स्वाध्याय-प्रेमियों से मेरा यही कहना है कि जरा इस प्रकार के कथनों पर भी ध्यान दिया जाये। तप निवृत्यात्मक होता है, प्रवृत्यात्मक नहीं। निवृत्यात्मक भाव ही निर्जरा का कारण होता है, प्रवृत्यात्मक अंश आस्रव का साधन होता है। शास्त्र हमें सचेत करते हैं कि बाह्य पदार्थों को ग्रहण न करो, आपरेशन वाला डाक्टर पहले कह देता है कि आज आपरेशन होगा, अत: कुछ खाना, नहीं है। इसी प्रकार शास्त्र कहते हैं कि विकारी भावों का आपरेशन यदि करना है—उन्हें निकालकर दूर करना है तो बाह्य पदार्थों को ग्रहण मत करो। शास्त्र की इस आज्ञा का हम उल्लंघन करते हैं। यही कारण है कि हम चिरकाल से अस्वस्थ बने हुए हैं। श्रुत को सूत्र कहते हैं और सूत्र का एक अर्थ सूत भी होता है, जिस तरह सूत सहित सुई गुमती नहीं है, इसी तरह सूत्र-शास्त्र-ज्ञान-सहित जीव गुमता नहीं है, अन्यथा चौरासी लाख योनियों में पता नहीं चलता कि यह जीव कहाँ पड़ा हुआ है, श्रुत को जीवन में आत्मसात् करने की आवश्यकता है, जिसने श्रुत को आत्मसात् नहीं किया वह ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी होकर भी अनन्तकाल तक संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत को आत्मसात् कर लेता है वह अन्तर्मुहूर्त में भी सर्वज्ञ बनकर संसार-भ्रमण से सदा के लिए छूट जाता है। जिस प्रकार रस्सी के बिना कुएँ का पानी प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार जिनागम के अभ्यास के बिना तत्व-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। देव और गुरु से सम्बन्ध छूट सकता है पर, शास्त्र से सम्बन्ध नहीं छूटता। शुक्ल-ध्यान की प्राप्ति में देव और गुरु का आलम्बन (सहारा) नहीं रहता परन्तु श्रुत का आलम्बन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है, स्वाध्याय को तप कहा है और तप क्या है? जीव की अप्रमत्त दशा ही तप है, यह अप्रमत्त दशा संयत के ही सम्भव है, असंयत के नहीं। तप कर्म और तप आराधना भी संयत के ही होती है, असंयत के नहीं। जिस प्रकार मृदङ्ग बजाने वाला व्यक्ति अपने आपको उसके लय के साथ तन्मय कर लेता है, उसी प्रकार भव्य प्राणियों को श्रुत-प्रतिपादित ज्ञान से अपने आपको तन्मय कर लेना चाहिए। इस तन्मयी भाव के बिना श्रुताध्ययन की सार्थकता नहीं है, मृदङ्ग, बजाने वाले व्यक्ति के हाथ का स्पर्श पाये बिना नहीं बजती, पर मृदङ्ग स्वयं बजने की कोई इच्छा नहीं रखता, इसी प्रकार, निस्पृह केवली भगवान् दिव्य-ध्वनि के द्वारा भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग दिखाते हैं। पर, उससे उनका कोई प्रयोजन नहीं रहता। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने जो ग्रन्थ-रचना की है, वह भी ख्यातिलाभ आदि की आकांक्षा से रहित होकर की है, वीतराग जिनेन्द्रदेव की वाणी को वीतराग ऋषियों ने अब तक सुरक्षित और प्रसारित किया है, इन्हीं साधनों से हम लोगों का कल्याण हो सकता है। 'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं''-आदि मन्त्र का लय के साथ उच्चारण करना पाठ कहलाता है, पुन: अरहंतादि पाँच परमेष्ठियों का स्मरण करना जाप कहलाता है, अरहंत परमेष्ठियों का क्या स्वरूप है? अरहंत आदि पद कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह जानना ज्ञान है और चित का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना ध्यान है। ये सब विशेषताएँ हमें शास्त्र से ही ज्ञात होती हैं। शास्त्र पढ़ने का नाम आचार्यों ने स्वाध्याय रखा है। स्वाध्याय का शब्दार्थ होता है-'स्व' यानी अपने आपको प्राप्त करना, जिसने अनेक शास्त्रों को पढ़कर भी 'स्व' को प्राप्त नहीं किया उसका शास्त्र पढ़ना सार्थक नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष-मार्ग की साधना में देव और गुरु के समान शास्त्र का परिज्ञान भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
×
×
  • Create New...