युग के आदि में भोगभूमि का अवसान हो गया। अवसान का अर्थ है, जीवन चलाने के लिये जो सामग्री आवश्यक होती है, उसका लाभ कल्पवृक्षों से हुआ करता था और क्रमश: उन कल्पवृक्षों की हानि होती चली गई। एक दिन वह आया कि जीवन उपयोगी सामग्री के लिये युगीन जनता को कर्म करने की आवश्यकता हो गई लेकिन कर्म करना कोई जानते नहीं थे। युग के आदि में ऋषभनाथ हुए हैं जिन्होंने भोगभूमि के अभाव में कर्मभूमि की व्यवस्था के लिये एक ऐसी दिव्य देशना दी जो आज तक चल रही है। वह जीवन उपयोगी जो देशना थी उसी के माध्यम से यह युग आज तक चला आया है। कोई भी प्रासाद खड़ा होता है तो उसके लिये सर्वप्रथम भूमि का फाउण्डेशन अनिवार्य होता है। वह कभी देखने में नहीं आता लेकिन जो महाप्रासाद दिखता है वह उसी की पीठ पर ही दिखता है, यदि वह खिसक जाये तो वह ऊपर से जो प्रासाद है धराशायी हो जाता है, वह देखने को नहीं मिलता, मिट्टी में मिल जाता है। तो युग की आदि में ऋषभनाथ ने यह भूमिका, यह फाउण्डेशन, यह नींव डाली थी और वह कर्मभूमि की व्यवस्था उन्होंने की थी। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या छह कर्मों की व्यवस्था उन्होंने यथावत आप लोगों को दी थी। जो ‘कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा' वाली युक्ति भी तभी आती है। जो कर्म करने में शूर होता है, जो सुव्यवस्थित कर्म करता है निश्चत रूप से धर्म का अधिकारी हो जाता है। कर्म का अर्थ यहाँ पर आप आठ कर्मों से न लेकर कर्तव्य ले लें। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से यहाँ पर कर्म मतलब नहीं किन्तु कर्म का अर्थ जीवनोपयोगी एक साधन है।
आज का युग कर्म युग है। भोगभूमि नहीं किन्तु कर्मभूमि है। जिस भूमि पर आप बैठे हैं यहाँ पर कर्म करने के लिए बैठे हैं। आराम के लिये नहीं, भोगों के लिये नहीं। योगी बनने के पूर्व में जो कर्म करने में निष्णात अथवा होशियार होता है वह निश्चत रूप से उपयोगों को सँभाल लेता है, मुक्त हो जाता है। छह कर्म की व्यवस्था उन्होंने पात्रता के अनुसार दी थी। वो व्यक्ति महान् पुण्यशाली होता है उसी को कर्मभूमि में जन्म प्राप्त होता है। भोगभूमि में जो उत्पन्न होता है वह एक प्रकार से भोगने के लिए ही पैदा होता है कर्म काटने के लिये नहीं। वहाँ कर्म कट नहीं सकते, वहाँ तो वह केवल दिन काट सकते हैं, कर्म नहीं। दिन काटने का अर्थ यह है कि समय वहाँ पर कट जायेगा लेकिन कर्म नहीं कट सकते। जहाँ पर कर्म कटते हैं उस धरती को हमें बहुत-बहुत पुण्पशालिनी मानना चाहिए। जिस भूमि पर हम बैठकर के अपने अतीत कालीन कर्मों को काट सकते हैं। भोगभूमि से आज तक किसी को मुक्ति नहीं मिली, और स्वर्ग जो १६ हैं उनसे भी नहीं और ऊपर के विमानों से भी मुक्ति नहीं। नीचे की नरक भूमि से तो कभी मुक्ति मिलती ही नहीं, मुक्ति केवल कर्मभूमि से ही मिलती है अत: कर्मभूमि का लाभ लेते हुए विशेष रूप से आप लोगों को ध्यान रखना चाहिए। कर्मभूमि में भी आर्यखण्ड व म्लेच्छखण्ड ये दो भेद हैं। लेकिन म्लेच्छखण्ड से मुक्ति नहीं है अर्थात् कर्मभूमि में भी आर्यखण्ड से ही मुक्ति मिलती है। आप लोग बहुत सौभाग्यशाली हैं, पुण्यशाली हैं, महान् तप का प्रतिफल है जो आप कर्म काटने में क्षेत्र रूप से निमित्त बनने वाली भूमि पर बैठे हैं। मुक्ति को प्राप्त कराने की क्षमता इस भूमि में है जहाँ का महत्व आप लोगों को अभी ज्ञात नहीं होगा। सही-सही कर्म बाँधना प्रारम्भ कर दो तो कर्म कट सकते हैं उसके बिना नहीं। बैठने के लिये भूमि चाहिए लेकिन समतल हो तो अच्छा बैठा जा सकता है।
एक बार फोटो दिखाया था महाराज जी यहाँ पर हम कुछ बनाने जा रहे हैं लेकिन जब ऊबड़-खाबड़ देखा तो यहाँ पर क्या बनेगा? यहाँ तो खड़े होकर कायोत्सर्ग तो कर सकते हैं लेकिन यहाँ पर बैठने की व्यवस्था तो है ही नहीं, महाराज कम से कम आप आशीर्वाद दे दो सब कुछ हो जायेगा। इसी प्रकार अच्छी कर्म व्यवस्था करने से कर्म काटने के लिये भी उत्साह जागृत हो जाता है। हजारों व्यक्ति यहाँ पर बैठकर श्रवण कर रहे हैं, धर्म लाभ उठा रहे हैं। यह भी एक सुकर्म व्यवस्था का ही प्रतिफल है। अब अल्प समय में ही मुझे कहना है क्योंकि आप लोगों की बोलियाँ तो बहुत देर तक चल गई हैं। इसलिए आप लोगों को आगे जाना है और मुझे भी अपना कार्य करना है, सामने घड़ी रखी हुई है। मैं यह कह रहा हूँकि असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या का उन्होंने एक मनु के नाते उपदेश दिया था। धर्म के नाते नहीं, तीर्थकर के नाते नहीं और जब ऋषभनाथ ने संन्यास धारण कर लिया, एक हजार वर्ष की कठोर तपस्या के बाद केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई तब दिव्य देशना के माध्यम से कर्म को काटने की विधि उन्होंने बताई। उपदेश मुख्य रूप से मनुष्यों को दिया जाता है और भी अनेक देव थे उनके समवसरण में वो उपदेश के पात्र नहीं। उपदेश सुन सकते हैं, सुनते हैं लेकिन देवों को मुख्य करके नहीं दिया जाता। उपदेश के पात्र की बात मैं कह रहा हूँ आपके सामने। नारकी, देव ये उपदेश के पात्र नहीं। क्या उपदेश नहीं दें इनको? दे सकते हैं, लेकिन उसे उपदेश मुख्यता से दिया जाता है जो उस उपदेश के माध्यम से अपना कार्य सिद्ध कर सके। मनुष्य के पास ही क्षमता है, पूर्ण उपदेश को अपने जीवन में उतारने की। देवों को भगवान् की वाणी काम नहीं आती। इसलिए देवों के लिये उपदेश नहीं दिया। ऋषभनाथ भगवान् के उपरान्त चौबीसवें तीर्थकर महावीर भगवान् हुए हैं, उनके समवसरण में ६६ दिन तक दिव्य देशना नहीं हुई थी। जब तक शिष्य नहीं बने तब तक महावीर भगवान् की दिव्य देशना नहीं हुई। ऋषभनाथ भगवान् ने सर्वप्रथम दो प्रकार के पात्रों को उपदेश दिया, एक श्रमणों को, दूसरे नम्बर पर श्रावकों को। श्रावक की बात मैं कहना चाहता हूँ श्रावक के भी व्रत होते हैं। व्रत किसे कहते हैं।
पाप–मरातिर्धर्मो बन्धुजीवस्य चेतिनिश्चिन्वन्।
समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रुवं भवति॥१४८॥
(रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४८)
यह रत्नकरण्डक श्रावकाचार जो कि लगभग १५० श्लोक प्रमाण है तीन अध्यायों में विभाजित है सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र। आचार्य ज्ञानसागर गुरु महाराज ने इसे स्नत्रय की स्तुति की संज्ञा दी थी। चूँकि प्रथम अध्याय में समन्तभद्र महाराज जी ने सम्यक दर्शन का वर्णन किया, यह सम्यक दर्शन की स्तुति हो गई। दूसरे अध्याय में उन्होंने लगभग ६-७ कारिकाओं के माध्यम से सम्यक ज्ञान का वर्णन किया, यह सम्यक ज्ञान की स्तुति हो गई और शेष कारिकाओं में सम्यक्रचारित्र का वर्णन मिलता है। यह स्नत्रय की स्तुति है और इसके अंतिम अध्याय में स्वामी समन्तभद्र ने यह कारिका रखी है। आप मित्रों की ओर चले जाते हैं, दोस्तों की ओर चले जाते हैं ताकि मेरी रक्षा हो और हमेशा-हमेशा शत्रु से बचे रहें। मित्र होगा तो शत्रुओं से हम अपने आप ही बचे रहेंगे। तो अपने जीवन में मित्र कौन? शत्रु कौन? बन्धु कौन? यह संक्षेप में रत्नकरण्डक श्रावकाचार में उन्होंने कहा है। पापं अराति:-पाप शत्रु है, पापी नहीं। पापी हमारा मित्र हो सकता है। अब हम पाप की क्या पहचान कहें? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह ये पाँच पाप हैं। आचार्य ने यह बताया कि ऐसा जो हिंसा से बचता है, झूठ से बचता है, चोरी से बचता है, कुशील से और परिग्रह से बचता है इन पाँचों का निन्दापूर्वक त्याग करता है। यही लोग बन्धु हैं। मैं सत्य बोलता हूँ यह कहना बहुत अच्छा है लेकिन मैं आधा सत्य बोलता हूँ यह कड़वा लगता है। लगता है ना? आदमी सत्य बोले तो बहुत अच्छा लेकिन आचार्य कहते हैं आधा सत्य तो कम से कम बोलना ही चाहिए अर्थात् आधा पाप तो छोड़, आधी हिंसा तो छोड़, आधी हिंसा छोड़ते-छोड़ते पूर्ण हिंसा से भी निवृत्ति हो सकती है।
समवसरण में कई श्रमण तो बन ही गये लेकिन कई श्रावक भी बने। श्रावक बनकर उन्होंने अपने आपको कृत-कृत्य माना। उन श्रावकों ने युग के आदि में प्रभु के चरणों में महान् विराट समवसरण में संकल्प लिये। जीवनपर्यन्त यह व्रत हमारा अखण्ड निर्दोष पले, इस भावना के साथ सब वहाँ से विदा हो जाते हैं।
इसके उपरान्त जब वहाँ वार्ता सुनने में आई चक्रवर्ती को तो चक्री ने उन्हें निमंत्रण दिया। यह बहुत अच्छा है, ऐसी व्यवस्था यदि हमारे राज्य में हो गई और ऋषभनाथ भगवान् के माध्यम से दिव्यदेशना के पात्र बनकर इतने-इतने व्यक्ति श्रावक बने हैं तो उनका स्वागत, उनका अभिनन्दन और उनको एक प्रकार से उच्च स्थान देना हमारा कर्तव्य होता है। लेकिन इन्होंने जो व्रत लिए वह सच्चे हैं या ऊपर से लिए हैं अत: उन्होंने उनको बुलाया। जितने भी व्रती बने थे, उनको निमंत्रण दिया। राजदरबार में जाना है और वहाँ पर आज सब एकत्रित होने जा रहे हैं। लोगों ने देखा कि राजदरबार का जो रास्ता था उस रास्ते को छोड़कर के वे व्रती दूसरे रास्ते से जा रहे हैं। कइयों ने कहा इधर से चलो। व्रती बोले यह रास्ता हम लोगों के चलने योग्य नहीं है। सामान्य जनता उसको नहीं जान पा रही थी और सामान्य जनता समझती थी, यह इन्हीं के लिये सब कुछ हो रहा है। समय पर पहुँचना था उसमें व्रतियों को देर हो गई। चक्रवर्ती ने कहा- क्या व्यवस्था कर रखी है तुम लोगों ने? हमने वो रास्ता बना रखा था उस ओर से क्यों नहीं आये? आप लोग इस ओर से आये, कोई बात नहीं आप लोगों की व्यवस्था ठीक नहीं है। पूछा, आप लोगों को तकलीफ तो नहीं? नहीं, कुछ तकलीफ नहीं थी, तो इधर दूर के रास्ते से क्यों आये? इधर से आ जाते सीधा-सीधा रास्ता था भवन का। नहीं, इधर नहीं आ सकते हम। क्यों नहीं आये? क्या काँटे बिछे थे? काँटे तो नहीं थे। फिर क्या थे? फूल की पंखुड़ियाँ बिछी हुई थीं। यह तो अच्छा ही था, कहा भी जाता है, 'यदि फूल बिछा न सको तो काँटे तो मत बिछाओ' ऐसी नीति हैं। हमने काँटे तो नहीं बिछाये थे, फूल बिछाये थे फिर तो आपको आ जाना चाहिए था। फूल बिछाने का अर्थ फूल बिछाना नहीं राजन् हम दूसरे के लिये कष्टप्रद वस्तु रास्ते में नहीं रखें। उनके जीवन के लिये हमारे योगों से कोई बाधा नहीं पहुँचे, यह अर्थ है इस सूति का। मेरी समझ से उस नीति में सचित फूल बिछाने की बात नहीं कही गई है। वहाँ पर फूल का मतलब मृदु होना है। हमारी काया, वाणी और मानसिकता के माध्यम से दूसरे को यदि ठेस पहुँचती है, बाधा पहुँचती है, दुख होता है तो इस प्रकार की किया को हमने छोड़ दिया है मन से, वचन से, काय से। हमने कल ऋषभदेव के समवसरण में प्रभु की साक्षी पूर्वक ऐसे संकल्प लिये हैं। तो क्या था वहाँ पर? पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थीं, हरी बिछी हुई थी इसलिए हरी के ऊपर हम पैर नहीं रख सकते। सुनते हैं आज हरी के ऊपर चलने से कई लोगों को अच्छा लगता है। स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत होने से ऐसा होता है। हरी सचित मानी जाती है, व्रती तो हरी पर नहीं चल सकता। यह मैं कहाँ से कह रहा हूँ, आदिपुराण में इसका ऐसा चित्रण किया गया है और जब यह सुना चक्रवर्ती ने तो सोचने लगा, अहो हम अव्रती, व्रत के बिना जीने वाले, इनको हम जीव ही नहीं मानते और प्रभु ने सम्बोधन दिया कि ये जीव हैं इनको भी बचाना। इनके ऊपर पैर नहीं रखना, इनको काटना, पीटना नहीं, आदि-आदि उपदेश को उन्होंने ग्रहण किया है। ऋषभनाथ ने युग के आदि में इसके पोषण, इसके सम्वर्धन के लिये उपदेश दिया। उपदेशों में कहा कि यह ध्यान रखो, जीवों की उत्पति नहीं कर सकते तो हम मारें क्यों? आप अपना जीवन उपयोगी बना सकते हैं लेकिन उनका भी जीवन बरकरार बना रहे, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं हो, ऐसी वृत्ति होना चाहिए। ऐसी प्रवृत्ति की परीक्षा के लिये ही चक्रवर्ती ने यह आयोजन किया था। कहाँ तक पालन हो रहा है? जब परीक्षा में व्रती श्रावक पास हो गये। चक्री ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि धन्य है मेरा राज्य, मैं भी धन्य हूँ। दिव्यदेशना का श्रवण करके इन लोगों ने जो व्रत को दृढ़तापूर्वक पालन किया है। हमारे राज्य में ऐसे व्रती होने चाहिए। बाकी सामान्य जनता को कहाइन्हें पुरस्कृत करो, इनको सहयोग दो और इनके लिये मान्यता दो और इनकी एक प्रकार से यथायोग्य सेवा करो। ताकि व्रती बनने का सौभाग्य तुम्हारे जीवन में भी आ जाये क्योंकि श्रावकों को भी मध्यम पात्र के रूप में माना जाता है, उनकी सेवा करोगे तुम्हारे पाप कम हो जायेंगे। ऐसी पूरी जनता के लिए उस चक्रवर्ती ने एक प्रकार से नियम जैसा दिला दिया। यह महापुराण का प्रकरण आज भी हमारे सामने आ जाता है। वृक्षों को काटिये नहीं, यदि काटते तो उस व्यक्ति को दण्ड दिया जाता था। यह पर्यावरण की सुरक्षा युग के आदि में ऋषभनाथ भगवान् ने दी थी। जीवत्व की पहचान दया धर्म की ओर बढ़ाने के लिए सोपान का काम कर जाती है, यदि हमें पहचान नहीं होगी तो हम रक्षा कैसे कर सकते है ?
जब नोट के बण्डल आ जाते हैं तो सामने वाला व्यक्ति नहीं दिखता केवल बण्डल के हरेहरे नोट दिखते हैं व्यक्ति बस यही कोशिश करता है कि किसी भी प्रकार से ये बण्डल इधर आ जायें। कैसे आ सकते हैं? किसी भी प्रकार से आ जायें कुछ दे दिलाकर के आ जायें लेकिन आ जायें। अर्थ का लोभी व्यक्ति कुछ नहीं देखता। मित्र भी शत्रु हो जाता है। बन्धु भी, परिवार का व्यक्ति भी बहुत दूर का लगने, लगता है। उसके साथ अलगाव अपने आप ही बढ़ने लग जाता है क्योंकि अर्थ की ओर जब हमारी दृष्टि चली जाती है, जीव की पहचान समाप्त हो जाती है। अर्थ जीवन में मनुष्य के लिये बहुत खतरनाक बना हुआ है।
स्वर्ग के सम्बन्ध में एक प्रसंग आता है। इन्द्र के वैभव को देखकर के मिथ्यादृष्टि देव जलने लग जाता है, सोचता है इसके पास वैभव क्यों? किसने दिया इनको? हम भी उनसे माँग लें। वैभव माँगने से नहीं मिलता, किन्तु वैभव का द्वार क्या है यह देखना चाहिए। वहाँ स्वर्ग में इसी वजह से सम्यक दर्शन की उत्पत्ति का उन्होंने साधन बताया देवऋद्धि दर्शन। देवों की ऋद्धियों को देखकर सोचते हैं मेरे पास भी हों। उनके पास जो हैं वह बहुत बढ़िया हैं और मेरे लिये तो सेकेण्डहैण्ड है। ऐसा क्यों है? तो इसका स्रोत उसे ज्ञात हो जाता है कि मैंने धर्म तो किया था लेकिन बहुत घटिया किया था। इस वजह से घटिया माल मिल गया है। धर्म घटिया नहीं था, धर्म तो बहुत बढ़िया था, भाव बहुत घटिया था। त्याग, तपस्या को जीवन उपयोगी साधन मान कर के जो अंगीकार करता है उसे वहाँ पर उत्कर्षता प्राप्त होती है। उस उत्कर्षता को देखकर अन्य जितने भी जीव हैं उनके लिये सम्यक दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। वैभव को देखने से भी सम्यक दर्शन प्राप्त होता है और वैभव को देखने से मान भी प्राप्त हो जाता है। वैभव को देखकर ईष्यां भी होती है। थोड़े से हम ठण्डे दिमाग से सोच लें तो वह सम्यक दर्शन का कारण बन सकता है और नहीं देखें तो अभिमान बढ़ता चला जाता है।
इस दयामय धर्म का अनुकरण किये बिना आज तक किसी का निस्तार नहीं हुआ। धर्म और कोई वस्तु नहीं है केवल दयामय धर्म ही प्रथम है। इस दयामय धर्म के विस्तार के लिये या इसकी उन्नति के लिये, इसकी रक्षा के लिये ही सत्य धर्म है, अचौर्य धर्म है, अपरिग्रह धर्म है। सारे के सारे इसी की रक्षा के लिये हैं। उपास्य देवता अहिंसा है।
अहिंसा भूतानां जगती विदितं ब्रह्म परमं,
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।
ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं,
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः॥४॥
(स्वयंभू स्तोत्र - २२/४)
समन्तभद्र महाराज नमिनाथ भगवान् की स्तुति में कहते हैं कि हे भगवान् इस संसार में दया को ही आपने मुख्य धर्म माना और उस दयामय धर्म को प्राप्त करने के लिए ही परिग्रह छोड़ा है। केवल दयामय धर्म के कारण ही आप परम कारुणिक कहलाये।
जैसे ऋषभनाथ भगवान् के काल में व्रती बने थे उसी प्रकार आज भी बनना चाहिए। जीव विज्ञान की पहचान हम लोगों को होनी चाहिए। वह दया के माध्यम से ही हुआ करती है। बाढ़ की उपमा दी गई सत्य धर्म को, अचौर्य धर्म को, ब्रह्मचर्य धर्म को और अपरिग्रह रूप धर्म को, यह खेत नहीं, यह खेती नहीं। खेती यदि है, फसल यदि है तो वह अहिंसा धर्म है। 'अहिंसा परमोधर्म:' अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा की विजय हो, अहिंसा ही परमब्रह्म है। अहिंसा को परमब्रह्म के रूप में स्वीकार किया स्वामी समन्तभद्र ने। ब्रह्मा यदि बनता है तो अहिंसा के माध्यम से बनता है। हिंसक कभी भी ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता, वह भ्रम में पड़ सकता है। आज संसार पूरा का पूरा भ्रम में है, वह ब्रह्मा नहीं बन सका। क्यों नहीं बन सका? क्योंकि उसके पास दया का अभाव है। दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग दया की सिद्धि के लिए है। उपास्य देवता अहिंसा है। इस अहिंसा की रक्षा के लिये ये शेष चार व्रत माने गये हैं जैसे खेती के लिए बाढ़ की आवश्यकता होती है। इन व्रतों के बिना अहिंसारूपी खेत उजड़ जायेगा, खेत समाप्त हो जायेगा। खेत की फसल कट गई फिर बाढ़ का कोई प्रयोजन नहीं। अर्थात् अहिंसा व्रत के बिना शेष चार व्रत कोई मतलब के नहीं। जब तक बीज बोया नहीं जाता तब तक बाढ़ नहीं लगाई जाती। बो लेते हैं और जब वहाँ पौधे उग जाते हैं तो बाढ़ लगाई जाती है क्योंकि गाय, भैंस आकर के उन पौधों को खा सकती हैं इसलिए। वह फसल ज्यों की त्यों बनी रहे इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए, पालन के लिए बाढ़ लगाई जाती है। उसी प्रकार आप लोग सबसे पहले अहिंसा धर्म को अंगीकार करो फिर उसके लिए झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना और शेष जो पाप हैं वो भी नहीं करना। पाप शत्रु है, शत्रु से आप डरते हैं लेकिन पाप रूपी शत्रु से नहीं बचते, क्या करें?
पाप और पुण्य के बीच एक बार एक संवाद हुआ था। पाप ने प्रारम्भ कर दिया कहना-पुण्य आपका नाम तो दुनियाँ में है, सब लोग आपको चाहते हैं, ए टू जेड सब पुण्य चाहते हैं। आपका बहुत बड़ा सौभाग्य। मुझे कोई भी नहीं चाहता। फिर पुण्य का जब नम्बर आया तो पुण्य ने कहा बात तो बिल्कुल ठीक कर रहे हो, चाहते तो मुझे हैं लेकिन साथ तो तुम्हारा ही देते हैं सब लोग। ए टूजेड तुम्हारा साथ देते हैं चाहते तो हमें हैं। इस प्रकार चाहने से क्या मतलब होगा, मतलब पाप करने में तो सभी लोग लगे हैं। पुण्यात्मा बनो! ऐसा ऊपर से तो कहते हैं लेकिन हमारे पास कोई आता ही नहीं हैं। पुण्य कहता है कि भैय्या मुझे लोग चाहते हैं मात्र,लेकिन तुझे तो हमेशा गले लगाये रहते हैं।
स्वामी समन्तभद्र महाराज ने कहा कि संसारी प्राणी के लिए कोई शत्रु है तो वह केवल पाप है और संसारी प्राणी के लिए कोई बंधु है तो वह धर्म है, वह व्रत है, वह दयामय धर्म है। यही सर्वस्व है। दयामय धर्म की आप जय-जयकार करते हैं। दया जब तक इस पृथ्वीतल पर रहेगी तब तक आप लोग यह असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या आदि करेंगे और जिस दिन यह दयामय धर्म पूर्णत: समाप्त हो जायेगा वहाँ पर प्रलय अपने आप ही आ जायेगा। पुण्य को, धर्म को मिटाने के लिए जो आता है उसका नाम प्रलय है। जो अच्छाइयों को समाप्त करता है उसका नाम प्रलय है।
वनस्पति पर पैर रखना भी युग के आदि में अधर्म के रूप में माना जाता था और आज का ताण्डव नृत्य देख लें तो क्या हो रहा है, आश्चर्य होता है। धीरे-धीरे मैं उस युग से इस युग तक आना चाहता हूँ। वनस्पति की बात तो छोड़ ही दो भइया। क्या-क्या हो रहा है कहते ही बहुत दुख जैसा लगता है कि आज इस भारत में तीन करोड़ बीस लाख पशुओं का यान्त्रिक कत्लखानों के माध्यम से प्रतिवर्ष नाश हो रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है समझ में नहीं आता। कई लोग कहते हैं निरुपयोगी पशुओं को ही हम कत्लखाने ले जाते हैं लेकिन अभी-अभी हमने सुना था कि जहाँ पर गौशाला है वहाँ पर कुछ गाय और भैंस, जिनको पकड़ लिया गया पुलिस के माध्यम से और ट्रकों से उनको उतार लिया गया। एक-दो दिन में ही उनमें से २० गायों ने तो बछड़े दिये और १०-१५ भैसों ने भी पड़े दिये, ये सब कत्लखाने जा रहे थे। उन बछड़ों को पेट से निकालकर उनकी चमड़ी निकाली जाती। गर्भधारण करने की क्षमता जिन पशुओं में हो वे निरुपयोगी कहाँ? जबकि निरुपयोगी ही वहाँ पर जाते हैं, ऐसा कहा जाता है, तो यह अंधकार कैसा है? और आपके ही ट्रकों में जा रहे थे और आपके ही आँगन से गुजर रहे थे। जहाँ पर बैठकर आप राम का नाम लेते हैं, यह काम भी वहीं से हो रहा है। कितना उपयोगी धन भी समाप्त हो रहा है। निरुपयोगी तो कोई है ही नहीं। जो बैल खेत में काम करने में आ गये वे भी सब कट रहे हैं और इधर आप पर्यावरण की बात कर रहे हैं। वृक्षारोपण करो, ये उगाओ, वो उगाओ। जो अपने आप ही पर्यावरण के प्रतीक हैं। संज्ञी पचेन्द्रिय पशु, जो ऋषभनाथ भगवान् का चिह्न माना जाता है और गोपाल की गैय्या मानी जाती है, भइया थोड़ा सोच तो लो क्या कर रहे हो? कोई दोलन नहीं इसके बारे में। यहाँ सड़क चाहिए, आन्दोलन करिए मिल जायेगी सड़क। थोड़ी सी आवाज और कर लो तो लाइट की व्यवस्था हो जायेगी। थोड़ी सी और आवाज कर दो तो पानी का पंप आ ही जायेगा। लेकिन पशुओं की रक्षा के बारे में किसी ने आन्दोलन का प्रयास नहीं किया? और इसे कौन करेगा? क्या भगवान् ऋषभनाथ अवतरित होकर करेंगे? आप लोगों को कहा गया कि धर्म जीवित रहेगा तो आप लोगों के माध्यम से। 'न धमों धार्मिके: बिना' धर्म को जीवित रखना चाहते हो तो केवल दयामय धर्म को जीवित रखो। बाकी आप नहीं रखते तो कोई बात नहीं।
भारत के द्वारा इस प्रकार पाप किया जाये और विदेश के लिए यहाँ से मांस निर्यात हो, यह आप लोग प्रतिदिन सुन रहे हैं, देख रहे हैं। अभी सुनने में आया था कि प्रतिदिन ३०० ट्रक मांस निर्यात होता है। वह कहाँ से आया? वह कोई पेड़-पौधों पर उगा था क्या? कोई खेती-बाड़ी हो रही है क्या, कैसे आया? सम्यक दर्शन की बात करते हो सम्यक ज्ञान की बात करते हो सम्यक्रचारित्र की, आत्मानुभूति की बात करते हो। समझ में नहीं आता जिस व्यक्ति के पास अनुकम्पा/भावना नहीं है उसके सम्यक दर्शन ही नहीं बन सकता। थोड़े से जीव को धक्का लग जाये और वह यदि दुखी हो जाये तो हृदय काँप जाना चाहिए लेकिन यहाँ संज्ञी पंचेन्द्रिय जा रहे हैं, ट्रकों में लदे-लदे जा रहे हैं, ट्रेनों में जा रहे हैं, कहीं से, कैसे-कैसे ले जा रहे हैं और कत्लखाने में जा रहे हैं। उनकी पीड़ा कोई सुन नहीं सकता और लिख नहीं सकता। देख लें तो सम्यग्दृष्टि को चक्कर आए बिना रह नहीं सकता। यदि नहीं आये तो सम्यक दर्शन गायब। इतनी पीड़ा होती है वहाँ पर, कोई भी नहीं सुनता। आज सरकार के द्वारा इस प्रकार किया जा रहा है। सरकार और कोई वस्तु नहीं है। ध्यान रखो, आप लोगों के द्वारा नियुक्त किया गया एक व्यक्ति होता है। आप लोगों को सोचना चाहिए, जहाँ-जहाँ से आप लोग आए हो वहाँ सर्वप्रथम वनस्पति की भी रक्षा करो ही, पर्यावरण की आवश्यकता है निश्चत बात है लेकिन जो जहाँ से जिस किसी भी प्रांत से आये हैं तो उनके लिए भी हमारा कहना है, देहली वाले आये हैं राजधानी से आये हैं तो उनके लिए विशेष रूप से मेरा कहना है। वह राजधानी में रहते हैं इसलिए विशेष पहुँच उनके पास हो सकती है और उनको कह देना चाहिए कि ये पशु वध रुकना चाहिए विदेश जो मांस निर्यात होता है वह रुकना चाहिए। सर्वप्रथम मांस निर्यात नहीं होना चाहिए। भारत में जानवर कटे और विदेशी लोगों को भोजन पूर्ति हो। भोजन की पूर्ति के लिए मांस आप भेज दो तो पूरी की पूरी पाप की गठरी आपके सर के ऊपर बंधेगी। इसके बारे में आप लोग संकल्प लें। कुछ जो राजनेता हैं उनके सामने यह माँग रखना है और अवश्य इसमें यश आपको मिल सकता है। यह परिश्रम किये बिना नहीं हो सकता। दिल से आप परिश्रम करिए, संकल्प लीजिए।
सबसे ज्यादा मांस निर्यात गुजरात से होता है। वहाँ पर मांस निर्यात बंद का काम अनिवार्य रूप से बंद होना चाहिए। कल आये थे कुछ मिनिस्टर लोग, वह कह रहे थे कि कत्लखाने बंद करने से अर्थ की बहुत हानि हो जायेगी तो उस हानि को आप पूर्ति कर सकते हैं, नहीं कर सकते क्या? सबसे ज्यादा धनाढ्य प्रान्त माना जाता है गुजरात। जब मैं पढ़ता था उस समय की बात है। अब तक और धनाढ्य हो गया होगा ही तो वह स्वयं अपने आप ही कर सकता है अन्य व्यापारों के माध्यम से और उत्तरप्रदेश कम नहीं है, राजस्थान कम नहीं है, महाराष्ट्र कम नहीं है, बहुत बड़े-बड़े राष्ट्र हैं। महाराष्ट्र महान् राष्ट्र माना जाता है और गुजरात का दूसरा नाम सौराष्ट्र है। आगे चुनाव का समय आ रहा बताते है, उनको सामने यह रखा जाये कि जो विदेश जाते हुए मांस को हमेशा रोकेगा, जाने नहीं देगा उसे ही हम वोट देंगे तो अपने आप यहाँ के कत्लखाने समाप्त हो जायेंगे। यहाँ की मांस पूर्ति के लिए यह कत्लखाने नहीं लगाये गये हैं अरब कन्ट्री की पूर्ति के लिए लगाये गये हैं। गलत को गलत के रूप में स्वीकार करके त्याग कर देना यही एकमात्र धर्म है। केवल सुनकर और इस कान से सुनकर उस कान से निकालना सक्रिय धर्म नहीं माना जाता। पोथी का धर्म हो सकता है। जिस प्रकार कागज की नाव से नदी पार नहीं की जा सकती है उसी प्रकार इन पोथियों के माध्यम से हम धर्म करना चाहेंगे इससे कभी भी निस्तार नहीं होने वाला। सक्रिय धर्म को ही धर्म मानी। दयामय धर्म ही एकमात्र धर्म है, भारत का प्रत्येक वासी इस दयामय धर्म से परिचित है, सुनते हैं और अब उसे गुनना भी चाहिए ताकि विश्व में शांति हो सके। हिंसा के तूफान के सामने अहिंसा के दीपक का टिकना मुश्किल है। घर की देहरी के ऊपर ही यह दीपक नहीं टिक पा रहा है तो आप विश्व में कैसे फैलाओगे? और यदि आप नहीं फैलाओगे तो फैलाने के लिए दूसरा कोई नहीं आने वाला। ऋषभनाथ भगवान् की परम्परा में हो आप लोग अत: आपका यह प्रथम परम कर्तव्य होता है। दयामय धर्म युग के आदि में चलता था, ऋषभनाथ भगवान् ने इसको उपदिष्ट किया है। उस समय संकल्पित हुए थे श्रावक। इस समय में भी इसकी बड़ी आवश्यकता है। जितने व्यक्ति इस प्रकार के व्रती तैयार होंगे, उतना ही यहाँ पर सुख का विस्तार होगा। दयामय धर्म के पालन करने के लिए ऐसे संकल्प लिए जाते हैं तो त्रस जीवों की हिंसा से दूर होकर स्थूल झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के त्याग रूप व्रत श्रावक को जीवन में अवश्य पालना चाहिए, इसी में स्व-पर का कल्याण निहित है। ऐसे व्यक्तियों की संख्या यहाँ पर बढ़नी चाहिए। बुन्देलखण्ड की बात अलग है। वहाँ व्रतियों की संख्या अधिक है, लोगों में सदाचार है अत: वहाँ सबसे कम बूचड़खाने हैं। बहुत कम मांसाहारी हैं, अहिंसा धर्म में आस्था है। बुन्देलखण्ड जैसा बन जाता है यदि सारा भारत तो फिर कहना ही क्या? इसी भावना के साथ।
||महावीर भगवान् की जय ||