'लक्ष्य बनाओ भार उतारने का, बढ़ाने का नहीं और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे-तेरा सो एक, जो तेरा है वह एक।' अभी बोलियाँ चल रहीं थीं, एक बोली थी 'तेरा सो एक' इस बोली पर सबका चित रुकना चाहिए था। पर, किसी का चित रुका नहीं, सब आगे बढ़ते गये, 'तेरा सो एक' शब्द सुनकर मैं विचार में पड़ गया, हे आत्मन्! जो तेरा है सो-वह एक ही है।” कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है-
एगो मे सासदो आदा, णाण-दंसण-लक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा॥
ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला एक आत्मा ही तेरा है, वही शाश्वत अर्थात् अविनाशी है और पर पदार्थ के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने काम क्रोधादि विकारी भाव हैं वे सब मुझसे भिन्न हैं। कुन्दकुन्द स्वामी समयसार में भी कहते हैं-
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारूवी |
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि, अण्ण परमाणु मित्तं पि ||
अर्थात् ज्ञान-दर्शन से तन्मय रहने वाला मैं एक शुद्ध और रूपादि से रहित हूँ कितना सुन्दर अभिप्राय है। हमारे घर में वैभाविक परिणतिमय चोर घुसा हुआ है, उसे निकालने का भाव हमारा नहीं होता, यह कितने आश्चर्य की बात है, इस विकारी भाव को चोर समझकर निकालने का पुरुषार्थ होना चाहिए।
अभी आपके सामने पण्डितजी ने राजा भोज के काल में कहारों की बात की ' तथा न बाधते भार: यथा बाधति बाधते' अर्थात् राजन्! लकड़ी का भार उतनी बाधा नहीं दे रहा है जितना आपके द्वारा प्रयुक्त 'बाधति' पद बाधा दे रहा है। तात्पर्य यह है कि उस समय के कहार भी संस्कृत का इतना ज्ञान रखते थे कि कौन धातु आत्मनेपदी है और कौन धातु परस्मैपदी।
राजा भोज का नाम सुनकर मुझे भी उनके जीवन की घटना याद आ गयी। एक बार राजा भोज बिस्तर पर पड़े आराम कर रहे थे, वे कवियों का आदर तो करते ही थे और स्वयं भी कवि थे, नींद खुलने पर उन्होंने काव्य-रचना प्रारम्भ की
चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलाः ।
सद् बान्धवाः प्रणतिगर्भगिरश्च भृत्याः॥
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः।
ये तीनों चरण राजा भोज बार-बार पढ़ते, परन्तु चौथा चरण नहीं बन पाता। जब बहुत देर हो गयी तब उनके पलंग के नीचे छिपा हुआ एक चोर कहता है|
'संमीलने नयनयोर्नहि किजित्चदस्ति ||'
अर्थात् नेत्र बन्द होने पर यह सब कुछ नहीं है, राजा भोज ने सुना तो बोल उठे कौन हो तुम? काव्य पूरा नहीं होता था इसलिए पूरा कर दिया है, चोरी की प्रतीक्षा में बहुत देर से छिपा था, चाहता था कि आपके नेत्र निमीलित हों, आप निद्रा में निमग्न हों और मैं चोरी कर अपना काम करता, राजा भोज ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा कि तुमने मेरे नेत्र उन्मीलित कर दिये, खोल दिये हैं, जिन्हें मैं अपना मानकर गर्व कर रहा था, वे सब मेरे नहीं हैं, मेरे मरने पर सब यहीं पड़ा रह जायेगा, तिजोड़ी और उसका ताला कुछ भी तो मृतात्मा के साथ नहीं जाता। धीरे-धीरे आयु समाप्त हो रही है, फिर भी आत्म-कर्तव्य की ओर मानव का लक्ष्य नहीं जाता। ‘मोह महामद पियो अनादि भूल आपको भरमत वादी।'
अर्थात् यह जीव अनादिकाल से, मोहरूपी मदिरा का पान कर अपने आपको भूलकर शरीर आदि पर पदार्थों को अपना मान रहा है और उसी भूल के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा है। अत: आप अज्ञान पर प्रहार करने की अपेक्षा मोह पर प्रहार करो, यदि आप सचमुच ही मोह को नष्ट कर सके, तो अन्तर्मुहूर्त के अन्दर सब अज्ञान अपने आप नष्ट हो जायेगा और आत्मा सर्वज्ञ हो जायेगी।
सर्वज्ञ होने पर वाणी का अतिशय प्रकट होता है। सर्वज्ञ के वचन त्रिभुवन हितकारी, मधुर और विशद हो जाते हैं। कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘पंचास्तिकाय' के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण किया है-
इंद सद वंदियाण तिहुवण हिद मधुर विसद वक्काणं।
अंतातीद गुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणां ॥
सौ इन्द्र जिन्हें वन्दना करते हैं, जिनके वचन त्रिभुवन हितकारी मधुर और विशद हैं तथा जो अनन्त गुणों के स्वामी हैं, उन जिनेन्द्र को, उन अरहन्त आदि परमेठियों को मेरा नमस्कार हो। मनुष्य के सिर का भार ज्यों-ज्यों कम होता जाता है, त्यों-त्यों वह सुखी होता जाता है। पर, हम सिर पर भार लादकर सुखी-होना चाहते हैं, कैसी विचित्रता है हमारे विचारों में। लक्ष्य बनाओ भार उतारने का बढ़ाने का नहीं, और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे। तेरा सो एक, जो तेरा है वह 'एक'
महावीर भगवान् की जय!
(सागर में प्रदत्त प्रवचन)