यहाँ पर सब अपने-अपने कर्तव्य करते हैं और कर्तव्य के फलस्वरूप उसके फल को प्राप्त करते हैं। कर्तव्य से विमुख होना फल से विमुख होना है। कर्तव्य अपना होता है, अपने लिये होता है किन्तु उद्धार के लिये बाहर के पदार्थ को भी निमित्त बनाया जा सकता है। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो अपनी आत्मिक साधना अपने आपके माध्यम से करते हैं किन्तु उस समय दूसरा कोई साधक उस साधक को निमित्त बनाकर अपना उद्धार कर लेता है। दूसरी बात यह कहना चाहूँगा कि कुछ साधक ऐसे होते हैं जो दूसरे का निमित्त लेकर अपने आपकी साधना में लीन हो जाते हैं।
आप देख लीजिये, आपको भी अपनी साधना पूर्ण करनी है। आपको कहाँ जाना है, ये मुझे ज्ञात नहीं, आपको ज्ञात करना है। हाँ, चलने से पूर्व आप पूछताछ कर सकते हैं कि मेरा भला किसमें है। बहुत लम्बी-चौड़ी राह को पार करके आप आये हैं। बल्कि यूँ कहना चाहिए वह राह ही नहीं थी जहाँ से आप आये हैं। भटकते हुए आये हैं, किन्तु अब भटकन के बिना सीधा जाना है, जहाँ से पुनः लौटकर नहीं आना है। आपको यह निश्चत करना है कि हमें वहाँ तक जाना है या नहीं? सुख-शान्ति प्राप्त करने का उद्देश्य रखते हैं लेकिन सुख का चुनाव, सुख की परिभाषा ज्ञात नहीं है। इसीलिए सुख को कई ढंगों से परिभाषित किया जाता है। उन्हीं में से एक को आप लोगों ने भी चुना होगा। ध्यान रखो, एक बार प्राप्त होने के बाद पुन: न छूटे उसी का नाम सुख होता है। एक बार धारा बहती हुई सागर में मिल जाये तो पुन: वहाँ से बाहर नहीं आती। नदी, पहाड़ की चोटी से निकलकर सागर में जाती है। नदी कभी भी लौटकर पहाड़ की चोटी की ओर नहीं जाती। इसी प्रकार हमें उस सागर तक जाना है। सागर तक जाने के लिये नदी को दो तटों के बीच से बहना पड़ता है। सरिता के पास यदि तट न हों तो सरिता सागर का मुख नहीं देख सकती। आपको अपने तटों को बाँधकर उसके बीच में से निकलना है। अन्यथा आपकी वह मंजिल आपके पास नहीं आयेगी। आप को वहाँ तक जाना है तो जाने के लिये कटिबद्ध होना है कि आपके तट बहुत अच्छी तरह से मजबूत बने रहें।
संसार में प्राणी यात्रा बहुत जल्दी चालू कर देता है किन्तु बहुत जल्दी वह खो भी देता है। पूर्ण नहीं कर पाया आज तक। इस संसारी प्राणी ने उस यात्रा को पूर्ण करने के लिये मजबूती के साथ, उस साधना पथ को नहीं अपनाया जिसके तट मजबूत हैं। गर्भ में आप कई बार आ चुके हैं। जन्म आपका कई बार हो चुका है और कई तपस्याएँ भी आपने की हैं। नहीं की हैं, ऐसी बात नहीं है और आज ज्ञान का युग है, विज्ञान का युग है। आज उस विज्ञान का एक प्रकार से विकास देखने में आ रहा है किन्तु अन्तिम कल्याण, जिसको बोलते हैं ‘निर्वाण' यह आज तक नहीं हुआ है। दुख मिटा नहीं और सुख हासिल नहीं हो सका। उसका मूल कारण यही है कि हमारा चुनाव गलत है। वह चुनाव क्या है? हमें बुद्धि का प्रयोग करना है, विवेक जागृत करना है। उस चीज को प्राप्त करने के लिये बहुत कसरत की आवश्यकता नहीं और शारीरिक शक्ति की भी विशेष आवश्यकता नहीं है। किन्तु एकमात्र यह निर्णय करना है कि आज तक जिन-जिन साधनों के द्वारा हमें सुख प्राप्त नहीं हुआ उनके द्वारा तीन काल में सुख मिलने वाला भी नहीं है। किन्तु सोचना यह है कि कौन-सा ऐसा साधन है जिसके द्वारा शाश्वत सुख उपलब्ध हो सकता है। आँख के द्वारा, रसना के द्वारा और नासिका के द्वारा उपलब्ध नहीं हो सकता। किन्तु वह केवल विवेक के नेत्रों से ही देखा जा सकता है, जाना जा सकता है। जिन्होंने इस नेत्र के माध्यम से उसको उपलब्ध किया उनके पैर धोकर आप निर्देश प्राप्त कर लें। सुख-शान्ति कहाँ है?
जग में सुख है ही नहीं।
खुद में सुख की खान।
निज नाभि में गन्ध है।
मृग भटकत बिन ज्ञान॥
यह निश्चत है कि गन्ध के लिये मृग भटकता चला जाता है, भटकता चला जाता है। गन्ध आ रही है, गन्ध का स्रोत कहाँ है? यह पता नहीं है और वह भटकना प्रारम्भ कर देता है। भटकताभटकता वह रुक जाता है, गिर जाता है लेकिन फिर भी उसे यह ज्ञान नहीं है कि गन्ध कहाँ से आ रही है? गंध तो उसकी नाभि में से आ रही है। आप लोग सुख चाह रहे हैं, आप लोग भी दुनियाँ में सुख ढूँढ़ रहे हैं लेकिन सुख तो आपकी आत्मा में है, यह आपको ज्ञान नहीं है। इसका ज्ञान न होने से हम लोगों ने अनन्तकाल को यों ही खो दिया। ऐसा खो दिया जिसका अब हमें पश्चाताप ही एकमात्र मिलने वाला है। अनन्तकाल व्यतीत हो गया किन्तु हमें इस सुख का एक समय के लिये भी अनुभव नहीं हुआ। जिन्हें हुआ, उनका मार्गदर्शन हमने स्वीकार किया नहीं।
सूर्य प्रथम घड़ी में उगता है और अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। आसमान में लाखों मीलों ऊपर वह सूर्य की यात्रा प्रारम्भ है और लगता है जैसे आपके आँगन में आ रहा है। रुकने वाला है, ऐसा लगता है। उसकी ओर देखेंगे तो रुका हुआ लगता है। किन्तु बाद में ऐसा लगता है पाँच मिनट के उपरान्त जैसे वह खिसक गया है क्योंकि छाया दिखती है। छाया जहाँ पहले थी वह वहाँ से अन्यत्र स्थानांतरित हो चुकी है। वह सूर्य रुकता हुआ-सा लगता है लेकिन रुकता नहीं। हमें बुलाता हुआसा लगता है लेकिन बुलाता नहीं। मात्र ऐसा लगता है मानो हमारे लिये अपने किरणमयी हाथों को छोड़कर कह रहा हो कि तुम भी आ जाओ मेरे साथ। वह ऐसा कहता सा लगता है लेकिन कहता नहीं। जब सूर्य का उदय हो गया, तो वह तीन लोक को प्रकाशित करता है यह उसका महान् उपकार है। आप सोये हैं अपने घर में। सूर्य का उठना हो गया, आपका उठना नहीं हुआ क्योंकि किसी ने उठाया ही नहीं आपको। सूर्य ऊपर आ गया फिर भी आपकी नींद नहीं टूटी। सूर्य आने का प्रयास कर रहा है। आया है आपके पास, लेकिन अपनी यात्रा को रोकते हुए नहीं। आपके घर के लिए नहीं आया किन्तु आपके घर के पास से घर के ऊपर से गुजर रहा है वह। आपने अपने दरवाजे बन्द कर रखे हैं। खिड़कियाँ भी बन्द हैं। कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता हमारे घर के भीतर क्योंकि घर का निर्माण हमने किया है। अब उठाये तो कौन उठाये? फिर सूर्य का प्रकाश किसी छिद्र के मुँह से भीतर भी आ रहा है। फिर भी आप उठते नहीं। रजाई ऊपर लेकर सो जाते हैं। फिर भी उसका प्रयास है किन्तु रुकता हुआ नहीं, जाता हुआ आपको उठा रहा है। कैसे उठा रहा है? सूर्य के पास दो साधन हैं उठाने के-एक प्रकाश-किरण, दूसरा ताप-उष्णता। किरणों के माध्यम से उसने उठाना चाहा किन्तु आपने आँख बन्द रखी। दूसरे साधन के माध्यम से उठाना चाहा। हाथों-हाथ आप में ऊष्मा आयेगी। रात में सूर्य का उदय नहीं होने के कारण ऊष्मा का अभाव रहता है किन्तु दिन ज्यों ही उदय हो जाता है त्यों ही, विज्ञान कहता है कि अपने शरीर में एक प्रकार से उष्णता का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है। निश्चत है, उस उष्णता के कारण ही आपमें पाचन-शक्ति बढ़ती चली जाती है। इसी प्रकार सूर्य आपके पास ऊष्मा छोड़ देता है और उसके माध्यम से आपको गर्मी लगती है। गर्मी लगने से आप क्या करते हैं? पहले रजाई को हटा देते हैं। जहाँ हटा दिया वहीं किरणों के माध्यम से सूर्य के दर्शन हो जाते हैं। जब तक रजाई नहीं हटाओगे तब तक सूर्य का दर्शन तो नहीं होगा किन्तु ऊष्मा की अनुभूति तो अवश्य होगी आपको।
जब कभी भी इस विश्व में महान् आत्मा ने जन्म लिया और अपनी यात्रा प्रारम्भ की उस समय उन्होंने यही कार्य किया। यह कार्य उनका अनिवार्य कार्य नहीं है। दूसरे के लिए उनका कार्य नहीं होता; किन्तु दूसरा अपना कार्य कर लेता है तो बहुत अच्छी बात है। उसके लिए धन्यवाद देने के लिये भी वह नहीं आता। आप धन्यवाद दे दो तो भी वह सुनने के लिए तैयार नहीं होता क्योंकि आपका कार्य हो गया, बहुत अच्छी बात है। मैं करना नहीं चाहता था लेकिन हो गया, आप सावधान हो गये बहुत अच्छी बात है। ऐसे-ऐसे अनन्त सूर्य हमारे सामने से गुजर चुके हैं किन्तु हम लोगों की आँख नहीं खुली। हम लोगों ने बुद्धि का प्रयोग नहीं किया। ऐसी महान् विभूतियों का उपयोग नहीं किया। आज हम अपने आप को पश्चाताप की गर्त में देखते हैं और भीतर आत्मा में ऐसी पीड़ा होती है कि कितना अज्ञानरूपी अन्धकार है जो कि सूर्य सामने आ गया तो भी हमने आँखों को खोल कर देखा तक नहीं। ऐसे तेजपुञ्ज व्यक्तित्व आये फिर भी उनका महत्व हमने नहीं समझा। और आज केवल छोटे से दीपक के लिए हम लोग सोच रहे हैं। हमारे पास दीपक है, निश्चत बात है। लेकिन दीपक कब काम करता है? आप लोग सोची, विचार करो। दिन में दीपक काम नहीं करता। किन्तु दिवाकर का जब अभाव होता है उस समय दीपक काम कर जाता है। रात में दीपक का मूल्य समझ में आ जाता है। आज वे चले गये, निश्चत बात है। लेकिन एक दीपक का रूप हमारे सामने विद्यमान है। इसके माध्यम से अतीत के खण्ड में जितनी आत्मायें चली गई उनका मूल्यांकन कर सकते हैं, करते हैं और एक बार अपनी आत्मा को, अपने कलुषित भावों को धिक्कारते हैं। कितनी हम अनर्थ की क्रियायें और अनर्थ के कार्य कर चुके, इनका लेखा-जोखा लगा सकते हैं।
संसार है तो मोक्ष है। भोग है तो योग है। सुख है तो दुख है, अशान्ति भी है। ये दोनों धारायें अनादिकाल से चल रही हैं। उन धाराओं में से एक धारा सांसारिक प्राणी के लिए प्रमुख रही है, जो भोग धारा है, संसार की धारा है। सुख-शान्ति चाहते हुए भी हम अपने आपको इस विषाक्त वातावरण से ऊपर नहीं उठा पाये इन्हीं विषयों में सुख ढूँढ़ रहे हैं। अब यह सोचना है कि हमें विषयों की गन्ध तो बहुत बार आ गई। वह सुगन्धी कहाँ से आती है उसे पहचानना है। ‘निज नाभि में गन्ध है, मृग भटकत है बिन ज्ञान' पर की तरफ दौड़ने वाला ज्ञान, ज्ञान नहीं है। आप टॉर्च के द्वारा दूसरे को देख सकते हैं। टॉर्च के द्वारा दूसरे आपको देख सकते हैं। दूसरे पदार्थ के ऊपर टॉर्च का प्रभाव पड़ सकता है। ध्यान रखें टॉर्च को आप अपने ऊपर डाले तो भी उस टॉर्च के द्वारा आपको अपने आपका ज्ञान नहीं होगा। होगा तो भी अपने मुख का नहीं होगा, ये ध्यान रखें। हाथ का हो सकता है, पैर का हो सकता है, पेट का हो सकता है और किसी का हो सकता है। किन्तु उस टॉर्च को आप मुख के ऊपर भी छोड़ दो तो टॉर्च तो दिख सकती है लेकिन अपना मुख नहीं दिख सकता। इस विज्ञान से क्या मतलब है? जिसके द्वारा वह दूसरे को दिखा सकता है लेकिन स्वयं देखने में नहीं आ सकता उस विज्ञान से कोई मतलब नहीं। उस विज्ञान की यहाँ बात कही जा रही है जो अपने आपको दिखा देता है। जैनदर्शन इसी विज्ञान की बात करता है। आँख के द्वारा दुनियाँ को देखना सरल है किन्तु आँख के द्वारा आँख को देखना असंभव है। आप अपनी आँख दूसरे को दिखाते हो लेकिन आँख को जरा सा कह दो कि हे आँख! तू दूसरे को ही देखती है कभी अपने आपको तो देख ले। नहीं देख पायेगी क्यों की उसके पास वहे हिम्मत नहीं, क्षमता नहीं, योग्यता नहीं, धन्य हैं वे, जिन्होंने अपने ऐसे प्रज्ञा चक्षु को जगा लिया। ऐसे दीपक को जला लिया कि संसार के सारे तूफान आ जायें तो भी वह उस तूफान से कभी भी बुझने वाला नहीं है। आज के दीपक ऐसे हैं जो बुझ जाते हैं। बुझे हुए ही हैं।
कभी सोचा है आप लोगों ने पंचकल्याणक महोत्सव क्या होता है? उद्धार की बात जिसमें निहित है, वह पंचकल्याणक होता है। उसमें मेरा कहना है कि पंचों का भी कल्याण होना चाहिए। प्राय: लोग यह कहते हैं कि पंचकल्याण होता है। पंचों का कल्याण नहीं होता। पंचों का कल्याण नहीं होता क्योंकि प्रपंचों में पड़े रहते हैं इसे भली-भाँति समझने पर प्रपंचों को छोड़ने पर कल्याण हो सकता है। इन पंचकल्याणकों से शिक्षा लेनी चाहिए। ऐसा विचार आना चाहिए कि वह गर्भ भी धन्य है, वह जन्म भी धन्य है, वह तप भी धन्य है। वह ज्ञान तो धन्य है ही किन्तु वह उनका मरण भी धन्य है। इन आत्माओं का मरण तो होता ही नहीं, शरीर का मरण हो जाता है और आत्मा को तो शरीरातीत अवस्था प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः ‘निर्वाण' का अर्थ ही सही मायने में जन्म माना जाता है। आज तक यह बन्धन में पड़ा हुआ है, संसारी प्राणी जेल में पड़ा हुआ है। जेल को जेल यह समझ नहीं पा रहा है। जेल में रहते हैं लेकिन जेल क्या वस्तु है यह ज्ञात नहीं है उसे। यहाँ रह रहे हैं। रहते— रहते ऐसा हो गया कि मानो यही स्थाई घर हो। शरीररूपी जेल को ही घर मान रहा है अत: यह शरीर न छूट जावे इसकी ही चिन्ता करता रहता है। भीतरी आत्मा की बात कोई पूछना नहीं चाहता, जो वास्तविक घर है। अपनी आत्मा की बात यदि कोई बताता है तो सुनते नहीं और सुन भी लेते हैं तो एक कान से सुनकर दूसरे कान से छोड़ देते हैं। उसके ऊपर अमल करने की चिन्ता किसको है? किसी को भी नहीं। बहुत समय निकल चुका हमारे जीवन का। वह आत्मतत्व महत्वपूर्ण नहीं रहा है हमारे सामने। केवल इधर-उधर की बातों में हमारा समय, जीवन निकल जाता है। आत्मा का उद्धार किसमें है? कैसे होता है, यह बात बहुत कम हम समझते हैं और समझने की चेष्टा भी बहुत कम करते हैं। नीति-न्याय का संचार हो, भारतवर्ष में ही नहीं किन्तु सारे विश्व में, किन्तु, इस ओर दृष्टि किसी की भी नहीं जा रही है। आज करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं, होते रहेंगे यह निश्चत बात है। लेकिन जैनधर्म की महिमा क्या है? वस्तुतः जैनदर्शन क्या है? इसकी सर्वोपयोगिता क्या है? इसके बारे में बहुत कम लोग सोच रहे हैं। सोचने के लिये कह भी दिया जाता है तो कहते हैं कि हाँ महाराज, सोचते हैं, ऐसा कहकर चले जाते हैं, लेकिन सोचते कम और कहते ज्यादा हैं। इससे जैनधर्म की प्रभावना होने वाली नहीं है। जैन धर्म की जो सर्वोपयोगिता है वह समझनी है। यह समय आया है जब आपको उसे विश्व के कोने-कोने तक ले जाना है।
हिंसा करना महान् पाप है, झूठ बोलना महान् पाप है, चोरी करना भी महान् पाप है, कुशील भी महान् पाप है, लेकिन किसी ने भी आज तक परिग्रह को पाप समझा ही नहीं। परिग्रह का अर्थ क्या होता है? परिग्रह का अर्थ होता है आत्मा की परतन्त्रता जिसके ऊपर आधारित होती है उसका नाम परिग्रह है। आत्मा जिसके द्वारा अपने स्वतन्त्र रास्ते को छोड़कर के भटकाव में पड़ जाता है उसका नाम परिग्रह है। यह मीठा जहर का काम करता है। लेकिन त्याग के माध्यम से रास्ता खुल जाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने अपने 'प्रवचनसार' जैसे दिव्य ग्रन्थ में यह लिखा है कि इस परिग्रह से मोह छूटेगा तभी यह संसारी प्राणी आत्मा के वैभव के बारे में पहचान सकेगा/जान सकेगा। सबसे महान् पाप तो यही माना जाता है 'परिग्रह' जिसके माध्यम से आत्मा की दिव्य ज्योति मिट जाती है।
केवलज्ञानरूपी शक्ति आत्मा की जैसे कुंठित हो गई, समाप्त जैसी हो गई है। ध्यान रखो पुद्गल कर्म के कारण। यह पुद्गल क्या है? वस्तुत: परिग्रह है। एक भीतरी परिग्रह माना जाता है वह केवल ज्ञानावरण कर्म, जिसके आवरण से आत्मा का दिव्यज्ञान भी समाप्त हुआ है, दिव्य प्रकाश समाप्त हुआ है और अन्धकार चारों ओर फैला है। उस अन्धकारमय जीवन के सामने कोई भी व्यक्ति जाजवल्यमान तेज देख नहीं सकता; क्योंकि अन्धकार के पास में वह ऑखें हैं ही नहीं। अन्धकार हमेशा काला दिखता है। देखने वालों को वह काला ही परिचय में आता है उसके पास वह धोलापना/धवलपन है ही नहीं। परिग्रह महान् पाप माना जाता है बन्धुओ! धनादिक परिग्रह, उसके बन्ध के लिए मुख्य कारण होता है। केवल ज्ञानावरण कर्म का बन्ध तब तक होता रहता है जब तक आपके पास मोह उदय में रहता है और मोह का दूसरा नाम मूच्छा परिग्रह है, ऐसा कहा गया है। उसकी आप रक्षा करोगे तो केवलज्ञान प्रकट नहीं हो पायेगा और यदि केवलज्ञान की उत्पति चाहते हो तो मोह का त्याग बताया गया है। उसके लिये एक स्थान पर लिखा है कि आचार्यों को, सन्तों को, श्रमणों को अपना आत्म-कल्याण करते-करते ऐसी देशना देनी चाहिए जिसके द्वारा समाज का जो अन्धकार है वह मिट जाये। उपदेश में यही कहा जाता है कि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करो तो निश्चत रूप से यह अन्धकार मिट सकता है। जिनेन्द्रदेव को पहचानना अनिवार्य है।
हमारे भगवान् कैसे होते हैं? हमारे भगवान् के पास तिलतुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता। वीतरागता का उपदेश देने के लिये वे खड़े हो जाते हैं लेकिन राग में डूबे हुए व्यक्ति को उनका उपदेश हजम नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार से इन रागियों को वीतरागता की ओर आकर्षित करना, यह अपेक्षित है। आपका मोह छूट जाये। मोह मजबूत नहीं हो, मोह टूट जाये। इस अपेक्षा से यह दान, यह त्याग, इसका उपदेश दिया गया। हाँ, ये ध्यान रखें कि अगर बहुत परिग्रह बढ़ाते जायें और थोड़ा-सा निकालें तो इससे कोई मतलब सिद्ध होने वाला नहीं है। मतलब तब सिद्ध होगा जब आय के अनुपात में दान की क्रिया बढ़ जाये तो यह मूच्छी घट सकती है।
जहाँ धन की आवश्यकता है वहाँ धन को दान में लगाना चाहिए। जहाँ तन की आवश्यकता है तो तन को लगा देना चाहिए। यदि वचन की आवश्यकता है तो वचन को लगा देना चाहिए और यदि मन की आवश्यकता है तो मन को लगा देना चाहिए।
इन्द्र और कुबेर सोचते हैं कि हम कब इस वैभव से हाथ धोकर नीचे चले जायें मनुष्य गति को प्राप्त कर लें और आप क्या सोचते हैं? कि हम यहाँ से जल्दी-जल्दी मनुष्य से ऊपर कैसे चले जायें।? स्वर्गीय वैभव को प्राप्त करने की इच्छा रहती है, यह गलत बात है। धर्म के रहस्य को समझने वाला व्यक्ति ही इसको समझ सकता है कि वस्तुत: धन का मार्ग, मार्ग नहीं है। धन के त्याग का नाम ही धर्म है। जिनके राग का त्याग होता है उनके लिये धर्म का उपदेश सुनने की पात्रता प्राप्त हो जाती है। मोह के कारण संग्रह कर लेता है। जब ज्ञान हो जाता है तो उसको खोल देता है। खोल क्या देता है, उसको पीछे छोड़ देता है और चला जाता है; क्योंकि यह मेरे लिये बाधक तत्व है। यह राग आग के समान है, ऐसा सन्तों का कहना है। यह राग विष के समान है, ऐसा सन्तों का कहना है। यह भारत की धर्म प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जो आगे बढ़ना चाहती है, पीछे हटना नहीं चाहती। और पीछे जो रह गया उसकी सुरक्षा की फिक्र नहीं करती। यह धन की फिक्र, चिन्ता आप लोगों को सताये चली जा रही है। धन के कारण ही धर्म छूटा हुआ है। हमारे भगवान् जो प्रतीक के रूप में रहते हैं वे कैसे है? मालूम है आप लोगों को कि वे वैभव के ऊपर बैठते हैं और आपके ऊपर वैभव बैठता है। आपमें और जिन के जीवन में यही अन्तर है। यह वैभव आप अपने सिर पर लाद लेते हैं और स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं और हमारे भगवान् वैभव को नीचे रख देते हैं। कभी छूते भी नहीं। वैभव से बिल्कुल दूर रहते हैं। मोह नहीं है, मोह नहीं है तो भय नहीं है, भय नहीं है तो परिग्रह नहीं है और परिग्रह नहीं है तो पूर्ण स्वतंत्रता है। आप बँधे हुए हो और लोभी हो अत: परतन्त्र हो। चाहते हैं सुख लेकिन सुख का साधन क्या है यह ज्ञात नहीं है। कुन्दकुन्द भगवान् ने यही कहा है कि इन गृहस्थों को, इस समाज को दान पूजा का उपदेश दो।
दान की आवश्यकता है लेकिन दान वही माना जाता है जो आदान की आकांक्षा से दूर रहता है। तीर्थकर एवं साधु सारी दुनियाँ को सन्मार्ग दिखाते हैं लेकिन फल के रूप में कुछ माँगते नहीं। कोई देना भी चाहता है तो लेते नहीं। फिर भी पटक देता है वह, तो भी उसे छूते नहीं। उस तरफ देखते नहीं। अर्थात् दानी आदान की आकांक्षा नहीं करता। निकांक्षित त्याग होना चाहिए। दान, वह दान जो कभी भी कहता नहीं कि मैंने दान दिया है। दान कहाँ दिया? मान लीजिये हमने कुछ खा लिया। तीन-चार ग्रास पेट में चले गये। सामने थाली भरी हुई है। हाथ में ग्रास है, मुँह में ग्रास चबाया जा रहा है। ज्ञात हो गया इस भोजन में अन्न में विष है। उस समय आप क्या करेंगे? कोई बात नहीं इस बार भोजन तो बहुत दिनों के बाद मिला है। कल से नहीं खायेंगे। अभी तो खा लेने दो। कहेंगे क्या आप? नहीं, जब तक अज्ञात था तब तक वह थाली थी और बहुत मिष्ठान्न था और सब कुछ था और डकार ले रहे थे लेकिन ज्यों ही विष है, यह सुनने में आया त्यों ही उस थाली को और हाथ में जो था उसको फेंक देते हो और मुँह में जो है उसको निगल लिया? नहीं, उसको थूक देते हो और जल्दी-जल्दी चलो, डॉक्टर को फोन करो। जल्दी और भागते हुए चले जाओगे। जल्दी करो-जल्दी करो, जितना चाहो उतना पैसा ले लो डॉक्टर साहब । लेकिन क्या हुआ? बताओ तो सही। विष खाने में आ गया। कैसे मालूम पड़ा? ऐसे मालूम पड़ा। कितने ग्रास खा लिये। ३-४ ग्रास खा लिये। आपने विष खा लिया है। उल्टी की सोच रहा हूँ लेकिन उल्टी नहीं हो पा रही है। डॉक्टर साहब उल्टी करा सकते हो तो जल्दी उल्टी कराओ। डॉक्टर साहब कहते हैं उल्टी करा तो दूँ लेकिन विष तो फैल-गया है खून के अन्दर। डॉक्टर साहब आपके बस में जो कुछ हो जल्दी-जल्दी कर लो। ऐसा कोई इन्जेक्शन, कोई टेबलेट निकाल कर दे दो ताकि हमारे प्राण बच बायें। डॉक्टर पूरा पुरुषार्थ करता है, वह निकाल देता है आपके विष को और आप उसके चरण-स्पर्श कर लेते हैं।
इसी प्रकार मोक्षमार्ग में हमारे विष को विषाक्त वातावरण को निकालने वाले वे हमारे गुरु हैं हमारे कुन्दकुन्द है, हमारे जिन हैं , भगवान् हैं जिनके दर्शन मात्र से यह अनंतकालीन व्याप्त हुआ विष भी समाप्त हो जाता है। अमृत के खोज की कोई आवश्यकता नहीं है बन्धुओ, विष से बचो। निश्चत रूप से अमृत मिलेगा। अमृत कहीं दूर नहीं है। विष खाते चले जा रहे हो आप। उस विष से बचाने वाला जिनधर्म है। जिन्होंने अपने गृहस्थाश्रम में रहकर भी इस प्रकार की कलुषता से बचने के लिए प्रयास किया, जिनधर्म की प्रभावना के लिये यथाशक्ति अपने समय पर जहाँ जैसा चाहिए आवश्यकता हो, उसे लगाकर व्यक्तियों को इस अहिंसा, इस सत्य, इस अनेकांत धर्म की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया, उनका वह जीवन इस अवसर्पिणी काल में/पंचम काल में भी धन्य है। वह चतुर्थ काल का अनुभव कर रहा है क्योंकि आज वह जगा है, ऐसा जगा है कि आज तक जो प्रकाश नहीं देखा था वह दिख गया। वह सद्नमित्तों को पाकर अपने आपका भला कर रहा है यही एक सही विज्ञान है और ज्ञान चक्षु है, यही आपको समझना है। आप अपनी संतान के लिये भी इसी प्रकार का उपदेश दीजिये। परिग्रह के जंजाल में उसे मत फेंसाइये। सिर्फ लिमिटेड, बाउण्ड कर दीजिये। एक सीमा बाँध दीजिये। सीमातीत सुख को पाना चाहते हो तो कम से कम आप परिग्रह की सीमा बाँध दीजिये। परिग्रह को अभिशाप, महान् दुख का कारण और महान् पाप समझ लीजिये। आचार्य उमास्वामी ने मूच्छा परिग्रह कहा है। धन के प्रति ऐसी मोह-ममता मत रखिये कि धन का अभाव होते ही अपने जीवन में दुख का अनुभव होने लग जाये, नहीं। धन तो आया है और चला जायेगा। यह उपदेश आप दूसरों के लिये भी देते हैं। देते हैं कि नहीं? धन क्या वस्तु है रुपयापैसा क्या वस्तु है? अरे! ये तो हाथ का मैल है। अहा कैसा उपदेश है। अरे हाथ का मैल है तो निकाल कर देते क्यों नहीं? उसको तो आप जेब में रखो। ट्रेजरी में रखो। यह ठीक नहीं है। धन का लोभ ही संसार को बढ़ाने वाला है।
मनुष्य ही धन का लोभ रखता है और स्वर्ग के देव धन का लोभ नहीं रखते हैं। इसलिए धन छोडो। तिर्यच आज तक सोने-चाँदी का जेवर पहन करके, आभरण पहन करके, आपके यहाँ आये होंगे? हमें सुना देना, आये हैं क्या? यह अलग बात है कि आप लोगों के यहाँ गाय है या भैंस है तो आप ही उसे आभूषण लटका दो तो बात अलग है। फिर भी वे उसे श्रृंगार के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। वह तो उसे बंधन मानेगी उससे छुटकारा पाने का प्रयास करेगी। आप ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, आपका ही एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो जड़ के माध्यम से अपने आपकी शोभा बढ़ाना चाहता है। अन्य कोई भी प्राणी नहीं। आप अभी नहीं फेंक पा रहे हैं क्योंकि उसका मूल्यांकन ज्यादा किया है आपने और धर्म का कम किया। धर्म को प्राप्त करने के लिए धन को पर ही नहीं दुख का मूल कारण मानना पड़ेगा। धन्य हैं ऐसे समन्तभद्र महाराज, जिन्होंने आप जैसे व्यक्तियों को यह समझाने का प्रयास किया है। बार-बार समझाना ही तो हमारा कर्तव्य है (Its is our duty)। यह हमारा कार्य है। कोई जबरदस्ती नहीं है। इसके माध्यम से यह समझ आपको फौरन प्राप्त होती है, तो ठीक है, नहीं तो यह सूर्य उदयाचल से उदित होकर अस्ताचल की ओर जा रहा है। उसने अपनी यात्रा पूर्ण कर दी। हमारा भी समय हो गया। आये हैं तो चले भी जायेंगे। आप को भी यहाँ से जाना है। आये तो हैं लेकिन भटकते हुए आये हैं। सही रास्ता पकड़ करके सही दिशा में और सही मंजिल पर पहुँचें यही एकमात्र भावना रहती है, रहनी चाहिए।
इस अर्थ के युग में धन का दान बहुत हो रहा है। आहार दान भी हो रहा है। शास्त्र दान भी हो रहा है लेकिन अभय दान गौण हो गया है। अभयदान के सम्बन्ध में एक उदाहरण देता हूँ। एक बार की घटना है। सारा का सारा जंगल जुड़ गया और सारे के सारे वनचर भयभीत होकर जिधर आश्रय मिला। उधर भागने के लिए तैयार हो गये। बचने का कोई भी रास्ता नहीं, क्या करें। हाथी, शेर, चीते और भी कई अन्य पशु-पक्षी सब के सब भयभीत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। एक तालाब की ओर वह बढ़ने लगे और तालाब चारों ओर से घिर गया। जहाँ पर सारे के सारे प्राणी हैं लेकिन एक-दूसरे की ओर वे लोग देख नहीं रहे केवल एकमात्र अपनी सुरक्षा देख रहे हैं। इसी बीच एक खरगोश भी भागता-भागता आ गया। देखता है कि अब मेरे लिये कहाँ पर स्थान है? जगह वह देखता रह गया। सब कुछ खचाखच भर गया है, जैसे यहाँ सभा भरी है। कोई भी वहाँ से हटना नहीं चाहता। कोई भी वहाँ से उठना नहीं चाहता। सब अपने-अपने स्थान पर डट गये हैं। कोई किसी की बात नहीं सुन रहा है और उस खरगोश की ओर एक महान् आत्मा की दृष्टि गई। खरगोश की आँखों में उन महान् आत्मा की आँखें चली गई। वह चाहता था शरण, वह चाहता था जगह, वह चाहता था अभय। किन्तु अभय किस रूप में दिया जाये। शरण किस रूप में दिया जाये? उसकी दयनीयता को किस रूप में स्वीकार किया जाये। केवल ऑखों के माध्यम से ही शरण दें केवल भावों के माध्यम से ही अभय दें कैसे करें? क्या करें? वह सोचता है। मैं एक महान् आत्मा शरीर की अपेक्षा से और मेरे पास चार पैर हैं। पर बात इतनी है कि मैं यदि इस समय एक चरण को ऊपर उठा लें तो संभव है इस प्राणी की पूर्णत: रक्षा होगी और मेरे लिये पर्याप्त है तीन पैर। मैं खड़ा रह सकता हूँ। चल भले ही ना सकूंगा लेकिन खड़ा हो सकता हूँ। मेरी भी रक्षा होगी, सबकी रक्षा हो रही है। सबको अभय मिला है। एक छोटा-सा प्राणी और आया है। इसको भी मिलना चाहिए और उसने अपना पैर उठाया । बस उसने अपना स्थान जमा लिया | रघरगIIश स्थान जन्म लेता है और हाथी अपना एक पैर उठा लेता है। अन्यथा शरण नास्तित्वमेव शरण मम। दुखी जीवन सुख का अनुभव करने लगा। सारा का सारा दुख भूल गया कि कहाँ लपटें चल रही हैं? और वह तालाब के किनारे स्थान पा जाता है, हाथी के पैर के नीचे। एक कहावत, संभव है वहीं से चल पड़ी थी कि हाथी के पैर में सब कुछ समा जाता है। आप लोगों को सुन करके विस्मय होगा कि जंगल में ऐसी भी घटना घट सकती है क्या? हाँ! हाँ! भीतरी आत्मा वहीं रहती है। हर आत्मा अहिंसा की उपासना कर सकती है, वह दूसरे को अभयदान दे सकती है। वह दूसरे के ऊपर कृपा भी कर सकती है। और दूसरे के ऊपर वह अनुग्रह करके इस प्रकार से धर्म का प्रतिपालन भी कर सकती है। पशु जाति में रहने वाली आत्मा भी इसी प्रकार की है जिस प्रकार मनुष्य पर्याय में रहने वाली आत्मा। किसी कर्म के उदय से, किसी पाप के उदय से, किसी पूर्व में अर्जित विधि के कारण से भिन्न-भिन्न वेश, भिन्न-भिन्न स्थान, भिन्नभिन्न क्षेत्र, भिन्न-भिन्न क्षयोपशम के साथ यहाँ पर जीवन यात्रा आप लोगों की चल रही है।
अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार।
एक खस टाटी सींचता, एक ले रहा बहारा।
कोई सेठ साहूकार है और एयर-कंडीशनर में बैठा है। बाहर कोई दरिद्र है, गरीब है और वह गर्मी के दिन में खस-खस की टाटी को सींच रहा है। लू में खड़े होकर खस की टाटी को सींच रहा है। और भीतर एक ऑफीसर बैठकर भोजन करने के उपरान्त शान्ति की लहर ले रहा है। यह सब कर्म और कर्म के उदय का फल है। चारों गतियों में चौरासी लाख योनियों में अनेक राष्ट्रों में-देशों में नरक-निगोद आदि में सब गतियों में संसारी प्राणी इस प्रकार पाप व पुण्य कर्म का फल भोग रहा है।
इसलिए भोग के समय में भी जिस व्यक्ति के मन में अन्य जीवों के प्रति करुणा, वात्सल्य प्रेम जागृत हो जाता है उस समय वह धन, ऐशोआराम, विषयसामग्री, कषाय भूल जाता है और वह आत्मा से दुखियों को गले लगा लेता है, स्वागत कर लेता है। वस्तुत: धन का कोई मूल्य नहीं है। धन की वजह से दो व्यक्तियों के मन के बीच एक प्रकार का विरोध आ जाता है। दो व्यक्तियों के बीच में यह धन आ जाता है तो धर्म को थोड़ा सरकना पड़ता है। अर्थ की आँखों में परमार्थ नहीं झलक सकता। धन का यह मोह, धन का यह राग संसारी प्राणी के लिये अभिशाप सिद्ध हुआ है। पशुओं में धन नहीं होता, पशुओं में मकान नहीं होते। पशु परिग्रह का अंबार नहीं लगाते। लेकिन धन के द्वारा जितना अनर्थ मनुष्य करता है उतना अनर्थ कोई पशु-पक्षी नहीं करते। सिंह से आप बहुत डरते होंगे। सिंह बहुत पापी होगा आपकी दृष्टि में। लेकिन भगवान् कहते हैं सिंह मनुष्य से ज्यादा पापी नहीं है। नरसिंह महान् पाप का मूल बना हुआ है। जब तक दृष्टि में अर्थ रहता है तब तक वह जघन्य अनर्थ भी कर सकता है और जब वह अपनी आँखों से अर्थ को गौण कर देता है, परमार्थ की ओर दिशा दृष्टि करता है तो पशुओं में भी भगवत् स्वरूप का अवलोकन हो सकता है, पक्षियों में भी इस प्रकार का दर्शन हो जाता है, लेकिन मनुष्य में यदि विवेक जाग जाय तो इससे बड़ा कोई भला जीव नहीं है।
मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कुछ विचार कर ले तो विश्व के कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है और मनुष्य यदि अपना तृतीय नेत्र खोल दे तो विश्व को ध्वस्त भी कर सकता है। विश्व को मिटाने का प्रयास आज मनुष्य के द्वारा चल रहा है। दानव और देव के द्वारा नहीं, पशु-पक्षी के द्वारा नहीं और किसी के द्वारा नहीं केवल मनुष्य ही एक अभिशाप सिद्ध हो रहा है इस सृष्टि के लिए। अत: मनुष्य के लिये ही हित-उपदेश देने की आवश्यकता पड़ रही है और मनुष्य को जब हम उपदेश देते हैं तो उस समय पशु-पक्षी जो भी सुनते हैं वे भी ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते हैं जो कि आप लोगों के लिए टेढ़ी खीर बन जाती है। लेकिन उसने तो सहज ही स्वीकार कर लिया कि खरगोश को शरण दे दी और खरगोश की आँखों में हर्ष के आँसू आ गये और उस समय हाथी ने यह समझा कि एक का आज जीवन और बच गया। मेरा तो बचा ही था। ध्यान रखें-अहिंसा धर्म कहता है, सब धर्म यही कहते हैं, ऋषभनाथ भगवान् ने यही कहा था कि अहिंसा ही हमारा महान् उच्च उपास्य देवता है। अहिंसा के अभाव में संसार में हिंसा होगी तो संसार पूरा का पूरा ध्वस्त हो जायेगा। संसार पूरा का पूरा समाप्त हो जायेगा। प्रलयकाल उस दिन आने वाला है जिस दिन इस धरती से पूर्णत: अहिंसा धर्म उठ जाना है। यह निश्चत बात है। बीच-बीच में ये जो प्रकोप आ रहे हैं, ये प्रकोप उसी के प्रतीक हैं। हिंसा का तांडव नृत्य जैसे-जैसे होता है वैसे-वैसे सृष्टि में प्रलय आता है। हाथी ने कभी जरूर किसी संत से अहिंसा का पाठ सीखा होगा।
रामायण की पृष्ठभूमि कहाँ से शुरू होती है? आप लोगों को ध्यान रखना चाहिए। रामायण राम के माध्यम से नहीं, रामायण सीता के माध्यम से नहीं, रामायण और किसी पात्र, व्यक्ति के माध्यम से नहीं, रामायण की पृष्ठभूमि में विशेष रूप से हाथ है उस जटायु पक्षी का, जिसने राम के आश्रय को पाकर के, जिसने राम की शरण में आकर के राम जिस समय मुनियों के लिए आहारदान दे रहे थे उस समय, आहारदान की अनुमोदना करके अपने आपको धन्य माना था और उस सन्त की चरणरज में वह लोट-पोट हो गया था। उस समय ऐसा कहा जाता है कि उस जटायु पक्षी के जितने भी बाल थे वे सारे के सारे केसर जैसे स्वर्णमय हो गये थे। उस समय राम ने कहा था कि यह भी एक महान् भव्य जीव है। उस समय सन्त ने कहा था कि जिस प्रकार आपके भाव उज्ज्वल हुए हैं उसी प्रकार इसके भाव भी उज्ज्वल हुए हैं। उसी ने रामायण की पृष्ठभूमि में कार्य किया था। सर्वप्रथम वह महान् नीच कार्य करने वाला जो रावण था, उस रावण पर प्रहार करने का यदि श्रेय सर्वप्रथम मिलता है, तो जटायु को और किसी को नहीं। हनुमान तो बाद में आये हैं। लेकिन सर्वप्रथम राम की अनुपस्थिति में, लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सीता की रक्षा के लिये उसी ने सर्वप्रथम प्रहार किया था रावण के ऊपर। यह अहिंसा धर्म का प्रतीक है। पक्षी में भी अहिंसा धर्म के प्रति भाव उत्पन्न हो जाता है तो हे मानव प्राणी, फिर सोची, विचार करो, किस ओर आपकी यात्रा हो रही है। धन के पीछे, वैभव के पीछे, क्षणिक ऐश्वर्य के पीछे, आप लोग क्या-क्या अनर्थ करते हों? गलत बात है। हिंसा से जीवन सुखी नहीं होगा। अहिंसा की शरण अन्ततोगत्वा लेनी ही पड़ेगी।
॥ अहिंसामय धर्म की जय॥