मानव की सुख-शान्ति की जो इच्छा है वह सही है या नहीं, इसके बारे में एकदम तो नहीं कहा जा सकता। युगों-युगों से यह संसारी प्राणी सुख चाहता है लेकिन सही सुख किसमें है इसका ज्ञान, इसका बोध नहीं है, न ही सही दिशा में आस्था है।
व्यक्ति मन को प्रसन्न करने में लगा है। मन क्या-क्या चाहता है इसके बारे में हम सीमा नहीं बाँध सकते। उसे जब तक रोकते नहीं तब तक उसकी चाह की उड़ान चलती रहती है। विश्व की विभूति को प्राप्त करने के लिए ही दौड़ लगाता रहता है। आप लोग सब लगा रहे हैं। बड़े-बड़े लोग लगाते हैं मन की प्रसन्नता के लिए, मन की खुराक को ढूँढ़ने के लिए। युग के आदि में भरत चक्री हुआ है, उसकी भी इच्छा थी कि मैं सबसे बड़ा सम्राट् बनूँ, मैं अकेला सम्राट् रहूँ और सारी जनता मेरे चरणों की दास बने। यह दास बनाने की भूख आज की नहीं, धारणाएँ आज की नहीं हैं अनादिकाल से चली आ रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि मैं उस सिंहासन का मालिक बन जाऊँ। भारत एक है, राष्ट्रपति पद भी एक है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखता है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उस ऊँचाई तक मैं भी पहुँच जाऊँ और प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार भी है। तुम राष्ट्रपति बनना नहीं चाहते हो क्या? चाहता हूँ। आप यही कहेंगे। प्रसंग आ जाये, अवसर मिल जाये तो अवश्य उस कुर्सी पर बैठने का प्रयास करूंगा और जो बैठ जाते हैं वह पुन: बैठने की इच्छा भी करते हैं। कुर्सी का एक ऐसा ही प्रभाव रहता है कि वहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति पहुँचना चाहता है। भरत चक्री को अवसर आया और वह अकेला बनेगा यह भी ज्ञात था, दूसरा कोई प्रतिपक्षी नहीं था। बिना प्रतिपक्ष के युग के आदि में उसको खड़े होने का मौका मिला था। नियति ने चक्रवर्तित्व का अधिकार उसी को दिया था। बिना प्रतिपक्ष बहुत कम हुआ करता है। लोकतंत्र में विपक्ष का होना पहले अनिवार्य होता है। फिर बाद में पक्ष को भी आनन्द आता है। यदि विपक्ष नहीं है तो सम्भव नहीं कि किसी को आनन्द आए। एक करोड़पति हो और हजारों लखपति हों तो फिर करोड़पति का साफा तो बिल्कुल फरफराता रहता है। बिना हवा के भी हवा पा जाता है। यदि सारे के सारे करोड़पति हो जाते हैं तो एक सोचता है कि कोई लखपति मिले तभी आनन्द है नहीं तो आनन्द नहीं आयेगा। खाने से नहीं, पीने से नहीं, लखपति बनने से नहीं, करोड़पति बनने से नहीं, अरबपति बनने से नहीं किन्तु एक करोड़पति हो और एक लखपति हो तब आनन्द आता है। करोड़पति वाला अरबपति के पास जाना नहीं चाहता। करोड़पति लखपतियों के झुण्ड में पहुँचना चाहता है। यह जो खुराक मन की है, इसको पूर्ण करने के लिए इस युग में कितने प्रयास किए गए, इसका कोई अंदाज नहीं लगाया जा सकता। दरिद्र व्यक्ति भी यह चाहता है कि मैं इस स्वप्न को साकार करूं । चक्रवर्ती की भी यही भावना होती है, लेकिन कुछ चक्री ऐसे हुए हैं जिन्होंने अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ की चरम सीमाओं को प्राप्त किया है। ऐसे व्यक्ति आदर्श बन जाते हैं। शान्ति, कुन्थु और अरह तीन भगवान् की प्रतिमाएँ अधिक मिलती हैं। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की ही क्यों? इसका महत्व है। महत्व यह है कि ये तीर्थकर भी थे, कामदेव भी थे और चक्रवर्ती भी थे। धर्मचक्र भी चलाने वाले, काम पुरुषार्थ को भी करने वाले और मोक्ष पुरुषार्थ भी करने वाले थे।
चक्रवर्ती भीतर से रस लेता है या नहीं? यह मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ और यदि चक्रवर्ती केवल चक्र की ओर ही देखता है तो क्या परिणाम निकलता है? अपने ही भाई बाहुबली से पराजित होना पड़ा और चक्रवर्ती चक्रवर्तित्व को प्राप्त करने के उपरान्त भी उस चक्कर से दूर रहना चाहता है तो दुनियाँ उसे आदर्श मान लेती है। इस घटना के माध्यम से हम ज्ञान कर सकते हैं।
भरत चक्री अपने शयनकक्ष में है। उसके दूत या उसके सेवक ने कहा कि-'महाराज आपका अर्थ पुरुषार्थ सफल हुआ, चक्र रत्न की उत्पत्ति हुई है।' आप चुनाव के लिए खड़े हो जाते हैं, परिणाम घोषित होता है तो सुख और शान्ति का कोई पार नहीं रहता। सुनने के उपरान्त भी चक्री अस्थिर नहीं हुआ केवल एक सामान्य ही परिणाम रहा। उसी समय और एक दूत आकर सूचना देता है कि राजन् अभी-अभी काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप पुत्ररत्न का लाभ हुआ है। संसार में जब दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ हो जाता है तो काम पुरुषार्थ के फल पुत्ररून की प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है। यदि सन्तान नहीं है तो फीका-फीका-सा लगने लग जाता है आप लोगों की। 'खीर तो है लेकिन मीठा उसमें नहीं रहता'। जिस फल की वाञ्छा को साथ में लेकर के वह गृहस्थी को अपनाता है उसका फल मिलना भी चाहिए। लेकिन उसमें ज्यादा गाफिलता का अनुभव न करें। बहुत कम यह अवसर प्राप्त होता है। चक्री वस्तु व्यवस्था को ध्यान में रखता हुआ वस्तुस्वरूप का विचार करता रहता है।
कौन-सा सही शान्ति और सुख का साधन है, इसका निर्णय, इसकी पहचान, इसका विश्वास बहुत कम लोगों को हुआ करता है और जब हो जाता है तो फिर इसके उपरान्त वह निम्नकोटि के पदार्थों के लाभ में सुख एवं शान्ति का अनुभव नहीं करता। युग के आदि की बात है, अभी की नहीं वह सेवक आया था उसने मन में यह विचार किया था कि ओ-हो मेरी बड़ी प्रशंसा होगी, मुझे बहुत पुरस्कृत किया जायेगा। लेकिन वह चक्री के व्यक्तित्व को देखकर सोचता है कि कैसा व्यक्ति है यह चक्रवर्ती? चक्र का लाभ हो गया फिर भी किसी भी प्रकार से उतावलापन नहीं है।
विद्यार्थी परीक्षा दे देता है, परिणाम घोषित होने की तिथि की प्रतीक्षा करता है और यह विश्वास रहता है कि मैं उत्तीर्ण हो जाऊँगा; लेकिन फिर भी अखबार में अपना रोल नम्बर देखने की इच्छा हमेशा बनी रहती है। यह क्या है? विश्वास होते हुए भी परिणाम सुनने का लालच तो बना ही रहता है। सुना था उस चक्रवर्ती ने भगवान् के मुख से कि, यहाँ पर प्रथम चक्रवर्ती होगा तू। सुनने के बाद उसे सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, उसे कुछ न कुछ तो उतावलापन महसूस होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ? इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह ज्ञानी है, जानता है कि यह कोई कीमती चीज नहीं है, अच्छी चीज की कीमत का ज्ञान हो जाये, फिर बाद में उससे कम कीमत वाली वस्तु आपके सामने लाकर रख दी जाये तो आप उतावले या प्रभावित नहीं होंगे, इसलिए नहीं होंगे क्योंकि यह तो यों ही मिल जायेगी, तो कौन-सी ऐसी कीमती चीज थी जो गृहस्थ आश्रम में भी उन्हें प्रभावित कर रही थी?
उसी वक्त जब उसके सामने तीसरे सेवक ने आकर कहा कि १००० वर्ष की तपस्या के उपरान्त ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, यह सुनकर चक्री की खुशी का पार नहीं रहा। उपरोक्त दो समाचार सुनने पर इतनी खुशी नहीं हुई थी। विशेष चीज की प्राप्ति होती है तो पक्षपात हो जाता है। जिसको हम चाहते हैं उसकी वार्ता सुनकर उसका संदेश, समाचार सुनकर मन में उल्लास होता है। अर्थ और काम पुरुषार्थ का थोड़ा-सा लाभ हो जाता है तो धर्म को भूल जाते हैं। रागरंग में इतने रम जाते हैं कि मान-मर्यादा भी नहीं रहती। राग-रागिनी के लिए आज दादा और नाती दोनों एक कक्ष में बैठ जाते हैं। इतिहास में ऐसा नहीं होता था लेकिन आज साक्षात् देख सकते हैं। एक परिवार के सभी प्रकार के सदस्य एक साथ देख रहे हैं टी. वी. पर फिल्म। दादाजी, दादीजी, बेटा, बहू पोता सभी एक साथ रागान्वित चित्र देखते हैं। क्या संस्कार दे पायेंगे बच्चों को आप लोग? समझ में नहीं आता बार-बार वही खाना, वही पीना, वही वासना, फिर भी अंत का यहाँ पर कहीं दर्शन नहीं हो रहा है।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः ॥
तपो न तप्तो वयमेव तप्ताः ।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा॥
यह श्लोक अब तो पुराना होता जा रहा है लेकिन मर्म प्रभाव देखो तो आज मर्मभेदी होता चला जा रहा है। भोग नहीं भोगे बल्कि भोगों ने हमें भोगा है। काल नहीं आया, लेकिन हम ही काल के कवल हो गये। दादाजी की तृष्णा और नाती की तृष्णा, दोनों की तृष्णा को देखें तो दादाजी की तृष्णा और ज्यादा भी हो सकती है। क्योंकि काल का प्रभाव जवान के ऊपर कम पड़ा। दादाजी बहुत पुराने हो गए इसलिए उनके ऊपर ज्यादा पड़ा।
बहुत छोटा था उस समय की बात है। एक इमली का पेड़ था, और उसमें इमली के फल लग गये। उन्हें तोड़कर खाने लगे लोग क्योंकि उसमें खटाई तो है ही। अब वह वृक्ष बूढ़ा हो गया, उसकी त्वचा बिल्कुल ही वृद्ध हो गई, वह झुकने को हो गया लेकिन ध्यान रखो वह इमली का वृक्ष कितना ही बूढ़ा हो जाये लेकिन उसकी खटाई कभी भी बूढ़ी नहीं हुआ करती; बल्कि पुराने इमली के वृक्ष की इमली और अधिक खट्टी होती है। इन्द्रियों में परिवर्तन हो सकता है, शरीर के प्रत्येक अंग में परिवर्तन हो सकता है लेकिन मन की प्रणाली में अंतर आये यह कोई नियम नहीं है। जब मन की प्रणाली में कोई अंतर नहीं आता है तो उस समय ये चार पंक्तियाँ कहना अनिवार्य हो जाता है। उपरोक्त श्लोक में भारतीय सभ्यता छुपी हुई है।
हाथ में तृष्णा रहती है, आँखों में तृष्णा रहती है, नासिका में तृष्णा रहती है, जिह्वा में तृष्णा रहती है, पैरों में तृष्णा रहती है। आखिर तृष्णा का आवास कहाँ है? इन सबमें तृष्णा नहीं है।
तृष्णा के घर तो हम स्वयं हैं। हमारा मन है जिसके माध्यम से तृष्णा पली रहती है, वह बूढ़ी नहीं हुई। कमर टूट गई है, नाड़ हिल रही है और सफेद बाल आ गये हैं। कई चक्रवर्ती, कई कामदेव तो ऐसे हुए उनको एक सफेद बाल दिख जाय तो पावागिरी की राह पकड़ लेते थे, लेकिन आज पूरा ही सर गंजा हो जाये फिर भी वह बात समझ में नहीं आती। बुरी बात तो मत मानना/ इसका बुरा तो मत मानना क्योंकि हमने देखा है और देखते रहते हैं, यह कहना इसलिए आवश्यक हो जाता है। आज बाल सफेद हो जाने पर भी काले बनाने का औषध लगा रहे हैं और तो और डाई करके सारे के सारे लोग काले बनाने में लगे हुए हैं। भले ही काले बाल बना लो लेकिन आपके जो मुख के ऊपर झुर्रियाँ हैं उनको किसी भी मशीन के माध्यम से जवानी का रूप नहीं दिया जा सकता। कर भी लो तो जो इन्द्रियों को ऊर्जा देने वाली मशीन है उसको तो जवान नहीं किया जा सकता। यदि इस कोशिश में आप हो तो वह सम्भव नहीं, वह दूसरी पर्याय में ही सम्भव हो सकती है। पर्याय से पर्यायान्तर होने का समय आ गया है फिर भी ज्ञान नहीं हो पा रहा है। युग को जागरूक करने का, किसी भी प्रकार से विपरीत दिशा में जा रहे युग को सही दिशा में लाने का संतों द्वारा प्रयास किया जाता है और उसके लिए बहुत सारी पोथी लिखने की आवश्यकता नहीं होती। सूत्र रूप में भी संकेत दिया जा सकता है। संकेत के लिए बहुत सारी लाइनों की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी चुटकी भी संकेत का काम कर सकती है। कभी-कभी आँखों का इशारा भी पर्याप्त होता है। यूँ तो आप भागवत को सुनाते चले जायें, महाभारत भी सुनाते जायें, तो भी कम हो जाता है। भगवान् भी साक्षात् आ जायें तो भी समझा पायें, कठिन है। भगवान् को भी वेदी पर बिठा दोगे और आरती-पूजा करते हुए कहोगे कि भगवान् भोग भोगने में, वैभव को जोड़ने में मैं असमर्थ हो गया हूँ, भगवान् मेरी सहायता कीजिये। लेकिन ध्यान रखना भगवान् भी उस ऊर्जा को लौटा नहीं सकते। प्रकृति तो अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करेगी, आप कितना ही विकल्प करें। घर का क्या होगा। घर बसाया गया है तो एक दिन गिर जायेगा। ईट, पत्थर हैं खिसक जायेंगे, भूकम्प आ जायेगा तो सब समाप्त हो जायेगा। भूकम्प से डरने से भूकम्प रुकने वाला नहीं, वह तो सब समाप्त कर देगा। जो कोई भी कृत्रिमता है वह समाप्त हो जायेगी।
आज भी भूकम्प हो रहे हैं, पहले भी भूकम्प होते थे, राजा और रंक सब एक साथ समाप्त हो जाते हैं। किसान खेत में बीज बोता है। जब फसल आ जाती है फिर उसको काटता है। दूसरी फसल बोने से पूर्व उसकी जड़ें भी सब समाप्त कर देता है हल चला करके। सृष्टि की भी यही नीति है कि वह भूकम्प एवं प्रलय आदि से जमीन को उलट-पुलट करता है, फिर से नया युग चालू होता है, जो आप नहीं चाहते हैं। आपके नहीं चाहने से या चाहने से यह कार्य नहीं रुकने वाला।
चक्रवर्ती को चकरून का लाभ हुआ किन्तु उससे वह प्रभावित नहीं हुए। पुत्ररून की प्राप्ति हुई उससे वह खुशी का अनुभव नहीं कर पाए, किन्तु ऋषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान की जो ज्योति प्राप्त हो गई उससे भरत चक्रवर्ती को आनन्द का अनुभव हुआ, वह अनुपम अनुभव है। इसलिए आनन्द हुआ कि कम से कम अपने जीवन काल में हमें यह तो पता चल जाय कि धर्म क्या होता है? पाप-पुण्य क्या होता है? संसार से मुक्ति क्या होती है? अपना-पराया क्या होता है? क्या जीवन है? क्या मौत है? इसके बारे में आप जो भी प्रतिदिन देखते रहते हैं, जानते रहते हैं लेकिन यह रहस्य समझ में नहीं आता। कितनी बार मरण हो चुके हैं शरीर के लेकिन प्रत्येक बार आँखों में से पानी बहाया। मृत्यु नहीं चाहिए, जन्म-जीवन चाहिए-लेकिन जीवन और मृत्यु इन दोनों का जोड़ा है। जब से जीवन प्रारम्भ होता है, तब से प्रारम्भ हो जाता है मृत्यु का भी काल।
दीपक में तेल भर दो, बाती रख दो, बाती जला दो, दीपक जलना प्रारम्भ हो जाता है। जीवन प्रारम्भ हुआ। आप लोग समझ रहे हैं जीवन प्रारम्भ हुआ लेकिन उसी क्षण से जो दीपक में तेल डाला था वह तेल जल रहा है तब प्रकाश प्राप्त हो रहा है। जीवन ज्यों ही प्रारम्भ होता है त्यों ही मौत उसके साथ-साथ चल रही है। शरीर की छाया के समान साथ-साथ चल रही है। छाया यह काली है यह मौत के समान है। यह शरीर दिखता है प्रकाश में यह जीवन के समान है। यह ज्ञान था चक्रवर्ती को अत: हर्ष के साथ वह चल दिया उस ओर जिस ओर केवलज्ञान का लाभ आदिनाथ भगवान् को हुआ था। और जाकर सब बातें वह पूछता है, आत्मा की बात पूछता है। अब आप लोगों को सोचना है चूँकि यह हमेशा-हमेशा पढ़ाई जा रही है, भैया अच्छे ढंग से खेती करो, अच्छे ढंग से दुकान चलाओ, अच्छे ढंग से व्यवसाय करो, घर का पालन-पोषण जो भी है वह करो क्योंकि यह भी जरूरी है और यह भी शिक्षण ऋषभनाथ भगवान् ने ही युग के आदि में दिया था लेकिन यह कब तक? तब तक, जब तक हम इस शरीररूपी आत्म तत्व को नहीं पहचान पाते। पहचानने के बाद ये सब गौण हो जाते हैं।
फसल लहलहाती है और हरी-भरी है लेकिन हरी-भरी फसल को नहीं काटा जाता है। फसल पकनी चाहिए तब वह काटी जाती है। जब फसल पक जाती है तब हरी-भरी नहीं रहती, तब धान उत्पन्न होता है। जब तक हरी-भरी रहेगी तब तक उस धान में दूध निकल सकता है। आटा नहीं निकल सकता। आत्म तत्व की बात भी ऐसी ही है। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या सारे के सारे यह दूध की भाँति ही हैं। यह कच्चा जीवन माना जाता है। यह पका जीवन नहीं माना जाता। और ज्यों ही पका जीवन आ जाता है तो यह सारी की सारी चीजें गौण हो जाती हैं। हरी-भरी लहलहाती हुई फसल को देखकर किसान फूला नहीं समाता। लेकिन हमेशा अगर फसलें हरी रहेंगी तो चिन्ता करने लग जाता है कि मैंने जिस उद्देश्य को लेकर बीज बोया था अब वह बाल क्यों नहीं आ रही हैं? क्योंकि उसमें फूल नहीं आ पा रहे, यदि फूल आ गए हैं और झरने लग जायें तो घास तो रह जायेगा लेकिन धान नहीं आ पाएगा। दृष्टि हमेशा किसान की उस धान की ओर रहती है, जिसके माध्यम से जीवनयापन होता है। चक्रवर्ती का विकास भी ऐसा ही चल रहा था कि वह फसल पककर धान के रूप में सामने खड़ी हो। भले ही अपने जीवन में नहीं पकी, भले ही अपने खेत में नहीं पकी। ऋषभनाथ भगवान् के जीवन में तो कम से कम पक गयी। हम देख लें उस फसल को, हम उस आटे का/आटेदार धान का दर्शन कर लें वह क्या होता है ?
केवलज्ञान एक ऐसी ही वस्तु है, आत्म-पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने प्राप्त किया था। और वह अनन्तकाल के लिए भोग्य वस्तु उन्हें प्राप्त हो गई। यह ज्ञान, यह संदेश, यह उपदेश अब हमें प्राप्त हो। एकमात्र यही भूख थी। भरत चक्रवर्ती को। लेकिन आप लोगों को हमेशा-हमेशा यह बोध नहीं रह पाता, रहना चाहिए। उदासीन हो जाते हैं। यहीं पर नहीं, विदेशों में भी सुन रहे हैं सब लोग उदासीन हो जाते हैं। उदासीन किससे हो जाते हैं? परिवार से हो जाते हैं। परिवार से इसलिए हो जाते हैं क्योंकि परिवार उनसे उदासीन हो जाता है। वहाँ पर आश्रम खुल रहे हैं जो वृद्ध माता-पिता हैं उनका निर्वाह अन्त में ठीक-ठाक कैसे हो, उनका पालन-पोषण कैसे ही यह प्रबन्ध किया जा रहा है। चक्रवर्ती के सामने अन्तिम सीमा थी। अर्थ और काम के फल में विशेष हर्ष क्यों नहीं हुआ। क्यों नहीं प्राप्त हुआ उन्हें सुख। इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इस रहस्य को उन्होंने समझ लिया था। आपकी यह हमेशा भावना बनी रहती है कि मैं ये बनूँ, वो बनूँ, मुझे ये मिले, मुझे वो मिले लेकिन मिलने के उपरान्त क्या होगा? उड़ान उड़ाते चले जाओ लेकिन कहाँ तक आप उड़ोगे? कितने भी आप उड़ते चले जाओ लेकिन अन्त नहीं, मन की उड़ान है, मन की वांछाएँ हैं मन की माँग है। इनको पूर्ण करने में कुशलता नहीं, इनकी पूर्ति में सुख-शान्ति नहीं है, इनकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। कोई छोर नहीं हुआ करता इच्छाओं का। 'और' की और देखते चले जाओ तो वाक्य बढ़ता ही चला जाता है। जितनी बार आप वाक्य में और लगाओगे वह वाक्य बढ्त। चल। जाता है। बेलन फेरते जाओ और वह रोटी की लोई बढ़ती चली जाती है। वह तो कम से कम कहीं न कहीं जाकर रुक सकती है। लेकिन और लगाने के बाद आपकी पंक्ति कभी विश्रान्त नहीं हुई। महाराज 'और' लगाकर लिखने की भी एक कला होती है। कला तो होती है यह निश्चत बात है। वाक्य को पूर्ण किए बिना 'और' लगाते हुए लिखते चले जाओ उसका कोई छोर नहीं। एक ही बार में कह दो कितना चाहिए? बारबार माँगने की अपेक्षा से एक ही बार कह दो कितना चाहिए? नहीं-नहीं, कितना कहने से एक सीमा आ गई। हम सीमातीत चाहते हैं। देते जाओ । आप देते जाओ। बस ! 'इसका अन्त नहीं है' इसको जानना ही एक प्रकार से भेद-विज्ञान कहा गया है और इसका अन्त कहाँ है? इसकी ओर हम न देखें यही एकमात्र अन्त है। जहाँ पर आप खड़े हैं वहीं पर पूर्व है, वहीं पर पश्चिम हो सकता है यदि पश्चिम नहीं चाहते हो तो पूर्व की ओर मुख कर दो तो पूर्व आ जायेगी। जहाँ पर खड़े हैं वहीं पर पश्चिम भी विद्यमान है और जहाँ पर आप खड़े हैं वहीं पर पूर्व विद्यमान है। इसलिए दिशाबोध प्राप्त करो दिशा नहीं। दिशा कभी भी प्राप्त नहीं होगी। आपको दिशाबोध प्राप्त हो सकता है। दिशाबोध का नाम ही दिशा का सही मायना है। बोध प्राप्त करिए। सूर्य के माध्यम से दिशा का बोध प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार भेद-विज्ञान के दर्शन से हमें दिशाबोध प्राप्त हो जाता है। नहीं तो हम पश्चिम की ओर जा रहे हैं। विश्व को दिशाबोध देने वाला जैसे दिवाकर है। पूरे के पूरे पशु-पक्षी तक इसके माध्यम से लाभ उठा लेते हैं और अपनी यात्रा को समटेते हैं तथा अपनी यात्रा को प्रारम्भ कर देते हैं।
ऐसे प्रत्येक युग में एक-एक आदर्श पुरुष होते रहते हैं। जिनके माध्यम से युग को दिशाबोध प्राप्त होता है। युग के आदि में ऐसे गृहस्थ भी थे जिनके भीतर सम्यग्ज्ञान विद्यमान था। वे कभी भी यह नहीं चाहते थे कि मैं ये करूं, मैं वो करूं क्योंकि करूं-करूं कहते-कहते बहुत बार हो गया। किसी ने भी अपने पूर्ण कार्य नहीं किये। अब भागो मत, रुको। रुकना ही एक प्रकार से हमारे लिए सही मंजिल है। कहाँ तक चलना है यह मत पूछो, कहाँ रुकूं यह पूछो। कहाँ रुकूं इसके लिए कोई क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। जहाँ रुको वहीं पर रुक जाओ, पर्याप्त है। आपकी मंजिल वहीं है। जहाँ पर आप रुकेंगे वहीं से मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है। उड़ान के लिए भागने की आवश्यकता नहीं है। थोड़ी बहुत होती है किन्तु वह उड़ान के लिए ही होती है। आगे यदि और नहीं है तो ऊपर उठना बहुत जल्दी हो सकता है। मैं आपको एक बात पूछू? बहुत बड़ी-बड़ी वस्तुओं को आप उठाने की हिम्मत करते हो, करते ही चले जाते हो लेकिन एक बार अपने आपको उठाकर देख तो लो किसी का सहारा लिए बिना। अपने आपको उठा नहीं पा रहे और भारत को उठाएँगे, विदेश को उठाएँगे, अमेरिका को उठाएँगे। स्वयं का स्तर गिरता जा रहा हो और दुनियाँ को उठाने की बात आप लोग करते हैं समझ में नहीं आता। ऋषभनाथ एवं भरत चक्रवर्ती इस युग के महान् अवतार माने जाते हैं। वे यहाँ से अपनी आयु पूर्ण करके चले गए। अब हमें उनके सिद्धान्तों को याद करना है। अनादिकाल से विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है। एक क्लास में कब तक पड़े रहोगे? आगे बढ़ो- लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि आप लोगों ने एक ही कक्षा में युगों-युगों व्यतीत किए हैं, फिर भी अपने आपको महान् ज्ञानी समझ रहे हैं। दो साल एक कक्षा में कोई विद्यार्थी रह जाता है तो गर्दन बिल्कुल झुक जाती है। बाजार में मुख दिखाने के योग्य नहीं रहता; लेकिन आप लोग एक ही असंयम की कक्षा में रह जाते हैं। चूँकि बहुत भीड़ साथ है इसीलिए आप लोगों को महसूस नहीं होता है। सम्भव है कि आप लोगों ने निर्णय लिया हो कि मैं अकेला थोड़े ही हूँ साथ में और भी तो हैं।
वह वृक्ष इमली का भले ही बूढ़ा हो गया परन्तु उसकी खटाई अभी जवान है। उसको जितनी मात्रा में आप पहले प्रयोग करते थे उससे कम भी कर लो तो भी वह चीज खटाई की मानी जाती है। वह कौन-सा मन है जिसमें तृष्णा पल रही है, वह कौन-सी धारणा है जिसके आगे बड़ों-बड़ों की धारणाएँ भी फेल हो जाती हैं, उपदेश भी फीके हो जाते हैं निष्क्रिय हो जाते हैं, अप्रभावक रह जाते हैं और हमारी वह धारणा पूर्ववत् वैसी की वैसी बनी रहती है। यह मोह का ऐसा प्रभाव है जिसके कारण हम अनेक प्रकार की वेशभूषा बदलते हुए भी पूर्ववत् ही अपने आपको बनाए रखते हैं। कभी मनुष्य हो जाते, कभी देव हो जाते, कभी छोटे हो जाते, कभी बड़े हो जाते हैं। कुछ सामग्रियों में अन्तर भले ही हो किन्तु मूल में कोई अन्तर नहीं आ पा रहा।
मोह को जीतना ही मनुष्य की सफलता मानी जाती है। युग के आदि में चक्रवर्ती ने इसी काम को किया था और वे धन्य हुए। ऋषभनाथ भगवान् की दिव्यध्वनि को साक्षात् उन्होंने अपने कानों से पान किया था। हम यदि चाहें तो इस दिवाकर का उपयोग कर लें और अपने जीवन को मोड़ दें उस ओर, जिस ओर ऋषभनाथ भगवान् गए, पाण्डव गए हैं, कामदेव गये हैं और बहुत सारे गए हैं जिनके नाम स्मरण से ही अन्धकार पलायन कर जाता है। किन्तु वे ठीक हमसे विपरीत थे इसलिए वे संसार से ऊपर उठे हैं। चाहें तो हम उनके समान बन सकते हैं लेकिन चाह हमारी होगी, राह हमारी नहीं। सांसारिक प्राणी चाह के साथ अपनी ही राह चुन लेता है इसलिए वह भटक जाता है। चाह हमारी हो और राह भगवान् की हो तो मंजिल सहज ही प्राप्त हो जाती है। चाह के साथसाथ हम अपनी राह बनाने का प्रयास न करें। ऋषभनाथ का जो उपदेश था उसका प्रभाव चक्रवर्ती पर पड़ा। उन्होंने अपने जीवन को अवश्य ही सम्पन्न और पूर्ण बनाने का प्रयास किया। हमें अब 'और' नहीं चाहिए, हमें अब छोर चाहिए। संसार दशा का अन्त चाहिए। मोक्ष का एकमात्र अर्थ यही है कि वह पर्याय जो कि दुख के लिए कारण है उसका अन्त करके हम उस पर्याय को प्राप्त करें जिसके प्राप्त होने पर संसार में पुनः आवागमन नहीं होता।
अहिंसा परमोधर्म: की जय।
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