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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 6 - मृग का आदर्श

       (1 review)

    जैसे आप लोग एक समाज के अंग के रूप में अपने आपको महसूस करते हैं, समाज की कुछ व्यवस्थाएँ होती हैं, सबके सहयोग से उसको पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। ऐसे ही पशुओं की भी व्यवस्था होती है। एक जंगल में सिंह रहता था। वह प्रतिदिन २-४ जानवरों को मारता था और एक जानवर को खाता था। सभी जानवरों ने मीटिंग कर व्यवस्था बनाई कि व्यर्थ में अनेक जानवर मरने की अपेक्षा प्रतिदिन एक जानवर वनराज के सामने उनके भोजन के लिए प्रस्तुत हो जाया करेगा। व्यवस्था बना ली गई। वनराज ने स्वीकार कर ली। व्यवस्था के अनुसार अनेक मेम्बर बन गये, उनमें एक सदस्य खरगोश भी था वह सोच रहा है मेरा नम्बर कब आ जायेगा। लेकिन जब सदस्यता अंगीकार कर ली है, तो नम्बर तो आयेगा। अपनी-अपनी बार वाली बात है। जब जीवन प्राप्त होता है तो मरण साथ ही चलता है। जब दीपक में बाती डालकर उसको जलाया जाता है, तो यह निश्चत है कि एक दिन तेल समाप्त होगा, वह भले ही अंतिम बूंद के लिए सोचे कि मेरा नम्बर तो बहुत बाद में आयेगा, लेकिन आयेगा अवश्य। एक दिन उसका क्रम आ गया तब तक उसने यह भी सोच रखा था कि जिस दिन मेरा नम्बर आयेगा तब मुझे क्या करना है? जैसे पहले के क्रम में हुआ है वही करना है कि कुछ और करना है? उसका क्रम आया तो वह सहर्ष तैयार हो गया। इसको देख करके जिनका नम्बर आने वाला था वे घबरा रहे थे। उन्होंने सोचा कि भैया ये कौन सा व्यक्तित्व है जो सहर्ष एक चुनौती की बात कर रहा है, हम मरेंगे नहीं जीवित लौट कर आ जायेंगे। आज आखिरी नम्बर होगा इसके बाद किसी को नहीं जाना पड़ेगा। सभी लोग सोच रहे थे छोटा सा खरगोश है घबरा जायेगा। संसारी प्राणी को मृत्यु का नाम सुनते ही घबराहट हो जाती है। ये कुछ समझ में नहीं आता, वह प्रत्येक समय घबराहट के कारण अपनी उम्र, अपनी बुद्धि अपनी संस्कृति को खोता रहता है और इसके परिणाम स्वरूप १० दिन के बाद जो मृत्यु है वो १० दिन पहले ही आ जाती है। उज्ज्वल संस्कृति भी धूमिल हो जाती है और जो बहुत दुर्लभ बुद्धि है वह पागलपन की ओर अपने आप बढ़ने लग जाती है। उसने ऐसा नहीं किया, बुद्धि का प्रयोग किया। उसने सोच लिया था कि अपने को सफलता प्राप्त करनी ही है और वह आगे बढ़ता है सहर्ष। आज मेरा नम्बर है। जहाँ जाना था उसे वहाँ जाता है। थोड़े विलम्ब से जाता है, थोड़ा विराम कर लेता है, फिर दूर से आवाज करता हुआ वहाँ पर पहुँच जाता है।

     

    आज इतना छोटा जानवर आया वह भी विलम्ब से? वनराज कहता है- क्यों रे! इतनी देरी से क्यों आया? तब खरगोश ने कहा-क्या करूं? रास्ते में एक आप जैसा ही दूसरा शेर मिल गया था और वह मुझे पकड़ने लगा तब भागता हुआ छुपकर बहुत लम्बे रास्ते से होकर आया हूँ राजन्। वनराज सोचने लगा वह कौन हो सकता है? यदि ऐसा हुआ तो प्रतिदिन हमारे शिकार को रोकेगा। वनराज कहता है चल पहले बता वह कौन है? कहाँ रहता है? पहले उसी का काम तमाम करता हूँ बाद में तेरा करूंगा। चलिये राजन्! हम भी यही चाहते हैं। वह इसी जंगल में एक कुंए में रहता है, जैसी आपकी आवाज वैसी उसकी आवाज, जैसी आपकी वैसी उसकी काया, जैसी आपका आकार वैसा उसका आकार है। जो कुछ है उसमें और आप में कोई अंतर नहीं। कौन हो सकता है? शेर बोला। वो कौन हो सकता है, आप जानो। लेकिन उसी की हरकत के कारण विलम्ब हुआ। मेरी गलती क्षम्य हो, आपने जिसके लिए बुलाया मैं तैयार हूँ। नहीं-नहीं ये कार्य बाद में होगा। वनराज कहता है-डरो मत मेरे साथ चलो। जैसी आपकी आज्ञा। आपके सामने हम क्या कह सकते हैं? हम तैयार हैं। हम यहाँ से जायेंगे नहीं। अच्छा ये बताओ जाना कहाँ पर है? जो बड़ा था उसे आगे होना चाहिए। लेकिन बुद्धि का ऐसा प्रभाव रहता है, वह खरगोश आगे-आगे हो गया और वह शेर पीछेपीछे हो गया, अभी कितनी दूर है? महाराज अभी पास ही है। चल-चल जल्दी चल। यहाँ तो कुछ नहीं दिख रहा है, ऐसे नहीं दिखता महाराज ।आवाज नहीं आ रही है, ऐसी अभी आवाज नहीं आयेगी क्योंकि अपने-अपने क्षेत्र में हम पहुँच जाते हैं। आवाज प्रारम्भ हो जाती है, अपने-अपने महल में ये सब कार्य होता है। अपने-अपने वार्ड में ये सब कार्य होता है, अपने पक्ष के सामने ही ये सब कुछ कहा जाता है। जब विपक्ष आ जाता है, तो पक्ष बलवान हो जाता है। यह सब हमेशा तुलनात्मक चलता रहता है। चल जल्दी बता वो कहाँ पर है? इधर आइये वह कुंए के किनारे पर गया। महाराज धीरे से देखना, क्यों धीरे से देखें? तो उधर से आवाज आती क्यों धीरे से देखें? तू कौन है? अन्दर से आवाज आती है तू कौन है? मैं बोल रहा हूँ इधर आओ, फिर आवाज आती है मैं बोल रहा हूँ इधर आओ। ये जैसी आवाज देता है वहाँ से भी वैसी आवाज आती है। आप थोड़ा सा झुक करके देख लीजिए, झाँक लीजिए वो दिखेगा। तो वह झाँकता है। भीतर झाँकने के उपरान्त वस्तुत: उसमें कोई भी अंतर नहीं था। जैसा ये यूँ झाँकता, तो कुंए में जैसी उसकी मूंछे, वैसी उसकी मूंछे, ये भी तनी हुई, तो वो भी। ये भृकुटी चढ़ाकर देखता तो वह भी भूकुटी चढ़ाकर देखता। एक्शन में कोई भी अंतर नहीं। गुस्सा आ जाता है और आप लोगों को ज्ञात है, बुद्धि तब तक काम करती है, जब तक होश हवास रहता है।

     

    जब व्यक्ति क्रोध, आवेश में आ जाता है तो पारा गरम हो जाता है और गरम पारा होने के उपरान्त ठंडा होना मुश्किल होता है। बुखार नापने का थर्मामीटर होता है। गर्मी के कारण उसका पारा चढ़ जाता है। उतारने के लिए झटका मारना पड़ता है। शेर का भी पारा गरम हो गया प्रतिपक्षी को देखकर छलांग लगा देता है। खरगोश मौन है, वह जान रहा है कि वहाँ पर न पक्ष है न विपक्ष है, मात्र अपनी छाया को ही प्रतिपक्षी समझ रहा है। जब अपनी छाया, शत्रु रूप में दिखने लग जाय तो विनाश निश्चत है। कौन-सी कक्षा में? दूसरी कक्षा में, छोटी कहानी यह पढ़ी थी।

     

    वह छोटा सा खरगोश और वह सिंह। यह मृग है, वह मृगराज है, वन का राजा माना जाता है। प्रजा की अपनी बुद्धि हुआ करती है। जब कभी भी पुराण उठाते हैं तो पढ़ने में आता है कि जब राजा प्रजा को सताने लगता है तो प्रजा मिल कर राजा को शिक्षा देती थी और नहीं मानता था तो राजगद्दी से उतार देती थी। प्रजा के प्रतिकूल नहीं चल सकता, राजा प्रजा पर अनुशासन जरूर रख सकता है। राजा प्रजा के हित की बात सोचे और प्रजा राजा की आज्ञा स्वीकार कर अनुशासन में रहे तो देश में सुख समृद्धि रह सकती है।

     

    एक-दूसरे के होकर के हम अपना कार्य कर सकते हैं। दोनों आँख के सहयोग से कार्य होता है। एक आँख दूसरी आँख के लिए सहयोग दे रही है। उधर की आँख इधर नहीं आ सकती है क्योंकि बीच में एक दीवार है। पहले से एक बॉर्डर है। इसका उल्लंघन नहीं कर सकती। उल्लंघन नहीं करते हुए भी एक दूसरे को सहयोग तो दे सकती है। यह अनिवार्य है। प्रजा हमेशा सहयोग देती चली जाती है। 

     

    प्रजा सोचे अपनी सीमा क्या है? कहाँ तक हम सहयोग दे सकते हैं? किसको दे सकते हैं? आज इसको भूल जाते हैं। उसका परिणाम है यह भारत राष्ट्र आज जो उन्नति की ओर बढ़ना चाहिए वह दिनों-दिन अवनति की ओर चला जा रहा है। स्वतन्त्र होते हुए भी वस्तुत: और पर-वश सा होता जा रहा है। उसमें कारण, बुद्धि का सही समय पर सही प्रयोग नहीं करवा रहे हैं। बुद्धि किसी के पास कम है, यह मानने के लिए मैं तैयार हूँ लेकिन जब तिर्यचों के पास में इस प्रकार की सूझ बूझ हो सकती है और वह राजा के लिए अपना महत्व क्या है वह दिखा सकता है, तो यह मनुष्य होकर क्यों नहीं दिखा सकते? हम पुराणों को पढ़ते हुए आते हैं, प्रणाली के वह संस्कार भारतीय मनुष्य के ऊपर हैं। अभी आप महावीर भगवान् की बात कर रहे थे। कभी आप आदिनाथ, पाश्र्वनाथ की बात करते हैं। उससे पूर्व में भी यही बात की जाती थी, वेद-पुराण इन बातों से भरे हुए हैं। यह भी हम कहते हैं और बताते हैं और गौरव का अनुभव करते हैं। मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जिस कार्य के लिए ५० वर्ष हो गये लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकल रहा है क्योंकि नीचे की ओर होता चला जा रहा है। माइनस में जाना, कोई समझ में नहीं आ रहा है, एक नम्बर नहीं आता कोई बात नहीं, लेकिन माइनस तो नहीं आना चाहिए।

     

    लेकिन हम समझते हैं कि माइनस में सही कम से कम हैं, यही धारणा गलत है। पहले एक कक्षा से प्रारम्भ हो जाता था, लेकिन आज एक कक्षा के ४ माइनस श्रेणी वन टू श्री फोर इसके बाद प्रथम कक्षा यानि इतना गुजरना आवश्यक है। वह क्यों हो रहा है? आप ८ वर्ष से पहले स्कूल में पहुँचाना चाहोगे तो एक कक्षा के ४ पाठ करना ही होंगे, माइनस से शुरू होती प्रारम्भिक शिक्षा।

     

    ५० वर्ष हो गये, बुद्धि का विकास होना चाहिए था। लेकिन यह विकास नहीं है, बल्कि हमारा लड़का पढ़ने के लिए चला जायेगा तो बहुत जल्दी होशियार होगा। ये गलत धारणा है। उसका जो बल है, ज्ञान बल है वह ८ वर्ष से ही प्रारम्भ होता है। सोच समझ ७ वर्ष में भी हो सकती है, लेकिन एक दम ही दो तीन वर्ष के उपरान्त पढ़ना प्रारम्भ कर दो, नहीं हो सकता। समय पर सहीसही करना चाहिए। मैं यह कहना चाह रहा हूँकि प्रजा और सत्ता दोनों होने के उपरान्त भी आज प्रजा अपने दायित्व से परिचित नहीं हुई या होने का प्रयास ही नहीं किया। उसका परिणाम यह हम देख रहे हैं। जिसके लिए स्वतन्त्रता मिली थी, उसके लिए कुछ प्रयास किया जा रहा है कि नहीं ये भी समझ में नहीं आ रहा है। उस समय राजा के साथ जो मंडली रहती थी वो राजा तो नहीं लेकिन राजमंडली अवश्य कहलाती थी। राजा को सही निर्देशन देती थी। लेकिन आज प्रजामंडली है कि राजमंडली है, समझना बहुत कठिन हो गया। आज तो अनेकों पार्टी बन रही हैं लेकिन इतनी पार्टी की क्या आवश्यकता है। आज संघर्ष चल रहा है और ऐसा संघर्ष चल रहा है कि १३-१३ घंटे बहस चलती है संसद में, परिणाम कुछ नहीं निकलता। लेकिन इतने घंटों की कोई आवश्यकता नहीं है। उलझते चले जा रहे हैं।

     

    कुछ समझ में नहीं आता। पक्षी के पास यदि दो पंख रहते हैं उसकी यात्रा बहुत जल्दी और बहुत दूर तक रहती है, यदि पक्षी के पास पंख और ज्यादा हो जायें तो फड़फड़ाने की वहाँ पर गुंजाइश ही नहीं होती और वह पक्षी उड़ भी नहीं सकता। भारत की शासन मंडली भी ऐसी ही हो रही है। जितने पंख उतना ही पक्षी के लिए खतरा। यदि पक्षी उड़ नहीं सकता तो उसको कोई दबोच सकता है। बिल्ली तो इधर उधर घूम ही रही है। अब चूँकि पंखों के कारण वह बिल्ली पास नहीं आ रही। लेकिन पंख फड़फड़ाते-फड़फड़ाते यदि टूट गये तो बिल्ली तो खड़ी ही है। दो ही पक्ष हो जाते हैं, तो बहुत ही अच्छा है, यहाँ पर दो पक्ष आ जाते हैं। ध्यान रखना, एक पक्ष दूसरे पक्ष को काम दिये बिना चल नहीं सकता। आज तक कोई पक्षी एक पंख के ऊपर उड़ नहीं सका, धीरे-धीरे मैं वहाँ पर आ रहा हूँ जहाँ पर आपको आना है। बहुत दूर काल की अपेक्षा होने के बाद वहाँ पर नहीं आ पाये, ये हम लोगों की कमजोरी माननी चाहिए।

     

    तो जब वह खरगोश यह सोचना प्रारम्भ कर देता है। जो व्यक्ति अपना स्वभाव नहीं जानता। जो व्यक्ति अपनी वस्तु क्या है, पहचानने की कला नहीं रखता, उस व्यक्ति को कभी भी मौत के कमरे में ढकेल दिया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति ढकेला जा सकता है और आज आप सभी मौत कूप के किनारे हैं और लाया गया है आपको, आप स्वयं नहीं गये और आपकी कमजोरी के कारण यहाँ तक आने का यह अवसर प्राप्त हुआ। एक व्यक्ति ऐसा है जो पीछे पड़ा है, जो आपको अपना परिचय दिलाना चाहता है लेकिन आप अपने से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। अपनी शक्ल को देखने के उपरान्त भी यह मेरी शक्ल है, यह तक जिसे ज्ञान नहीं, वह व्यक्ति कभी भी राजा नहीं बन सकता। वह राजा होते हुए भी निश्चत रूप से मौत के कुंए में गिर जायेगा। सिंह को ओवर कान्फिडेन्स था। मैं इतना बलवान हूँसबको दबोच दूँगा। मेरे हाथ में सत्ता है, सबको आना पड़ेगा और इसी आवाज के बल पर, क्रमश: सारे के सारे आते चले गये मौत कूप मैं । वो चले गये और सबको निर्बल बनाया गया। लेकिन उसकी वह नीति उसको ही खा गयी। एक खरगोश ऐसा पैदा हुआ जिसने बुद्धि से काम लिया, जिसने चतुराई से काम लिया, जिसने धैर्य रखा। जहाँ पर बुद्धि है, जहाँ पर कर्तव्य है वहाँ पर निश्चत रूप से विजय हो सकती है, होती है। लेकिन ये ध्यान रखना आप एक पक्ष को समृद्ध बनाने का प्रयास करेंगे, तो आप लोग खरगोश की नीति नहीं समझ पायेंगे।

     

    जिस व्यक्ति को आप भेज रहे हैं, वह व्यक्ति अपना राष्ट्र है, यह नहीं समझता है और अपनी कुर्सी की ओर मुँह करता है। कुर्सी कोई अपनी नहीं हुआ करती है, कुर्सी के पास दो पैर नहीं, ४ पैर होते हैं। ध्यान रखो ४ पैर वाले के ऊपर बैठा जाता है। आप दो पैर वाले हैं, ४ पैर वाले के ऊपर बैठना चाह रहे हैं सोचना चाहिए। आपको। वो कभी भी गिर सकता है, उसके पास कोई बैलेन्स नहीं। दो पैर वाला ही बैलेन्स रखता है। ४ पैर वालों के पास अपना कुछ बैलेन्स नहीं है और एक-एक कम कर दो तो निश्चत रूप से कुर्सी गिर जाती है। आज यही बातें हो रही हैं १३ घंटे योजनाएँ बनती हैं। पहले तो चुनाव के लिए खड़े हो जाते हैं फिर चुनाव जीतने के बाद बैठने की बात करते हैं। ये समझ में नहीं आता चुनाव के लिए खड़े हैं तो बैठना नहीं चाहिए खड़े रहना चाहिए। वह पद है, उसके माध्यम से कुछ कार्य किया जाता है, बैठकर के कार्य ठीक नहीं हुआ करता है। कार्य जो किया जाता है वह बुद्धि के माध्यम से कार्य किया जाता है। सिंह को यह भी ज्ञान नहीं था कि यह मैं ही हूँ या मेरा केवल प्रतिबिम्ब है, प्रतिछाया है, उस छाया की भी पहचान नहीं की। सबसे ज्यादा मूर्ख निकला वह मृगराज जो वह मौत के कूप में गिर गया, गिर नहीं गया उसको गिराया गया। गिराने वाला कौन है, गिरने वाला कौन है? यह देखने की बात है। कितनी युक्ति के साथ उसने जंगल के जीवों को बचा लिया। ये दूसरी कक्षा में लिखने की आवश्यकता थी। हमेशा इन छोटी-छोटी कक्षाओं के बारे में सोचता हूँ। ये दूसरी कक्षा में लगाने योग्य नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानियों को शिक्षा देने वाली कथा है खरगोश इस प्रकार का कार्य कर सकता है और खरगोश की कथा के ऊपर बड़े-बड़े शोध हो रहे हैं। लेकिन राष्ट्र को बचाने की हिम्मत किसी भी खरगोश के पास नहीं है।

     

    एक से एक मृगराज भी पशुओं का भक्षण करते जा रहे हैं और प्रजा है देखती जा रही है। 'यथा राजा तथा प्रजा' की युक्ति आप लोगों को ध्यान में लानी थी। राष्ट्र के हित में आप लोगों का कहाँ तक हित है, विचार है, प्रयास है, जिनको चुनकर भेज दिया उनको सोचना चाहिए। चुनाव राष्ट्र के हित में है, मैं नहीं मानता। जिस राष्ट्र में गुणों का, योग्यता का योग्य व्यक्ति द्वारा मूल्यांकन नहीं होता, वह राष्ट्र तीन काल में उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति का कारण कभी पैसा/धन नहीं हुआ करता। बिलिंडग आप बनाते चले जाओ, ये उन्नति का मार्ग नहीं है क्योंकि प्राचीन काल में बिलिंडग में शिक्षण नहीं हुआ करता था। ऐसे क्षेत्र हैं, ऐसे पेड़ हैं, पेड़ के नीचे ऐसी नीति दी जाती थी जो बड़ेबड़े राष्ट्र को चलाने की हिम्मत उनके पास आ जाती थी। चाणक्य की नीति और उसकी चोटी और चोटी की गांठ बस यह पर्याप्त था भैया! यह गांठ खुल नहीं सकती जब तक कार्य नहीं होगा। आज तो चोटी ही नहीं, फिर चोटी के विद्वान कहाँ से बनेंगे। चोटी के विद्वान क्यों कहा जाता है? चोटी का विद्वान का अर्थ – इतना करके ही चोटी की गाँठ खोलूगा, ऐसा संकल्प लेते थे। उस गाँठ में ऐसी शक्ति रहती थी। जब कभी आप पहचानेंगे गाँठ के माध्यम से देख सकते हैं। उसने एक बार ठान लिया तो उसको समाप्त करना जिसकी नियत बुरी है, यही है नीति।

     

    आज प्रत्येक राजनेता चाणक्य नीति नहीं समझ पा रहा है। चुनाव की नीति आ जा रही है। बार-बार मेरे पास आकर के कहते हैं ये पक्ष वाले, ये विपक्ष वाले, दोनों मिलकर के राज्य चला रहे हैं। त्रिशंकु सरकार देश को चला रही है। तीन-तीन पक्ष विपक्ष मिलकर देश की कुर्सी पर बैठे हैं, कुर्सी तो टूटेगी ही। ये बात समझ में नहीं आती है। उस खरगोश के समान आज की यह प्रजा हमेशा-हमेशा जागृत रहनी चाहिए कि जिसको हमने आगे चुन करके आज भेजा है वह किस ढंग से काम कर रहा है? उसने अपने बल/बुद्धि पर पूरे-पूरे वन के जीवों को उजड़ने से बचा लिया, उसने चतुराई के साथ अपने बचाव के साथ-साथ दूसरे को भी बचा दिया।

     

    आज इस नीति की आवश्यकता है। राष्ट्र स्वतन्त्र हुआ, उसमें जितने भी प्राणी हैं, वे सुख शान्ति स्वतन्त्रता के साथ जी सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। ५o वर्ष के बाद उसको समृद्ध बनाने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन दिनोंदिन वह अवनति/माइनस की ओर चली जा रही है। अब कब यह उत्थान करेगा? कौन-सा व्यक्तित्व आयेगा? कौन सा ऐसा समय आयेगा? एक व्यक्ति के द्वारा काम नहीं होने वाला क्योंकि यह सारी प्रजा मिल करके देश को उन्नत कर सकती है। आज तो देश को उन्नत बनाने वाले अहिंसा धर्म को समाप्त करके देश को उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके बलबूते पर बुद्धि, चारित्र, जीवन यापन होते हैं, उन्हीं को आज समाप्त किया जा रहा है। एक दिन में लाखों बड़े-बड़े जानवरों का सरेआम गला घोंटा जा रहा है। सुनने में ऐसा आता है मांस यहाँ पर नहीं खाया जाता, जीवों को मारकर मांस निर्यात किया जाता है और ये भी बात है कोई भी मनुष्य केवल मांस पर जिंदा नहीं रह सकता, लेकिन आज केवल मांस पर जिंदा रहने का प्रयास चालू हो गया है। खाकर के नहीं। जैसे कहा था अन्न प्राण है।

     

    भारतीय साहित्य में १२ प्राण माने गये हैं। वहाँ पशुधन १२वाँ प्राण कहा गया है, परन्तु तुच्छ मुद्रा रूप धन के लिए अच्छे-अच्छे जाति के जानवरों का कत्ल किया जा रहा है और उसमें से मांस निकाल करके उसको निर्यात किया जा रहा है। यह व्यवसाय की बात कुछ समझ में नहीं आती है। यह भक्षण की बात नहीं, यह व्यवसाय की बात है और व्यवसाय का यदि यह विषय बन गया तो यहाँ पर बहुत जल्दी तूफान आ सकता है। जिसके माध्यम से व्यवसाय चल रहा, वह सब जब समाप्त हो जायगा उस समय क्या होगा? जो जिसके लिए नियुक्त है, वह व्यवसाय का साधन तो नहीं बन सकता किन्तु आज व्यवसाय का साधन ये बना लिया। बड़े-बड़े जानवरों को कत्ल करके भेजा जा रहा है। चर्चा चल रही है कि दुधारू गायें कब तक दूध देती हैं? इन पर रिसर्च चल रही है, शोध चल रहे हैं। कितनी ये दूध दे सकती हैं, ज्यों ही वह दूध बंद कर दे उसको कत्ल कर देना क्योंकि उनको उसके माध्यम से पैसा लाना है और पुन: बेचने में पैसा लगाना है। वैज्ञानिक लोग भी त्रस्त हैं और इसके साथ-साथ ये सोचना चाहिए जिसके जीवित रहने मात्र से प्रकृति में एक अलग ही वातावरण बन जाता है, प्रदूषण खत्म हो जाता है। गाय बैल जिस समय घर लौटे वह समय गोधूलि कहा जाता है। संतों की प्रासुक भूमि इन्हीं के माध्यम से बनती है। मूलाचार में कहावत है, जब गाय, ऊँट, बैल, भैंस चलना प्रारम्भ कर दें तो जमीन प्रासुक हो जाती है। इसके बाद हम चले। इनकी धूल के माध्यम से अपने आप वातावरण शान्त हो जाता है लेकिन आज पहले से उनको समाप्त कर दिया जाता है। जहाँ कहीं भी एक चित्र हम देखते हैं, जिसको वृषभ अवतार बोलते हैं। जिनके माध्यम से दूध मिलता है, कृषि होती है, जिनके माध्यम से माँ की याद आ जाती है। जन्म देने वाली माँ मनुष्य को जन्म भर दूध नहीं पिलाती, जन्म भर दूध पिलाने वाली कौन सी माँ है? वही गाय है, वही बकरी, भैंस है, जिसका दूध पीकर भारत का संचालन कर सकते हैं, नेतृत्व की भी क्षमता रखते हैं और बड़े वैज्ञानिक हो सकते हैं, संत हो सकते हैं, जिनके माध्यम से युग को दिशा बोध प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार के जानवर को यूजलेस (अनुपयोगी) कहकर काटना वैज्ञानिकता नहीं हो सकती। बात कुछ समझ में नहीं आ रही, इसकी ओर कोई भी व्यक्ति या सरकार का ध्यान नहीं है।

     

    कत्ल करके मुद्रा को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए इस बात को बार-बार मैं कह चुका हूँकि व्यवसाय अलग वस्तु है और निर्वाह अलग वस्तु है। व्यवसाय आपके लिए और भी हो सकते हैं, ऐसा कोई भारत ने ठेका नहीं लिया कि जो मांसाहारी है, उनके लिए मांस पूर्ति करना चाहिए। यह सम्भव भी नहीं क्योंकि बहुत सारे राष्ट्र हैं जो मांसाहारी हैं, ये पूर्ति तीन काल में संभव नहीं। भले ही छोटा क्यों न हो पर खरगोश की जाति/बुद्धि का हो, और जो कुर्सी पर बैठे हैं, बिठाया गया है दो पैर वाले हैं, उनको समझा दें, जो व्यक्ति अपना अपनत्व नहीं समझता है उस व्यक्ति को किस ढंग से समझाया जा सकता है। राष्ट्र किस बलबूते पर जीवित रहेगा, इसको भी देखना आवश्यक है। जिस पर हम खड़े हैं यदि उसको उखाड़ देंगे तो हमारा जीवन निश्चत रूप से धराशायी हो जायेगा। जो भी पशु पक्षी हैं वह राष्ट्र के अंग माने जाते हैं। बुद्धि के विकास के लिए कुछ ऐसे भी कलरव सुनना चाहिए। कवि जब कभी भी कविता लिखता है, वह अपनी बुद्धि से प्रकृति की गोद में बैठकर लिखता है। वह सागर के तट पर उस आवाज को सुनता है, यदि कल-कल करके नदी बह रही है, उसके तट पर बैठते हुए उसको निहारते हुए अपने आप उस भावों को व्यक्त करता है। उसमें अलग ही प्रकार का अनुभव शब्द के माध्यम से आता है।

     

    युगों-युगों तक उस प्रकृति की गोद में बैठ करके लिखा हुआ वाक्य युग को दिशा बोध देने में सक्षम है। प्रकृति की गोद में रहने वाले ये सारे के सारे जीव जन्तु हैं, इससे आप लोगों को बल मिलता है। आप उस बल को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करें और उसके लिए अच्छे खाद्य-पानी का सेवन करें, अच्छे वातावरण में रहकर विचार करने का प्रयास करें। निश्चत रूप से आपकी बुद्धि विश्व के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सकती है। यहाँ से ही विश्व को आज तक स्रोत मिले लेकिन आज ये स्रोत मिट्टी से ढकते चले जा रहे हैं। अब वह स्रोत युगों-युगों तक खोदने से मिलने वाले नहीं हैं। सबसे बड़ी हानिकारक सिद्ध हो रही है वह हिंसा जो दाम के लिए, अर्थ के लिए, करोड़ों की तादाद में बड़े पैमाने पर बढ़ती जा रही है।

     

    प्रत्येक प्रजा का, प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है, प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है, उन व्यक्तियों तक, उन कानों तक यह आवाज पहुँचाने का प्रयास करें कि सरकार क्यों बाध्य होकर कत्ल करने की अनुमति दे रही है? किसको दे रही है? किसलिए दे रही है? इसके पीछे क्या सही है? इसके बारे में आप लोगों को सोचना चाहिए। एक गाय यदि मर जाये उसके लिए प्रायश्चित ग्रन्थ में दण्ड के लिए कहा गया। कोई अपराध या चोरी करता है तो उसके लिए दण्ड में तुम ५० गायें दो,५० बैल दो ये कहा जाता था। आज वो पंक्ति देखने से ऐसा लगता है गाय इतनी महत्वपूर्ण थी कि जिसके प्रति तुमने अपराध किया वह गायें पाकर अपने को धन्य मानेगा और तेरे यहाँ से गायें चली जायेंगी, यह अपशकुन तेरे लिए सजा है। उस अपराध को दूर करने के लिए गायें-बैलों को दिया जाता था, जीवित धन माना जाता था। उसको बेचा नहीं जाता था, उसके माध्यम से प्रकृति में एक माहौल तैयार किया जाता था। लेकिन उसी को दण्डित किया जा रहा है, बल्कि उसी को समाप्त किया जा रहा है, अब प्रायश्चित ग्रन्थ दुबारा लिखना पड़ेगा। लेकिन कहा जाता है कि कोई कानून/ग्रन्थ लिखा जाता तो कानून को कानून माना जाता है। अब हम कौन से दण्ड दें? सामने देख रहे हैं, वो भी राजा के माध्यम से हो रहा है, जिसको आपने योग्य बना करके भेजा। जो व्यक्ति इस प्रकार की अनुमति दे रहा है तो क्या आप इसके समर्थक हैं?

     

    केवल मांस निर्यात बंद हो, इस आवाज को केवल आवाज के रूप में नहीं, उनको सोचने के लिए बाध्य होना पड़े इस प्रकार का मार्ग अपनाया जा सकता है। जंगल में एक खरगोश के माध्यम से हो गया जीवों का बचाव। मैं आवाज लगा रहा हूँ, इन्तजार कर रहा हूँ कोई खरगोश के समान अपनी युक्ति इन मूक प्राणियों को जीवन दान देने में लगाए। एक अंतिम समय वह आयेगा, इसके कारण अपने आप ही सोच समझ में आयेगा कि हमने हिंसा की दिशा में जो कार्य किया यह ठीक नहीं किया। मुगल साम्राज्य में भी इसको स्वीकार नहीं किया गया। एक लेख पढ़ा थाकश्मीर के जो शासक हुए हैं उन्होंने भी गाय, बैल, भैंस के मांस के लिए व्यवसायीकरण की स्वीकृति नहीं दी थी। किसी भी शासक ने मांस निर्यात के माध्यम से भारत को समृद्ध बनाने का प्रयास नहीं किया। बहुत सारे व्यवसाय के मार्ग हैं/साधन हैं उनके माध्यम से हम कर सकते हैं और मैं इसलिए कह रहा हूँकि धर्म का यदि कोई चिह्न है और मूल है तो एक मात्र अहिंसा और दया है। दया के अभाव में धर्म कोई भी नहीं माना जाता। दया ही धर्म का मूल है और जो कुछ भी है वह पाप का मूल है। इसलिए सत्य बोलना, चोरी नहीं करना आदि-आदि सारे धर्म इसी एक मात्र दया धर्म के लिए हैं और इसी के ऊपर इसकी प्रतिष्ठा है। यदि हम सत्य को धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तो मूल में दया होना अनिवार्य है। उसी प्रकार अचौर्य को हम प्रतिष्ठित करते हैं तो दया होना पहले अनिवार्य है, अपरिग्रह को भी हम प्रतिष्ठित करते हैं। महावीर भगवान् का यह प्रतिष्ठित धर्म माना जाता है लेकिन यह ध्यान रखना, यह दया के ऊपर आधारित है। परिग्रही व्यक्ति कभी भी पूर्ण दया का पालन नहीं कर सकता है। जो परिग्रह तिल तुष मात्र नहीं रखता है वह व्यक्ति दया का भंडार हो जाता है, दया का सागर हो जाता है और उसके बिना दुनियाँ को उपदेश प्राप्त नहीं होगा, ऐसे में दया निश्चत रूप से मौन रहते हुए भी उसके पास बहुत शक्ति है। यह वात्सल्य अंग उसी की एक देन है, दया के बिना वात्सल्य नहीं होता है। मोह के द्वारा जो वात्सल्य आता है, वह वात्सल्य नहीं स्वार्थ परायण वात्सल्य माना जाता है लेकिन धर्म परायण व्यक्ति ही वत्सल होता है, वह दया के ऊपर ही आधारित रहता है। धार्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन की चर्चा होती है, वह सम्यग्दर्शन दया के द्वारा ही प्रतिष्ठित हो सकता है। मूल के अभाव में जिस तरह वृक्ष नहीं, फल नहीं, फूल नहीं, पते नहीं, छाया नहीं उसी प्रकार दया धर्म के अभाव में कोई धर्म नहीं। दया जैसे-जैसे घटती चली जा रही है। यदि मूल हिलता चला जाय, फिर कितना ही प्रौढ़ वृक्ष ही क्यों न हो, वह धराशायी हुए बिना नहीं रह सकता है। जिसकी जड़ों में ढिलाई आ गयी, थोड़ा सा झोंका आ जाता है, गिर जाता है। आज की सत्ता क्यों गिर जाती हैं क्योंकि उसका मूल का पता ही नहीं है। इतना बड़ा राष्ट्र है, कितने बेलेन्स की आवश्यकता है। यदि भारत को जीवित रूप में रखना चाहते हो, प्राचीनता के साथ तुलना करना चाहते हो तो दया धर्म को तुम जीवित रखने का प्रयास करो। धर्म कभी भी अपने आप जीवित नहीं रह सकता। धर्मात्मा ही धर्म को रख सकता है और धर्म के कारण धर्मात्मा रह सकता है। धर्म के कारण ही धर्मात्मा कहलाता है।

     

    आप धनिक कहलाते हैं, आपके वजह से धन नहीं है, धन की वजह से आप धनिक हैं, यदि वह धन नहीं है, तो आप यहाँ पर बैठ नहीं सकते। १२ प्राण सुरक्षित होना चाहिए तो ११ प्राण आप सुरक्षित रख पाते हैं। मांस भक्षी भी सोच रहे होंगे कि भारत इतना पागल हो गया है, इसकी बुद्धि कहाँ चली गयी है? हमारे मांस के प्रति स्वयं के धन को नाश करके हमारे लिए खुश करने का प्रयास कर रहा है और बदले में क्या ले रहा है? समझ में नहीं आ रहा है। बदले में आपको क्या मिल रहा है? इतने कत्ल होने के बाद आज केवल ढाई या तीन अरब की राशि प्राप्त हुई है भारत को, जब करोड़ों की हत्या हो चुकी है। अगले दिनों में ५ अरब तक पहुँच सकता है। केवल ५ अरब के लिए यानि इतनी छोटी राशि के लिए इतने जानवरों की हत्या? हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आप बिल्कुल कटिबद्ध हो जाइये, थोड़ा जोश के साथ।


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