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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • समागम 5 - काया - कल्प

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    सुना या पढ़ा था और देखने की भावना थी और आज सुनी हुई, पढ़ी हुई बात देखने में आ गयी। हम सारे असिद्ध हैं, किसी काम के नहीं। हाँ, यदि जो सिद्ध हो गये उनकी खोज, उनकी गवेषणा करना चाहते हैं तो हमारा जीवन भी सार्थक हो सकता है, हमारा जीवन भी धन्य हो सकता है। पहले का समय था कोई तीर्थ वन्दना के लिए निकलता था। परिवार को बता कर चला जाता कि हमारी कोई चिन्ता नहीं करना। वर्षों लगते थे सम्मेदशिखर जी आदि तीर्थों की वन्दना करने के लिए और यदि कोई वन्दना करके सकुशल आ जाता था तो वहाँ की जनता उसके चरणों को धोकर चरणामृत के रूप में अपने सिर पर लेकर उनकी आरती उतारती थी और खुशी मनाती थी क्योंकि वहीं पर अपने जीवन की साधना पूरी करके जिन आत्माओं ने सिद्धत्व प्राप्त कर लिया उस स्थान को भी छूना एक प्रकार से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने की भावना व्यक्त करना है। यह नर्मदा सार्थक नाम वाली है। नरम का अर्थ संस्कृत में होता है सुख-शांति, ‘नरमं सुखं”।


    ध्यान के बड़े-बड़े ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि जो व्यक्ति ध्यान करना चाहता है उसमें अपनी आस्था, रुचि, तत्व के प्रति श्रद्धा आदि-आदि तो होना ही चाहिए तथा उसके साथसाथ यह भी कहा जाता है कि जहाँ पर सिद्धपद को प्राप्त कर लिया वह स्थान अपने आप में निर्विकल्प योग साधना के लिए साधकतम् माना जाता है। इस नदी का उद्गम स्थान अमरकंटक माना जाता है। दो वर्ष पूर्व मैं वहाँ पर भी गया था। कुछ ही कोसों के उपरान्त उसकी विराटता यहाँ पर ज्ञात हो जाती है। शास्त्र भरे हुए हैं रेवातट पर सिद्धि प्राप्त करने वालों से। जिनकी योग साधना पढ़कर ज्ञात हो जाता है कि साधना कैसे की जाती है। बताते नहीं, करके दिखा देते थे। नदी का प्रवाह हमेशा-हमेशा आगे की ओर बढ़ता चला जाता है। इस तट के ऊपर बैठ कर जो व्यक्ति योग साधना करना चाहता है उसका मन अपने आप ही देखते-देखते स्थिर हो जाता है। ध्यान करने वाला भी मन है और ध्यान में विध्न डालने वाला भी मन है। ध्यान द्वारा संसार का भी संपादन होता है तो ध्यान द्वारा मुक्ति का भी संपादन होता है। एक ध्यान सोपान का कार्य कर जाता है तो एक ध्यान मदिरापान का। एक ध्यान के माध्यम से हम गिर जाते हैं, एक ध्यान के माध्यम से हम उन्नत हो जाते है, आगे बढ़ जाते हैं। तटों के ऊपर यदि चिन्तन करें तो चिन्ता अपने आप ही भंग हो जाती है और उस चिन्तन में चेतना लीन होती चली जाती है। हम इधर-उधर देखते हैं तो हमारी शक्ति का व्यय हो जाता है और हम उस तट की ओर बैठ करके नदी के प्रवाह को देखते हैं तो ऊर्जा अपने आप ही प्रारम्भ हो जाती है, गति बढ़ती चली जाती है, प्रगति हो जाती है और उन्नति हो जाती है। आप लोगों ने देखा होगा कभी नदी भटकी हुई सी लगती है, कभी नदी कुण्ड का रूप धारण कर लेती है, कभी पत्थरों से टकराती है, कभी निर्जर के रूप में पहाड़ों से बहती है। कभी मैदानों में कभी गाँव-नगरों के किनारे से बहकर संदेश देती रहती है। लेकिन कभी नदी को डर के मारे लौट कर वापस जाते हुए देखा आपने ?


    मानव को थोड़ी सी कठिनाई का अनुभव हो जाता है तो वह अपना रास्ता बदलने लग जाता है। यह निश्चत है कि पाँच पापों के कीचड़ में सांसारिक प्राणी अटक जाता है। भटक जाता है। दलदल में फैंस जाता है। विशालकाय हाथी महान् शक्ति सम्पन्न होता है किन्तु एक बार दलदल में फेंस जाये तो उसे निकालने के लिए दो हाथी भी आ जायें तो वे भी फैंस जाते हैं। वह दलदल उन्हें पाताल की ओर लेता चला जाता है। पाप भी एक महान् दलदल माना जाता है। उस पाप के दलदल के कारण संसारी प्राणी अपने आपको आज तक ऊपर नहीं उठा पाया है। एक पैर उठाया तो, दूसरा पैर पाताल की ओर चला जाता है, उस पैर को उठा नहीं सकता क्योंकि एक पैर जमाना अनिवार्य होता है फिर बाद में एक पैर उठ सकता है। दोनों पैरों तले कीचड़ रहेगा तो हम उठ नहीं सकते और यदि कोई उठाने आ जाये तो वह भी उसमें फंसता चला जायेगा। मक्खी जैसे कफ में अटक जाती है तो वहीं की वहीं छटपटाती हुई मर जाती है। क्षणिक सुख के लिए संसारी प्राणी अनन्त बार शरीर को धारण करता हुआ मरण को प्राप्त कर चुका है। पवित्र पावन नर्मदा के तट पर भी आकर सिद्धों की आराधना करना भूल गया। बहुत दूर-दूर से साधक लोग आते हैं और उन तटों पर बैठ के सिद्धों की आराधना करना प्रारम्भ कर देते हैं। वह सौभाग्य आज तक अतीत काल में हम लोगों को प्राप्त नहीं हुआ, नहीं तो हम सिद्ध बन जाते। हम मंजिल को प्राप्त कर लेते। तब हम लौट कर नहीं आते लेकिन लौटना इसलिए कर चुके क्योंकि हमने उस साधना को नहीं अपनाया। करोड़ों-करोड़ों यहाँ पर सिद्धत्व को प्राप्त हो रहे हैं तो हमारे लिए यह स्थान वरदान सिद्ध क्यों नहीं हो रहा? भावना भवनाशिनी मानी जाती है। यदि हम पवित्र भावों के साथ आ जाते हैं तो तीर्थ का महत्व समझ में आ सकता है, यदि लौकिक ही भाव लेकर आते-जाते हैं तो वह तीर्थ प्रत्येक को तट नहीं दिखा सकता। मंजिल सभी को नहीं दिखा सकता किन्तु उसी को दिखा सकता है जिसके भाव उस मंजिल को पाने के होते हैं।


    सोना, पाषाण में रहते हुए भी उस पाषाण से पृथक अपने आप में होता है। दूध में घृत होते हुए भी अपने आप अलग नहीं हो सकता। तिल में तेल होते हुए भी अपने आप बाहर नहीं आ सकता। इन तीनों को संघर्ष की आवश्यकता होती है। शरीर में आत्मा है अपने आप ही परमात्मा नहीं बन सकता। परमात्मा बनने की एक विधि होती है, एक पद्धति होती है। उस पद्धति से वह परमात्मा बन सकता है लेकिन तब जब वह, जहाँ-जहाँ पर विदेह बन चुके हैं, सिद्ध बन चुके हैं परमात्मा पद को प्राप्त कर चुके हैं उस क्षेत्र पर जाकर थोड़ी देर बैठ करके चिंतन करता है, तब अवश्य ही वह भाव उसमें उभर कर आ जाता है।
     


    यह भी हमारे लिए आय का एक स्त्रोत बन गया। आत्मोन्नति के लिए साधन बन गया। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सोपान का काम कर जाता है। तीर्थ क्षेत्र जहाँ आप बैठे हैं उसका महत्व आज ज्ञात नहीं होगा, मैं बताना चाहूँ तो बता नहीं सकूंगा, आप सुनना भी चाहें तो भी बताया नहीं जा सकेगा। एकमात्र जानने की बात है, समझने की बात है बल्कि यूँ कहना चाहिए एकमात्र विश्वास की बात है। विश्वास का कोई मूल्य नहीं हुआ करता।


    यहाँ पर साढ़े पाँच करोड़ मुनिराज सिद्धत्व को प्राप्त हो चुके हैं। हम लोग भी धन्य हैं। कम से कम इस स्थान पर आकर, उस विराटता का दर्शन करके मन में भाव तो कर रहे हैं कि हमारे लिए भी यह वरदान सिद्ध हो। हमारे कर्म और नोकर्म अनन्तकाल के लिए कपूर की भाँति उड़ जायें। अनन्तकाल के लिए घृत की भाँति लोक के ऊपर बैठ जायें। अनन्तकाल के लिए हम पाषाण को छोड़ कर काँचन का रूप धारण कर लें। देहातीत अवस्था का अनुभव हम कब करेंगे इसके लिए भी भावना भाने के लिये ऐसे पावन तीर्थ क्षेत्रों की शरण में जाने के लिए बार-बार हमारा मन करना चाहिए। यहाँ पर खातेगाँव भी है, उन लोगों ने सोच रखा है कि यह तट मिल गया हमें तो अब पार हो ही जायेंगे। खाने वालों को और पीने वालों को सिद्ध साधना नहीं होती ध्यान रखना। खाते गाँव को और पीते गाँव को छोड़ कर जब आओगे और उसका मोह छोड़ोगे तब ही कहीं काम बनेगा अन्यथा नहीं बन सकता। बहुत अच्छा सुन्दर वातावरण है यहाँ पर। आप लोग इस क्षेत्र को जो रूप देना चाहते हैं वह बिल्कुल उचित है और सामयिक है क्योंकि विषयों में और कषायों में करोड़ोंअरबों रुपये खर्च होते चले जा रहे हैं। कोई सांसारिक शादी आदि का कार्य होता है तो करोड़ोंकरोड़ों रुपये बहाते हो दो-तीन दिन के लिए। चला जाता है सारा का सारा पैसा। और ऐसे क्षेत्रों पर उस राशि का प्रयोग हो जाता है तो कई भव्य जीव यहाँ पर दूर-दूर से आकर के पाँच मिनट भी रेवा के तट पर बैठकर सिद्धों की आराधना कर लें तो आपकी राशि का सही उपयोग हो गया समझ लेना चाहिये।


    ग्रन्थों में ऐसा मिलता है कि बिम्बों के निर्माण कराये जाते हैं, उसमें बहुत राशि काम आ जाती है। उसका कोई मूल्य नहीं है, पर उस बिम्ब के माध्यम से वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है, यह महत्वपूर्ण बिन्दु है। यहाँ पर यदि आप लोग वित्त को लगाकर, खर्च कर भव्य जीवों का आह्वान करते हैं तो यह बहुत अच्छा काम होगा; लेकिन यह ध्यान रखना लक्ष्य हमेशा-हमेशा सिद्ध बनने का ही रखना चाहिए। एक बार इस प्रकार के क्षेत्रों की शरण से, आधार से, माध्यम से, हमारा कायाकल्प हो जाये तो क्या कहना।


    काया-कल्प दो प्रकार का है। जहाँ पर उपचार और औषधि काम नहीं करती, वैद्य और डॉक्टर जवाब दे देते हैं कि अब हमारे पास कोई इलाज नहीं है तो उस समय काया-कल्प का एक प्रकार का प्रावधान आता है। उसमें पथ्य के माध्यम से कल्प कराया जाता है जिसमें यह काया कंचन के समान बन जाती है। जैसे नया शरीर मिल जाता है। तो जिस स्थान पर, जिस साधना के माध्यम से अनंतकाल से काया का दास बना हुआ है उस आत्मा का जब काया-कल्प होता है, तो उसके सुख का कोई पार नहीं। इस भूमि पर जिन्होंने सिद्धगति प्राप्त की उनको जो सुख मिला वह शब्दातीत है। जब से उन्होंने शिवत्व को प्राप्त कर लिया तब से अलौकिक आनन्द उन्हें प्राप्त हुआ, और यह क्षेत्र उनके लिए निमित्त हुआ। एक-एक क्षेत्र, एक-एक नर्मदा का तट इस तरफ और उस तरफ कोई भी ऐसा तट नहीं जहाँ से सिद्ध न हुए हों। महाराज हम यहीं पर तीर्थ बनाने जा रहें हैं इसलिए यही तो रेवातट है, ऐसा नहीं। यह आपका सामथ्र्य है कि एक स्थान विशेष को तीर्थ बना रहे हो, शास्त्रों में वो रेवातट कहाँ तक है उसकी कोई सीमा नहीं है।


    इन तटों के ऊपर साढ़े पाँच करोड़ मुनि-महाराजों को सिद्धत्व प्राप्त हुआ। वह नर्मदा जा रही है और कह रही है कि तुम हमारी शरण में आये हो, यहाँ पर सिद्धत्व अवश्य मिलेगा, लेकिन ध्यान में रखना, मन में कुछ और तन में कुछ और वचन में कुछ और रखोगे तो फिर कुछ नहीं मिलेगा। फिर तो जीवन यों ही व्यर्थ चला जायेगा।


    तन की गर्मी तो मिटे मन की भी मिट जाए।

    तीर्थ जहाँ पर सिद्ध सुख अमिट अमिट मिल जाए ||

    तीर्थ उसी का नाम है जहाँ पर सिद्ध सुख का संपादन हुआ करता है। शारीरिक, मानसिक, वैचारिक बाह्य जो कुछ भी सुख-शांति है सब यहाँ पर है, लेकिन इतना ही नहीं यहाँ के वायुमण्डल में वह क्षमता है जो सिद्धात्म अनुभूति को पैदा कर सके। यहाँ क्षेत्रों के स्पर्श ऐसे हैं जो निर्विकल्प समाधि में साधक को डुबकी लगाने में निमित्त बन सकते हैं। यहाँ के सूर्य प्रकाश में, यहाँ के कणकण और अणु-अणु में वह शक्ति विद्यमान है। राजवार्तिककार अकलंकदेव ने एक स्थान पर उल्लेख किया है वह क्षेत्र आपके लिए वरदान है जहाँ पर अनेकों सिद्ध हो चुके हैं। आँख मीच (बन्द) कर वहाँ पर बैठ जाओ तो तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। वह क्षेत्र तुम्हारे लिए वरदान है जिन क्षेत्रों में सिद्धत्व का सम्पादन अन्य आत्माओं ने किया है। उन तिथियों में और उन क्षेत्रों में तुम बिना मुहूर्त अपनी साधना प्रारम्भ कर दो, निश्चत रूप से तुम्हारी साधना को बल मिलेगा।


    एक व्यक्ति ने कहा महाराज को बहुत दिनों तक यहाँ रुकना चाहिए। भैया बात ऐसी है कि वर्षा काल में तो बादल बहुत दिनों तक टिक जाते हैं। अभी तो पौष की मावठ है एक-दो दिन, एक-दो दिन ऐसे ही वर्षा होती है और उसी में काफी हो जाता है। सर्दी के समय पर ज्यादा वर्षा होना धान या खेती के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इसलिए हम ज्यादा तो नहीं कह सकते हैं लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि जितनी वर्षा होती हैं उतने में धान पक जाये तो अच्छा माना जाता है। बहुत खाने से शक्ति बहुत आती है यह धारणा आप छोड़ दीजिए चूँकि आपको लोभ अभी भी सता रहा है। सन्त सान्निध्य हमेशा बने रहें। ठीक है, लेकिन यह ध्यान रखना इसी प्रकार की वर्षा अन्यत्र भी होनी चाहिए। एक-एक क्षण का मूल्य अभी ज्ञात नहीं होगा। क्षण की बात है, क्षण कितनेकितने निकल चुके हैं प्रमाद दशा में, मोह निद्रा में और संसार के अन्य कार्यों में, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। पाप के फल के रूप में जो सम्पदा आती है उसको पुण्य के रूप में ढालने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है वह धन्यवाद का पात्र है। यदि दान के माध्यम से, त्याग के माध्यम से, छोड़ने के माध्यम से उसको हम पाप से पुण्य के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया अपना लेते हैं तो यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।


    चाहे गृहस्थ हों, चाहे संन्यासी हों उनका लक्ष्य नर्मदा के अनुरूप ही होना चाहिए। आत्मा का झरना सतत शाश्वत रूप से बहना चाहिए। नर्मदा दो तटों में बंधकर के आगे बढ़ रही है और विशाल सागर में जाकर मिलती रहती है। अपने तटों का उल्लंघन करते हुए वह इधर-उधर नहीं जाती। आप लोगों का भी यही कार्य है। गृहस्थ को भी लक्ष्य में हमेशा-हमेशा सिद्धत्व रखना चाहिए। मध्य प्रदेश में सिद्ध क्षेत्रों की संख्या बहुत है। इसमें यह रेवा नदी का तट है। हमें भले ही आज सिद्धत्व प्राप्त न हो किन्तु हम सिद्धों की आराधना अवश्य कर सकते हैं, सिद्धों की आराधना सिद्ध बनने का बीजारोपण है। आज करोगे बीजारोपण तो वह अवश्य फलीभूत होगा।

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    सिद्ध क्षैत्रों, तीर्थ क्षैत्रों की वन्दना करो

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