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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 4 - राजा की नियत - प्रजा की नीति

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    विश्वविज्ञ विध वेदं वीरं वैराग्य-वैभवं।

    संगमुक्त यति बुद्ध, केशवं संभवं शिवम्॥

    राजा और प्रजा इन दोनों का संबंध मूल और चूल जैसा है। वृक्ष के कई अंग हुआ करते हैं उसमें जो मूल अंग है मूल, जिसे जड़ कहते हैं, यह अंग पूरे वृक्ष की ताजगी के लिए हमेशा-हमेशा पुरुषार्थरत रहता है। वह मूल अंग, जड़ पाताल की ओर भी चला जाता है और उस वृक्ष की आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है। वृक्ष तो कभी फल रहित भी होता है, कभी वह पत्तों रहित रह सकता है, कभी वह और भी अंगों उपांगों के बिना भी रह सकता है, किन्तु जड़ के बिना नहीं रह सकता। ज्यों ही मूल समाप्त हो जाता है, तो उसका पूरा का पूरा वैभव समाप्त हो जाता है। यह निश्चत है, इस संबंध को जो भूल जाते हैं या जो इस संबंध से अपरिचित रहते हैं वे उस पेड़ को काटना चाहते हैं, काट भी लेते हैं और यह मान भी लेते हैं कि पेड़ समाप्त हो गया लेकिन पुन: वह वृक्ष पूर्व की भाति ज्यों का त्यों हरा हो ही जाता है। कितनी भी बार काटें तो भी वह वृक्ष पुन: फैल जाता है अपने शीतल वैभव के साथ। लेकिन जब तक मूल सुरक्षित रहता है तब तक की यह बात है।

     

    एक माली हैरान है, वह प्रत्येक दिन अपने बगीचे में जो फूल-फल के पेड़ लगे हैं, उनकी रक्षा एवं उन्नति के लिए प्रयासरत है, लेकिन एक दिन वह देखता है, सोचता है कि इस पेड़ को मैंने खाद भी समय पर डाली है, पानी का सिंचन भी किया है, उसे लहलहाने के लिए लाड़ प्यार भी उसे दिया है फिर भी कौन सा कारण है कि यह ताजगी से रहित है। इधर-उधर वह देखता है कोई कारण ज्ञात नहीं है फिर बाद में वह सोचता है कि इर्द-गिर्द देखना ही पर्याप्त नहीं है, आगे पीछे भी देखना पर्याप्त नहीं है, बाहर देखना ही पर्याप्त नहीं है, भीतर भी देखने की आवश्यकता है। हम बाहर तो देख लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमारा कर्तव्य पूर्ण हो गया। भीतर देखना भी आवश्यक है तो पेड़ के भीतर देखें। पेड़ के भीतर तो नहीं देख सकते क्योंकि पेड़ के भीतर देखने का अर्थ उसकी जड़ों की ओर देखना आवश्यक है। तो उसने थोड़ी सी मिट्टी को जो मूल के ऊपर थी उसको हटाना प्रारम्भ कर दिया और तीन-चार अंगुल नीचे की ओर चला जाता है। जाते-जाते वह वहाँ पर एक दृश्य देख लेता है, उसे विस्मय होता है और एक तरह से उसे अपनी अज्ञानता के ऊपर ग्लानि भी आती है।

     

    ओ हो! इस ओर हमारी दृष्टि नहीं जा पाई, जड़ में छोटा सा कीड़ा लगा है। वह वृक्ष कुल्हाड़ी की मार को सहन कर सकता है, करने के बाद भी हरा हो सकता है लेकिन छोटे से कीड़े का मुख से जड़ में काटना वह सहन नहीं कर पा रहा था क्योंकि वह मर्मस्थल माना जाता है। उस पर छोटा सा प्रहार जीवन को ही समाप्त कर सकता है। ऊपर से लगता कुछ नहीं है लेकिन मर्म पर वह चोट कर जाता है। छोटा सा कीड़ा वह जड़ को काटने में लगा हुआ है। ऊपर का विशाल वृक्ष भी सूखने को हो जाता है। भरी गर्मी में ज्येष्ठ मास में भी, पानी सिंचन यदि ऊपर किया जाये, नीचे न किया जाये तो भी वृक्ष सूख जायेगा और नीचे मूल में पानी का सिंचन हो जाता है, ऊपर भले न हो तो भी लहलहाता है। ये कैसा संबंध है वृक्ष का? वृक्ष को पानी पिलाओ। ऐसा करने से मैं सोचता था, कोई मुख होगा वृक्ष में जिसमें माली पिलाता होगा। टहनी को डुबोता होगा पानी में, या और किसी माध्यम से पिलाता होगा। धरती को पानी पिलाओ का अर्थ यही होता है जड़ में पानी डालना। अर्थात् जहाँ जड़ वहाँ की मिट्टी का सिंचन करना ही वृक्ष को पानी पिलाना है।

     

    वर्षा का जल यदि मूल में पहुँच जाता है तो उससे सम्पूर्ण रूप से सभी जगह हरियाली छा जाती है। उस कीड़े को उसने उठा करके अन्यत्र रख दिया और पुन: पूर्ववत् मिट्टी को पूर दिया। कल आकर के देखता है वो पेड़ खुश था नव चेतना दिख रही थी क्योंकि अब मूल में कोई वेदना नहीं थी। बाहरी वेदना कोई वेदना नहीं मानी जाती है क्योंकि बाहरी वेदना विकास के लिए कारण भी हो सकती है, हुआ करती है किन्तु भीतरी वेदना विकास में बाधक सिद्ध होती है। हमें राजा और प्रजा का सम्बन्ध क्या है? इसे समझाने का प्रयास करना चाहिए। आज चूँकि लोकतंत्र और प्रजातंत्र का समय आ गया है। तिथि गौण हो गई तारीख का साम्राज्य है, अभी ये तिथि स्वतंत्र नहीं हुई है। उस पर अभी तारीख का बोल बाला है। लोग तिथि भूल गये हैं, तारीख याद रखते हैं। तिथि भूल जाते हैं, वह अतिथि को भी भूल जाते हैं। अत: आप स्वतंत्रता की तिथि नहीं बता सकेंगे, स्वतन्त्रता की तारीख कौन सी है, (सभा से आवाज आती है १५ अगस्त) ये स्वतन्त्रता का दिन है। फिर इसके उपरान्त स्वतंत्रता दिवस का अर्थ प्रजा को जिस दिन सत्ता मिली। राजा गायब, प्रजा को सत्ता मिली। प्रजा के अनुसार कार्य होगा। ये लोकतंत्र है, बहुत अच्छा माना जाता है, लेकिन इसकी अच्छाइयाँ इसका महत्व समझे तब हो सकता है, नहीं तो नहीं। प्रजा का और राजा का जो संबंध है वह यदि मिट जाता है तो प्रजा का स्वयं का क्या कर्तव्य है? समझ लें, नहीं समझती है तो प्रजा अपने लक्ष्य को कभी पूर्ण नहीं कर सकती। वर्षों के उपरान्त भी अभी प्रजा को ज्ञात नहीं है गहरी जड़, अपने कर्तव्य/स्वतंत्रता दिवस/गणतंत्र दिवस आने के उपरान्त ध्वजारोहण आदि आवश्यक औपचारिक कार्य तो हो जाते हैं, लेकिन प्रजा एवं राजा के कर्तव्य उनके द्वारा संपादित नहीं हो पा रहे हैं। देश की संस्कृति में लहलहापन किसके माध्यम से होता है। इसके लिए कारण क्या है? क्षेत्र काल है? प्रजा/ राजा, कौन/क्या कैसे हैं? पहले हम अपने जीवन में खुशहाली लाना चाहेंगे तब बाद में ये बाहर की ओर आ जाती है। ये बाद की बात है। प्रसंग लेना चाहता हूँ कि हमारी मानसिकता में वह ताजगी आये। वह ताजगी क्या वस्तु है? वह एक-ताजगी और एकता-जगी वाली बात है। ताजगी तो चाहिए लेकिन कैसे मिले। पहले प्रजा को खुशहाली देने वाला राजा तो होता था।

     

    राजा के द्वारा वह मिलती थी, लेकिन आज स्वयं सारे के सारे राजा हो गये, सत्ता चलाने वाला एक होता था और हम शासित होते थे और काम चलता था। एक उदाहरण द्वारा हम अपने भाव को व्यक्त करते हैं। एक छोटा लड़का कहता है माँ मेरा विकास कब होगा? मैं बड़ा कब बनूँगा? मैं आसमान को कब छूऊँगा? माँ सुनती रहती है, वह बेटा कहता है मैं जो प्रश्न पूछ रहा हूँ उतर दो। माँ कहती है बहुत अच्छी भावना है बेटे! तुम्हारी भावना फलीभूत हो और आशा पूर्ण हो, पर ये ध्यान रखना बेटा! आसमान को छूना बहुत आसान नहीं है। हम समझते हैं कि आसमान को देखना ही आसमान को छूना है तो आसमान को देखना और आसमान को छूना, बहुत अंतर है। माँ कहती है तुम्हारा कार्य पूर्ण हो बेटा, मैं भावना भाती हूँ। लेकिन कब संभव है बेटा यह? जब तक मेरे भीतर (पृथ्वी रूपी माँ के अन्दर) उतरकर तुम पाताल की ओर भी अपनी मजबूती की सत्ता प्रतिपादित नहीं कर सकते तब तक आसमान को छूने की बात भूल जाना चाहिए। बात आपको समझ में आ रही होगी। वहाँ पर पेड़ बड़ा होना चाहता है, पेड़ तो बड़ा बहुत जल्दी हो जायेगा, लेकिन तूफान आयेगा तो गिर जायेगा, यदि जड़ें मजबूत नहीं हैं।

     

    लेकिन कुछ वृक्ष तूफान आने के बाद वह झुक जाते हैं, तूफान चला जाता है, तो फिर उठ जाते हैं, वह कौन उठता है, जिसकी जड़ें मजबूत होती हैं। जिसका मूल आधार मजबूत हुआ करता है। पेड़ का विकास दो तरफ से प्रारम्भ होता है, एक आसमान की ओर और एक पाताल की ओर। गहरी जड़ खाद और पानी की गवेषणा कर लेती है और वृक्ष को रस देकर हरा भरा कर देती है। इस प्रकार विकास दिन दूना और रात चौगुना होता चला जाता है। इस प्रक्रिया को न समझ पाने के कारण हम तत्व की बात नहीं समझ पाते। पहले की बात भूल जाते हैं, कारण के बिना कार्य को समझने की चेष्टा करते हैं।

     

    आपका जीवन ताजगी मय क्यों नहीं है? उसका कारण यही है ऊपर ही ऊपर आप सींचते चले जा रहे हैं। उसका मूल ही समाप्त हो गया। जो राजा का काम करने वाला था, वह राजत्व गुण खो बैठा है। आज प्रजा भी अपना प्रजापन खो चुकी है। अत: यथा राजा तथा प्रजा वाली कहावत समाप्त कर देनी चाहिए। जैसे मेघ ऊपर आते हैं तो किसान ये कहता है आजा-आजा। क्या आ जाये? और वर्षा हो भी जाये तो भी कुछ होने वाला नहीं है। यदि खेती हम ठीक नहीं रखेंगे, बादल आने से क्या मतलब निकलता है? बताओ। खेती यदि आपकी ठीक है, समय पर बीजारोपण है, अच्छे बीजों का वपन है, तो निश्चत रूप से जब कभी भी वर्षा होगी, फसल लहलहायेगी। इन घोषणाओं के माध्यम से फसल नहीं आने वाली, सो विचार करो। समय-समय पर यदि आप अच्छे कार्य करते चले जायेंगे तो आपके लिए वह शपथ ग्रहण सार्थक है और आप लोगों ने बिठाया है नेता पद पर लेकिन चुनावी प्रक्रिया में कहा जाता है कि ये चुनाव में खड़े हैं। खड़े होना पड़ेगा चुनाव में। बैठकर के चुनाव नहीं किया जा सकता है, धीरे-धीरे खड़े होना पड़ता है। जिसके पास दो पैर नहीं है, उसे भी चुनाव के लिए खड़ा ही होना पड़ेगा, ये नियम है। इसका अर्थ ये होता है कि जो खड़े होने का नियम नहीं रखता वह व्यक्ति प्रजा के लिए अथवा आप लोगों के लिए क्या कर सकता है? लेकिन ये बातें सब पुरानी होती चली गई कि हमारा क्या कर्तव्य है? किस दिशा में अपन को कार्य करना है?

     

    ५० वर्ष हो गये, लेकिन ध्यान नहीं जा रहा है। प्रजा सत्तात्मक का अर्थ यही होता है कि प्रत्येक की निष्ठा भी होनी चाहिए कि मैं अपनी ड्यूटी, अपने कर्तव्य का निर्वाह करूं। किस दिशा में मुझे कार्य करना है? स्व का कार्य हो जाये पर्याप्त है। प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कार्य करता चला जाये, पूरा कार्य हो जायेगा, इसी को बोलते हैं, प्रजासत्तात्मक चिह्न और वह राष्ट्र अन्य राष्ट्रों से अवश्य आगे बढ़ेगा लेकिन वह आगे नहीं बढ़ रहा है, अभी ५० वर्षों के उपरान्त भी। अपने लिए ऋण लेने की आवश्यकता पड़ रही है, योजनाएँ बन जाती हैं लम्बी चौड़ी लेकिन उसकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं और क्यों नहीं कर पाते? एक व्यक्ति के मुख से हमने सुना था। भले ही वह व्यंग्य होगा-अभी पंचवर्षीय योजनाओं में जो राशि निर्धारित की जाती है उसका चार आना भी अच्छे ढंग से उपयोग नहीं हो पाता। पंचवर्षीय योजनाओं के लिए ही चुनाव है? काम करने के लिए नहिं? वित्तमंत्री की आवश्यकता है बजट बनाने के लिए? जो अपने घर का या स्वयं का बजट पूर्ण नहीं कर पा रहा हो वह देश के बजट को बनाये तो कैसे काम चलेगा? बजट बनाने से कोई काम नहीं चलेगा, उसकी पूर्ति भी आवश्यक है। लम्बी चौड़ी योजनाएँ हम बना लें, लेकिन उनकी कार्य रूप परणति न कर पायें, तो उन योजनाओं से कोई मतलब नहीं है। प्रयोजन किस दशा में है? योजनाओं का काम क्या है? मूल आवश्यकताओं को पहले प्रबंध कर दीजिए। जैसे मैं पूछता हूँकि टिनोपाल का पहले प्रबंध करना चाहिए या पहले साबुन सोड़ा का? कपड़े को साबुन से धोया नहीं, साफ किया नहीं और टिनोपाल देने से क्या प्रयोजन? अच्छे ढंग से, गंदगी दूर होने के बाद टिनोपाल कार्यकारी है, वह बाद का कार्य है। स्टेण्डर्ड का कार्य चाहते हो, पहले स्टेण्ड तो हो जाओ। खड़े होने की हिम्मत नहीं और कहते हैं कि हमें स्टेण्डर्ड चाहिए। केवल बाहरी दृश्य की ओर जा रहा है मानव! पहले ये नहीं होता था। मूल के ऊपर दृष्टिपात होता था और इस ढंग से प्रजा का पालन हुआ करता था और आज स्वतन्त्रता के बाद भी प्रजा का पालन नहीं हो रहा है क्योंकि प्रजा पालन के लिए पालक की आवश्यकता है, दूसरी बात बालक अपने आपको पालक मान रहा है। प्रत्येक व्यक्ति पालक बनने की सोच रहा है।

     

    अब बालकों का दर्शन ही नहीं होता। सभी जगह पालक-पालक बनने की होड़ लगी है। इसलिए आज के पालक, पालक की साग सब्जी जैसे बन गये। ये प्रजा की सत्ता हो गयी, अब पालन किसका करना, सब अहमिन्द्र/इन्द्र हो गये, हम क्या कम हैं? बस ये ही कहते चले जाओ। कम कोई नहीं है। अधिक कौन है? भगवान् जानते हैं। बड़े कौन हैं? प्रजा राजा का संबंध पवित्र था, आज भी रहना चाहिए। इसका रूप भले बदल गया हो किन्तु जो व्यक्ति जिस स्थान पर नियुक्त किया गया है, वो व्यक्ति अपने ढंग से पालन/अनुशासन कराये तो बहुत कम वित में ही बहुत बड़ा काम हो सकता है लेकिन वह नहीं हो पा रहा है। ध्यान रखना, केवल अर्थ विकास से हम व्यवस्था पूर्ण कर लें ये संभव नहीं किन्तु परमार्थ के साथ यदि अर्थ का प्रयोग करते चले जायें तो अवश्य इसका बहुत बढ़िया काम हो सकता है, इतना खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं। पानी सिंचन के लिए एकाध लोटा सिंचन कर दो, पूरा का पूरा वृक्ष हरा हो जायेगा, लेकिन मूल यदि हरा है तो ये काम हो सकता है। मूल तो सूखता चला जा रहा है, बाहरी पानी का अंश शीघ्र समाप्त हो जाता है और भीतर से पानी पा लेता है, उसके लिए कुछ दिन तक पानी नहीं भी दिया जाये और ऊपर से सूर्य प्रकाश की तपन मिले तो भी वृक्ष हरा भरा रह सकता है और टिका हुआ रहता है और आप चले जायेंगे उसकी छाया में तो वह शीतलता प्रदान भी करता है। एक पौराणिक घटना आपके सामने मैं प्रस्तुत करता हूँ। वह कहाँ तक घटित होती है वर्तमान युग में यह हमें सोचना है। हमारे जो कुछ भी कदम हैं वह गलत दिशा में जा रहे हैं। हम अपने स्टेण्डर्ड के लिए बहुत कुछ वित्त खर्च कर रहे हैं, उसका उपयोग कहाँ तक है, ये भी देखना है, कभी-कभी करना भी पड़ता है लेकिन हमेशा ही करना पड़े ऐसी कोई बात नहीं। कभी-कभी कर लें तो चल सकता है - 

     

    एक राजा ने अपनी प्रजा से सीधे-सीधे कर न लेने की अपेक्षा बहुत सारे पहलू के द्वारा कर ले लिया वस्तु स्थिति ये थी। प्रजा तो ठीक चल रही थी लेकिन राजा को पैसे की कमी पड़ती थी, वो येन-केन-प्रकारेण प्रजा से वित्त को लेना चाहता था। सीधे तो राजा धन ले नहीं सकता अत: पहले एक शर्त रखी और कहा कि देखो ये तुम सब लोगों को पूर्ण करना पड़ेगी, यह नहीं करते हो तो ये कर देना पड़ेगा। प्रजा के सामने समस्या खड़ी हो गयी, इसको देखकर के सोचते हैं क्या करें? राजा की आज्ञा है, नहीं करते हैं तो दण्ड के रूप में प्राण दण्ड भी मिल सकता है। व्यक्ति उस समय घबरा गये। सोचने लगे। अब तो हम बच नहीं सकते? एक बुद्धिशाली व्यक्ति ने पूछ लिया कि आप लोग घबरा क्यों रहे हो? समस्या क्या है? प्राण दण्ड के लिए समस्या है, येन-केन-प्रकारेण इसका हल करना संभव नहीं है। वह व्यक्ति पूछता है कि क्या बात है? बताओ तो सही! जनता ने कहा कि राजा का कहना है कि यह जो बकरा है एक माह बाद भी इसका वजन ३० किलो रहना चाहिए। कम हो जाये या बढ़ जाये तो भी नहीं चलेगा, यथावत् रहना चाहिए। ऐसा राजा का कहना है। कम बढ़ तो हम कर सकते हैं, थोड़ा कम बड़ खाने देंगे। क्या करें? अब तो मरना है। हमारे सामने यही समस्या है। वह सज्जन बोले- घबराओ मत इसका भी जबाब है। प्रश्न है तो उत्तर अवश्य है। कई लोग उत्तर की समस्या में डूब जाते हैं। जिसके पास प्रश्नों का कोष है, तो उसका ज्ञान विकास की ओर होगा। जो व्यक्ति प्रश्न उठा सकता है तो उत्तर भी होगा। आज आप लोगों की खोपड़ी प्रश्न हीन हो गयी। उत्तर की ओर देखते हैं। जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे, गुरुजी गणित देते थे तो उत्तर की तरफ हम देखते थे और धन करना है, गुणनफल करना है इसका हमें कोई मतलब नहीं। बस कापी से उत्तर देखकर लिख देते थे। लेकिन ऐसे नम्बर नहीं मिला करते हैं। नकल के लिए भी अकल चाहिए। इसलिए शुद्ध लेख की परम्परा आयी, तुम देखकर के लिखी गलत हो गया तो नम्बर कटेगा। हाँ होशियारी के साथ लिखो, नकल से नहीं। बुद्धि विवेक के साथ लिखी। कहाँ, क्या, किस विधि से करना है? समस्याओं में कभी चिंतित मत होओ। उस सज्जन ने कहा-इस बकरे को ४-४ बार अच्छी तरह खिलाओ। गादी के ऊपर उसको सुलाओ, भाग्य खुल गया। उसको घास मत खिलाओ, दूध, घी खिलाओ दिन भर खिलाना, रात भर सुलाना, लेकिन ध्यान रखना उसके बाजू में दो सिंह के पुतला बना देना। बस सब कार्य ठीक हो जायेगा। पुतले हू-बहू शेर जैसे लगने चाहिए। एक माह हो गया और बकरे को लेकर एक माह बाद वह गया और कहा जितने किलो का यह बकरा था, वह उतना ही है, इसे संभालो। राजा सोचता है कि यह तो हमारे से भी आगे के निकले इन्हें फंसाने की/ अपने अंडर में लाने की बात सोची थी लेकिन इन्होंने प्रश्न का उत्तर दे दिया। हमारे से भी आगे के निकले। राजा ने पूछा कि यह वही बकरा है, कि दूसरा है। आप ही पहचान कर लीजिए। राजा ने पूरी की पूरी पहचान कर ली, ज्ञात हुआ कि यह वही बकरा है।

     

    द्रव्य की ओर देखते हैं, तो वही मूल का ज्ञात होता है। द्रव्य पहले भी वही था और आगे भी वही रहेगा। बदलता सा लगता है, लेकिन वो बदलता नहीं, मूल में वह ज्यों का त्यों बना रहता है। यह द्रव्य का स्वभाव है। इतना विकास हो गया कि ऐसा लगता है जैसे आप लोग कहते हो कि यह वस्तु पहले १० रुपये में आती अब १०० रुपये में आने लगी ऐसा समझते हो कि दाम बहुत बढ़ गये। भाव नहीं बढ़े यदि दूसरी तरफ अर्थात् वेतन की तरफ देखें तो आज ३० वर्ष पूर्व में कोई १०० रुपये वेतन पाता था, आज वही ५००० पा रहा है। यानि ५० गुना आ गया क्योंकि ३० वर्ष पूर्व में १०० रुपये में १ तोला सोना मिलता था, आज तो ५००० रुपये में एक तोला मिलता है। ३० वर्ष पहले भी एक तोला और आज भी एक तोला आता है। महंगाई कहाँ बढ़ी? पहले द्रव्य को पकड़ने का प्रयास करो, पदार्थ की ओर मत देखो। यही स्थिति बकरे के सम्बन्ध में है। खाने से मोटा और खाने से पतला होता है, ऐसा नहीं। उसका मापदण्ड अलग है। राजा कहता है मैं तुम्हारे से प्रसन्न हूँ। पहले तुम ये बताओ तुमने एक माह में ३० किलो वजन ज्यों का त्यों कैसे रखा? खिलाया क्या? खूब खिलाया, मोटा ताजा क्यों नहीं हुआ? ये ही तो रहस्य है राजन्! राजा ने कहा कम से कम ये रहस्य तो बताओ, इसका भार ज्यों का त्यों कैसे रखा? कोई महाराज जी के पास तो नहीं गये थे, कोई जादू टोना तो नहीं किया था। जनता ने कहा- संत भी इस कार्य को नहीं कर सकते राजन्! क्योंकि कार्य तो उपादान की योग्यता पर हुआ करते हैं, उस बकरे के पास उपादान की योग्यता है। वह सज्जन उस बकरे को चार बार खिलाते थे। उससे जितना खून बढ़ता था सामने बंधे हुए शेर को देख उतना ही खून उसके डर से सूख जाता था। ये ही तो राज है राजन्! बकरे को सन्तुलित रखने का रहस्य राजा समझ नहीं पाया। केवल वित्त आ जाये, कोश समृद्ध हो जाये, यह वणिक बुद्धि जिस राजा के पास है, उसके द्वारा राज्य नहीं चल सकता। ध्यान रखो, पूरी-पूरी सम्पदा यदि राजकोष में चली जावे तो भी संभव नहीं। आज के नेता अच्छे ढंग से कार्य करे, ऐसी आशा कम है। प्रजा अपने कर्तव्य करती चली जावे तो भी राज्य का कोश अपने आप समृद्ध नहीं होगा क्योंकि दुराचरण रूपी शेर सामने बंधा है। किसान की कमाई को आज देश में बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार सब निगलता जा रहा है। बकरा खा लेता फिर प्रसन्नता के साथ इधर-उधर देखता है तो डर जाता है। अड़ोस-पड़ोस/आजू-बाजू के ऊपर आधारित है। तराजू आजू-बाजू के ऊपर आधारित है। उस रहस्य को कोई देख नहीं रहा है, समझ नहीं पा रहा है। इतनी जल्दी विकास और इतनी जल्दी विनाश। ये तो हाथ की बात है। एक दिन हाथ मिलाते हैं/शपथ समारोह होते हैं, समर्थन देते हैं, दूसरे दिन मित्रता समाप्त, समर्थन वापस। कैसे चलेगा यह देश?

     

    देश में चुनाव होते हैं, लोग सोचते हैं, नई सरकार देश को समृद्ध करेगी लेकिन सरकार को तो चौबीस घंटे कुर्सी बचाने का डर लगा रहता है। त्रिशंकु सरकार की समर्थन की वापसी कब हो जाये कहा नहीं जा सकता। अविश्वास प्रस्ताव रूपी शेर देश की योजनाओं को पुष्ट नहीं होने देता है। योजनाएँ बनाने मात्र से कोई विकास नहीं होता। परमार्थ हीन अर्थ की ओर जितनी दृष्टि रहेगी, उतनी ही देश में अराजकता/भ्रष्टाचार फैलेगा, अनर्थ होगा। संस्कृति विनाशक/अनर्थकारी अधिक अर्थ किस काम का? ऐसा वह गहना किस काम का जिससे नाक-कान कट जाये? ज्यादा अर्थ किस काम का जो जीवन की शांति भंग कर दे?

     

    ज्यादा वित्त आयेगा, मद/अहंकार होगा, अनेक प्रकार के बुरे भाव होंगे, इसलिए दान पुण्य की व्यवस्था हमारे आचार्यों ने बनाई है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो बचता है, उसे दे दिया। कितना रखा है? संस्कृति रक्षा एवं परोपकार में धन को लगाना चाहिए, इसी का नाम तो रामराज्य है। जितना मशीन में आवश्यक है उतना दे दो न। इतना संग्रह, इतनी महत्वाकांक्षा की क्या आवश्यकता है? इसलिए भारतीय संस्कृति के अनुसार नीति हैं "मोटा खाओ, मोटा पहनो और विचार अच्छे रखो।" गाँधी जी ने दो पंक्ति याद रखी थी "सिम्पिल लिविंग एण्ड हाई थिकिंग"।

     

    आज उलट गया 'हाई लिविंग नो थिकिंग” कोई विचार की आवश्यकता नहीं। आज विचार निम्न होते जा रहे हैं। खाओ, पीओ, मस्त रहो बस! क्या जमाना आ गया? ये ही स्वतन्त्रता है? नहीं। आत्मा का स्वभाव जानना देखना है। हमें विचार करने की क्षमता प्राप्त नहीं है, तो अपने स्वभाव को कैसे जानेंगे, देखेंगे और कैसे राम/महावीर बनेंगे? कैसे हम हनुमान जैसे बनेंगे? हम उस कुल के उस वंश की परम्परा में लगे हुए पेड़ पौधे हैं, लेकिन आज समझ में नहीं आता किस ओर बहना चाह रहे हैं? लोग बहते जा रहे हैं, पता तक नहीं हम कितने बहकर आ गए। ५० वर्ष के बाद भी हम समझ नहीं पा रहे हैं, कि क्या स्वतन्त्रता है, क्या सत्ता है? और क्या उन्नति है, क्या अवनति है? ये नहीं समझ पाये, जीवन यूँ ही आया और चला गया। प्रवाह आया और बह करके चला गया। बाढ़ आ गयी और सद्विचारों को बहा करके चली गयी। सत्य क्या है? स्वभाव क्या है? ये अपने को समझने थे, इसीलिए यह स्वतन्त्रता थी। उस बकरे के माध्यम से राजा को समझ में आ गया कि बाधक साधनों से भी बचना आवश्यक है। यदि इर्द-गिर्द बाधक साधन हमेशा बने रहते हैं तो हमारे उपाय किसी काम के नहीं है। कितना भी आप करो इसका कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है। वहीं के वहीं हम रहेंगे। यदि विकास चाहते हो, तो सही दिशा में विकास करो। जिसमें विकास के लिए अर्थ की आवश्यकता है, उतना तो रखो। जिस अर्थ से हमारा परमार्थ, संस्कृति, हमारा धर्म, हमारा कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं तो उससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए उसके बिना भी चल सकता है। कम है ऐसा मत समझो। उसी में काम चल सकता है तो काम चलाना चाहिए, ये ही एकमात्र विवेक माना जाता है। यहाँ ज्ञान की आवश्यकता नहीं किन्तु विवेक की आवश्यकता है।

     

    तीन शक्तियाँ हैं हमारे पास। उम्र के हिसाब से वह अपने आप में परिवर्तन लाती हैं, कम उम्र में भी बहुत कुछ विवेक जागृत हो सकता है, किन्तु सबसे ज्यादा बढ़ोतरी होती है तो वह इच्छा शक्ति की होती है। वह २५ साल तक कायम बनी रहती है, धीरे-धीरे ३० साल तक वह घट करके अपने रूप में वह उभर करके आ जाती है, फिर इसके उपरान्त विकास हो जाता है, तो वह समय होने के उपरान्त विवेक जागृत हो जाता है। "नियर अबाऊट फोर्टियस" लगभग ४० तक आना चाहिए तब कहीं जा करके विवेक जागृत होता है। किसी-किसी को संस्कार के कारण, वंश परम्परा के कारण या अड़ोस-पड़ौस के प्रभाव के कारण कम उम्र में भी विवेक जागृत हो जाता है। हमें ज्ञान की नहीं, विवेक की आवश्यकता है। ज्ञानचंद नहीं बन सकते तो विवेकानंद अवश्य बन सकते हैं। विवेक का अर्थ भेद-विज्ञान होता है, अपना और पराया। विवेक का अर्थ होता है, अच्छा और बुरा। विवेक का अर्थ होता है, कौन साधक है, कौन बाधक है। इस प्रकार का विवेक जागृत होता है। तो बाधक को छोड़कर के साधक को अपनाने की कला अपने जीवन में आ जाना ही जीवन का एक प्रकार से नया कदम माना जाता है। इसी को उन्नति कहते हैं और उसी के माध्यम से सुख और शांति मिल जाती है। ये सब साधन हम लोगों को पूर्व भव के पुण्य के माध्यम से मिले हैं, उसी के अनुसार हम लोगों को चलने का प्रयास करना चाहिए। राजा को समझ में आ गया कि मैंने प्रजा को बिना प्रयोजन सताने का प्रयास किया। मेरा राज्य तो विवेकशील जनता के माध्यम से ही शान्ति का अनुभव करेगा। आज उस तरह के व्यक्तित्वों की आवश्यकता है।


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