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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 3 - अपने अपने कम का गल भोगे संसार

       (1 review)

    जैसा बीज बोया जायेगा, वैसा ही फल प्राप्त होगा, यह नीति है। इस पर प्रत्येक का विश्वास है। फिर भी अज्ञान दशा में ऑख बन्द करके बीज बोया जाता है और ऑखें खोल कर फल खाया जाता है। फल जब खाता है उस समय हर्ष और विषाद करता है। जो मीठा फल होता है उसका आनंद/उत्साह के साथ सेवन करता है, जब कड़वा फल मिलता है तो कहता है मुझे नहीं चाहिए, मुझे ऐसा क्यों दिया गया? ऐसी धारणा उसकी बन जाती है। अज्ञान दशा में बोया हुआ बीज जब फलता है, तब आँखें भर आती हैं। 'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह निश्चत है, चाहे गरीब हो/अमीर हो, राजा हो या रंक हो, नर हो या नारी हो, गृहस्थ हो या संत हो। प्रत्येक के लिए यह अनिवार्य होता है कि किए हुए कर्म का फल उसे भोगना ही पड़ता है तो उसमें आगे-पीछे क्यों देखा जाये? और क्यों सोचा जाये? यदि उससे दूर होना चाहते हैं तो बीज बोते समय सोच लेना चाहिए।

     

    कर्म रूपी बीज बोने का कोई समय नियत नहीं होता है, इसे समझ लें और हर समय जागृत रहें। बोने का कार्यक्रम प्रतिपल चल रहा है। जब वह भोजन कर रहा है, तब भी बीज बोया जा रहा है। कर्म का नया बीज बोता है, उसी समय में पुरानी फसल काटता भी चला जाता है। फसल की कटाव और बीज का वपन होना इन दोनों में एक क्षणवर्ती पर्याय बनकर कर्म बंध एवं निर्जरा की प्रक्रिया चलती रहती है। बोया तो अच्छा है, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि काटते समय पश्चाताप होता है। अच्छा बोया जाता है, फिर भी फसल अच्छी नहीं आती और उसमें भी बुरा फल निकलता है। बोने के उपरान्त उसमें कलम पद्धति और चालू हो जाती है। पेड़ आया और उससे कलम पद्धति से दूसरा स्वाद लेना चाहें तो ले सकते हैं। इस प्रकार कर्मों के बोने में और फलानुभूति में भी अंतर आ जाता है। अच्छे भावों के साथ बोये थे, किन्तु बीच में भाव बुरे हो गये तो अच्छे भी बुरे के रूप में परिणत हो जाते हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बुरे बोए जायें और अच्छा फल मिल जाये, लेकिन वह बहुत कम होता है। ज्यादातर तो बुरे का बुरा ही फल मिलता है।

     

    बुराई का अच्छाई के रूप में संक्रमण कम होता है अच्छाई का बुराई के रूप में संक्रमण होने में देर नहीं लगती। बुराई का अच्छाई के रूप में संक्रमण होने में बहुत पसीना बहाना पड़ता है। आहार के लिए निकले हैं ऋषभदेव महाराज, अभी भगवान् नहीं हैं, भगवान् बनने के पथ पर हैं। यह बात अलग है, अभी भी वे महाराज हैं, पूज्य पद है और भोजन के लिए निकले हैं, किन्तु उनका भोजन नहीं हुआ है। क्यों नहीं हुआ? संभवत: आप लोगों ने विनय पूर्वक भोजन नहीं कराया होगा। महाराज हम तो तैयार थे पर वो क्या चाहते थे, हमें मालूम नहीं हुआ। एक दिन नहीं हुआ, २ दिन नहीं हुआ ऐसे छह माह निकल गए। क्यों निकल गए? आहार क्यों नहीं हो पाया? "अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार" तीन लोक के नाथ बनने वाले हैं और ऐसी अद्वितीय उनकी प्रतिमा/दिव्य शरीर हैं, जिसमें कोई झुरिया नहीं पड़ती, जिनका शरीर सूर्य की भाती चमकता है, जिस रूप को तीन लोक के प्राणी एक टक देखते रहने से भी तृप्त नहीं होते। ऐसा विश्व का कल्याण करने वाला नेता आहार को निकले और आहार ना हों, यह कैसी बात है। इतना तेज पुण्य है। ऐसा पुण्य तो किसी का नहीं होगा जो वृषभनाथ भगवान् का था। जिनके चरणों में सेवा करके इन्द्र अपने को धन्य- धन्य कृतकृत्य मानता है, जिसके संकेत मात्र से कुबेर अयोध्या की रचना करता है। ऐसा इन्द्र जिनके चरणों में रहता है, जीवन में आदि से अंत तक लेकर, गर्भ में आने से पूर्व में ही सारी की सारी व्यवस्था जिसने संभाली थी, ऐसा व्यक्तित्व है, ऐसा तेज पुण्य होने के उपरान्त ऐसा क्यों हो रहा है? ‘अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' आपको थोड़ा विलम्ब हो जाये भोजन में तो थाली ही चक्र बन जाती है। ऐसी भूख प्यास छह महीने तक कैसे सहन करते रहे? छह महीने के बाद उठे थे। छह महीने तक तो उन्होंने उठने का उपक्रम भी नहीं किया, तथा छह महीने तक उन्हें आहार नहीं मिला।

     

    ‘कर्म फल' ये प्रत्येक व्यक्ति की हिस्ट्री प्रस्तुत करते हैं। कर्म इतिहास साक्षी हैं, प्रमाण हैं। इतिहास में क्या कब किया पता नहीं चलता। कई लोग पूछते हैं कि हमारा भविष्य बता दो तो मैं कहता हूँ जो वर्तमान में कर्म का उदय आ रहा है वही अतीत है और जो आज वर्तमान में कर रहे हो वही भविष्य है। कोई काल के द्वारा मिलने वाला नहीं, जो भीतर बंध रहा है, उसी के द्वारा फल मिलने वाला है। वह भविष्य के ऊपर डिपेण्ड करता है। ये इतिहास है किसी को भूखा रहना पड़ रहा है, किसी को प्यासा मरना पड़ रहा है। यह एक इतिहास है किसी को दुख हो रहा है, किसी को सुख मिल रहा है। गत रविवार में एक इतिहास हुआ था और यह जो वर्तमान रविवार है इसका भविष्य क्या होगा, इसकी प्रतीक्षा है। कोई काल के द्वारा फल नहीं मिलता। एक ऐसी रील, द्रव्य-क्षेत्र-कालभव-भाव की मर्यादाओं के अनुसार चलती रहती है। कुछ परोक्ष होता है, कुछ प्रत्यक्ष आ जाता है, परोक्ष में बंध होता है क्योंकि बंध की प्रक्रिया हमारे दिमाग की बात नहीं है। दिमाग के द्वारा बंध तो होता है, लेकिन दिमाग का वह विषय नहीं बन पाता।

     

    सत्य को नकारा नहीं जा सकता। इस सत्य को पहचानने की कोशिश करना चाहिए। जो प्रतिपल बोया जा रहा है वह आगे भविष्य का निर्माण करने वाला होता है। कई लोग कहते हैं महाराज ऐसा आशीर्वाद दे दो ताकि मेरा भविष्य ब्राइट हो, अच्छा/प्रकाशमय हो। कैसी विचित्र बात है। वर्तमान में अंधकार में रहें और माँग करें ब्राइटनेस की। ऐसा क्यों हो रहा है? इसे ज्ञात नहीं है कि मैं अपने भविष्य का निर्माता स्वयं हूँ और वर्तमान में अज्ञान के साथ कर्म कर रहा हूँ तो अज्ञान रूपी अंधकार मिलेगा, और ज्ञान के साथ कर रहा हूँ तो ब्राइटनेस अवश्य प्राप्त होगा।

     

    मेरी आँखों के ऊपर कोई भी पर्दा डाल नहीं सकता, ये विश्वास जिसको होता है, वो भविष्य की चिन्ता नहीं करता है। जो अतीत में कुछ किया है वो मुझे फल न मिले ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें एक युक्ति अवश्य है अतीत में यदि किया है तो उसको परिवर्तित किया जा सकता है, वर्तमान की लाईट में ये कार्य किया जा सकता है, अज्ञान दशा में किया हुआ कार्य ज्ञान दशा में समाप्त किया जा सकता है, एक हद तक/एक सीमा तक। पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु हद तक आना भी एक बहुत अच्छा कार्य माना जाता है। कुछ न कुछ परिवर्तन संभव है, लेकिन यह तब संभव है जब हम रहस्य को समझ सकें। ऐसा नहीं, कार्य पूर्ण कर लो फिर उस कार्य को परिवर्तित करना चाहो तो संभव नहीं ।

     

    द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव के अनुसार ही ये परिवर्तन संभव है। अतीत में क्या-क्या कर आये हैं? इसका कोई भी अंत नहीं है। कब से करते आये हैं? इसका भी कोई अंत नहीं है। क्या करते आये हैं? इसके बारे में बताने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि जो वर्तमान में फल मिल रहा है अच्छा/बुरा यह अतीत का ही किया हुआ है। उठते हैं आहार के लिए ऋषभदेव, यह निश्चत है भूख लगी है, भूख मिटाने का इरादा है और सामग्री भी सामने है, लेकिन सामग्री मात्र जुटाने से भूख नहीं मिटती। भूख-भूख कहने मात्र से भूख नहीं मिटती। माँगने से बहुत जल्दी मिट जाती, यह भी गलत है। माँगने वाला माँग सकता है, देने वाला दे सकता है हाथ में। अपने हाथ से दिया जा सकता है और माँगने वाला व्यक्ति मुख तक ले आ सकता है और भीतर पहुँचने को है और चबाते-चबाते भी चाब बंद हो जाती है। देखते-देखते जीवन लीला समाप्त हो सकती है और कभी-कभी कोई व्यक्ति मरते-मरते नहीं मरता है। कब से देख रहे हैं पलंग पर पड़ा-पड़ा बेहोशी में जी रहा है। भेजना चाहे तो भी नहीं भेज सकते हैं, रोकना चाहेंगे तो भी रोक नहीं सकते, देना चाहें तो भी दे नहीं सकते, लेना चाहें तो भी ले नहीं सकते। यह बात प्रत्येक पल घटित हो रही है, प्रत्येक पल महसूस करने की बात है और वह महसूस करने की प्रक्रिया चालू हो गई एक दो दिन करके इस तरह छ: माह निकल गये, सब लोगों को यही विचार आ रहा है कि क्या हो गया? क्यों नहीं हो रहा है आहार ऋषभ देव का? क्या चाहते हैं? सुनते हैं कि ऋषभनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से आज ये भारत विख्यात है, सुनते ये भी हैं सर्वार्थसिद्धि से अवधिज्ञान को लेकर उतरे थे, जब अवधिज्ञान है तो अपने आप सोच सकते हैं, कि पिताजी ऋषभनाथ जब आये हैं तो ये क्या चाहते हैं? क्यों आये हैं? और बार-बार क्यों आ रहे हैं? प्रतिदिन कोई संकेत नहीं कर रहे हैं, कोई अंगुली का इशारा भी नहीं, मुड़कर देखते भी नहीं, सामने जाने के उपरान्त कुछ देखते नहीं, सामने से ऐसा लगता है हमारी ओर आ रहे हैं और सीधे चले जाते हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? कुछ तो होना चाहिए संकेत? अवसर्पिणी काल है, थोड़ा संकेत तो होना चाहिए। लोगों को दुविधा में मत रखा करो। हम तो तुच्छ प्राणी हैं, आप तो बड़े हैं, कम से कम इतना तो होना चाहिए। इशारा काफी हो जाता है, हम सब कुछ प्रबंध कर देंगे लेकिन इशारा कुछ नहीं होता है, न मौन तोड़ते हैं, न इधर-उधर देखते हैं। छह माह बहुत हो गये। आधा वर्ष हो गया सर्दी से गर्मी आ जाती है, एक अयन समाप्त हो जाता है, वैशाख शुक्ला तृतीया आखातीज यानि अक्षय तृतीया आ गई। आज वह पुनरावृत्ति समाप्त हो गई, किसके माध्यम से हो गई? भरत -बाहुबली के माध्यम से, नहीं।

     

    श्रेयांस राजा था, चारण ऋद्धिधारी मुनिराज को पूर्वभव में आहार दान कराया था, और आहार दान सीधा नहीं होता है, आहार दान की प्रक्रिया अपने आप में अलग होती है। उसकी शुरूआत उसका अंत कहाँ से होता है? आप लोगों को ज्ञात रहना चाहिए। चक्रवर्ती को ज्ञात नहीं रहा, संस्कार की बात है, ऐसे संस्कार भी नहीं होंगे उनके। नहीं तो अवश्य ही वह स्वप्न आ जाता चक्रवर्ती को, बाहुबली को और भी सेनापति आदि किसी को स्वप्न नहीं आया, राजा श्रेयांस को स्वप्न आया। हाँ, ये बात हो गयी भगवान् ने डायरेक्ट काम नहीं किया। स्वप्न से याद दिलाया, ये अच्छी युक्ति है, ऐसा आप लोग सोच सकते हो। लेकिन ध्यान रखना यह जैन धर्म है, इसमें साधु को कृत/कारित/ अनुमोदना से त्याग करना पड़ता है। वह स्वप्न राजा श्रेयांस को अपने पूर्व भव के संस्कारों से आया था। संस्कार अपने आप उभर कर आ जाते हैं।

     

    'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह फैक्ट है, केवल पात्र का ही अंतराय होता है, ऐसा नहीं है। अंतराय कर्म का उदय दो के बीच में आता है, दाता और पात्र इन दो के बीच में आता है। अंतर एक में नहीं पड़ता, अंतर पड़ता है, वह दो के बीच में ये रहस्य माना जाता है। बिना पात्र के दाता का क्या उदय चल रहा है? ये ज्ञात नहीं होता है और बिना दाता के पात्र का क्या उदय हुआ है? यह भी नहीं जाना जाता है। लेकिन एक पक्ष हमेशा रोता है, एक पक्ष बिना रोये वहाँ से जल्दी-जल्दी निकलकर आ जाता है। एक पक्ष साक्षी बनकर रह जाता है, एक पक्ष साक्षी नहीं बन पाता, वह कहता है, हमारा महान् कर्म का उदय है।

     

    यह कौन-सा कर्म? इसका कार्य क्या है? उमास्वामी तत्वार्थ सूत्र में कहते हैं- 'विध्नकरण मंतरायस्य' अच्छे कार्यों में विध्न आना यह अंतराय कर्म है। बुरे कार्यों में विध्न डालना, वह विध्न नहीं, किन्तु वह अच्छा कार्य माना जाता है। बुरा कार्य रुक जाये और अच्छे कार्य चालू हो जायें वह विध्न नहीं माना जाता-तो ‘श्रेयान्सि बहू-विध्नानि' अच्छे कार्यों में ही विध्न आया करते हैं। व्यक्ति के सामने वह कर्म नो-कर्म के रूप में उपस्थित हो जाता है, यह देखने में नहीं आता। राजा श्रेयांस को संस्कार के कारण स्वप्न पड़ा, स्वप्न के बाद वह सोचने लगे अरे बड़ी भूल हो गयी। छह महीने तक मुनिराज आये और चले गए और वो क्या चाहते हैं ज्ञात नहीं है। वह सोचता है कि हम लोग सब कुछ दे रहे हैं लेकिन नवधा भक्ति से नहीं दे रहे हैं। इसलिए प्रभु आते हैं और बिना कुछ लिए चले जाते हैं। यहाँ पर कुछ बातें विचारणीय हैं। पहली बात तो श्रावकों की गलती है कि वह नवधा भक्ति भूल चुके हैं उस भूल के कारण अहार नहीं हुआ छह माह तक। इस छह माह तक क्यों ध्यान नहीं आई नवधा भक्ति? अथवा छह माह तक श्रेयांस को स्वप्न क्यों नहीं आया? तो इसमें मूल कारण है दाता का दानान्तराय एवं पात्र का लाभान्तराय कर्म का तीव्र उदय।

     

    श्रेयांस का भी कर्म का उदय था और प्रभु का भी। ये दान देना चाहते हैं 'दातुमिच्छति' देना चाहता है, लेकिन ‘न ददाति' अन्तराय कर्म नहीं देने देता। इसी प्रकार लेने वाला लेना चाहता है, तो लाभांतराय कर्म का क्षयोपशम, उपभोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है, ये किसी को ज्ञात नहीं है। जब कार्य हो जाता है। पंच आश्चर्य हो जाते हैं। जब ज्ञात होता है, कि अरे अंतराय कर्म का उदय होने के कारण यह सब नहीं हो रहा था, नहीं हो सकता है। दान कार्य हो तो आश्चर्य हो। छह महीने तक यह पुण्य कार्य नहीं हुआ, बाद में श्रेयांस राजा के द्वारा यह कार्य सम्पन्न हुआ। पूछा गया, ऐसा कैसे हुआ? अवधिज्ञान जब था तो अवधिज्ञान से सोच लेता, देखो अवधिज्ञान से जब सोचा जाता है, जब अन्तराय कर्म का क्षयोपशम हो। सब कुछ सामग्री पास रहते हुए हम इसका प्रयोग करें, ये कोई नियम नहीं है। 'दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है' यह युक्ति यहीं विराम को प्राप्त नहीं होती बल्कि जैन सिद्धांत कहता है इसके साथ यह भी कहो कि दाने-दाने पर लिखा है देने वाले का नाम ।

     

    दाता और पात्र दोनों के नाम चाहिए तभी वस्तु व्यवस्था बनेगी। 'अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार' यह बहुत रहस्यपूर्ण वाक्य है। दूसरे-दूसरे का नहीं, अपने-अपने कर्म का। माँ के कर्म का फल माँ को मिलेगा, पिता का कर्म पिता को ही फल देगा। बहिन का कर्म बहिन को ही फल देगा, पुत्र का कर्म पुत्र को ही फल देगा, ये निश्चत है। अपना-अपना फल मिलता है। कुछ सीमा तक परिवर्तन किया जा सकता है। उसकी एक पृथक प्रक्रिया है वह बंधा हुआ कर्म या तो स्वमुख से आयेगा या परमुख से आयेगा, अपने आप समाप्त नहीं होगा।

     

    ऐसा तेज पुण्य भरत का नहीं निकला और किसी का नहीं निकला, किन्तु श्रेयांस राजा का निकला! भरत-बाहुबली का पुण्य फीका रह गया। ऐसा कौन-सा पुण्य है जो तीर्थकर को बुला ले? तीर्थकर तो तीन लोक के नाथ हैं, उन का तो बहुत तेज पुण्य है, लेकिन तेज पुण्य होते हुए एक लघु पुण्य के द्वारा भी सम्बन्ध को प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है। पूर्व का पुण्य है कि छह महीने के उपरान्त उनके दरवाजे पर खड़े हुए।

     

    अब दूसरी तरफ विचार करें कि ऋषभदेव को छह महीने तक आहार क्यों नहीं मिला? कर्म जो पूर्व में बांधा, वह कर्म कहता है कि भले ही आप तीर्थकर बन जाओ लेकिन जो आपने पूर्व में कर्म किया है, उसे अवश्य दुनियाँ के सामने रखेंगा कि आपकी क्या हिस्ट्री है? आपने क्या गुनाह किये हैं? ये दिखाना आवश्यक है। एक-एक घड़ी के लिए एक-एक माह का अनुपात लगाया जा सकता है। छह घड़ी के लिए अंतराय किया था, उन्होंने पूर्व जीवन में। ऋषभनाथ भगवान् का एक किसान के रूप में खलियान में बैलों के द्वारा दांय करा रहे थे। बैलों को ज्वार के सिट्टों पर घुमा रहा था, जिसके माध्यम से दाना अलग-अलग होता चला जा रहा था और बाकी भूसा अलग-अलग होता चला जाता था, ये सारा का सारा कार्य चल रहा था। घुमाते समय एक बैल ने अपना मुँह मार दिया और ज्वार के सिट्टों को मुख में लेने का प्रयास किया। तो किसान ने दायें रोककर एक नहीं दोनों बैलों को भी मुश्का बांध दिया। नीचे मुख करता तो ऊपर से चाबुक मारता, यह छह घड़ी तक उन बैलों को मुश्का बाँधे रहा, फिर खोल दिया। छह घड़ी का कर्म यह छह महीने तक निकाचित कर्म के रूप में उदय में बना रहा, बैल खाना चाहता था और उसको बंद कर दिया। कोई हिंसा नहीं, लेकिन यह भी एक हिंसा हो गयी। यदि आप भोजन कर रहे हो और उसका मुख बंद कर दिया जाये तो? आपके सामने यह कहना चाहता हूँकि मुश्का का यह फल मिला। मारा नहीं, पीटा नहीं, कुछ भी नहीं किया। आज तो बैलों का ही वध कर दिया जा रहा है।

     

    कल एक लेख पड़ा था सोचना भारत की यह दशा हो गई। आज कहना पड़ता है कि क्या यह वही भारत देश है? यही कृषि प्रधान देश है, वे ही बैल हैं, वो ही गाय है, वो ही सब कुछ है। किसान की यह सामग्री मानी जाती है, पशु धन यह देश की शोभा मानी जाती है, जिसके परिश्रम के माध्यम से अनेक प्राण, अनेक मानव जीवित रहते हैं। लेकिन ऐसे उपकारी पशु धन का ही वध करने के प्रयास की व्यथा अखबार में लिखी हुई थी। दो ट्रकों में २५-२५ गायें, दो ट्रक में कैसे भर दिया गया? बताओ और पैर लोहे के तारों से बाँधे हुए थे, खून रिस रहा है और प्रत्येक के मुख में कपड़ा ट्रेंस दिया गया, ताकि आवाज न करें। ताकि उसकी आवाज आप न सुन सको। पुलिस को संदेह हुआ पुलिस पीछे पड़ गयी। ड्राइवर फरार हो गया। जनता एकत्रित हो गयी, गौशाला का प्रबंध था, उसमें ले जाकर के उनको रखा। उसमें कई गायें प्रसूति के योग्य भी थी। बोल भी नहीं सकतीं, आवाज भी नहीं दे सकतीं। भगवान् का नाम वह मन से ही ले रही थीं। यह राष्ट्र की नीति, प्रजातंत्र की नीति, यह कैसी राजनीति है? कुछ समझ में नहीं आता। जीवित अवस्था में उनके प्राणों को समाप्त कर देना और उस मांस को विदेश निर्यात कर देना और विदेश से मुद्रा मिलने के बाद भारत की उन्नति कर देना, क्या आप मंजूरी देते हैं? इस प्रकार से राष्ट्र का विकास आप चाहते हैं? नहीं चाहते। निर्दयता के साथ कत्लखाने की ओर ले जा रहे हैं फिर भी आप मौन बैठे हो। न पानी न भोजन की व्यवस्था। जीवित अवस्था में मरण का अनुभव? और कैसा अनुभव? बहुत कटु अनुभव। भीतर जो गर्भ में बछड़े हैं, उनका क्या होता होगा? उनके लिए हवा कहाँ से मिलती होगी? यह सब कुछ त्रासनायें, सब कुछ यातनायें, यह सब कुछ विपदायें? मूक जानवर सहन करते चले जा रहे हैं? क्या उनके जीवन के बारे में आप नहीं सोच सकते हैं?

     

    ऐसी कौन सी आपकी परिस्थिति आ गई है? इस प्रकार गाय धन के निर्यात से, मांस के निर्यात से आप उन्नत देश बनाना चाह रहे हैं? हाँ महाराज। प्रत्येक नेता कहता है हम कटिबद्ध हैं, राष्ट्र को उन्नत बना करके ही रहेंगे, गरीबी मिटा करके ही रहेंगे। लेकिन ध्यान रखना! ऐसी दुनीति से गरीबी नहीं मिटा सकते। भले ही गरीबों को ही मिटाते चले जायें। इन मुद्राओं के माध्यम से गरीबी नहीं मिट रही है, गरीब अवश्य मिट रहे हैं। जो व्यक्ति दो बैल दो गाय रखते हैं। उनका परिवार आनंद से चल रहा है। लेकिन धन का प्रलोभन देकर के उनसे आनन्द के साधन छीन लिये जा रहे हैं। ये बहुत अन्याय है और उस अन्याय को और हिंसा को देखते हुए यदि आप अक्षय तृतीया मनाते हो तो हमको समझ में नहीं आ रहा है। मेरा तो कहना है कि आज वृषभनाथ भगवान् का नाम भले ही मत लो तो भी चल जायेगा, लेकिन वृषभ का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

     

    बचाओ उन वृषभों को ताकि आपका कल्याण हो सके। गाय भैंस सभी जीवों की कथा हम पुराण ग्रन्थों में पड़ते हैं, तो आप के समान वह भी व्रतों का पालन करते हैं, भगवान् के प्रति उनकी भी अटूट आस्था रहती है श्रावक होने के नाते। सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दृष्टि के लिए उपयोगी बनना चाहिए। गाय बैल भैंस भी सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं, वे घोषणा नहीं करते कि हम देश व्रती श्रावक हैं, उनके पास मानसिकता है, लेकिन मूक जानवर हैं। यह राष्ट्र उन्नति की बात करते हैं। आपके जीवन को उन्नत बनाने की बात करते हैं। गरीबी को मिटाने का नारा लगाते हैं। गरीबी तो दूर, गरीब ही मिटते जा रहे हैं। पशु गरीब हैं इनको मारकर मांस निर्यात करना क्या गरीब को मिटाना नहीं है। मुद्रा इसके द्वारा कितनी मिलती है? दिखाओ तो सही, ये केवल ५ अरब तक पहुँचने वाली है। लेकिन जानवरों की हत्या हो जाती है। कम से कम ५० से ७० लाख के बीच में जानवर कट जाते हैं। अब सोचिए कि यह संख्या और राशि कितनी मिल रही है? धन का उत्पादन तो अन्य स्त्रोत से हो सकता है, लेकिन जानवरों के उत्पादन के लिए कोई भी फैक्ट्री, कोई खान नहीं है। उसका एक मात्र स्रोत पुण्य के उदय से जन्म मिलता है और अधूरे जीवन में थोड़े से मांस के लिए उनको समाप्त कर रहे हैं। ये चेतन धन माना जाता है। ७-८ रविवार से इसी की चर्चा सुनी आप लोगों ने प्रवचनों से कि मांस निर्यात बंद आन्दोलन को कैसे भी हो हमें सफल बनाना है।

     

    तीर्थकर ऋषभनाथ होने वाला यह जीव भी अतीत में थोड़ी सी भी गलती कर देता है, तो उसे दण्ड मिला और इतना तेज पुण्य होने के उपरान्त भी उपसर्ग छह महीने तक हुआ। छह महीने तक घूमते रहे और वह ऋषभनाथ कर्मों को साक्षी होकर के देख रहे हैं और चिन्तन धारा चल रही है। देखो, मैंने ये अपराध किया था, उसका फल मुझे भोगना पड़ रहा है और आपको कौन सा फल मिलेगा? आप वोट देकर यह कह देते हैं, हमारी दुकान में कोई समस्या नहीं आनी चाहिए, न ही इनकम टेक्स ऑफिसर आना चाहिए, आ जाये तो वहीं के वहीं ठीक कर दीजिए फोन के द्वारा। ध्यान रखना! कभी इन मूक प्राणियों पर ध्यान दिया करो। यदि इन मूक प्राणियों की समस्याओं का ध्यान नहीं रखते तो ध्यान रखना डायरेक्ट, इनडायरेक्ट इनके प्रति अत्याचारों का समर्थन हो जाता है और वह पाप आपसे छूट नहीं सकता है। बड़े-बड़े कत्लखाने हैं जिनमें एक-एक दिन में १०-१०हजार गाय-बैल काटे जा रहे हैं। एक कत्लखाने में दूर-दूर से जानवरों को बुलाया जाता है क्योंकि यहाँ स्थानीय जानवर नहीं मिलते तो देश भर से पशु ट्रकों में भरकर लाये जाते हैं और टनों-टन मांस का निर्यात होता चला जा रहा है। अनाज वायुयान से नहीं आता किन्तु जलयान से आना-जाना होता है। लेकिन मांस निर्यात के लिए अविलम्ब भेजना होता है नहीं तो सड़-गल जाये। इसलिए वायुयान के माध्यम से भेजा जाता है।' लोभ पाप का बाप बखाना' अब लोभ कैसा? इतनी हत्या के द्वारा ५-६ अरब कोई वस्तु नहीं होती।

     

    ९००-९०० करोड़ के एक-एक घोटाले सुन रहे हैं, जिसमें अरबों-अरबों की राशि समाप्त हो रही है और यहाँ पर कौन सी राशि की उन्नति हो रही है? कौन सी आमद हो रही है? और कुछ भी तो एक्सपोर्ट कर सकते हैं। धान्य का कर सकते हैं, कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते फल-फूल का कर सकते हैं। ये भी कृषि के अंदर आ सकता है तो भारत से खनिज पदार्थ आदि का निर्यात करके बहुत अच्छी मुद्रा प्राप्त कर सकते हैं। आप भारतवासी हैं भारत में रहते हो तो राम, महावीर, आदिनाथ के आदेशों (उपदेशों) को अपने जीवन में अपनायें और सारे विश्व में अहिंसा विश्व धर्म की पताका फहरायें, यही मेरी भावना है।


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