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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. भावना के माध्यम से भावों में सुधार आये, यह कोई नियम नहीं है। इसी प्रकार दुनिया के दिग्दर्शन माध्यमों से भाव बिगड़ भी सकते किन्तु बिगड़े ही यह नियम नहीं है। सुधरने तथा बिगड़ने की क्षमता चेतना में है, जो शब्द और अर्थ को सुन/समझकर भाव को महसूस करने पर संभव होता है। अनंतानंत परम आत्माओं के द्वारा भी भाव हठात् समझाया नहीं गया, क्योंकि शब्द और अर्थ को ही बतलाया जा सकता है, भाव को स्वयं ही समझना होता है। आज तक हमारी चेतना सुप्त रही, इसलिये हमें भाव समझ में ही नहीं आया, शब्द और क्षेत्रादि भले ही छूट जावें पर भाव तक यात्रा होना आवश्यक है। हमारी भाव पक्ष की स्वीकारता शब्द या अर्थ पर नहीं अपितु भीतरी भावों पर ही आधारित है ज्ञान तो सभी के पास है परंतु भावज्ञान सभी को नहीं होता। शब्द कानों तक तथा-अर्थ दिमाग तक पहुँचता है। कान और दिमाग से ऊपर उठने पर आत्मा से भाव का संबंध जुड़ता है। जागृति इस भाव का संवेदन करती है। जबकि सुप्त आत्मा इस भाव-संवेदन से शून्य रह जाती है। हमारे भाव परस्पर समझाने पर भी समझ नहीं आते, किन्तु समझना चाहें तो वैसे शब्द या वातावरण नहीं होने पर भी शब्द के अर्थ में छुपा भाव भी समझ में आ जाता है। परन्तु समझने वाला चाहे तो ही समझ सकता किसी को हठात् प्रभावित नहीं किया जा सकता। जैसे उद्देश्य पूर्ति तक पहुँचने के लिये बीच में संदेश वाहक आवश्यक है। शरीर या क्षेत्र की दूरी दिखती अवश्य है, पर भावों के माध्यम से उसकी पूर्ति होना संभव है। यान में पेट्रोल हो तथा हवाई पट्टी हो तब यान उड़ सकता है। वैसे ही आपके भाव दूसरे तक पहुँचने के लिये स्थान, शब्द आदि भी सहायक हैं। चेतन में न भार है, चेतन की न छाँव | चेतन की फिर हार क्यों, भाव हुआ दुर्भाव || चेतन तो अमूर्त रूप-रस-गंध और स्पर्श से रहित भारहीन है उसकी छाया भी नहीं पड़ती। उसके भावपक्ष बिगड़ जाने से ही आज तक उसकी संसार में हार होती चली आ रही है। अर्थात् भाव खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। भगवान् के शब्दार्थ तक ही हमारा संबंध रहा, भाव तक नहीं। शब्द और अर्थ कथचित् अन्य पर आश्रित हो सकते हैं किन्तु भावों पर किसी अन्य का नियंत्रण नहीं होता है। पेट में आकस्मिक वेदना होने से बेटा तड़प-तड़प कर पापड़ के समान सिक रहा है। माँ देख-सुन कर सांत्वना प्रदान कर रही है। मेरे रहते तुम्हें कष्ट नहीं होगा, यह सुनकर उसका विश्वास व श्रद्धा मजबूत होता है, किन्तु पीड़ा की अति के कारण मुख से माँ शब्द भी नहीं निकल पा रहा है। पीड़ा के कारण आँखों से अश्रुधार निकल रही, जिसे देख माता के हृदय में संवेदना होने से उसकी आँखों से भी अश्रुधार बह निकली। आँखों से पानी आना शब्द पक्ष नहीं, अपितु भावपक्ष का प्रतीक है। इन भावों का प्रभाव किसी पर पड़े ही यह नियम नहीं है, पर भाव का प्रभाव अवश्य पड़ सकता है। हाथ में टार्च लेकर जलाने पर सामने वस्तु प्रकाशित होती है। दूर रहकर भी वस्तु एवं टार्च के बीच प्रकाश है या नहीं, यह देखना है। यह आँखों से नहीं दिखाई पड़ता? स्रोत हाथ में है, वस्तु दूर है, पर बीच में प्रकाश गायब क्यों? वस्तु बीच में नहीं दिख रही इसलिए वह नहीं ऐसा नहीं सोचना चाहिए। वस्तु सूक्ष्म है, सतत् नहीं दिख रही है, वैसे ही शब्द और अर्थ की अपेक्षा भाव सूक्ष्म है। वह दिखे भले ही नहीं पर संवेदन से महसूस तो किया जा सकता है। कभी अकाम निर्जरा करें, भवनत्रिक में सुर तन धरै। विषय चाह दावानल दहो, मरत विलाप करत दुख सहो॥ यह प्राणी पंचेन्द्रिय विषयों के दावानल में आज तक जलता आ रहा और मरते दम तक दुख सहन करते हुए रोता रहा, पर विषयों को नहीं छोड़ा। पक्षी पंख फड़फड़ाता है, उड़ता है, किन्तु बाद में निश्चितता के साथ पंख फैलाये हुए आकाश में घूमता रहता है। वैसे ही शब्द से अर्थ तथा अर्थ से भाव की यात्रा होने पर शब्द और अर्थ गौण हो जाता है। शब्द और अर्थ के अभाव में भाव नहीं होता, पर आज तक भाव के अभाव में मात्र शब्द की ही यात्रा हुई है। मंजिल या गंतव्य भावपक्ष है, उसके अभाव में यात्रा का कोई प्रयोजन नहीं है। गंतव्य तभी महसूस होता जब मंतव्य सही है। मंतव्य के अभाव में गंतव्य तक यात्रा नहीं हो सकती। अपने मंतव्य के अनुरूप ही पक्षी पंख फड़फड़ाकर गंतव्य को प्राप्त कर लेता है। एक राजा के दरबार में विशिष्ट संगीतज्ञ के संगीत का प्रदर्शन हो रहा था। संगीत सुनकर सभी दरबारी वाह-वाह कर उठे तथा उसी में डूब कर उन सभी के सिर झूमने लगे। भावपक्ष समझ में आ जाने पर शब्द और अर्थ महत्व नहीं रखते। संगीत देशी हो या विदेशी उसमें कोई विशारद हो या न हो परन्तु संगीत सुनकर भीतरी आनंद की अभिव्यक्ति शरीर पर दृष्टिगत होने लगती है। राजदरबार में हिलने-डुलने पर प्रतिबंध तथा राजाज्ञा उल्लंघन होने पर मृत्युदंड की घोषणा हो जाने पर सभी संभलकर बैठे रहे और गर्दन हिलने न पाये, ऐसी चेष्टा करने लगे। पर संगीत के आनंद में सराबोर कुछ व्यक्ति सहसा ही झूम उठे उन्हें राजाज्ञा उल्लंघन या मौत का डर नहीं था, क्योंकि विद्या या कला को भावपक्ष से जाना जाता है। उसके लिये शब्द और अर्थ पर पाबंदी हो सकती पर भाव तो भाव है। शब्द भले ही समझ में न आवे पर संकेत से भी भाव को पकड़ा जा सकता है। हिरण या सर्प संगीत सुनकर कीलित हो जाते उन्हें मरण या पकड़े जाने का भय नहीं रहता। बाहर की सुध बुध नहीं रहती और भीतरी तन्मयता आ जाती है, वैसे ही आत्मा की अनुभूति के समय मंतव्य के अनुरूप राग से वीतरागता की यात्रा होती है। अंत में माँ जिनवाणी के गुणानुवाद कर माँ का बेटे पर वरद हस्त रहें। अहिंसा परमो धर्म की जय !
  2. जब तक इंद्रिय संपदा तथा शारीरिक स्वस्थता, मन एवं बुद्धि ठीक-ठाक है तब तक शरीर और कर्मों को आत्मा से पृथक् करने की साधना अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए। पर की ओर नहीं बल्कि स्व की ओर देखने, लक्ष्य करने से ही अपूर्व आनंद की अनुभूति होगी। यदि भविष्य में और अवधारण करने की इच्छा नहीं है तो राग-द्वेष के चक्कर से ऊपर उठने की उत्कंठा रखकर पर्याय बुद्धि को छोड़ने तथा द्रव्य दृष्टि बनाने से ही कल्याण होना संभव होगा, शरीर को धारण करना एवं उसका जीर्ण-शीर्ण होकर छूट जाना अनादिकाल का क्रम है। अभी तक अनेकों बार शरीर धारण करने का हमारा पुरातन इतिहास रहा। यही सबसे बड़ी बीमारी है, जो शरीर को आत्मा मानकर एवं उसे ही सुख-शांति का साधन मान अनर्थ की ओर ले जाती है। शरीर को माध्यम बनाकर अपना परिचय पाने का प्रयास नहीं किया, इसलिए आत्मा का परिचय आज तक नहीं हो सका। शरीर और इंद्रियों से आत्मा को जानने का प्रयास हमने आज तक नहीं किया है, पर शरीरातीत दशा को पाने पर ही आत्मा को जाना जा सकता है। और ऐसे लोगों ने ही सुख के भाजन बनकर हमारे सामने आदर्श प्रस्तुत किये हैं। उस पथिक की क्या परीक्षा, जिस पथ में शूल न हो | उस नाविक की क्या परीक्षा, जो धारा प्रतिकूल न हो || आचार्यश्री ने कहा कि इस कलिकाल में प्रतिकूलताओं की तो भरमार है पर उनके बीच में रहते हुए भी, बुद्धि के प्रयोग द्वारा प्रयत्न करने पर उन पर विजय पाई जा सकती है। शरीर को पुष्ट बनाना भी अपने आप में सहज नहीं, शारीरिक क्षमता के साथ आत्म-विश्वास और साहस ही काम करता है। ऐसी दशा में शारीरिक क्षमता भले ही क्षीण होती जाती है पर सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण की तैयारी करने में काय और कषाय को कम करने के कारण स्वरूप बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रियों पर नियंत्रण करने रूप सल्लेखना की जाती है। अत: व्रतों का पालन करते हुए पूर्ण उत्साह पूर्वक प्रतिक्षण जागरूक रहकर समाधिमरण की साधना करने वाला अधिकतम ७ या ८ भव अथवा कम से कम २ या ३ भवों में ही मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। इस शताब्दी में युग प्रमुख, समाधि सम्राट्, आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने विधिवत् सल्लेखना धारण की थी, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने भी वैसा ही विधिवत् समाधिमरण प्राप्त किया। यह साधना वर्षों पूर्व प्रारंभ होकर अंत में महीनों तक चल सकती है। निर्दोष रीति से ऐसे समाधिमरण की प्राप्ति हेतु बड़े-बड़े महान् संत, आचार्य भी इच्छुक रहते हैं। इस संसार में मोह के कारण ज्ञान चक्षु बंद रहते हैं पर ज्ञानी जन ऐसे होते हैं जो समाधि के समय बाहरी आँखो के साथ भीतरी आँख भी खुली रखते हैं जिससे वह मृत्यु का प्रति समय ही साक्षात्कार करते रहते है। महावीर भगवान् की जय!
  3. विचारों की धरती पर आचरण का पालन-पोषण होता है और विचार तथा आचार के माध्यम से ही जीवन यात्रा पूर्ण सुव्यवस्थित होती है। इसके लिए भीतरी जागृति होना आवश्यक है। जीव और अजीव रूप पुद्गल के वास्तविक स्वरूप को समझने तथा जानने का प्रयास करें कि कब? किसे? किस रूप में? कर्म अपने प्रभाव से प्रभावित करता है। कार्य प्रारंभ करने के पूर्व कदम आगे बढ़ा या नहीं यह सोच-विचार आवश्यक है। आत्म साधना के द्वारा पंचेन्द्रिय की विषय वस्तु के स्वरूप को यथावत् समझना ही भेद-विज्ञान को समझ पाना है। इसके अभाव में भटकन हो जाती है। भेद विज्ञान के अभाव में ज्ञान को ध्यान में परिवर्तित करने की अपेक्षा अज्ञान में परिणत होने में देर नहीं लगती, अपितु वह सहज परिवर्तित हो जाता है। किन्तु भेद विज्ञान के माध्यम से ज्ञान को एकाग्र कर ध्यान में परिणत बद्धकर्मों को भस्म-सात किया जाता है। स्वदोष मूलं स्व समाधि तेजस। निनाय यो निर्दय भस्म सात् क्रियाम्॥ स्वयंभू-स्तोत्र (४) अनुकूलता या प्रतिकूलतायें वस्तु सापेक्ष नहीं, अपितु स्व-सापेक्ष हैं। बंधन और मुक्ति परस्पर सापेक्ष है। बंध की प्रक्रिया अनादिकालीन है, उससे मुक्ति तभी संभव है, जब बद्ध कर्मों की उपेक्षा और मुक्ति प्राप्ति की अपेक्षा रखकर साधना में विकास किया जावे। आत्म कल्याण के लिये वैराग्य की वृद्धि हेतु बारह भावनाओं के चिंतन द्वारा आत्मा और शरीर को भेद विज्ञान द्वारा पृथक् देखने वालों को मुक्ति स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। इस प्रक्रिया में आकांक्षा नहीं अनाकांक्षा भाव धारण करें। विषयों के प्रति द्वेष भाव नहीं रखना बल्कि उनके प्रति मुँह मात्र फेरना है। सूर्य किरणों को उष्णता के कारण, उसके प्रति द्वेष करने से नहीं छोड़ देगा। किन्तु उसकी ओर से मुँह फेर लेने से उष्णता से बचा जा सकता है। भेद विज्ञान की कमी के कारण वस्तु में अनुकूलता या प्रतिकूलता महसूस होती है। किन्तु भेद विज्ञान होने पर प्रतिकूलता में भी अनुकूलता लाई जाती है। कोअहं कीदृग गुणः कक्त्व, किं प्राप्य किं निमित्तकः । इत्यूह प्रत्ययं नो चेद दण्डित स्थाने हि मतिर्भवेत्॥ मैं कौन हूँ? मेरा स्वभाव क्या है ? मैं कहाँ से आया हूँ ? तथा मुझे क्या प्राप्त करना है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? इनका सदा विचार-चिंतन करना चाहिए। ऐसा नहीं सोचने पर हित चाहते हुए भी मन अहितकर कार्यों का संपादन करने लगता है। मन इन्द्रियों का नियंता है, अतएव इन्द्रियाँ उसी के अनुरूप ही कार्य करती हैं। अच्छे-बुरे का निर्णय इन्द्रियाँ नहीं बल्कि मन करता है। विचार करने पर यही ज्ञात होता कि प्रशंसा रूपी खुराक भी इन्द्रियों की नहीं अपितु मन की है। इसी मन के कारण जितनी सुविधा होती है उतनी दुविधा भी होती है। मन तात्कालिक सुख का भले ही अनुभव करता पर उससे चेतना को सदा दुख ही उठाना होता है। इसी के कारण दृष्टि स्व से हटकर पर की ओर चली जाती और परिग्रह वृत्ति के कारण सामग्री संचय का कार्य प्रारंभ कर लेती है। वस्तु तत्व यथार्थ समझ में आने पर ही संसार के विषय भोगों की चकाचौंध उसे प्रभावित नहीं कर पाती और वे सब सरस होते हुए भी नीरस ही प्रतीत होते हैं। पंचेन्द्रिय का लोभ या आकर्षण इतना प्रभावी होता है कि उसके प्रभाव से महान् व्यक्तित्व का धारक भी विषय-सागर में निमग्न हो जाता है। यह ऐसी उलझन है कि जिससे अच्छे-अच्छे व्यक्ति भी चपेट में आ जाते है। इन्द्रिय विषयों की ऐसी पकड़ होती है कि व्यक्ति उसी के वेदन में दत्त चित रहते हैं। इसके बिना बाह्य साधन/निमित कार्य करने में सक्षम नहीं होते। आदिम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ भी ८३ लाख पूर्व वर्ष तक गृहस्थ जीवन के भोगोपभोग/राग-रंग में फैंसे रहे। एक लाख पूर्व वर्ष की आयु अवशेष रह जाने पर इन्द्र को चिंता हुई और उसने राज दरबार में नृत्य करने हेतु नीलांजना नामक अप्सरा को प्रेषित किया। दरबारी उसकी नृत्य मुद्रा, भाव भंगिमा से आकर्षित हो रहे थे। पर भीतरी दृष्टि जागृत होने से महाराजा आदिकुमार ने अपने ज्ञान से समझ लिया कि इसकी आयु पूर्ण हो गई है। क्षणिक अंतराल में ही इन्द्र ने वैसी एक और नीलांजना प्रेषित की ‘सभी सभासद"जगवासी नृत्य देखते, पर प्रभु की निरंजना जागृत हो गई तभी प्रभु ने बारह भावना भाय दीक्षा लेने का मन में विचार किया। आचार्य समन्तभद्रस्वामी कहते हैं लक्ष्मी विभव सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रं लाञ्छनम्। साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरतृणमिवा भवत्॥ स्वयंभू-स्तोत्र ८८ बस 'ये ही इन्डायरेक्ट' संकेत पर्याप्त था। वैसे संकेत की व्यवस्था विशेष संस्कार नहीं होने या छिपे संस्कारों को उद्घाटित करने के लिये होती है। जैसे राख में अंगारे ढके हों तो वे पकाने योग्य ऊष्मा नहीं दे पाते, उन्हें उघाड़ने की आवश्यकता होती है। तभी वे अपनी वास्तविक ऊष्मा दे पाते हैं वैसे ही महाराज ने संकेत समझकर भोगों से उदासीनता प्राप्त कर आत्म कल्याण हेतु जिन दीक्षा अंगीकार की। राग की भूमिका में बैठने से वैराग्य भावनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। इतना अवश्य है कि जिनका वैराग्य जितना दृढ़ होता उनके लिये वे वैराग्य की दृढ़ता में अवश्य कारण हो जाती है। भेद विज्ञान की दशा में वैरागी को फिर बारह भावनाओं की आवश्यकता नहीं रहती। वह सदा आत्म चिंतन, मनन और ध्यान में ही निमग्न उसे पाने का प्रयास करता है आचार्य कहते हैं कि भेदविज्ञानतः सिद्धः, सिद्धा ये किल केचनः | तस्में भावत: वद्धो, वद्यी ये किल केचन: || आगमकारों ने राग की ओर पीठ दिखाकर चलने वालों को भेदविज्ञान का मर्म समझने वाला माना है। भेदविज्ञानी को देखने से भी भेदविज्ञान की प्राप्ति हो सकती है किन्तु मात्र चर्चा करने से नहीं अपितु चर्चा के अनुरूप आचरण करने से ही भेदविज्ञान की प्राप्ति संभव है। अज्ञान का अंधकार हटने पर ही भीतरी चिद्प्रकाश उद्घाटित होता है। अहिंसा परमो धर्म की जय !
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव 2017-18 आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज के 50वे दीक्षा दिवस के उपलक्ष्य में मंडला मध्यप्रदेश 28,29 और 30 नवम्बर 2017 समय प्रातः 5.30 से 7 बजे तक स्थान:- श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर धर्मशाला मार्गदर्शन:-राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त योगाचार्य डॉ नवीन जी जबलपुर मध्यप्रदेश आयोजक:-संयम स्वर्ण महोत्सव समिति
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव व सन्त श्रीरोमणी आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज के आर्शीवाद से विद्या भूमि स्कूल छिंदवाड़ा में 3000 के लगभग बच्चो के बीच तनाव मुक्ति व मोटिवेशनल प्रोग्राम के बाद बच्चों ने छमा वाणी पर्व मनाया व मांस व का त्याग कर शाकाहारी भोजन का नियम लिया
  6. प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {20 नवंबर 2017} चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की बांस काफी लम्बे होते हैं और ऊपर की ओर परस्पर तोरण द्वार की तरह लगते हैं। पंडित जी कहते हैं न की दोनों हांथों को ऊपर उठाओ और हांथ जोड़कर शिखर बनाकर जय कारा लगाओ उसी तरह बांस भी एक – दूसरे से जुड़े हुए रहते हैं, एक – दूसरे से गुथे हुए होते हैं। यदि कोई बांस को नीचे से काटे और खिचे तो उसे ऊपर से निकालना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि बांस एक – दूसरे से मिलकर गुथे हुए रहते हैं। इसी प्रकार यदि आप लोग भी एक – दूसरे के सांथ मिलकर रहेंगे तो कोई बाहर का भीतर घुस भी नहीं सकता और कोई झांक तक नहीं सकता की अन्दर क्या है। यदि संघर्ष विपक्ष से हो तो सफलता मिलना तय है परन्तु यदि संघर्ष पक्ष से हो तो उसकी घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है और सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाता है। इसलिए यदि सफलता पाना है तो संघर्ष पक्ष से नहीं विपक्ष से करना चाहिए। इसी प्रकार हमें अपने कर्म को संघर्ष से काटते रहना चाहिये जिससे आप अपनी मंजील की ओर बढ़ सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  7. प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {19 नवंबर 2017} चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा का आकार प्रतिदिन परिवर्तित होता है बढ़ता जाता है और पूर्णिमा के दिन उसकी उषमा से समुद्र की लहरों में उछाल आ जाता है ऐसे ही डोंगरगढ़ वासियों के भावों में भगवान के शमोशरण आने से उत्साह, उल्लास नज़र आ रहा है। आचार्य श्री ने कहा की आगे कब भगवान के समवशरण देखने को मिलेगा पता नहीं परन्तु पिछले 3 दिनों के विहार में भागवान के समवशरण की झलकियाँ देखने को मिली जो की अद्भुत थी। भगवान् की यह प्रतिमा बहुत प्राचीन है और जैसे कुण्डलपुर के भगवान् को आप लोग बड़े बाबा बोलते हो वैसे ही ये चंद्रगिरी के बड़े बाबा हैं। दोपहर के प्रवचन में आचार्य श्री ने खरगोश और कछुवा के एक दृष्टांत के माध्यम से बताया की खरगोश बहुत तेज, फुर्तीला और विवेकशील था परन्तु उसने समय का सदुपयोग नहीं किया और संवेदनशीलता की कमी और आलस्य के कारण उसकी हार हुई। जबकि कछुवे की चाल धीमी थी परन्तु उसने समय का सदुपयोग किया और आलस्य को त्यागा और अपनी मंजील पर जाकर ही रुका। कछुवे के ऊपर का भाग बहुत मजबूत होता है और उसकी एक खासियत यह है की वह अपनी चारों भुजाओं एवं मुख को उसके अन्दर कर लेता है जिससे उसके ऊपर यदि गाड़ी भी चल जाए तो उसको कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसी प्रकार हमें भी अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बिना आलस्य किये चलते रहना चाहिये। दिनांक 19/11/2017 को आचार्य श्री का विहार मुरमुंदा से डोंगरगढ़ के लिए प्रातः 6 बजे हुआ जिसमे देव, शास्त्र और गुरु तीनो के सांथ रत्नों के सामान रथों में प्रतिभास्थली की बचियाँ इंद्र, इन्द्रनियाँ , देव, आदि अति सुन्दर दिखाई दे रहे थे। जो भी व्यक्ति रास्ते में विहार का दृश्य देखता और आचार्यचकित होकर वहीँ रूककर दर्शन करता और अपने मोबाइल के कमरे से इस दृश्य को कैद कर लेता। इस विहार में गाँव के लोगों ने भी उत्साह से भगवान् के समवशरण के दर्शन कर धर्म लाभ लिया जो की काफी अद्भुत था। आचार्य श्री ससंघ की अगुवानी में जनसैलाब उमड़ पड़ा और लोगों ने अपने घरों के सामने रंगोली बनाई और दीपक जलाकर उनका ह्रदय से स्वागत किया। यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  8. अयाचक वृत्ति के धनी स्वाभिमानी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों मे नमस्कार- नमस्कार- नमस्कार.... हे गुरुवर! ब्रम्हचारी विद्याधर जी आपको पूर्णतः समर्पित होकर, आपके समान बनने के लिए, आपकी हर क्रिया को अपने अन्दर आचरित करते जा रहे थे। सही मायने में वो आपकी पर्याय बन आप में मिलना चाह रहे थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके भक्त प्रवीणचन्द गदीया ने एक स्मृति सुनायी- स्वाभिमानी ब्रम्हचारी विद्याधर "नसीराबाद में प्रवास में हमारे घर पर चौक लगा करता था। जब जब परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के आहार हमारे यहाँ होते तब-तब आहार देने एवं औषधि देने के लिए ब्रम्हचारी विद्याधार जी पीछे से आते थे और गुरुजी को औषधि एवं आहार देकर धीरे से चले जाते थे। जब तक उनको आहार स्वयं ग्रहण करने के लिए नही कहते, तब तक वे नही रुकते थे। हम लोग उनसे भोजन में उनकी रुचि पूछते थे, तो कुछ नही बोलते थे। चुपचाप जो परोसा जाता वही खा लेते थे और भोजन करते समय इधर-उधर नही देखते थे। अपनी थाली में ही देखते थे। उस समय वो अन्तराय का पालन करते थे, जैसे मुनि महाराज करते है। गर्मी के बावजूद भी भोजन करते समय पंखा चलाने के लिए न तो कहते थे और कोई चला दे तो सिर हिलाकर मना करते थे। एक ही वक्त भोजन करते थे, शाम को सिर्फ पानी लेते थे। भोजन करने के बाद 1 मिनट भी नही रुकते थे। सभी से जयजिनेंद्र करके चले जाते थे।" इस तरह विद्याधर जी जैन साधुवत् चर्या करते थे। जैसे आप करते थे वैसे ही। शायद ही आपको कोई शिकायत मिली हो ऐसे अद्वितीय समर्पण को नमन करता हुआ मै भी आज्ञाकारी शिष्य बना रहूँ इस भावना के साथ...... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  9. पावन भूमि-अमरकंटक में जैन समाज द्वारा आयोजित १००८ श्री सिद्धचक्र महामण्डल विधान एवं विश्वशांति महायज्ञ के आठ दिवसीय आयोजन का समापन धूमधाम से हुआ। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में होने वाले इस आयोजन का शुभारम्भ ध्वजारोहण से हुआ। इससे पूर्व घटयात्रा निकाली गयी। जिसमें नर्मदा उद्गम से जल लाकर पूजा स्थल की शुद्धि की गयी। पण्डित प्रतिष्ठाचार्य विमलकुमार सौरया टीकमगढ़ के कुशल निर्देशन में सम्पूर्ण विधि-विधान सम्पन्न हुए। विविध धार्मिक कार्यक्रम एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों से पूरा अमरकंटक धर्ममय हो गया। प्रतिदिन विभिन्न मठों एवं आश्रमों से आने वाले संत महात्माओं को देखकर ऐसा लगता था मानों सर्वोदय तीर्थ धार्मिक समन्वय का केन्द्र बन गया हो। श्रोताओं को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के प्रवचन प्रेरणा-दायक रहे। कल्याण आश्रम के अधिष्ठाता अमरकंटक के सुप्रसिद्ध संत बाबा कल्याण-दास जी अनेक संतों के साथ पूजा स्थल पर पधारे। अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि, भारत की भूमि न राजाओं की रही है, न प्रशासकों की। यह तो संतों की भूमि है, संतों की दिशा-दृष्टि से ही यह समाज सुरक्षित है। किसी कवि की दो पंक्ति उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा - आग लगी आकाश में, झर-झार झरे अंगार। संत न होते जगत् में तो जल जाता संसार। उन्होंने जैन शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि - जैन कोई व्यक्ति या समाज नहीं जिन नाम है- संयम का। और जो संयमित और अहिंसक है वह जैनी है। उन्होंने भगवान् महावीर के अवदानों को उल्लेखित करते हुए कहा कि, जब पशुओं के साथ क्रूर व्यवहार हो रहा था, धर्म के नाम पर बलि चढ़ायी जा रही थी। उस समय भगवान् महावीर का जन्म हुआ। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु बलि आदि कार्य जब-पराकाष्ठा पर थी, तब सब त्याग कर 'महावीर' ने शांति व समता का उपदेश दिया। जैन संस्कृति से अमरकंटक का सम्बन्ध बताते हुए उन्होंने कहा कि-मैकल पर्वत एवं आमकूट (अमरकंटक का प्राचीन नाम) में जैन मुनियों के विहार एवं तपस्या का उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है। अन्त में उन्होंने 'आचार्य श्री' के प्रति भाव वन्दन के साथ अपना उद्बोधन समाप्त किया। उससे पूर्व गुजरात से पधारे' श्री नारायण मुनि' ने कहा कि बड़ी खुशी की बात है कि, आज सभी धर्म के साधु संत एक मंच पर बैठे हैं। मेरी समझ में धरती पर एक ही धर्म है, वह है मानवता। उन्होंने सत्य, अहिंसा, पवित्रता और दान को धर्म के चार चरण बताये। गीता मंदिर से पधारे ‘स्वामी ब्रहोद् जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि, हमारे देश के तीन तरफ(उत्तर छोड़कर) सागर है, पर वे खारे हैं, लेकिन विद्या का सागर तो मीठा ही मीठा है। इसमें जो गोता लगायेगा वो मोक्ष को जायेगा। उत्त अवसर पर रामकृष्ण परमहंस आश्रम से आये स्वामीजी ने कहा-सबसे पहले हम उन सब का स्वागत करते हैं जिन्होंने सर्वोदय तीर्थ की कल्पना की। उनके प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। अन्त में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि गुण ही पूज्य है, जाति नहीं। जिस प्रकार गंध रहित पुष्प की कोई कीमत नहीं, गुणहीन मनुष्य का कोई महत्व नहीं। सुगंधित पुष्प पर भ्रमर सहज ही मंडराते हैं। धर्म वह सुवासित वस्तु है जो आसपास के वातावरण को सहज ही सुवासित कर देती है। आचार्य श्री ने कहा कि धर्म की पहचान हम गुणों के आधार पर ही कर सकते हैं। धर्म किसी वेष-परिवेश और देश से बंधा हुआ नहीं है। वह तो आत्मा की निर्मल परिणति है उन्होंने कहा कि धर्म सनातन है। किन्तु आज उसी धर्म के नाम पर तनातन हो रहा है जबकि होना चाहिये था 'टनाटन' (१०० टंच खरा)। अंत में उन्होंने कहा हमारे पास सत् और चित है पर आनन्द का अभाव है। विषयों का त्याग करने पर ही आनन्द सम्भव है। प्रभु का दास बनने पर ही हमारा कल्याण होगा। इससे एक दिन पूर्व अमरकंटक में श्री तांत्रिक मंदिर के निर्माता स्वामी श्री सुखदेवानन्द जी का प्रवचन हुआ उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक आचरण बिना सुख आ ही नहीं सकता। त्याग से ही सत्य और अहिंसा को पूर्ण रूप से पा सकते हैं। धन्य हैं वे लोग जिनके अन्दर व्रत ग्रहण का भाव आ जाता है जिनकी क्रिया में व्रत अवतरित हो जाता है। और धन्य है वे लोग जो स्वयं त्याग की मूर्ति बन जाते हैं। सिद्धचक्र विधान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि सभी परम्पराओं में सिद्ध चक्र की पूजा और महत्व एक सा है। सिर्फ क्रिया-प्रक्रिया में थोड़ा फर्क है। उन्होंने यज्ञ का अर्थ त्याग बताया । संत जीवन के महत्व को बताते हुए उन्होंने कहा कि धन्य है वह जीवन जिसको संत का दर्शन हो जाये और सौभाग्यशाली है वह जीवन जिसे संतों के चरणों की रज मिल जाये। आचार्य श्री की ओर इंगित करते हुए उन्होंने कहा कि आपको भगवान् के प्रति भक्ति हो या न हो किन्तु यह जो जीवित भगवान् बैठे हैं, इनकी भक्ति सौभाग्यशाली को ही मिलती है। अंत में दिगम्बर मुनि के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा कि तप और त्याग की जो मूर्ति दिखायी देती है वह सिर्फ दिगम्बर संतों में दिखायी देती है। इससे पहले गुरुद्वारा से आये 'हरदेव सिंग जी ज्ञानी' ने आचार्य श्री का वन्दन करते हुए कहा कि ऐबों से बचना, सबसे मिलकर रहना एवं भगवान् का स्मरण करना संतों का उपदेश है। अन्त में आचार्य श्री ने अपने मांगलिक प्रवचन में कहा कि जिस प्रकार बीज से अंकुर फूटता है केन्द्र एक रहता है किन्तु उसकी कई उपशाखायें बन जाती हैं उसी प्रकार धर्म एक है, किन्तु उसकी कई उपशाखाएँ बन जाती है उन्होंने कहा कि प्रत्येक साधना का लक्ष्य साध्य को पाना है। साधना में साध्य नहीं वह तो सिर्फ साध्य को पाने में सहायक है। मंत्र और तंत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि तंत्र के आगे यदि 'स्व' लगा दें तो उसी क्षण हम स्वतंत्र हो जायेंगे। स्वतंत्रता की प्राप्ति ही साधना का महामंत्र है। अंत में निर्मलजी, सतना ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि अमरकंटक संतों की भूमि है। यहाँ आने वाले प्रत्येक श्रद्धालू को संत समाज के दर्शन का अच्छा अवसर प्राप्त होगा। कार्यक्रम के अंतिम दिन प्रातः हवन कर्म के पश्चात् मध्याहू में विशाल शोभा यात्रा निकाली गयी। शोभा यात्रा के आगे चल रहे 'वर्धमान कला मण्डल, टीकमगढ़” की मोहक धुनों से सभी के पैर थिरक रहे थे। आचार्य श्री अपने संघ के साथ शोभा यात्रा में सम्मिलित थे। कल्याण सेवा आश्रम के 'मोनी बाबा’, बफीनी आश्रम के 'पुरुषोत्तमदासजी' शोभा यात्रा में आचार्य श्री के साथ-साथ चल रहे थे। नर्मदा मंदिर के सामने वहाँ के पुजारियों ने आचार्य श्री की मंत्रोच्चार सहित भाव पूर्ण वंदना की। विभिन्न धमाँ के सभी लोग आचार्य श्री की आरती उतारते देखे गये। शोभा यात्रा नर्मदा मंदिर से होते हुए कल्याण आश्रम के आगे तक पहुँची। वहाँ से लौटकर ‘सर्वोदय तीर्थ' (पूजास्थल में) आ, विशाल सभा में परिणत हो गयी। उत्त अवसर पर भोपाल से पधारे युवा कवि चन्द्रसेन के मंगलाचरण के साथ ही मौनी बाबा ने अपने मार्मिक उद्बोधन में कहा कि हम यहाँ यह मत देखे कि कौन क्या कर रहा है? बल्कि यह देखें कि संतों का सम्मान बढ़ रहा है कि नहीं? उन्होंने धार्मिक एकता पर बल देते हुए कहा कि 'एक अंगुली दिखाने से उसे बुरा माना जाता है उसे कोई भी तोड़ सकता है किन्तु अंगुलियों का समूह (मुट्ठी) है, उसे उठाने से कोई नहीं तोड़ सकता है। इसी तरह पूरे भारत व भारतवासी की धर्म आराधना और साधना भले ही भिन्न हो किन्तु बाजार में अन्य देशों में हम एक हों। हमारी आवाज एक हो। आचार्यश्री को लक्ष्य कर उन्होंने कहा-आचार्यश्री में सही अर्थों में संतत्व है। बफनी आश्रम से पधारे 'पुरुषोत्तम दास जी” ने अमरकंटक का महत्व बतलाते हुए कहा कि-इस भूमि का काफी महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है-‘रेवा तटे तपः कुर्यात्' यहाँ संतों का आगमन हो रहा है। यहाँ के जैन बन्धुओं ने कम समय में बहुत काम किया ऐसा ही विकास करना चाहिए। अन्त में अंतिम दिन आचार्यश्री ने सबको आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह मांगलिक कार्य आदि से अंत तक मंगलमय तरीके से सम्पन्न हुआ। आत्म तत्व को परमात्म रूप में परिवर्तित कर देना ही धार्मिक कार्य का प्रयोजन है। उन्होंने कहा कि बाहरी विभाजन कोई महत्व नहीं रखते। विचारों का विभाजन ही वास्तविक विभाजन है। हमें सम्प्रदाय और शरीर तत्व के भेद भाव से परे प्राणी मात्र के कल्याण की भावना रखनी चाहिए। अन्त में उन्होंने कहा कि आपको जाते समय एक ही उपदेश है कि आप अजीव का सम्मान न करें। जीव मात्र की पहचान एवं उसका सम्मान करें। ‘महावीर भगवान् की जय'
  10. संसारी प्राणी को मुख्य रूप से तीन ऋतुओं के माध्यम से राग-द्वेष, धर्म विषाद होता है। गर्मी में सर्दी और सर्दी में सूर्यनारायण याद आते हैं। जब जो है उस समय उससे राग क्यों नहीं? जाने के बाद अनुराग क्यों? जिस समय जो मौसम है उस समय उसी का आनंद क्यों नहीं लिया जाता। इन ऋतुओं को बार-बार परिवर्तित/समाप्त करने की अपेक्षा समाप्त करने की चाह रखने वाले मोह को ही समाप्त कर देना चाहिए। यह मोह का ही परिणाम है कि मनोनुरूप कार्य होने पर हम प्रशंसा के गीत गाने लगते हैं और मन की न होने पर उसी की अवहेलना/उपेक्षा करने लगते हैं। मानव मन की यह बहुत बड़ी कमजोरी है। स्वभाव का भान होते ही यह सारी बातें पीछे छूट जाती है। पैसा आ जाये तो खूब उत्साह विलास और चला जाये तो उदास, निराश किन्तु वास्तविकता समझ में आते ही न विलास न निराश बल्कि संन्यास आ जाता है। एक वह व्यक्ति जिसे हम आपके सामने लाकर रख रहे हैं, आप लोगों की अपेक्षा बहुत पीछे था पर कैसे बढ़ गया आगे, इस पर आप सभी को विचार करना है। चैन नहीं है बिल्कुल, रात बहुत बड़ी है, चारों ओर भोग सामग्री फैली है, सब तरफ गहन मौन छाया है। किसी को उठाना/बुलाना नहीं चाहता है वह/वह चाहता है कि सब लोग ऐसे ही सोते रहे और मैं चुपचाप धीरे से निकल जाऊँ/निकलने के लिये रस्सी नहीं तो क्या? कुछ भी ......। हाँ! will power होना चाहिए। आपके पास में धन, बल, पद का power हो सकता है पर will power नहीं है। हमें आज इस व्यक्ति के माध्यम से power की नहीं will power, self confidence की बात करनी है। यदि हमारी इच्छा शक्ति प्रबल हो तो बिना रस्सी के भी रस्सी का काम हो सकता है। फिर नसैनी की जरूरत नहीं सैनी (मन/इच्छा) भर हो, समझदारी भर हो। जहाँ चाह है वहाँ राह निकल ही आती है और रास्ता खोज लिया गया-साड़ियाँ बाँधकर नीचे उतर गया। वह। क्या सोचकर निकले? भवन को छोड़कर वन की ओर क्यों गया? इस भवन में सुख नहीं तो दूसरा भवन, राजभवन भी तैयार किया जा सकता था किन्तु सब कुछ छोड़कर वन की ओर क्यों? बस एक ही बात-आत्म श्रद्धान् self confidence, will power | काली-काली घटायें देखकर, बिजलियों की चमक और बादलों की गर्जन सुनकर सभी भयभीत हो जाते हैं, घबराते हैं किन्तु वह मयूर दल निर्भीक आनंद के साथ नाचता रहता है क्योंकि उसे इष्ट दिख गया है। कदम आगे बढ़ते गये, कंकर काटे आये पर रुके नहीं। रास्ते में पदचिह्न अंकित होते गये रत के निशान से। कष्ट का ज्ञान तो हुआ होगा पर दृढ़ता कैसी अद्भुत, जैसे अपने ही घर की ओर जा रहे हों, शरण्य की ओर जा रहे हों। पहुँच गये उल्लास के साथ, प्रणाम किया और तथास्तु के रूप में मिल गया आशीष। इतना ही सुनने मिला कि-केवल तीन दिन की आयु शेष है, शीघ्र ही अपने कल्याण में लग जा और फिर क्या? एक साथ दैगम्बरी दीक्षा। क्या साहस है, कहीं से आ गया, कैसे आ गया यह साहस। वन में किसने बुलाया? और भवन को किसने भुलाया? यह सूक्ष्म डोर दिखती ही नहीं फिर भी सम्बन्ध तारतम्य बना रहता है। रक्त की गन्ध पाकर स्यालनी आ गई बच्चों सहित, खाना शुरू हो गया लेकिन वह निडर निस्पृह खड़े हैं। मेरु की तरह अडिग। वही काया जिसे सरसों के दाने चुभते थे, रून कम्बल के बाल सह्य नहीं थे, रून दीपक के प्रकाश में पालन-पोषण हुआ, कमल पत्र में सुवासित चावलों के एक-एक दाने चुगे जाते थे, और आज अहा.....! हा.....will power, Self confidence वही काया, वही क्षेत्र वही भोग्य सामग्री, पर कहीं से आ गई ये दृष्टि। उनका नाम मालूम है क्या था? वे थे हमारे आदर्श सुकमाल स्वामी। बंधुओ! भूख है तो खोज हो ही जाती है अनाज की। दृष्टि होने पर गन्तव्य मिल ही जाता है। आत्मज्ञान के अभाव में यह संसारी प्राणी शरीर की सेवा में लगा रहता है किन्तु आत्मज्ञान प्राप्त होते ही कड़े से कड़े प्रबंध और वैभव सब पड़े रहते हैं फिर वह शिव राही शरीर की परवाह नहीं करता। शरीर तो अनेकों बार मिला, मिला और छूट पर उसको तो देखो जिसे मिला है। शरीर के मिलने पर हर्ष और छूटने पर विषाद क्यों? क्या कभी पुराने वस्त्र बदलते समय हम विषाद करते हैं। गीता में कहा गया है कि यह आत्मा अखेद्य है, अभेद्य है, अक्लेक्ष्य है नित्य ही सनातन है जो पानी में डूब नहीं सकती, अग्नि में जल नहीं सकती, वायु के द्वारा शोषित नहीं हो सकती ऐसी यह आत्मा अविनश्वर है। समयसार में भी कहा गया है कि शरीर के छिद जाने पर, मिट जाने पर भी इस आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ता है। फिर भी हम हैं कि इस रहस्य को न समझकर शरीर के व्यामोह में फैंसे हुए हैं यही अज्ञानता हमारी दुख परतन्त्रता का कारण बनी हुई है। रणांगन में अर्जुन ने जब देखा कि सामने गुरु द्रोणाचार्य और सारे कुटुम्बीजन खड़े हुए हैं तब धीरे से नीचे गांडव रख दिया और ज्ञान योग की बात करने लगे। तब कहा गया- हे! अर्जुन, रणांगन में तुम ज्ञानयोग का उपदेश सुनना चाहते हो। मोह की वजह से तुम्हें सिर्फ और सम्बन्ध दिखाई दे रहे हैं, अन्याय नहीं दिख रहा। यदि तुम्हें अन्याय दिखता तो तुम रणांगन के कर्तव्य से पीछे नहीं हटते। रणांगन में सामने वाले की आरती नहीं होती वह तो अराति (शत्रु) होता है। शिक्षा देने वाले पर कैसे बाण चलाये अर्जुन। अरे यदि सही शिक्षा देने वाला होता तो अन्याय की ओर खड़ा ही क्यों होता। अर्जुन को दृष्टि प्राप्त हुई, मोह भंग हुआ, स्वाभिमान जागा, कर्तव्य का भान हुआ और फिर क्या हुआ? सो सभी को ज्ञात है। यह देश जब परतन्त्र था तो हमें एक नारा दिया गया था कि 'स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'। यह नारा ही नहीं हमारा सिद्धान्त भी है। अनादिकाल से यह जीव परतन्त्रता का कष्ट भोग रहा है, यह भूल ही गया कि स्वतन्त्रता पाने का अधिकार हमारा जन्मसिद्ध ही है। इसके अन्दर स्वयं भगवान् बनने की शक्ति है पर वर्तमान में वह खोई हुई है। इसके अन्दर छिपा हुआ परमात्मा अभी सोया हुआ है, इसे जगाने की जरूरत है। जागृति के आते ही हमारे कदम गन्तव्य की ओर बढ़ने लगते हैं। संकल्पशक्ति का धनी वह वैराग्यवान साधक फिर लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सब कुछ सहन करने तैयार हो जाता है सुकमाल स्वामी की तरह। धन्य है वे सुकमाल स्वामी जिन्होंने अति सुकुमार काया को पाकर भी मोक्षमार्ग में कमाल का काम कर दिया। वह काम किया जिसे युगों-युगों तक याद रखा जायेगा। ये कथायें ही नहीं हैं किन्तु जीवन को जगाने वाले प्रेरक प्रसंग है। इन्हें सुनकर हमारा स्वाभिमान जागृत हो जाता है, will power बढ़ जाता है। सुकमाल स्वामी ने तो तीन दिन में ही अपना सारा वैभव प्राप्त कर लिया जो अनन्त काल से खोया हुआ था। हम भी उन्हीं की तरह अपने खोये हुए स्वतंत्र वैभव को प्राप्त कर सकते हैं बस जरूरत है आत्म विश्वास की। उस आनंद वैभव की प्राप्ति हमें भी शीघ्रातिशीघ्र हो इसी भावना के साथ।
  11. आज शिक्षण शिविर का समापन है। शिक्षा देने के रूप में शिविर का समापन है किन्तु प्राप्त की गई शिक्षा को जीवन में उतारने की शुरूआत। भोजन करने के उपरान्त जिस तरह पाचन की क्रिया प्रारंभ होती है उसी तरह प्राप्त किये गये शिक्षा के संस्कारों को अब जीवन में उतारना है। किये गये भोजन का यदि पाचन न हो तो अजीर्ण हो जाता है, ठीक ऐसा ही शिक्षा के क्षेत्र में भी है यदि उसे आचरण में न ढाला जाये तो अहितकारी हो जाती है। यहाँ पर दो बातें विचारणीय हैं कि किसको संस्कार? और किसका संस्कार? तो आचार्य महाराज कहते हैं कि इस जीव को ज्ञान चरित्र के माध्यम से संस्कारित करना है। प्रश्न यह उठता है कि जब जीव स्वयं ज्ञानवान एवं चारित्र स्वभावी है तब फिर उसे संस्कारित करने की जरूरत क्या है? तो उत्तर दिया गया है कि यद्यपि यह जीव स्वभाव से ज्ञान और चारित्र वाला है किन्तु मिथ्यात्व के प्रभाव से इसका ज्ञान चारित्र विकृत हो गया है इसलिए इसे संस्कारित करने की आवश्यकता है। भगवान् महावीर या उनके उपासकों ने इसका प्रचार-प्रसार उपदेशों के माध्यम से ही नहीं बल्कि प्रचाल (चलकर) भी किया है। इसलिए कहा गया है कि ज्ञान के बढ़ने के साथ-साथ उसे सम्हालने की शक्ति भी बढ़नी चाहिये अन्यथा वह गतिमान गाड़ी के स्टेरिंग को सम्हालने में असमर्थ ड्रायवर की तरह खतरनाक हो जाता है। ज्ञान ही दुख का मूल है ज्ञान ही भव का कूल। राग सहित प्रतिकूल है राग रहित अनुकूल। चुन-चुन इनमें उचित को मत चुन अनुचित भूल। सब शास्त्रों का सार है समता बिन सब धूल। हमारा ज्ञान रागान्वित है; पर पदार्थ की ओर झुक रहा है इसलिए दुख का कारण बना हुआ है जबकि भगवान् का ज्ञान राग-द्वेष से रहित स्वभाव में स्थिर है और यही कारण है कि प्रभु पर पदार्थ को जानने का उद्यम नहीं करते, पर पदार्थ उनके ज्ञान में झलकते हैं यह पृथक् बात है। वस्तुत: ज्ञान की खुराक ज्ञेय नहीं किन्तु ज्ञान ही है। दुनिया के साथ सम्बन्ध रखने से ही सुख का अनुभव होता है ऐसी हमारी मान्यता है किन्तु वास्तविक सुख तो अपने आप में आने पर ही होता है। देखा होगा आपने - सुबह अपनी छाया बहुत बड़ी दूर-दूर तक फैली रहती है इसी तरह अन्त में शाम को भी छाया का विस्तार रहता है किन्तु मध्याह्न में छाया गायब हो जाती है, लगता है जैसे कि स्वयं में लीन हो गई हो। यह मध्याह्न, मध्यस्थता समत्व की प्रतीक है। बंधुओ! यदि आपका ज्ञान आचरण की आराधना करता है तो आनंददायी स्वयं में लीन हो जाता है। चरण का साथ देने वाला ज्ञान स्वस्थ आत्मस्थ माना जाता है। आत्म परिधि से बाहर जाने पर ही ज्ञान परेशान होता है। हमें अन्य को नहीं अपने आप को, अपने आत्म को देखना है यही हमारी संस्कृति है भगवान् को देखना ही नहीं, उनकी भक्ति में लीन होना है। भक्ति एक ऐसा माध्यम है जिसमें भक्त कौन है और भगवान कौन यह पहचान नहीं हो पाती। सारी दुनिया खत्म हो जाती है इस भक्ति में। इसी भावना को मैंने इस दोहे में दर्शाया हैं - भत लीन जब ईश में, यूँ कहते ऋषि लोग। मणि-काँचन का योग न, मणि प्रवाल का योग। मणि काँचन का योग तो सभी जानते हैं इसमें नैकट्य है पर अभेद नहीं, किन्तु एक मणिप्रवाल का योग भी है जिसमें मणि और प्रवाल के आमने-सामने रखे रहने पर यह ज्ञान नहीं हो पाता कि मणि कौन है और प्रवाल कौन है दोनों एक ही रंग में रंग जाते हैं। स्फटिक मणि प्रवालमय हो जाती है। धन्य है वह भक्ति जिसमें भक्त इतना तन्मय हो जाता है कि मणि-प्रवाल के योग की तरह भेद भी अभेद जैसा दिखने लगता है। इस भारत में जहाँ भक्ति की परम्परा है तो वहीं नीति न्याय को भी सम्मान मिला है। आज इन्सान का जीवन संघर्षमय बनता जा रहा है इसका एक ही कारण है कि न्याय नीति को छोड़कर मध्यस्थ भूमिका से हट जाना तराजू के पलड़े से भले ही ऊपर नीचे हो किन्तु उसका काँटा यदि केन्द्र को नहीं छोड़ता मध्यस्थ रहता है तो सत्यासत्य का सही निर्णय दे सकता है, अन्यथा नहीं। धर्मकांटा तो धर्मकांटा ही है। हमारा जीवन भी धर्मकाँटे की तरह यदि न्याय से युक्त सधा हुआ है तो हम सत्यासत्य का सुखद निर्णय कर सकते हैं अन्यथा कलह और संघर्ष के अलावा हमारे हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं। लेन-देन में हीनाधिकता करने से प्रामाणिकता खंडित होती है विश्वास उठ जाता है और जीवन संघर्षमय बनता है। भले ही ज्ञान कम हो किन्तु जीवन में इस धर्म की, आचरण की बड़ी मुख्यता है। इस धर्म के प्रभाव से तिर्यच की निम्न पर्याय में जन्म लेने वाला श्वान भी देव हो जाता है और पाप अधर्म के वशीभूत होकर उच्च पर्याय में जन्मा देव भी श्वान हो जाता है। और पाप अधर्म के वशीभूत होकर उच्च में जन्मा देव भी श्वान हो जाता है, इस बात को बतलाने के लिये इंग्लिश में शब्द भी बड़े फिट बैठ रहे हैं, देखिये-Dog यदि धर्म करता है तो वह उससे विपरीत अर्थात् God बन जाता है और God भी यदि अधर्म के वश होता है तो उससे विपरीत Dog बन जाता है। धर्म की बात बड़ी रहस्यपूर्ण है बंधुओ। जिसके जीवन में धर्म है/न्याय है उसकी हमेशा उन्नति होती है, विजय होती है। अधर्म और अन्याय हमेशा हारता ही हारता है। उन्नत बनने नत बनो लघु से राघव होय। कर्ण बिना भी धर्म से विजयी पांडव होय। रामायण और महाभारत ऐसे कथानक हैं जिनके माध्यम से संक्षेप में भारत का इतिहास समझ में आ जाता है। इसलिए इस दोहे में कहा गया है कि उन्नति के लिये नति-नम्रता आवश्यक है, रघुवंशी राम बनने की परम्परा यही है और कर्ण के बिना भी पाण्डवों के पास यदि धर्म (धर्मराज) है तो जीत पाण्डवों की होगी। यह प्रसंग महाभारत का है जिसमें कर्ण जो कि पाण्डवों का ही भाई था युद्ध में कौरवों की ओर चला गया था किन्तु इसके बाद भी न्याय परायण धर्मनिष्ठ धर्मराज के रहने से पाण्डव विजयी हुए। ध्यान रखो! अकेले बड़े होने मात्र से काम नहीं बनते किन्तु बड़प्पन से काम बनते हैं, बड़प्पन श्रेष्ठ है बड़ा होना नहीं। समय आपका हो रहा है, सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर के इन दस दिनों में यही शिक्षा संस्कार दिये गये हैं कि धर्म और धर्मात्माओं के प्रति भक्ति विश्वास जागे। बिना विशेष सुविधा/प्रबंध के भी यह सफल रहा, बड़ा सराहनीय कार्य है। प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं कि सभी का जीवन इसी तरह संस्कारित हो एवं धर्मनिष्ठ बने। ‘महावीर भगवान् की जय!'
  12. इस संसार में बहुत सारे कठिन कार्य हैं किन्तु मान को नियंत्रण में रखना सबसे कठिन कार्य है। यह मान कषाय की ही परणति है कि हम अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं पर दूसरों की मान्यता हम स्वीकार करना नहीं चाहते। हम यह देखते रहते हैं कि हमारी मान्यता का समर्थन कौन-कौन कर रहा है। जिस प्रकार फूल को यदि पानी मिलता रहे तो वह खिला रहता है किन्तु पानी नहीं मिलने पर वह मुरझा जाता है ठीक इसी प्रकार हमारी प्रसन्नता दूसरों पर टिकी हुई है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि अपने जीवन को दूसरों से नहीं अपने आपसे ही पुष्ट करो। हमें देखना यह है कि हमारी स्वयं की मान्यता स्वयं के लिये कितने प्रतिशत में है। स्वयं को स्वयं के रूप में यदि हम स्वयं ही नहीं मानते तो दूसरे कैसे मान सकते हैं यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य बात है। चुनाव प्रक्रिया देखी होगी आपने जिसमें उम्मीदवार दूसरों का समर्थन दूसरों का वोट लेने की भावना रखता है किन्तु अपनी वोट स्वयं को देने का स्वतन्त्र अधिकार भी रखता है। और वह अपना वोट अपने आपको देता भी है। अब ‘जिसका स्वयं का वोट स्वयं को ही न मिले तो वह जीत कैसे सकता है। जो व्यक्ति अपनी पहचान कर अपने आपको वोट देता है वह तीन लोक का नाथ भगवान् बन जाता है फिर सारी दुनियाँ उसे वोट देने तैयार हो जाती है। मैं आप से पूछना चाहता हूँकि आप लोगों का चुनाव चिह्न क्या है? शरीर या आत्मा। सील किस पर लगाई है आज तक। इस जड़ शरीर को वोट देने वाला यह अज्ञानी प्राणी कभी जीत नहीं सकता इस संसार में। यह मोक्ष मार्ग है ; इसमें स्वयं की दृष्टि पाना जरूरी है। यहाँ दूसरों की दृष्टि से काम नहीं चलेगा। देखने के लिये यदि अपने पास दृष्टि है तो चश्मा फिर भी कथचित् सहायक हो सकता है पर दूसरों की दृष्टि कदापि नहीं। दूसरे की दृष्टि से दूसरों को देखा जा सकता है, पर अपने लिये अपनी ही दृष्टि, अपनी ही आँख से देखा जाना सम्भव है। यदि साफ-साफ नहीं दिख रहा है तो ऑपरेशन के माध्यम से आँख का पर्दा हटाकर रहस्य का उद्धाटन किया जा सकता है। इस कार्य में हमारा प्रयास/ पुरुषार्थ इतना ही मायने रखता है कि पर्दा को हटाओ और अंतर्दूष्टि प्राप्त करो। ऐसी दृष्टि जिसके बल पर हमें अपनी और भगवान् की पहचान होती है। भगवान् की पहचान का मतलब है कि उनकी पहचान से हम अपनी पहचान करें। जो दृष्टि स्वयं को नहीं देख सकती/पहचान सकती वह पर को भी नहीं देख सकती और जो स्व-पर को नहीं देख सकती वह विश्व को भी नहीं देख सकती और जो विश्व को नहीं देख सकती वह सम्यक दृष्टि कैसे हो सकती है, उसकी दृष्टि सम्यक्र कैसे हो सकती है। अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाकर वस्तुतत्व को पहचानने का प्रयास करो। शिविर चल रहा है यहाँ पर, परीक्षा होगी, नम्बर भी मिलेंगे। मैं पूछना चाहता हूँ आप सबसे - कि नम्बर कौन देता है? परीक्षक या हम स्वयं। बात स्पष्ट है हमारे लिखे अनुसार ही नम्बर मिलते हैं अर्थात् जो हम लिखते हैं उसके अनुसार ही कापी जाँचने वाला नम्बर देता है। वास्तव में हमें हमारी योग्यता ही नम्बर दिलाती है। इस परीक्षा को फिर भी नकल से पास किया जा सकता है किन्तु मोक्षमार्ग में नकल का कोई काम नहीं। दिगम्बर हैं हम करलो नकल और हो जाओ पास । नहीं, अकल के बिना नकल भी सफल नहीं करा पाती किसी को। युग के आदि में ४००० राजाओं ने की थी आदिनाथ भगवान् की नकल, पर सब फेल हो गये। यहाँ तो वही पास होता है जो विवेक विश्वास के साथ स्व-पर की पहचान कर आगे बढ़ता है। इस छोटे से जीवन में हमें दुनियादारी की बातें नहीं करना किन्तु उनकी बातें करना है जो "निजानंद रसलीन" अपने ही आनंद रस में लीन रहते हैं। प्रति समय उत्पन्न और विनष्ट पर्यायों में भी जो शाश्वत आत्मतत्व के अनुभवन में लीन रहते हैं। तरंग क्रम में चल रही पल-पल प्रति पर्याय। ध्रुव पदार्थ में पूर्व का व्यय होता फिरआय॥ पदार्थ की सत्ता ध्रुव है, प्रति समय पर्याय का तरंग क्रम चल रहा है पर आत्म-सरोवर ज्यों का त्यों बना हुआ है। एक पर्याय जा रही है दूसरी पर्याय आ रही है। यह आने-जाने का क्रम निरन्तर जारी है। दृष्टि प्राप्त ज्ञानी इसमें उलझता नहीं है किन्तु अज्ञानी जिसे इसका रहस्य ज्ञात नहीं वह उलझ जाता है। इस उलझन से सुलझाने के लिये ही सारे धार्मिक प्रयास हैं। पर हम हैं कि समझ ही नहीं पाते इस रहस्य को। यह जन्म और मरण की संतति कहाँ से, कब से आ रही है इसके बारे में सोचना?विचार करना जरूरी है अन्यथा अन्त में पश्चाताप ही हमारे हाथ लगेगा। क्या था क्या हूँक्या बर्नूरेमन अब तो सोच। वरना मरना वरण कर बार-बार अफसोस। बंधुओ! यह सारी बातें आचार्यों ने अपने उपदेश में कहीं हैं। इस वस्तु व्यवस्था को समझने के लिये आचार्य प्रणीत शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये। बहुत विरला ही व्यक्ति इस तत्व-ज्ञान को प्राप्त कर पाता है। ये ज्ञान और संयम के संस्कार थोड़े भी पर्याप्त हैं मुक्ति की प्राप्ति के लिये। बीज के समान योग्य वातावरण पाकर यह एक दिन बहुत बड़े वट वृक्ष के रूप में प्रति-फलित होंगे। अपने को पहचान कर इन संस्कारों को पाने का प्रयास हमेशा करते रहना चाहिये यही मुक्ति का मार्ग है। 'महावीर भगवान् की जय!'
  13. कल्पवृक्ष से अर्थ क्या कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल जा सन्मति मिले समर्थ। अनन्तकाल से यह आत्मा अज्ञान दशा में सोई हुई आ रही है। यह जागे इसका उदय हो इसलिये इस सर्वोदय तीर्थ पर समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित किये गये। संसारी प्राणी सांसारिक लिप्साओं की पूर्ति के लिये बहुत सारी चिन्तायें/कामनायें करता है पर सन्मति/सद्बुद्धि पाने की कामना नहीं करता। एक बार यह मिल जाये तो फिर किसी की आवश्यकता नहीं। आज तक इसे पर का ही परिचय प्राप्त हुआ है स्व का नहीं, अब हमें पर की बात नहीं करना, भले ही पर के निमित से करें पर अपनी ही बात करना है किन्तु विचित्रता तो यह है कि आज अपनी भी बात की जा रही है तो पर को सुनाने के लिए इसीलिए कहा जा सकता है कि हमें सन्मति मिली ही नहीं। हमारी ये मान्यतायें मात्र हैं कि हम इनके बन्धु हैं ये हमारे बन्धु हैं, हितकारी हैं, पर जो इस मानने और दिखाई देने वाले बन्धनों को तोड़ देते हैं या तोड़ने की शिक्षा देते हैं वही वास्तव में महान् हैं, उपकारी हैं। सान्निध्य संगति से संस्कारों में अवश्य ही परिवर्तन आता है। गलत संगति पाकर लोहा जग खा जाता है किन्तु उसी लोहे की बनी तलवार म्यान में सुरक्षित रखी रहती है। देखा होगा आपने-सभी के घरों में रोटी पकाने के लिये लोहे का तवा रहता है सोने-चाँदी का नहीं, चाहे अमीर का घर हो या गरीब का, तवा तो लोहे का ही रहेगा। इस तवे में कभी भी जंग नहीं लगती क्योंकि वह तप रहा है, हमेशा उसका उपयोग हो रहा है किन्तु संसार के दलदल में फंसा यह जीव आज तक जंग खाता ही आ रहा है। इसका कारण एक ही है कि इसे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का सान्निध्य नहीं मिला, यदि मिला भी तो उनके प्रति रुचि/भक्ति नहीं जागी, हम उनके चरणों में नहीं रहे। बड़े पुण्य योग से यह अवसर मिला है, रुचि भक्ति भी हमारे अन्दर जाग गई है ऐसी स्थिति में कल्पवृक्ष कामधेनु और चिन्तामणि रून भी व्यर्थ से लगते हैं क्योंकि समर्थ सद्बुद्धि की प्राप्ति हो गई है। किसी तरह की कामना की जरूरत नहीं। अब जरूरत है कि काम (इच्छा) ही न रहे इसलिये दोहे में कहा है कि 'सन्मति मिले समर्थ'। केवल कर्तव्य समझकर ही कर्तव्य बोध कराने में लगे रहना चाहिए। इस प्रसंग में एक बात और कहना चाहूँगा कि जिस तरह भोजन का ज्यादा पकना और कम पकना दोनों वज्र्य है, स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है, इस तरह का होने में अग्नि आटा या तवा का दोष नहीं है किन्तु इसमें हमारी असावधानी प्रमाद ही मुख्य कारण है। इसी प्रकार बच्चों का मन और जीवन भी है। अत: समय और योग्यता का ख्याल रखते हुए इन्हें (शिविरार्थियों को) बहुत अच्छे तरीके से शिक्षा संस्कार देना है। आप सभी जन अपने जीवन में ज्ञान और संयम के संस्कार कायम रखते हुए सच्चे देव शास्त्र गुरु की भक्ति आराधना में लगे रहें इसी में कल्याण है। ‘महावीर भगवान् की जय!'
  14. भारतीय संस्कृति की सुरभि से संसार की सारी दिशायें सुरभित हुई हैं। जिस गन्ध से ग्रन्थों की रचना हुई जिसने आचरण को छुआ ऐसे गन्ध के कोश तीर्थकर उनके पश्चात् केवली और बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं। जिन्होंने मानव समाज को हमेशा दिशा निर्देश दिये हैं। अहिंसा प्रेम-करुणा भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता रही है। काल का प्रभाव कहें या कहें मानव मन की विकृति, कि आज हिंसा का तांडव उसे कलुषित कर रहा है। पशु-पक्षियों की अस्थि, मल, रुधिर से निर्मित वस्तुओं तथा औषधियों के सेवन से अनजाने ही हम हिंसा में सहभागी बन रहे हैं। नया जमाना, नया विचार आ गया है। पुराने आदर्श, पुरानी अनुभूतियाँ भुलाई जा रही हैं। अनुभव के आधार पर लिखा गया पुराना साहित्य आदर्श है, सुसंस्कृत है। प्राचीन समय से ही त्याग और करुणा का बहुत बड़ा महत्व बतलाया गया है। छोटे से छोटे त्याग का भी कितना बड़ा फल होता है इस बात को बतलाने कौये का मांस खाने का त्याग करने वाले एक भील की कथा आती है। उसने अपनी परिस्थिति के अनुसार बहुत बड़ा त्याग किया था। बंधुओ? त्याग कोई छोटा बड़ा नहीं होता अपनी सामथ्र्य के अनुसार किया गया त्याग हमेशा बड़ा ही होता है। समय बीता और उसे रोग हो गया। वैद्यों ने रोग निवृत्ति के लिये उसे कौये का मांस खाने के लिये कहा किन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ वह भील न माना। असाध्य रोग से उसकी मृत्यु हो गई किन्तु उसने अपना संकल्प अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी फलस्वरूप वह स्वर्ग में देव पर्याय को प्राप्त हुआ। उसका जीवन त्याग का आदर्श बना। यह उदाहरण तो उसका था जो भील असभ्य जंगलों में रहते हैं किन्तु हम तो सभ्य समझदार है फिर भी किस बहाव में बहते जा रहे हैं। एक पुराना जमाना वह था और एक जमाना यह है। आज अपनी सुख-सुविधाओं के लिये क्या-क्या क्रूरता नहीं बरती जा रही। पशु-पक्षियों का रक्त तक प्रासुक कर दवाईयाँ बन रही हैं, सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री तैयार हो रही हैं मादकतापूर्ण पेय तथा खाद्य पदार्थ बनाये जाते हैं यह सब पशुओं की हत्या कर प्राप्त किया जाता है। हैदराबाद के पास अलकबीर नाम का कत्लखाना खोला गया है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि कत्लखाने के नाम में उस कबीर को भी जोड़ दिया गया जिसका हिन्दी साहित्य आज भी दया करुणा प्रेम की प्रेरणा देता है। जिस कबीर के साहित्य पर आज शोध हो रहे हैं उस कबीर की करुणा भरी आवाज भी सुन लेनी चाहिए। उनके दोहों को देखिये - तिलभर मछरी खाय के कोटि गऊ दे दान। कासी करवट ले मरे तो भी नरक निदान। बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल। जो बकरी को खात है ताको कौन हवाल। ये तो रही मात्र कबीर की बात किन्तु किसी भी धर्म में किसी भी धर्मगुरु या धर्मग्रन्थ ने मनुष्य के लिये मांसाहार का विधान नहीं किया। हमेशा-हमेशा सभी ने दया, प्रेम, सेवा और सदाचार आदि का ही उपदेश दिया है। परन्तु आज यह सब स्वप्न सा होता जा रहा है। एक-एक कत्लगाह में आज एक-एक दिन में हजारों पशु मारे जा रहे हैं। क्या हो गया इस मानव को? क्या करुणा बिल्कुल समाप्त हो गई है। दुनिया को दया का पाठ पढ़ाने वाला भारत कैसे इस क्रूरता का अनुकरण करता जा रहा है। आज पुन: महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जिन्होंने अहिंसा के आधार पर ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजाद कराया। मनुष्य तो आजाद हो गया किन्तु इन मूक दीन-हीन पशुओं की स्वतंत्रता छिन रही है। ध्यान रखो बंधुओ! पशु-पक्षी कभी भी भार नहीं हो सकते भारत में। भारतो वह होता है जो प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है। जानवर कभी भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करते। देखिये! शाकाहारी पशु भूखा रहने पर भी मांस का भक्षण नहीं करता। किन्तु मनुष्य को प्रकृति ने तो शाकाहारी बनाया तथा विकृति ने मांसाहारी बना दिया। बूचड़खानों तक पशु पहुँच ही न सकें तो पशु हिंसा स्वयमेव रुक जायेगी। इसे सफल बनाने के लिये जिला, संभाग तथा राज्य की सीमाओं पर प्रतिबन्ध भी लगाये जा सकते हैं, किन्तु ध्यान यह भी रहे कि उन पशुओं के लिये पर्याप्त प्रबंध भी किये जाने चाहिए। जिस तरह अनाथ मनुष्यों के जीवन-यापन के लिये अनाथालय बनाये जाते हैं उसी प्रकार इन अनाथ निराश्रित पशुओं के संरक्षण के लिये स्थान बनाये जाने चाहिए। मनुष्य का स्वार्थ तो देखो, जब तक पशु काम आते रहते हैं, गाय-भैंस दूध देती रहतीं हैं तब तक उनका पालन-पोषण, इसके बाद उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, बेचारे भूखे प्यासे घूमते रहते हैं। वृद्ध होने पर क्या कभी अपने माता-पिता को ऐसे ही छोड़ा जाता है। यही कर्तव्य बोलता है क्या हमारा? नहीं, अब संरक्षण के इस कार्य में कमर कसकर जुटने की आवश्यकता है लेकिन चमड़े के बेल्ट से कमर नहीं कसना (हँसी)। हमारा खान-पान, बोल-चाल, बसवेश-भूषा भी शाकाहारी अहिंसक होने का परिचय देती है। तभी तो खादी की चादर में लिपटे गाँधी जी महात्मा कहलाने लगे। पर विरोधाभास तो देखिये इस भारत में कि पशुओं को मारकर उनका मांस यहाँ से निर्यात किया जाता है तथा वहाँ (विदेशों में) तैयार की गई खाद यहाँ मंगाई जाती है। हिंसा किस-किस दिशा से, कैसे हमारे जीवन में घुसती जा रही है और इस पर रोकथाम कैसे लगेगी यह सब जानकारियाँ और प्रयास दिन ढलने के पूर्व ही कर लेना जरूरी है। अन्यथा मुट्ठी बाँधकर हम आये और हाथ पसारकर हमें चले जाना है। सिर पर पाप की गठरी लादकर जाना ठीक नहीं होगा। समय रहते हम जाग जायें तथा अहिंसा एवं धर्म संस्कृति की रक्षा में जुट जायें तभी हमारा मानव जीवन सार्थक है। 'अहिंसा परमो धर्म की जय !'
  15. भगवान् महावीर स्वामी का जीवन राग-द्वेष कामादिक विकारी भावों के जीतने का जीवन है। तप-त्याग साधना का जीवन है। अध्यात्म और आचरण का जीवन है। ऐसे जीवन को आदर्श बनाने से हमारी उन्नति ही उन्नति होगी अवनति से अनंतकाल के लिये छुटकारा मिल जायेगा। धन्य है महावीर भगवान् का जीवन जो आज भी हमारे लिये उन्नति की ओर प्रेरित कर रहा है। आज धन्यता का पाना दुर्लभ है धन का पाना नहीं। धन सहज प्राप्त हो जाता है किन्तु धन्यता का पाना अत्यधिक दुर्लभ है। सुलभता में सुख नहीं मिलता किन्तु दुर्लभता में सुख है आनंद है। दुर्योधन दु:शासन प्रिय नहीं है किन्तु महावीर का व्यक्तित्व अच्छा लगता है। शिष्टता की पहिचान के लिये दुष्टता का भी ज्ञान होना चाहिए। दुख का अनुभव ही सुख की पहिचान कराने में कारण बनता है। जो दुख सहकर भी दूसरों को सुख प्रदान करते हैं वही इस धरती पर प्रशंसा के पात्र हैं। सूर्य को राहु से ग्रहण लगता है फिर भी सूर्य उजाला देना बन्द नहीं करता इसीलिये तो वह 'सूर्य नारायण' कहलाता है। हम रविवार को आराम करते हैं अवकाश मनाते हैं किन्तु रवि कभी भी रविवार नहीं मनाता, यदि रवि ही रविवार मनाने लगे तो हम लोगों का क्या होगा? वह सदैव सब जगह सभी को प्रकाशित करता है इसीलिये उसका जीवन प्रशंसनीय है, आदर्श है। हमें भगवान् महावीर के संदेश के अनुरूप ही अपना आचरण बनाना चाहिए। महावीरत्व की प्राप्ति अकेले देखने पढ़ने से नहीं किन्तु उन्हें जीने से होगी। यदि यह मनुष्य एक अंश भी महावीर को जी ले तो उसका जीवन धन्य हो जाये। ध्यान रखो बंधुओं! ‘वर्द्धमान' वर्तमान तक इसलिये प्रसिद्ध हैं क्योंकि उनके पास सद्गुण थे। भगवान् महावीर अतीत की नहीं किन्तु प्रतीत की घटना है अत: उन्हें आत्मसात करने से ही हमारी इस संसार की यात्रा पर विराम लगेगा। अन्यथा अनंतकाल से जारी यह यात्रा अनंत काल तक जारी रहेगी। 'चरैवेति चरैवेति' का स्मरण मात्र ही पर्याप्त नहीं है उसे जीवन में साकार भी करना होगा। देख सामने चल अरे दीख रहे अवधूत। पीछे मुड़कर देखता उसको दिखता भूत। अभी-अभी इसी देश में गाँधी जी ने महावीर का 'अहिंसा-सिद्धान्त' अपनाया था किन्तु उनके अनुयायी आज गाँधी जी के नाम की दुहाई देते हैं शाब्दिक सम्मान भी व्यक्त करते हैं पर क्या-क्या कर रहे हैं यह कभी विचार किया है आपने? बूचड़खानों की संख्या में निरन्तर वृद्धि क्या गाँधी और उनकी अहिंसा के प्रति सम्मान है। धन के लिये पशु-धन, गोधन की हत्या कहाँ तक उचित है? दूध की नदियाँ जिस देश में बहतीं थीं उस देश में पशुओं के खून की नदियाँ बहरही हैं क्या यही विकास है? महावीर और महात्मा गाँधी के इस देश में यदि खून का यह तांडव न रुक सका तो उनकी जयंती महोत्सव मनाने का हमें कोई अधिकार नहीं है। पशु-वध बंद करने का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है केवल सरकार का ही नहीं। प्रजातंत्रात्मक देश में नागरिक शक्तिशाली होते हैं क्योंकि वह प्रजा होने के साथ-साथ स्वयं सरकार भी हैं। विदेशी धन के लिये पशु-धन की हत्या अनुचित है। नागरिकों की सुविधाओं के लिये सरकार को विदेशी मुद्रा लेने की आवश्यकता पड़ती है अत: पशु-वध से प्राप्त विदेशी मुद्रा के बराबर की राशि राजकीय कोष में जमा कर पशु-वध तत्काल प्रतिबंधित करने के लिये समाज को दृढ़ संकल्प ले लेना चाहिए। यह लजा की बात है कि महात्मा गाँधी के आदशों को पूजने वाले उनके नाम की आड़ में गोधन की हत्या करते हैं। महावीर के समय में तो धर्म के नाम पर कुछ प्राणियों की ही बलि दी जाती थी लेकिन आज तो धन की प्राप्ति के लिये बूचड़खानों के माध्यम से अनगिनत पशुओं की बलि दी जा रही है। फिर भी हम हैं कि भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् राम और महात्मा गाँधी की जयंतियाँ मनाते चले जा रहे हैं। क्या हो गया है मानवता को? कहाँ खो गई है मनुजता? कहाँ गई करुणा? पाषाण हृदय हो गया है क्या? विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का पाठ पढ़ाने वाले गुरु कहलाने वाले भारतीयों की संवेदनायें क्या समाप्त हो गयी हैं। भारतीय संस्कृति तो यह नहीं है, नहीं है यह भारतीय धर्म और दर्शन। हमने अपने स्वार्थ के कारण महान् विभूतियों के संदेश विक्षत कर दिये हैं। साधु-सन्तों के इस देश ने विश्व को ज्ञान सूत्र दिये किन्तु उनका पालन आज यहीं पर नहीं हो रहा इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी इस देश की तथा देशवासियों की। जीव हत्या के इस अन्धकार में विकास के प्रकाश की आशा व्यर्थ है। इस तरह सुख-सुविधाओं के लिये चेतन धन का संहार समूची मानवता के लिये कलंक है अभिशाप है। अहिंसा रूपी तेल के अभाव में दीपक से प्रकाश मिलना असंभव है केवल दम घुटने वाला धुआँ ही मिलेगा। ऐसी स्थिति में यदि गाँधी जी जीवित होते तो आँख, मुँह, कान बंद करने के लिये दो हाथ नहीं ईश्वर से छह हाथ माँगते क्योंकि विगत ५० वर्ष में हिंसा में वृद्धि ही हुई है। अपने समय की विषम परिस्थितियाँ और धर्म के नाम पर हो रही हिंसा से कातर हो सुख का बहाव बहाने के लिये भगवान् महावीर स्वामी ने राज्य वैभव का त्याग किया। क्योंकि राजा के राज्य की सीमा निर्धारित होती है तथा उसका दायित्व सीमान्तर्गत प्रजा की भलाई तक होता है किन्तु महावीर भगवान् को तो सारे विश्व के प्राणियों का कल्याण करना था। भारत ही नहीं विश्व को अशांति से छुटकारा दिलाने के लिये आप राजा नहीं 'महाराजा' हुए। आप सत्य पर आसीन हुए सत्ता पर नहीं। विध्न बाधाओं के आने पर भी आप रुके नहीं ध्येय की ओर बढ़ते ही गये। विध्नों के आने पर सज्जन कभी अपना कार्य नहीं छोड़ते। राहु के राह में आने पर भी सूर्य प्रकाश देता ही रहता है। बंधुओ! दुनिया उन्हें ही याद रखती है जो संकल्प पूर्वक अपने पथ पर बढ़ते रहते हैं। भगवान् महावीर स्वामी न हुए होते तो आज आत्मा की आवाज सुनने वाले भी कोई नहीं होते। जिस प्रकार अंधकार में एक क्षण के लिये कौंधी बिजली भी अगला पग रखने के लिये प्रकाश दे जाती है उसी प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में भी बिजली की एक चमक बोध के लिये पर्याप्त हैदिशा निर्देशन मिल जाता है किन्तु यह संभव तब ही है जबकि संकल्प हो आस्था हो। आज के युग को ‘गाँधी जी' भी पर्याप्त प्रकाश हैं कोई चले तो। गाँधी-विचार नहीं गाँधी को जीना आवश्यक है उन्होंने एक जगह कहा है - "गाय &धरती पर दया की कविता है |" (Cow is a Poem of Pity on the Earth) बड़े खेद की बात है आज संस्कृति पर कुठाराघात हो रहा है और हम हैं कि चुपचाप बैठे सब देखते जा रहे हैं – भूखे परिसर देख के भोजन करते आप । फिरभी खुद को समझते दया मूर्तिनिष्पाप। अभी भी दिन शेष हैं, प्रकाश शेष है, मस्तिष्क काम कर रहा है, पश्चाताप के घूंट पीकर महावीर, राम और हनुमान की जयंती मनाना सार्थक कर सकते हो- अहिंसा के प्रयास से, हिंसा के प्रतिबंध से। क्या करूं! शब्द कुछ कड़े हो सकते है, पर शल्य चिकित्सा के लिये पीड़ा सहन करना ही पड़ती है। निरोग होने के लिये कड़वी औषधि का सेवन करना ही पड़ता है। उसी कड़वी औषधि सेवन के अनुरूप यदि वाक्यों में कुछ कड़वापन हो तो हिंसा की महामारी रोकने के लिये इसका सेवन करना ही होगा। पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के संकल्प को याद करिये, उन्होंने देश में व्याप्त अन्न की समस्या के समाधान के लिये सप्ताह में एक दिन एकाशन व्रत रखने का आह्वान किया था। यह एक तरह से हमारे लिये बहुत बड़ी शिक्षा थी कि हम अपने देश में आई हुई समस्याओं का समाधान त्याग के माध्यम से स्वाश्रित होकर कर सकते हैं। राष्ट्र पर आपत्ति आने पर धन न्यौछावर करने की परम्परा भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है और इस कार्य को करने में जैन समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है। धर्म, सौरभमय है, वातावरण में अहिंसा की सुरभि चतुर्दिक फैलाने के लिये धन अर्पित करने की परम्परा का हमें निर्वाह करना है। और फिर प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना रूप इस अहिंसा धर्म से यह धरती ऐसी हरी-भरी समृद्ध हो जायेगी कि मनुष्य स्वर्ग के देवों से भी कहेगा कि ‘यदि सुख चाहते हो तो इस धरती पर आकर देखो।' अन्त में मैं आप सबसे यही कहना चाहूँगा कि हमें इस दयामय धर्म और अहिंसा की रक्षा के लिये वे सारे प्रयास और संकल्प करना चाहिये जिससे शासन को भी एक बार सोचने के लिये मजबूर होना पड़े। हम हाथ उठाकर संकल्प करें कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हम तन, मन, धन से कभी पीछे नहीं हटेंगे। इसी में हमारे जीवन की धन्यता है और तीर्थकर महापुरुषों की जयंतियाँ मनाना हमारा सार्थक है। यही प्रार्थना वीर से अनुनय से कर जोर। हरी-भरी दिखती रहे धरती चारों ओर । 'भगवान् महावीर स्वामी की जय!'
  16. मानव का मूल स्वभाव सीधापन है, किंतु बाह्य प्रभाव से अथवा स्वार्थ के वशीभूत, स्वभाव में टेढ़ापन आ जाता है। प्रत्येक प्राणी का स्वभाव के अनुरूप आचरण होता है, किन्तु मनुष्य ही वह प्राणी है जो मूल स्वभाव सीधेपन को छोड़कर टेढ़ेपन की क्रिया करता है। सीधापन अपना है टेढ़ापन नहीं। मनुष्य अवसर आने पर अपना उल्लू सीधा करता है किंतु स्वभाव के मूल रूप के अनुसार आचरण नहीं रखता। अपनापन त्याग कर टेढ़ेपन की किया से ही मनुष्यों में भटकन है। भटका पथिक मंजिल नहीं पा सकता। बंदरों को चना बहुत प्रिय होता है। यह उदाहरण आपको ज्ञात होगा-बंदरों का एक दल भोजन की तलाश में एक घर के निकट पहुँचा। घर के अंदर का हालचाल जानने के लिये एक साहसी चपल बंदर घर के अंदर चला गया, शेष बंदर प्रतीक्षा करते रहे। अंदर गये बंदर ने एक घड़े के अंदर देखा उसमें कुछ है। बंदर ने हाथ घड़े में डाला। सीधा हाथ आसानी से घड़े में चला गया किंतु जैसे ही उसने हाथ बाहर निकालने का यत्न किया हाथ बाहर नहीं आया बंदर चिल्लाने लगा तथा साथियों से कहा कि मेरा हाथ घड़े ने पकड़ लिया है। बंदर की आवाज सुनकर एक वृद्ध बंदर घर के अंदर आया तथा देखते ही सारी स्थिति उसकी समझ में आ गयी। उसने कहा घड़े ने नहीं पकड़ा है, पकड़ा तो तुमने है। मुट्ठी में जिसे पकड़ रखा है उसे छोड़ दो। छोड़ते ही हाथ सीधा होकर बाहर आ गया। बंधुओं! पकड़ा तो बंदर ने था किंतु चिल्ला रहा था कि घड़े ने पकड़ लिया। जब तक बंदर ने घड़े में रखी हुई वस्तु पकड़ी थी हाथ टेढ़ा था, छोड़ते ही हाथ सीधा हुआ तथा मुक्त हो गया। ऐसे ही स्वार्थवश प्रवृत्ति में आया हुआ टेढ़ापन मुक्ति में बाधक है किन्तु सीधापन मुक्ति में साधक है। बाल्यकाल में मानव मूल स्वभाव के अनुरूप आचरण करता है किंतु बाह्य प्रभाव से टेढ़ापन आ जाता है। बच्चे को पिता जी ने प्रशिक्षित किया 'बेटा देखो अमुक व्यक्ति पूछने आये तो कहना कि पिता जी घर पर नहीं हैं।” पूछने पर बच्चे ने ज्यों का त्यों कह दिया कि ' पिताजी ने कहा है कि कह दो पिताजी घर पर नहीं हैं।” बाल्यावस्था में मूल रूप विद्यमान रहता है। बाह्य प्रशिक्षण से टेढ़ापन आ जाता है और मनुष्य का आचरण मूल स्वभाव के विपरीत हो जाता है। चने की पकड़ छूटते ही हमारा हाथ हमारे साथ, नहीं तो हमारा हाथ भी हमारा नहीं। ऐसा लग रहा था कि घड़े ने पकड़ रखा है। क्या घड़े ने पकड़ा था? या स्वयं ने घड़े को पकड़ा था। मनुष्य स्वभाव से पृथक हो रहा है तथा यही पृथकता दृष्टि में चाल में गर्दन में, वचन में टेढ़ापन लाती है। चाल में टेढ़ापन आते ही दोषयुक्त हो जाती है। यह टेढ़ापन विकृति उत्पन्न करता हैं तथा भटकन में कारण है। टेढ़ापन तेरापन नहीं, सीधापन अपनापन है। व्यापार में भी जब बिक्री कम हो तो ग्राहक के रूप में नाती की उम्र के बालक भी देख दुकानदार प्रसन्न हो जाता है तथा अतिमान देते हुए दङ्का शब्द का भी संबोधन देता है, वहीं अधिक बिक्री पर दुकानदार सीधे मुँह बात नहीं करता तथा दङ्का के दद्धा का भी अपमान कर देता है। दोनों स्थिति टेढ़ेपन की है। इसी सीधेपन को पाने के लिये संत आराम का जीवन छोड़ साधना के लिये जंगलों में जाते हैं। सीधेपन के लिये तप करते हैं साधना करते हैं। बंधुओं! ध्यान रखो सिर पर भार बहुत हो तो टेढ़ापन आ जाता है। जीवन में विकारों का बोझ है, इस बोझ को कम करने से ही सीधापन आयेगा तथा मुक्ति मिलेगी। इस तरह टेढ़ापन दूर कर कर्तव्य करने से हम भी सिद्ध परमेष्ठी के समान सीधे हो सकते हैं उसी सीधेपन की प्राप्ति के लिये हमें प्रयास करते रहना चाहिए। "महावीर भगवान् की जय !"
  17. पुनरावृत्ति हानिकारक है तथा मंजिल प्राप्ति में बाधक। मनुष्य का जीवन यदि वृत्त सम हो जाय तो पूर्णता की प्राप्ति तथा पुनरावृत्ति से मुक्ति मिल सकती है। भव्य जीवों ने पूर्णता प्राप्त कर ली, वे वृत्त हो गये। ऐसे वृत्तों के वृतांत जीवन में उतारते ही हमारी यात्रा पूर्ण हो सकती है और हम उस सुख को प्राप्त कर सकते हैं जिसे भगवान् ने प्राप्त किया है। संसारी प्राणी सुख की गवेषणा में रत रहता है किन्तु उसे सुख मिलता नहीं। लक्ष्य तक पहुँच ही नहीं पाता। वह। सारा का सारा संसार समस्याओं का संस्थान हो गया है क्योंकि हम यहाँ पर कर तो बहुत रहे हैं पर प्राप्त कुछ भी नहीं हो पा रहा। सन्त जन इस समस्यायुक्त संसार में भी समाधान निकालकर पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं यह उनकी विशेषता है। सबकी अपनी-अपनी वृत्ति है, प्रवृत्ति है, किन्तु दुनियाँ उनसे सीखती है जो वृत्ति को स्वभाव के अनुरूप बना लेते हैं। वृत्ति को वृत्त-आकार का बनाते ही जीवन पूर्ण हो जाता है। वृत्त पूर्णता का प्रतीक है क्योंकि यह पूरे ३६० अंश का होता है। इसी तरह भगवान् स्वयं परिपूर्ण हैं अत: उनका वृतांत जीवन में उतारना हमारे लिये परिपूर्ण बना देता है। इस जीवन में ३६० अंश के अभाव में दुख अशांति के कोण बन रहे हैं और जब तक ये कोण बनते रहेंगे ३६० अंश का वृत्त नहीं बन सकता। भिन्न-भिन्न कोणों से बनी यह पराधीन यात्रा ठीक नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि वृत्त के विषय की जानकारी का अभाव है तथा यह वृत्ति ही भटकाने में कारण है। एक बार रोग के होने पर औषधि दी जाती है तो रोग ठीक हो जाता है किन्तु रोग की आवृत्ति बारम्बार होने से पुनरावृत्ति होती है जिसका निदान चिकित्सक के लिये असंभव हो जाता है तथा रोगी की स्थिति बिगड़ जाती है। ऐसे ही जीवन की पुनरावृत्ति होने से हम लक्ष्य से दूर होते जाते हैं। इस पुनरावृत्ति से एक बार छुटकारा मिलते ही इस जीव को मुक्ति मिल जाती है। काल की परिधि में यह सारा का सारा विश्व ही एक सप्ताह में बँध गया। समयचक्र अपनी गति से घूम रहा है, रवि काल का प्रतीक है जिसमें रविवार भी आ जाता है। वस्तुत: वह नहीं आता हम ही उसके पास जाते हैं।पुनरावृति हमारी हो रही है, दिन-रात के इस प्रवाह में आयु बीत रही है। स्वभाव को भूलकर यह मनुष्य वृत्ति, आवृत्ति और पुनरावृत्ति में फंसा हुआ है इसलिये अब हमें वृत्ति को नहीं वृत्त को देखना है। इसी से सम्बन्धित एक विशेष बात और समझनी है कि पुस्तक प्रकाशन के समय पुनः-पुनः प्रकाशित करने पर उसमें प्रथमावृत्ति, द्वितीयावृत्ति आदि डाला जाता है किन्तु मनुष्य यदि एक ही काम को दो-चार बार करे तो उसे आवृत्ति न कहकर पुनरावृत्ति कहा जाता है। यह मनुष्य की दुहराई गई प्रवृत्ति के लिये एक संज्ञा विशेष है। स्वभाव, विभाव का विलोम है। चलना स्वभाव है और घूमना विभाव। वृत्त के वृतांत को देखकर अपनी वृत्ति सुधारें, वृत्त को धारे। भगवान् ऋषभदेव, भगवान् महावीर आदि का जीवन वृताकार होने से पूर्ण हो गया। इन महापुरुषों के वृतांतों को पढ़कर अपने जीवन में उतारने से उनके वृतांतों का प्रयोग अपने जीवन में लाने से पुनरावृत्ति से छुटकारा मिल जाता है। पटरी विद्यमान हो तो गाड़ी की गति सहज हो जाती है किन्तु पटरी के अभाव में गति असंभव तथा गति के अभाव में मंजिल की प्राप्ति भी असंभव हो जाती है। आपने देखा होगा, दिया तले अन्धेरा होता है किन्तु दिवाकर तले नहीं, इसका कारण है कि दिवाकर पूर्ण है-वृत्त है। इस वृताकार सूर्य पर भी जब राहू की छवि पड़ती है तो कोण बन जाता है तथा ग्रहण लग जाता है। कोणमय जीवन ग्रहण लगने के समान है, मोह रूपी ग्रहण जीवन को लगा है इसलिये जीवन कोण हो गया है। जीवन का इतिहास आदर्श प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए। बुराई देखें अपनी और अच्छाई देखें सबकी, आदर्श प्रस्तुत करने की यही अच्छी विधा है। स्वाभाविक स्थिति है-धर्म की। इस केन्द्र पर स्थिर होने से वृत्त बनाना सहज है किन्तु अस्थिरता के कारण हम केन्द्र से हिल जाते हैं, अत: वृत्त नहीं बन पाता। पाँच पापों की पुनरावृत्ति अनवरत जारी है। यहाँ तक कि अरहंत परमेष्ठी भी वृताकार नहीं हैं, केवल सिद्ध परमेष्ठी ही वृत्तपने को प्राप्त हैं। सिद्ध परमेष्ठी का जीवन पूर्ण हो चुका है, अभी अरहंत परमेष्ठी भी अधूरे हैं, उन्हें भी पूर्ण वृताकार होना है। अपने जीवन को सुधारो बंधुओं! सुधारो क्या अब तो सु-धारो अर्थात् अच्छे ढंग से धारो, धारण करो, किन्तु क्या बतायें आपको, मुझे कविता की पंक्तियाँ याद आ गई - इस युग में भी सतयुग सा सुधार तो हुआ है, पर लगता है, उधार हुआ है। अन्यथा कभी का हुआ होता उद्धार। राहु के सामने आते ही जैसे रवि को ग्रहण लग जाता है ठीक वैसे ही हमारा जीवन पर पदार्थ से प्रभावित हो रहा है और पर पदार्थों को प्रभावित कर रहा है। मैं तो यही समझता हूँ कि यह मनुष्य का ही प्रभाव है कि ढाईद्वीप में रहने वाले सूर्य को ग्रहण लग जाता है। ढाई द्वीप से बाहर रहने वाले सूर्य में ग्रहण नहीं लगता क्योंकि वहाँ मनुष्य ही नहीं है। हमारा ज्ञान कमजोर है इसलिये पर पदार्थ से कभी प्रभावित होता है और कभी प्रभावित करता है। जबकि भगवान् का ज्ञान दर्पण की भाँति सब कुछ झलका तो देता है पर प्रभावित नहीं होता। यही हमारे और भगवान् के ज्ञान में अन्तर है। दर्पण के समान जीवन का हो जाना ही वृत्त का दर्शन है। यही भाव इस दोहे में दर्शाया गया है - सब कुछ लखते पर नहीं प्रभु में हास विलास । दर्पण रोया कब हैंसा? कैसा यह संन्यास? ॥ हर्ष विषाद करते हैं किन्तु दर्पण हास परिहास नहीं करता। दर्पण की भाँति जीवन का हो जाना ही संन्यास है। संसारी प्राणी पूरा नहीं है फिर भी अपने को पूरा मान रहा है यह उसका मोह है, भ्रम है। इस मोह के विध्वंस के लिये स्वयं पर दृष्टिपात करें तथा आत्मकेन्द्र से हिले नहीं। जो जन शांति चाहते हैं वे स्थिरता धारें, वृत्ति धारें, वृत्त को आदर्श बनायें। वायुयान चालक का ध्यान दिशासूचक यंत्र पर होता है। यात्री कौन-कौन हैं? वे कैसे बैठे हैं? चालक यह नहीं देखता। थोड़ी भी चूक होने पर चालक तत्काल सम्हलता है और यान को भी सम्हालता है। जो स्वयं सम्हलता है और औरों को भी सम्हाल लेता है वही साधक की तरह अपना जीवन वृतमय बना लेता है। हम सभी का जीवन समस्याओं से परे/परिपूर्ण आनंददायी हो बस इसी भावना के साथ।
  18. किसी भी कार्य की शुरूआत और सानंद सम्पन्नता के लिये विशेष पुण्य-भावनाओं की आवश्यकता होती है, धन की नहीं। आँखें सभी के पास हैं जो देखने का काम करती हैं किन्तु बीच में कुछ ऐसी खराबी आ जाती है जिसकी वजह से साफ-साफ दिखाई नहीं देता। नेत्र चिकित्सा भी इसीलिए की जाती है कि हम एक दूसरे को पहचान सकें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें आँखों में मोतियाबिंद आदि कोई रोग नहीं है फिर भी उन्हें किसी की पहिचान नहीं हो पाती। पता नहीं उनकी दृष्टि में कौन सा रोग है। इसे तो दृष्टि दोष (विकृति) ही कहा जा सकता है। इन आँखों से जब हम इन्सान की भी पहचान नहीं कर पा रहे तब फिर भगवान् की पहचान कैसे होगी। यहाँ पर हमें यह बात भी याद रखनी चाहिये कि सिर्फ दिखाई देने वाला दृश्य हमारा प्राप्तव्य नहीं है किन्तु देखने वाला दृश्य प्राप्तव्य है। अपने यहाँ कहा जाता है कि उस दृष्टा आत्मतत्व की रक्षा गुप्ति के बिना संभव नहीं उसे एकाग्रता सावधानी की बड़ी जरूरत होती है। इसी प्रकार मैं सोचता हूँकि इस नेत्र चिकित्सा शिविर में गुप्ता जी ने जिस तत्परता और एकाग्रता से अपने सभी सहयोगी डॉक्टरों के माध्यम से चिकित्सा की है वह सराहनीय है। आयोजक और कार्यकर्ता सभी प्रशंसा के पात्र हैं। यह सब समर्पण भाव के बिना सम्भव नहीं। इसमें विशेष रहस्य की बात तो यह है कि आँखों में ज्योति पहले से ही विद्यमान थी फिर भी परदा आवरण हटाकर मरीजों को जो गुप्ता जी ने ज्योति प्रदान की है उनकी इस योग्यता का विकास जीवन में होता रहे और वे स्वयं एक दिन अपनी भटकती हुई आत्मा की ज्योति प्राप्त करें। जनहित के कार्य में सर्वोदय का अभी यह मंगलाचरण मात्र है। पथ में हम रुकें नहीं किन्तु ज्योतिपुंज को आदर्श बनाकर अथक बिना रुके लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें।
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