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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 1 - आत्म साधना का पथ

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    विचारों की धरती पर आचरण का पालन-पोषण होता है और विचार तथा आचार के माध्यम से ही जीवन यात्रा पूर्ण सुव्यवस्थित होती है। इसके लिए भीतरी जागृति होना आवश्यक है। जीव और अजीव रूप पुद्गल के वास्तविक स्वरूप को समझने तथा जानने का प्रयास करें कि कब? किसे? किस रूप में? कर्म अपने प्रभाव से प्रभावित करता है। कार्य प्रारंभ करने के पूर्व कदम आगे बढ़ा या नहीं यह सोच-विचार आवश्यक है। आत्म साधना के द्वारा पंचेन्द्रिय की विषय वस्तु के स्वरूप को यथावत् समझना ही भेद-विज्ञान को समझ पाना है। इसके अभाव में भटकन हो जाती है। भेद विज्ञान के अभाव में ज्ञान को ध्यान में परिवर्तित करने की अपेक्षा अज्ञान में परिणत होने में देर नहीं लगती, अपितु वह सहज परिवर्तित हो जाता है। किन्तु भेद विज्ञान के माध्यम से ज्ञान को एकाग्र कर ध्यान में परिणत बद्धकर्मों को भस्म-सात किया जाता है।


    स्वदोष मूलं स्व समाधि तेजस।

    निनाय यो निर्दय भस्म सात् क्रियाम्॥

    स्वयंभू-स्तोत्र (४)

    अनुकूलता या प्रतिकूलतायें वस्तु सापेक्ष नहीं, अपितु स्व-सापेक्ष हैं। बंधन और मुक्ति परस्पर सापेक्ष है। बंध की प्रक्रिया अनादिकालीन है, उससे मुक्ति तभी संभव है, जब बद्ध कर्मों की उपेक्षा और मुक्ति प्राप्ति की अपेक्षा रखकर साधना में विकास किया जावे। आत्म कल्याण के लिये वैराग्य की वृद्धि हेतु बारह भावनाओं के चिंतन द्वारा आत्मा और शरीर को भेद विज्ञान द्वारा पृथक् देखने वालों को मुक्ति स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। इस प्रक्रिया में आकांक्षा नहीं अनाकांक्षा भाव धारण करें। विषयों के प्रति द्वेष भाव नहीं रखना बल्कि उनके प्रति मुँह मात्र फेरना है। सूर्य किरणों को उष्णता के कारण, उसके प्रति द्वेष करने से नहीं छोड़ देगा। किन्तु उसकी ओर से मुँह फेर लेने से उष्णता से बचा जा सकता है। भेद विज्ञान की कमी के कारण वस्तु में अनुकूलता या प्रतिकूलता महसूस होती है। किन्तु भेद विज्ञान होने पर प्रतिकूलता में भी अनुकूलता लाई जाती है।


    कोअहं कीदृग गुणः कक्त्व, किं प्राप्य किं निमित्तकः ।

    इत्यूह प्रत्ययं नो चेद दण्डित स्थाने हि मतिर्भवेत्॥

    मैं कौन हूँ? मेरा स्वभाव क्या है ? मैं कहाँ से आया हूँ ? तथा मुझे क्या प्राप्त करना है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? इनका सदा विचार-चिंतन करना चाहिए। ऐसा नहीं सोचने पर हित चाहते हुए भी मन अहितकर कार्यों का संपादन करने लगता है। मन इन्द्रियों का नियंता है, अतएव इन्द्रियाँ उसी के अनुरूप ही कार्य करती हैं। अच्छे-बुरे का निर्णय इन्द्रियाँ नहीं बल्कि मन करता है। विचार करने पर यही ज्ञात होता कि प्रशंसा रूपी खुराक भी इन्द्रियों की नहीं अपितु मन की है। इसी मन के कारण जितनी सुविधा होती है उतनी दुविधा भी होती है। मन तात्कालिक सुख का भले ही अनुभव करता पर उससे चेतना को सदा दुख ही उठाना होता है। इसी के कारण दृष्टि स्व से हटकर पर की ओर चली जाती और परिग्रह वृत्ति के कारण सामग्री संचय का कार्य प्रारंभ कर लेती है। वस्तु तत्व यथार्थ समझ में आने पर ही संसार के विषय भोगों की चकाचौंध उसे प्रभावित नहीं कर पाती और वे सब सरस होते हुए भी नीरस ही प्रतीत होते हैं। पंचेन्द्रिय का लोभ या आकर्षण इतना प्रभावी होता है कि उसके प्रभाव से महान् व्यक्तित्व का धारक भी विषय-सागर में निमग्न हो जाता है।


    यह ऐसी उलझन है कि जिससे अच्छे-अच्छे व्यक्ति भी चपेट में आ जाते है। इन्द्रिय विषयों की ऐसी पकड़ होती है कि व्यक्ति उसी के वेदन में दत्त चित रहते हैं। इसके बिना बाह्य साधन/निमित कार्य करने में सक्षम नहीं होते। आदिम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ भी ८३ लाख पूर्व वर्ष तक गृहस्थ जीवन के भोगोपभोग/राग-रंग में फैंसे रहे। एक लाख पूर्व वर्ष की आयु अवशेष रह जाने पर इन्द्र को चिंता हुई और उसने राज दरबार में नृत्य करने हेतु नीलांजना नामक अप्सरा को प्रेषित किया। दरबारी उसकी नृत्य मुद्रा, भाव भंगिमा से आकर्षित हो रहे थे। पर भीतरी दृष्टि जागृत होने से महाराजा आदिकुमार ने अपने ज्ञान से समझ लिया कि इसकी आयु पूर्ण हो गई है। क्षणिक अंतराल में ही इन्द्र ने वैसी एक और नीलांजना प्रेषित की ‘सभी सभासद"जगवासी नृत्य देखते, पर प्रभु की निरंजना जागृत हो गई तभी प्रभु ने बारह भावना भाय दीक्षा लेने का मन में विचार किया। आचार्य समन्तभद्रस्वामी कहते हैं


    लक्ष्मी विभव सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रं लाञ्छनम्।

    साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरतृणमिवा भवत्॥

    स्वयंभू-स्तोत्र ८८

    बस 'ये ही इन्डायरेक्ट' संकेत पर्याप्त था। वैसे संकेत की व्यवस्था विशेष संस्कार नहीं होने या छिपे संस्कारों को उद्घाटित करने के लिये होती है। जैसे राख में अंगारे ढके हों तो वे पकाने योग्य ऊष्मा नहीं दे पाते, उन्हें उघाड़ने की आवश्यकता होती है। तभी वे अपनी वास्तविक ऊष्मा दे पाते हैं वैसे ही महाराज ने संकेत समझकर भोगों से उदासीनता प्राप्त कर आत्म कल्याण हेतु जिन दीक्षा अंगीकार की।


    राग की भूमिका में बैठने से वैराग्य भावनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। इतना अवश्य है कि जिनका वैराग्य जितना दृढ़ होता उनके लिये वे वैराग्य की दृढ़ता में अवश्य कारण हो जाती है। भेद विज्ञान की दशा में वैरागी को फिर बारह भावनाओं की आवश्यकता नहीं रहती। वह सदा आत्म चिंतन, मनन और ध्यान में ही निमग्न उसे पाने का प्रयास करता है आचार्य कहते हैं कि


    भेदविज्ञानतः सिद्धः, सिद्धा ये किल केचनः |

    तस्में भावत: वद्धो, वद्यी ये किल केचन: ||

    आगमकारों ने राग की ओर पीठ दिखाकर चलने वालों को भेदविज्ञान का मर्म समझने वाला माना है। भेदविज्ञानी को देखने से भी भेदविज्ञान की प्राप्ति हो सकती है किन्तु मात्र चर्चा करने से नहीं अपितु चर्चा के अनुरूप आचरण करने से ही भेदविज्ञान की प्राप्ति संभव है। अज्ञान का अंधकार हटने पर ही भीतरी चिद्प्रकाश उद्घाटित होता है।


    अहिंसा परमो धर्म की जय !

    Edited by admin


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