कल्पवृक्ष से अर्थ क्या कामधेनु भी व्यर्थ।
चिन्तामणि को भूल जा सन्मति मिले समर्थ।
अनन्तकाल से यह आत्मा अज्ञान दशा में सोई हुई आ रही है। यह जागे इसका उदय हो इसलिये इस सर्वोदय तीर्थ पर समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित किये गये। संसारी प्राणी सांसारिक लिप्साओं की पूर्ति के लिये बहुत सारी चिन्तायें/कामनायें करता है पर सन्मति/सद्बुद्धि पाने की कामना नहीं करता। एक बार यह मिल जाये तो फिर किसी की आवश्यकता नहीं। आज तक इसे पर का ही परिचय प्राप्त हुआ है स्व का नहीं, अब हमें पर की बात नहीं करना, भले ही पर के निमित से करें पर अपनी ही बात करना है किन्तु विचित्रता तो यह है कि आज अपनी भी बात की जा रही है तो पर को सुनाने के लिए इसीलिए कहा जा सकता है कि हमें सन्मति मिली ही नहीं। हमारी ये मान्यतायें मात्र हैं कि हम इनके बन्धु हैं ये हमारे बन्धु हैं, हितकारी हैं, पर जो इस मानने और दिखाई देने वाले बन्धनों को तोड़ देते हैं या तोड़ने की शिक्षा देते हैं वही वास्तव में महान् हैं, उपकारी हैं।
सान्निध्य संगति से संस्कारों में अवश्य ही परिवर्तन आता है। गलत संगति पाकर लोहा जग खा जाता है किन्तु उसी लोहे की बनी तलवार म्यान में सुरक्षित रखी रहती है। देखा होगा आपने-सभी के घरों में रोटी पकाने के लिये लोहे का तवा रहता है सोने-चाँदी का नहीं, चाहे अमीर का घर हो या गरीब का, तवा तो लोहे का ही रहेगा। इस तवे में कभी भी जंग नहीं लगती क्योंकि वह तप रहा है, हमेशा उसका उपयोग हो रहा है किन्तु संसार के दलदल में फंसा यह जीव आज तक जंग खाता ही आ रहा है। इसका कारण एक ही है कि इसे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का सान्निध्य नहीं मिला, यदि मिला भी तो उनके प्रति रुचि/भक्ति नहीं जागी, हम उनके चरणों में नहीं रहे। बड़े पुण्य योग से यह अवसर मिला है, रुचि भक्ति भी हमारे अन्दर जाग गई है ऐसी स्थिति में कल्पवृक्ष कामधेनु और चिन्तामणि रून भी व्यर्थ से लगते हैं क्योंकि समर्थ सद्बुद्धि की प्राप्ति हो गई है। किसी तरह की कामना की जरूरत नहीं। अब जरूरत है कि काम (इच्छा) ही न रहे इसलिये दोहे में कहा है कि 'सन्मति मिले समर्थ'। केवल कर्तव्य समझकर ही कर्तव्य बोध कराने में लगे रहना चाहिए।
इस प्रसंग में एक बात और कहना चाहूँगा कि जिस तरह भोजन का ज्यादा पकना और कम पकना दोनों वज्र्य है, स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है, इस तरह का होने में अग्नि आटा या तवा का दोष नहीं है किन्तु इसमें हमारी असावधानी प्रमाद ही मुख्य कारण है। इसी प्रकार बच्चों का मन और जीवन भी है। अत: समय और योग्यता का ख्याल रखते हुए इन्हें (शिविरार्थियों को) बहुत अच्छे तरीके से शिक्षा संस्कार देना है। आप सभी जन अपने जीवन में ज्ञान और संयम के संस्कार कायम रखते हुए सच्चे देव शास्त्र गुरु की भक्ति आराधना में लगे रहें इसी में कल्याण है।
‘महावीर भगवान् की जय!'
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