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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 3 - सुप्त - चेतना जागृत

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    भावना के माध्यम से भावों में सुधार आये, यह कोई नियम नहीं है। इसी प्रकार दुनिया के दिग्दर्शन माध्यमों से भाव बिगड़ भी सकते किन्तु बिगड़े ही यह नियम नहीं है। सुधरने तथा बिगड़ने की क्षमता चेतना में है, जो शब्द और अर्थ को सुन/समझकर भाव को महसूस करने पर संभव होता है। अनंतानंत परम आत्माओं के द्वारा भी भाव हठात् समझाया नहीं गया, क्योंकि शब्द और अर्थ को ही बतलाया जा सकता है, भाव को स्वयं ही समझना होता है। आज तक हमारी चेतना सुप्त रही, इसलिये हमें भाव समझ में ही नहीं आया, शब्द और क्षेत्रादि भले ही छूट जावें पर भाव तक यात्रा होना आवश्यक है।


    हमारी भाव पक्ष की स्वीकारता शब्द या अर्थ पर नहीं अपितु भीतरी भावों पर ही आधारित है ज्ञान तो सभी के पास है परंतु भावज्ञान सभी को नहीं होता। शब्द कानों तक तथा-अर्थ दिमाग तक पहुँचता है। कान और दिमाग से ऊपर उठने पर आत्मा से भाव का संबंध जुड़ता है। जागृति इस भाव का संवेदन करती है। जबकि सुप्त आत्मा इस भाव-संवेदन से शून्य रह जाती है। हमारे भाव परस्पर समझाने पर भी समझ नहीं आते, किन्तु समझना चाहें तो वैसे शब्द या वातावरण नहीं होने पर भी शब्द के अर्थ में छुपा भाव भी समझ में आ जाता है। परन्तु समझने वाला चाहे तो ही समझ सकता किसी को हठात् प्रभावित नहीं किया जा सकता। जैसे उद्देश्य पूर्ति तक पहुँचने के लिये बीच में संदेश वाहक आवश्यक है। शरीर या क्षेत्र की दूरी दिखती अवश्य है, पर भावों के माध्यम से उसकी पूर्ति होना संभव है। यान में पेट्रोल हो तथा हवाई पट्टी हो तब यान उड़ सकता है। वैसे ही आपके भाव दूसरे तक पहुँचने के लिये स्थान, शब्द आदि भी सहायक हैं।


    चेतन में न भार है, चेतन की न छाँव |

    चेतन की फिर हार क्यों, भाव हुआ दुर्भाव ||

    चेतन तो अमूर्त रूप-रस-गंध और स्पर्श से रहित भारहीन है उसकी छाया भी नहीं पड़ती। उसके भावपक्ष बिगड़ जाने से ही आज तक उसकी संसार में हार होती चली आ रही है। अर्थात् भाव खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। भगवान् के शब्दार्थ तक ही हमारा संबंध रहा, भाव तक नहीं। शब्द और अर्थ कथचित् अन्य पर आश्रित हो सकते हैं किन्तु भावों पर किसी अन्य का नियंत्रण नहीं होता है। पेट में आकस्मिक वेदना होने से बेटा तड़प-तड़प कर पापड़ के समान सिक रहा है। माँ देख-सुन कर सांत्वना प्रदान कर रही है। मेरे रहते तुम्हें कष्ट नहीं होगा, यह सुनकर उसका विश्वास व श्रद्धा मजबूत होता है, किन्तु पीड़ा की अति के कारण मुख से माँ शब्द भी नहीं निकल पा रहा है। पीड़ा के कारण आँखों से अश्रुधार निकल रही, जिसे देख माता के हृदय में संवेदना होने से उसकी आँखों से भी अश्रुधार बह निकली।


    आँखों से पानी आना शब्द पक्ष नहीं, अपितु भावपक्ष का प्रतीक है। इन भावों का प्रभाव किसी पर पड़े ही यह नियम नहीं है, पर भाव का प्रभाव अवश्य पड़ सकता है। हाथ में टार्च लेकर जलाने पर सामने वस्तु प्रकाशित होती है। दूर रहकर भी वस्तु एवं टार्च के बीच प्रकाश है या नहीं, यह देखना है। यह आँखों से नहीं दिखाई पड़ता? स्रोत हाथ में है, वस्तु दूर है, पर बीच में प्रकाश गायब क्यों? वस्तु बीच में नहीं दिख रही इसलिए वह नहीं ऐसा नहीं सोचना चाहिए। वस्तु सूक्ष्म है, सतत् नहीं दिख रही है, वैसे ही शब्द और अर्थ की अपेक्षा भाव सूक्ष्म है। वह दिखे भले ही नहीं पर संवेदन से महसूस तो किया जा सकता है।


    कभी अकाम निर्जरा करें, भवनत्रिक में सुर तन धरै।

    विषय चाह दावानल दहो, मरत विलाप करत दुख सहो॥

    यह प्राणी पंचेन्द्रिय विषयों के दावानल में आज तक जलता आ रहा और मरते दम तक दुख सहन करते हुए रोता रहा, पर विषयों को नहीं छोड़ा। पक्षी पंख फड़फड़ाता है, उड़ता है, किन्तु बाद में निश्चितता के साथ पंख फैलाये हुए आकाश में घूमता रहता है। वैसे ही शब्द से अर्थ तथा अर्थ से भाव की यात्रा होने पर शब्द और अर्थ गौण हो जाता है। शब्द और अर्थ के अभाव में भाव नहीं होता, पर आज तक भाव के अभाव में मात्र शब्द की ही यात्रा हुई है। मंजिल या गंतव्य भावपक्ष है, उसके अभाव में यात्रा का कोई प्रयोजन नहीं है। गंतव्य तभी महसूस होता जब मंतव्य सही है। मंतव्य के अभाव में गंतव्य तक यात्रा नहीं हो सकती। अपने मंतव्य के अनुरूप ही पक्षी पंख फड़फड़ाकर गंतव्य को प्राप्त कर लेता है।
     

    एक राजा के दरबार में विशिष्ट संगीतज्ञ के संगीत का प्रदर्शन हो रहा था। संगीत सुनकर सभी दरबारी वाह-वाह कर उठे तथा उसी में डूब कर उन सभी के सिर झूमने लगे। भावपक्ष समझ में आ जाने पर शब्द और अर्थ महत्व नहीं रखते। संगीत देशी हो या विदेशी उसमें कोई विशारद हो या न हो परन्तु संगीत सुनकर भीतरी आनंद की अभिव्यक्ति शरीर पर दृष्टिगत होने लगती है। राजदरबार में हिलने-डुलने पर प्रतिबंध तथा राजाज्ञा उल्लंघन होने पर मृत्युदंड की घोषणा हो जाने पर सभी संभलकर बैठे रहे और गर्दन हिलने न पाये, ऐसी चेष्टा करने लगे।


    पर संगीत के आनंद में सराबोर कुछ व्यक्ति सहसा ही झूम उठे उन्हें राजाज्ञा उल्लंघन या मौत का डर नहीं था, क्योंकि विद्या या कला को भावपक्ष से जाना जाता है। उसके लिये शब्द और अर्थ पर पाबंदी हो सकती पर भाव तो भाव है। शब्द भले ही समझ में न आवे पर संकेत से भी भाव को पकड़ा जा सकता है। हिरण या सर्प संगीत सुनकर कीलित हो जाते उन्हें मरण या पकड़े जाने का भय नहीं रहता। बाहर की सुध बुध नहीं रहती और भीतरी तन्मयता आ जाती है, वैसे ही आत्मा की अनुभूति के समय मंतव्य के अनुरूप राग से वीतरागता की यात्रा होती है। अंत में माँ जिनवाणी के गुणानुवाद कर माँ का बेटे पर वरद हस्त रहें।


    अहिंसा परमो धर्म की जय !

    Edited by admin


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