भगवान् महावीर स्वामी का जीवन राग-द्वेष कामादिक विकारी भावों के जीतने का जीवन है। तप-त्याग साधना का जीवन है। अध्यात्म और आचरण का जीवन है। ऐसे जीवन को आदर्श बनाने से हमारी उन्नति ही उन्नति होगी अवनति से अनंतकाल के लिये छुटकारा मिल जायेगा। धन्य है महावीर भगवान् का जीवन जो आज भी हमारे लिये उन्नति की ओर प्रेरित कर रहा है। आज धन्यता का पाना दुर्लभ है धन का पाना नहीं। धन सहज प्राप्त हो जाता है किन्तु धन्यता का पाना अत्यधिक दुर्लभ है। सुलभता में सुख नहीं मिलता किन्तु दुर्लभता में सुख है आनंद है। दुर्योधन दु:शासन प्रिय नहीं है किन्तु महावीर का व्यक्तित्व अच्छा लगता है। शिष्टता की पहिचान के लिये दुष्टता का भी ज्ञान होना चाहिए। दुख का अनुभव ही सुख की पहिचान कराने में कारण बनता है। जो दुख सहकर भी दूसरों को सुख प्रदान करते हैं वही इस धरती पर प्रशंसा के पात्र हैं। सूर्य को राहु से ग्रहण लगता है फिर भी सूर्य उजाला देना बन्द नहीं करता इसीलिये तो वह 'सूर्य नारायण' कहलाता है। हम रविवार को आराम करते हैं अवकाश मनाते हैं किन्तु रवि कभी भी रविवार नहीं मनाता, यदि रवि ही रविवार मनाने लगे तो हम लोगों का क्या होगा? वह सदैव सब जगह सभी को प्रकाशित करता है इसीलिये उसका जीवन प्रशंसनीय है, आदर्श है।
हमें भगवान् महावीर के संदेश के अनुरूप ही अपना आचरण बनाना चाहिए। महावीरत्व की प्राप्ति अकेले देखने पढ़ने से नहीं किन्तु उन्हें जीने से होगी। यदि यह मनुष्य एक अंश भी महावीर को जी ले तो उसका जीवन धन्य हो जाये। ध्यान रखो बंधुओं! ‘वर्द्धमान' वर्तमान तक इसलिये प्रसिद्ध हैं क्योंकि उनके पास सद्गुण थे। भगवान् महावीर अतीत की नहीं किन्तु प्रतीत की घटना है अत: उन्हें आत्मसात करने से ही हमारी इस संसार की यात्रा पर विराम लगेगा। अन्यथा अनंतकाल से जारी यह यात्रा अनंत काल तक जारी रहेगी। 'चरैवेति चरैवेति' का स्मरण मात्र ही पर्याप्त नहीं है उसे जीवन में साकार भी करना होगा।
देख सामने चल अरे दीख रहे अवधूत।
पीछे मुड़कर देखता उसको दिखता भूत।
अभी-अभी इसी देश में गाँधी जी ने महावीर का 'अहिंसा-सिद्धान्त' अपनाया था किन्तु उनके अनुयायी आज गाँधी जी के नाम की दुहाई देते हैं शाब्दिक सम्मान भी व्यक्त करते हैं पर क्या-क्या कर रहे हैं यह कभी विचार किया है आपने? बूचड़खानों की संख्या में निरन्तर वृद्धि क्या गाँधी और उनकी अहिंसा के प्रति सम्मान है। धन के लिये पशु-धन, गोधन की हत्या कहाँ तक उचित है? दूध की नदियाँ जिस देश में बहतीं थीं उस देश में पशुओं के खून की नदियाँ बहरही हैं क्या यही विकास है? महावीर और महात्मा गाँधी के इस देश में यदि खून का यह तांडव न रुक सका तो उनकी जयंती महोत्सव मनाने का हमें कोई अधिकार नहीं है। पशु-वध बंद करने का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है केवल सरकार का ही नहीं। प्रजातंत्रात्मक देश में नागरिक शक्तिशाली होते हैं क्योंकि वह प्रजा होने के साथ-साथ स्वयं सरकार भी हैं। विदेशी धन के लिये पशु-धन की हत्या अनुचित है। नागरिकों की सुविधाओं के लिये सरकार को विदेशी मुद्रा लेने की आवश्यकता पड़ती है अत: पशु-वध से प्राप्त विदेशी मुद्रा के बराबर की राशि राजकीय कोष में जमा कर पशु-वध तत्काल प्रतिबंधित करने के लिये समाज को दृढ़ संकल्प ले लेना चाहिए। यह लजा की बात है कि महात्मा गाँधी के आदशों को पूजने वाले उनके नाम की आड़ में गोधन की हत्या करते हैं। महावीर के समय में तो धर्म के नाम पर कुछ प्राणियों की ही बलि दी जाती थी लेकिन आज तो धन की प्राप्ति के लिये बूचड़खानों के माध्यम से अनगिनत पशुओं की बलि दी जा रही है। फिर भी हम हैं कि भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् राम और महात्मा गाँधी की जयंतियाँ मनाते चले जा रहे हैं। क्या हो गया है मानवता को? कहाँ खो गई है मनुजता? कहाँ गई करुणा? पाषाण हृदय हो गया है क्या? विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का पाठ पढ़ाने वाले गुरु कहलाने वाले भारतीयों की संवेदनायें क्या समाप्त हो गयी हैं। भारतीय संस्कृति तो यह नहीं है, नहीं है यह भारतीय धर्म और दर्शन। हमने अपने स्वार्थ के कारण महान् विभूतियों के संदेश विक्षत कर दिये हैं। साधु-सन्तों के इस देश ने विश्व को ज्ञान सूत्र दिये किन्तु उनका पालन आज यहीं पर नहीं हो रहा इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी इस देश की तथा देशवासियों की। जीव हत्या के इस अन्धकार में विकास के प्रकाश की आशा व्यर्थ है। इस तरह सुख-सुविधाओं के लिये चेतन धन का संहार समूची मानवता के लिये कलंक है अभिशाप है।
अहिंसा रूपी तेल के अभाव में दीपक से प्रकाश मिलना असंभव है केवल दम घुटने वाला धुआँ ही मिलेगा। ऐसी स्थिति में यदि गाँधी जी जीवित होते तो आँख, मुँह, कान बंद करने के लिये दो हाथ नहीं ईश्वर से छह हाथ माँगते क्योंकि विगत ५० वर्ष में हिंसा में वृद्धि ही हुई है। अपने समय की विषम परिस्थितियाँ और धर्म के नाम पर हो रही हिंसा से कातर हो सुख का बहाव बहाने के लिये भगवान् महावीर स्वामी ने राज्य वैभव का त्याग किया। क्योंकि राजा के राज्य की सीमा निर्धारित होती है तथा उसका दायित्व सीमान्तर्गत प्रजा की भलाई तक होता है किन्तु महावीर भगवान् को तो सारे विश्व के प्राणियों का कल्याण करना था। भारत ही नहीं विश्व को अशांति से छुटकारा दिलाने के लिये आप राजा नहीं 'महाराजा' हुए। आप सत्य पर आसीन हुए सत्ता पर नहीं। विध्न बाधाओं के आने पर भी आप रुके नहीं ध्येय की ओर बढ़ते ही गये। विध्नों के आने पर सज्जन कभी अपना कार्य नहीं छोड़ते। राहु के राह में आने पर भी सूर्य प्रकाश देता ही रहता है। बंधुओ! दुनिया उन्हें ही याद रखती है जो संकल्प पूर्वक अपने पथ पर बढ़ते रहते हैं। भगवान् महावीर स्वामी न हुए होते तो आज आत्मा की आवाज सुनने वाले भी कोई नहीं होते। जिस प्रकार अंधकार में एक क्षण के लिये कौंधी बिजली भी अगला पग रखने के लिये प्रकाश दे जाती है उसी प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में भी बिजली की एक चमक बोध के लिये पर्याप्त हैदिशा निर्देशन मिल जाता है किन्तु यह संभव तब ही है जबकि संकल्प हो आस्था हो। आज के युग को ‘गाँधी जी' भी पर्याप्त प्रकाश हैं कोई चले तो। गाँधी-विचार नहीं गाँधी को जीना आवश्यक है उन्होंने एक जगह कहा है - "गाय &धरती पर दया की कविता है |" (Cow is a Poem of Pity on the Earth) बड़े खेद की बात है आज संस्कृति पर कुठाराघात हो रहा है और हम हैं कि चुपचाप बैठे सब देखते जा रहे हैं –
भूखे परिसर देख के भोजन करते आप ।
फिरभी खुद को समझते दया मूर्तिनिष्पाप।
अभी भी दिन शेष हैं, प्रकाश शेष है, मस्तिष्क काम कर रहा है, पश्चाताप के घूंट पीकर महावीर, राम और हनुमान की जयंती मनाना सार्थक कर सकते हो- अहिंसा के प्रयास से, हिंसा के प्रतिबंध से। क्या करूं! शब्द कुछ कड़े हो सकते है, पर शल्य चिकित्सा के लिये पीड़ा सहन करना ही पड़ती है। निरोग होने के लिये कड़वी औषधि का सेवन करना ही पड़ता है।
उसी कड़वी औषधि सेवन के अनुरूप यदि वाक्यों में कुछ कड़वापन हो तो हिंसा की महामारी रोकने के लिये इसका सेवन करना ही होगा। पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के संकल्प को याद करिये, उन्होंने देश में व्याप्त अन्न की समस्या के समाधान के लिये सप्ताह में एक दिन एकाशन व्रत रखने का आह्वान किया था। यह एक तरह से हमारे लिये बहुत बड़ी शिक्षा थी कि हम अपने देश में आई हुई समस्याओं का समाधान त्याग के माध्यम से स्वाश्रित होकर कर सकते हैं। राष्ट्र पर आपत्ति आने पर धन न्यौछावर करने की परम्परा भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है और इस कार्य को करने में जैन समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है। धर्म, सौरभमय है, वातावरण में अहिंसा की सुरभि चतुर्दिक फैलाने के लिये धन अर्पित करने की परम्परा का हमें निर्वाह करना है। और फिर प्राणिमात्र के
प्रति सद्भावना रूप इस अहिंसा धर्म से यह धरती ऐसी हरी-भरी समृद्ध हो जायेगी कि मनुष्य स्वर्ग के देवों से भी कहेगा कि ‘यदि सुख चाहते हो तो इस धरती पर आकर देखो।'
अन्त में मैं आप सबसे यही कहना चाहूँगा कि हमें इस दयामय धर्म और अहिंसा की रक्षा के लिये वे सारे प्रयास और संकल्प करना चाहिये जिससे शासन को भी एक बार सोचने के लिये मजबूर होना पड़े। हम हाथ उठाकर संकल्प करें कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हम तन, मन, धन से कभी पीछे नहीं हटेंगे। इसी में हमारे जीवन की धन्यता है और तीर्थकर महापुरुषों की जयंतियाँ मनाना हमारा सार्थक है।
यही प्रार्थना वीर से अनुनय से कर जोर।
हरी-भरी दिखती रहे धरती चारों ओर ।
'भगवान् महावीर स्वामी की जय!'