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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 22 - आत्मद्रष्टि ही अपना पथ

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    इस संसार में बहुत सारे कठिन कार्य हैं किन्तु मान को नियंत्रण में रखना सबसे कठिन कार्य है। यह मान कषाय की ही परणति है कि हम अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं पर दूसरों की मान्यता हम स्वीकार करना नहीं चाहते। हम यह देखते रहते हैं कि हमारी मान्यता का समर्थन कौन-कौन कर रहा है। जिस प्रकार फूल को यदि पानी मिलता रहे तो वह खिला रहता है किन्तु पानी नहीं मिलने पर वह मुरझा जाता है ठीक इसी प्रकार हमारी प्रसन्नता दूसरों पर टिकी हुई है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि अपने जीवन को दूसरों से नहीं अपने आपसे ही पुष्ट करो। हमें देखना यह है कि हमारी स्वयं की मान्यता स्वयं के लिये कितने प्रतिशत में है। स्वयं को स्वयं के रूप में यदि हम स्वयं ही नहीं मानते तो दूसरे कैसे मान सकते हैं यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य बात है। चुनाव प्रक्रिया देखी होगी आपने जिसमें उम्मीदवार दूसरों का समर्थन दूसरों का वोट लेने की भावना रखता है किन्तु अपनी वोट स्वयं को देने का स्वतन्त्र अधिकार भी रखता है। और वह अपना वोट अपने आपको देता भी है। अब ‘जिसका स्वयं का वोट स्वयं को ही न मिले तो वह जीत कैसे सकता है। जो व्यक्ति अपनी पहचान कर अपने आपको वोट देता है वह तीन लोक का नाथ भगवान् बन जाता है फिर सारी दुनियाँ उसे वोट देने तैयार हो जाती है। मैं आप से पूछना चाहता हूँकि आप लोगों का चुनाव चिह्न क्या है? शरीर या आत्मा। सील किस पर लगाई है आज तक। इस जड़ शरीर को वोट देने वाला यह अज्ञानी प्राणी कभी जीत नहीं सकता इस संसार में।

     

    यह मोक्ष मार्ग है ; इसमें स्वयं की दृष्टि पाना जरूरी है। यहाँ दूसरों की दृष्टि से काम नहीं चलेगा। देखने के लिये यदि अपने पास दृष्टि है तो चश्मा फिर भी कथचित् सहायक हो सकता है पर दूसरों की दृष्टि कदापि नहीं। दूसरे की दृष्टि से दूसरों को देखा जा सकता है, पर अपने लिये अपनी ही दृष्टि, अपनी ही आँख से देखा जाना सम्भव है। यदि साफ-साफ नहीं दिख रहा है तो ऑपरेशन के माध्यम से आँख का पर्दा हटाकर रहस्य का उद्धाटन किया जा सकता है। इस कार्य में हमारा प्रयास/ पुरुषार्थ इतना ही मायने रखता है कि पर्दा को हटाओ और अंतर्दूष्टि प्राप्त करो। ऐसी दृष्टि जिसके बल पर हमें अपनी और भगवान् की पहचान होती है।

     

    भगवान् की पहचान का मतलब है कि उनकी पहचान से हम अपनी पहचान करें। जो दृष्टि स्वयं को नहीं देख सकती/पहचान सकती वह पर को भी नहीं देख सकती और जो स्व-पर को नहीं देख सकती वह विश्व को भी नहीं देख सकती और जो विश्व को नहीं देख सकती वह सम्यक दृष्टि कैसे हो सकती है, उसकी दृष्टि सम्यक्र कैसे हो सकती है। अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाकर वस्तुतत्व को पहचानने का प्रयास करो।

     

    शिविर चल रहा है यहाँ पर, परीक्षा होगी, नम्बर भी मिलेंगे। मैं पूछना चाहता हूँ आप सबसे - कि नम्बर कौन देता है? परीक्षक या हम स्वयं। बात स्पष्ट है हमारे लिखे अनुसार ही नम्बर मिलते हैं अर्थात् जो हम लिखते हैं उसके अनुसार ही कापी जाँचने वाला नम्बर देता है। वास्तव में हमें हमारी योग्यता ही नम्बर दिलाती है। इस परीक्षा को फिर भी नकल से पास किया जा सकता है किन्तु मोक्षमार्ग में नकल का कोई काम नहीं। दिगम्बर हैं हम करलो नकल और हो जाओ पास । नहीं, अकल के बिना नकल भी सफल नहीं करा पाती किसी को। युग के आदि में ४००० राजाओं ने की थी आदिनाथ भगवान् की नकल, पर सब फेल हो गये। यहाँ तो वही पास होता है जो विवेक विश्वास के साथ स्व-पर की पहचान कर आगे बढ़ता है। इस छोटे से जीवन में हमें दुनियादारी की बातें नहीं करना किन्तु उनकी बातें करना है जो "निजानंद रसलीन" अपने ही आनंद रस में लीन रहते हैं। प्रति समय उत्पन्न और विनष्ट पर्यायों में भी जो शाश्वत आत्मतत्व के अनुभवन में लीन रहते हैं।

    तरंग क्रम में चल रही पल-पल प्रति पर्याय।

    ध्रुव पदार्थ में पूर्व का व्यय होता फिरआय॥

     

    पदार्थ की सत्ता ध्रुव है, प्रति समय पर्याय का तरंग क्रम चल रहा है पर आत्म-सरोवर ज्यों का त्यों बना हुआ है। एक पर्याय जा रही है दूसरी पर्याय आ रही है। यह आने-जाने का क्रम निरन्तर जारी है। दृष्टि प्राप्त ज्ञानी इसमें उलझता नहीं है किन्तु अज्ञानी जिसे इसका रहस्य ज्ञात नहीं वह उलझ जाता है। इस उलझन से सुलझाने के लिये ही सारे धार्मिक प्रयास हैं। पर हम हैं कि समझ ही नहीं पाते इस रहस्य को। यह जन्म और मरण की संतति कहाँ से, कब से आ रही है इसके बारे में सोचना?विचार करना जरूरी है अन्यथा अन्त में पश्चाताप ही हमारे हाथ लगेगा।

    क्या था क्या हूँक्या बर्नूरेमन अब तो सोच।

    वरना मरना वरण कर बार-बार अफसोस।

     

    बंधुओ! यह सारी बातें आचार्यों ने अपने उपदेश में कहीं हैं। इस वस्तु व्यवस्था को समझने के लिये आचार्य प्रणीत शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये। बहुत विरला ही व्यक्ति इस तत्व-ज्ञान को प्राप्त कर पाता है। ये ज्ञान और संयम के संस्कार थोड़े भी पर्याप्त हैं मुक्ति की प्राप्ति के लिये। बीज के समान योग्य वातावरण पाकर यह एक दिन बहुत बड़े वट वृक्ष के रूप में प्रति-फलित होंगे। अपने को पहचान कर इन संस्कारों को पाने का प्रयास हमेशा करते रहना चाहिये यही मुक्ति का मार्ग है।

    'महावीर भगवान् की जय!'

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाकर वस्तुतत्व को पहचानने का प्रयास करो।

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