आज शिक्षण शिविर का समापन है। शिक्षा देने के रूप में शिविर का समापन है किन्तु प्राप्त की गई शिक्षा को जीवन में उतारने की शुरूआत। भोजन करने के उपरान्त जिस तरह पाचन की क्रिया प्रारंभ होती है उसी तरह प्राप्त किये गये शिक्षा के संस्कारों को अब जीवन में उतारना है। किये गये भोजन का यदि पाचन न हो तो अजीर्ण हो जाता है, ठीक ऐसा ही शिक्षा के क्षेत्र में भी है यदि उसे आचरण में न ढाला जाये तो अहितकारी हो जाती है। यहाँ पर दो बातें विचारणीय हैं कि किसको संस्कार? और किसका संस्कार? तो आचार्य महाराज कहते हैं कि इस जीव को ज्ञान चरित्र के माध्यम से संस्कारित करना है। प्रश्न यह उठता है कि जब जीव स्वयं ज्ञानवान एवं चारित्र स्वभावी है तब फिर उसे संस्कारित करने की जरूरत क्या है? तो उत्तर दिया गया है कि यद्यपि यह जीव स्वभाव से ज्ञान और चारित्र वाला है किन्तु मिथ्यात्व के प्रभाव से इसका ज्ञान चारित्र विकृत हो गया है इसलिए इसे संस्कारित करने की आवश्यकता है। भगवान् महावीर या उनके उपासकों ने इसका प्रचार-प्रसार उपदेशों के माध्यम से ही नहीं बल्कि प्रचाल (चलकर) भी किया है। इसलिए कहा गया है कि ज्ञान के बढ़ने के साथ-साथ उसे सम्हालने की शक्ति भी बढ़नी चाहिये अन्यथा वह गतिमान गाड़ी के स्टेरिंग को सम्हालने में असमर्थ ड्रायवर की तरह खतरनाक हो जाता है।
ज्ञान ही दुख का मूल है ज्ञान ही भव का कूल।
राग सहित प्रतिकूल है राग रहित अनुकूल।
चुन-चुन इनमें उचित को मत चुन अनुचित भूल।
सब शास्त्रों का सार है समता बिन सब धूल।
हमारा ज्ञान रागान्वित है; पर पदार्थ की ओर झुक रहा है इसलिए दुख का कारण बना हुआ है जबकि भगवान् का ज्ञान राग-द्वेष से रहित स्वभाव में स्थिर है और यही कारण है कि प्रभु पर पदार्थ को जानने का उद्यम नहीं करते, पर पदार्थ उनके ज्ञान में झलकते हैं यह पृथक् बात है। वस्तुत: ज्ञान की खुराक ज्ञेय नहीं किन्तु ज्ञान ही है। दुनिया के साथ सम्बन्ध रखने से ही सुख का अनुभव होता है ऐसी हमारी मान्यता है किन्तु वास्तविक सुख तो अपने आप में आने पर ही होता है। देखा होगा आपने - सुबह अपनी छाया बहुत बड़ी दूर-दूर तक फैली रहती है इसी तरह अन्त में शाम को भी छाया का विस्तार रहता है किन्तु मध्याह्न में छाया गायब हो जाती है, लगता है जैसे कि स्वयं में लीन हो गई हो। यह मध्याह्न, मध्यस्थता समत्व की प्रतीक है। बंधुओ! यदि आपका ज्ञान आचरण की आराधना करता है तो आनंददायी स्वयं में लीन हो जाता है। चरण का साथ देने वाला ज्ञान स्वस्थ आत्मस्थ माना जाता है। आत्म परिधि से बाहर जाने पर ही ज्ञान परेशान होता है। हमें अन्य को नहीं अपने आप को, अपने आत्म को देखना है यही हमारी संस्कृति है भगवान् को देखना ही नहीं, उनकी भक्ति में लीन होना है। भक्ति एक ऐसा माध्यम है जिसमें भक्त कौन है और भगवान कौन यह पहचान नहीं हो पाती। सारी दुनिया खत्म हो जाती है इस भक्ति में।
इसी भावना को मैंने इस दोहे में दर्शाया हैं -
भत लीन जब ईश में, यूँ कहते ऋषि लोग।
मणि-काँचन का योग न, मणि प्रवाल का योग।
मणि काँचन का योग तो सभी जानते हैं इसमें नैकट्य है पर अभेद नहीं, किन्तु एक मणिप्रवाल का योग भी है जिसमें मणि और प्रवाल के आमने-सामने रखे रहने पर यह ज्ञान नहीं हो पाता कि मणि कौन है और प्रवाल कौन है दोनों एक ही रंग में रंग जाते हैं। स्फटिक मणि प्रवालमय हो जाती है। धन्य है वह भक्ति जिसमें भक्त इतना तन्मय हो जाता है कि मणि-प्रवाल के योग की तरह भेद भी अभेद जैसा दिखने लगता है। इस भारत में जहाँ भक्ति की परम्परा है तो वहीं नीति न्याय को भी सम्मान मिला है। आज इन्सान का जीवन संघर्षमय बनता जा रहा है इसका एक ही कारण है कि न्याय नीति को छोड़कर मध्यस्थ भूमिका से हट जाना तराजू के पलड़े से भले ही ऊपर नीचे हो किन्तु उसका काँटा यदि केन्द्र को नहीं छोड़ता मध्यस्थ रहता है तो सत्यासत्य का सही निर्णय दे सकता है, अन्यथा नहीं। धर्मकांटा तो धर्मकांटा ही है। हमारा जीवन भी धर्मकाँटे की तरह यदि न्याय से युक्त सधा हुआ है तो हम सत्यासत्य का सुखद निर्णय कर सकते हैं अन्यथा कलह और संघर्ष के अलावा हमारे हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं।
लेन-देन में हीनाधिकता करने से प्रामाणिकता खंडित होती है विश्वास उठ जाता है और जीवन संघर्षमय बनता है। भले ही ज्ञान कम हो किन्तु जीवन में इस धर्म की, आचरण की बड़ी मुख्यता है। इस धर्म के प्रभाव से तिर्यच की निम्न पर्याय में जन्म लेने वाला श्वान भी देव हो जाता है और पाप अधर्म के वशीभूत होकर उच्च पर्याय में जन्मा देव भी श्वान हो जाता है। और पाप अधर्म के वशीभूत होकर उच्च में जन्मा देव भी श्वान हो जाता है, इस बात को बतलाने के लिये इंग्लिश में शब्द भी बड़े फिट बैठ रहे हैं, देखिये-Dog यदि धर्म करता है तो वह उससे विपरीत अर्थात् God बन जाता है और God भी यदि अधर्म के वश होता है तो उससे विपरीत Dog बन जाता है। धर्म की बात बड़ी रहस्यपूर्ण है बंधुओ। जिसके जीवन में धर्म है/न्याय है उसकी हमेशा उन्नति होती है, विजय होती है। अधर्म और अन्याय हमेशा हारता ही हारता है।
उन्नत बनने नत बनो लघु से राघव होय।
कर्ण बिना भी धर्म से विजयी पांडव होय।
रामायण और महाभारत ऐसे कथानक हैं जिनके माध्यम से संक्षेप में भारत का इतिहास समझ में आ जाता है। इसलिए इस दोहे में कहा गया है कि उन्नति के लिये नति-नम्रता आवश्यक है, रघुवंशी राम बनने की परम्परा यही है और कर्ण के बिना भी पाण्डवों के पास यदि धर्म (धर्मराज) है तो जीत पाण्डवों की होगी। यह प्रसंग महाभारत का है जिसमें कर्ण जो कि पाण्डवों का ही भाई था युद्ध में कौरवों की ओर चला गया था किन्तु इसके बाद भी न्याय परायण धर्मनिष्ठ धर्मराज के रहने से पाण्डव विजयी हुए। ध्यान रखो! अकेले बड़े होने मात्र से काम नहीं बनते किन्तु बड़प्पन से काम बनते हैं, बड़प्पन श्रेष्ठ है बड़ा होना नहीं।
समय आपका हो रहा है, सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर के इन दस दिनों में यही शिक्षा संस्कार दिये गये हैं कि धर्म और धर्मात्माओं के प्रति भक्ति विश्वास जागे। बिना विशेष सुविधा/प्रबंध के भी यह सफल रहा, बड़ा सराहनीय कार्य है। प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं कि सभी का जीवन इसी तरह संस्कारित हो एवं धर्मनिष्ठ बने।
‘महावीर भगवान् की जय!'
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