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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 25 - सिद्धचक्र महामण्डल विधान की सम्पन्नता एक झलक घट यात्रा से शोभा यात्रा तक

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    पावन भूमि-अमरकंटक में जैन समाज द्वारा आयोजित १००८ श्री सिद्धचक्र महामण्डल विधान एवं विश्वशांति महायज्ञ के आठ दिवसीय आयोजन का समापन धूमधाम से हुआ। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में होने वाले इस आयोजन का शुभारम्भ ध्वजारोहण से हुआ। इससे पूर्व घटयात्रा निकाली गयी। जिसमें नर्मदा उद्गम से जल लाकर पूजा स्थल की शुद्धि की गयी। पण्डित प्रतिष्ठाचार्य विमलकुमार सौरया टीकमगढ़ के कुशल निर्देशन में सम्पूर्ण विधि-विधान सम्पन्न हुए। विविध धार्मिक कार्यक्रम एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों से पूरा अमरकंटक धर्ममय हो गया। प्रतिदिन विभिन्न मठों एवं आश्रमों से आने वाले संत महात्माओं को देखकर ऐसा लगता था मानों सर्वोदय तीर्थ धार्मिक समन्वय का केन्द्र बन गया हो।

     

    श्रोताओं को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के प्रवचन प्रेरणा-दायक रहे। कल्याण आश्रम के अधिष्ठाता अमरकंटक के सुप्रसिद्ध संत बाबा कल्याण-दास जी अनेक संतों के साथ पूजा स्थल पर पधारे। अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि, भारत की भूमि न राजाओं की रही है, न प्रशासकों की। यह तो संतों की भूमि है, संतों की दिशा-दृष्टि से ही यह समाज सुरक्षित है। किसी कवि की दो पंक्ति उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा -

    आग लगी आकाश में, झर-झार झरे अंगार।

    संत न होते जगत् में तो जल जाता संसार।

     

    उन्होंने जैन शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि - जैन कोई व्यक्ति या समाज नहीं जिन नाम है- संयम का। और जो संयमित और अहिंसक है वह जैनी है। उन्होंने भगवान् महावीर के अवदानों को उल्लेखित करते हुए कहा कि, जब पशुओं के साथ क्रूर व्यवहार हो रहा था, धर्म के नाम पर बलि चढ़ायी जा रही थी। उस समय भगवान् महावीर का जन्म हुआ। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु बलि आदि कार्य जब-पराकाष्ठा पर थी, तब सब त्याग कर 'महावीर' ने शांति व समता का उपदेश दिया।

     

    जैन संस्कृति से अमरकंटक का सम्बन्ध बताते हुए उन्होंने कहा कि-मैकल पर्वत एवं आमकूट (अमरकंटक का प्राचीन नाम) में जैन मुनियों के विहार एवं तपस्या का उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है।

     

    अन्त में उन्होंने 'आचार्य श्री' के प्रति भाव वन्दन के साथ अपना उद्बोधन समाप्त किया। उससे पूर्व गुजरात से पधारे' श्री नारायण मुनि' ने कहा कि बड़ी खुशी की बात है कि, आज सभी धर्म के साधु संत एक मंच पर बैठे हैं। मेरी समझ में धरती पर एक ही धर्म है, वह है मानवता। उन्होंने सत्य, अहिंसा, पवित्रता और दान को धर्म के चार चरण बताये। गीता मंदिर से पधारे ‘स्वामी ब्रहोद् जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि, हमारे देश के तीन तरफ(उत्तर छोड़कर) सागर है, पर वे खारे हैं, लेकिन विद्या का सागर तो मीठा ही मीठा है। इसमें जो गोता लगायेगा वो मोक्ष को जायेगा। उत्त अवसर पर रामकृष्ण परमहंस आश्रम से आये स्वामीजी ने कहा-सबसे पहले हम उन सब का स्वागत करते हैं जिन्होंने सर्वोदय तीर्थ की कल्पना की। उनके प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाये कम है।

     

    अन्त में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि गुण ही पूज्य है, जाति नहीं। जिस प्रकार गंध रहित पुष्प की कोई कीमत नहीं, गुणहीन मनुष्य का कोई महत्व नहीं। सुगंधित पुष्प पर भ्रमर सहज ही मंडराते हैं। धर्म वह सुवासित वस्तु है जो आसपास के वातावरण को सहज ही सुवासित कर देती है। आचार्य श्री ने कहा कि धर्म की पहचान हम गुणों के आधार पर ही कर सकते हैं। धर्म किसी वेष-परिवेश और देश से बंधा हुआ नहीं है। वह तो आत्मा की निर्मल परिणति है उन्होंने कहा कि धर्म सनातन है। किन्तु आज उसी धर्म के नाम पर तनातन हो रहा है जबकि होना चाहिये था 'टनाटन' (१०० टंच खरा)। अंत में उन्होंने कहा हमारे पास सत् और चित है पर आनन्द का अभाव है। विषयों का त्याग करने पर ही आनन्द सम्भव है। प्रभु का दास बनने पर ही हमारा कल्याण होगा। इससे एक दिन पूर्व अमरकंटक में श्री तांत्रिक मंदिर के निर्माता स्वामी श्री सुखदेवानन्द जी का प्रवचन हुआ उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक आचरण बिना सुख आ ही नहीं सकता। त्याग से ही सत्य और अहिंसा को पूर्ण रूप से पा सकते हैं। धन्य हैं वे लोग जिनके अन्दर व्रत ग्रहण का भाव आ जाता है जिनकी क्रिया में व्रत अवतरित हो जाता है। और धन्य है वे लोग जो स्वयं त्याग की मूर्ति बन जाते हैं।

     

    सिद्धचक्र विधान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि सभी परम्पराओं में सिद्ध चक्र की पूजा और महत्व एक सा है। सिर्फ क्रिया-प्रक्रिया में थोड़ा फर्क है। उन्होंने यज्ञ का अर्थ त्याग बताया । संत जीवन के महत्व को बताते हुए उन्होंने कहा कि धन्य है वह जीवन जिसको संत का दर्शन हो जाये और सौभाग्यशाली है वह जीवन जिसे संतों के चरणों की रज मिल जाये। आचार्य श्री की ओर इंगित करते हुए उन्होंने कहा कि आपको भगवान् के प्रति भक्ति हो या न हो किन्तु यह जो जीवित भगवान् बैठे हैं, इनकी भक्ति सौभाग्यशाली को ही मिलती है। अंत में दिगम्बर मुनि के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा कि तप और त्याग की जो मूर्ति दिखायी देती है वह सिर्फ दिगम्बर संतों में दिखायी देती है। इससे पहले गुरुद्वारा से आये 'हरदेव सिंग जी ज्ञानी' ने आचार्य श्री का वन्दन करते हुए कहा कि ऐबों से बचना, सबसे मिलकर रहना एवं भगवान् का स्मरण करना संतों का उपदेश है।

     

    अन्त में आचार्य श्री ने अपने मांगलिक प्रवचन में कहा कि जिस प्रकार बीज से अंकुर फूटता है केन्द्र एक रहता है किन्तु उसकी कई उपशाखायें बन जाती हैं उसी प्रकार धर्म एक है, किन्तु उसकी कई उपशाखाएँ बन जाती है उन्होंने कहा कि प्रत्येक साधना का लक्ष्य साध्य को पाना है। साधना में साध्य नहीं वह तो सिर्फ साध्य को पाने में सहायक है। मंत्र और तंत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि तंत्र के आगे यदि 'स्व' लगा दें तो उसी क्षण हम स्वतंत्र हो जायेंगे। स्वतंत्रता की प्राप्ति ही साधना का महामंत्र है। अंत में निर्मलजी, सतना ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि अमरकंटक संतों की भूमि है। यहाँ आने वाले प्रत्येक श्रद्धालू को संत समाज के दर्शन का अच्छा अवसर प्राप्त होगा।

     

    कार्यक्रम के अंतिम दिन प्रातः हवन कर्म के पश्चात् मध्याहू में विशाल शोभा यात्रा निकाली गयी। शोभा यात्रा के आगे चल रहे 'वर्धमान कला मण्डल, टीकमगढ़” की मोहक धुनों से सभी के पैर थिरक रहे थे। आचार्य श्री अपने संघ के साथ शोभा यात्रा में सम्मिलित थे। कल्याण सेवा आश्रम के 'मोनी बाबा’, बफीनी आश्रम के 'पुरुषोत्तमदासजी' शोभा यात्रा में आचार्य श्री के साथ-साथ चल रहे थे। नर्मदा मंदिर के सामने वहाँ के पुजारियों ने आचार्य श्री की मंत्रोच्चार सहित भाव पूर्ण वंदना की। विभिन्न धमाँ के सभी लोग आचार्य श्री की आरती उतारते देखे गये।

     

    शोभा यात्रा नर्मदा मंदिर से होते हुए कल्याण आश्रम के आगे तक पहुँची। वहाँ से लौटकर ‘सर्वोदय तीर्थ' (पूजास्थल में) आ, विशाल सभा में परिणत हो गयी। उत्त अवसर पर भोपाल से पधारे युवा कवि चन्द्रसेन के मंगलाचरण के साथ ही मौनी बाबा ने अपने मार्मिक उद्बोधन में कहा कि हम यहाँ यह मत देखे कि कौन क्या कर रहा है? बल्कि यह देखें कि संतों का सम्मान बढ़ रहा है कि नहीं? उन्होंने धार्मिक एकता पर बल देते हुए कहा कि 'एक अंगुली दिखाने से उसे बुरा माना जाता है उसे कोई भी तोड़ सकता है किन्तु अंगुलियों का समूह (मुट्ठी) है, उसे उठाने से कोई नहीं तोड़ सकता है। इसी तरह पूरे भारत व भारतवासी की धर्म आराधना और साधना भले ही भिन्न हो किन्तु बाजार में अन्य देशों में हम एक हों। हमारी आवाज एक हो। आचार्यश्री को लक्ष्य कर उन्होंने कहा-आचार्यश्री में सही अर्थों में संतत्व है। बफनी आश्रम से पधारे 'पुरुषोत्तम दास जी” ने अमरकंटक का महत्व बतलाते हुए कहा कि-इस भूमि का काफी महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है-‘रेवा तटे तपः कुर्यात्' यहाँ संतों का आगमन हो रहा है। यहाँ के जैन बन्धुओं ने कम समय में बहुत काम किया ऐसा ही विकास करना चाहिए। अन्त में अंतिम दिन आचार्यश्री ने सबको आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह मांगलिक कार्य आदि से अंत तक मंगलमय तरीके से सम्पन्न हुआ। आत्म तत्व को परमात्म रूप में परिवर्तित कर देना ही धार्मिक कार्य का प्रयोजन है। उन्होंने कहा कि बाहरी विभाजन कोई महत्व नहीं रखते। विचारों का विभाजन ही वास्तविक विभाजन है। हमें सम्प्रदाय और शरीर तत्व के भेद भाव से परे प्राणी मात्र के कल्याण की भावना रखनी चाहिए। अन्त में उन्होंने कहा कि आपको जाते समय एक ही उपदेश है कि आप अजीव का सम्मान न करें। जीव मात्र की पहचान एवं उसका सम्मान करें।

    ‘महावीर भगवान् की जय'

    Edited by admin


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