पुनरावृत्ति हानिकारक है तथा मंजिल प्राप्ति में बाधक। मनुष्य का जीवन यदि वृत्त सम हो जाय तो पूर्णता की प्राप्ति तथा पुनरावृत्ति से मुक्ति मिल सकती है। भव्य जीवों ने पूर्णता प्राप्त कर ली, वे वृत्त हो गये। ऐसे वृत्तों के वृतांत जीवन में उतारते ही हमारी यात्रा पूर्ण हो सकती है और हम उस सुख को प्राप्त कर सकते हैं जिसे भगवान् ने प्राप्त किया है। संसारी प्राणी सुख की गवेषणा में रत रहता है किन्तु उसे सुख मिलता नहीं। लक्ष्य तक पहुँच ही नहीं पाता। वह। सारा का सारा संसार समस्याओं का संस्थान हो गया है क्योंकि हम यहाँ पर कर तो बहुत रहे हैं पर प्राप्त कुछ भी नहीं हो पा रहा। सन्त जन इस समस्यायुक्त संसार में भी समाधान निकालकर पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं यह उनकी विशेषता है।
सबकी अपनी-अपनी वृत्ति है, प्रवृत्ति है, किन्तु दुनियाँ उनसे सीखती है जो वृत्ति को स्वभाव के अनुरूप बना लेते हैं। वृत्ति को वृत्त-आकार का बनाते ही जीवन पूर्ण हो जाता है। वृत्त पूर्णता का प्रतीक है क्योंकि यह पूरे ३६० अंश का होता है। इसी तरह भगवान् स्वयं परिपूर्ण हैं अत: उनका वृतांत जीवन में उतारना हमारे लिये परिपूर्ण बना देता है। इस जीवन में ३६० अंश के अभाव में दुख अशांति के कोण बन रहे हैं और जब तक ये कोण बनते रहेंगे ३६० अंश का वृत्त नहीं बन सकता। भिन्न-भिन्न कोणों से बनी यह पराधीन यात्रा ठीक नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि वृत्त के विषय की जानकारी का अभाव है तथा यह वृत्ति ही भटकाने में कारण है। एक बार रोग के होने पर औषधि दी जाती है तो रोग ठीक हो जाता है किन्तु रोग की आवृत्ति बारम्बार होने से पुनरावृत्ति होती है जिसका निदान चिकित्सक के लिये असंभव हो जाता है तथा रोगी की स्थिति बिगड़ जाती है। ऐसे ही जीवन की पुनरावृत्ति होने से हम लक्ष्य से दूर होते जाते हैं। इस पुनरावृत्ति से एक बार छुटकारा मिलते ही इस जीव को मुक्ति मिल जाती है।
काल की परिधि में यह सारा का सारा विश्व ही एक सप्ताह में बँध गया। समयचक्र अपनी गति से घूम रहा है, रवि काल का प्रतीक है जिसमें रविवार भी आ जाता है। वस्तुत: वह नहीं आता हम ही उसके पास जाते हैं।पुनरावृति हमारी हो रही है, दिन-रात के इस प्रवाह में आयु बीत रही है। स्वभाव को भूलकर यह मनुष्य वृत्ति, आवृत्ति और पुनरावृत्ति में फंसा हुआ है इसलिये अब हमें वृत्ति को नहीं वृत्त को देखना है। इसी से सम्बन्धित एक विशेष बात और समझनी है कि पुस्तक प्रकाशन के समय पुनः-पुनः प्रकाशित करने पर उसमें प्रथमावृत्ति, द्वितीयावृत्ति आदि डाला जाता है किन्तु मनुष्य यदि एक ही काम को दो-चार बार करे तो उसे आवृत्ति न कहकर पुनरावृत्ति कहा जाता है। यह मनुष्य की दुहराई गई प्रवृत्ति के लिये एक संज्ञा विशेष है। स्वभाव, विभाव का विलोम है। चलना स्वभाव है और घूमना विभाव। वृत्त के वृतांत को देखकर अपनी वृत्ति सुधारें, वृत्त को धारे। भगवान् ऋषभदेव, भगवान् महावीर आदि का जीवन वृताकार होने से पूर्ण हो गया। इन महापुरुषों के वृतांतों को पढ़कर अपने जीवन में उतारने से उनके वृतांतों का प्रयोग अपने जीवन में लाने से पुनरावृत्ति से छुटकारा मिल जाता है। पटरी विद्यमान हो तो गाड़ी की गति सहज हो जाती है किन्तु पटरी के अभाव में गति असंभव तथा गति के अभाव में मंजिल की प्राप्ति भी असंभव हो जाती है। आपने देखा होगा, दिया तले अन्धेरा होता है किन्तु दिवाकर तले नहीं, इसका कारण है कि दिवाकर पूर्ण है-वृत्त है। इस वृताकार सूर्य पर भी जब राहू की छवि पड़ती है तो कोण बन जाता है तथा ग्रहण लग जाता है। कोणमय जीवन ग्रहण लगने के समान है, मोह रूपी ग्रहण जीवन को लगा है इसलिये जीवन कोण हो गया है।
जीवन का इतिहास आदर्श प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए। बुराई देखें अपनी और अच्छाई देखें सबकी, आदर्श प्रस्तुत करने की यही अच्छी विधा है। स्वाभाविक स्थिति है-धर्म की। इस केन्द्र पर स्थिर होने से वृत्त बनाना सहज है किन्तु अस्थिरता के कारण हम केन्द्र से हिल जाते हैं, अत: वृत्त नहीं बन पाता। पाँच पापों की पुनरावृत्ति अनवरत जारी है। यहाँ तक कि अरहंत परमेष्ठी भी वृताकार नहीं हैं, केवल सिद्ध परमेष्ठी ही वृत्तपने को प्राप्त हैं। सिद्ध परमेष्ठी का जीवन पूर्ण हो चुका है, अभी अरहंत परमेष्ठी भी अधूरे हैं, उन्हें भी पूर्ण वृताकार होना है। अपने जीवन को सुधारो बंधुओं! सुधारो क्या अब तो सु-धारो अर्थात् अच्छे ढंग से धारो, धारण करो, किन्तु क्या बतायें आपको, मुझे कविता की पंक्तियाँ याद आ गई -
इस युग में भी सतयुग सा सुधार तो हुआ है,
पर लगता है, उधार हुआ है।
अन्यथा कभी का हुआ होता उद्धार।
राहु के सामने आते ही जैसे रवि को ग्रहण लग जाता है ठीक वैसे ही हमारा जीवन पर पदार्थ से प्रभावित हो रहा है और पर पदार्थों को प्रभावित कर रहा है। मैं तो यही समझता हूँ कि यह मनुष्य का ही प्रभाव है कि ढाईद्वीप में रहने वाले सूर्य को ग्रहण लग जाता है। ढाई द्वीप से बाहर रहने वाले सूर्य में ग्रहण नहीं लगता क्योंकि वहाँ मनुष्य ही नहीं है। हमारा ज्ञान कमजोर है इसलिये पर पदार्थ से कभी प्रभावित होता है और कभी प्रभावित करता है। जबकि भगवान् का ज्ञान दर्पण की भाँति सब कुछ झलका तो देता है पर प्रभावित नहीं होता। यही हमारे और भगवान् के ज्ञान में अन्तर है। दर्पण के समान जीवन का हो जाना ही वृत्त का दर्शन है। यही भाव इस दोहे में दर्शाया गया है -
सब कुछ लखते पर नहीं प्रभु में हास विलास ।
दर्पण रोया कब हैंसा? कैसा यह संन्यास? ॥
हर्ष विषाद करते हैं किन्तु दर्पण हास परिहास नहीं करता। दर्पण की भाँति जीवन का हो जाना ही संन्यास है। संसारी प्राणी पूरा नहीं है फिर भी अपने को पूरा मान रहा है यह उसका मोह है, भ्रम है। इस मोह के विध्वंस के लिये स्वयं पर दृष्टिपात करें तथा आत्मकेन्द्र से हिले नहीं। जो जन शांति चाहते हैं वे स्थिरता धारें, वृत्ति धारें, वृत्त को आदर्श बनायें। वायुयान चालक का ध्यान दिशासूचक यंत्र पर होता है। यात्री कौन-कौन हैं? वे कैसे बैठे हैं? चालक यह नहीं देखता। थोड़ी भी चूक होने पर चालक तत्काल सम्हलता है और यान को भी सम्हालता है। जो स्वयं सम्हलता है और औरों को भी सम्हाल लेता है वही साधक की तरह अपना जीवन वृतमय बना लेता है। हम सभी का जीवन समस्याओं से परे/परिपूर्ण आनंददायी हो बस इसी भावना के साथ।