Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. मन का इंजन है तन धावमान है इंगित पथ पर, पर! उलझन में मन है कभी करता है ‘था’ में गमन ! कभी सम्भावित में भ्रमण-चंक्रमण कब करता है ? भावित रमण ! कभी विमन रहता कभी सुमन श्रमण का भी मन और कुछ भूला सा विगत में लौटा है दयार्द्र कण्ठ है कुछ कहना चाहता है कण्ठ कुण्ठित है लौट आ आशु गति से तन से कहता मन तुम साथ चलो हम तीनों अपराधी हैं तन-वचन और मन और तीनों आ सविनय कहते हैं पद-दलित-कंकरों को तुम लघुतम कण हो निरपराध हो, हम गुरुतम मन हो सापराध हैं तुम पर पद रख कर हिंसक हो, अहिंसक से पथ चलते गये, पर! प्रतिकूल गये भूल के लिए क्षमा-याचना तक भूल गये, लौट आये हैं अपराध क्षम्य हो अब कंकर बोलते हैं अपने मुख खोलते हैं अपने आचरण पर फूट फूट रोते हैं नहीं ..... नहीं ..... कभी नहीं इस विनय को हम स्वीकारते नहीं अन्यथा धरती माँ धारण नहीं करेगी हमें नीचे खिसकेगी सब सीमा - मर्यादायें .....ठस होंगी ... तारण - तरणों की चरण - शीलों की चरण - रज सर पर लेनी थी, हाय! किन्तु कठिन-कठोर हैं अधम घोर हैं हम सब तीन पहलूदार तीखे त्रिशूल.....शूल हैं हम स्थावर हैं परम पामर हैं निर्दय - हृदय शून्य, तुम चर हो जंगम चराचर बन्धु! सदय हो अभय - निधान सत्पथ पर यात्रित हो पदयात्री हो कर-पात्री हो, लाल-लाल हैं कमल-चाल है युगम पाद तल तुम सब के, छिल गये हैं जल गये हैं लहूलुहान हो और ललाई में ढल गये हैं जिनमें गोल-गोल आँवले से फफोले फोले पल गये हैं यह कठोरता की कृपा है हमारी अपवर्ग पथ पर चलते तुम उपसर्ग हुआ हमसे तुम पर उपकार दूर रहा अपकार भरपूर रहा तुम्हारे प्रति हमारा, अपराध क्षम्य हो तुम लौट आये कृपा हुई हम पर हम अपद हैं स्वपद हीन कैसे आते चलकर तुम तक, स्वीकार करो अब शत-शत प्रणाम और आशीष दो हम भी तुम सम शिव - पथ पथिक गुणों में अधिक .....बन सकें और... साधना की ऊँचाईयाँ शीघ्रातिशीघ्र चढ़ सकें ध्रुव की ओर ..... बढ़ सकें बन सकें हम अन्ततोगत्वा तुम सम् श्रमण और चमन!
  2. कहाँ क्या ? था विगत में .........ज्ञात नहीं अनागत की गात भी ........ अज्ञात ही आगत की बात है अनुकरण की नहीं जहाँ तक सत्य की बात है देश-विदेश में ..... भारत में भी सत्य का स्वागत है आबाल वृद्धों, प्रबुद्धों से किन्तु खेद इतना ही है कि सत्य का यह स्वागत बहुमत पर आधारित है |
  3. प्रकृति-प्रमदा प्रेम वश पुरुष से लिपटी हरिताभ हँस पड़ी प्रणय-कली महकी गन्ध भरी खुल-खिल पड़ी रक्ताभ लस रही किन्तु ! पुरुष सचेत है वह डूबा नहीं प्रकृति जिसमें डूबी है पुरुष की आँखों में हीराभ - मिश्रित नीलाभ बस रही |
  4. गन्ध की प्यास थी जिसे तरंग क्रम से आई हवा में तैरती, सुरभि सूँघती फूली नासा से पूछती हैं चंचल-आँखें, कौन-सी संवेदना में डूबी है जिसका दर्शन तक नहीं हो रहा है यहाँ भी है स्वाद की भूख नासा फुस-फुसाती है कहाँ भाग्यवती हो तुम! मकरन्द का स्वाद ले सको प्राप्य को नहीं, अप्राप्य को निकट से नहीं, दूर से निहारती हो तुम! सीमित ! दिखाती हूँ, चलो तुम साथ और फूला फूल तामसता की राग - राजसता की रक्ताभ ले व्यंगात्मक इतरों का उपहास करता हँसता दर्शित हुआ, पर! आँखें घबराती-सी कहती हैं सब कुछ रुचता है सब में मृदुता है पर! रक्ताभ राजसता चुभती है हमें और कलियों का जो हरीतिमा से भरी चुम्बन लेती प्रभु से प्रार्थना करती है हे हर्ष-विषाद-मुक्त! हरि-हर! हर हालत में हर सत्ता से हरीतिमा - हरिताभ फूटती रहे हँसती रहे धन्य...!
  5. डूबता हुआ विश्व पा जाये कुल - किनारा और एक तरण-तारण नाव मिली प्रभु से उस पर कौन-कौन आरूढ़ हुआ ? प्रभु जानते हैं और अपना-अपना मन पता नहीं आज वह नाव जीवित है क्या ? नहीं किन्तु नाव की रक्षा हो एतदर्थ एक परियोजना हुई और वह जीवित है चुनाव...!
  6. हम तट पर ठहरें आ रही हैं हमारे स्वागत के लिए ...... साथ लिए हास्य - मुखी मालायें लहरों पर लहरें गरदन झुकी हमारी झुकी रह गई मन की आस मन में रुकी ही रह गई पता नहीं चला कहाँ वह गई पल भर में, निडर होकर हम भी खतरे से खतरे गहरे से गहरे पानी में उतरे ..... उतरते ही गये और हमने पायी चारों ओर जलीय सत्ता ...! धीमी-धीमी श्वास भरती हमें ताक रही चाव से वह हमें रुचती नहीं और हम खाली हाथ लौटते - लौटते यकायक सुनते हैं कुछ सूक्तियाँ, कि प्रकृति को मत पकड़ो पर! परखो उसे वे क्षणिकायें हैं पकड़ में नहीं आतीं भ्रम - विभ्रम की जनिकायें हैं, तुम पुरुष हो, पुरुषार्थ करो कभी न होना किसी से प्रभावित भावित सत् से होना ‘जो है’ इसी विधि से कई पुरुष विगत में उस पार उतरे हैं और निराशता के बदले आज गहन गंभीरता से भर....भर....भरे जा रहे हमारे ये चेहरे।
  7. यह जो तन है मेरा वतन नहीं है तन का पतन मेरा पतन नहीं है प्रकृति का आयतन है, जन-मन-हारक नर्तन परिवर्तन .....वर्तन अचेतन है फिर, इसका क्यों हो गीत...गान...कीर्तन ? इसका तनातन स्थायी बनाने का और यतन सब का स्वभाव-शील है कभी उत्थान, कभी पतन मैं प्रकृति से चेतन हूँ प्रकाश-पुंज रतन हूँ सनातन हो नित-नूतन ज्ञान - गुण का केतन मेरा वतन है वेदन - संवेदन अनन्त वेतन है इसलिए मैं बे-तन हूँ |
  8. अरे ! मन तू रमना चाहता है श्रमण में रम चरम चमन में रम सदा-सदा के लिए परम नमन में रम चरम में चरम सुख कहाँ ? इसलिए अब स्वप्न में भी भूलकर नरम-नरम में न ..... रम! न ..... रम!
  9. एक हाथ में दीया है एक हाथ की ओट दिया हवा से बुझ न पाये, अपना श्वाँस भी बाधक बना है आज, टिम टिमाता जीवित है जीवन - खेल स्वल्प बचा है दीया में तेल तेल से बाती का सम्बन्ध भी लगभग टूट चुका है, जलती-जलती बाती के मुख पर जम चुका है कालुष कालिख मैल, श्वास क्षीण है दास दीन है किन्तु आस अबुझ नित-नवीन प्रभु-दर्शन की कब हो मेल कब हो मेल...?
  10. इष्टानिष्ट के योगायोग में श्रमण का मन अनुकूलता का हर्ष का प्रतिकूलता का विषाद का यदि अनुभव नहीं करता तब यह नियोग है कि उसी के यहाँ प्रतिदिन पानी भरता है और प्राँगण में झाडू लगाता है ‘योग’ और विराग की वेदी पर आसीन होता है शुचि-उपयोग भोक्ता पुरुष...!
  11. जिस वक्ता में धन - कंचन की आस और पाद - पूजन की प्यास जीवित है, वह जनता का जमघट देख अवसरवादी बनता है आगम के भाल पर घूँघट लाता है कथन का ढंग बदल देता है, जैसे झट से अपना रंग बदल लेता है गिरगिट।
  12. धर्म-कर्म से विमुख होकर पाप-कर्म में प्रमुख होकर अनुचित रूप से धनार्जन कर मान का भूखा बन दान करने की अपेक्षा समुचित रूप से आवश्यक धन का अर्जन कर, बिना दान भी जीवन चलाना पुण्य की निशानी है। कीचड़ में पद रख कर लथपथ हो निर्मल जल से स्नान करने की अपेक्षा कीचड़ की उपेक्षा कर दूर रहना ही बुद्धिमानी है।
  13. आम तौर से पके आम की यही पहचान होती है हाथ के छुवन से मृदुता का अनुभव फूटती पीलिमा तैर आती नयनों में। फूल समान नासा फूलती है सुगन्ध सेवन से। फिर! रसना चाहती है रस चखना मुख में पानी छूटता है तब वह क्षुधित का प्रिय भोजन बनता है। यही धर्मात्मा की प्रथम पहचान है, मेरा सो खरा नहीं खरा सो मेरा वाणी में मृदुता तन-मन में ऋजुता नम्रता की मूर्ति तभी तो भव से प्राणी छूटता है मुक्ति उसे वरना चाहती है और वह उसका प्रेम-भाजन बनता है |
  14. पंच कल्याणक में गर्भ से लेकर मोक्ष तक का मंचन - समाज के अविनाश जैन ने पंच कल्याणक महोत्सव के बारे में बताया कि यह प्राण-प्रतिष्ठा उत्सव की तरह ही है। बस फर्क इतना है कि इसमें भगवान के गर्भ मेंहने से लेकर मोक्ष प्रप्त करने तक की क्रियाओं का चित्रण किया जात है। सजीव लघु नाटिका के साथ पांच दिनों तक दिखाया जाता है कि कैसे भगवान गर्भ में रहे, कैसे उन्होंने जन्म लिया, कैसे दीक्षा ली, ज्ञान अर्जित किया । और अंत में मोक्ष प्राप्त किया। इन सभी क्रियाओं के बीच ही अंतिम दिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि पूरी हो जाती है। लाभांडी में चल रहे पंच कल्याणक में आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में । सभी विधियाँ और क्रियाएँ पूरी की जा रही हैं। पंच कल्याणक के पांच दिन में इनका चित्रण - पहले दिन - गर्भ कल्याणकः जब तीर्थंकर प्रभु की आत्मा माता के गर्भ में आती है। दूसरे दिन - जन्म कल्याणक: जब तीर्थंकर बालक आदि कुमार का जन्म होता है। तीसरे दिन - दीक्षा कल्याणकः जव तीर्थंकर सब कुछ त्यागकर वन में जाकर मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं। चौथे दिन - केवल ज्ञान कल्याणकः जब तीर्थंकर को केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। पांचवें दिन - मोक्ष कल्याणकः जब भगवान शरीर का त्यागकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। लाभांडी के शांति नगर में चल रहे पंच कल्याणक महोत्सव में हर दिन भगवान आदिनाथ के जीवन के प्रसंगों का मंचन कर अनुष्ठान पूरे किए जा रहे हैं।बुधवार को यहां भगवान आदिनाथ के गर्भकाल का मंचन किया गया था। गुरुवार को धर्मसभा में हजारों की संख्या में मौजूद श्रद्धालुओं के बीच बालक आदि कुमार का जन्म हुआ। सौधर्म इंद्राणी बालक को लेकर श्रद्धालुओं के बीच पहुंचीं। यह सब कुछ एक लधु नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया गया। धर्मसभा के लिए बना पंडाल भगवान के जयकारों से गूंजने लगा। इस दौरान हर कोई भगवान के दर्शन को आतुर नजर आया। भगवान की मोहक प्रतिमा को करीब पाकर कई श्रद्धालु भक्तिभाव में भावुक होते नजर आए। आयोजन के लिए विदिशा से आए समाज के अविनाश जैन ने बताया कि प्रातः काल हस्तिनापुर नगरी में राजा नाभीराय के यहां माता मरूदेवी से बालक का जन्म हुआ। धनपति कुबेर के आदेश से ऐरावत ह्यथ पर सौधर्म इंद्र सचि इंद्राणी को बैठाकर मध्यलोक में प्रवेश करता है और गंधर्व 700 करोड़ देवों के साथ भगवान का जन्मोत्सव मनाने स्वर्ग से उतर कर ऐरावत ह्मथी पर आते हैं। इसी प्रसंग के साथ लाभांड़ी में पंचकल्याणक स्थल पर ऐरावत हाथी पर सौधर्म इंद्र अपनी इंद्राणी के पात्र अपने इंद्र परिवार के साथ पंडाल के पास बने पांडुक शिला का स्वर्ण एवं रजत कलशों से अभिषेक किया। गुरुवार को आहार के सौभाग्यशाली नरेंद्र कुमार जैन थे। गुरुवार को धर्मसभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत प्रचारक प्रेमजी, कनीरामजी, दीपक विस्पुते, केबिनेट मंत्री अमर अग्रवाल, चेंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष जैन जितेंद्र बरलोटा ने आचार्य विद्यासागर से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया।
  15. कृपा पालित कपालवाली अनुभव-भावित भालवाली ओ! ‘आदिम सत्ता’ कृपा पात्र तो बना ही दिया इसे... चिर से युगों-युगों से चुभते थे जीवन के गहन मूल में दुखद अभावों के शूल भावों स्वभावों में ..............ढले, बदले आज वे सुखद फूल हो गये। जीवन - पादप पतित-पात था पलित - गात था कषाय तपन के तीव्र ताप से आज....... सलिल का सिंचन हुआ शीतल - शीतल अनिल का संचरण हुआ सुर - तरु से हरे - भरे आमूल - चूल हो गये, सुरपति - पदवी भव - भव वैभव पाने मन की खटिया पर वयोवृद्धा आशा जीवित थी आज तक दिवंगत हुई वह, अब सब कुछ बस जीर्ण-शीर्ण तृण सम धूल हो गये सब के सब मन से बहुत दूर भूल हो गये |
  16. कोई हरकत नहीं है हरगिज कह सकता हूँ यह हकीकत है कि हरवक्त हर व्यक्ति का दिमाग चलता तो है, यदि संयत हो तो वरदान होता है सुख-सम्पादन में एक तान होता है किन्तु विषयों का गुलाम हो तो ..... और बे-लगाम हो तो कमबख्त ! खतरनाक शैतान होता है |
  17. पर-पर फूल रहा था बार-बार तन-रंजन में व्यस्त रहा था चिर से भूल रहा था लोकैषणा की प्यास, आस मेरे आस-पास ही घूमती थी, जनरंजन में व्यस्त रहा था क्या तो इसका मूल रहा था कारण अकारण ! मनरंजन में मस्त रहा था काल प्रतिकूल रहा था भ्रम-विभ्रम से भटकता-भटकता मोह प्रभंजन में त्रस्त रहा था, किन्तु आज शूल भी फूल रहा है सुगंधित महक रहा है नीराग-निरंजन में, चिर से पला कंदर्प-दर्प ध्वस्त रहा है यह सब आपकी कृपा है हे प्रभो !
  18. From the album: छत्तीसगढ़ शासन के कैबिनेट मंत्री माननीय श्री अमर अग्रवाल जी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए ।

    छत्तीसगढ़ शासन के कैबिनेट मंत्री माननीय श्री अमर अग्रवाल जी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए । आचार्य श्री से आशीर्वाद प्राप्त कर माननीय अमर अग्रवाल जी ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी से बिलासपुर आगमन की विनती की । माननीय मंत्री जी के साथ समिति के स्वागताध्यक्ष सुरेन्द्र पाटनी व राजेश रंजन जैन भी थे ।
  19. साधना 2 - मोक्षमार्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/saadhna-mokshmarg/
×
×
  • Create New...