पर-पर फूल रहा था
बार-बार
तन-रंजन में
व्यस्त रहा था
चिर से भूल रहा था
लोकैषणा की प्यास, आस
मेरे आस-पास ही
घूमती थी,
जनरंजन में
व्यस्त रहा था
क्या तो
इसका मूल रहा था
कारण अकारण !
मनरंजन में
मस्त रहा था
काल प्रतिकूल रहा था
भ्रम-विभ्रम से
भटकता-भटकता
मोह प्रभंजन में
त्रस्त रहा था,
किन्तु आज
शूल भी फूल रहा है
सुगंधित महक रहा है
नीराग-निरंजन में,
चिर से पला
कंदर्प-दर्प
ध्वस्त रहा है
यह सब आपकी कृपा है
हे प्रभो !