गन्ध की प्यास थी जिसे
तरंग क्रम से आई
हवा में तैरती, सुरभि सूँघती
फूली नासा से पूछती हैं
चंचल-आँखें,
कौन-सी संवेदना में डूबी है
जिसका दर्शन तक
नहीं हो रहा है
यहाँ भी है स्वाद की भूख
नासा फुस-फुसाती है
कहाँ भाग्यवती हो तुम!
मकरन्द का स्वाद ले सको
प्राप्य को नहीं, अप्राप्य को
निकट से नहीं, दूर से
निहारती हो तुम! सीमित !
दिखाती हूँ, चलो तुम साथ
और फूला फूल
तामसता की राग - राजसता की
रक्ताभ ले व्यंगात्मक
इतरों का उपहास करता
हँसता दर्शित हुआ,
पर! आँखें
घबराती-सी कहती हैं
सब कुछ रुचता है
सब में मृदुता है
पर!
रक्ताभ राजसता
चुभती है हमें
और कलियों का
जो हरीतिमा से भरी
चुम्बन लेती
प्रभु से प्रार्थना करती है
हे हर्ष-विषाद-मुक्त!
हरि-हर!
हर हालत में
हर सत्ता से
हरीतिमा - हरिताभ
फूटती रहे
हँसती रहे
धन्य...!