मन का इंजन है
तन धावमान है
इंगित पथ पर,
पर! उलझन में मन है
कभी करता है ‘था’ में गमन !
कभी सम्भावित में
भ्रमण-चंक्रमण
कब करता है ? भावित रमण !
कभी विमन रहता
कभी सुमन
श्रमण का भी मन
और कुछ भूला सा
विगत में लौटा है
दयार्द्र कण्ठ है
कुछ कहना चाहता है
कण्ठ कुण्ठित है
लौट आ आशु गति से
तन से कहता मन
तुम साथ चलो
हम तीनों अपराधी हैं
तन-वचन और मन
और तीनों आ
सविनय कहते हैं
पद-दलित-कंकरों को
तुम लघुतम कण हो
निरपराध हो,
हम गुरुतम मन हो
सापराध हैं
तुम पर पद रख कर
हिंसक हो, अहिंसक से
पथ चलते गये,
पर!
प्रतिकूल गये
भूल के लिए
क्षमा-याचना तक
भूल गये,
लौट आये हैं
अपराध क्षम्य हो
अब कंकर बोलते हैं
अपने मुख खोलते हैं
अपने आचरण पर
फूट फूट रोते हैं
नहीं ..... नहीं ..... कभी नहीं
इस विनय को हम स्वीकारते नहीं
अन्यथा धरती माँ
धारण नहीं करेगी हमें
नीचे खिसकेगी
सब सीमा - मर्यादायें
.....ठस होंगी ...
तारण - तरणों की
चरण - शीलों की
चरण - रज
सर पर लेनी थी,
हाय! किन्तु
कठिन-कठोर हैं
अधम घोर हैं
हम सब
तीन पहलूदार तीखे
त्रिशूल.....शूल हैं
हम स्थावर हैं
परम पामर हैं
निर्दय - हृदय शून्य,
तुम चर हो जंगम
चराचर बन्धु!
सदय हो अभय - निधान
सत्पथ पर यात्रित हो
पदयात्री हो
कर-पात्री हो,
लाल-लाल हैं
कमल-चाल है
युगम पाद तल
तुम सब के,
छिल गये हैं
जल गये हैं
लहूलुहान हो
और ललाई में
ढल गये हैं
जिनमें
गोल-गोल आँवले से
फफोले फोले
पल गये हैं
यह कठोरता की
कृपा है हमारी
अपवर्ग पथ पर चलते तुम
उपसर्ग हुआ
हमसे तुम पर
उपकार दूर रहा
अपकार भरपूर रहा
तुम्हारे प्रति हमारा,
अपराध क्षम्य हो
तुम लौट आये
कृपा हुई हम पर
हम अपद हैं
स्वपद हीन
कैसे आते चलकर तुम तक,
स्वीकार करो अब
शत-शत प्रणाम
और आशीष दो
हम भी तुम सम
शिव - पथ पथिक
गुणों में अधिक
.....बन सकें
और...
साधना की ऊँचाईयाँ
शीघ्रातिशीघ्र चढ़ सकें
ध्रुव की ओर ..... बढ़ सकें
बन सकें हम
अन्ततोगत्वा
तुम सम् श्रमण
और चमन!