लेखनी लिखती है कि-
गुरु प्रभावित नहीं होते शिष्य से
किंतु प्रसन्न अवश्य होते
जब वह प्रभु वाणी को स्वीकारता,
गुरु द्वेष नहीं करते शिष्य से
किंतु खिन्न अवश्य होते
जब वह भगवत् वाणी को नकारता।
शिष्य का अच्छा खानदान देख
गुरु स्नेह नहीं करते,
देखकर शिष्य का ज्ञान-ध्यान
गुरु वात्सल्य रूप दृष्टि रखते।
खानदान तन का होता
तन एक दिन छूटता है,
ज्ञान-ध्यान चेतन का होता
आतम तो शाश्वत रहता है।
देह का सुंदर रंग रूप
वचन हो मधुर बहुत
पर सरल,विनम्र नहीं यदि
तो गुरु नहीं देते शरण
शिष्य रूप में करते नहीं वरण;
क्योंकि गुरु मानवीय गुणों से ऊपर उठ गये
परमात्मा के अति निकट पहुँच गये
शिष्य में कम से कम होनी चाहिए
मानवोचित प्रकृति,
उसके आचरण में होनी ही चाहिए
सदाचरण रूप प्रवृत्ति ।
गुरुदेव का कहना है कि-
भूमि उर्वरा है तो फसल अच्छी आएगी
मति यदि अच्छी है तो गति अच्छी होएगी
इसीलिए न सही महान्
बन जाओ अच्छे इंसान
यदि नेक इंसान भी नहीं बन पाते हो
तो एक बार श्रीविद्यासागरजी गुरु की शरण में
क्यों नहीं आते हो?