इधर माटी खोदने की क्रिया पूर्ण हुई और शिल्पी उसे दोनों छोरों से बन्द किन्तु बीच में एक तरफ से खुली (खुरजी) बोरी में अपने दोनों हाथों से खुदी माटी भर रहा है। पूरी भरी हुई बोरी में से ऊपर के ओर की भोली माटी ऐसी लग रही है, मानो सुन्दर साड़ी और वस्त्राभूषणों से सुसजित, लज्जा (शर्म, मर्यादा) का अनुभव करने वाली, लघु उदर (पेट) वाली, नवविवाहिता स्त्री घूंघट में से बाहर की ओर ही झांक रही हो।
"सतियों को भी
यतियों को भी प्यारी है
यही प्राचीना परिपाटी।
इसके सामने
बन्धन-विरहित-शीला
नूतन-नवीना
इस युग की जीवन-लीला
कीमत कम पाती है।" (पृ. 31)
यह घूंघट और आवरण की परम्परा ऋषि-मुनियों और साध्वियों को भी प्रिय है क्योंकि इस मर्यादा के कारण ही जीवन सात्विक और उन्नत बनता हुआ सम्मान पाता है। किन्तु वर्तमान युग में लौकिक मर्यादाओं एवं लजा को छोड़ आधुनिकता और फैशन में डूबी नवीन जीवन लीला, उस प्राचीन परम्परा के सामने कुछ भी मूल्य नहीं पाती है।
सात्विक माटी के गालों में छेद से दिख रहे थे, जिसे देखकर शिल्पी विचारता है कि क्या कारण हो सकता है इन छेदों का? और स्वयं ही माटी से पूछता है-हे! सुन्दर आचरण वाली माटी! तुम्हारे गालों में छेद क्यों है? कारण जानना चाहता हूँ। यदि कोई बाधा ना हो तो बताने का प्रयास करोगी।