लेखनी लिखती है कि-
गुरु की वृत्ति है वंदनीय
अनुभूति है अनुकरणीय
परिणति है पूज्यनीय
आत्मरुचि है अभिवंदनीय।
गुरुदेव जब होते हैं मुखर
तो ऐसा लगता
ज्ञानधारा को उतार रहे धरा पर
जब वे मौन में डूबते तो लगता
स्थिर हो गये हो ज्ञान गगन पर
जिनका सम्यक् आचरण लख
शिष्यों में जागती है श्रद्धा की उमंग
जिनके आगम वचन श्रवण कर
हृदय सरवर में उठती आनंद तरंग।
शास्त्रों का ज्ञान,भेद विज्ञान
भक्ति की फुहार, आनंद बयार
दृढ़ संकल्प, चेतन अविकल्प
लक्ष्य वीतराग विज्ञान, करते निज ध्यान
व्यवहार में हारते नहीं वे
निश्चय को तजते नहीं वे।
जिनके प्रवचन परमार्थ की
जगाते हैं अभिलाषा
जो बोलते हैं पथ प्रदर्शक बन
प्रभु की ही भाषा,
जो गिरि सम उन्नत
सागर सम गहन
अवनि सम सहनशील
सरिता सम गतिशील
लगते हैं वे अपने, अपनों से भी अधिक
जो देने आये हैं सिद्धों का समाचार
ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी को मेरा वंदन बारंबार।