लेखनी लिखती है कि-
सद्गुरु हैं माँ की तरह
माँ बालक का तन गंदा देख नहीं सकती;
क्योंकि संतान के प्रति ममता रहती
गुरु शिष्य का मैला मन देख नहीं सकते;
क्योंकि गुरु में समता की रसधार बहती।
रगड़-रगड़ कर साबुन से नहलाती माँ
बच्चा रोता रहता बीच-बीच में सहलाती माँ
उदंडता मिटाकर विनम्रता सिखाते गुरु
गलती करने पर देकर प्रायश्चित
भेदज्ञान साबुन से शुद्ध कराते गुरु
दिशाओं के अंबर ओढ़ाकर
सहनशीलता की धरा पर
क्रीड़ा कराते हैं गुरु
इधर-उधर बिखरे परिणाम रूपी बालों को
वैराग्य की कंघी से सँवारते हैं गुरु
ज्ञान का अंजन लगाकर
अंतर्नयनों में दिव्यता लाते हैं गुरु
प्रभु-मिलन के अवसर पर
संयम से शृंगारित करते हैं गुरु
फिर स्वयं ही निहारते अपने ज्ञान-दर्शन दो नयनों से
देख पवित्र शिष्य को हर्षाते हैं गुरु
कहीं लग न जाये कर्मों की नजर
इसीलिए संकल्प का डिठौना लगाते हैं गुरु।
शिष्य एक गलती अवश्य करता है कि
वह गुरु को अपना सर्वस्व मानता है।
नहीं लगा पाता गुरु के विषय में अध्यात्म;
क्योंकि गुरु ही दिखाते हैं परमार्थ।
गुरु से ही आँखें मूंद ले
तो अंतर्यात्रा कैसे कर पायेगा
इसीलिए प्रथम भूमिका में
शिष्य गुरु को ही पुकारेगा
फिर आगे आचार्यश्री विद्यासागरजी जैसे गुरु का
करके अनुकरण शिवधाम पहुँच जायेगा।