लेखनी लिखती है कि-
शिष्य ही जब शिष्य बनाने लगता है
गुरु के लिए नहीं
अपने लिए चुनने लगता है
तब वह शिष्य कहाँ रह जाता है?
भक्तों का लगाकर जमघट
अपना थोथा ज्ञान बाँटने लगता है
तब वह शब्द ज्ञानी सही मायने में
गुरु कहाँ कहलाता है?
लेकिन स्वार्थवश गुरु समक्ष
स्वयं को शिष्य कहता है
औरों के समक्ष मान अहंकार के वश
स्वयं को गुरु मानता है
तब स्वयं तो डूबता ही है
अपने भक्तों को भी ले डूबता है
इससे तो भला है रहना अकेला
क्योंकि जैसा गुरु वैसा चेला
जैसी नदियाँ वैसी धारा।
पत्थर की नाव दिखती सुंदर
पर बैठने वालों को डुबा देती है
अनुभव हीन शब्दों की वार्ता
जल्दी ही चेतना को ऊबा देती है
इसीलिए शिष्य बनाना ही है तो
अपने विकारी चंचल भावों को
अपना शिष्य बना लो
गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान से
एकांत में अच्छे से समझा दो
इससे अधिक श्रेष्ठ ज्ञान का सदुपयोग क्या होगा?
जो स्वयं को सुधार न पाया
उससे औरों का सुधार क्या होगा?
एक बार जी भरकर देखो विद्याधर को
समझ जाओगे सच्चा शिष्य कहते किसको।